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गुरुवार, 5 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ६१/६३*

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*८. लै कौ अंग ~ ६१/६३*
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मन का रूप पिछांण यूं, तन का तक्ष कमाइ ।
जगजीवन मिलि सबद स्यूं, सहजैं सुन्नि समाइ ॥६१॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव मन के स्वरूप को जान, देह के गौरव को जान, जो तुम्हें परमात्मा रुपी राजा ने पुत्रवत दी है, इसमें निरंतर भजन से तुम प्रभु के निकट सहज ही अपना ध्यान शून्य में लगाकर प्रभु के निकट हो जाओगे ।
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प्रश्न : कौंण घाट पाणी पिया, किस थल बैठा हंस ।
जगजीवन क्यूं बिलाणां१, तन का लोही मंस ॥६२॥
(१. बिलाणां=नष्ट हुआ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीवात्मा रुपी हंस तुमने कौन से घाट का पानी पिया, और कहां जगत में प्रश्रय लिया जिससे तू इस प्रकार विछिन्न देह को प्राप्त हुआ । प्रभु जीव से कर्म कृत पूछ रहे हैं ।
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उत्तर : ब्रह्मघाट पाणी पिया, निज थल बैठा हंस ।
जगजीवन यूं बिलाणां, तन का लोही मंस ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा भी कोइ प्रभु जन ही है जिसने उत्तर दीया कि जीव तो ब्रह्म समीप ही रहा और अपने नियत स्थान पर ही बैठा और हरि स्मरण में ही देह के रक्त मज्जा को लगा दिया ।
इति लै कौ अंग सम्पूर्ण ॥८॥
(क्रमशः)

बुधवार, 4 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ५७/६०*

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*८. लै कौ अंग ~ ५७/६०*
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उदियम९ कीजै आत्मा, अंतर गति ल्यौ लाइ ।
जगजीवन पिव परसिये, सो क्रित समझ समाइ ॥५७॥
{९. उदियम=उद्यम(=उद्योग)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव, आत्मा द्वारा उद्यम पूर्वक यह ही कृत्य हो कि वह अतंर में ही परमात्मा से लय लगाये जिससे प्रभु मिले, यह कृत्य जीव भली भांति जान ले ।
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तन मन विलै करि आतमां, महा अनूपम अंग ।
देह निरंतर जाहि रहै, जगजीवन निज संग ॥५८॥
संतजगजीवन जी कहते है कि अपना सर्वस्व, यथा देह, मन, आत्मा परमात्मा के अनुपम अंग को ही समर्पित करें जिससे इस देह की पालना भी इसे भी अपनी जानकर वे प्रभु करेंगे ।
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जगजीवन अंतरिख मन, निराधार रहि जाइ ।
तो सब अंग देखै सुरति सूं, सहजैं सुन्नि समाइ ॥५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन दूर अंतरिक्ष तक दौड़ता है फिर भी प्रभु का सहारा न होने से वह निराधार होता है । और जब वह प्रभु का ध्यान करता है तो सहज ही शून्य में समाहित होजाता है प्रभु ही का हो कर रहता है ।
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सुरति निरंतर सबद रस, पीवै अम्रित नीर ।
तन मन प्रांण बिलै करै, जगजीवन ते पीर ॥६०॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसका ध्यान प्रभु में लगा हो और जो स्मरण रस पान रुपी अमृत रस पान करता हो वह जीव अपने तन मन को गौण कर भक्ति करता है वह प्रभु का प्रिय है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ५३/५६*

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*८. लै कौ अंग ~ ५३/५६*
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बिलै मान तन तेज मंहि, कब करि हो करतार ।
कहि जगजीवन प्रगट हरि, सम्रथ सिरजनहार ॥५३॥
संतजगजीवन जी महाराज कहते हैं कि अपनी देह के गुण धर्म सभी प्रभु के तेज को समर्पित करे । ना जाने कब वे समर्थ सिरजनहार प्रकट हो जायें तुम्हारा उद्धार हो जाये । अपनी तैयारी पूरी रखे़ं ।
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कहि जगजीवन सकल कह, रांम गरीबनिवाज५ ।
दीन लीन ह्वै ताहि रटै, रसि आवै६ सब काज ॥५४॥
(५. गरीबनिवाज=दीनदयालु) (६. रसि आवै=पूर्ण हों)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो दीन होकर परमात्मा का स्मरण करते हैं सभी कहते हैं कि दीनों की रक्षा करनेवाले उन प्रभु की कृपा से सभी कार्य मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
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ल्यौ लेखनि७ दिल द्वात करि, काया कागज सार । 
कहि जगजीवन नांम लिखि, हरि भजि उतरै पार ॥५५॥
(७. ल्यौ लेखनि दिल द्वात करि=लय को लेखनि और दिल को दवात बनाकर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लै की लेखनी करे दिल की दवात और देह को कागज करे । इस पर प्रभु का नाम लिखकर जीव भव से पार उतरते हैं ।
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पलटै भृंगी कीट ज्यूं, ल्यौ लगाइ गुण गाइ । 
जगजीवन पारस परस, लोहा कंचन थाइ८ ॥५६॥
(८. थाइ=हो जाता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे भृंगी, कीट को अपना स्वरूप दे देता है । वैसे ही प्रभु से लय लगाने पर प्रभु जीव को अपना कर लेते हैं, जैसे लोहा पारस के स्पर्श से स्वर्ण हो जाता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 2 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ४९/५२*

