परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी

शुक्रवार, 31 मार्च 2017

= १६२ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मैं नाहीं तब एक है, मैं आई तब दोइ ।
मैं तैं पड़दा मिट गया, तब ज्यूं था त्यूं ही होइ ॥ 
दादू है को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं ।
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥ 
===========================
साभार ~ Nishi Dureja
एक भिक्षु था, नागसेन। एक सम्राट मिलिंद ने उसे निमंत्रण भेजा था। निमंत्रण लेकर सम्राट का दूत गया और कहा कि भिक्षु नागसेन! सम्राट ने निमंत्रण भेजा है। आपके स्वागत के लिए हम तैयार हैं। आप राजधानी आएं। तो उस भिक्षु नागसेन ने कहा कि आऊंगा जरूर, निमंत्रण स्वीकार। लेकिन सम्राट को कह देना कि भिक्षु नागसेन जैसा कोई व्यक्ति है नहीं। ऐसा कोई व्यक्ति है ही नहीं। 
.
राजदूत तो चौंका, फिर आएगा कौन, फिर निमंत्रण किसको स्वीकार है? लेकिन कुछ कहना उसने उचित न समझा। जाकर निवेदन कर दिया सम्राट को। सम्राट भी हैरान हुआ। लेकिन प्रतीक्षा करें, आएगा भिक्षु तो पूछ लेंगे कि क्या था उसका अर्थ?
.
फिर भिक्षु को लेने रथ चला गया। फिर स्वर्ण - रथ पर बैठ कर वह भिक्षु चला आया। वह कमजोर भिक्षु न रहा होगा कि कहता कि नहीं, सोने को हम न छुएंगे। कमजोर भिक्षु होता तो कहता कि नहीं सोने को हम न छुएंगे, सोना तो मिट्टी है। लेकिन बड़ा मजा यह है कि सोने को मिट्टी भी कहता और छूने में डरता भी है !
.
वह बैठ गया रथ पर, चल पड़ा रथ। आ गई राजधानी, सम्राट नगर के द्वार पर लेने आया था। सम्राट ने कहा कि भिक्षु नागसेन! स्वागत करते हैं नगर में। वह हंसने लगा भिक्षु। उसने कहा स्वागत करें, स्वागत स्वीकार, लेकिन भिक्षु नागसेन जैसा कोई है नहीं। सम्राट ने कहा फिर वही बात! हम तो सोचते थे महल तक ले चलें फिर पूछेंगे। आपने महल के द्वार पर ही बात उठा दी है तो हम पूछ लें कि क्या कहते हैं आप? भिक्षु नागसेन नहीं है तो फिर आप कौन हैं?
.
भिक्षु उतर आया रथ से और कहने लगा कि महाराज! यह रथ है? महाराज ने कहा रथ है। भिक्षु ने कहा घोड़े छोड़ दिए जाएं रथ से। घोड़े छोड़ दिए गए और वह भिक्षु कहने लगा ये घोड़े रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, घोड़े रथ नहीं हैं। घोड़ों को विदा कर दो। चाक निकलवा लिए रथ के और कहने लगा भिक्षु कि ये रथ हैं? महाराज ने कहा नहीं, ये तो चक्के हैं, रथ कहां! कहा चक्कों को अलग कर दो!
.
फिर एक - एक अंग - अंग निकलने लगा उस रथ का और वह पूछने लगा यह है रथ, यह है रथ, यह है रथ ? और महाराज कहने लगे नहीं - नहीं, यह रथ नहीं है, यह रथ नहीं है! फिर तो सारा रथ ही निकल गया और वहां शून्य रह गया, वहां कुछ भी न बचा। और तब वह पूछने लगा फिर रथ कहां है ? रथ था, और मैंने एक - एक चीज पूछ ली और आप कहने लगे नहीं, यह तो चाक है, नहीं, यह तो डंडा है, नहीं, यह तो यह है, नहीं, ये तो घोड़े हैं; और अब सब चीजें चली गईं जो रथ नहीं थीं! रथ कहां है ? रथ बचना था पीछे ? वह मिलिंद भी मुश्किल में पड़ गया। वह भिक्षु कहने लगा रथ नहीं था। रथ था एक जोड़। रथ था एक संज्ञा, एक रूपाकृति।
.
वह भिक्षु नागसेन कहने लगा: मैं भी नहीं हूं, हूं अनंत की शक्तियों का एक जोड़। एक रूपाकृति उठती है, लीन हो जाती है। एक लहर बनती है, बिखर जाती है। नहीं हूं मैं, वैसा ही हूं जैसा रथ था, वैसा ही नहीं हूं जैसा अब रथ नहीं है। खींच लें सूरज की किरणें, खींच लें पृथ्वी का रस, खींच लें हवाओं की ऊर्जा, खींच लें चेतना के सागर से आई हुई आत्मा - फिर कहां हूं मैं ? हूं एक जोड़, हूं एक रथ।
.
व्यक्ति कहीं भी नहीं है। अनंत जीवन की ऊर्जा और शक्तियां कटती हैं और व्यक्ति निर्मित होता है। यह जो व्यक्ति अहंकार है, यह जो ईगो सेंटर है, यह जो खयाल है कि मैं हूं, इसकी खोज करनी बहुत जरूरी है।

... जय हो ...

= १६१ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू रोजी राम है, राजिक रिजक हमार ।
दादू उस प्रसाद सौं, पोष्या सब परिवार ॥ 
===========================
साभार ~ Mahesh Goel
· 
*(((((((((( श्रेष्ठ कौन है ))))))))))*
.
समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मीजी से पहले उनकी बड़ी बहन ज्येष्ठा जिनका नाम दरिद्रा भी है, वह प्रकट हुई थीं.
.
ज्येष्ठा विष्णु भगवान से विवाह करना चाहती थीं किंतु भगवान ने लक्ष्मीजी का वरण किया. इससे ज्येष्ठा और लक्ष्मीजी में मनमुटाव था जो समय-समय पर बाहर आता रहता था.
.
तय हुआ कि दोनों बहनों में कौन श्रेष्ठ है, इसका फैसला करने के लिए दोनों अपने-अपने प्रभाव का प्रदर्शन करेंगी.
.
दोनों बहनों ने अपने प्रभाव का जोर आजमाने के लिए मंदिर के एक पुजारी हरिनाथ को चुना जो बड़ा विष्णु भक्त था.
.
दूसरे दिन दोनों वेश बदलकर विष्णु मंदिर पहुँचीं मंदिर के द्वार पर बैठ गईं. हरिनाथ पूजा करके लौटने लगा तो ज्येष्ठा ने लक्ष्मी से अपना प्रभाव दिखाने को कहा.
.
लक्ष्मीजी ने एक खोखला बांस हरिनाथ के रास्ते में रख दिया. बांस के अंदर सोने के सिक्के भरे थे.
.
ज्येष्ठा ने बांस को छूकर कहा, अब तुम मेरा प्रभाव देखो. हरिनाथ ने रास्ते में सुंदर बांस पड़ा देखा तो उठा लिया. सोचा घर में इसका कुछ न कुछ काम निकल ही आएगा.
.
अभी वह पंडित थोड़ा ही आगे बढ़ा था कि उसे एक लड़का मिला. लड़के ने हरिनाथ से कहा, ‘पंडित जी ! मुझे अपनी चारपाई के लिए बिल्कुल ऐसा ही बांस चाहिए.
.
यह बांस कहां मिलता है मैं खरीद लाता हूं ?’ पंडित ने कहा, ‘मैंने खरीदा नहीं है. रास्ते में पड़ा था उठा लिया. तुम्हें ज़रूरत है तो तुम ही रख लो. बाज़ार में यह एक रुपये से कम का नहीं होगा.’
.
लड़के ने चवन्नी देते हुए कहा, ‘मगर मेरे पास तो यह चवन्नी ही है, पंडितजी. अभी तो आप इसे ही रखिए बाकी के बारह आने शाम को घर दे जाऊँगा.’
.
पंडितजी खुश थे कि उन्होंने सड़क पर पड़े बांस से रुपया कमा लिया. चवन्नी पूजा की डोलची में रखी और घर की ओर चला.
.
मंदिर के पास खड़ी दोनों देवियां सारी लीला देख रही थीं. ज्येष्ठा ने कहा, ‘लक्ष्मी ! तुम्हारी इतनी सारी मोहरें मात्र एक चवन्नी में बिक गईं. अभी तो यह चवन्नी भी तुम्हारे भक्त के पास नहीं रूकेगी.’
.
एक तालाब के पास दीनू ने डोलची रख दी और कमल के फूल तोड़ने लगा. उसी बीच एक चरवाहा आया और डोलची में रखी चवन्नी लेकर भाग गया. पंडित को पता भी नहीं चला.
.
फूल तोड़कर वह घर चलने लगा. इतने में वही लड़का आता हुआ दिखाई दिया जिसने चवन्नी देकर उससे बांस ले लिया था.
.
लड़का बोला, ‘पंडितजी ! यह बांस बहुत भारी है. चारपाई के लिए हल्का बांस चाहिए. आप इसे वापस ले लीजिए.’ उसने बांस पंडितजी के हवाले कर दिया.
.
बांस के बदले पंडित ने चवन्नी लौटानी चाही, लेकिन चवन्नी तो डोलची से उड़ चुकी थी.
.
पंडित ने कहा, ‘बेटा, चवन्नी तो कहीं गिर गई. तुम मेरे साथ घर चलो, वहाँ दूसरी दे दूँगा. इस समय मेरे पास एक भी पैसा नहीं है.’ लड़के ने पंडित से कहा कि वह शाम को आकर घर से अपनी चवन्नी ले लेगा.
.
बांस फिर से पंडित जी के ही पास आ गया. लक्ष्मी जी धीरे से मुस्कराईं. उनको मुस्कराता देख ज्येष्ठा जल भुन गई.
.
वह बोलीं, ‘इतराने की आवश्यता नहीं. अभी तो खेल शुरू ही हुआ है. बस देखती चलो.’ हरिनाथ को पता ही नहीं था कि वह दो देवियों के दाव-पेंच में फंसा हुआ है.
.
गांव के करीब उसे चरवाहा मिला. उसने चवन्नी वापस करते हुए कहा, ‘मेरा लड़का आपकी डोलची से चवन्नी ले भागा था. मैं चवन्नी लौटाने आया हूँ.’ पंडित खुश हो गया. वरना उसे बिना बात चवन्नी का दंड भरना पड़ता.
.
जिसकी चवन्नी थी वह लड़का अभी दूर नहीं गया था. पंडित ने उसे पुकारा और उसकी चवन्नी लौटा दी.
.
हरिनाथ निश्चिंत मन से घर की ओर बढ़ने लगा. उसके एक हाथ में पूजा की डोलची थी और दूसरे में वही बांस.
.
रास्ते में उसने सोचा कि बांस काफ़ी वज़नी और मजबूत है. इसे दरवाज़े के छप्पर में लगा दूँगा. कई साल के लिए बल्ली से छुटकारा मिल जाएगा.’
.
लक्ष्मीजी के प्रभाव से हरिनाथ को लाभ होता देख ज्येष्ठा जल उठीं. जब उन्होंने देखा कि पंडित का घर क़रीब आ गया है तो कोई उपाय न पाकर उन्होंने हरिनाथ को मार डालने का विचार किया.
.
ज्येष्ठा गुस्से में तमतमाती हुई बोलीं, ‘लक्ष्मी ! धन−सम्पत्ति तो मैं छीन ही लेती हूँ, अब इस भक्त के प्राण भी ले लूँगी.’
.
ज्येष्ठा ने साँप का रूप धरा और हरिनाथ पर झपटीं. हरिनाथ सांप देखकर भागने लगा. सांप बनी ज्येष्ठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. हरिनाथ घबरा गया.
.
उसने हाथ जोड़कर कहा, ‘नाग देवता ! मैंने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा. क्यों मेरे पीछे पड़े हो ? व्यर्थ में किसी को सताना अच्छी बात नहीं है.’ लेकिन नाग ने जवाब में जोरदार फुंफकार की.
.
जब हरिनाथ ने देख लिया कि कोई रास्ता नहीं तो उसने वह बांस साँप को दे मारा. धरती से टकराते ही बांस के दो टुकड़े हो गए. उसके भीतर भरी हुईं मोहरें बिखर गईं.
.
पंडित तो आश्चर्य से देखता रह गया. एक पल के लिए वह साँप को भूल गया. फिर नजर घुमाई तो देखा कि बांस की चोट से साँप की कमर टूट गयी है और वह लहूलुहान अवस्था में झाड़ी की ओर भागा जा रहा है.
.
हरिनाथ लक्ष्मी माता की जय-जयकार करने लगा !’
.
लक्ष्मी ने अपनी बहन ज्येष्ठा से पूछा, ‘कहो बहन ! बड़प्पन की थाह अभी मिली या नहीं ?
.
श्रेष्ठता तो किसी को कुछ देने में प्राप्त होती है छीनने में नहीं.’ ज्येष्ठा ने कोई उत्तर नहीं दिया. वह चुपचाप उदास खड़ी रहीं.
.
(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
**************************
हरि हरि बोल

