रविवार, 26 अप्रैल 2015

= १२९ =

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॥ दादूराम सत्यराम ॥
*मनमुखी मान बड़ाई*
*पूजा मान बड़ाइयां, आदर मांगै मन ।*
*राम गहै, सब परिहरै, सोई साधु जन ॥१२२॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह मन पूजा, मान, बड़ाई, आदर, इन वस्तुओं को चाहता है और जहां - जहां ये इसे प्राप्त होते हैं, वहां - वहां ही यह दौड़कर जाता है । परन्तु मुक्त - पुरुष, निज स्वरूप राम का अन्तःकरण में स्मरण ग्रहण करते हैं और उपरोक्त जिन विषयों को मन चाहता है, उनका वे पुरुष त्याग करते हैं । वे ही संतजन हैं ॥१२२॥
मान बड़ाई मन चहै, स्व स्वभाव ये आइ ।
‘तुलसी’ सन्त सयान सो, ये तज गोविन्द गाइ ॥
बायजीद के वचन का, शिष्य रहस्य नहीं जान ।
मन का मान उतार तू, अपनी गति पहचान ॥
दृष्टान्त - एशिया को वस्ताम देश का निवासी वायजीद वस्तामी को उनके एक शिष्य ने कहा - मुझे उच्च कोटि का उपदेश दीजिए । बायजीद ने उसकी परीक्षा लेने के लिये उसे कहा कि तुम गले में अखरोटों की झोली डालकर बाजार में जाओ और उच्च स्वर से बोलो - "मेरे सिर पर जो जूता मारेगा, उसे मैं अखरोट दूँगा ।" 
इस पर शिष्य ने अपनी मन: स्थिति बतलाते हुए गुरुजी से कहा - यह तो मेरे से नहीं होगा । बायजीद ने पहले मन के मान(आपा) को हटाओ, तब ही उच्च कोटि के उपदेश के अधिकारी बनोगे ।
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*जहां जहां आदर पाइये, तहां तहां जीव जाइ ।*
*बिन आदर दीजे राम रस, छाड़ि हलाहल खाइ ॥१२३॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस - जिस स्थान में इसको आदर मिलता है इसकी मान प्रतिष्ठा होती है, वहां - वहां ही यह मनरूप जीव दौड़ - दौड़ कर जाता है, परन्तु राम - रस जहां बँटता है सत्संग में, वहां इस मनरूप जीव को इसकी इच्छा अनुसार आदर नहीं मिलता है । वहां सत्संग में इस मनरूप जीव को ले जाकर रामरस रूप अमृत पिलाओ । फिर यह मनरूप जीव शब्द - रूप - स्पर्शादि हलाहल विषयों को छोड़कर राम - रस को पीने लगेगा ॥१२३॥
गुरु दादू की कथा में, आवत एक रजपूत ।
सो ले आयो पावणो, सो उठ गयो कपूत ॥
दृष्टान्त - आमेर में ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज प्रवचन करते थे । एक राजपूत भी महाराज के प्रवचन में रोज आता । एक रोज उसके घर उसका कोई सम्बन्धी राजपूत आ गया ।
उसकी सब प्रकार अतिथि सेवा करके बोला, आप यहां आराम करो, मैं गुरुदेव के प्रवचन सुनकर अभी आऊँगा । वह बोला, हम भी चलेंगे, कैसे प्रवचन करते हैं ? वह उसको साथ लेकर आया । वह तो नमस्कार करके जहां जगह मिली, बैठ गया, परन्तु वह मेहमान खड़ा रहा आदर सम्मान की इच्छा करके ।
कुछ देर में रुष्ट होकर वापिस चला गया और कहने लगा - जहां आदर नहीं, मान नहीं, हुक्का नहीं, बीड़ी नहीं, वहां जाकर क्या करें ?’ पावणा राजपूत तो आदर सम्मान के लिये गया था, ज्ञान उपदेश लेने नहीं । वह तो बहिर्मुखी था ।
बाजार में एक वेश्या ने उन्हें जाते देखकर आदर से बुलाया, तब उसके पास चले गये और विषय रूप विष को प्राप्त करके मन में बड़े प्रसन्न हुए । तभी महाराज ने कहा है - प्राणी बिना आदर राम भक्ति रूप रसामृत को छोड़कर आदर और मान सहित विषय रूप विष पाकर भी प्रसन्न होता है ।
(क्रमशः)
(श्री दादूवाणी~मन का अंग)

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