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*८. लै कौ अंग ~ ४९/५२*
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कहि जगजीवन स्रब सक्ति, जहां लग उतपति नाद ।
नाद निरंजन मिलि रह्या, हरि जन पाया स्वाद ॥४९॥
संतजगजीवन जी कहते है कि जहाँ शक्ति स्त्रोत है वहां ही अनहद नाद की उत्पत्ति है और जब नाद प्रभु तक पहुंच जाते हैं तो भक्त जन आनंदित होते हैं ।
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कहै सुनै अरु करै नहीं, तब लग काची४ बात ।
कहि जगजीवन रांम बिन, जनम अकारथ५ जात ॥५०॥
{४. काची=मिथ्या(झूठी)} {५. अकारथ=अकार्य(=व्यर्थ, निष्प्रयोजन)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव प्रभु की बात कहे सुने और करे कुछ भी नहीं तो जीव का जन्म व्यर्थ चला जाता है जीवन की सार्थकता यही है कि जैसा कहे वैसा ही आचरण करें तब ही दृढ या पक्की बात है अन्यथा बात कच्ची रहेगी ।
सहरग६ थैं नेड़ा७ सुणै, रोजा८ बांग९ निवाज१० ।
कहि जगजीवन जिआरत११, अल्लह आशिक राज ॥५१॥
(६. सहरग=स्वर्ग) (७. नेड़ा=समीप) (८. रोजा=उपवास) (९. बांग=उच्च स्वर से सम्बोधन) {१०. निवाज=नमाज (भगवत्स्तुति)} (११. जिआरत=तीर्थयात्रा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्वर्ग से समीप ही स्थित प्रभु सभी धार्मिक कृत्य को शीघ्र देखते हैं चाहे वह व्रत हो स्मरण बांग हो पाठ हो, नमाज हो या भगवत्स्ति हो, या तीर्थाटन हो । संत कहते हैं कि ये सब करनेवाले को मोक्ष भले ना मिले पर स्वर्ग तो मिलेगा । अतः पाप कर्म से यह भी बहुत श्रेष्ठ है ।
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अल्लह आशिक तबज्जै१, गवरत२ कवर३ जलाद४ ।
कहि जगजीवन सुखन सुंण, अल्लह राखै आद ॥५२॥
{१. तबज्जै=तबज्जुह(=ध्यान)} (२. गवरत=चुपके से)  (३. कवर=काटना) (४. जलाद=कसाई)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस जीवत्मा ने प्रभु को अपना प्रेमी बना लिया है वे उसकी बहुत परवाह करते हैं । चाहे काल रुपी जल्लाद कितनी ही कुशलता से मारना चाहे । वे ऐसी आड़ लगा कर बचा लेते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 1 नवंबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ४५/४८*

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*८. लै कौ अंग ~ ४५/४८*
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कहन सुनन कूं सबद है, जब लगि तन मंहि सांस ।
सांस बिलै तन ब्रह्म हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम जब तक देह में सांस है तभी तक है, कहा है सांस छूटने पर सब प्रभु का हो जाता है ।
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जब लग बाणी विसतरै, तब लग उतपति आस ।
सबद सुन्नि सोइ रांम है, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब तक वाणी का विस्तार है तब तक इससे कुछ अच्छा होगा यह आशा रहती है शून्य शब्द ही प्रभु नाम है ।
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द्रव्य सक्ति२ दुनियां रजै, तपा सकति तप आस ।
जोग सक्ति जोगेस्वर३, सु कहि जगजीवनदास ॥४७॥
{२. द्रव्यसक्ति=अर्थशक्ति(=रुपया पैसा) से}
(३. जोगसरा=योगीस्वर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धन की शक्ति से दुनिया प्रसन्न रहती है जिन्हें तप से आशा है वे तप से खुश रहते हैं जो योगी है वे योग शक्ति से प्रसन्न रहते हैं ।
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ग्यांन सक्ति ग्यांनी मगन, ध्यांन सक्ति मुनि बास ।
नांम सक्ति हरि भगति रस, सु कहि जगजीवनदास ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान के वैभव से ज्ञानी प्रसन्न रहते हैं । ध्यान से मुनि जन, स्मरण से हरि भक्त खुश रहते हैं । ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 31 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ४१/४४*