= उक्त अनूप(ग्रन्थ ७/१०-१) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*= उक्त अनूप१ (ग्रन्थ ७) =*
*= रजोगुण-सत्वगुणमिश्रित वृत्ति =*
.
*रज सत मिश्रित वृत्ति ये, जप तप तीरथ दान ।*
*योग यज्ञ यम नेम ब्रत, बंछै स्वर्गस्थान ॥१०॥*
रजोगुण तथा सत्वगुण की मिश्रित वृत्त्यों वाला व्यक्ति जप, तप, तीर्थ यात्रा, अनेक प्रकार के दान, योग, यज्ञ, यम-नियम, व्रत स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा आदि नाना प्रकार की कामनाएँ करता रहता है ॥१०॥
.
*बहुत भांति की कामना, इन्द्र लोक की चाहि ।*
*सत्य लोक जो पाइये, तहां बहुत सुख आहि ॥११॥*
इस प्रकार वह व्यक्ति नानाविध कामनाएँ करता रहता है । वह चाहता है कि किसी तरह स्वर्गलोक मिल जाता तो बड़ा सुख मिलता ! अन्त में वह सत्यलोक की कामना करने लगता है, जहाँ सबसे अधिक सुख है ॥११॥
(क्रमशः)

= विन्दु (२)९६ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*= विन्दु ९६ =*
.
*= भक्ति दर्शन =* 
भक्ति दर्शन भी संकर्षण कांड से मिलता हुआ ही है, अतः उसका परिचय भी यहां देना उचित होगा, पथम नवधा भक्ति देखिये - 
“पहले श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हृदय गाय । 
चतुर्थी चिन्तन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाय ॥” 
उक्त साखी में श्रवण, कीर्तन और स्मरण, इन तीनो भक्तियों का कथन है । 

*१ - श्रवण -* 
“जैसे श्रवणा दोय है, ऐसे होय अपार । 
राम कथा रस पीजिये दादू बारंबार ॥ 
.
*२ - कीर्तन -* 
“ज्यों मुख रसना एक है, ऐसे होय अनेक । 
तो रस पीवें शेष ज्यूं, यूं मुख मीठा एक ॥” 
.
*३ - स्मरण -* 
“दादू श्वासें श्वास संभालतां, इक दिन मिल हैं आय । 
सुमिरण पैंण्डा सहज का, सद्गुरु दिया बताय ॥’ 
.
*४ - पाद सेवन -*
“आव पियारे मींत हमारे, 
निश दिन देखूँ पांव तुम्हारे ॥ टेक ॥ 
सेज हमारी पीव संवारी, 
दासी तुम्हारी सो धनवारी ॥ १ ॥ 
जे तुझ पाऊं अंग लगाऊँ, 
क्यों समझाऊं वारण जाऊं ॥ २ ॥ 
पंथ निहारूं बाट संवारूँ, 
दादू तारूं तन मन वारूं ॥ ३ ॥ 
साखी - 
मस्तक मेरे पांव धर, मंदिर मांहीं आव । 
सइयाँ सोवे सेज पर, दादू चंपै पाव ॥” 
.
*५ - अर्चना -*
“आतम माँहीं राम है, पूजा ताकी होय । 
सेवा वन्दन आरती, साधु करैं सब कोय ॥ 
दादू देव निरंजन पूजिये, पाती पंच चढ़ाय । 
तन मन चन्दन चरचिये, सेवा सुरति लगाय ॥ 
दादूवाणी के पद ४४० से ४४४ तक पाँच आरती और सौंज मंत्र भी अर्चना भक्ति का सम्यक् प्रकार परिचय देते ही हैं । 
प्रसाद - 
“परमेश्वर के भाव का, एक कणूंका खाय । 
दादू जेता पाप था, भरम कर्म सब जाय ॥ 
.
*६ - वन्दना -*
“परब्रह्म परात्परं, सो मम देव निरंजनम्। 
निराकारं निर्मलम् तस्य दादू वन्दनम् ॥” 
.
*७ - दास्य -*
“तेरा सेवक तुम लगे, तुमही माथे भार । 
दादू डूबत रामजी, वेगि उतारो पार ॥” 
.
*८ - सख्य -* 
“करणहार कर्ता पुरुष, हमको कैसी चिन्त । 
सब काहू की करत है, सो दादू का मिन्त ॥ 
प्रेम लहर की पालकी, आतम वैसे जाय । 
दादू खेले पीव से, यहु सुख कहा न जाय ॥ 
.
*९ - आत्म निवेदन -* 
“तन भी तेरा मन भी तेरा, तेरा पिंड रु प्रान । 
सब कुछ तेरा तू है मेरा, यहु दादू का ज्ञान ॥ 
जीव पियारे राम को, पाती पंच चढ़ाय । 
तन मन मनसा सौंप सब, दादू विलम्ब न लाय ॥ 
.
*= भक्ति की याचना =*
“भक्ति माँगूं बाप भक्ति मागूं, 
मूने ताहरा नाम नों प्रेम लागो । 
शिवपुर ब्रह्मपुर सर्व सौं कीजिये, 
अमर थावा नहीं लोक माँगूं ॥ टेक ॥ 
आप अवलम्बन ताहरा अंगनों, 
भक्ति सजीवनी रंग राचूं । 
देह्नैं गेहनौं बास वैकुन्ठ तणौ, 
इन्द्र आसण नहिं मुक्ति जाचूं ॥ १ ॥ 
भक्ति व्हाली खरी आप अविचल हरि, 
निर्मलों नाम रस पान भावे । 
सिद्धि नैं ऋद्धि नैं राज रुड़ो नहीं, 
देव पद म्हारे काज न आवे ॥ २ ॥ 
आत्मा अन्तर सदा निरन्तर, 
ताहरी बापजी भक्ति दीजे । 
कहै दादू हिवै कोड़ी दत्त आपै, 
तुम बिन ते अम्हें नहीं लीजे ॥ ३ ॥ 
.
*= विरह =* 
“काया माँहीं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार । 
दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिं बार ॥ 
बिन देखे जीवे नहीं, विरह का सहिनाण । 
दादू जेवे जब लगे, तब लग विरह न जाण ॥” 
.
*= प्रेमा भक्ति =* 
“प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर माँहिं । 
रोम रोम पिव पिव करे, दादू दूसर नाहिं ॥ 
दादू मारे प्रेम से, बेधे साधु सुजाण । 
मारण हारे को मिले, दादू विरही बाण ॥ 
प्रीतम मारे प्रेम से, तिनको क्या मारे । 
दादू जारे विरह के, तिनको या जारे ॥ 
दादू अक्षर प्रेम का, कोई पढ़ेगा एक । 
दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढ़ैं अनेक ॥ 
दादू पाती प्रेम की, विरला बांचे कोय । 
वेद पुराण पुस्तक पढ़ै, प्रेम बिना क्या होय ॥ 
.
*= पराभक्ति =* 
“राम तू मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥ टेक ॥ 
एकैं संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥ १ ॥ 
तन मन तुम को देवा, तेज पुंज हम लेवा ॥ २ ॥ 
रस माँहीं रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥ ३ ॥ 
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥ ४ ॥ 
.
*= चतुर्मुक्ति =* 
“सालोक्य संगति रहै, सामीप्य सन्मुख सोय । 
सारूप्य सारिखा भया, सायुज्य एकै होय ॥” 
(क्रमशः)

