फेसबुक संकलन(१५) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
फेसबुक संकलन(१५) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 19 अगस्त 2017

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
.
चंद सूर पावक पवन, पाणी का मत सार ।
धरती अंबर रात दिन, तरुवर फलैं अपार ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमपिता परमेश्‍वर की आज्ञा मान कर चन्द्रमा, सूर्य, पानी, पवन, आकाश, पृथ्वी, रात, दिन, तरुवर, ये सब ही परमेश्‍वर की आज्ञानुसार परोपकार करते हैं । इनको कोई स्वार्थ नहीं हैऔर संत भी प्रभु की प्रेरणा को मान कर परोपकार का ही व्रत धारण करते हैं । ऐसे परोपकारियों को ही धन्य हैं ॥ 
.
धरती मत आकाश का, चंद सूर का लेइ ।
दादू पानी पवन का, राम नाम कहि देइ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो साधक की क्षमा रूप गुण को धारण करता है, आकाश की निर्लेपता, चन्द्रमा का शीतलता रूप गुण, सूर्य की तेजस्विता या भक्ति में शूरवीरता, पानी की निर्मलता और पवन का अनाशक्ति आदि भाव, इन सब गुणों को धारण करके, निष्काम भाव से राम - नाम का अखंड जो स्मरण करता है, उसको धन्य है ॥
कबीर सीतलता तब जानिये, जे समता रहै समाइ । 
पख छाड़ै निरपख रहै, कुशब्द न दूख्या जाइ ॥ 
कबीर सीतलता भई, पाया ब्रह्म गियान । 
जिहि वैसांदर जग जलै, सो मेरे उदक समान ॥
धूल धूंकल धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ । 
कुशब्द तो साधू सहै, और से सह्या न जाइ ॥
.
दुर्मिला छन्द
धरती धन धीरज धौंस सहै, 
नभ गर्ज सहै सब बादर की । 
नित सूर प्रकासत चन्द सुधा, 
जल मारुत मत्त समादर की ॥ 
यह वृक्ष सहे सब बाढ़ रहे, 
फल छाँह करे सब आदर की । 
हरि सन्त सहै कड़वे वचना, 
सब कान सुने जु निरादर की ॥
(श्री दादूवाणी)

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*ज्यों यहु काया जीव की, त्यों सांई के साध ।*
*दादू सब संतोषिये, मांहि आप अगाध ॥*
==========================
.
(((((( भक्तों की सेवा का फल ))))))
.
एक सेठ के पास एक व्यक्ति काम करता था। सेठ उस व्यक्ति पर बहुत विश्वास करता था जो भी जरुरी काम हो वह सेठ हमेशा उसी व्यक्ति से कहता था। वो व्यक्ति भगवान का बहुत बड़ा भक्त था वह सदा भगवान के चिंतन भजन कीर्तन स्मरण सत्संग आदि का लाभ लेता रहता था।
.
एक दिन उस भक्त ने सेठ से श्री जगन्नाथ धाम यात्रा करने के लिए कुछ दिन की छुट्टी मांगी, सेठ ने उसे छुट्टी देते हुए कहा भाई मैं तो हूं संसारी आदमी हमेशा व्यापार के काम में व्यस्त रहता हूं जिसके कारण कभी तीर्थ गमन का लाभ नहीं ले पाता। तुम जा ही रहे हो तो यह लो १०० रुपए मेरी ओर से इसे श्री जगन्नाथ प्रभु के चरणों में समर्पित कर देना। भक्त सेठ से सौ रुपए लेकर श्री जगन्नाथ धाम यात्रा पर निकल गया, कई दिन की पैदल यात्रा करने के बाद वह श्री जगन्नाथ पुरी पहुंचा।
.
मंदिर की ओर प्रस्थान करते समय उसने रास्ते में देखा कि बहुत सारे संत, भक्त जन, वैष्णव जन, हरि नाम संकीर्तन बड़ी मस्ती में कर रहे हैं। सभी की आंखों से अश्रु धारा बह रही है। जोर-जोर से हरि बोल, हरि बोल गूंज रहा है। संकीर्तन में बहुत आनंद आ रहा था। भक्त भी वहीं रुक कर हरिनाम संकीर्तन का आनंद लेने लगा।
.
फिर उसने देखा कि संकीर्तन करने वाले भक्तजन इतनी देर से संकीर्तन करने के कारण उनके होंठ सूखे हुए हैं, वह दिखने में कुछ भूखे ही प्रतीत हो रहे थे, उसने सोचा क्यों ना सेठ के सौ रुपए से इन भक्तों को भोजन करा दूँ। उसने उन सभी को उस सौ रुपए में से भोजन की व्यवस्था कर दी। सबको भोजन कराने के बाद उसे भोजन व्यवस्था में उसे कुल ९८ रुपए खर्च करने पड़े।
.
उसके पास दो रुपए बच गए उसने सोचा चलो अच्छा हुआ दो रुपए जगन्नाथ जी के चरणों में सेठ के नाम से चढ़ा दूंगा। जब सेठ पूछेगा तो मैं कहूंगा वह पैसे चढ़ा दिए। सेठ यह नहीं कहेगा १०० रुपए चढ़ाए। सेठ पूछेगा पैसे चढ़ा दीये। मैं बोल दूंगा कि, पैसे चढ़ा दिए। झूठ भी नहीं होगा और काम भी हो जाएगा।
.
जब उस भक्त ने श्री जगन्नाथ जी के दर्शनों के लिए मंदिर में प्रवेश किया, श्री जगन्नाथ जी की छवि को निहारते हुए हुए अपने हृदय में उनको विराजमान कराया। अंत में उसने सेठ के दो रुपए श्री जगन्नाथ जी के चरणो में चढ़ा दिए। और बोला यह दो रुपए सेठ ने भेजे हैं। उसी रात सेठ के स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी आए और बोले सेठ तुम्हारे ९८ रुपए मुझे मिल गए हैं यह कहकर श्री जगन्नाथ जी अंतर्ध्यान हो गए ।
.
सेठ सोचने लगा मेरा नौकर बड़ा ईमानदार है, पर अचानक उसे क्या जरुरत पड़ गई थी जो उसने दो रुपए भगवान को कम चढ़ायें ? उसने दो रुपए का क्या खा लिया ? उसे ऐसी क्या जरूरत पड़ी ? ऐसा विचार सेठ करता रहा।
.
काफी दिन बीतने के बाद भक्त वापस गांव आया और सेठ के पास पहुंचा। सेठ ने कहा कि मेरे पैसे जगन्नाथ जी को चढ़ा दिये ? भक्त बोला हां मैंने पैसे चढ़ा दिए। सेठ ने कहा, पर तुमने ९८ रुपए क्यों चढ़ाए, दो रुपए किस काम में प्रयोग किए। तब भक्त ने सारी बात बताई की उसने ९८ रुपए से संतो को भोजन करा दिया था। और ठाकुर जी को सिर्फ दो रुपए चढ़ाये थे। सेठ बड़ा खुश हुआ, वह भक्त के चरणों में गिर पड़ा और बोला आप धन्य हो, आपकी वजह से मुझे श्री जगन्नाथ जी के दर्शन यहीं बैठे-बैठे हो गए।
.
भगवान को आपके धन की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान को वह ९८ रुपए स्वीकार है जो उनके भक्तों की सेवा में खर्च किए गए और उस दो रुपए की कोई महत्व नहीं है जो उनके चरणों में नगद चढ़ाए गए। भगवान को भक्ति ही प्रिय है और वह भक्तों के पास होती है। अतः भगवान स्वंय भक्तों की भक्ति व सेवा करते हैं व कोई करे तो अत्यंत प्रसन्न होते है।
.
इसलिए जहां तक हो सके भक्तों का सम्मान कीजिए, उनकी सेवा कीजिए उन्हें कोई आवश्यकता हो तो उसको पूरा कीजिए। क्योकिं भक्तों की सेवा करने से भगवान के पास आपका नाम रजिस्टर हो जाता है।  जो भगवान के भक्तों की सेवा करता है, भगवान के भक्तों की मदद करता है, श्री ठाकुर जी उसे पहले दर्शन देते हैं। इस कथा में भी भक्त के मालिक सेठ को श्री जगन्नाथ जी ने स्वप्न में दर्शन दिया है .
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

= १९८ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मिहीं महल बारीक है, गाँव न ठाँव न नाँव ।*
*तासौं मन लागा रहै, मैं बलिहारी जाँव ॥* 
===========================
साभार ~ Gems of Osho

*कागजों में मिलन*
मैं तुम्हें आज्ञा का पालन नहीं सिखा सकता हूं। मैं तुम्हें बोध दे सकता हूं ऐसी कसौटी, जिस पर कस कर तुम देख लो क्या सोना है, क्या पीतल। सोना हो तो मानना और पीतल हो तो कभी मत मानना। और तुम्हें जो आज्ञाएं अब तक दी गई हैं उनमें निन्यानबे प्रतिशत पीतल है।
.
तो विवाद तो खड़ा हो जाएगा। मैं विवादास्पद तो हो ही जाऊंगा। क्योंकि मैं कुछ सिखा रहा हूं जिससे न्यस्त स्वार्थों को बाधा पड़ेगी। अगर तुम मेरी बात समझोगे तो राजनेता तुम्हें धोखा नहीं दे सकेंगे, जितनी आसानी से वे तुम्हें धोखा दे रहे हैं। तुम उनके आश्वासनों में न आओगे। तुम उनकी जालसाजियां देख सकोगे। तुम उनकी बेईमानियां पहचान सकोगे। तुम देख सकोगे कि ये छिपे हुए चोर हैं। खादी के शुभ्र वस्त्र इन चोरों को छिपने के लिए खूब सुरक्षा का कारण बन गए हैं। ये बेईमान हैं। ये अपराधी हैं। मगर इनके अपराध सूक्ष्म हैं, तुम्हारी पकड़ में नहीं आते।
.
छोटे-मोटे चोर पकड़े जाते हैं; बड़े चोर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति बन जाते हैं। छोटे-मोटे स्मगलर सजा काटते हैं; बड़े स्मगलर राजनेता हो जाते हैं। छोटे लुटेरे सूलियां चढ़ते हैं; बड़े लुटेरे– चंगीजखां, तैमूरलंग, नादिरशाह, अकबर, औरंगजेब, सिकंदर, नेपोलियन–इन सबके नाम पर इतिहास में प्रशस्तियां लिखी जाती हैं। ये सब डाकू हैं। जो ऐसा कहेगा वैसा व्यक्ति विवादास्पद तो हो ही जाएगा।
.
और मैं कहता हूं कि शास्त्रों में सत्य नहीं है। इसलिए हिंदू पंडित नाराज, मुसलमान मौलवी नाराज, ईसाई पादरी नाराज। शब्दों में कहीं सत्य हो सकता है? शब्द है–“अग्नि’। “अग्नि’ में कहीं आग है? कागज पर “अग्नि’ लिखोगे, इस पर चाय बना सकोगे? शब्द है “पानी’। कागज पर लिख लोगे, या अगर वैज्ञानिक हुए तो लिखोगे एच टू ओ, इससे प्यास बुझा सकोगे? लेकिन लोग गीता पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं, कुरान पढ़ रहे हैं और सोच रहे हैं कि परमात्मा से मिलन हो जाएगा।
.
कागजों में परमात्मा से मिलन नहीं हो सकता। परमात्मा से मिलन करना हो तो अपनी स्वयं की चेतना की सीढ़ियों में उतरना पड़ेगा; अपनी स्वयं की गहराइयों से गहराइयों में जाना पड़ेगा। परमात्मा तुम्हारे भीतर मौजूद है, लेकिन तुम्हारी आत्यंतिक गहराई को छूना पड़ेगा। नहीं शास्त्रों में, वरन स्वयं में। नहीं ज्ञान में, वरन ध्यान में। नहीं मिलेगा शब्द में, मिलेगा मौन में।