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*८. लै कौ अंग ~ ४१/४४* 
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लीन रहै तो बस्तु रहै, घट मंहि पावै घाट ।
जगजीवन हरि तजि भरमै, ह्वै जाइ बारह बाट९ ॥४१॥
{९. बारह बाट-छिन्न भिन्न या तितर बितर हो जाना(बाह्यवृत्ति)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन प्रभु में लीन रहे तभी उसकी सार्थकता है और फिर मन में ही वह प्रभु का स्थान पा सकता है और यदि वह प्रभु को छोड़कर अन्य में ध्यान लगाये तो वह छिन्न भिन्न होता है ।
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कहि जगजीवन कीनियां, जिस घट थंभै काम ।
हरदम पाक हजूर१ रहै, लहै सु अल्लह रांम ॥४२॥
(१. हरदम पाक हजूर=प्रतिक्षण पवित्र सेवा में)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब प्रभु का रसायन से ही जीव की सब कामनाओं की पूर्ति होती है तो हर समय उन पवित्र प्रभु का दर्शन व राम या अल्लाह का मेल होता है ।
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लीन सबद सांचा सकल, रांम रिदै बेसास ।
पाका काचा मिलि रह्या, सु कहि जगजीवनदास ॥४३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम नाम शब्द में लीन रहते हैं और जिनके हृदय में राम नाम का विश्वास है । वे पूर्ण या अपूर्ण सब परमात्मा से मिल जाते हैं ।
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शब्द ब्रह्म सांचा कह्या, काचा कह्या सरीर ।
कहि जगजीवन भेजि पाका, पिया अमीरस नीर ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस क्षण भंगुर काची काया में ब्रह्म रुपी सच्चा शब्द रहता है, संत कहते हैं कि पक्के फल से जिस प्रकार मीठा रस मिलता है उसी प्रकार परिपक्व सत्य से अमरत्व मिलता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ३७/४०*

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*८. लै कौ अंग ~ ३७/४०* 
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कहि जगजीवन साध सोइ, भगत वैषनौं दास ।
रांम कहै अरु कहावै, अकल पुरिष की प्यास६ ॥३७॥ 
(६. अकल पुरिष की प्यास=परम पिता परमेश्वर को प्राप्त करने की इच्छा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह ही साधु है जो दास्य भाव रखे, प्रभु का स्मरण करे, व कराये और जिसे प्रभु मिलन की चाह हो ।
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रांम रांम रहिता कहै, कहता रहैं समाइ । 
कहि जगजीवन रांम समांनां, हरि मंहि बोलै आइ ॥३८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जब तक रहे राम राम कहे व राम में ही समाया रहे और इस प्रकार समाये़ कि प्रभु ही स्वयं ही आकर उसे धन्य कर दें ।
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ब्रह्म अस्थल मन लीन रहै, माया बिषै उदास ।
रांम सुमिर रांमहि मिलै, सु कहि जगजीवनदास ॥३९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ब्रह्म स्थान में मन लीन रहे व माया स्थान के प्रति उदासीन रहे । राम स्मरण से राम ही मिलते हैं ।
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बात कही तौ का भया७, वस्तु न चिन्हीं जाइ ।
कहि जगजीवन बस्तु८ मंहि, मस्त रहै ल्यौ लाइ ॥४०॥
(७. का भया=क्या हुआ) (८. बस्तु=परम तत्त्व) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बात कहने से क्या सिद्ध होता है सिद्ध तो वस्तु पहचानने से होता है । और वस्तु परम तत्त्व जैसी कोइ भी नहीं है उसे पहचान कर हे जीवात्मा मस्त रह ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ३३/३६*