= मन का अंग =(१०/१३-५)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
.
जब लग यहु मन थिर नहीं, तब लग परस न होइ । 
दादू मनवा थिर भया, सहज मिलेगा सोइ ॥ १३ ॥ 
१३ में कहते हैं - मन स्थिरता से ही प्रभु प्राप्त होते हैं - जब तक भगवद् भजन में मन स्थिर नहीं होता तब तक परमात्मा का मिलन नहीं होता और जब स्थिर हो जाता है, भजन को छोड़ कर विषयों में नहीं दौड़ता, तब अनायास ही ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है । 
दादू बिन अवलम्बन क्यों रहे, मन चँचल चल जाइ । 
सुस्थिर मनवा तो रहे, सुमिरण सेती लाइ ॥ १४ ॥ 
१४ में मन स्थिरता का साधन कह रहे हैं - यह चँचल मन बिना किसी आश्रय के स्थिर नहीं रह सकता, तत्काल ही विषयों में दौड़ जाता है । जब इसे हरि - स्मरण में लगाया जाय तब ही यह मन सुस्थिर रहता है । 
सतगुरु चरण शरण चलि जांहीं, नित प्रति रहिये तिनकी छांहीं । 
मन स्थिर कर लीजे नाम, दादू कहै तहां ही राम ॥ १५ ॥ 
१५ में मन स्थिर होने से साक्षात्कार होता है यह कह रहे हैं - जहां मन को राम के नाम में स्थिर करके नाम स्मरण करोगे, वहां ही राम का साक्षात्कार हो जायगा ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 मार्च 2017

= १६० =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू दृष्टैं दृष्टि समाइ ले, सुरतैं सुरति समाइ ।
समझैं समझ समाइ ले, लै सौं लै ले लाइ ॥ 
दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान ।
प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान ॥ 
==========================
साभार ~ Sadanand Soham

*एक संन्यासी*
 
एक वृद्ध संन्यासी अपने एक युवा भिक्षु के साथ एक जंगल पार कर रहा था। रात उतर आई, अंधेरा घिरने लगा। तो उस बूढ़े संन्यासी ने युवा संन्यासी को पूछा कि बेटे, रास्ते में कोई डर तो नहीं है, कोई भय तो नहीं है? रास्ता बड़ा जंगल का बीहड़.. अंधेरी रात उतर रही है, कोई भय तो नहीं है?
(SOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOOHAM)
.
युवा संन्यासी बहुत हैरान हुआ, क्योंकि संन्यासी को… और भय का सवाल ही नहीं उठना चाहिए। संन्यासी को भय का कहां सवाल है! चाहे रात अंधेरी हो और चाहे उजाली हो, और चाहे जंगल हो और चाहे बाजार हो। संन्यासी को भय उठे, यही आश्चर्य की बात है! और इस बूढ़े को आज तक कभी भी नहीं उठा था। आज क्या गड़बड़ हो गई है, इसे भय क्यों उठता है? कुछ न कुछ मामला गड़बड़ है!
.
फिर और थोड़े आगे बढ़े। रात और गहरी होने लगी। उस बूढ़े ने फिर पूछा कि कोई भय तो नहीं है? हम जल्दी दूसरे गांव तो पहुंच जाएंगे? रास्ता……कितना फासला है? फिर वे एक कुएं पर हाथ - मुंह धोने को रुके। उस बूढ़े ने अपने कंधे पर डाली हुई झोली उस युवक को दी और कहा सम्हाल कर रखना। उस युवक को खयाल हुआ कि झोली में कुछ न कुछ होना चाहिए, अन्यथा न भय का कारण है और न सम्हाल कर रखने का कारण है।
.
संन्यासी भी कोई चीज सम्हाल कर रखे तो गड़बड़ हो गई। फिर संन्यासी होने का कोई मतलब ही न रहा। सम्हाल कर जो रखता है, वही तो गृहस्थ है। सब सम्हाल—सम्हाल कर रखता है, इसीलिए गृहस्थ है। संन्यासी को क्या सम्हाल कर रखने की बात है? बूढा हाथ - मुंह धोने लगा। और उस युवक ने उस झोली में हाथ डाला और देखा सोने की एक ईंट झोली में है। वह समझ गया कि भय किस बात में है। उसने ईंट उठा कर जंगल में फेंक दी और एक पत्थर का टुकड़ा उतने ही वजन का झोली के भीतर रख दिया। बूढा जल्दी से हाथ - मुंह धोकर आया और उसने जल्दी से झोली ली, टटोला, वजन देखा, झोली कंधे पर रखी और चल पड़ा।
.
और फिर कहने लगा थोड़ी दूर चल कर कि रात बड़ी हुई जाती है, रास्ता हम कहीं भटक तो नहीं गए हैं? कोई भय तो नहीं है? उस युवक ने कहा अब आप निर्भय हो जाइए, भय को मैं पीछे फेंक आया। वह तो घबड़ा गया। उसने जल्दी से झोली में हाथ डाला - देखा, वहां तो एक पत्थर का टुकड़ा रखा हुआ था। एक क्षण को तो वह ठगा सा खड़ा रह गया और फिर हंसने लगा और उसने कहा मैं भी खूब पागल था। 
.
इतनी देर पत्थर के टुकड़े को लिए था तब भी मैं भयभीत हो रहा था, क्योंकि मुझे यह खयाल था कि यह सोने की ईंट भीतर है। था पत्थर का वजन, लेकिन खयाल था कि सोने की ईंट भीतर है तो उसे सम्हाले हुए था। फिर जब पता चल गया कि पत्थर है, उठा कर उसने पत्थर फेंक दिया। झोली एक तरफ रख दी और युवक से कहा अब रात यहीं सो जाएं, अब कहां परेशान होंगे, कहां रास्ता खोजेंगे। फिर रात वे वहीं सो गए।
.
तो जिस विचार को आप सोने की ईंट समझे हुए हैं, अगर वह सोने की ईंट दिखाई पड़ता है तो आप उसको सम्हाले रहेंगे, सम्हाले रहेंगे, उससे आप मुक्त नहीं हो सकते। लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं वह सोने की ईंट नहीं है। वहां बिलकुल पत्थर का वजन है। जिसको आप ज्ञान समझे हैं, वह जरा भी ज्ञान नहीं है, वह सोना नहीं है, वह बिलकुल पत्थर है।
.
दूसरों से मिला हुआ ज्ञान बिलकुल पत्थर है। खुद से आया हुआ ज्ञान ही सोना होता है। जिस दिन आपको यह दिखाई पड़ जाएगा कि झोली में ईंट सम्हाले हुए हैं, पत्थर सम्हाले हुए हैं, उसी दिन मामला खत्म हो गया। अब उस ईंट को उठा कर फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाएगी।
.
कचरे को फेंकने में कठिनाई नहीं रह जाती, सोने को फेंकने में कठिनाई होती है। जब तक आपको लग रहा है कि यह विचार ज्ञान है, तब तक आप इसे नहीं फेंक सकते हैं। यह मन आपका एक उपद्रव का स्थल बना ही रहेगा, बना ही रहेगा, बना ही रहेगा। आप लाख उपाय करेंगे, कोई उपाय काम नहीं करेगा। क्योंकि आप बहुत गहरे में चाहते हैं कि यह बना रहे, क्योंकि आप समझते हैं यह ज्ञान है। जीवन में सबसे बड़ी कठिनाइयां इस बात से पैदा होती हैं कि जो चीज जो नहीं है उसको हम समझ लें, तो सारी कठिनाइयां पैदा होनी शुरू हो जाती हैं। पत्थर को कोई सोना समझ ले तो मुश्किल शुरू हो गई। पत्थर को कोई पत्थर समझ ले, मामला खत्म हो गया।
.
तो हमारे विचार की संपदा वास्तविक संपदा नहीं है - इस बात को समझ लेना जरूरी है। इसे कैसे समझें? क्या मेरे कहने से आप समझ लेंगे? अगर मेरे कहने से समझ लिए तो यह समझ उधार हो जाएगी, यह समझ बेकार हो जाएगी। क्योंकि यह मैं कह रहा हूं और आप समझ लेंगे। मेरे कहने से समझने का सवाल नहीं है, आपको देखना पड़े, खोजना पड़े, पहचानना पड़े।
.
वह युवक अगर उस बूढ़े से कहता कि चले चलिए, कोई फिकर नहीं है, आपके झोले में ईंट है, पत्थर है, कोई सोना नहीं है, तो इससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था, जब तक कि बूढा देख न ले उस झोले में कि ईंट है, सोने की या पत्थर की! युवक कहता तो कोई बात खयाल में आने वाली नहीं थी। हंसता लड़के पर कि लड़का है, नासमझ है, कुछ पता नहीं। या हां भी भर देता तो वह हां झूठी होती, भीतर गहरे में वह ईंट को सम्हाले ही रहता। लेकिन खुद देखा तो फर्क पड़ गया।
.
तो अपने मन की झोली में देखना जरूरी है कि जिन्हें हम ज्ञान समझ रहे हैं वह विचार ज्ञान है? उनमें ज्ञान जैसा कुछ भी है या कि सब फिजूल कचरा हमने इकट्ठा कर रखा है? गीता के श्लोक इकट्ठे कर रखे हैं, वेदों के वचन इकट्ठे कर रखे हैं, महावीर, बुद्ध के शब्द इकट्ठे कर रखे हैं और उन्हीं को लिए बैठे हुए हैं और उन्हीं का हिसाब लगाते रहते हैं। उनका अर्थ निकालते रहते हैं, टीकाएं पढ़ते रहते हैं और टीकाएं लिखते रहते हैं और एक - दूसरे को समझाते रहते हैं और समझते रहते हैं।




= १५९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू आपा उरझे उरझिया, दीसे सब संसार ।
आपा सुरझे सुरझिया, यह गुरु ज्ञान विचार ॥
==============================
साभार ~ Neha Gupta
६ छोटी-छोटी कहानियाँ
-----:-:-:-:-:----
( १ )
एक बार गाँव वालों ने यह निर्णय लिया कि बारिश के लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगे, प्रार्थना के दिन सभी गाँव वाले एक जगह एकत्रित हुए, परन्तु एक बालक अपने साथ छाता भी लेकर आया । इसे कहते हैं... आस्था
--------
( २ )
जब आप एक बच्चे को हवा में उछालते हैं तो वह हँसता है, क्यों कि वह जानता है कि आप उसे पकड़ लेंगे । इसे कहते हैं....
विश्वास
---------
( ३ )
प्रत्येक रात्रि को जब हम सोने के लिए जाते हैं तब इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि सुबह तक हम जीवित रहेंगे भी कि नहीं, फिर भी हम घड़ी में अलार्म लगाकर सोते हैं । इसे कहते हैं..... आशा(उम्मीद)
-----------------
( ४ )
हमें भविष्य के बारे में कोई जानकारी नहीं है फिर भी हम आने वाले कल के लिए बड़ी बड़ी योजनाएं बनाते हैं । इसे कहते हैं.... आत्मविश्वास
---------------
( ५ )
हम देखरहे हैं कि दुनियाँ कठिनाइयों से जूझ रही है फिर भी हम शादी करते हैं ।
इसे कहते हैं .... प्यार
----------
( ६ )
एक 60 साल की उम्र वाले व्यक्ति की शर्ट पर एक शानदार वाक्य लिखा था, "मेरी उम्र 60 साल नहीं है , मैं तो केवल मधुर - मधुर 16 साल का हूँ, 44 साल के अनुभव के साथ ।" इसे कहते हैं ...... नज़रिया
---------------
जीवन खूबसूरत है,
इसे सर्वोत्तम के लिए जियो.....

= उक्त अनूप(ग्रन्थ ७/८-९) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*= उक्त अनूप१ (ग्रन्थ ७) =*
*= रजोगुण की वृत्ति =*
.
*राजस गुण की वृत्ति ये, कर्म करै बहु भांति ।* 
*सुख चाहे अरु उद्यमी, जक न परै दिन राति ॥८॥* 
इसी प्रकार रजोगुण की चेष्टायें ये हैं--रजोगुणप्रधान व्यक्ति तरह तरह के कर्म(चेष्टा) करता रहता है, उन कर्मों से सुख की इच्छा करता रहता है, उसके लिये बराबर उद्यम करता रहता है, उस व्यक्ति को रात-दिन में कभी निश्चल रहना नहीं सुहाता ॥८॥ 
.
*राजस गुण गुण की वृत्ति तें, सुख दुख आवहिं दोइ ।* 
*ते सब मानैं आपु कौं, क्यौ करि छूटै सोइ ॥९॥*
इन रजोगुण की चेष्टाओं से शरीर पर जो भी सुख-दुःख आते हैं, प्रतिबिम्बित आत्मा अपने ऊपर मान बैठता है और सोचता है कि मैं इनसे कैसे छुटकारा पाऊँ ! ॥९॥
(क्रमशः)

= विन्दु (२)९६ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*= विन्दु ९६ =*
.
*= षट् दर्शन =* 
.
*१. न्याय* - 
न्याय में वीतराग के जन्म का अभाव कहा है और दादूजी ने भी वैराग्य की ओर संकेत किया है - 
“दादू एक सुरति से सब रहा, पंचों उनमनि लाग । 
यहु अनुभव उपदेश यहु, यहु परम योग वैराग ॥” 

“दादू सब बातन की एक है, दुनियां से दिल दूर ।
सांई सेती संग कर, सहज सुरति ले पूर ॥” 
.
*२. वैशेषिक* - 
वैशेषिक ने ईश्वर अनुग्रह द्वारा यथार्थ ज्ञान से मुक्ति मानी है, वैसे ही दादूवाणी में भी कहा है - 
“दादू सब संसार तज, रहै निराला होय । 
अविनाशी के आश्रय, काल न लागे कोय ॥” 

वृत्तिज्ञान - 
“दादू सेवा सुरति से, प्रेम प्रीति से लाय । 
जहँ अविनाशी देव है, तहँ सुरति बिना को जाय ॥” 
.
*३. धर्म मीमांसा* - 
“कर्मों के वश जीव है, कर्म रहित सो ब्रह्म । 
जहँ आतम तहं परमातमा, दादू भागा भ्रम ॥” 

“राहु मिले ज्यों चन्द को, गहण मिले ज्यों सूर । 
कर्म मिले यूं जीव को, नख शिख लागे पूर ॥” 

“दादू चन्द मिले जब राहु को गहण मिले जब सूर । 
जीव मिले जब कर्म को, राम रह्या भरपूर ॥” 

“कर्म कुहाड़ा अंग वन, काटत बारंबार । 
अपने हाथों आपको, काटत है संसार ॥” 

“कर्म फिरावे जीव को, कर्मों को करतार । 
करतार को कोई नहीं, दादू फेरनहार ॥” 

संकर्षण कांड - संकर्षण कांड में तथा पंचरात्र में भी उपासना का ही वर्णन है, वही वाणी में भी देखिये - 
“दादू ऐकै दशा अनन्य की, दूजी दशा न जाय । 
आपा भूले आन सब, ऐकै रहै समाय ॥” 
(क्रमशः)

= मन का अंग =(१०/१०-२)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
.
दादू चुम्बक देखि कर, लोहा लागे आइ । 
यों मन गुण इन्द्री एक सौं, दादू लीजे लाइ ॥ १० ॥ 
जैसे चुम्बक पत्थर को समीप देख कर उसके आस पास का लोहा उसी के आकर लग जाता है वैसे ही गुरु उपदेश के द्वारा आत्मा के स्वरूप को जान कर मन और मन के गुण मननादि तथा इन्द्रियादि सभी को अद्वैत आत्मा के स्वरूप में ही लगा देना चाहिए । ऐसा करने से मन निरुद्ध हो जाता है । 
.
मन का आसन जे जिव जाने, तो ठौर ठौर सब सूझे । 
पँचों आनि एक घर राखे, तब अगम निगम सब बूझे ॥ ११ ॥ 
११ - १२ में मन स्थिरता पूर्वक ज्ञान का फल बता रहे हैं - यदि मन के आश्रय रूप आसन आत्म स्वरूप ब्रह्म को जीव जान जाय तो प्रत्येक स्थान की सभी वस्तुओं में उसे ब्रह्म ही भासने लगता है और पँच ज्ञानेन्द्रियों को उनके विषयों से लौटा कर एक अद्वैत ब्रह्म - परायण ही रख सके तब तो, मन इन्द्रियों के अविषय, वेद के सर्वस्व ब्रह्म विषयक सभी रहस्य समझने लगता है । 
.
बैठे सदा एक रस पीवे, निर्वैरी कत झूझे । 
आत्म राम मिले जब दादू, तब अँग न लागे दूजे ॥ १२ ॥
जब मन स्थिर होकर सदा एक अद्वैत ब्रह्म चिन्तन - रस का पान करता है, तब वह स्वस्वरूप ब्रह्म को जानकर निर्वैरी हो जाता है । अत: कहीं किसी से भी शास्त्र विषयक वादविवाद रूप युद्ध नहीं करता । जब आत्म स्वरूप राम की प्राप्ति हो जाती है, तब उसका मन द्वैत के स्वरूप में तो लगता ही नहीं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 29 मार्च 2017