काहे होत अधीर ~ ओशो

= १९७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू भावैं भाव समाइ ले, भक्तैं भक्ति समान ।*
*प्रेमैं प्रेम समाइ ले, प्रीतैं प्रीति रस पान ॥* 
===========================
साभार ~ Gems of Osho

**प्रेम अथवा ध्यान**
महान जादूगर हुडनी के जीवन का एक बहुत सुंदर प्रसंग है। उसका पूरा जीवन अत्यधिक सफलता से बीता; और वह चमत्कारों का सफल व्यापारी था। उसने बहुत से ऐसे चमत्कार किए कि यदि वह मनुष्यता को ठगने वाला व्यक्ति होता, तो वह बहुत आसानी से ठग सकता था। लेकिन वह एक बहुत ईमानदार व्यक्ति था। वह कहा करता था—‘जो कुछ मैं कर रहा हूं वह और कुछ नहीं बल्कि एक कुशलता है; और उसमें चमत्कार जैसा और कुछ भी नहीं।’ किसी भी जादूगर ने कभी इतना नहीं किया जितना अधिक चमत्कार हुडनी ने दिखलाया। उसकी शक्ति पर विश्वास करना लगभग असम्भव था। उसे संसार के लगभग सभी अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?
.
कैदखानों में बडी सुरक्षा में रखा गया, और कुछ ही पलों में वह उनसे बाहर निकल आता था। उसे जंजीरों, हथकड़ियों, बेड़ियों में ताले लगाकर रखा जाता और कुछ ही क्षणों में वह बाहर आ जाता। न जंजीरें काम करतीं और न ताले। कुछ ऐसा घटता कि वह तुरंत मुक्त हो जाता। उसे मुक्त होने में मिनिट भी नहीं, बस केवल कुछ सेकिंड ही लगते।
.
लेकिन अपने पूरे जीवन में केवल एक बार वह इटली में असफल हुआ। वह रोम के केंद्रीय कारागार में बंदी बनाकर रखा गया और हजारों लोग उसके बाहर आने को देखने के लिए इकट्ठे हो गए। कई मिनट गुजर गए लेकिन उसके बाहर आने का कोई चिह्न न दिखाई दिया। लगभग आधा घंटा गुजर गया और लोगों में बैचेनी बढ़नी शुरू हो गई, क्योंकि ऐसा आज तक कभी भी नहीं हुआ था। आखिर हुआ क्या? क्या वह पागल हो गया, क्या वह मर गया अथवा हुआ क्या? अथवा क्या वह महान जादूगार असफल हो गया?
.
आखिर एक घंटे बाद वह पसीने से तरबतर हंसता हुआ बाहर आया। लोगों ने उससे पूछा ‘आखिर आपको हुआ क्या? एक घंटा? हम लोग तो सोच रहे थे कि कहीं आप पागल तो नहीं हो गये अथवा कहीं मर तो नहीं गए?’ यहां तक कि अधिकारी भी यह सोच रहे थे कि चलकर उसे देखा जाये कि उसके साथ हुआ क्या?
.
उसने उत्तर दिया ‘उन लोगों ने मेरे साथ चालाकी की। दरवाजे में ताला लगा ही नहीं था। मेरी सारी कुशलता ताले को खोलने की है और मैं यह खोजने की कोशिश कर रहा था कि ताला है कहां, पर वहां कोई ताला पड़ा ही न था। दरवाजे पर ताला लगाया ही नहीं गया था, वह पहले ही से खुला हुआ था। थक कर, चिंतित, परेशान और उलझन में डूबा जब मैं गिर पड़ा और दरवाजे से ठोकर लगी तो दरवाजा खुल गया। इस तरह मैं बाहर आया; लेकिन इसमें मेरी कुशलता काम न आई।’
.
ठीक यही मामला मेरे साथ भी है।
.
यही प्रश्न बोधिधर्म से भी पूछा गया था; उसके पास बहुत सी कुंजियां थीं। कोई भी कुंजी किसी ताले में लगती न थी, और वह अधिक से अधिक कुंजियां इकट्ठा ही किये चले जाता था। प्रश्नकर्त्ता बहुत हिसाब किताब का चतुर व्यक्ति है। अब जब वे कुंजियां नहीं लग रही हैं, वह मुझसे आशीर्वाद मांग रहा है। मेरे आशीर्वाद तो तुम सभी के लिए हैं ही, तुम चाहे उन्हें मांगो अथवा नहीं, लेकिन यह कुंजियां किसी काम की नहीं हैं। इन सभी कुंजियों को फेंक दो। दरवाजा तो खुला ही हुआ है। कोई भी तुम्हारा रास्ता नहीं रोक रहा। लेकिन यदि तुम बुद्धत्व खोज रहे हो, तो उसका मार्ग ध्यान है। यदि तुम्हें शाश्वत लीला की खोज है तो बुद्धत्व की भाषा में सोचने की कोई जरूरत ही नहीं है।
.
यह दोनों निर्दिष्ट करने वाले मार्ग भिन्न हैं, पूरी तरह एक दूसरे से जुदा। लेकिन अंतिम परिणाम एक ही जैसा है। भक्त या प्रेमी, परमात्मा की सुंदर लीला का भाग बनकर ही उस बोध को प्राप्त करता है, और ध्यानी इस लीला को बहुत सुंदर पाता है जब उसे बुद्धत्व घटता है। लेकिन दोनों भिन्‍न दिशाओं से भिन्न विधियों और भिन्न व्यवहार के द्वारा वहां पहुंचते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को बहुत स्पष्ट रूप से यह निर्णय लेना होता है, अन्यथा तुम उलझन में पड़ जाओगे। प्रेम अथवा ध्यान बहुत स्पष्टता से चुन लेना है और तब उस पथ पर निष्ठा से थिर हो जाना है। अंतिम रूप से जो दूसरे पथ पर चलने से घटित होता है, वह तुम्हें भी घटता है, इसलिए परेशान होने की जरा भी जरूरत नहीं। लेकिन यह सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने पर ही घटता है। सभी पथ, पर्वत के शिखर पर पहुंच कर मिल जाते हैं, लेकिन सभी मार्गों पर अलग अलग तरह से चलना होता है।
.
आनंद योग ~ ओशो

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*जहाँ जहाँ दादू पग धरै, तहाँ काल का फंध ।*
*सर ऊपर सांधे खड़ा, अजहुँ न चेते अंध ॥* 
============================
साभार ~ Gems of Osho
**जन्म और मृत्यु**
ध्यान रहे, प्रतिपल कुछ मर रहा है। ऐसा मत सोचना, जैसा लोग सोचते हैं कि सत्तर साल के बाद एक दिन आदमी अचानक मर जाता है। यह भी कोई गणित हुआ? मृत्यु कोई आकस्मिक थोड़े ही घटती है। इंच-इंच आती है, रत्ती-रत्ती आती है। रोज-रोज मरते हो, तब सत्तर साल में मर पाते हो। बूंद-बूंद मरते हो तब सत्तर साल में मर पाते हो। यह जीवन का घड़ा बूंद-बूंद रिक्त होता है, तब एक दिन पूरा खाली हो पाता है। ऐसा थोड़े ही कि एक दिन आदमी अचानक जिंदा था और एक दिन अचानक मर गया ! सांझ सोए तो पूरे जिंदा थे, सुबह मरे अपने को पाया; ऐसा नहीं होता।
.
जन्म के बाद ही मरना शुरू हो जाता है। इधर जन्मे, ली भीतर श्वास कि बाहर-श्वास लेने की तैयारी हो गई। फिर जन्म से निरंतर जीवन और मरण साथ-साथ चलते हैं। समझो कि जैसे दोनों तुम्हारे दो पैर हैं; या पक्षी के दो पंख हैं। न पक्षी उड़ सकेगा दो पंखों के बिना, न तुम चल सकोगे दो पैरों के बिना।
.
जन्म और मृत्यु जीवन के दो पैर हैं, दो पंख हैं। तुम एक पर ही जोर मत दो। इसीलिए तो लंगड़ा रहे हो। तुमने जिंदगी को लंगड़ी दौड़ बना लिया है। एक पैर को तुम ऐसा इनकार किए हो कि स्वीकार ही नहीं करते कि मेरा है। कोई बताए तो तुम देखना भी नहीं चाहते। कोई तुमसे कहे कि मरना पड़ेगा तो तुम नाराज हो जाते हो। तुम समझते हो यह आदमी दुश्मन है। कोई कहे कि मृत्यु आ रही है तो तुम इस बात को स्वागत से स्वीकार नहीं करते। न भी कुछ कहो तो भी इतना तो मान लेते हो कि यह आदमी अशिष्ट है। मौत भी कोई बात करने की बात है? मौत की कोई बात करता है?
.
इसलिए तो हम कब्रिस्तान को गांव के बाहर बनाते हैं, ताकि वह दिखाई न पड़े। मेरा बस चले तो गांव के ठीक बीच में होना चाहिए। सारे गांव को पता चलना चाहिए एक आदमी मरे तो। पूरे गांव को पता चलना चाहिए। चिता बीच में जलनी चाहिए ताकि हर एक के मन पर चोट पड़ती रहे। ऐसा क्यों बाहर छिपाया हुआ गांव से बिलकुल दूर? जिनको जाना ही पड़ता है मजबूरी में, वही जाते हैं। जो भी जाते हैं, वे भी चार आदमी के कंधों पर चढ़कर जाते हैं, अपने पैर से नहीं जाते।
.
*जिन सूत्र ~ ओशो*

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*गूंगा गहिला बावरा, सांई कारण होइ ।*
*दादू दीवाना ह्वै रहै, ताको लखै न कोइ ॥* 