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*८. लै कौ अंग ~ ३३/३६* 
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डूंगर तलै३ चींटी दबी, कहु क्यों निकसै रांम ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरी, सहसर पंथ सब ठांम ॥३३॥
(३. डूंगर तलै=पहाड़ के नीचे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार की समस्याएं पर्वत जैसी हैं और जीव चींटी समान वह उसमें से कैसे निकल सकता है । यदि प्रभु कृपा करें तो फिर हजार मार्ग सब जगह बन जाते हैं ।
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रांम निबेरौ४ कीजिये, मोहि मिलन की चाह ।
कहि जगजीवन गालिये, असत तुचा अछिआह ॥३४॥
(४. निबेरौ=पूर्ण करो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु आपसे मिलने की उत्कंठा अति प्रबल है आप ही इस मनोरथ को पूर्ण करें । चाहे मेरी अस्थि त्वचा भले ही ना रहे पर आपसे आत्म साक्षात्कार अवश्य हो ।
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अझूंठ कोडि तन एक से, रसनां हरि हरि रांम ।
कहि जगजीवन लीन जन५, अलख पिछांणै नांम ॥३५॥
{५. जन=भक्त(=उपासक)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सत्यवादी जन उत्साह से प्रभु स्मरण करते हैं । जो राममय जीव हैं वै स्वतः पहचान जाते हैं । कि और कौन जन उन जैसा है ।
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कहि जगजीवन एक मंहि, अनंत देह करि जांण ।
अनंत बदन रसनां अनंत, अनंत ठांम प्रमांण ॥३६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, एक प्रभु स्मरण में ही सब समाया है । जिसे ही अनंत देह, मुख, व जिह्वा कर अनेक स्थानों पर पाया जा सकता है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 15 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ २९/३२*

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*८. लै कौ अंग ~ २९/३२* 
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सुप्रभात९ सुमिरन करै, मन राखै लै लीन ।
कहि जगजीवन तेज मंहि, मन खेलै ज्यूँ मीन ॥२९॥
{९. सुप्रभात=प्रातःकाल(ब्रह्म मुहुर्त)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभात वेला में जो स्मरण करें व मन को प्रभु की लगन में लीन रखें वह जीव प्रभु के तेजोमय प्रभा में ऐसे आनंद पूर्वक विचरण करता है जैसे जल में मछली करती है ।
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कहि जगजीवन रांम घरि, जे बरतनि जे आथि१० ।
सो ले हरि धन बरततां, ह्रिदै निरंजन साधि ॥३०॥
{१०. आथि=अस्ति (=वर्तते, है)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम रुपी स्मरण को ही धन मानकर व्यवहार करते हैं वे हरि धन खर्च करते समय निरंजनं देव को अपने हृदय में रखते हैं ।
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कहि जगजीवन कीनिया११, आसिक अल्लह लीन ।
कर्म कीनां अत पाक दिल, तात तबज्या१२ दीन ॥३१॥
(११. कीनिया=रसायन विद्या) {१२. तबज्या=तवज्जुह (=ध्यान देना)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दो आशिक व अल्लाह जब एक होते है तो उस रसायन से जो कर्म पवित्र मन से किया जाये उसे ही परमात्मा अपना कृत्य मानते हैं ।
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रांम रिदै लै लीन मन, जिस का घट मंहि सुद्धि१ ।
कहि जगजीवन पात्र सौ, जिस मंहि अनंत बुद्धि२ ॥३२॥
{१. घट सुद्धि=शुद्ध(स्वच्छ) अन्तःकरण} (२. अनंत बुद्धि=नाना प्रयोजनों का साधक)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जिस ह्रदय में राम है या जो हृदय राम में लीन है वह हृदय शुद्ध है वह ही वह योग्य पात्र है जिसमें अनंत बुद्धि समायी है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ २५/२८*

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*८. लै कौ अंग ~ २५/२८*
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अपजस५ आंन उपाइ सब, जस हरि नांव निवास ।
रांम सुमिर जन लीन रहै, सु कहि जगजीवनदास ॥२५॥
{५. अपजस - सांसारिक अन्य साधन अपकीर्ति(निन्दा) के ही देनेवाले हैं} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार के सारे प्रयास अपयश के कारक हैं । और प्रभु स्मरण यश देने वाला है । हरि स्मरण से जन मग्न रहते हैं । उन्हें चिंता से मुक्ति मिलती है ।
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जुगल जोग६ हरि नां कह्या, एक सुमिर ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन रांम लहै, रांमां राज७ विलाइ ॥२६॥
(६. जुगल जोग - एक समय में दो के साथ सम्बन्ध)
{७. रामां राज - स्त्री-राज्य(सांसारिक प्रकृति)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक साथ माया और ईश्वर दोनों नहीं चलते अतः एक प्रभु का ही स्मरण करणीय है । हमें राम स्मरण को रख कर माया का संग छोड़ना है ।
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प्राण मगन मन आतमां, गगन बिगस मिलि मांहि ।
कहि जगजीवन बिलै तन, सनमुख परस्यां सांइ८ ॥२७॥
(८. परस्यां सांइ-प्रभु परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने पर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे प्राण तो गगन हैं व मन आत्म है, जो उल्लास पूर्वक गगन में समाहित होती है और जब वो परमात्मा का सान्निध्य पा लेती है तो देह गुण विलीन हो जाते हैं ।
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कहि जगजीवन लीन रहै, ह्रिदै कंवल मंहि रांम ।
अंतरजामी होइ बिचारै, कहै सुनै जे नांम ॥२८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हृदय रुपी कमल में राम जी समाये हैं । वे अंतरयामी स्मरण करनेवाले व भजन सुननेवाले सभी का विचार करते हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ २१/२४*