= १५८ =

卐 सत्यराम सा 卐
परम कथा उस एक की, दूजा नांही आन ।
दादू तन मन लाइ कर, सदा सुरति रस पान ॥ 
==============================
साभार ~ RadHika ShaRma
महाभारत में कर्ण जैसे "हीरो" का जीवन इतना दुखद क्यों ? सूर्यपुत्र और ओजस्वी होकर भी उसे हमेशा सूतपुत्र पुकारा गया , माँ ने टोकरी में रख कर बहा दिया आदि आदि । (वैसे तो इसी तरह के प्रश्न भीष्म और धृतराष्ट्र के सम्बन्ध में भी उठते हैं - लेकिन उन पर बात कभी और सही) । इस प्रश्न का उत्तर श्री भागवतम में मिलता है ।
.
चार युग हैं :
त्रेता युग में दो कहानियों के तार कर्ण से आ कर जुड़ते हैं ।
एक असुर था - दम्बोद्भव । उसने सूर्यदेव की बड़ी तपस्या की । सूर्य देव जब प्रसन्न हो कर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो उसने "अमरत्व" का वरदान माँगा । सूर्यदेव ने कहा यह संभव नहीं है। तब उसने माँगा कि उसे एक हज़ार दिव्य कवचों की सुरक्षा मिले। इनमे से एक भी कवच सिर्फ वही तोड़ सके जिसने एक हज़ार वर्ष तपस्या की हो और जैसे ही कोई एक भी कवच को तोड़े, वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो ।
.
सूर्यदेवता बड़े चिंतित हुए। वे इतना तो समझ ही पा रहे थे कि यह असुर इस वरदान का दुरपयोग करेगा, किन्तु उसकी तपस्या के आगे वे मजबूर थे। उन्हे उसे यह वरदान देना ही पडा । इन कवचों से सुरक्षित होने के बाद वही हुआ जिसका सूर्यदेव को डर था । दम्बोद्भव अपने सहस्र कवचों की सहक्ति से अपने आप को अमर मान कर मनचाहे अत्याचार करने लगा । वह "सहस्र कवच" नाम से जाना जाने लगा ।
.
उधर सती जी के पिता "दक्ष प्रजापति" ने अपनी पुत्री "मूर्ति" का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र "धर्म" से किया । मूर्ति ने सहस्र कवच के बारे में सुना हुआ था - और उन्होंने श्री विष्णु से प्रार्थना की कि इसे समाप्त करने के लिए वे आयें । विष्णु जी ने उसे आश्वासन दिया कि वे ऐसा करेंगे ।
.
समयक्रम में मूर्ति ने दो जुडवा पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम हुए नर और नारायण । दोनों दो शरीरों में होते हुए भी एक थे - दो शरीरों में एक आत्मा । विष्णु जी ने एक साथ दो शरीरों में नर और नारायण के रूप में अवतरण किया था । दोनों भाई बड़े हुए । एक बार दम्बोध्भव इस वन पर चढ़ आया । तब उसने एक तेजस्वी मनुष्य को अपनी ओर आते देखा और भय का अनुभव किया ।
.
उस व्यक्ति ने कहा कि मैं "नर" हूँ , और तुमसे युद्ध करने आया हूँ । भय होते भी दम्बोद्भव ने हंस कर कहा - तुम मेरे बारे में जानते ही क्या हो ? मेरा कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है जिसने हज़ार वर्षों तक तप किया हो । नर ने हंस कर कहा कि मैं और मेरा भाई नारायण एक ही हैं - वह मेरे बदले तप कर रहे हैं, और मैं उनके बदले युद्ध कर रहा हूँ ।
.
युद्ध शुरू हुआ, और सहस्र कवच को आश्चर्य होता रहा कि सच ही में नारायण के तप से नर की शक्ति बढती चली जा रही थी । जैसे ही हज़ार वर्ष का समय पूर्ण हुआ, नर ने सहस्र कवच का एक कवच तोड़ दिया । लेकिन सूर्य के वरदान के अनुसार जैसे ही कवच टूटा नर मृत हो कर वहीँ गिर पड़े । सहस्र कवच ने सोचा, कि चलो एक कवच गया ही सही किन्तु यह तो मर ही गया । तभी उसने देखा की नर उसकी और दौड़े आ रहा है - और वह चकित हो गया । अभी ही तो उसके सामने नर की मृत्यु हुई थी और अभी ही यही जीवित हो मेरी और कैसे दौड़ा आ रहा है ???
.
लेकिन फिर उसने देखा कि नर तो मृत पड़े हुए थे, यह तो हुबहु नर जैसे प्रतीत होते उनके भाई नारायण थे - जो दम्बोद्भव की और नहीं, बल्कि अपने भाई नर की और दौड़ रहे थे । दम्बोद्भव ने अट्टहास करते हुए नारायण से कहा कि तुम्हे अपने भाई को समझाना चाहिए था - इसने अपने प्राण व्यर्थ ही गँवा दिए ।
.
नारायण शांतिपूर्वक मुस्कुराए । उन्होंने नर के पास बैठ कर कोई मन्त्र पढ़ा और चमत्कारिक रूप से नर उठ बैठे । तब दम्बोद्भव की समझ में आया कि हज़ार वर्ष तक शिवजी की तपस्या करने से नारायण को मृत्युंजय मन्त्र की सिद्धि हुई है - जिससे वे अपने भाई को पुनर्जीवित कर सकते हैं ।
.
अब इस बार नारायण ने दम्बोद्भव को ललकारा और नर तपस्या में बैठे । हज़ार साल के युद्ध और तपस्या के बाद फिर एक कवच टूटा और नारायण की मृत्यु हो गयी । फिर नर ने आकर नारायण को पुनर्जीवित कर दिया, और यह चक्र फिर फिर चलता रहा । इस तरह ९९९ बार युद्ध हुआ । एक भाई युद्ध करता दूसरा तपस्या । हर बार पहले की मृत्यु पर दूसरा उसे पुनर्जीवित कर देता । जब ९९९ कवच टूट गए तो सहस्र कवच समझ गया कि अब मेरी मृत्यु हो जायेगी । तब वह युद्ध त्याग कर सूर्यलोक भाग कर सूर्यदेव के शरणागत हुआ ।
.
नर और नारायण उसका पीछा करते वहां आये और सूर्यदेव से उसे सौंपने को कहा । किन्तु अपने भक्त को सौंपने पर सूर्यदेव राजी न हुए। तब नारायण ने अपने कमंडल से जल लेकर सूर्यदेव को श्राप दिया कि आप इस असुर को उसके कर्मफल से बचाने का प्रयास कर रहे हैं, जिसके लिए आप भी इसके पापों के भागीदार हुए और आप भी इसके साथ जन्म लेंगे इसका कर्मफल भोगने के लिए ।
इसके साथ ही त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर का प्रारम्भ हुआ ।
-----------------
समय बाद कुंती जी ने अपने वरदान को जांचते हुए सूर्यदेव का आवाहन किया, और कर्ण का जन्म हुआ । लेकिन यह आम तौर पर ज्ञात नहीं है, कि, कर्ण सिर्फ सूर्यपुत्र ही नहीं है, बल्कि उसके भीतर सूर्य और दम्बोद्भव दोनों हैं । जैसे नर और नारायण में दो शरीरों में एक आत्मा थी, उसी तरह कर्ण के एक शरीर में दो आत्माओं का वास है - सूर्य और सहस्रकवच । दूसरी ओर नर और नारायण इस बार अर्जुन और कृष्ण के रूप में आये ।
.
कर्ण के भीतर जो सूर्य का अंश है, वही उसे तेजस्वी वीर बनाता है । जबकि उसके भीतर दम्बोद्भव भी होने से उसके कर्मफल उसे अनेकानेक अन्याय और अपमान मिलते हैं, और उसे द्रौपदी का अपमान और ऐसे ही अनेक अपकर्म करने को प्रेरित करता है । यदि अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ता, तो तुरंत ही उसकी मृत्यु हो जाती । इसीलिये इंद्र उससे उसका कवच पहले ही मांग ले गए थे ।
---------------
एक और प्रश्न जो लोग अक्सर उठाते हैं - श्री कृष्ण ने(इंद्रपुत्र)अर्जुन का साथ देते हुए(सूर्यपुत्र)कर्ण को धोखे से क्यों मरवाया ?
..... कहते हैं कि श्री राम अवतार में श्री राम ने(सूर्यपुत्र)सुग्रीव से मिल कर(इंद्रपुत्र) बाली का वध किया था(वध किया था, धोखा नहीं । जब किसी अपराधी को जज मृत्युदंड की सजा देते हैं तो उसे सामने से मारते नहीं - यह कोई धोखे से मारना नहीं होता) - सो इस बार उल्टा हुआ ।

= १५७ =


卐 सत्यराम सा 卐
शून्य हि मार्ग आइया, शून्य हि मारग जाइ ।
चेतन पैंडा सुरति का, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥ 
============================
साभार ~ Anand Nareliya

****माया-संसार और बिचार****
.
जब तक बुद्धि है, विचारों से भरा हुआ जाल है तुम्हारे भीतर तब तक संसार है। और तब तक माया ही माया है इसको ख्याल में लें संसार बाहर नहीं है, बुद्धि की विचारणा में है संसार ध्यान का अभाव है..
निर्ममो निरहकारो निष्काम: शोभते बुध:।
.
और वह जो बुद्धत्व को प्राप्त हो गया उसके भीतर कौन - सी क्रांति घटती? 
न तो उसके भीतर ममता रह जाती, न अहंकार रह जाता, न कामना रह जाती विचार के जाते ही ये तीन चीजें चली जाती हैं कामना चली जाती बिना विचार के कामना चल नहीं सकती कामना को चलने के लिये विचार के अश्व चाहिए विचार के घोडों पर बैठकर ही कामना चलती है अगर तुम्हारे भीतर विचार नहीं तो तुम कामना को फैलाओगे कैसे? किन घोड़ों पर सवार करोगे कामना को? 
.
निर्विचार चित्त में तो कामना की तरंग उठ ही नहीं सकती इसलिए कामना मर जाती है विचार के साथ ममता मर जाती। किसको कहोगे मेरा? 
किसको कहोगे अपना? 
किसको कहोगे पराया? 
मेरा और तेरा विचार का ही संबंध है जहां विचार नहीं वहां कोई मेरा नहीं, कोई तेरा नहीं जहां विचार नहीं है वहां सब संबंध विसर्जित हो गये सब संबंध विचार के हैं ....
.
और तीसरी चीज अहंकार जहां विचार नहीं वहां मैं भी नहीं बचता क्योंकि मैं सभी विचारों के जोड़ का नाम है सभी विचारों की इकट्ठी गठरी का नाम मैं ये तीन चीजें हट जाती हैं जैसे ही विचार हटता इसलिए मेरा सर्वाधिक जोर ध्यान पर है ध्यान का इतना ही अर्थ होता है, तुम धीरे - धीरे निर्विचार में रमने लगो बैठे हैं, कुछ सोच नहीं रहे चल रहे हैं और कुछ सोच नहीं रहे सोच ठहरा हुआ है, इस ठहरेपन में ही तुम अपने में डुबकी लगाओगे, इस ठहरेपन में ही स्फुरणा होगी, समाधि जगेगी....
osho
अष्‍टावक्र महागीता (भाग–6) प्रवचन–77