============================
साभार ~ Gems of Osho

**सदबुद्धि**
बुद्ध ने घर छोड़ा, वह सदबुद्धि के अवतरण की घटना थी महल छोड़ा, राज्य छोड़ा। जो सारथी उन्हें छोड़ने गया था राज्य की सीमा के पार, वह तो साधारण नौकर था, उससे भी न रहा गया। उसने कहा कि सुनो, यह छोटे मुंह बड़ी बात है, लेकिन कहे बिना नहीं रह सकता। तुम जो कर रहे हो, यह बिलकुल बुद्धूपन है; नासमझी है। पागल हुए हो? सारी दुनिया राजमहल चाहती है, साम्राज्य चाहती है। सौभाग्य से तुम्हें मिला है, और अभागे तुम कि तुम छोड़ कर जा रहे हो ! तुम्हारी जैसी सुंदर पत्नी कहां पाओगे? यह धन, सुख-सुविधा, यह राजमहल, यह परिवार, यह सम्मान कहां पाओगे? लौट चलो !
.
*बूढ़ा सारथी, वह भी बुद्ध से ज्यादा समझदार है; वह भी सलाह दे रहा है !*
बुद्ध ने कहा, तुम्हारी बात मैं समझता हूं। लेकिन तुम जहां महल देखते हो, वहां मैं सिवाय आग लगी लपटों के और कुछ भी नहीं देखता; और जहां तुम सौंदर्य देखते हो, वहां मैं मौत को छिपा देख लिया हूं; और जहां तुम धन देखते हो, वहां सिर्फ धन का धोखा है। मैं असली धन की खोज में जाता हूं। सुनो, मैं असली घर की खोज में जाता हूं। क्योंकि यह घर तो छीन लिया जाएगा। मैं उस घर की तलाश में हूं जो छीना न जा सके। और जब तक वह न मिल जाए, तलाश नहीं रुकेगी। उसके लिए मैं सब गंवाने को तैयार हूं। क्योंकि यह तो छिन ही जाएगा; इसको दांव पर लगाने में हर्ज क्या है? दिन, समय की बात है; आज है, कल छिन जाएगा। जो कल छिन ही जाएगा, अगर उसको दांव पर लगाने से कुछ ऐसा मिलता हो जो कभी न छिने, तो यह सौदा मंहगा नहीं है।
.
*बुद्ध को सदबुद्धि पैदा हुई है; सारथी बुद्धिमान है।*
बुद्ध लौटे घर बारह वर्ष बाद सदबुद्धि का दीया पूरा जल चुका है; वे रौशन हो गए हैं; लेकिन बाप नाराज है। बाप ने कहा, नासमझी छोड़ो, घर वापस लौट आओ! तुमने मुझसे धोखा किया है; तुमने अपनी पत्नी से धोखा किया है; तुमने अपने नवजात बेटे से धोखा किया है; लेकिन फिर भी मैं तुम्हें माफ कर दूंगा, क्योंकि पिता का हृदय। मैं तुम्हें माफ कर दूंगा; तुम वापस लौट आओ ! यह शोभा नहीं देता–यह भीख मांगना सड़कों पर। किसके तुम बेटे हो? और तुम्हें भीख मांगने की जरूरत क्या है? तुम्हें अगर इसी तरह का शौक हो, तो हजारों लोगों को तुम रोज भीख बांट सकते हो, मांगने की क्या जरूरत है?
.
*बुद्ध अभी भी, बुद्ध के पिता को बुद्धू ही मालूम पड़ रहे हैं।*
सांसारिक बुद्धि को धार्मिक सदबुद्धि नासमझी मालूम पड़ती है। लोग समझते हैं कि यह तो पागलपन है, यह क्या कर रहे हो! लेकिन जिसको सदबुद्धि जगती है, उसे लगता है कि बुद्धि बिलकुल नासमझी है। और तुम्हें निर्णय करना होगा; क्योंकि इस निर्णय के बिना कोई आदमी धर्म के जगत में प्रवेश नहीं कर सकता। जब तक तुम्हें सांसारिक बुद्धि मूढ़ता न मालूम पड़ने लगे, तब तक सदबुद्धि की किरण तुम्हें मिल न सकेगी। सांसारिक बुद्धि जब तुम्हें मूढ़ता मालूम होने लगे, सांसारिक चालाकी जब तुम्हें अपने को ही धोखा देना मालूम होने लगे; और सांसारिक यश, पद, प्रतिष्ठा जब तुम्हें असफलता दिखाई पड़ने लगें, तब तुम्हारे भीतर सदबुद्धि का अंकुरण होगा।
.
*भज गोविंदम मूढ़मते ~ ओशो*

बुधवार, 16 अगस्त 2017

= १९४ =


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू खोजि तहाँ पीव पाइये, सबद ऊपने पास ।*
*तहाँ एक एकांत है, जहाँ ज्योति प्रकास ॥* 
===========================
साभार ~ oshoganga.blogspot.com

मनुष्य के जीवन में प्रकाश होना चाहिए। और प्रकाश मौजूद भी है, केवल मिट्टी के दीये से सम्बन्ध टूट जाये; और मनुष्य ये जान ले कि मैं ये मृण्मय शरीर नहीं हूं, मैं चिन्मय आत्मा हूं। मनुष्य की दृष्टि दीये पर जड़ हो गई है, क्योंकि मनुष्य ये सोचता है कि यदि दीया न रहा; तो ज्योति बुझ जायेगी। ये ही भ्रान्ति है।
.
वह ज्योति कभी बुझने वाली नहीं है। जब ये शरीर न था तब भी वह थी। मां के गर्भ में आने से पहले भी वह ज्योति संचरण कर रही थी। पिछले जन्म में मृत्यु हुयी,तब मिट्टी का दीया छूट गया; ज्योति मुक्त हो गई उस देह से,फिर इसने नए गर्भ में प्रवेश किया। मनुष्य यही ज्योति है,जो जन्मों-2 से अनंत की यात्रा पर निकली है; जिसकी यात्रा का कोई अंत नहीं है,न जाने कितने घरों में मेहमान हुयी। वे घर सब छूट गए, ये अब भी है।
.
धर्म की सारी खोज ये ही है कि भीतर उस तत्व की पहचान हो जाये जो शाश्वत है, अमृत है और कभी मिटता नहीं। उसकी पहचान होते ही मनुष्य दीये का मोह छोड़ देता है, फिर मनुष्य मरणधर्मा को नहीं पकड़ता। फिर मनुष्य अमृत में आनंदमग्न हो जाता है। और ज्योति की पहचान होते ही दीये तले अंधेरा समाप्त हो जाता है।
.
जब तक दीये के साथ ऐक्य है, तब तक तो अंधेरा अवश्य रहेगा। और दीये के साथ यदि एकात्मता इतनी सध गई है कि ज्योति को एकदम भुला ही दिया है, तो अंधेरा ही अंधेरा होगा।

= १९३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*वाचा बंधी जीव सब, भोजन पानी घास ।*
*आत्म ज्ञान न ऊपजै, दादू करहि विनास ॥* 
============================
साभार ~ Shyama Ji
.
☀ आजकल प्रतिदिन संदेश आ रहे हैं कि महादेव को दूध की कुछ बूंदें चढाकर शेष निर्धन बच्चों को दे दिया जाए। सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन हर हिन्दू त्योहार पर ऐसे संदेश पढ़कर थोड़ा दुख होता है। दीवाली पर पटाखे ना चलाएं, होली में रंग और गुलाल ना खरीदें, सावन में दूध ना चढ़ाएं, उस पैसे से गरीबों की मदद करें। लेकिन त्योहारों के पैसे से ही क्यों? ये एक साजिश है हमें अपने रीति-रिवाजों से विमुख करने की।
.
☀ हम सब प्रतिदिन दूध पीते हैं दूध से बनी चाय का हम अत्यधिक व अनावश्यक सेवन भी करते हैं तब तो हमें कभी ये ख्याल नहीं आया कि लाखों गरीब बच्चे दूध के बिना जी रहे हैं। अगर दान करना ही है तो अपने हिस्से के दूध का दान करिए, रोजाना पी जाने वाली प्रति व्यक्ति 4 से 5 कप चाय का त्याग करके बचे दूध का दान करिये और वर्ष भर करिए। कौन मना कर रहा है। शंकर जी के हिस्से का दूध ही क्यों दान करना?
.
☀ आप अपने व्यसन का दान कीजिये दिन भर में जो आप सिगरेट, पान-मसाला, शराब, मांस अथवा किसी और क्रिया में जो पैसे खर्च करते हैं उसको बंद कर के गरीब को दान कीजिये | इससे आपको दान के लाभ के साथ साथ स्वास्थ्य का भी लाभ होगा।
.
☀ महादेव ने जगत कल्याण हेतु विषपान किया था इसलिए उनका अभिषेक दूध से किया जाता है। जिन महानुभावों के मन में अतिशय दया उत्पन्न हो रही है उनसे मेरा अनुरोध है कि एक महीना ही क्यों, वर्ष भर गरीब बच्चों को दूध का दान दें। घर में जितना भी दूध आता हो उसमें से ज्यादा नहीं सिर्फ आधा लीटर ही किसी निर्धन परिवार को दें। महादेव को जो 50 ग्राम दूध चढ़ाते हैं वो उन्हें ही चढ़ाएं।
.
!!ॐ नम: शिवाय !!
☀  शिवलिंग की वैज्ञानिकता ....
.
☀ भारत का रेडियोएक्टिविटी मैप उठा लें, तब हैरान हो जायेगें ! भारत सरकार के नुक्लियर रिएक्टर के अलावा सभी ज्योतिर्लिंगों के स्थानों पर सबसे ज्यादा रेडिएशन पाया जाता है।
.
☀ शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि न्यूक्लियर रिएक्टर्स ही हैं, तभी तो उन पर जल चढ़ाया जाता है ताकि वो शांत रहे.
.
☀ महादेव के सभी प्रिय पदार्थ जैसे कि बेल पत्र, आक, आकमद, धतूरा, गुड़हल, आदि सभी न्यूक्लिअर एनर्जी सोखने वाले है।
.
☀ क्यूंकि शिवलिंग पर चढ़ा पानी भी रिएक्टिव हो जाता है इसीलिए तो जल निकासी नलिका को लांघा नहीं जाता।
.
☀ भाभा एटॉमिक रिएक्टर का डिज़ाइन भी शिवलिंग की तरह ही है।
.
☀ शिवलिंग पर चढ़ाया हुआ जल नदी के बहते हुए जल के साथ मिलकर औषधि का रूप ले लेता है।
.
☀ तभी तो हमारे पूर्वज हम लोगों से कहते थे कि महादेव शिवशंकर अगर नाराज हो जाएंगे तो प्रलय आ जाएगी।
.
☀ ध्यान दें, कि हमारी परम्पराओं के पीछे कितना गहन विज्ञान छिपा हुआ है।
.
☀ जिस संस्कृति की कोख से हमने जन्म लिया है, वो तो चिर सनातन है।विज्ञान को परम्पराओं का जामा इसलिए पहनाया गया है ताकि वो प्रचलन बन जाए और हम भारतवासी सदा वैज्ञानिक जीवन जीते रहें।
.
☀ हो सके तो शेयर भी कर दें, दूसरे भक्त भी बाबा के दर्शन का आनंद ले पाएंगे. जय बाबा.
.
☀ अपना व्यवहार बदलो हमारे धर्म को बदलने का प्रयास मत करो. धर्म है तो संस्कृति है जीवन है। वर्ना निर्जीव तो मानवता हो ही रही है।।

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

= १९२ =


卐 सत्यराम सा 卐
*बाकी कौन बिगारै, जाकी आप सुधारै ।*
*कहै दादू सो कबहूँ न हारै, जे जन सांई संभारै ॥* 
===============================
साभार ~ Balram Kumar

