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बुधवार, 25 जून 2014

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐 
दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ । 
उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥१०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भजन रूपी उद्योग यदि अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा परमेश्‍वर से करे तो उसमें ब्रह्म - प्राप्ति रूप पूर्ण आनन्द है और फिर उस जिज्ञासु के अन्तःकरण में किसी प्रकार के कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होते हैं अथवा व्यवहार में भी निष्काम भाव से कर्मयोग रूप उद्योग करे तो उनको कोई दोष नहीं लगता है, और फिर वह आत्मानन्द का अनुभव करता हुआ, जीवन - मुक्त हो जाता है ॥१०॥ 
दादू पूरणहारा पूरसी, जो चित रहसी ठाम । 
अन्तर तैं हरि उमग सी, सकल निरंतर राम ॥११॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह परमेश्‍वर सर्व शक्तिमान हैं । सर्वत्र व्यापक हैं । सबके घट - घट की जानते हैं । जो तेरा चित्त अन्तःकरण में उनका विश्‍वास लेकर नाम - स्मरण में स्थिर रहेगा, तो वह प्रभु अन्न - वस्त्र स्वयं तुझे पूरेंगे । अपने आत्मीय जनों का योग - क्षेम वह स्वयं पूरा करते हैं । तेरे भीतर ही वह हरि अपना प्रकाश करेंगे । सर्व में वही अन्तराय रहित राम, परिपूर्ण रूप से तुझे भान होने लगेंगे ॥११॥

सोमवार, 23 जून 2014

= १९९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
सब घट एकै आत्मा, जानै सो नीका । 
आपा पर में चीन्ह ले, दर्शन है पीव का ॥ 
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष । 
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥ 
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई । 
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥ 
आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल । 
दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥ 
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साभार : Bhakti ~ 
संत एकनाथ महाराष्ट्र के विख्यात संत थे। स्वभाव से अत्यंत सरल और परोपकारी संत एकनाथ के मन में एक दिन विचार आया कि प्रयाग पहुंचकर त्रिवेणी में स्नान करें और फिर त्रिवेणी से पवित्र जल भरकर रामेश्वरम में चढ़ाएं। 
उन्होंने अन्य संतों के समक्ष अपनी यह इच्छा व्यक्त की। सभी ने हर्ष जताते हुए सामूहिक यात्रा का निर्णय लिया। एकनाथ सभी संतों के साथ प्रयाग पहुंचे। वहां त्रिवेणी में सभी ने स्नान किया। तत्पश्चात अपनी-अपनी कावड़ में त्रिवेणी का पवित्र जल भर लिया। पूजा-पाठ से निवृत्त हो सबने भोजन किया, फिर रामेश्वरम की यात्रा पर निकल गए। 
जब संतों का यह समूह यात्रा के मध्य में ही था, तभी मार्ग में सभी को एक प्यासा गधा दिखाई दिया। वह प्यास से तड़प रहा था और चल भी नहीं पा रहा था। सभी के मन में दया उपजी, किंतु कावड़ का जल तो रामेश्वरम के निमित्त था, इसलिए सभी संतों ने मन कड़ा कर लिया। किंतु एकनाथ ने तत्काल अपनी कावड़ से पानी निकालकर गधे को पिला दिया। प्यास बुझने के बाद गधे को मानो नवजीवन प्राप्त हो गया और वह उठकर सामने घास चरने लगा। 
संतों ने एकनाथ से कहा- आप तो रामेश्वरम जाकर तीर्थ जल चढ़ाने से वंचित हो गए। एकनाथ बोले- ईश्वर तो सभी जीवों में व्याप्त है। मैंने अपनी कावड़ से एक प्यासे जीव को पानी पिलाकर उसकी प्राण रक्षा की। इसी से मुझे रामेश्वरम जाने का पुण्य मिल गया।
वस्तुत: धार्मिक विधि-विधानों के पालन से बढ़कर मानवीयता का पालन है। जिसके निर्वाह पर ही सच्चा पुण्य प्राप्त होता है। सभी धर्मग्रंथों में परोपकार को श्रेष्ठ धर्म माना गया है। अत: वही पुण्यदायी भी है।

= १९८ =

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卐 सत्यराम सा 卐
झूठा झिलमिल मृग जल, पाणी कर लीया । 
दादू जग प्यासा मरै, पसु प्राणी पीया ॥ 
छलावा छल जायगा, सपना बाजी सोइ । 
दादू देख न भूलिये, यहु निज रूप न होइ ॥ 
सपने सब कुछ देखिये, जागे तो कुछ नांहि । 
ऐसा यहु संसार है, समझ देखि मन मॉंहि ॥ 
दादू ज्यों कुछ सपने देखिये, तैसा यहु संसार । 
ऐसा आपा जानिये, फूल्यो कहा गँवार ॥ 
दादू जतन जतन करि राखिये, दिढ़ गहि आतम मूल । 
दूजा दृष्टि न देखिये, सब ही सैंबल फूल ॥ 
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साभार : बिष्णु देव चंद्रवंशी ~ 