= उक्त अनूप(ग्रन्थ ७/६-७) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*= उक्त अनूप१ (ग्रन्थ ७) =*
*= तमोगुण की वृत्ति =*
.
*पर धन पर दारा गवन, चोरी हिंसा कृत्य ।*
*निद्रा तन्द्रा आलसं, ये तम गुण की ब्रत्य ॥६॥*
दूसरे के धन को छीनना, परायी स्त्री के साथ सम्भोग करना, चोरी करना, हिंसात्मक कार्य, निद्रा, तन्द्रा(झपकी लेना, आलस्य) - ये चेष्टायें तमोगुण की है ॥६॥
.
*तामस गुण की वृत्ति मैं, होइ तामसी आप ।*
*कष्ट परै जब आइ कैं, मानै दुख संताप ॥७॥*
तमोगुण की अधिकता वाली वृत्ति के समय आत्मा भी तामस गुण का अनुभव करने लगता है और तामसिक चेष्टाओं के कारण शरीर पर कोई कष्ट या ताप पड़ता है तो आत्मा उसे अपने में अनुभव करता है ॥७॥
(क्रमशः)

= विन्दु (२)९६ =

#daduji

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*= विन्दु ९६ =*
.
*= स्मृति =*
“दादू करणी ऊपर जाति है, दूजा सोच निवार । 
मैली मध्यम हो गये, उज्वल ऊंच विचार ॥” 
.
*इतिहास -* 
“केते मर माटी भये, बहुत बड़े बलवंत । 
दादू केते हो गये, दाना देव अनन्त ॥” 
.
*पुराण -* 
“दादू धरती एक डग, दरिया करते फाल । 
हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥” 
.
*अवतार चरित -* 
“मुख बोल स्वामी तू अन्तर्यामी, 
तेरा शब्द सुहावे रामजी ॥ टेक ॥ 
धेनु चरावन बेनु बजावन, 
दर्श दिखावन कामिनी ॥ १ ॥ 
बिरह उपावन तप्त बुझावन, 
अंग लगावन भामिनी ॥ २ ॥ 
संग खिलावन रास बनावन, 
गोपी भावन भूधरा ॥ ३ ॥ 
दादू तारन दुरित निवारण, 
संत सुधारण रामजी ॥ ४ ॥ 
.
*अन्तरंग रास -* 
“घट घट गोपी घट घट कान्ह, 
घट घट राम अमर सुस्थान ॥ टेक ॥
गंगा यमुना अन्तरवेद, 
सरस्वती नीर बहे प्रस्वेद ॥ १ ॥ 
कुंज केलि तहँ परम विलास, 
सब संगी मिल खेलैं राम ॥ २ ॥ 
तहँ बिन बैना बाजैं तूर, 
विकसे कमल चन्द अरु सूर ॥ ३ ॥ 
पूरण ब्रह्म परम परकास, 
तहँ निज देखे दादू दास ॥” 
.
*तीर्थ -* 
“काया कर्म लगाय कर, तीरथ धोवे आय । 
तीरथ मांहीं कीजिये, सो कैसे कर जाय ॥ 
जहँ तरिये तहँ डूबिये, मन में मैला होय । 
जहँ छूटे तहँ बंधिये, कपट न सीझे कोय ॥” 
.
*साहित्य -* 
“शोधन पीवजी साज सँवारी, 
अब वेगि मिलो तन जाइ वनवारी ॥ टेक ॥ 
साज श्रृंगार किया मन मांहीं, 
अजहुँ पीव पतीजे नांहीं ॥ १ ॥ 
पीव मिलन को अह निशि जागी, 
अजहूँ मेरी पलक न लागी ॥ २ ॥ 
जतन जतन कर पंथ निहारूं, 
पिव भावे त्यों आप संवारूं ॥ ३ ॥ 
अब सुख दीजे जाउं बलिहारी, 
कहै दादू सुन विपति हमारी ॥ ४ ॥” 
.
*नारी धर्म -*
“पतिव्रता गृह आपने, करे खसम की सेव । 
ज्यों राखे त्योंही रहै, आज्ञाकारी टेव ॥ 
दादू नीच ऊँच कुल सुन्दरी, सेवा सारी होय । 
सोइ सुहागिनी कीजिये, रूप न पीजे धोय ॥”
(क्रमशः)

= मन का अंग =(१०/७-९)


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
.
सोई शूर जे मन गहै, निमष न चलने देइ । 
जब ही दादू पग भरे, तब ही पाकड़ लेइ ॥ ७ ॥ 
जो विषयों में जाते हुये मन को विषयों का मिथ्यात्व और भगवद् भजन का लाभ दिखाकर भगवत् स्मरण द्वारा ग्रहण कर लेता है तथा भगवत् स्वरूप से एक पलक भी दूर नहीं जाने देता, कदाचिद् विषयों की ओर वासना - पैर उठाता भी है, तो उसी क्षण अनासक्ति रूप हाथ से पकड़ लेता है, वही साधक वीर माना जाता है । 
जेती लहर समुद्र की, ते ते मनहि मनोरथ मार । 
बैसे सब सँतोष कर, गह आतम एक विचार ॥ ८ ॥ 
८ - १० में मनोनिग्रह का उपाय कह रहे हैं - जैसे समुद्र की लहरें अपार हैं वैसे ही मन के मनोरथ अपार हैं । उन सब मनोरथों को मार कर, सँतोष और ब्रह्म विचार द्वारा अद्वैत आत्म स्वरूप ब्रह्म को ग्रहण करके बैठता है - ब्रह्म भिन्न वृत्ति नहीं होने देता, तब ही मन निरुद्ध होता है । 
दादू जे मुख माँहीं बोताँ, श्रवणहुं सुनतां आइ । 
नैनहुं मांहीं देखतां, सो अंतर उरझाइ ॥ ९ ॥ 
जो वाक् इन्द्रिय रूप मुख में आकर यथा योग्य बोलता है, श्रवण इन्द्रिय में आकर सम्यक् सुनता है, नेत्र इन्द्रिय में आकर देखता है, जिसके बिना इन्द्रियाँ अपना काम करने में समर्थ नहीं होतीं, वही मन है । उसे ही अन्तरात्मा में लगा । ऐसा अभ्यास करने से मन निरुद्ध होगा ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 28 मार्च 2017

= १५६ =

卐 सत्यराम सा 卐
ऐसो खेल बन्यो मेरी माई, 
कैसै कहूँ कछु जान्यो न जाई ॥ 
सुर नर मुनिजन अचरज आई, 
राम-चरण को भेद न पाई ॥ 
===================
साभार ~ Anand Nareliya

****HIGHT OF INDIA****

तुम हो, किस कारण हो? मन में सवाल उठते हैं, किसलिए हूं मैं? क्या कारण है मेरे होने का? सिर्फ इस देश में उसका ठीक - ठीक उत्तर दिया गया है। सारी दुनिया में उत्तर देने की कोशिश की गई है।
.
ईसाई कहते हैं कुछ, मुसलमान कहते हैं कुछ, यहूदी कहते हैं कुछ, लेकिन सिर्फ इस देश में ठीक - ठीक उत्तर दिया गया है। इस देश का उत्तर बड़ा अनूठा है। अनूठा है - लीला के कारण। लीला का मतलब होता है, अकारण। खेल है। उसकी मौज है। इसमें कुछ कारण नहीं है। क्योंकि जो भी कारण तुम बताओगे वह बड़ा मूढ़तापूर्ण मालूम पड़ेगा।
.
कोई कहता है, परमात्मा ने इसलिए संसार बनाया कि तुम मुक्त हो सको। यह बात बड़ी मूढ़तापूर्ण है। क्योंकि पहले संसार बनाया तो तुम बंधे। न बनाता तो बंधन ही नहीं था, मोक्ष होने की जरूरत क्या थी? यह तो बड़ी उल्टी बात हुई कि पहले किसी को जंजीरों में बांध दिया और फिर वह पूछने लगा, जंजीरों में क्यों बांधा? तो उसको जबाब दिया कि तुम्हें मुक्त होने के लिए। जंजीरों में ही काहे को बांधा जब मुक्त ही करना था?
.
परमात्मा ने संसार को बनाया आदमी को मुक्त करने के लिए? यह तो बात उचित नहीं है अर्थपूर्ण नहीं है, बेमानी है। कि परमात्मा ने संसार को बनाया कि आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो जाये? यह भी बात बेमानी है। इतना बडा संसार बनाया तो ज्ञान ही सीधा दे देता। इतने चक्कर की क्या जरूरत थी? कि परमात्मा ने बुराई बनाई कि आदमी बुराई से बचे। ये कोई बातें हैं ! ये कोई उत्तर है ! बुराई से बचाना था तो बुराई बनाता ही नहीं। 
.
प्रयोजन ही क्या है? यह तो कुछ अजीब सी बात हुई कि जहर रख दिया ताकि तुम जहर न पीयो। तलवार दे दी ताकि तुम मारो मत। कांटे बिछा दिये ताकि तुम सम्हलकर चलो। पर जरूरत क्या थी? ठीक इस देश में उत्तर दिया गया है। उत्तर है - लीलावत। यह जो इतना विस्तार है, यह किसी कारण नहीं है। इसके पीछे कोई प्रयोजन नहीं है। इसके पीछे कोई व्यवसाय नहीं है। इसके पीछे कोई लक्ष्य नहीं है, यह अलक्ष्य है। फिर क्यों है?
.
जैसे छोटे बच्चे खेल खेलते हैं, ऐसा परमात्मा अपनी ऊर्जा का स्फुरण कर रहा है। ऊर्जा है तो स्फुरण होगा। जैसे झरनों में झर - झर नाद हो रहा है, जैसे सागरों में उतुंग लहरें उठ रही हैं। यह सारा जगत एक महाऊर्जा का सागर है। यह ऊर्जा अपने से ही खेल रही है, अपनी ही लहरों से खेल रही है। खेल शब्द ठीक शब्द है। लीला शब्द ठीक शब्द है। यह कोई काम नहीं है जो परमात्मा कर रहा है। लीलाधर ! यह उसकी मौज है। यह उसका उत्सव है।
osho 
अष्‍टावक्र: महागीता (भाग–6) प्रवचन–76