जय श्री राधेकृष्णा
*आखिर_कर्ण_क्यों_हारा ?*
ऋषि आश्रम में शिष्यों के बीच चर्चा छिड़ गयी कि 'अर्जुन के बल से कर्ण में बल ज्यादा था। बुद्धि भी कम नहीं थी। दानवीर भी बड़ा भारी था फिर भी कर्ण हार गया और अर्जुन जीत गये, इसमें क्या कारण था ?' कोई निर्णय पर नहीं पहुँच रहे थे, आखिर ऋषि के पास गयेः "मुनिवर ! कर्ण की जीत होनी चाहिए थी, लेकिन अर्जुन की जीत हुई। इसका तात्त्विक रहस्य क्या होगा ?
.
मुनिवर बहुत पहुंचे हुए धर्मात्मा थे। आत्मा-परमात्मा के साथ उनका सीधा संबंध था। वे बोलेः "व्यवस्था तो यह बताती है कि एक तरफ नन्हा प्रह्लाद है, और दूसरी तरफ युद्ध में, राजनीति में, कुशल हिरण्यकश्यप है, हिरण्यकश्यप की विजय होनी चाहिए और प्रह्लाद मरना चाहिए परंतु हिरण्यकश्यप मारा गया।
.
प्रह्लाद की बुआ होलिका को वरदान था कि अग्नि नहीं जलायेगी। उसने षड्यंत्र किया और हिरण्यकश्यप से कहा कि "तुम्हारे बेटे को लेकर मैं चिता पर बैठ जाऊँगी तो वह जल जायेगा और मैं ज्यों की त्यों रहूँगी।" व्यवस्था तो यह बताती है कि प्रह्लाद को जल जाना चाहिए परंतु इतिहास साक्षी है, होली का त्यौहार खबर देता है, कि परमात्मा के भक्त के पक्ष में अग्नि देवता ने अपना निर्णय बदल दिया, प्रह्लाद जीवित निकला और होलिका जल गयी।
.
रावण के पास धनबल, सत्ताबल, कपटबल, रूप बदलने का बल, न जाने कितने-कितने बल थे, और लात मारकर निकाल दिया विभीषण को। लेकिन इतिहास साक्षी है कि सब बलों की ऐसी-तैसी हो गयी और विभीषण की विजय हुई।
.
इसका रहस्य है कि कर्ण के पास बल तो बहुत था लेकिन नारायण का बल नहीं था, नर का बल था। हिरण्यकश्यप व रावण के पास नरत्व का बल था, लेकिन प्रह्लाद और विभीषण के पास भगवद्बल था, नर और नारायण का बल था। ऐसे ही अर्जुन नर हैं, अपने नर-बल को भूलकर संन्यास लेना चाहते थे, लेकिन भगवान ने कहाः "तू अभी युद्ध के लिए आया है, क्षत्रियत्व तेरा स्वभाव है। तू अपने स्वाभाविक कर्म को छोड़कर संन्यास नहीं ले, बल्कि अब नारायण के बल का उपयोग करके, हे नर ! तू सात्त्विक बल से विजयी हो जा ! अर्जुन की विजय में नर के साथ नारायण के बल का सहयोग है, इसलिए अर्जुन जीत गया।
.
जय श्री राधेकृष्णा

= १९१ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*पढ पढ थाके पंडिता, किनहूँ न पाया पार ।*
*कथ कथ थाके मुनिजना, दादू नाम अधार ॥* 
*काजी कजा न जानहीं, कागद हाथ कतेब ।*
*पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहि भेद ॥* 
===========================
साभार ~ Gems of Osho

**उधार धर्म; नगद धर्म**
‘सदबुद्धि को जगाओ और मन को तृष्णा-शून्य करो; तथा उसी से संतुष्ट और प्रसन्न रहो जो अपने श्रम से मिलता है।’

यह सभी धनों के संबंध में सच है। बाहर के धन में भी, जो अपने श्रम से मिल जाए, जो उससे तृप्त हो गया, उसके जीवन में नैतिकता होगी; और भीतर के जगत में भी, भीतर का जो धन अपने श्रम से मिले, उसके चित्त में धार्मिकता होगी। तुम शास्त्र को जब कंठस्थ कर लेते हो तो तुम चोरी कर रहे हो। वह जो शास्त्र में छिपा ज्ञान है, वह तुमने श्रम से नहीं पाया है; वह तुम सिर्फ चुरा रहे हो। वह उधार है, बासा है। तुम किसी दूसरे की बात पकड़ लिए हो। उस पर अपने भवन को मत बनाना, वह रेत पर खड़ा किया हुआ भवन है। हवा का एक छोटा सा झोंका उसे गिरा देगा।

अभी कुछ दिन पहले, मैं एक झेन कहानी कह रहा था। एक झेन आश्रम के द्वार पर एक संध्या एक भिक्षु ने दस्तक दी। जापान में झेन आश्रमों का यह नियम है कि अगर कोई भिक्षु, यात्री-भिक्षु, विश्राम करना चाहे, तो उसे कम से कम एक प्रश्न का उत्तर देना चाहिए। जब तक वह एक प्रश्न का ठीक उत्तर न दे दे, तब तक वह अर्जित नहीं करता विश्राम के लिए। वह आश्रम में रुक नहीं सकता, उसे आगे जाना पड़ेगा। आश्रम का प्रमुख द्वार पर आया, द्वार खोला और उसने झेन फकीरों की एक बहुत पुरानी पहेली इस अतिथि के सामने रखी। पहेली है कि तुम्हारा असली चेहरा क्या है? मूल चेहरा कौन सा है? वैसा मूल चेहरा, जो तुम्हारे मां और बाप के पैदा होने के पहले भी तुम्हारा ही था।

यह आत्मा के संबंध में एक प्रश्न है; क्योंकि मां और बाप से जो मिला, वह शरीर है; शरीर का चेहरा भी उनसे मिला। तुम्हारी ओरिजिनल, मौलिक मुखाकृति क्या है? तुम्हारा स्वभाव क्या है? और झेन फकीर कहते हैं, इसका उत्तर शब्दों से नहीं दिया जा सकता; इसका उत्तर तो जीवंत अभिव्यक्ति होनी चाहिए।

जैसे ही यह सवाल पूछा गया, उस अतिथि फकीर ने अपने पैर से जूता निकाला और पूछने वाले के चेहरे पर जूता मारा। पूछने वाला पीछे हट गया, झुक कर उसने सलाम की, नमस्कार किया, और कहा: स्वागत है; भीतर आओ।

दोनों ने भोजन किया, फिर जलती हुई अंगीठी के पास बैठ कर दोनों रात बात करने लगे। मेजबान ने मेहमान से कहा, तुम्हारा उत्तर अदभुत था।

मेहमान ने पूछा, तुम्हें स्वयं इस उत्तर का अनुभव है?

मेजबान ने कहा, नहीं, मुझे तो अनुभव नहीं है, लेकिन बहुत मैंने शास्त्र पढ़े हैं। और शास्त्रों से यह पाया है कि ठीक उत्तर देने वाला डगमगाता नहीं, झिझकता नहीं। तुम बिना झिझके उत्तर दिए। और तुम्हारे उत्तर में बात छिपी थी। शास्त्रों के आधार से मैं जानता हूं, मैं पहचान गया कि तुम्हें उत्तर मिल गया है। क्योंकि तुमने जो उत्तर दिया, वह उत्तर यह था कि नासमझ, शब्द में प्रश्न पूछता है, निःशब्द में उत्तर चाहता है! नासमझ, मूल चेहरे की बात पूछता है, और मूल चेहरा तो तेरे पास भी है! इसलिए मैं जूते मार कर तेरे चेहरे को उत्तर दे रहा हूं कि यह चेहरा मूल नहीं है, जूता मारने योग्य है।

मेजबान ने कहा कि मैं समझ गया तेरा उत्तर, शास्त्र मैंने पढ़े हैं और उसमें ऐसे उत्तर लिखे हैं।

मेहमान कुछ बोला न, चुपचाप चाय की चुस्की लेता रहा। तब जरा मेजबान को शक हुआ, उसने गौर से इसके चेहरे को देखा, इसके चेहरे में उसे कुछ प्रतीत हुआ जो बड़ा असंतोषदायी था। उसने फिर से पूछा कि मित्र, मैं एक बार फिर पूछता हूं, तुझे भी वस्तुतः उत्तर मिल चुका है या नहीं?

मेहमान ने कहा, मैंने भी बहुत शास्त्र पढ़े हैं। और जहां से तुमने मुझे पहचाना कि उत्तर मिल गया, वहीं से मैंने यह उत्तर पढ़ा है; उत्तर तो मुझे भी नहीं मिला है।

शास्त्र भयंकर धोखा हो सकता है, क्योंकि शास्त्र में उत्तर लिखे हैं। लेकिन शास्त्र के उत्तर को दोहराना वैसे ही है, जैसे गणित की किताब के पीछे उत्तर दिए होते हैं। तुम गणित पढ़ो, उलटा कर किताब के पीछे उत्तर देख लो। तो उत्तर तो तुम सही दे दोगे, लेकिन उस प्रश्न से उत्तर तक पहुंचने का जो मार्ग है, जो विधि है, वह तुम्हारे पास न होगी। उत्तर कितना ही सही हो, तुम गलत ही रहोगे; क्योंकि तुम तो विधि से गुजरते, तभी निखरते।

उत्तर दूसरे का काम नहीं आ सकता; उत्तर अपना ही चाहिए। और परमात्मा तुम्हारी शास्त्रीय परीक्षा न लेगा–अस्तित्वगत परीक्षा है। क्या तुमने सुना, क्या तुमने पढ़ा, यह न पूछेगा–क्या तुमने जीया? अगर तुम्हारे जीवन में ही तुम्हें उत्तर मिला हो, तो तुम्हारे श्रम से मिला है।

तो चाहे धन बाहर का हो; अगर बाहर के धन को तुम श्रम से कमाओ, तो तुम्हारे जीवन में नैतिकता होगी; और अगर भीतर के धन को तुम श्रम से कमाओ, तो तुम्हारे जीवन में धार्मिकता होगी–प्रामाणिक धर्म होगा। इसी को स्वामी राम ने नगद धर्म कहा है। उधार धर्म; नगद धर्म।

उधार धर्म ऐसा है: उत्तर तो सब सही, लेकिन नपुंसक, कोरे, खाली; चली हुई कारतूस जैसे। उसको बंदूक में रख कर चलाने की कोशिश मत करना, हंसी होगी जगत में। वह चली हुई कारतूस है।

लेकिन अधिकतर लोग यही कर रहे हैं–दूसरों के उत्तर दोहरा रहे हैं। यंत्रवत दोहराए चले जा रहे हैं। अपना प्रश्न भी उन्होंने अब तक नहीं खोजा है, अपना उत्तर तो बहुत दूर। अभी उन्हें यह भी पता नहीं है कि हमारे अस्तित्व का प्रश्न क्या है जिसकी हम खोज कर रहे हैं। हम क्या जानना चाहते हैं, इसका भी अभी ठीक-ठीक पता नहीं है।

‘हे मूढ़, धन बटोरने की तृष्णा छोड़, सदबुद्धि को जगा। उसी से संतुष्ट और प्रसन्न रह जो श्रम से मिलता है। हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।’

