🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*(ग्रन्थ ५) अथ स्वप्नप्रबोध१*
.
(१. स्वप्नप्रबोध ग्रन्थ में स्वप्न का दृष्टांत संसार में घटाया है । जैसे स्वप्न के पदार्थ स्वप्न में सच्चे दीखते हैं और जागने पर झूंठै, वैसे ही संसार मिथ्या जाना जाता है जब ज्ञान रूपी जाग्रत् अवस्था प्राप्त होती है । नाम-रूपात्मक जगत् का प्रपंच तुरियावस्था में असत्य प्रतीत होता है ।) 
. 
{इस ग्रन्थ में श्रीस्वामीजी ने यह दिखाया है कि जिस प्रकार कोई सोता हुआ व्यक्ति स्वप्न में अनेक पदार्थ और विचित्र बातें देखता है और जब तक स्वप्न रहता है उन सब बातों को सत्य और यथार्थ समझता है, परन्तु जब जागता है तो जाग्रदवस्था की अपेक्षा स्वप्नावस्था को मिथ्या समझता है । क्योंकि स्वप्न जैसा भासता था वैसा जाग्रदवस्था में विद्यमान नहीं मिलता । 
उसी प्रकार यह स्थूल संसार परम तत्व रूपी जाग्रदवस्था प्राप्त होने पर सापेक्षतया स्वप्नवत् मिथ्या या बाजीगर के खेल की भांति अयथार्थ प्रतीत होता है । जिस साधक को अन्तर्दृष्टि या लिंगशरीर अथवा कारणशरीर की सिद्धि प्राप्त हो जाती है उसी को इस बात का आभास होने लग जाता है । यदि किसी को परम शुद्ध तत्व निजानन्द अवस्था(तुरियावस्था) प्राप्त हो जाय उसको यह नामरूपात्मक संसार हस्तामलकवत् मिथ्या दिखायी देगा ही ।} 
. 
*= दोहा =* 
*स्वप्नै मैं मेला भयौ, स्वप्नै मांहिं बिछोह ।* 
*सुन्दर जाग्यौ स्वप्न तें, नहीं मोह निर्मोह ॥१॥* 
महाराज कहते हैं - स्वप्न में किसी इष्ट मित्र या नारी के साथ सम्मलेन हो जाय, और कुछ देर बाद स्वप्न में ही वह उससे बिछुड़ भी जाय । स्वप्न टूटने पर वह व्यक्ति जाग्रदवस्था में न उन स्वप्न में मिले व्यक्तियों का मिलना ही सत्य समझाता है न बिछुड़ना ही । अतः उनके साथ मिलने का न उसे कोई मोह रह जाता है, न बिछुड़ने का विरह ॥१॥ 
. 
*स्वप्नै मैं संग्रह कियौ, स्वप्नै ही मैं त्याग ।* 
*सुन्दर जाग्यौ स्वप्न तें, ना कछु राग बिराग ॥२॥* 
स्वप्न में किसी को अपार धन मिल जाय और उसी अवस्था में छिन भी जाय तो जाग्रदवस्था में उसकी अयथार्थता सिद्ध हो जाने के कारण उस धन के प्रति उस विवेकी पुरुष का न तो कोई राग रह जाता है, न वैराग्य ॥२॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें