बुधवार, 24 सितंबर 2025

*५. पतिव्रत कौ अंग २९/३२*

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग २९/३२*
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पतिबरता पति कै निकट, सुन्दर सदा हजूरि । 
बिभचारणि भटकति फिरै, न्याय परै मुख धूरि ॥२९॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - साध्वी कुलवधू पतिव्रत धर्म का पालन करती हुई सदा पति के समीप ही रहती है; जब कि कुलटा(व्यभिचारिणी) स्त्री पति से विमुख होकर इधर समाज में घूमती फिरती है । अन्त में, भगवान् के यहाँ न्याय(निर्णय) होने पर, उस के मुँह पर धूल ही पड़ती है(उसका सर्वथा तिरस्कार ही होता है) ॥२९॥
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पतिबरता देख नहीं, आंन पुरुष की वोर । 
सुन्दर वह विभचारिणि, तकत फिरै ज्यों चोर ॥३०॥
कोई भी पतिव्रता स्त्री, जीवनपर्यन्त, किसी भी अन्य पुरुष की ओर, वासना की दृष्टि से नहीं देखती; जबकि प्रत्येक कुलटा स्त्री, चोरों के समान, सदा वासना की दृष्टि से ही परपुरुषों को ताकती रहती है ॥३०॥
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पति की आज्ञा मैं रहै, सो पतिबरता जांनि । 
सुन्दर सनमुख है सदा, निस दिन जोरे पांनि ॥३१॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - जो स्त्री निरन्तर पति की आज्ञा के अनुसार रहे, जो सदा हाथ जोड़कर पति की सेवा के आदेश की प्रतीक्षा में उसके सम्मुख रहे उसको 'पतिव्रता' जानना चाहिये ॥३१॥
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प्रभू बुलावै बोलिये, ऊठि कहै तब ऊठि । 
बैठावै तौ बैठिये, सुन्दर यौं जी चूठि ॥३२॥
उसके पति जब उससे कुछ पूछें तब उस का उचित उत्तर देना चाहिये, जब बैठने के लिए कहें तो बैठ जाना चाहिये; जब खड़े रहने के लिये कहें तो खड़े रहना चाहिये । इस प्रकार उसे समस्त व्यवहार शुद्धहृदय पति की इच्छानुसार(जी चूठि) ही रखना चाहिये ॥३२॥
(क्रमशः)

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