भज गोविंदम मूढ़मते ~ ओशो

सोमवार, 14 अगस्त 2017

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
*साहिब सौं साचा नहीं, यहु मन झूठा होइ ।*
*दादू झूठे बहुत हैं, साचा विरला कोइ ॥* 
==========================
साभार ~ Anand Nareliya
.
पहले से तैयार की गई प्रार्थना झूठी और नकली प्रार्थना है; यह तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है एक निर्धारित विधि से तैयार संस्कारित प्रार्थना, प्रार्थना ही नहीं है उसके बाबत यह पूरी तौर से निश्चित रूप से कहा जा सकता है एक असंस्कारित, सहज स्वाभाविक भाव भरी मुद्रा और कुछ भी नहीं, एक प्रार्थना ही है...
.
कभी तुम बहुत उदासी का अनुभव कर सकते हो, क्योंकि उदासी परमात्मा से ही सम्बंधित है उदासी भी दिव्य होती है यहां हमेशा प्रसन्न रहना भी कोई जरूरी नहीं है तब यह उदासी ही तुम्हारी प्रार्थना है तब तुम अपने हृदय को रोने और बिलखने दो, और आंखों को आंसू बरसाने दो तब इस उदासी को ही परमात्मा की अर्पित कर दो। वहां तुम्हारे हृदय में जो कुछ भी हो, उसे ही उन दिव्य चरणों में अर्पित कर दो—वह प्रसन्नता हो अथवा उदासी, और कभी—कभी वह क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है
.
जब कभी कोई परमात्मा से नाराज भी हो सकता है यदि तुम परमात्मा से नाराज नहीं हो सकते, तो तुमने प्रेम को जाना ही नहीं जब कभी कोई वास्तव में एक गहरे उन्माद में हो सकता है तब अपने क्रोध को ही अपनी प्रार्थना बन जाने दो परमात्मा से लड़ो—वह तुम्हारा है और तुम उसके हो, और प्रेम कोई औपचारिकता नहीं जानता प्रेम में सभी तरह के संघर्ष बने रह सकते हैं यदि उसमें लड़ाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो, तब वह प्रेम है ही नहीं इसलिए जब कभी तुम्हें प्रार्थना करने जैसा कुछ भी अनुभव न हो, तो तुम उसे ही अपनी प्रार्थना बना लो
.
तुम परमात्मा से कहो—‘जरा ठहरो ! देखो, मेरा मूड ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सब कुछ कर रहे हो, यह कृत्य तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है।’ लेकिन तुम इसे अपने हृदय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने दो परमात्मा के साथ कभी भी अप्रामाणिक बनकर मत रहो, क्योंकि यह तरीका उसके साथ अस्तित्व में बने रहने का नहीं है यदि तुम परमात्मा के साथ ईमानदार नहीं हो—यदि गहरे में तो तुम शिकायत कर रहे हो और ऊपर ही ऊपर प्रार्थना कर रहे हो? तब परमात्मा तुम्हारी शिकायत की ओर ही देखेगा, प्रार्थना की ओर नहीं तुम झूठे बन जाओगे वह सीधे तुम्हारे हृदय में देख सकता है तुम किसे धोखा देने अभी यह क्षण समय का भाग नहीं है?
.
तुम्हारे चेहरे की मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती, तुम्हारा वास्तविक सत्य वह जान ही लेगा केवल वही तुम्हारे सत्य को जान सकता है, उसके सामने झूठ ठहरता ही नहीं इसलिए वहां सत्य को ही बने रहने दो तुम उसे केवल अपना सत्य ही भेंट करो और कहो— आज मैं तुमसे नाराज हूं तुम्हारे इस संसार से नाराज हूं तुम्हारे द्वारा दिए इस जीवन से नाराज हूं मैं तुमसे घृणा करता हूं और मैं तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए तुम्हें आज मेरी प्रार्थना के बिना ही रहना होगा मैंने अब तक बहुत सहा है, अब तुम सहो उससे इसी तरह बात करो जैसे कोई अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करता है...
osho 
आनंद योग–(दि बिलिव्ड)–(प्रवचन–06)

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
*काया नगर निधान है, माँही कौतिक होइ ।*
*दादू सद्गुरु संग ले, भूल पड़े जनि कोइ ॥* 
============================
साभार ~ Pushpa Agarwal

बस १ मिनट हाथ की ऊँगलियों को रगड़ने से शरीर का दर्द गायब हो जाता है। संवेदनशीलता की प्राचीन जापानी कला के अनुसार, प्रत्येक ऊँगली विशेष बीमारी और भावनाओं के साथ जुड़ी होती हैं। हमारे हाथ की पाँचों ऊँगलियाँ शरीर के अलग अलग अंगों से जुड़ी होती हैं। इसका मतलब आप को दर्द नाशक दवाइयाँ खाने की बजाए इस आसान और प्रभावशाली तरीके का इस्तेमाल करना करना चाहिए । आज इस लेख के माध्यम से हम आपको जानेंगे, के शरीर के किसी हिस्से का दर्द सिर्फ हाथ की ऊँगली को रगड़ने से कैसे दूर होता है ।
.
हमारे हाथ की अलग अलग ऊँगलियाँ अलग अलग बीमारियों और भावनाओं से जुड़ी होती हैं। शायद् आप को पता न हो, हमारे हाथ की ऊँगलियाँ, चिंता, डर और चिड़चिड़ापन दूर करने की क्षमता रखती है । ऊँगलियों पर धीरे से दबाव डालने से शरीर के कई अंगो पर प्रभाव पड़ेगा । आइये हम ये जानने की कोशिश करते है, की, कैसे हाथ की ऊँगलियों को रगड़ने से, हो सकता है शरीर का दर्द दूर ?

१. अंगूठा - The Thumb- हाथ का अँगूठा हमारे फेफड़ों से जुड़ा होता है।अगर आप की दिल की धड़कन तेज है तो हलके हाथों से अँगूठे पर मसाज करें और हल्का सा खिचें। इससे आप को आराम मिलेगा।

२. तर्जनी -The Index Finger- ये ऊँगली आँतों(gastro intestinal tract) से जुडी होती है। अगर आपके पेट में दर्द है, तो इस उंगली को हल्का सा रगड़े, दर्द कम हेता महसूस होगा।

३. बीच की ऊँगली -The Middle Finger- ये ऊँगली परिसंचरण तंत्र तथा circulation system से जुडी होती है । अगर आप को चक्कर या आपका जी घबरा रहा है तो इस ऊँगली पर मालिश करने से तुरंत रहत मिलेगी।

४. तीसरी ऊँगली - The Ring Finger- ये ऊँगली आपकी मनोदशा से जुडी होती है। अगर किसी कारण आपकी मनोदशा अच्छी नहीं है, या शाँति चाहते हैं तो इस ऊँगली को हल्का सा मसाज करें और खीचें, आपको जल्द ही इस के अच्छे नतीजे प्राप्त हो जायेंगे, आप का मन खिल उठेगा

५. छोटी उंगली - The Little Finger- छोटी ऊँगली का किडनी और सिर के साथ सम्बन्ध होता है। अगर आप को सिर में दर्द है तो इस ऊँगली को हल्का सा दबाये और मसाज करे, आप का सिर दर्द गयब हो जायेगा । इसे मसाज करने से किडनी भी तंदूरुस्त रहती है और हम स्वस्थ रहते हैं।

इसके साथ-साथ आज में जीने की कोशिश करें कल अपने आप सुधरता जाएगा।

रविवार, 13 अगस्त 2017

= १८८ =


卐 सत्यराम सा 卐
*घट घट दादू कह समझावै,* 
*जैसा करै सो तैसा पावै ।*
*को घट पापी को घट पुण्य ।* 
*को घट चेतन को घट शून्य?*
*को काहू का सीरी नांहीं,* 
*साहिब देखे सब घट माँहीं ॥* 
====================
साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

बुरा तुम करते हो, नाम नियति का लेते हो, भाग्य का लेते हो!
शुभ तुम्हें करना है, कहते हो जब परमात्मा करवाएगा तब करेंगे! उसकी मर्जी के बिना कहीं कुछ होता है? बुद्ध ने सब तुम्हें तुम्हारे ऊपर छोडा, और कहा तुम्हारी मर्जी ही नियति है, तुम्हारा निर्णय ही भाग्य है। और भगवान तुम्हारे भीतर छिपा है, उसे कहीं और टालने की सुविधा मत जुटाओ। ऐसे ही तो तुम जन्म-जन्म भटके हो, और कब तक भटकना है? कहीं प्रार्थना परमात्मा से बचने का उपाय तो नहीं? कहीं तुम प्रार्थना करके सुलझ गए, झंझट मिटी, धर्म कर लिया, ऐसी सरल बातें तो नहीं खोज रहे हो?
पाप तुम करते हो, स्नान करने गंगा जाते हो! पाप तुमने किया, धोएगी गंगा! किसे धोखा दे रहे हो? गंगा को? या अपने आप को? पाप तुमने किया तो गंगा कैसे धोएगी? तुमने किया है, तुम्हीं को धोना पड़ेगा! यह तुम्हारी गंदगी है, तुम्हीं धोओगे! कोई और धोने नहीं आयेगा। और जब तक तुम कहोगे कि कोई और धो दे, कोई और धो दे, तब तक यह गंदगी तुम बढ़ाते रहोगे। आखिरी परिणाम क्या होता है? गंगा स्थान करके लौट आते हो, पाप बंद तो नहीं होते, स्वच्छ मन से फिर पाप में लग जाते हो, जैसे अब और करने की सुविधा मिली। अब जैसे वह पुराने पापों से तो छुटकारा मिला, अब तुम नए करने को मुक्त हुए? और एक तरकीब हाथ लगी कि जब फिर बहुत इकट्ठे हो जाएंगे, गंगा कोई बहुत दूर थोड़े ही है, फिर स्नान कर आएंगे!
ईसाई अपने पादरी के पास जाकर कन्फेसन कर आते हैं, पाप की स्वीकृति कर आते हैं, और सोचते हैं कि क्षमा हो गया। कह दिया, बता दिया, माफी मांग ली! वाह रे तुम और तुम्हारे धर्म! पाप कहीं और किया था, माफी कहीं और मांगी, कैसा धोखा कर रहे हो अपने साथ! गाली किसी और को दी थी, चोट किसी और को पहुंचायी थी,
घाव कहीं और छोड़े थे! और क्षमा चर्च में जाकर मांग ली। यह चर्च तो फिर बहाना हुआ, इस पादरी को तो गाली न दी थी, इस पादरी के हृदय पर तो घाव न मारे थे, पाप तो इससे किए न थे। इसके सामने प्रकट करने से क्या होगा?
यह तो फिर गंगा ही हो गयी, लौट आए हल्के मन, प्रसन्नचित्त, झंझट मिटी! इतने सस्ते में छूट जाना चाहते हो! जिन पर घाव छोड़े हैं, थोड़ा सोचो तो! जहां घाव छोड़े हैं, थोड़ा सोचो तो! शरीर अगर गंदा हो, इतना कह देने से पादरी के सामने जाकर कि मैंने कई दिन से स्नान नहीं किया, स्नान हो जाएगा? पादरी को यह कह देने से स्नान कैसे हो जाएगा? हां, तुम्हारा मन भले हल्का हो जाए कि चलो एक बात मन में काटती थी, कचोटती थी, कह दी! निर्भार हुए! लेकिन निर्भार होकर भी करोगे क्या? फिर वही पाप करोगे, फिर वही बोझ इकट्ठा करोगे।
बुद्ध ने सब छीन लिया, उनकी क्रांति बड़ी मौलिक है; मूल से है, उन्होंने जड़े काट दी। इसलिए बुद्ध पर लोग नाराज भी हुए, ऐसे तुम तो सब सपने छीन लोगे! ऐसे कोई भ्रम न बचने दोगे! यहीं तुम समझो! बुद्ध तुमसे यह नहीं कहते कि संसार ही माया है, वे कहते हैं, तुम्हारा परमात्मा भी माया है, तुम्हारी दुकान तो झूठ है ही! तुम्हारा मंदिर भी झूठ है! तुम्हारा पाप भी झूठ है! तुम्हारा पुण्य भी झूठ है! तुम झूठ हो! क्योंकि अब तक तुमने बुनियादी सत्य स्वीकार नहीं किया कि मैं जिम्मेवार हूँ।
जीवन में क्रांति की शुरुआत इस बात से होती है कि एक आदमी अपनी बागडोर अपने हाथ में ले लेता है और कहता है! बुरा भला जैसा हूँ मैं जिम्मेवार हूँ !!
ओशो
➡'एस धम्मो सनंतनो'

= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
*करै करावै सांइयाँ, जिन दिया औजूद ।*
*दादू बन्दा बीच में, शोभा को मौजूद ॥* 
==========================
साभार ~ Nishi Dureja
बोकोजू से किसी ने और एक बार पूछा कि जब तुम ज्ञान को उपलब्ध न हुए थे, तब तुम्हारी जीवन—चर्या क्या थी? तो उसने कहा कि तब मैं गुरु के आश्रम में रहता था; जंगल से लकड़ियां काटता था और कुएं से पानी भर कर लाता था। फिर उसने पूछा, अब? अब जब कि तुम स्वयं गुरु हो गये और तुम ज्ञान को उपलब्ध हो गये—तुम्हारी जीवन—चर्या क्या है?

