शनिवार, 3 अगस्त 2024

*न्हात तिया लखि नैन गड़े हैं*

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*निरंजन की बात कहै, आवै अंजन माँहि ।*
*दादू मन मानै नहीं, स्वर्ग रसातल जांहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*एक वरस्स रहे रस-सागर,*
*लीन भये सु शिलोक पढ़े हैं ।*
*जात वृन्दावन देखन को मन,*
*मारग में इक ठौर रढे१ हैं ।*
*शोर सुन्यो बड़ आप गये सर,*
*न्हात तिया लखि नैन गड़े हैं ।*
*ऊठ चली वह लार गये यह,*
*खैर२ धसि घर द्वार खड़े हैं ॥४१२॥*
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एक वर्ष गुरुजी की सेवा में रहे तथा प्रभु-प्रेम रस-सागर में ही निमग्न रहे । कई हरि-रस पूर्ण काव्य पढ़े और गुरु कृपा से स्वयं ने भी अनेक भाव भरे श्लोकों की रचना की ।
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फिर वृन्दावन की महिमा सुन कर वृन्दावन देखने की मन में इच्छा हुई । इससे वृन्दावन को चल पड़े, किन्तु मार्ग में एक स्थान पर एक दूसरी ही रट१ में पड़ गये ।
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सो यह है- एक सरोवर पर बड़ा कोलाहल हो रहा था उसे सुनकर आप भी वहाँ चले गये । वहाँ ही एक सुन्दर स्त्री स्नान कर रही थी । उसको देख कर आपके नेत्र उसी में लग गये और मन में उसी का चिन्तन करने लगे ।
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वह स्नान करके अपने घर को जाने लगी तब आप भी अपने भेषादि की लाज को त्यागकर उसके पीछे लग गये । वह सुख२ पूर्वक अपने घर में घुस गई और आप घर के द्वार पर खड़े हो गये ॥
(क्रमशः)

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