परमगुरु ब्रह्मर्षि श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी
गुरुवार, 5 नवंबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ६१/६३*
बुधवार, 4 नवंबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ५७/६०*
मंगलवार, 3 नवंबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ५३/५६*
सोमवार, 2 नवंबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ४९/५२*
रविवार, 1 नवंबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ४५/४८*
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*८. लै कौ अंग ~ ४५/४८*
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कहन सुनन कूं सबद है, जब लगि तन मंहि सांस ।
सांस बिलै तन ब्रह्म हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम जब तक देह में सांस है तभी तक है, कहा है सांस छूटने पर सब प्रभु का हो जाता है ।
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जब लग बाणी विसतरै, तब लग उतपति आस ।
सबद सुन्नि सोइ रांम है, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब तक वाणी का विस्तार है तब तक इससे कुछ अच्छा होगा यह आशा रहती है शून्य शब्द ही प्रभु नाम है ।
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द्रव्य सक्ति२ दुनियां रजै, तपा सकति तप आस ।
जोग सक्ति जोगेस्वर३, सु कहि जगजीवनदास ॥४७॥
{२. द्रव्यसक्ति=अर्थशक्ति(=रुपया पैसा) से}
(३. जोगसरा=योगीस्वर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धन की शक्ति से दुनिया प्रसन्न रहती है जिन्हें तप से आशा है वे तप से खुश रहते हैं जो योगी है वे योग शक्ति से प्रसन्न रहते हैं ।
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ग्यांन सक्ति ग्यांनी मगन, ध्यांन सक्ति मुनि बास ।
नांम सक्ति हरि भगति रस, सु कहि जगजीवनदास ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान के वैभव से ज्ञानी प्रसन्न रहते हैं । ध्यान से मुनि जन, स्मरण से हरि भक्त खुश रहते हैं । ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)
शनिवार, 31 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ४१/४४*
शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ३७/४०*
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ३३/३६*
गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ २९/३२*
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*८. लै कौ अंग ~ २९/३२*
कहि जगजीवन तेज मंहि, मन खेलै ज्यूँ मीन ॥२९॥
{९. सुप्रभात=प्रातःकाल(ब्रह्म मुहुर्त)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभात वेला में जो स्मरण करें व मन को प्रभु की लगन में लीन रखें वह जीव प्रभु के तेजोमय प्रभा में ऐसे आनंद पूर्वक विचरण करता है जैसे जल में मछली करती है ।
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कहि जगजीवन रांम घरि, जे बरतनि जे आथि१० ।
सो ले हरि धन बरततां, ह्रिदै निरंजन साधि ॥३०॥
{१०. आथि=अस्ति (=वर्तते, है)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम रुपी स्मरण को ही धन मानकर व्यवहार करते हैं वे हरि धन खर्च करते समय निरंजनं देव को अपने हृदय में रखते हैं ।
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कहि जगजीवन कीनिया११, आसिक अल्लह लीन ।
कर्म कीनां अत पाक दिल, तात तबज्या१२ दीन ॥३१॥
(११. कीनिया=रसायन विद्या) {१२. तबज्या=तवज्जुह (=ध्यान देना)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दो आशिक व अल्लाह जब एक होते है तो उस रसायन से जो कर्म पवित्र मन से किया जाये उसे ही परमात्मा अपना कृत्य मानते हैं ।
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रांम रिदै लै लीन मन, जिस का घट मंहि सुद्धि१ ।
कहि जगजीवन पात्र सौ, जिस मंहि अनंत बुद्धि२ ॥३२॥
{१. घट सुद्धि=शुद्ध(स्वच्छ) अन्तःकरण} (२. अनंत बुद्धि=नाना प्रयोजनों का साधक)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस ह्रदय में राम है या जो हृदय राम में लीन है वह हृदय शुद्ध है वह ही वह योग्य पात्र है जिसमें अनंत बुद्धि समायी है ।
(क्रमशः)
बुधवार, 14 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ २५/२८*
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ २१/२४*
रविवार, 11 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*
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*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*
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कहि जगजीवन बिलै तन, विलै प्रांण मन नाद ।
अैसे हरि भजि नांम लहैं, ते जन पावैं स्वाद ॥१७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिभजन का आनंद तभी आता है जब हम उसमें तन, मन, प्राण, नाद, स्वर सब उसी में विलीन कर दें ।
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लाख३ शब्द ल्यौ बाहिरा, कोई कहौ किंहिं भांति ।
कहि जगजीवन रांम विन, सक्ति प्रव्रिती राति३ ॥१८॥