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रांम कहै तहां रांमजी, नहीं पसारौ आंन६ ।
कहि जगजीवन जुगल जस, हरि विज्ञांन क्रित अज्ञांन ॥२१॥
(६. पसारौ आंन-अन्य सांसारिक प्रपंचों का विस्तार)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहां राम स्मरण होता है वहां राम स्वंय होते हैं । अन्य कोइ प्रपंच नहीं होता है । संत कहते हैं कि प्रभु व माया दोनों में यह ही अंतर है कि प्रभु विज्ञान की भांति सार्थक व संसार अज्ञान की भांति है ।
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रांम करावै हरि भगति, रांम जगावै जोति । 
कहि जगजीवन रांम रिदा मंहि, दूरी करत हरि छोति७ ॥२२॥
{७. छोति-छूत(=अस्पृश्यता, दैहिक अशुद्धि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही हरि भक्ति कारक हैं राम ही ज्ञान की ज्योति जगाते हैं । संत कहते हैं कि राम हृदय में हो तो वे हमारी अशुचिता को दूर कर हमें पवित्र करते हैं ।
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हरि हरि वांणी रांमजी, हरि हरि वांणी नांद ।
कहि जगजीवन हरि हरि वांणी, सकल स्वाद सिर स्वाद१ ॥२३॥
(१. सिर स्वाद-उत्तम रस)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि स्मरण ही प्रभु है प्रभु स्मरण ही अनाहद ध्वनि है । संत कहते हैं कि परमात्मा की वाणी का ही आनंद सबसे श्रेष्ठ आनंद है ।
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लिव२ लागै तो बसतु३ लहै, मस्त४ रहै ता मांहि ।
जगजीवन हरि मांहि मिलि, हरिजन खिसकै नांहि ॥२४॥
(२. लिव-लय) {३. बसतु-वस्तु(=परम तत्त्व)} (४. मस्त-मग्न)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा से तो लय ही सार्थक है और उस लय में जीव मस्त रहता है । संत कहते हैं कि परमात्मा को मिलकर फिर प्रभु के बंदे कहीं अन्यत्र नहीं जाते ।
(क्रमशः) 

रविवार, 11 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*

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*८. लै कौ अंग ~ १७/२०*
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कहि जगजीवन बिलै तन, विलै प्रांण मन नाद ।
अैसे हरि भजि नांम लहैं, ते जन पावैं स्वाद ॥१७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिभजन का आनंद तभी आता है जब हम उसमें तन, मन, प्राण, नाद, स्वर सब उसी में विलीन कर दें ।
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लाख३ शब्द ल्यौ बाहिरा, कोई कहौ किंहिं भांति ।
कहि जगजीवन रांम विन, सक्ति प्रव्रिती राति३ ॥१८॥
{३-३. ‘रांम’ शब्द के विना अन्य लाखों सांसारिक शब्द तुम्हारा अविद्यामय अन्धकार(सांसारिक रति) ही बढ़ायेंगे ॥१८॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम के अलावा चाहे अन्य लाखों शब्द ही क्यों न उच्चारण कर ले वे हमारे अज्ञान की ही वृद्धि करेंगें । रामनाम ही उद्धारक है ।
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दिन४ दिन कर प्रवृति वृद्धि, निसि सुपिनों क्रित कांम ।
कहि जगजीवन लाइ लिव, रसनां रटै न रांम४ ॥१९॥
(४-४. प्रतिदिन ऐसे सांसारिक शब्दों की वृद्धि करने पर, स्वप्न में कृत कार्य के समान, तुम्हें सफलता नहीं मिलेगी जब तक रामभजन नहीं करोगे ॥१९॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अपने शब्द कोष में शब्दों की वृद्धि मात्र करने से भक्ति नहीं होती यह तो उस भांति है जैसे जैसे हम स्वप्न में कोइ कार्य करें और उसका क्रियान्वयन यथार्थ में चाहें तो नहीं होगा । भक्ति तो यथार्थ में स्मरण से ही होगी ।
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इंद्री५ साधी साधि मन, पवन सध्या ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन लिव मंहि, रांम मिटावै आइ५ ॥२०॥
(५-५. मन, इन्द्रिय, एवं श्वास पर संयम करते हुए, लय की साधना करते हुए, रामभजन से अंत में लय का व्यामोह भी मिट जायगा ॥२०॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन इन्द्रिय व श्वास पर संयम करते हुए लय की साधना करने से व रामभजन करने से लय का व्यामोह, कि हम प्रभु में लीन हैं, भी मिट जायेगा । तब सिर्फ भजन द्वारा उद्धार है ऐसा भासित होने लगेगा ।