संसारियों से सुख प्राप्ति की इच्छा करना भूल है। भला जो स्वयं दुखी है वह दूसरे को सुखी क्या बनायेगा ? संसार में जो सुख दिखता है वह सब सापेक्ष सुख है। किसी से कोई किसी अंश में सुखी है तो कोई अन्य किसी अंश में।किसी से सुख की याचना करनी ही है तो ऐसी जगह के याचक बनो, जहाँ से सर्व सुख प्राप्त हो सके। स्मरण रखो कि जो परमात्मा की तरफ झुका है वही संसार में सुख - शान्ति प्राप्त कर सकता है, दूसरा नहीं। संसार में सुख ढूंढ़ना ऐसा है जैसा कि प्यास बुझाने के लिए ओस की बूँदों का संग्रह करना। 
_________ श्री कृष्ण हरी !!

रविवार, 22 जून 2014

= १९७ =

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卐 सत्यराम सा 卐
आतम आसन राम का, तहॉं बसै भगवान । 
दादू दोन्यूं परस्पर, हरि आतम का थान ॥ 
राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम । 
दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥ 
जहॉं राम तहॉं संतजन, जहॉं साधु तहॉं राम । 
दादू दोन्यूं एकठे, अरस परस विश्राम ॥ 
दादू हरि साधु यों पाइये, अविगति के आराध । 
साधु संगति हरि मिलै, हरि संगति तैं साध ॥ 
दादू राम नाम सौं मिलि रहै, मन के छाड़ि विकार । 
तो दिल ही मांहैं देखिये, दोनों का दीदार ॥ 
साधु समाना राम में, राम रह्या भरपूर । 
दादू दोनों एक रस, क्यों कर कीजै दूर ॥ 
------------------------------------------ 
भक्त रघु केवट ~ 
श्रीजगन्नाथ पुरी से दस कोस दूर पीपलीचटी ग्राम में रघु केवट का घर था। घर में स्त्री और बूढ़ी माता थी। प्रातः जाल लेकर रघु मछलियां पकड़ने जाता और पकड़ी हुई मछलियों को बेचकर परिवार का पालन करता। रघु ने गुरु दीक्षा लेकर गले में तुलसी की कंठी बांध ली थी। प्रातः स्नान करके भगवन्नाम का जप करता था। 
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अब तो उसे मछली पकड़ना भी अच्छा नहीं लगता था। उसने इस काम को छोड़ दिया। कुछ दिन तो संचित अन्न से काम चला फिर उपवास होनेलगा। पेट की ज्वाला तथा माता और स्त्री के तिरस्कार से व्याकुल होकर रघु को फिर जाल उठाना पड़ा। जाल डालने पर एक बड़ी लाल मछली फंस गई और जल से निकालने पर तड़पने लगी। रघु ने दोनों हाथों से मछली का मुख पकड़ा और उसे फाड़ने लगा। 
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सहसा मछली के भीतर से आवाज आई- ‘रक्षा कर, नारायण ! रक्षा कर।’ 
रघु चकित हो गया। उसका हृदय आनंद से भीग गया। मछली को लेकर वह वन की ओर भागा। वहां पर्वत से बहुत से झरने गिरते थे। 
उन झरनों ने अनेक जलकुंड बना दिए थे। रघु ने एक कुंड में मछली डाल दी। रघु अपनी मां और पत्नी की भूख को भूल गया। 
वह भरे कंठ से कहने लगा- ‘मछली के भीतर से मुझे तुमने ‘नारायण’ नाम सुनाया ? मैं तुम्हारा दर्शन पाए बिना अब यहां से उठूंगा नहीं।’ 
रघु को वहां बैठे-बैठे तीन दिन हो गए। 
वह ‘नारायण, नारायण’ की रट लगाए था। 
एक बूंद जल तक उसके मुख में नहीं गया।
भगवान एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में वहां आए और पूछने लगे- ‘अरे तपस्वी ! तू कौन है ? तू इस निर्जन वन में बैठा क्या कर रहा है ?’ 
रघु ने ब्राह्मण को प्रणाम करके कहा- ‘महाराज ! मैं कोई भी होऊं, आपको क्या ? बातें करने से मेरे काम में विघ्न पड़ता है। आप जाएं।’ 
ब्राह्मण ने तनिक हंसकर कहा- ‘मैं तो चला जाऊंगा, पर तू सोच कि मछली भी कहीं मनुष्य की बोली बोल सकती है।’ 
रघु ब्राह्मण की बात सुनकर चौंक उठा। उसने समझ लिया कि मछली की बात जानने वाले ये सर्वज्ञ मेरे प्रभु हैं। 
वह बोला- ‘भगवन ! सब जीवों में परमात्मा ही है, यह बात मैं जानता हूं। मैंने जीवों की हत्या की है। क्या इसलिए आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं ? 