बोकोजू ने कहा, वही, जंगल से लकड़ी काट कर लाता हूं; कुएं से पानी भर कर लाता हूं। उस आदमी ने कहा हद हो गयी! फिर फर्क क्या हुआ? बोकोजू ने कहा : फर्क भीतर हुआ है, बाहर नहीं हुआ। फर्क मुझे पता है या मेरे गुरु को पता है। काम में फर्क नहीं हुआ है। ध्यान में फर्क हुआ है। कृत्य तो वैसा का वैसा ही है। लकड़ी अब भी काट कर लाता हूं लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। पानी अब भी भर कर लाता हूं, लेकिन अब मैं कर्ता नहीं हूं। मैं साक्षी ही बना रहता हूं। कृत्य चलते चले जाते हैं। कृत्यों के पार एक नये भाव और एक नये बोध का उदय हुआ है। एक नया सूरज चमका है!

सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, मोक्ष दूर नहीं है। सहज के सूत्र को पकड़ कर चलते रहो, समाधि दूर नहीं है। साधो, सहज समाधि भली !

वह जो कबीर ने सहज समाधि कही है, उसकी ही बात जनक कह रहे हैं, अपने गुरु के सामने निवेदन कर रहे हैं। वे कह रहे हैं कि समझ गया। आप मुझे उकसाओ, उकसा न सकोगे। क्योंकि बात सच्ची घट गयी है, मुझे दिखायी ही पड़ गया। अब आप लाख इधर—उधर से घुमाओ, आप मुझे धोखे में न डाल सकोगे। अब तो मुझे दिख गया कि मैं साक्षी हूं और जो स्फुरणा से होता है, होता है। न तो मैं उसे रोकने वाला, न मैं उसे लाने वाला। मेरा कुछ लेना—देना नहीं है। मैं दूर खडा हो गया हूं। भूख लगती है, खा लूंगा। नींद आ जायेगी, सो जाऊंगा।

जय हो

शनिवार, 12 अगस्त 2017

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बनाइ ।*
*जहँ आपा मेटन, हरि भजन, तिहिं दिशि कोइ न जाइ ॥* 
==========================
साभार ~ Kashmir Hooda⁠⁠⁠⁠⁠(wtsap)
**⁠⁠⁠जानने के लिए अपने श्वास के प्रति सजग हों।** 

"जब तुम कह रहे हो कि तुम खुश हो और तुम खुश नहीं हो, तो तुम्हारी श्वास अनियमित होगी।श्वास सहज नहीं होगी।यह असंभव है।"
.
तुम सत्य को झुठला नहीं सकते। बेहतर होगा कि तुम इसका सामना करो, बेहतर होगा कि तुम इसे स्वीकार करो, बेहतर होगा कि तुम इसे जीयो। एक बार तुम सच्चा, प्रामाणिक जीवन जीना शुरु करो-- अपना वास्तविक चेहरा-- तो धीरे-धीरे सभी दुख तिरोहित हो जाएंगे क्योंकि संघर्ष समाप्त हो जाता है और अब तुम विभाजित नहीं रहते। तुम्हारी वाणी लयबद्ध हो जाती है, तुम्हारा पूरा अस्तित्व वाद्य-वृंद बन जाता है। अभी तो जब तुम कुछ कहते हो तो तुम्हारा शरीर कुछ और कहता है; जब तुम्हारी जुबान कुछ और कहती है तो तुम्हारी आंखें साथ-साथ कुछ और कहती चली जाती हैं।
.
बहुत बार लोग यहां आते हैं और मैं उनसे पूछता हूं, "कैसे हो?" तो वे कहते हैं, "हम तो बहुत खुश हैं।" मुझे तो विश्वास ही नहीं होता क्योंकि उनके चेहरे इतने बुझे से होते हैं-- न कोई उल्लास, न कोई प्रफुल्लता। उनकी आंखों में न कोई चमक, न कोई रोशनी। और जब वे कहते हैं, "हम खुश हैं" तो ´खुश´ शब्द भी खुश प्रतीत नहीं होता। ऐसा लगता है जैसे वे इसे घसीट रहे हों। उनका लहज़ा, उनकी आवाज़, उनका चेहरा, उनके बैठने या खड़े होने का ढंग-- सब कुछ इसे झुठलाता है, कुछ और ही कहता है। इन लोगों की ओर गौर करना। जब वे कहते हैं कि वे खुश हैं तो गौर करना। उनकी भाव-भंगिमा पढ़ना। क्या वे सच में खुश हैं? और अचानक तुम पाओगे कि उनका एक हिस्सा कुछ और ही कह रहा है।

और फिर धीरे-धीरे खुद को देखो। जब तुम कह रहे हो कि तुम खुश हो और हो नहीं तो आपका श्वास अनियमित होगा। आपका श्वास नियमित नहीं हो सकता। यह असंभव है। क्योंकि सत्य यह था कि तुम खुश नहीं थे। यदि तुमने कहा होता, "मैं अप्रसन्न हूं" तो तुम्हारा श्वास सहज रहता। कोई संघर्ष न होता। पर तुमने कहा, "मैं खुश हूं।" तत्क्षण तुमने कुछ दबाया-- उसे, जो बाहर आ रहा था, तुमने उसे भीतर धकेला। इसी संघर्ष में तुम्हारे श्वास की गति बदल जाती है, यह लयबद्ध नहीं रहता। तुम्हारा चेहरा गरिमापूर्ण नहीं रहता, तुम्हारी आंखें चालाक हो जाती हैं।

पहले दूसरों को देखो क्योंकि दूसरों को देखना अधिक आसान होगा। तुम उनको लेकर अधिक निरपेक्ष रह पाओगे। और जब तुम उनके लक्षण पा लोगे तो उन्हीं लक्षणों को स्वयं पर लागू करना। और देखना-- जब तुम सच बोलते हो तो तुम्हारी आवाज़ में संगीत की मधुरता होती है; जब तुम असत्य बोलते हो तो तुम्हारा स्वर कर्कश-सा होता है। जब तुम सत्य बोलते हो तो तुम संयुक्त, सुगठित होते हो; जब तुम असत्य बोलते हो तो तुम संयुक्त नहीं रहते, संघर्ष उठता है।

इन सूक्षम घटनाओं को देखें क्योंकि वे संयुक्त या असंयुक्त होने का ही परिणाम हैं। जब भी तुम संयुक्त हो और भटके हुए नहीं हो, जब भी तुम एक हो, योग में हो, अचानक तुम देखते हो कि तुम खुश हो। ´योग´शब्द का यही अर्थ है। ´योगी´ का यही अर्थ है; वह जो संयुक्त है, योग में है; जिसके सभी हिस्से परस्पर-संबंधित,हैं न कि परस्पर-विरोधी, वे परस्पर-निर्भर हैं न कि परस्पर-संघर्ष में, एक दूसरे से समरस। उसका अस्तित्व मैत्रीपूर्ण हो जाता है। वह पूर्ण होता है। 

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी विशेष घड़ी में तुम एक हो जाते हो। सागर को देखो, इसका अत्यंत शोरगुल-- और तुम अपना विभाजन, अपना बंटवारा भूल जाते हो; तुम विश्रांत हो जाते हो। या हिमालय पर जाते हुए पर्वत पर ताज़ा बर्फ को देख कर अचानक एक ठंडक-सी तुम्हें घेर लेती है और तुम्हें झूठा होने की ज़रूरत नहीं रहती क्योंकि वहां झूठा होने के लिए कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है। तुम संयुक्त हो जाते हो। या मधुर संगीत को सुनते हुए, तुम संयुक्त हो जाते हो।

जब भी, कैसी भी स्थिति में, तुम एक होते हो, एक तरह की शांति, प्रफुल्लता, आनंद तुम्हारे भीतर उठता है, तुम्हें घेर लेता है। तुम भर जाते हो।

इन घड़ियों की प्रतीक्षा करने की कोई ज़रूरत नहीं है-- ये घड़ियां आपका वास्त्विक जीवन बन सकती हैं। ये असाधारण पल साधारण पल बन सकते हैं-- हमारा का पूरा प्रयास यही है। तुम बहुत साधारण जीवन में भी असाधारण जीवन जी सकते हो: लकड़ी काटते हुए, कुएं से पानी लाते हुए, तुम पूरी तरह विश्रांत रह सकते हो। फर्श साफ करते हुए, भोजन बनाते हुए, कपड़े धोते हुए तुम पूर्णतया विश्रांत रह सकते हो-- क्योंकि सारा प्रश्न तुम्हारे कार्य को पूर्णतया, हंसते- खेलते, प्रफुल्लता से करने का है।उस के बाद जो बचता हैं वह से परमात्मा का मार्ग दिखाई पड़ता हैं, सत्संग का मार्ग(सत का संग) का मार्ग फिर कोई नही बचता तुम भी नही बचते सिर्फ परमात्मा बचता हैं और कोई नहीं आगे के मार्ग फिर अपने आप खुलते चले जायेंगे .....