(क्रमशः) 

शनिवार, 10 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ १३/१६*

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*८. लै कौ अंग ~ १३/१६*
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कहि जगजीवन रांमजी, बिन मसि७ लेखनि८ दोति९ ।
उर कागद अक्षर लिखै, तहां बिराजै जोति ॥१३॥
(७. मसि - स्याही) (८. लेखनि - कलम) (९. दोति - दवात)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बिना स्याही कलम व दवात के ही हृदय रुपी कागज पर जो राम नाम लिखता है वहीं प्रभु विराजते है ।
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धसै कूप मंहि नीर कौ, ते हरि कहिये लाव१ ।
कहि जगजीवन रांम कहै, भर्या देख करि आव ॥१४॥
(१. लाव - कूए से जल निकालने के लिये मोटी रस्सी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हम कुंए में रस्सी डालते हैं तो यदि जल कुए में होगा तभी तो वह रस्सी जल लायेगी इसी प्रकार यदि हमारे अतंर में संस्कार होंगे तभी तो अभ्यास रुपी रस्सी परिणाम देगी ।
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कहि जगजीवन नांम मंहि, रांम करौ मोहि लीन ।
प्रांण प्रेम मंहि झूलि रहै, ज्यूं जल मांही मीन ॥१५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु, आप मुझे राम में ही लीन रखें, वहां मेरे प्राण प्रेम पूर्वक आनंदित रहेंगे जैसे जल में मछली आनंदित रहती है ।
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यत्र२ ग्यांनं तत्र ध्यांनं, तत्र लयं प्रवरतते ।
कहि जगजीवन लयं रांमं, अबिगत चित्त वरतते२ ॥१६॥
(२-२. साधक को ध्यान प्राप्त होने पर ही उसकी लय में प्रवृत्ति होती है तथा लय होने पर उसका चित्त स्थिर हो पाता है ॥१६॥)
संतजगजीवन जी कहते है कि जहाँ ज्ञान वहां ही ध्यान वहीं जीव लय में प्रवृत रहता है । जीवात्मा जब लय में प्रवृत होता है तो उसका चित्त स्थिर होता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*

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*८. लै कौ अंग ~ ९/१२*
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असत तुचा ए लीन करि, हरि रस मांही गाल ।
कहि जगजीवन रांम रटि, ब्रह्म अगनि प्रज्वाल ॥९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसारिक वैभव त्याग कर हरिनाम में ही शरीर की सारी शक्ति लगायें संत कहते हैं कि राम रटे व ब्रह्म तप को शुरु करें ।
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असत तुचा अंतर नहीं, अबिगत परस्यां एह ।
कहि जगजीवन तेज मंहि, तेज सरीखी देह ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि त्वचा में फर्क नहीं है अगर परमात्मा उन्हें स्वीकार कर लें संत कहते हैं कि तेजोमय स्वरूप में तेजस्वी देह का समाहित होना ही उसका सार्थक होना है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, असत तुचा रस सींचि ।
आप समां है राखिये, अगम अगोचर खींचि ॥११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु ये अस्थि त्वचा सब आपके प्रदत्त रस से पोषित है । आप इसमें समाहित है और आपने ही ने इसे खींच कर थाम रखा है ।
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कहि जगजीवन लीन मन, लीन करै तन ताइ ।
सब अंग देखै पिछांणै, हरि भजि हरि मंहि आइ ॥१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन को प्रभु में लीन करें और लीन भी तप द्वारा करें । और ऐसा करें कि सब देख कर ही जान जायें कि इस जीवात्मा ने भजन किया है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ ५/८*