आप नारायण हैं। मुझे दर्शन क्यों नहीं देते ? मुझे क्यों तरसा रहे हैं, नाथ।’ 
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भक्त की प्रार्थना सुनकर प्रभु दिव्य चतुर्भुजरूप में प्रकट हो गए और वर मांगने को कहा। 
रघु ने हाथ जोड़कर कहा- ‘प्रभो ! आपके दर्शन हो गए और आपने भजन का आशीर्वाद दे दिया, फिर अब मांगने को क्या रहा, परंतु आपकी आज्ञा है, तो मैं एक छोटी सी वस्तु मांगता हूं। जाति से धीवर हूं। मछली मारना मेरा पैतृक स्वभाव है। मैं यही वरदान मांगता हूं कि मेरा स्वभाव छूट जाए। 
पेट के लिए भी मैं कभी हिंसा न करूं। अंत समय में मेरी जीभ आपका नाम रटती रहे और आपका दर्शन करते हुए मेरे प्राण निकलें।’ 
भगवान ने रघु के मस्तक पर हाथ रखकर ‘तथास्तु’ कहा और अंतर्धान हो गए। वह घर आया, तो गांव के लोगों ने उसे धिक्कारा कि माता और स्त्री को भूखा छोड़कर कहां गया था। दयावश गांव के जमींदार ने उनके लिए अन्न का प्रबंध कर दिया था। इस प्रकार उसका तथा परिवार का पालन- पोषण होने लगा। उसके मुख से जो निकल जाता, वही सत्य हो जाता। बाद में वह घर छोड़कर निर्जन वन में रहने लगा और चौबीसों घंटे प्रभु भजन में ही बिताने लगा। 
एक दिन रघु को लगा कि मानो नीलांचलनाथ श्री जगन्नाथ जी उनसे भोजन मांग रहे हैं। भोजन-सामग्री लेकर रघु ने कुटिया का द्वार बंद कर लिया। भक्त के बुलाते ही भाव के भूखे श्री जगन्नाथ प्रकट हो गए और रघु के हाथ से भोजन करने लगे। 
उधर, उसी समय नीलांचल में श्री जगन्नाथ जी के भोग-मंडप में पुजारी ने नाना प्रकार के पकवान सजाए। भोग-मंडप में एक दर्पण लगा है, उस दर्पण में जगन्नाथ जी के श्री विग्रह का जो प्रतिबिंब पड़ता है, उसी को नैवेद्य चढ़ाया जाता है। सब सामग्री आ जाने पर पुजारी जब भोग लगाने लगा, तब उसने देखा कि दर्पण में प्रतिबिंब तो है ही नहीं, घबराकर वह राजा के पास जाकर बोला- ‘महाराज ! नैवेद्य में कुछ दोष होना चाहिए। श्री जगन्नाथ स्वामी उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अब क्या किया जाए।’ 
राजा ने भी देखा कि दर्पण में प्रभु का प्रतिबिंब नहीं पड़ रहा है। राजा को बड़ा दुख हुआ। वे कहने लगे मुझसे कोई अपराध हुआ हो, तो प्रायश्चित करने को मैं तैयार हूं।’ राजा प्रार्थना करते हुए दुखी होकर भगवान के गरुड़ध्वज के पास जाकर भूमि पर लेट गए। लेटते ही उन्हें नींद आ गई। उन्होंने स्वप्न में देखा कि प्रभु कह रहे हैं- 
‘राजा ! तेरा कोई अपराध नहीं। तू दुखी मत हो। मैं नीलांचल में था ही नहीं, तो प्रतिबिंब कैसे पड़ता। मैं तो इस समय पीपलीचटी ग्राम में अपने भक्त रघु केवट की झोपड़ी में बैठा उसके हाथ से भोजन कर रहा हूं। वह जब तक नहीं छोड़ता, मैं यहां आकर तेरा नैवेद्य कैसे स्वीकार कर सकता हूं। यदि तू मुझे यहां बुलाना चाहता है, तो मेरे उस भक्त को उसकी माता तथा स्त्री के साथ यहां ले आ। यहीं उनके रहने की व्यवस्था कर।’ राजा की तंद्रा भंग हुई, तो वे पीपलीचटी पहुंचे। 
पूछकर रघु केवट की झोपड़ी का पता लगाया। जब कई बार पुकारने पर भी द्वार न खुला, तब द्वार बल लगाकर उन्होंने स्वयं खोला। कुटिया का दृश्य देखकर वे मूर्तिवत् हो गए। रघु, अन्न का ग्रास दिखाई देता है, पर ग्रास लेने वाला मुख नहीं दिखता। सहसा प्रभु अंतर्धान हो गए। तभी राजा को देख उसने उठकर राजा को प्रणाम किया। 
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श्री जगन्नाथ जी की आज्ञा सुनकर रघु ने नीलांचल चलना स्वीकार कर लिया। माता तथा पत्नी के साथ वे पुरी आए। तब भोग मंडप के दर्पण में श्री जगन्नाथ जी का प्रतिबिंब दिखाई पड़ा। पुरी के राजा ने श्री जगन्नाथ जी के मंदिर से दक्षिण ओर रघु के लिए घर की व्यवस्था कर दी। रघु अपनी माता और स्त्री के साथ भजन करते हुए जीवन पर्यन्त वहीं रहे।

