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*महात्मा कविवर श्री सुन्दरदास जी, साखी ग्रंथ*
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*५. पतिव्रत कौ अंग ३३/३६*
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प्रभु चलावै तब चलै, सोइ कहै तब सोइ ।
पहरावै तब पहरिये, सुन्दर पतिब्रत होइ ॥३३॥
वे उसको चले जाने को कहें तो वहाँ से चल दे । सोने के लिये कहे तो सो जाय । अर्थात् वह पतिव्रता स्त्री अपने शरीर से वह कर्म करे जिसके लिये उसके पति का आदेश हो । वह(पति) जैसा वस्त्र पहनने के लिये कहे वैसा ही वस्त्र पहने । ऐसी आज्ञाकारिणी स्त्री को ही ‘पतिव्रता’ कहते हैं ॥३३॥
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दिवस कहै तब दिवस है, रैंनि कहै तब रैंन ।
सुन्दर आज्ञा मैं रहै, कबहुं न फेरै बैंन ॥३४॥
यदि वह रात्रि को(अनुचित कार्य को), दिन कहे तो दिन(उचित कार्य) ही मान ले; यदि वह दिन को रात्रि(अनुचित) कहे तो रात्रि ही मान ले । कहने का तात्पर्य यह है कि साध्वी स्त्री को पति की आज्ञा के अनुसार ही रहना चाहिये; आज्ञा के विरुद्ध नहीं ॥३४॥
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रीसि करै अत्यन्त करि, तौ प्रभु प्यारौ लाग ।
हंसि करि निकट बुलाइ ले, सुन्दर माथै भाग ॥३५॥
यदि उस पतिव्रता का पति कभी उस पर क्रोध करे तो उस की उपेक्षा करते हुए उसका स्नेह ही समझना चाहिये । यदि कभी उस का पति उसे हँसते हुए अपने पास बुलावे तो उसे यह अपना भाग्योदय समझना चाहिये ॥३५॥
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सुन्दर पतिव्रत राम सौं, सदा रहै इकतार ।
सुख देवै तौ अति सुखी, दुख तौ सुखी अपार ॥३६॥
महात्मा श्रीसुन्दरदासजी साधक को परामर्श दे रहे है- साधक को भी उक्त पतिव्रता साध्वी स्त्री के समान निरञ्जन निराकार की साधना में उसके प्रति अपनी एकान्त निष्ठा रखनी चाहिये । यदि वह कोई सुख का अवसर दे तो वह सुख है ही; दुःख का अवसर दे तो भी उसे सुख समझ कर ही भोगना चाहिये ॥३६॥
(क्रमशः)

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