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*अरे भाई, राम छाड़ि कहाँ राता है ॥टेक॥*
*मैं मैं मेरी इन सौं लाग,* 
*स्वाद पतंग न सूझै आग ॥ १ ॥*
*विषया सौं रत गर्व गुमान,*
*कुंजर काम बँधे अभिमान ॥ २ ॥*
*लोभ मोह मद माया फंध,* 
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥ ३ ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥ ४ ॥*
=======================
आचक्ष्वा श्रृयु वा तात नानाशास्त्रोण्यनेकश:।
तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते ।।
(अष्टावक्र: महागीता)
इस सूत्र को गहरे से समझें। 'अनेक शास्त्रों को अनेक प्रकार से तू कह अथवा सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे शांति नहीं, स्वास्थ्य नहीं।’
.
जब तक स्मृति मन पर डोल रही है, मन का आकाश विचारों से भरा है, तब तक शांति कहां ! विचार ही तो अशांति है ! किन्हीं के मन में संसार के विचार हैं और किन्हीं के मन में परमात्मा के, इससे भेद नहीं पड़ता। किन्हीं के मन में हिंदू विचार हैं, किन्हीं के मन में ईसाइयत के, इससे भेद नहीं पड़ता। किसी ने धम्मपद पढ़ा है, किसी ने कुरान, इससे भेद नहीं पड़ता। आकाश में बादल हैं तो सूरज छिपा रहेगा। बादल न तो हिंदू होते हैं न मुसलमान; न सांसारिक न असांसारिक—बादल तो बस बादल हैं, छिपा लेते हैं, आच्छादित कर लेते हैं।
.
विचार जब बहुत सघन घिरे हों मन में तो तुम स्वयं को न जान पाओगे। स्वयं को जाने बिना स्वास्थ्य कहां है! स्वास्थ्य का अर्थ समझ लेना। स्वास्थ्य का अर्थ है जो स्वयं में स्थित हो जाये; जो अपने घर आ जाये, जो अपने केंद्र में रम जाये। स्वयं में रमण है स्वास्थ्य। स्व में ठहर जाना है स्वास्थ्य। और अष्टावक्र कहते हैं, तभी शांति है। शांति स्वास्थ्य की छाया है। अपने से डिगा, अपने से स्मृत कभी शांत न हो पायेगा, डांवांडोल रहेगा। डांवांडोल यानी अशांत रहेगा।
.
और हर विचार तुम्हें स्मृत करता है। हर विचार तुम्हें अपनी धुरी से खींच लेता है। इसे देखो। बैठे हो शांत, कोई विचार नहीं मन में, तुम कहां हो फिर? जब कोई विचार नहीं तो तुम वहीं हो जहां होना चाहिए। तुम स्वयं में हो। विचार आया, पास से एक स्त्री निकल गई और स्त्री अपने पीछे धुएं की एक लकीर तुम्हारे मन में छोड़ गई। नहीं कि स्त्री को पता है कि तुम इधर बैठे हो, शायद देखा भी न हो। तुम्हारे लिए निकली भी नहीं है। सजी भी होगी तो किसी और के लिए सजी होगी; तुमसे कुछ संबंध भी नहीं है। लेकिन तुम्हारे मन में एक विचार सघनीभूत हो गया—सुंदर है,भोग्य है! पाने की चाह उठी। तुम स्मृत हो गये। तुम चल पड़े। यह विचार तुम्हें ले चला कहीं—स्त्री का पीछा करने लगा। मन में गति हो गई। क्रिया पैदा हो गई। तरंग उठ गई। जैसे शांत झील में किसी ने कंकड़ फेंक दिया! अब तक शांत थी, क्षण भर पहले तक शांत थी, अब कोई शांति न रही। कंकड़ ने तरंगें उठा दीं। एक तरंग दूसरे को उठाती है, दूसरी तीसरी को उठाती है—तरंगें फैलती चली जाती हैं; दूर के तटों तक तरंगें ही तरंगें !
.
एक छोटा सा कंकड़ विराट तरंगों का जाल पैदा कर देता है। यह स्त्री पास से गुजर गई। जरा—सी तरंग थी, जरा—सा कंकड़ था। लेकिन जिन स्त्रियों को तुमने अतीत में जाना उनकी स्मृतियां उठने लगीं। जिन स्त्रियों को तुमने चाहा उनकी याददाश्त आने लगी। अभी क्षण भर पहले झील बिलकुल शांत थी, कोई कंकड़ न पड़ा था. तुम बिलकुल मौन बैठे थे, थिर, जरा भी लहर न थी। लहर उठ गई।
.
लेकिन ध्यान रखना, यह लहर स्त्री के कारण ही उठती हो, ऐसा नहीं है। कोई परमहंस पास से निकल गया, सिद्ध पुरुष,उसकी छाया पड़ गई, और मन में एक आकांक्षा उठ गई कि हम भी ऐसे सिद्ध पुरुष कब हो पायेंगे। बस हो गया काम। कंकड़ फिर पड़ गया। कंकड़ परमहंस का पड़ा कि पर—स्त्री का पड़ा, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। फिर चल पड़े। फिर यात्रा शुरू हो गई। मन फिर डोलने लगा।’कब मिलेगा मोक्ष ! कब ऐसी सिद्धि फलित होगी !' वासना उठी, दौड़ शुरू हुई। दौड़ शुरू हुई, अपने से तुम चूके।
जय सनातन।

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

= १८४ =


卐 सत्यराम सा 卐
*प्रेम लहर गह ले गई, अपने प्रीतम पास ।*
*आत्म सुन्दरी पीव को, विलसै दादू दास ॥* 
==========================
साभार ~ www.osho.com
आत्मस्मरण(Self-remembrance)
.
कुछ शब्द अध्यात्म में बहुत ही गहरे हैं, परन्तु उन शब्दों के अर्थ हम अपने मन के अनुसार निकाल के, व्यर्थ बना देते हैं। जैसे "आत्मस्मरण"।
.
आत्मस्मरण बड़ा बहुमूल्य शब्द है। उसका अर्थ वही होता है जो ध्यान का अर्थ होता है। उसका वही अर्थ होता है जो कबीर, नानक और दादू की भाषा में सुरति का होता है। स्वयं की स्मृति यानी सुरति। लेकिन शब्द में खतरा भी है, क्योंकि हम जिन लोगों से बात कर रहे हैं उनसे अगर कहो स्वयं की स्मृति तो खतरा है, क्योंकि उन्हें स्वयं का तो कोई पता नहीं है, वे स्वयं की स्मृति कैसे करेंगे? वे तो उसी स्वयं की स्मृति कर लेंगे, जिसको वे जानते हैं। उनका 'स्वयं' तो उनका अहंकार है। तो आत्मस्मरण तो न बनेगा, अहंकार की पुष्टि हो जाएगी। अहंकार की स्मृति ना हो उसके लिए हमे कुछ दिन आत्मस्मरण को भुलाना होगा, और आत्मविस्मरण करो, कुछ दिनों के लिये अपने को ही भुलाना होगा, जब एक बार भी तुम अपने को बिलकुल भूल जाओगे, कोई सुध-बुध न रहेगी, ऐसी मस्ती में आ जाओगे, उसी क्षण किरण उतरेगी और आत्मस्मरण जागेगा। आत्मस्मरण तुम्हारे किए नहीं होगा। आत्मा की स्मृति तो उठेगी तब, जब तुम सब विस्मरण कर दोगे स्वयं के अहंकार को।
.
जैसे एक आदमी रात सोना चाहता है और सोने के लिए बहुत चेष्टा करता है, उसकी हर चेष्टा सोने में बाधा बन जाती है। करता तो कोशिश सोने की है, लेकिन जितनी कोशिश करता है उतनी ही नींद मुश्किल हो जाती है। क्योंकि नींद के लिए सब प्रयास छूट जाना चाहिए, तभी नींद आती है। नींद लाने का प्रयास भी नींद के आने में बाधा है।
.
तो अगर स्वयं की स्मृति लानी हो तो स्वयं को स्मरण करने का प्रयास भर मत करना, अन्यथा भटक हो जायेगी, भूल हो जायेगी, बड़ी भ्रांति होगी। तुम तो विस्मरण करना। डूब जाना कीर्तन में, कि नृत्य में, कि गान में, कि संगीत में। तुम भूल ही जाना अपने को, बिलकुल भूल जाना, विस्मरण कर देना। यह भी भूल जाना, कौन हो तुम, क्या तुम्हारा पता-ठिकाना,जानते नहीं जानते, पंडित- अपडित, पुण्यात्मा-पापी, सब भूल जाना। ऐसे छंदबद्ध हो जाना किसी घड़ी में कि कुछ भी याद न रहे। सब पांडित्य भूल जाये, सब पुण्य एक तरफ रख देना, जहां जूते उतार आये वहीं पुण्य भी, वहीं पांडित्य भी, वहीं छोड़ आना सारी अस्मिता और अहंकार को और डूब जाना। अचानक तुम पाओगे, उसी डुबकी में से कोई चीज उभरने लगी। तुम्हारे भीतर एक नया प्रकाश आने लगा। बादल छंट गये, सूरज दिखाई पड़ने लगा। आत्मस्मरण हुआ।

= १८३ =



卐 सत्यराम सा 卐
*यंत्र बजाया साज कर, कारीगर करतार ।*
*पंचों का रस नाद है, दादू बोलनहार ॥* 
*पंच ऊपना शब्द तैं, शब्द पंच सौं होइ ।*
*सांई मेरे सब किया, बूझै विरला कोइ ॥* 
==========================
साभार ~ www.osho.com
तथापि न तव स्वास्थ्य सर्वविस्मरणादृते।
'जब तक तू सब न भूल जाये तब तक तुझे स्वास्थ्य उपलब्ध न होगा।' (अष्टावक्र: महागीता)

ये सूत्र इशारा कर रहा है कि, जितना भी ज्ञान हमने बाहर से एकत्र किया हुआ है, चाहे शास्त्रों से, चाहे, धर्म गुरुओं से, सबको भुला के खाली होना होगा। बाहर का कोई भी शब्द हमे जगा नहीं सकता। लेकिन हमारा तो शब्द पर बड़ा भरोसा है और हमें शब्द के माधुर्य में बड़ी प्रीति है। शब्द मधुर होते भी हैं। शब्द का भी संगीत है और शब्द का भी अपना रस है। इसलिए तो काव्य निर्मित होता है। इसलिए शब्द की जरा सी ठीक व्यवस्था से संगीत निर्माण हो जाता है। 
.
फिर शब्द में हमें रस है क्योंकि शब्द में बडे तर्क छिपे है। और तर्क हमारे मन को बड़ी तृप्ति देता है। अंधेरे में हम भटकते हैं, वहां तर्क से हमें सहारा मिल जाता है लगता है कि चलो कुछ नहीं जानते; लेकिन कुछ तो हिसाब बंधने लगा, कुछ तो' बात पकड में आने लगी, एक धागा तो हाथ में आया, तो धीरे-धीरे इसी धागे के सहारे और भी पा लेंगे। और हमारा छपे हुए शब्द पर तो बड़ा ही आग्रह है।
.
परमात्मा की भाषा मौन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि शब्द कोई शैतान की भाषा है। इसका इतना ही अर्थ है कि सत्य तो तभी अनुभव होता है जब कोई मनुष्य परिपूर्ण मौन को उपलब्ध होता है। लेकिन जब मनुष्य कहना चाहता है तो उसे माध्यम का सहारा लेना पड़ता है। तब जो उसने जाना है वह उसे शब्द में रखता है; बस रखने में ही अधिक तो समाप्त हो जाता है।

