बुधवार, 27 दिसंबर 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १९६*

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*दोष अनेक कलंक सब, बहुत बुरे मुझ मांहि ।*
*मैं किये अपराध सब, तुम तैं छाना नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९-१२)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१९६ निज दोष । कहरवा
मो सो पतित न पापी और,
प्रथम देह धरि नाम विसार्यो, अरु तरुणी१ तन त्यौर२ ॥टेक॥
चरण विमुख चूक्यो३ इहिं अवसर, करत दशों दिशि दौर ।
देखो हरत४ परत दोय हारे, स्वर्ग नरक नहिं ठौर ॥१॥
अति अपराध कृतघ्न प्राणी, दे दे पार्यो कौर५ ।
सो प्रति पाल पिछान पीठ दई, इहिं चोरी भयो चोर ॥२॥
बहुत ज्ञान गुण सीख साँच बिन, गहत झूठ झकझोर६ ।
रज्जब कहै रामजी केतक, सब गुनहन शिर मौर ॥३॥४॥
निज दोष दिखा रहे हैं -
✦ मेरे समान पतित और पापी दूसरा कोई भी नहीं है । पहले तो देह धारण करके मैं प्रभु का नाम भूल गया हूं, फिर युवावथा में युवति१ पर दृष्टि२ डालता रहा हूं ।
✦ प्रभु के चरणों से विमुख होकर इस सुअवसर को खो३ दिया है । सांसारिक विषयों के लिये दशों दिशा में दौड़ लगा रहा हूं । देखो, विषयों का अपहरण४ करते करते मैं इतना गिर गया हूं कि - स्वर्ग नरक दोनों को ही हार गया हूं । स्वर्ग और नरक दोनों ही मे मुझे स्थान नहीं है ।
✦ मैं अति अपराधी और कृतघ्न प्राणी हूं, जिनने टुकड़ा५ दे देकर मुझे पाला है उन मेरे रक्षक प्रभु को पहचानकर भी मैंने पीठ देदी है । इस चोरी के कारण मैं चोर हूं,
✦ सत्य के बिना बहुत से गुण और ज्ञान सीख कर भी बड़े वेग६ झूठ को ही ग्रहण कर रहा हूं । हे रामजी ! मैं कितनेक दोष कहूं,मैं तो सब दोषियों में शिरोमणी हूं । इस पद में अपने ऊपर लेकर दोषियों के दोष दिखाये हैं ।
(क्रमशः)

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