रविवार, 9 अप्रैल 2017

= विन्दु (२)९६ =

#daduji

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*= विन्दु ९६ =*
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*पाणिनि दर्शन : -* 
शब्द के बिना ज्ञान प्रतीत नहीं होता है, प्रत्येक ज्ञान में अर्थ के साथ शब्द भी विषयतया प्रतीत होता है । जैसे अर्थ ब्रह्म का विवर्त्त संसार है, वैसे पाणिनि दर्शन शब्द ब्रह्म का विवर्त्त संसार को मानता है । सब अर्थ शब्द द्वारा ही प्रतीत होते हैं । इसी शब्दार्थ सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए दादूजी ने भी बन्ध, मोक्ष, ज्ञान आदि सभी की प्राप्ति शब्द द्वारा कही है - 
“शब्दैं बंध्या सब रहैं, शब्दैं ही सब जाय । 
शब्दैं ही सब ऊपजे, शब्दैं सवै समाय ॥ 
शब्दैं ही सचु पाइये, शब्दैं ही संतोष । 
शब्दैं ही सु स्थिर भया, शब्दैं भागा शोक ॥ 
शब्दैं ही सूक्षम भया, शब्दैं सहज समान । 
शब्दैं ही निर्गुण मिलैं, शब्दैं निर्मलज्ञान ॥ 
शब्दों माँहीं रामधन, जे कोइ लेय विचार । 
दादू इस संसार में, कबहूं न आवे हार ॥” 
उक्त साखियों से ज्ञात होता है - शब्द और अर्थ का तादात्म्य संबन्ध है । शब्द नित्य होने से शब्द और अर्थ का सम्बन्ध भी नित्य है । शब्द नित्यत्ववादी वैयाकरण तथा मीमांसक दोनों इसमें एक मत हैं । जब शब्द और अर्थ का शाश्वत सम्बन्ध है, तब तो सृष्टि अर्थ ब्रह्म से होती है, वह शब्द ब्रह्म से भी अवश्य होती है । ओंकार की अव्यक्त तुरीय मात्रा नाद - रूप शब्द ब्रह्म है । उसी से त्रिमात्रा रूप ओंकार की उत्पत्ति होती है फिर उससे संपूर्ण जगत की उत्पत्ति होती है । यही कहा भी है - 
ॐकार प्रभवाः देवा, ओंकार प्रभवाः स्वराः । 
ओंकार प्रभवं सर्व, त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ 
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इसी प्रकार का वर्णन दादूवाणी में भी मिलता है - 
“पहले किया आप तैं, उत्पत्ति ओंकार । 
ओंकार से ऊपजे, पंच तत्त्व आकार ॥ 
पंच तत्त्व तैं घट भया, बहु विधि सब विस्तार ।
दादू घट तैं ऊपजे, मैं तैं वर्ण विचार ॥ 
उक्त साखियों से में स्थूल पंच तत्त्व की उत्पत्ति बताई है, क्योंकि आकार स्थूलता बिना नहीं हो सकता, किन्तु अर्थ सृष्टि में ओंकार से सीधे स्थूल पंच महाभूत नहीं उत्पन्न होते हैं । बुद्धि आदि क्रम तथा सूक्ष्म भूतादि क्रम से होते हैं । वैयाकरण प्रतिपादित सिद्धांत में इसी से अकरादि व्यक्त वर्णों की उत्पत्ति होती है, सोई कहा है - “मैं तैं वर्ण विचार ॥” जिस ओंकार से पंच तत्त्वों की उत्पत्ति द्वारा इस घट की उत्पत्ति होती है, उसी घट से हृदयाकाश द्वारा फिर ओंकार की उत्पत्ति होती है । इसी रहस्य को दादूजी ने इस साखी से बताया है - 
“पंच ऊपना शब्द से, शब्द पंच से होय । 
सांई मेरे सब किया, बूझे विरला कोय ॥” 
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उक्त प्रकार शब्द द्वारा सृष्टि का निरूपण किया है । वेदान्त रीति से शब्द द्वारा सृष्टि उत्पत्ति प्रक्रिया - ओंकार रूप मायी ईश्वर से अकाशादि क्रम से पांच भूतों की तथा भौतिक वर्ग की सृष्टि होती है । इसी प्रकार तैत्तिरीय श्रुति प्रति पादन करती है - 
“तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, 
वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्भ्यः पृथ्वी, पृथिव्या ओषधंयः, ओषधिभ्योsन्न्म् ।” इत्यादि । उक्त श्रुति में आत्म पद ईश्वर का बोधक है, शुद्ध चेतन का नहीं है, यह पंचदशी आदि ग्रंथों में कहा गया है । ओंकार शब्द ब्रह्म जन्य हो व माया विशिष्ट चैतन्य रूप ईश्वर हो, जन्य व माया विशिष्ट होने से अनित्य तथा कल्पित तत्त्व है, पारमार्थिक नहीं है । शब्द ब्रह्मवादी वैयाकरण और परब्रह्म वादी वेदांती दोनों ही ब्रह्म से भिन्न सभी वस्तुओं को कल्पित मिथ्या व माया रूप ही मानते हैं ।
(क्रमशः)

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