शनिवार, 21 जून 2014

= १९६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू सब ही मृतक समान हैं, जीया तब ही जाण । 
दादू छांटा अमी का, को साधु बाहे आण ॥ 
सबही मृतक ह्वै रहे, जीवैं कौन उपाइ । 
दादू अमृत रामरस, को साधू सींचे आइ ॥ 
सब ही मृतक देखिये, क्यों कर जीवैं सोइ । 
दादू साधु प्रेम रस, आणि पिलावे कोइ ॥ 
सब ही मृतक देखिये, किहिं विधि जीवैं जीव । 
साधु सुधारस आणि करि, दादू बरसे पीव ॥ 
हरि जल बरसै बाहिरा, सूखे काया खेत । 
दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत ॥ 
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साभार : Milind Birajdar ~ 

***COMPASSION OF THE ENLIGHTENED ONE IS INFINITE*** 

Gautam Buddha himself, one day in the early morning twenty-five centuries ago, told Ananda, "Call all the monks together under those two saal trees" -- which he always loved; he used to sit under those saal trees for meditations or for his talks. He said, "Arrange a bed for me under those saal trees because I am going to leave the body. And inform everybody that if they want to ask any question, they should ask." 

All the monks gathered, they had tears in their eyes. But Buddha said, "Tears won't help. If you have any question you can ask, because tomorrow I will not be here." 

The elder, enlightened disciples said, "You have spoken for forty-two years; you have said everything that is needed for a seeker. We don't have any question; just relax peacefully." 

So Buddha closed his eyes. He said, "First I will leave the body, then I will leave the mind, then I will leave the heart and disappear into emptiness." 

A man from the nearby town, who had been postponing for thirty years because Buddha was coming and going through his town again and again... he wanted to meet Buddha, he wanted to ask something, but there was always some excuse -- a customer suddenly came, and now he cannot leave the shop, or his wife is sick, or some other business, or he has to go to somebody's marriage. So many times Buddha passed through the town, and he had the idea to meet him. 

He suddenly heard that Buddha was going to die. Now no excuse could prevent him. He rushed to the outside of the city where Buddha's campus was. And he went there and said, "I want to ask one question!" 

Ananda said, "Now we have told him there is no question, and he has closed his eyes. We don't know how far he has gone, but we cannot call him back. It will be too ungrateful. He has passed through your town so many times, what were you doing?" 

He said, "Always some excuse..." 

But Buddha opened his eyes. He said, "Ananda, let him ask the question so that in the coming centuries nobody can blame me that somebody asked a question and I did not answer." 

"But," Ananda said, "you were almost dead !" 

He said, "Almost, but not completely. I had left the body, I had left the mind; I was just going to leave the heart when I heard. It does not matter if I delay a little more before disappearing into the ultimate emptiness, but this poor fellow should not remain unanswered." 

A Buddha lives in freedom in his life, and lives in freedom even in his death. Death for him is just an episode like other episodes of life. 
- OSHO

शुक्रवार, 20 जून 2014

= १९५ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
प्रेम भक्ति जब ऊपजै, पंगुल ज्ञान विचार । 
दादू हरि रस पाइये, छूटै सकल विकार ॥ 
दादू बंझ बियाई आत्मा, उपज्या आनन्द भाव । 
सहज शील संतोष सत, प्रेम मगन मन राव ॥ 
--------------------------------------- 
धन्ना जाट एक ग्रामीण किसान का सीधा- सादा लड़का था। गाँव में आये हुए किसी पण्डित से भागवत की कथा सुनी थी। पण्डित जब सप्ताह पूरी करके, गाँव से दक्षिणा, माल-सामग्री लेकर घोड़े पर रवाना हो रहे थे तब धन्ना जाट ने घोड़े पर बैठे हुए पण्डित जी के पैर पकड़े "महाराज ! आपने कहा कि ठाकुरजी की पूजा करने वाले का बेड़ा पार हो जाता है। जो ठाकुरजी की सेवा- पूजा नहीं करता वह इन्सान नहीं हैवान है। गुरु महाराज ! आप तो जा रहे हैं। मुझे ठाकुरजी की पूजा की विधि बताते जाइये।" "जैसे आये वैसे करना।" "स्वामी ! मेरे पास ठाकुरजी नहीं हैं।" "ले आना कहीं से।" "मुझे पता नहीं ठाकुरजी कहाँ होते हैं, कैसे होते हैं। आपने ही कथा सुनायी। आप ही गुरु महाराज हैं। आप ही मुझे ठाकुरजी दे दो। "पण्डित जान छुड़ाने में लगा था लेकिन धन्ना जाट अपनी श्रद्धा की दृढ़ता में अडिग रहा। 
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आखिर पण्डित ने अपने झोले में से सिलबट्टा निकालकर धन्ना को दे दियाः "ले यह ठाकुर जी। अब जा।" "पूजा कैसे करूँ गुरुदेव ! यह तो बताओ ! ''गुरु महाराज ने कहाः "नहाकर नहलैयो और खिलाकर खइयो। स्वयं स्नान करके फिर ठाकुरजी को स्नान कराना। पहले ठाकुरजी को खिलाकर फिर खाना। बस इतनी ही पूजा है।" 
धन्ना जाट ने सिलबट्टा ले जाकर घर में प्रस्थापित किया लेकिन उसकी नजरों में वह सिलबट्टा नहीं था। उसकी बुद्धि में वह साक्षात ठाकुर जी थे। पहले स्वयं स्नान किया। फिर भगवान को स्नान कराया। अब पहले उनको खिलाकर फिर खाना है। विधवा माई का लड़का। बाप मर चुका था। छोटा-सा खेत। उसमें जो मिले उसी से आजीविका चलानी थी। रोज एक रोटी हिस्से में आती थी। बाजरे का टिक्कड़ और प्याज या चटनी। छप्पन भोग नहीं। 
ठाकुरजी के आगे थाली रखकर हाथ जोड़े और प्रार्थना की "प्रभु ! खाओ। फिर मैं खाऊँ। मुझे बहुत भूख लगी है। अब वह सिलबट्टा ! मूर्ति भी नहीं खाती तो सिलबट्टा कहाँ से खाय? लेकिन धन्ना की बुद्धि में ऐसा नहीं था। "ठाकुरजी ! वे पण्डित जी तो चले गये। उनके पास खीर खाने को मिलती थी तो खाते थे। मुझ गरीब की रोटी आप नहीं खाते? आप दयालु हो। मेरी हालत जानते हो। फिर आप ऐसा क्यों करते हो ? खाओ न ! आप शरमाते हो ? अच्छा मैं आँखें बन्द कर लेता हूँ, खाओ।" फिर आँख खोलकर धन्ना देखता है कि रोटी पड़ी है। खायी नहीं। धन्ना भूखा सो गया। 
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गुरु महाराज ने कहा है कि खिलाकर खइयो। ठाकुरजी नहीं खाते तो हम कैसे खायें? एक दिन बीता। दूसरे दिन ताजी रोटी लाकर धरी। 'चलो, पहले दिन पण्डित जी का वियोग हुआ इसकी याद में नहीं खाया होगा। आज तो खाओ।' लेकिन धन्ना को निराश होना पड़ा। चार दिन ऐसे ही बीत गये। धन्ना जाट के मनमें बस गया कि ये ठाकुर जी हैं और रोटी नहीं खाते। कभी न कभी रोटी खायेंगे... खायेंगे। एकाग्रता ही हुई, और क्या हुआ? चार-चार दिन बीत गये। ठाकुरजी ने तो खाया नहीं। धन्ना भूखा-प्यासा बैठा रहा। रोज ताजी रोटी लाकर ठाकुरजी को भोग लगाता रहा। पाँचवें दिन भी सूर्योदय हुआ और अस्त हो गया। छठा दिन भी ऐसे ही बीत गया। सातवें दिन धन्ना आ गया अपने जाटपने पर। छः दिन की भूख- प्यास ने उसे विह्वल कर रखा था। प्रभु की विराग्नि ने हृदय के कल्मषों को जला दिया था। 
