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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग २५/२८*
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पतिबरता पति सनमुखी, सुन्दर लहै सुहाग । 
विभचारिणि बिमुखी फिरै, ता के बडे अभाग ॥२५॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी कहते हैं - साध्वी स्त्री पतिव्रता धर्म का पालन करती हुई निरन्तर पति के सन्मुख रहती हुई उसी की सेवा में रत रहना अपना सौभाग्य मानती है; परन्तु कुलटा स्त्री पतिविमुख होकर परपुरुषों से व्यभिचारहेतु इस घर से उस घर में आती जाती रहती है - इसके बढकर उस का दौर्भाग्य अन्य क्या हो सकता है ! ॥२५॥
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पतिबरता छाडै नहीं, सुन्दर पति की सेव । 
विभचारिणि औगुन भरी, पूजै देवी देव ॥२६॥
कोई साध्वी पतिव्रता स्त्री दिन रात पति सेवा में ही निरन्तर तत्पर रहती है; जब कि विविध दोष एवं कलङ्कों से युक्त कोई कुलटा स्त्री पति की सेवा न कर, नाना प्रकार के विषय भोगों की प्राप्ति के लोभ में, अन्य देवी देवताओं की पूजा अर्चना में ही लगी रहती है ॥२६॥
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जाचिग कौं जाचै कहा, सरै न कोई काम । 
सुन्दर जाचै एक कौं, अलख निरञ्जन राम ॥२७॥
अरे ! क्या इन छोटे देवी देवताओं से कोई याच्ञा(मांगना) करना उचित है जो स्वयं याचक(दूसरों से मांगने वाले) हैं, क्या उनसे हमें हमारी अभिलषित वस्तु मिल सकेगी । हमें यह अभिलषित वस्तु(परम तत्त्व का साक्षात्कार) तो उस एकमात्र अलख निरञ्जन राम की एकान्तनिष्ठ भक्ति करने से ही मिल सकेगी ॥२७॥
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सब ही दीसैं दालदी, देवी देव अनंत । 
दारिद्र भंजन एकही, सुन्दर कमलाकंत ॥२८॥
संसार में अनेक छोटे-बड़े देवी देवता हैं; परन्तु हमें ये सभी दरिद्र(अभिलषित वस्तु देने में असमर्थ) ही दिखायी देते हैं । हमें तो केवल एक निरञ्जन निराकार ही, जो कि हमारे हृत्कमल में वास करता है, हमारी दरिद्रता का नाशक(अभिलषित वस्तु का दाता) दिखायी देता है ॥२८॥
(क्रमशः)

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