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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १३७/१४०*
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ए रस रूपी रांमजी, जा४ जहां निरमल नांम ।
कहि जगजीवन बरण दोइ, पंडित पावहिं धांम ॥१३७॥
(४. एजा=पूर्वोक्त के अनुसार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ए से रामसिमरण रुपी रस है, और वह वहां है जहां प्रभु का निर्मल नाम भक्ति पूर्वक लिया जाता है । इन दो वर्णों के ही ज्ञाता अपने धाम को पा जाते हैं ।
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रा रटि जीवनि रांम हरि, वत वांणी विसतार ।
कहि जगजीवन प्रेम भगति करि, सबद पिछांणै सार ॥१३८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रा से राम रटना करें एवं व से वाणी का विस्तार हो । ये वह ही कर सकता है जो प्रेम भक्ति को पहचान कर इस शब्द का सार जाने कि यह राम शब्द ही भव तारणहार है ।
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पा हरि पावौ प्रेम रस, घड़ी घड़ी भरि नांम ।
कहि जगजीवन सीस परि, सदा बिराजै रांम ॥१३९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पा से प्रभु से प्रेमानंद पाओ बारंबार यह रटते रहो । संत कहते हैं कि इस विधि से राम जी सदा शीश पर अपने वरदहस्त रुप में विराजते हैं ।
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थी५ थिर निहचल रांमरस, गली५ ग्यांन सुतिसास ।
पैबंद५ लागै पंच नौ, सु कहि जगजीवनदास ॥१४०॥
(५. थीगली, पैबंद=पुराने फटे कपड़े पर नये कपड़े का टुकड़ा मिलना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि थी स्थिर रहना है इससे पुरानी ज्ञान गुदड़ी भी नये पैबंदों से नयी हो जायेगी चाहे पांचों ज्ञान इन्द्रियों व नो खण्ड पृथ्वी पूरी ही क्यों न हो । सबमें नाम नवीनता लायेगा ।
(क्रमशः)
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