गुरुवार, 8 अगस्त 2024

*फौरि दिई अंखियाँ यह लागी*

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*जैसे कुंजर काम वश, आप बंधाणा आइ ।*
*ऐसे दादू हम भये, क्यों कर निकस्या जाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*अंग बनाय चली कर थार हु,*
*ऊंच अटा जित है अनुरागी ।*
*झंझन जाय खरी कर जोरि रु,*
*देखत ही मति न्यून१ जु भागी ॥*
*सूइ मँगावत वै२ फिर ल्यावत,*
*फौरि दिई अंखियाँ यह लागी ।*
*आन कही पति से सब बात जु,*
*जाय पर्यो पग सो बड़ भागी ॥४१४॥*
पति की आज्ञा ही को परम धर्म समझकर, वह सौभाग्यवती श्रृंगार करके तथा श्रीभगवत् प्रसाद का थाल हाथ में लेकर, वह ऊँची अटारि में हरि अनुरागी विल्वमंगलजी थे वहाँ चली ।
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अपनी गज के समान चाल से भूषणों का झंझनाट शब्द करती हुई स्वाभाविक हाव भाव से युक्त वह आपके आगे हात जोड़ के खड़ी हो गई अर्थात् विल्वमंगलजी की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगी । विल्वमंगलजी अपनी कामुक दशा का विचार करके पश्चात्ताप कर ही रहे थे । भगवत् कृपा, निष्कपट भक्त और पतिव्रता के दर्शन से उनकी तुच्छ१ कामुक वृत्ति हृदय से दूर भाग गई और निर्मल मति प्राप्त हो गई ।
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इनने विचार किया मेरी इस दुर्दशा के कारण ये आँखें ही हुई हैं । इनसे सुन्दर रूप नहीं देखता तो यह दशा मेरी नहीं होती । फिर सामने खड़ी हुई उस सुलक्षणा से कहा- "मुझे दो सुई ला दो ।" वह२ ले आई । ये सुन्दर रूप में लगीं, इसलिये दोषी हैं । दोषी को दंड देना उचित ही है । ऐसा मन में संकल्प करके शीघ्र ही दोनों हाथों में दोनों सुइयाँ लेकर दोनों नेत्रों में मार कर नेत्र फोड़ डाले ।
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यह देखकर, वह भक्तिमती शोक से ऊँचे श्वास लेती हुई और भय से कांपती हुई अपने पति के पास आई और अतिशय दुःख के साथ टूटे फूटे स्वर से सब बात कह दी । सुनते ही वह बड़भागी भक्त भी घबड़ाया हुआ दौड़कर आपके चरणों में पड़ गया ॥
(क्रमशः)

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