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*८. लै कौ अंग ~ ५/८*
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रोम रोम रसना अनंत, रांम रांम ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन देह स्यूं, सहजै परसै ताहि३ ॥५॥
(३. ताहि - उस स्वामी का) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हर रोम छिद्र जिह्वा हो और राम नाम की लौ लगी हो तो ऐसी देह को सहज ही परमात्मा का सानिध्य प्राप्त होता है ।
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परसि पुरातन अंग हरि, पावन करै सरीर ।
कहि जगजीवन लाय ल्यौ, सहज सुन्नि करि सीर४ ॥६॥
(४. सीर - साथ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परम पुरातन पुरुष का सानिध्य देह को पावन करता है । संत कहते हैं कि परमात्मा से लय लगने पर सहज ही शून्य की सहभागिता हो जाती है जो निर्विकार है ।
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असत५ तुचा६ इनकी क्रिपा, कोई जांणौं कोइ नांहि ।
कहि जगजीवन ब्रह्म रिषि, बिलै मांन करि सांइ ॥७॥ 
(५. असत - अस्थि) (६. तुचा - त्वक्, चर्म)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि व त्वचा सब परमात्मा की दया है इसे कोइ जानता है कोइ नहीं । संत कहते है ब्रह्म ऋषि इसे लय में ही विलय कर देते है ।
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असत तुचा इन मांहि वो, वो मांही ए वास ।
वो जांणै ए बखांणै, सु कहि जगजीवनदास ॥८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो ये अस्थि त्वचा है इन में वो समाये हैं । और ये अस्थि त्वचा वाले उन पर आश्रित हैं । वे जानते परमात्मा सब जानते हैं और ये प्रभु का विरद बखानते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

*८. लै कौ अंग ~ १/४*

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*८. लै कौ अंग ~ १/४*
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निराकारं लयं रांमं, लय लयं विलयं तनं ।
कहि जगजीवन अंग संगं, जाग्रित जीवनं जनं ॥१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि निराकार राम में लय लगायें और उसी लय में तन विलय कर देते हैं । संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जाग्रत हो तो परमात्मा अंग संग रहते हैं ।
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लै जिन टूटै एक छिन, जन की जीवन एह ।
कहि जगजीवन आसिरै, सब सुख पावै देह ॥२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लै एक क्षण भी न टूटने पाये ऐसा ही जीवन हो । संत कहते हैं कि इसी के सहारे या आसरे से यह शरीर सुखी हो पाता है ।
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लै अबिगत अलख अगाध हरि, परम पुरिष लै रांम ।
कहि जगजीवन नांम लै, सदगुरु दे सब ठांम ॥३॥
संतजगजीवन कहते हैं कि लय ही अविगत अलख व थाह से परे परमात्मा का स्वरूप है । संत कहते हैं कि प्रभु स्मरण करें, प्रभु जिस स्थान पर भी ले जावें लै लगी रहे ।
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जगजीवन दिल दोति१ कर, मन मसि२ मांही राख ।
लै लेखनि हरि नांम लिखि, उर कागद मांही साख ॥४॥ 
{१. दोति - दवात(=मसिपात्र)} (२. मसि - स्याही)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दिल को दवात करें मन की स्याही बनायें लय की लेखनी से हृदय में हरि का नाम लिखें ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 6 अक्टूबर 2020

*७. हैरान कौ अंग ~ ८१/८३*

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*७. हैरान कौ अंग ~ ८१/८३*
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को जांनै ए कहां है, का है किंहि थिर थूल ।
कहि जगजीवन सक्ति नहीं, अरु सब सक्ति समूल ॥८१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कोइ नहीं जानता है कि क्या स्थूल है और क्या स्थिर है कोइ शक्ति है या नहीं या सब शक्ति से उत्पन्न है ।
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कोटि पदम अक्षर कहै, अक्षर अक्षर नांम ।
कहि जगजीवन राखि रस, रसनां गावै रांम ॥८२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कोइ पदम अक्षर कहते हैं कोइ कहते हैं कि अक्षर अक्षर में प्रभु का नाम है । संत कहते हैं कि हे जीवात्मा, रसना में राम नाम का आनंद रखें ।
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आदि अंत कोई नहिं जांणै, यहु उतपति यहु ठांम ।
कहि जगजीवन अलख लखै, नां तिहि धरणि न धांम ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के बारे में कोइ नहीं जानता कि यहां से उनकी उत्पत्ति है या यहां उनका स्थान है, संत कहते हैं कि उन अदृश्य परमात्मा को कोइ भी नहीं देख सकते ना वहां कोइ धरती है ना ही धाम है ।
इति हैरान कौ अंग संपूर्ण ॥७॥
(क्रमशः)