बुधवार, 9 अगस्त 2017

= १८२ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू हाडों मुख भर्या, चाम रह्या लिपटाय ।*
*मांहैं जिभ्या मांस की, ताही सेती खाइ ॥* 
*दादू नौवों द्वारे नरक के, निशदिन बहै बलाइ ।*
*शुचि कहाँ लौं कीजिये, राम सुमरि गुण गाइ ॥* 
===============================
साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat
.
चेतना का मूल ~
बुद्ध ने बत्तीस कुरूपताएं शरीर में गिनायी हैं। इन बत्तीस कुरूपताओं का स्मरण रखने का नाम कायगता—स्मृति है। पहली तो बात, यह शरीर मरेगा। इस शरीर में मौत लगेगी। यह पैदा ही बड़ी गंदगी से हुआ है।
.
मां के गर्भ में तुम कहां थे, तुम्हें पता है? मल—मूत्र से घिरे पड़े थे। उसी मल—मूत्र में नौ महीने बड़े हुए। उसी मल—मूत्र से तुम्हारा शरीर धीरे—धीरे निर्मित हुआ। फिर बुद्ध कहते हैं कि अपने शरीर में इन विषयों की स्मृति रखे—केश, रोम, नख, दांत, त्वक्, मांस, स्नायु, अस्थि, अस्थिमज्जा, यकृत, क्लोमक, प्लीहा, फुस्फुस, आत, उदरस्थ मल—मूत्र, पित्त, कफ, रक्त, पसीना, चर्बी, लार आदि। इन सब चीजों से भरा हुआ यह शरीर है, इसमें सौंदर्य हो कैसे सकता है!
.
सौंदर्य तो सिर्फ चेतना का होता है। देह तो मल—मूत्र का घर है। देह तो धोखा है। देह के धोखे में मत पड़ना, बुद्ध कहते हैं। इस बात को स्मरण रखना कि इसको तुम कितने ही इत्र से छिडको इस पर, तो भी इसकी दुर्गंध नहीं जाती। और तुम इसे कितने ही सुंदर वस्त्रों में ढांको, तो भी इसका असौंदर्य नहीं ढकता है। और तुम चाहे कितने ही सोने के आभूषण पहनो, हीरे—जवाहरात सजाओ, तो भी तुम्हारे भीतर की मांस—मज्जा वैसी की वैसी है।
.
जिस दिन चेतना का पक्षी उड़ जाएगा, तुम्हारी देह को कोई दो पैसे में खरीदने को राजी न होगा। जल्दी से लोग ले जाएंगे, मरघट पर जला आएंगे। जल्दी समाप्त करेंगे। घड़ी दो घडी रुक जाएगी देह तो बदबू आएगी। यह तो रोज नहाओ, धोओ, साफ करो, तब किसी तरह तुम बदबू को छिपा पाते हो। लेकिन बदबू बह रही है। बुद्ध कहते हैं, शरीर तो कुरूप है। सौंदर्य तो चेतना का होता है। और सौंदर्य चेतना का जानना हो तो ध्यान मार्ग है।
.
और शरीर का सौंदर्य मानना हो, तो ध्यान को भूल जाना मार्ग है। ध्यान करना ही मत कभी, नहीं तो शरीर का असौंदर्य पता चलेगा। तुम्हें पता चलेगा, यह शरीर में यही सब तो भरा है। इसमें और तो कुछ भी नहीं है।
.
कभी जाकर अस्पताल में टंगे अस्थिपंजर को देख आना, कभी जाकर किसी मुर्दे का पोस्टमार्टम होता हो तो जरूर देख आना, देखने योग्य है, उससे तुम्हें थोड़ी अपनी स्मृति आएगी कि तुम्हारी हालत क्या है। किसी मुर्दे का पेट कटा हुआ देख लेना, तब तुम्हें समझ में आएगा कि कितना मल —मूत्र भरे हुए हम चल रहे हैं। यह हमारे शरीर की स्थिति है।
.
बुद्ध कहते हैं, इस स्थिति का बोध रखो। यह बोध रहे तो धीरे — धीरे शरीर से तादात्म्य टूट जाता है और तुम उसकी तलाश में लग जाते हो जो शरीर के भीतर छिपा है, जो परमसुंदर है। उसे सुंदर करना नहीं होता, वह सुंदर है। उसे जानते ही सौंदर्य की वर्षा हो जाती है। और शरीर को सुंदर करना पड़ता है, क्योंकि शरीर सुंदर नहीं है। कर—करके भी सुंदर होता नहीं है। कभी नहीं हुआ है। कभी नहीं हो सकेगा। तृतीय दृश्य— यह बहुत अनूठा सूत्र है। बुद्ध के अनूठे से अनूठे सूत्रों में एक। इसे खूब खयाल से समझ लेना॥
.
ओशो

= १८१ =


卐 सत्यराम सा 卐
*चर्म दृष्टि देखै बहुत, आतम दृष्टि एक ।*
*ब्रह्म दृष्टि परचै भया, तब दादू बैठा देख ॥* 
============================

चीजों को, जैसी वे दिखाई पड़ती हैं, उनको वैसी ही मत मान लेना। उनके भीतर बहुत कुछ है | एक आदमी मर जाता है। हमने कहा, आदमी मर गया। जिस आदमी ने इस बात को यही समझ कर छोड़ दिया, उसके पास अंतर्दृष्टि नहीं है| गौतम बुद्ध एक महोत्सव में भाग लेने जाते थे। रास्ते पर उनके रथ में उनका सारथी था और वे थे। और उन्होने एक बूढे आदमी को देखा। वह उन्होंने पहला बूढ़ा देखा।
.
जब गौतम बुद्ध का जन्म हुआ, तो ज्योतिषियों ने उनके पिता को कहा कि यह व्यक्ति बड़ा होकर या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा और या संन्यासी हो जाएगा। उनके पिता ने पूछा कि मैं इसे संन्यासी होने से कैसे रोक सकता हूं ? तो उस ज्योतिषि ने बडी अद्भूत बात कही थी। वह समझने वाली है। उस ज्योतिषि ने कहा, अगर इसे संन्यासी होने से रोकना है, तो इसे ऐसे मौंके मत देना जिसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए। पिता बहुत हैरान हुए – यह क्या बात हुई ? उनके पिता ने पूछा। ज्योतिषि ने कहा, इसको ऐसे मौंके मत देना कि अंतर्दृष्टि पैदा हो जाए। तो पिता ने कहा, यह तो बडा मुश्किल हुआ, क्या करेंगे ?
.
उस ज्योतिषी ने कहा कि इसकी बगिया में फूल कुम्हलाने के पहले अलग कर देना। यह कभी कुम्हलाया हुआ फूल न देख सके। क्योंकि यह कुम्हलाया हुआ फूल देखते ही पूछेगा, क्या फूल कुम्हला जाते हैं ? और यह पूछेगा, क्या मनुष्य भी कुम्हला जाते हैं ? और यह पूछेगा, क्या मैं भी कुम्हला जाऊंगा ? और इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी। इसके आस-पास बूढे लोगों को मत आने देना। अन्यथा यह पूछेगा, ये बूढे हो गए, क्या मैं भी बूढा हो जाऊंगा ? यह कभी मृत्यु को न देखे। पीले पत्ते गिरते हुए न देखे। अन्यथा यह पूछेगा, पीले पत्ते गिर जाते है, क्या मनुष्य भी एक दिन पीला होकर गिर जाएगा ? क्या मैं गिर जाऊंगा ? और तब इसमें अंतर्दृष्टि पैदा हो जाएगी।
.
पिता ने बडी चेष्टा की और उन्होंने ऐसी व्यवस्था की, कि बुद्ध के युवा होते-होते तक उन्होंने पीला पत्ता नहीं देखा, कुम्हलाया हुआ फूल नहीं देखा, बूढा आदमी नहीं देखा, मरने की कोई खबर नहीं सुनी। फिर लेकिन यह कब तक हो सकता था ? इस दुनिया में किसी आदमी को कैसे रोका जा सकता है कि मृत्यु को न देखे ? कैसे रोका जा सकता है कि पीले पत्ते न देखे ? कैसे रोका जा सकता है कि कुम्हलाये हुए फूल न देखे ?
.
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, आपने कभी मरता हुआ आदमी नहीं देखा होगा, और कभी आपने पीला पत्ता नहीं देखा, अभी आपने कुम्हलाया फूल नहीं देखा। बुद्ध को उनके बाप ने रोका बहुत मुश्किल से, तब भी एक दिन उन्होंने देख लिया। आपको कोई नहीं रोके हुए है और आप नहीं देख पा रहे है। अंतर्दृष्टि नहीं है, नहीं तो आप संन्यासी हो जाते। यानी सवाल यह हैं, क्योंकि उस ज्योतिषि ने कहा था कि अगर अंतर्दृष्टि पैदा हुई तो यह संन्यासी हो जाएगा। तो जितने लोग संन्यासी नहीं है, मानना चाहिए, उन्हें अंतर्दृष्टि नहीं होगी।
.
खैर, एक दिन बुद्ध को दिखाई पड़ गया। वे यात्रा पर गए एक महोत्सव में भाग लेने और एक बूढा आदमी दिखाई पडा और उन्होंने तत्क्षण अपने साथी को पूछा, इस मनुष्य को क्या हो गया ?
.
उस साथी ने कहा , यह वृद्ध हो गया।
बुद्ध ने पूछा , क्या हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है ?
उस साथी ने कहा, हर मनुष्य वृद्ध हो जाता है।
बुद्ध ने पूछा, क्या मेैं भी ?
.
उस साथी ने कहा, भगवन, कैसे कहूं! लेकिन कोई भी अपवाद नहीं है। आप भी हो जाएंगे।
बुद्ध ने कहा, रथ वापस लौटा लो, रथ वापस ले लो।
सारथी बोला, क्यों ?
बुद्ध ने कहा, मैं बूढा हो गया।
यह अंतर्दृष्टि है। बुद्ध ने कहा, मैं बूढा हो गया। अदभुत बात कही। बहुत अदभुत बात कही।
.
और वे लौट भी नहीं पाए कि उन्होंने एक मृतक को देखा और बुद्ध ने पूछा, यह क्या हुआ ?
उस सारथी ने कहा, यह बुढापे के बाद दूसरा चरण है, यह आदमी मर गया।
बुद्ध ने पूछा, क्या हर आदमी मर जाता है ?
सारथी ने कहा, हाँ हर आदमी।
और बुद्ध ने पूछा, क्या मैं भी ?
और सारथी ने कहा, आप भी। कोई भी अपवाद नहीं है।
बुद्ध ने कहा, अब लोैटाओ या न लौटाओ, सब बराबर है।
साथी ने कहा, क्यों ?
बुद्ध ने कहा, मैं मर गया।
.
यह अंतर्दृष्टि है। चीजों को उनके ओर-छोर तक देख लेना। चीजें जैसी दिखाई पडें, उनको वैसा स्वीकार न कर लेना, उनके अंतिम चरण तक। जिसको अंतर्दृष्टि पैदा होगी, वह इस भवन की जगह खंडहर भी देखेगा। जिसे अंतर्दृष्टि होगी, वह यहां इतने जिंदा लोगों की जगह इतने मुर्दा लोग भी देखेगा-इन्हीं के बीच, इन्हीं के साथ। जिसे अंतर्दृष्टि होगी, वह जन्म के साथ ही मृत्यु को भी देख लेगा, और सुख के साथ दुःख को भी, और मिलन के साथ विछोह को भी।

अंतर्दृष्टि आर-पार देखने की विधि है। और जिस व्यक्ति को सत्य जानना हो, उसे आर-पार देखना सीखना होगा। क्योंकि परमात्मा कहीं और नहीं है, जिसे आर-पार देखना आ जाए उसे यहीं परमात्मा उपलब्ध हो जाता है। वह आर-पार देखने के माध्यम से हुआ दर्शन है।

~ ओशो