= १५५ =


卐 सत्यराम सा 卐
लोभ मोह मद माया फंध, ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥ 
दादू यहु तन यों ही जाइ, राम विमुख मर गये विलाइ ॥ 
==================================

*मनुष्य हो तो दीन कैसे..?*

अरब की एक मलिका ने अपनी मौत के बाद कब्र के पत्थर पर ये पंक्तियां लिखने का आदेश जारी किया- ‘‘मेरी इस कब्र में अपार धनराशि गड़ी हुई है। इस संसार में जो व्यक्ति सर्वाधिक निर्धन, दीन-दरिद्र और अशक्त हो, वही इस कब्र को खोद कर अपार धनराशि प्राप्त कर अपनी निर्धनता दूर कर सकता है।’’
.
देखते-देखते मलिका की कब्र को बने हजारों वर्ष बीत गए। अनेक दरिद्र और भिखमंगे उधर से गुजरे, लेकिन किसी ने भी खुद को इतना दरिद्र नहीं माना कि धन के लिए किसी की कब्र ही खोदने लगे।
.
आखिरकार एक दिन वह व्यक्ति भी आ पहुंचा जो उस कब्र को खोदे बिना नहीं रह सका। अचरज की बात तो यह थी कि यह कब्र खोदने वाला व्यक्ति स्वयं भी एक राजा था। उसने कब्र वाले इस देश को हाल ही में युद्ध में जीता था। अपनी जीत के साथ ही उसने बिना समय गंवाए उस कब्र की खुदाई का काम शुरू कर दिया।
.
लेकिन कब्र की खुदाई में उसे अपार धनराशि की बजाय एक पत्थर ही हाथ लगा जिस पर लिखा हुआ था, ‘‘ऐ कब्र खोदने वाले इंसान, तू अपने से सवाल कर… क्या तू सचमुच मनुष्य है?’’
.
निराश व अपमानित हुआ वह सम्राट जब कब्र से वापस लौट रहा था तो लोगों ने देखा कि कब्र के पास रहने वाला एक बूढ़ा भिखमंगा जोर-जोर से हंस रहा था। हंसते-हंसते वह कह रहा था, ‘‘सालों से इंतजार कर रहा था, आखिरकार आज धरती के सबसे निर्धन, दरिद्र और अशक्त व्यक्ति के दर्शन हो ही गए।’’
.
यह आवाज राजा के कान तक भी जा पहुंची। उसे लगा सचमुच वह सबसे दरिद्र, दीन और अशक्त है। अपनी जीत के बावजूद उसे लगने लगा जैसे वह कब्र के उस पत्थर की इबारत से बुरी तरह पराजित हो गया है।

= उक्त अनूप(ग्रन्थ ७/३-४) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
.
*= उक्त अनूप१ (ग्रन्थ ७) =*
*= त्रिगुणात्मिका सृष्टि =*
.
*तमगुण रजगुण सत्वगुण, तिनकौ रचित शरीर ।*
*नित्य मुक्त यह आतमा, भ्रम तें मानत सीर ॥३॥*
मनुष्य का यह शरीर तम, रज तथा सत्त्व गुणों से बना हुआ है और आत्मा नित्य मुक्त है । भ्रम के कारण ही मनुष्य अपनी आत्मा का सम्बन्ध इस देह से या इसके द्वारा किये कर्मों से मानता है ॥३॥
.
*तीन गुननि की वृत्ति महिं, है थिर चंचल अंग ।*
*ज्यौं प्रतिबिंब हि देखिये, हालत जल के संग ॥४॥*
जैसे जल में पड़ा हुआ प्रति बिम्ब जल के हिलने से हिलता हुआ दिखायी देता है, उसी तरह इस शरीर की सृष्टि त्रिगुणमयी होने से अंग-प्रत्यंग एवं इसकी इन्द्रियाँ चंचल दिखायी देती है । आत्मा के उनमें प्रतिबिम्ब पड़ने से आत्मा भी चंचल दिखायी देता है । पर बात वस्तुतः ऐसी नहीं ॥४॥
.
*तीन गुननि की ब्रत्य जे, तिन में तैसौ होइ ।*
*जड सौं मिलि जडवत भयौ, चेतन सत्ता खोइ ॥५॥*
इन्द्रियों की भी त्रिगुणात्मिका वृत्ति होने से उनमें तीनों गुणों के भाव दिखायी देते हैं, ब्रह्म का प्रतिबिम्ब आत्मा इन जड़ इन्द्रियों से मिलकर जड़ता धारण कर लेता है और अपना चेतनस्वरूप खो बैठता है ॥५॥
(क्रमशः)

= विन्दु (२)९६ =


#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
*श्री दादू चरितामृत(भाग-२)* 
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
*= विन्दु ९६ =*
.
*= वेदांग षट् =* 
*१. शिक्षा -* 
“दादू शब्दैं शब्द समाइ ले, परमातम से प्राण । 
यहु मन मन से बंध ले, चित्तैं चित्त सुजाण ॥” 
*२. कल्प -* 
“दादू नाम निमित रामहि भजे, भक्ति निमित भज सोय । 
सेवा निमित सांई भजे, सदा सजीवन होय ॥” 
*३. व्याकरण -*
“शब्दैं बंध्या सब रहै, शब्दैं सब जाय ।
शब्दैं ही सब ऊपजे, शब्दैं सबै समाय ॥” 
*४. निरुक्त -* 
“रत्न पदारथ माणिक मोती, हीरों का दरिया । 
चिन्तामणि चित राम धन, घट अमृत भरिया ॥ 
ब्रह्म गाय त्रय लोक में, साधू अस्थन पान । 
मुख मारग अमृत झरै, कत ढूंढे दादू आन ॥” 
*५. ज्योतिष -* 
“सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत ।
आगम निगम सब कथे, घर में नाचे भूत ॥ 
सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात । 
जान कहावैं बापुड़े, आयुध लीये हाथ ॥”
*६. पिंगल -* 
“दादू पद जोड़े साखी कहै, विषय न छाड़े जीव । 
पानी घाल बिलोइये, क्यों कर निकसे घीव ॥
दादू दो दो पद किये, साखी भी दो चार । 
हम को अनुभव ऊपजी, हम ज्ञानी संसार ॥” 
(क्रमशः)

= मन का अंग =(१०/४-६)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*मन का अँग १०*
.
जहां तैं मन उठ चले, फेरि तहां ही राखि । 
तहं दादू लै लीन कर, साध कहैं गुरु साखि ॥ ४ ॥ 
४ - ५ में मनोनिग्रह का उपाय बता रहे हैं - साधक ! जिस आत्मा की सत्ता प्राप्त करके यह मन अपनी अप्रकट अवस्था से प्रकट होकर विषयों की ओर चले, तब इसको विषयों से पीछे लौटा कर तथा इसकी अप्रकटावस्था में ही इसे रोककर, आत्म चिन्तन द्वारा उसी आत्मा के स्वरूप में लीन कर । मन को जीतने वाले सँत मनो - निग्रह का यही उपाय कहते हैं और सद्गुरु की भी इसमें साक्षी है । 
थोरे थोरे हठ किये, रहेगा ल्यौ लाइ । 
जब लागा उनमनि सौं, तब मन कहीं न जाइ ॥ ५ ॥ 
४ में बताई हुई रीति से किंचित २ रोकने का अभ्यास शनै: - शनै: करते रहने से मन अपनी वृत्ति आत्म - स्वरूप ब्रह्म में लगाकर रहने लगेगा । इस प्रकार अभ्यास की प्रौढ़ावस्था में जब सहजावस्था रूप उनमनी नामक समाधि में लगेगा, तब उस अवस्था को छोड़ कर यह मन साँसारिक विषयों के किसी भी प्रदेश में नहीं जायगा । इस लोक और स्वर्ग के भोगों की इच्छा न करेगा, निरँतर ब्रह्म में ही लीन रहेगा । 
आडा दे दे राम को, दादू राखे मन । 
साखी दे सुस्थिर करे, सोई साधू जन ॥ ६ ॥ 
६ - ७ में मनोनिग्रह करने वाले श्रेष्ठ साधक का परिचय दे रहे हैं - जो विषयों में जाते हुये मन का राम - नाम - स्मरण रूप आड़ लगा कर स्वस्थान में ही रोक लेता है और गुरु - वेदादि के ज्ञान - वैराग्य प्रधान वचन साक्षी द्वारा समझा कर सम्यक् ब्रह्म में ही स्थिर करता है, वही श्रेष्ठ सँत है ।
(क्रमशः)