धन्ना अपनी एवं ठाकुरजी की भूख-प्यास बरदाश्त नहीं कर सका। वह फूट-फूटकर रोने लगा, पुकारने लगा, प्यार भरे उलाहने देने लगा "मैंने सुना था कि तुम दयालु हो लेकिन तुममें इतनी कठोरता, हे नाथ ! कैसे आयी? मेरे कारण तुम छः दिन से भूखे प्यासे हो ! क्या गरीब हूँ इसलिए ? रूखी रोटी है इसलिए ? मुझे मनाना नहीं आता इसलिए ? अगर तुम्हें आना नहीं है तो मुझे जीना भी नहीं है। "उठाया छुरा। शुद्ध भाव से, सच्चे हृदय से ज्यों अपनी बलि देने को उद्यत हुआ त्यों ही उस सिलबट्टे से तेजोमयप्रकाश-पुञ्ज प्रकट हुआ, धन्ना का हाथ पकड़ लिया और कहाः "धन्ना ! देख मैं खा रहा हूँ।" 
ठाकुरजी रोटी खा रहे हैं और धन्ना उन्हें निहार रहा है। फिर बोलाः "आधी मेरे लिए भी रखो। मैं भी भूखा हूँ। "तू दूसरी खा लेना।" "माँ एक रोटी देती मेरे हिस्से की। दूसरी लूँगा तो वह भूखी रहेगी।" "ज्यादा रोटी क्यों नहीं बनाते?" "छोटा-सा खेत है। कैसे बनायें?" "और किसी का खेत जोतने को लेकर खेती क्यों नहीं करते?" "अकेला हूँ। थक जाता हूँ।" "नौकर क्यों नहीं रख लेते?" "पैसे नहीं हैं। बिना पैसे का नौकर मिले तो आधी रोटी खिलाऊँ और काम करवाऊँ।" "बिना पैसे का नौकर तो मैं ही हूँ।" 
प्रभु ने कहीं नहीं कहा कि आप मुझे धन अर्पण करो, गहने अर्पण करो, फल-फूल अर्पण करो, छप्पन भोग अर्पण करो। जब कहीं कुछ कहा तो यही कहा है कि मैं प्यार का भूखा हूँ। प्यार गरीब और धनी, पढ़ा हुआ और अनपढ़, मूर्ख और विद्वान, सब प्रभु को प्यार कर सकतेहैं। प्रभु को प्यार करने में आप स्वतंत्र हैं। 
कथा कहती है कि धन्ना जाट के यहाँ ठाकुरजी साथी के रूप में काम करने लगे। जहाँ उनके चरण पड़े वहाँ खेत छनाछन, रिद्धि- सिद्धि हाजिर। कुछ ही समय में धन्ना ने खूब कमाया। दूसरा खेत लिया, तीसरा लिया, चौथा लिया। वह एक बड़ा जमींदार बन गया। घर के आँगन में दुधारू गाय- भैंसे बँधी थीं। सवारी के लिए श्रेष्ठ घोड़ा था। 
चार-पाँच साल के बाद वह पण्डित आया गाँव में तो धन्ना कहता हैः "गुरु महाराज ! तुम जो ठाकुरजी दे गये थे न ! वे छः दिन तो भूखे रहे। तुम्हारी चिन्ता में रोटी नहीं खायी। बाद में जब मैंने उनके समक्ष 'नहीं' हो जाने की तैयारी की तब रोटी खायी। पहले मैं गरीब था लेकिन अब ठाकुर जी की बड़ी कृपा है। "पण्डित ने सोचा कि अनपढ़ छोकरा है, बेवकूफी की बात करता है। बोला "अच्छा.... अच्छा, जा। ठीक है।" "ऐसा नहीं गुरु महाराज ! आज से आपको घी-दूध जो चाहिए वह मेरे यहाँ से आया करेगा। और.... एक दिन आपको मेरे यहाँ भोजन करने आना पड़ेगा। "पण्डित ने लोगों से पूछा तो लोगों ने बताया कि "हाँ महाराज ! जरूर कुछ चमत्कार हुआ है। बड़ा जमींदार बन गया है। कहता है कि भगवान उसका काम करते हैं। कुछ भी हो लेकिन वह रंक से राय हो गया है। 
पण्डित ने धन्ना से कहा "जो तेरा काम कराने आते हैं उन ठाकुरजी को मेरे पास लाना। फिर तेरे घर चलेंगे। "दूसरे दिन धन्ना ने ठाकुरजी से बात की तो ठाकुरजी ने बताया "उसको अगर लाया तो मैं भाग जाऊँगा। "पण्डित की एकाग्रता नहीं थी, तप नहीं था, प्रेम नहीं था, हृदय शुद्ध नहीं था। जरूरी नहीं की पण्डित होनेके बाद हृदयशुद्ध हो जाय। राग और द्वेष हमारे चित्त को अशुद्ध करते हैं। निर्दोषता हमारे चित्त को शुद्ध करती है। शुद्ध चित्त चैतन्य का चमत्कार ले आता है।