सोमवार, 5 अक्टूबर 2020

*७. हैरान कौ अंग ~ ७७/८०*

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*७. हैरान कौ अंग ~ ७७/८०*
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क्यों ससि सूरज क्यूँ गगन, क्यूं घर अधर अगाध ।
कहि जगजीवन रांमजी, कोई गति समझै साध ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चंन्द्र क्यों है, सूर्य क्यों है, आकाश क्यों है, कैसै उन परमात्मा का घर आधार विहीन है, यह गति कोइ साधु जन ही जान पाते हैं ।
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एक आध कोई रांम रटै, अंग मंहि अंग समाइ ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरि मसत१ मगन मिलि ताहि ॥७८॥
{१. मसत-मस्त(प्रसन्न)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एकाध ही कोइ ऐसा है जो भजन करे और प्रभु में समाहित रहे, संत कहते हैं कि जब प्रभु कृपा करते हैं तो जीव मस्त व परमात्मा में मगन हो उनमें ही एकाकार रहता है ।
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झिलमिल नूर प्रकास कहै, तेज पुंज निज तंत ।
कहि जगजीवन सुंनि मंहि, करता है क्यूं कंत ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि झिलमिलाता हुआ परमात्मा का सौन्दर्य स्वयं के तेज से प्रभासित है । संत कहते कि इतने सौन्दर्यवान परमात्मा का वास्तविक स्वरूप शून्य क्यों है ।
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तेज पुंज निरसंधि२ है, क्यों ही लख्या न जाइ ।
कहि जगजीवन भया नहीं, नांम धरै कोई ताहि ॥८०॥
{२. निरसंधि - निःसन्धि(संयोग रहित)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तेज पुंज संयोग रहित है वे दिखते क्यों नहीं ? संत कहते हैं कि जो उत्पन्न ही न हुआ हो कोइ उसका स्वरूप निरुपण कर नाम कैसे दे सकता है ?
(क्रमशः)

रविवार, 4 अक्टूबर 2020

*७. हैरान कौ अंग ~ ७३/७६*

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*७. हैरान कौ अंग ~ ७३/७६*
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आदि अंत मधि कोई न जांणै, ना तिंहि उतपति भेख ।
कहि जगजीवन अगम है, अविगत अकल अलेख ॥७३॥
आदि अंत मध्य में कोइ प्रभु की उत्पत्ति व भेष के बारे में नहीं जानते संत कहते हैं कि प्रभु पहुंच से परे हैं जाने नहीं जा सकते वे सभी कला से परे अलिखित हैं ।
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उतपति नहिं आकार नहिं, आदि अंत पुनि नांहि ।
कहि जगजीवन सहज है, यूं परि नहीं जे नांहि ॥७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा का कोइ आकार नहीं है कोइ निश्चित आरम्भ व अंत नहीं है वे सहज हैं वे दूर भी नहीं हैं ।
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मूरति अनंत, अनंत गति, अनंत लोक विसतार । 
कहि जगजीवन रांमजी, अनंत लहै को पार ॥७५॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की छवि अनंत है व गति भी अनंत है । व अनंतलोक तक विस्तार है संत कहते हैं कि उन अनंत का पार कोइ नहीं पा सकता ।
मूरति एक अनेक छंद, वो ओंकार विसतार ।
कहि जगजीवन सहज हरि, सुंनि आकार करतार ॥७६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक परमात्मा का वैभव अनेक छंदो में भी नहीं किया जा सकता है वो औंकार में समाहित है । संत कहते हैं कि प्रभु सहज हैं और शून्य उन प्रभु का आकार है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 3 अक्टूबर 2020

*७. हैरान कौ अंग ~ ६९/७२*

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*७. हैरान कौ अंग ~ ६९/७२*
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आदि अंत अविगत अकल, अपणां आप लहंत ।
कहि जगजीवन साध सब, असतुति विरद कहंत ॥६९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आरम्भ अंत न जाना जा सकने योग्य स्वयंभू है संत कहते हैं कि सभी साधु उनकी विरद या महिमा गाते हैं ।
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आदि अंत उतपति सकल, अविगति अकल अगाध ।
कहि जगजीवन जांणि जस, सहज करै सब साध ॥७०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आदि अंत उत्पत्ति व सब कला रहित होना ज्ञान से भी परे थाह न पाया जाने योग्य उन प्रभु के यश व महत्ता को सब साधु जन जानते हैं ।
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आदि अंत मधि को लहै, कौंण करै परमाण ।
कहि जगजीवन आदि अंत मधि, सबद मांहि सोइ जांण ॥७१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आरम्भ अंत और मध्य में जाकर कौन प्रमाणित करता है कि आदि मध्य और अंत में प्रभु नाम का शब्द ही सबमें है ऐसा ही जानें ।
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आदि अंत मधि कोइ न जांणै, जे जांणै तो रांम ।
कहि जगजीवन साध सब, पूरि कहै सब ठांम ॥७२॥
आरम्भ अंत और मध्य तक कोइ नहीं जानता जो कुछ भी जानते हैं वे राम ही जानते हैं संत कहते हैं कि साधु सब स्थान पर पूर्ण रुप से भरा हुआ कहते हैं ।
(क्रमशः)