सोमवार, 27 मार्च 2017

= १५४ =

卐 सत्यराम सा 卐
*ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषै मेह ।*
*तहँ चित चातक ह्वै रह्या, दादू अधिक स्नेह ॥* 
*महारस मीठा पीजिये, अविगत अलख अनन्त ।*
*दादू निर्मल देखिये, सहजैं सदा झरंत ॥* 
=========================
साभार ~ Sadanand Soham
*: : मनन के मोती : :*
प्रिय आत्मन ~ प्रेम ..
(S000000000000000000000000000000000000HAM)
.
एक भवन का निर्माण हो रहा था ! बङा सुंदर भवन बन गया ! सजावट, फर्नीचर, रंग रोगन .. सब कुछ अच्छा हो गया ! उस अच्छे से घर में वो घर का मालिक रहने लग गया ! पर एक समस्या उसे हो गयी ! उस घर में .. पानी .. जो बाहर से आता था ~ कभी कम आता, कभी गंदा, अशुद्ध आता .. तो वो टैंकर से या बाल्टी से मँगवा लेता ! पैसे भी लगते, श्रम भी होता, परेशानी भी होती .. मगर क्या करे .. क्यों कि रहना है तो जल नितांत आवश्यक है ! वो हरदम इस समस्या से परेशान रहता था !
.
किसी मित्र ने उसे सलाह दी कि तुम्हारे घर के नीचे बहुत ही मीठे जल की धारा बह रही है .. तुम एक कुँआ क्यों नहीं बनवा लेते ! आदमी थोड़ा समझदार था .. उसने ये सलाह मान ली और कुँआ खुदवा लिया ! उसकी समस्या न केवल उसके लिये दूर हो गयी, अब तो वो औरों को भी जल बाँटने में सक्षम हो गया ! 
.
पर क्या सब लोग इतने समझदार और सलाह मानने वाले होते हैं ? मनुष्य का जीवन उसका भवन है ! ये शरीर उसका घर होता है जिसमें वो रहता है ! और इस घर में .. सुख रूपी जल .. वो हमेशा केवल बाहर से ही लाने का प्रयास करता रहता है ! निरंतर उसका ये प्रयास रहता है कि कैसे सुख मिले ! बहुत सारा धन, तरह तरह के साधन, तरह तरह के भोजन, मनोरंजन ~ सब कुछ जुटाने का अथक प्रयास करता है ! 
.
लेकिन .. पहली बात तो सुख आसानी से मिलते नहीं .. और मिल भी जाये .. तो ये सारे सुख मिलते ही पुराने हो जाते हैं ! और मन का स्वभाव ऐसा है कि उसे नित नये सुख की तलाश रहती है ! 
.
दूसरे, जैसे बाहर के पानी के साथ अनेक अशुद्धियाँ भी आ जाती हैं ~ बाह्य साधनों और सुखों के साथ और इनको प्राप्त करने की प्रक्रिया में तरह तरह की चिंतायें और तनाव भी आ जाते हैं ! धनी व्यक्ति को और ज्यादा चिंतायें हो जाती हैं कि .. और अधिक कैसे आये और जो आ गया है वो मेरे ही पास हरदम कैसे बना रहे .. कोई और इसे मुझसे ना ले ले !
.
दुनिया के सारे धर्म और इतने संत, ज्ञानी हुए .. सब पुकार पुकार कर कहते हैं कि परमात्मा तुम्हारे अंदर है, राम तुम्हारे घट में बसे हैं, आनंद की रसधार का स्रोत तुम्हारे भीतर है, जरा स्वयं के भीतर खुदाई करके कुँआ बना लो ! मगर मनुष्य जाति इतनी अधिक समझदार हो गयी है कि ये बातें सुनाई नहीं पङती, पुरानी लगती हैं, समझ में ही नहीं आती ! मनुष्यता धर्म केंद्रित न होकर केवल धन केंद्रित हो गयी है ~ ऐसा प्रतीत होता है ! 
.
सुख रूपी जल तो आवश्यक है .. मगर केवल बाहर के ही जल पर निर्भर ना रहकर अगर अपना कुँआ भी बना लिया जाये .. तो जीवन के घर में आनंद की वृद्धि हो जाये ! और आनंद की रसधार निश्चित रूप से भीतर है ! क्यों कि जिन्होंने भी भीतर प्रवेश किया है .. उन्होंने उसे पाया है ! जिन्होंने उसे पाया है .. उन्होंने ही तो कहा है ~ 
*बिन घन परत फुहार* 
यानी बिना बादल फुहार बरस रही है ! अकारण, आनंद की फुहार हो रही है और वो मस्ती में झूम रहे हैं ! परमात्मा के रस की बरसात भीतर हो रही है और वो आनंद को, खुमारी को अनुभव कर रहे हैं...
.
*पीवत राम रस लगी खुमारी*
कितने आश्चर्य की बात है .. कि मनुष्य स्वयं के भीतर जो आनंद, जो सुख उपस्थित और जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा भी नहीं है .. उसको भूला रहता है, उसको जानने का प्रयास भी नहीं करता, और सदा बाहर से ही सुखों को पाने के प्रयास में लगा रहता है ! और उसके फलस्वरूप होनेवाली अशांति, बेचैनी, तनाव की पीङा के दंश को सहन करता रहता है !
.
एक बार आंतरिक आनंद के स्रोत का द्वार खुल जाये .. तो बाहर के सुखों की अनुभूति भी अद्भुत हो जाती है, स्वतः कई गुना बढ जाती है ! और इस आंतरिक स्रोत के द्वार को खोलने का मार्ग है ~ मौन, ध्यान, मेडीटेशन, स्वयं में प्रवेश .. !!
.
मित्रों ~ जिस भवन में हम रहते हैं .. उसमें कचरे को, अप्रिय वस्तुओं को हम सहन नहीं करते हैं ! उसे स्वच्छ और सुंदर वस्तुओं से सजा कर रखते हैं ! हम जिस मकान में, भवन में रहते हैं, उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जीवन का भवन ! और इस जीवन के भवन में अशांति, तनाव, बेचैनी, क्रोध जैसी अप्रिय वस्तुओं की जगह .. प्रेम, शांति, मैत्री, और आनंद की रसधार का आयोजन करना, ये प्रत्येक मनुष्य के स्वयं के चुनाव पर निर्भर करता है ! 
.
*आपका आंतरिक केंद्र .. आंतरिक स्रोत सदा से आपकी प्रतीक्षा कर रहा है !* 
*आपका अंतस का केंद्र सिर्फ आपका है... और तथ्य तो ये है, कि केवल वो ही आपका है !*
बाकी सब बाहर की वस्तुएं, रिश्ते .. सब ..... ... ??
आपका ~ आपके आंतरिक केंद्र से परिचय हो .. उसमें प्रवेश हो... 
इसी मंगल भावना के साथ ~ 
आपके दिव्य आंतरिक केंद्र को मेरे प्रणाम .. !!

= १५३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू यह तो दोज़ख देखिये, काम क्रोध अहंकार ।
रात दिवस जरबौ करै, आपा अग्नि विकार ॥ 
============================
साभार ~ Girdhari Agarwal
*आध्यात्मिक शिक्षाप्रद कथा*
*क्रोध पहला शत्रु*
.
एक समय था जब राजा-महाराजाओं को पक्षी पालने का शौक होता था| ऐसे ही एक राजा के पास कई सुंदर पक्षी थे| उनमें से एक चकोर राजा को अति प्रिय था और वह जहाँ भी जाता उसे जरुर साथ ले जाता था|
.
एक दिन जब वह शिकार के लिये वन में गया तो रास्ता भटक गया| राजा का प्यास से गला सूखने लगा| वह पानी की तलाश में इधर-उधर भटकने लगा| अचानक राजा की नजर दो चट्टानों के बीच से बूँद-बूँद रिसते पानी पर पड़ी| राजा ने एक प्याला निकाला और वहाँ रख दिया| थोड़ी देर में प्याला भर गया| जैसे ही राजा ने उस प्याले को पीने के लिये उठाया, चकोर ने पँख मारकर उसे गिरा दिया| राजा को चकोर पर बहुत क्रोध आया, परंतु फिर भी उसने उस प्याले को मारने के लिये दोबारा चट्टानों के पास रख दिया| जब पुनः राजा पानी पीने का प्रयास करने लगा तो चकोर ने उसे फिर से गिरा दिया|
.
अब तो राजा इतना क्रोधित हो गया कि उसने चकोर की गर्दन मरोड़ दी| चकोर देखते ही देखते मर गया| राजा प्यास से इतना व्याकुल था कि उसने फिर चट्टान की ओर देखा तो हैरान रह गया| जिन चट्टानों से पानी आ रहा था वहाँ एक मरा हुआ सांप पड़ा था और पानी सांप के मुहँ से छूकर आ रहा था| राजा डर से कांप उठा| तब उसे ख्याल आया कि चकोर उसे बचाने के लिए ही बार-बार पानी गिरा रहा था| राजा ने बहुत पश्चाताप किया| पर अब उसके हाथों मारा गया उसका प्रिय चकोर जीवित तो नहीं हो सकता था| 
.
कहने वाले ठीक ही कह गये हैं कि क्रोध यमराज के समान होता है, उसका फल भुगतना ही पड़ता है| क्रोध मनुष्य का पहला शत्रु है| दूसरे शत्रु तो बाहर से ही वार करते हैं, किंतु यह तो शरीर में रहते हुए ही देह का दहन करता है| जिस प्रकार लकड़ी में रहने वाली आग लकड़ी को भस्म कर देती है, उसी तरह क्रोध भी इंसान को भस्म कर देता है|
.
शिक्षा- क्रोध मनुष्य को स्वयं की गलती का एहसास कराता है| जिसका फल उसे भुगतना पड़ता है|