बुधवार, 18 जून 2014

= १९४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक । 
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥ 
प्रेम प्रीति सनेह बिन, सब झूठे श्रृंगार । 
दादू आतम रत नहीं, क्यों मानैं भरतार ॥ 
दादू जग दिखलावै बावरी, षोडश करै श्रृंगार । 
तहँ न सँवारे आपको, जहँ भीतर भरतार ॥ 
--------------------------------------------- 
साभार : बिष्णु देव चंद्रवंशी ~ 

*------●●●●|||| पवित्रता ||||●●●●-----* 

बाहरी पवित्रता की अपेक्षा हृदय की पवित्रता मनुष्य के चरित्र को उज्जवल बनाने में बहुत अधिक सहायक होती है ! मनुष्य को काम, क्रोध, हिंसा, वैर, दम्भ आदि दुर्गन्ध भरे कूड़े को बाहर फेंक कर हृदय को सदा साफ रखना चाहिये ! बाहर से निर्दोष कहलाने का प्रयत्न न कर मन से निर्दोष बनना चाहिये ! मन से निर्दोष मनुष्य को दुनिया दोषी बतलावे तो भी कोई हानि नहीं; परन्तु मन में दोष रखकर बाहर से निर्दोष कहलाना हानिकारक है !

मंगलवार, 17 जून 2014

= १९३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
इनमें क्या लीजे क्या दीजे,
जन्म अमोलक छीजे ॥टेक॥ 
सोवत सुपिना होई, जागे थैं नहिं कोई ॥१॥ 
मृगतृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा ॥२॥ 
बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा ॥३॥
दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा ॥४॥ 
------------------------------------------ 
साभार : Rp Tripathi
**भूत-प्रेत :: एक वैज्ञानिक चिंतन** 
सम्मानित मित्रो आइये आजके आलेख में, हम इस महत्पूर्ण विषय पर एक, संक्षिप्त वैज्ञानिक परिचर्चा करें ..!! वैज्ञानिक भाषा में, जैंसे भूतकाल होता है, वैसे ही भूत, और जैंसे भविष्यकाल होता है, वैसे ही प्रेत होते हैं ..!! परन्तु ये किसके साथ रहते हैं, किसके साथ नहीं ..? और ये किसको हानि पहुंचते हैं, किसे नहीं ..? इस विषय को, एक संक्षिप्त वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा, समझने का प्रयत्न करते हैं --- 
प्रयोग --- भूत-प्रेत और उनसे मुक्ति ...!! 
बिषय सामग्री -- प्रज्ञा-चक्षु का उपयोग ..!! 
(प्रज्ञा-चक्षु के उपयोग से अभिप्राय है, वह समझ, जिससे हम यह स्पष्ट रूप से समझ जाते हैं कि --- 
जिस तरह, जब हम, तेज रफ़्तार से चलती हुई ट्रैन में चलते हैं, और नीचे जमीन की ओर देखते हैं, तो हमें जमीन, भागती हुई दिखाई देती हैं, परन्तु यह सत्य नहीं है, .. या जब,.. प्लेटफार्म पर हमारी, ट्रैन खड़ी होती है, और हम पास से गुजर रही, किसी अन्य ट्रैन को देखते हैं, तो हमें, ऐसा प्रतीत होता है मानो, हमारी ट्रैन चल रही है..., यह भी सत्य नहीं है, 
उसी प्रकार, जब हम प्रकृति में, हमारे चारों ओर, सभी कुछ, यहाँ तक कि, शरीर को भी हम, भागता हुआ(परिवर्तित होता हुआ) देखते हैं, और यह स्पष्टः समझ जाते हैं कि, यह परिवर्तन सत्य नहीं है, .. उसे ही प्रज्ञा-चक्षु का, उपयोग करना कहते हैं ..!!) .. 
प्रयोग-विधि --- 
सर्व-प्रथम हम अपने आपसे से, एक काल्पनिक प्रश्न करें --- 
यदि कोई हम से पूँछे --- "आपके चार, सबसे करीबी/सबसे प्रिय, रिश्तेदारों के नाम बताओ" ..? तो हम .. माता-पिता से लेकर, भाई-बहिन, पति पत्नी, मित्र आदि में से, किसी के भी नाम तो गिना देंगे, परन्तु क्या कभी .... परमात्मा को अपने रिश्तेदारों में, प्रथम स्थान देंगें ..? 
.
अब ऐसा क्यों होता है ..? 
इसका एकमात्र कारण है --- हम अपने स्वरुप से अनविज्ञ हैं ..!! अर्थात, हम अपने, प्रज्ञा-चक्षु का उपयोग नहीं कर रहे होते हैं ..!! इसे थोड़ा और बिस्तार से समझने के लिए --- इन निम्न(*) वाक्यों का हम, शांति-पूर्वक अवलोकन करें --- 

*हम जिसे अपना स्वरुप समझते हैं, वह चार से मिलकर बना है -- 
शरीर + मन + आत्मा + परमात्मा ..!! इसमें शरीर तो, व्यक्त है, अर्थात इसे हम, इन दो भौतिक नेत्रों द्वारा, दृश्य के रूप में, देख सकते हैं,
परन्तु शेष तीन -- मन + आत्मा + परमात्मा की ओर यात्रा के लिए हम केवल अव्यक्त प्रज्ञा-चक्षु के सहारे ही, आगे बढ़ सकते हैं ..!! आइये, इनका एक, बहुत संक्षित दर्शन करें --- 
.
**मन में सदैव, शरीर अव्यक्त रूप से, समाहित होता है ..!! इसी कारण हम, स्वप्न में, ब्रह्मा बन, स्वप्न-सृष्टि का निर्माण कर लेते हैं, विष्णु बन, उसका पालन करते रहते हैं, और शिव बन, उसका संहार भी कर लेते हैं ..!!
.
***आत्मा में भी मन, अव्यक्त रूप से समाहित रहता है ..!! इसी कारण, सुषुप्ति में, मन के आत्मा में समाहित हो जाने(विश्राम पाने) से हमें, स्फूर्ति मिलती है ..!! परन्तु, वहाँ हम, गुणों के आधीन रहते हैं, वहाँ हमारी, रजो-गुण रुपी क्रिया-कलाप(संसारी-उठा-पटक) तो बंद हो जाती है, परन्तु तमोगुण का इतना प्रभाव होता है, कि हमें, इस अवस्था में, कैसे स्फूर्ति मिली ..? कुछ नहीं पता नहीं होता ..? हम सोये, परन्तु हम कौन थे, सोने वाले, यह भी नहीं जानते ..? 