{३-३. ‘रांम’ शब्द के विना अन्य लाखों सांसारिक शब्द तुम्हारा अविद्यामय अन्धकार(सांसारिक रति) ही बढ़ायेंगे ॥१८॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम के अलावा चाहे अन्य लाखों शब्द ही क्यों न उच्चारण कर ले वे हमारे अज्ञान की ही वृद्धि करेंगें । रामनाम ही उद्धारक है ।
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दिन४ दिन कर प्रवृति वृद्धि, निसि सुपिनों क्रित कांम ।
कहि जगजीवन लाइ लिव, रसनां रटै न रांम४ ॥१९॥
(४-४. प्रतिदिन ऐसे सांसारिक शब्दों की वृद्धि करने पर, स्वप्न में कृत कार्य के समान, तुम्हें सफलता नहीं मिलेगी जब तक रामभजन नहीं करोगे ॥१९॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अपने शब्द कोष में शब्दों की वृद्धि मात्र करने से भक्ति नहीं होती यह तो उस भांति है जैसे जैसे हम स्वप्न में कोइ कार्य करें और उसका क्रियान्वयन यथार्थ में चाहें तो नहीं होगा । भक्ति तो यथार्थ में स्मरण से ही होगी ।
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इंद्री५ साधी साधि मन, पवन सध्या ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन लिव मंहि, रांम मिटावै आइ५ ॥२०॥
(५-५. मन, इन्द्रिय, एवं श्वास पर संयम करते हुए, लय की साधना करते हुए, रामभजन से अंत में लय का व्यामोह भी मिट जायगा ॥२०॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन इन्द्रिय व श्वास पर संयम करते हुए लय की साधना करने से व रामभजन करने से लय का व्यामोह, कि हम प्रभु में लीन हैं, भी मिट जायेगा । तब सिर्फ भजन द्वारा उद्धार है ऐसा भासित होने लगेगा ।
(क्रमशः)
शनिवार, 10 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ १३/१६*
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*८. लै कौ अंग ~ १३/१६*
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कहि जगजीवन रांमजी, बिन मसि७ लेखनि८ दोति९ ।
उर कागद अक्षर लिखै, तहां बिराजै जोति ॥१३॥
(७. मसि - स्याही) (८. लेखनि - कलम) (९. दोति - दवात)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बिना स्याही कलम व दवात के ही हृदय रुपी कागज पर जो राम नाम लिखता है वहीं प्रभु विराजते है ।
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धसै कूप मंहि नीर कौ, ते हरि कहिये लाव१ ।
कहि जगजीवन रांम कहै, भर्या देख करि आव ॥१४॥
(१. लाव - कूए से जल निकालने के लिये मोटी रस्सी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हम कुंए में रस्सी डालते हैं तो यदि जल कुए में होगा तभी तो वह रस्सी जल लायेगी इसी प्रकार यदि हमारे अतंर में संस्कार होंगे तभी तो अभ्यास रुपी रस्सी परिणाम देगी ।
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कहि जगजीवन नांम मंहि, रांम करौ मोहि लीन ।
प्रांण प्रेम मंहि झूलि रहै, ज्यूं जल मांही मीन ॥१५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु, आप मुझे राम में ही लीन रखें, वहां मेरे प्राण प्रेम पूर्वक आनंदित रहेंगे जैसे जल में मछली आनंदित रहती है ।
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यत्र२ ग्यांनं तत्र ध्यांनं, तत्र लयं प्रवरतते ।
कहि जगजीवन लयं रांमं, अबिगत चित्त वरतते२ ॥१६॥
(२-२. साधक को ध्यान प्राप्त होने पर ही उसकी लय में प्रवृत्ति होती है तथा लय होने पर उसका चित्त स्थिर हो पाता है ॥१६॥)
संतजगजीवन जी कहते है कि जहाँ ज्ञान वहां ही ध्यान वहीं जीव लय में प्रवृत रहता है । जीवात्मा जब लय में प्रवृत होता है तो उसका चित्त स्थिर होता है ।
(क्रमशः)
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020
*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*
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*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*
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असत तुचा ए लीन करि, हरि रस मांही गाल ।
कहि जगजीवन रांम रटि, ब्रह्म अगनि प्रज्वाल ॥९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसारिक वैभव त्याग कर हरिनाम में ही शरीर की सारी शक्ति लगायें संत कहते हैं कि राम रटे व ब्रह्म तप को शुरु करें ।
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असत तुचा अंतर नहीं, अबिगत परस्यां एह ।
कहि जगजीवन तेज मंहि, तेज सरीखी देह ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि त्वचा में फर्क नहीं है अगर परमात्मा उन्हें स्वीकार कर लें संत कहते हैं कि तेजोमय स्वरूप में तेजस्वी देह का समाहित होना ही उसका सार्थक होना है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, असत तुचा रस सींचि ।
आप समां है राखिये, अगम अगोचर खींचि ॥११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु ये अस्थि त्वचा सब आपके प्रदत्त रस से पोषित है । आप इसमें समाहित है और आपने ही ने इसे खींच कर थाम रखा है ।
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कहि जगजीवन लीन मन, लीन करै तन ताइ ।
सब अंग देखै पिछांणै, हरि भजि हरि मंहि आइ ॥१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन को प्रभु में लीन करें और लीन भी तप द्वारा करें । और ऐसा करें कि सब देख कर ही जान जायें कि इस जीवात्मा ने भजन किया है ।
(क्रमशः)