परन्तु, जब हम सतोगुण(प्रज्ञा-चक्षु) की स्थिति में रहते हैं, तो कौन सोया ? इसका ज्ञान रखते है ..!! इसे ही जागृत-सुषुप्ति या समाधि की अवस्था कहते हैं ..!! 
और यह वह अवस्था है, जहाँ से आगे प्रज्ञा-चक्षु(सतोगुण) की भी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, और आगे की यात्रा -- 
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****आत्म स्वरुप(त्रिगुणातीत) अवस्था, 
खुद तय करती है ..!! अर्थात, फिर आत्मा ही, परमात्मा (सच्चिदानंद) के पास ले जाती है ..!! 
यह उस तरह की अवस्था है, 
जहाँ से हम ट्रैन में, यात्री के रूप में, सवार हो जाते हैं, और फिर हमारा और हमारे लगेज दोनों का, सिर्फ सम्पूर्ण भार ही केवल ट्रैन नहीं उठाती, वरन मंजिल पर भी, वही पहुँचाती है ..!! 
परन्तु कोई, ट्रैन में बैठने का ही उद्यम ना करे .., अर्थात आत्म-स्वरुप, तक की यात्रा को ही दुर्गम समझे, या ट्रैन में बैठकर भी, यात्री और ट्रैन के परस्पर महत्त्व की, जानकारी को ही महत्वहीन समझे, तो क्या किया जा सकता है ..? 
.
ऐसा व्यक्ति तो, अहंकारी ही माना जायेगा, और वह भी सतोगुण के अहंकार से ग्रस्त ..!! जो सबसे दयनीय स्थिति है ..!! क्योंकि, तमोगुण रुपी लोहे की जंजीर, रजोगुण रुपी चाँदी की जंजीर से तो मुक्त होने का प्रयास व्यक्ति करता है, परन्तु सोने की, रत्न-जड़ित जंजीर को तो आभूषण, समझने लगता है ..!! 
.
प्रयोग निष्कर्ष --- 
***परमात्मा में, आत्मा, मन, शरीर सभी समाये रहते हैं, अतः एक परमात्व चिंतन से ..., प्रभु नाम लेने से, भूत-प्रेत सहित, सभी संकटों से, मुक्ति मिल जाती हैं ..!! अर्थात, जब सम्पूर्ण संसार में हमें, "आत्म-वत सर्व-भूतेषु" का दर्शन(सुदर्शन) होने लगता है, तो हमें, सभी भयों से मुक्ति, मिल जाती है ..!! अर्थात भय से उत्त्पन्न, भूत-प्रेत, सभी समाप्त हो जाते हैं ..!! 
इसे ही, सहजावस्था कहते हैं ..!! और इस स्थिति में हमारी मनोदशा -- "सहज मिले सो दूध सम, माँगा मिले सो पानी, कह कबीर वह रक्त सम, जा में खेंचा-तानी" ... की परिचायक होती है ..!! और इस सहजावस्था को पाने का सरलतम उपाय है --- 

राम नाम मणि-दीप धर, जीह देहरी द्वार, 
तुलसी भीतर बाहिरो, जो चाहसि उजियार ..!! 
(भूत-पिशाच निकट नहीं आवें, महावीर जब नाम सुनावें ..!!) 
********ॐ कृष्णम वंदे जगत-गुरुम********

= १९२ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
नहिं मृतक नहिं जीवता, नहिं आवै नहिं जाइ । 
नहिं सूता नहि जागता, नहिं भूखा नहिं खाइ ॥ 
दादू इस आकार तैं, दूजा सूक्षम लोक । 
तातैं आगे और है, तहँ वहॉं हर्ष न शोक ॥ 
दादू हद छाड़ बेहद में, निर्भय निर्पख होइ । 
लाग रहै उस एक सौं, जहॉं न दूजा कोइ ॥ 
दादू दूजे अन्तर होत है, जनि आणै मन मांहि । 
तहँ ले मन को राखिये, जहँ कुछ दूजा नांहि ॥ 
---------------------------------------------- 
"Ecstasy is our very nature; not to be ecstatic is simply unnecessary. To be ecstatic is natural, spontaneous. It needs no effort to be ecstatic, it needs great effort to be miserable. 

That's why you look so tired, because misery is really hard work; to maintain it is really difficult, because you are doing something against nature. You are going upstream -- that's what misery is. 

And what is bliss? Going with the river -- so much so that the distinction between you and the river is simply lost. You are the river. How can it be difficult? To go with the river no swimming is needed; you simply float with the river and the river takes you to the ocean. The river is already going to the ocean. 

Life is a river. Don't push it and you will not be miserable. The art of not pushing the river of life is sannyas."

सोमवार, 16 जून 2014

= १९१ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै । 
दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥ 
दादू चिन्ता कियां कुछ नहीं, चिंता जीव को खाइ । 
होना था सो ह्वै रह्या, जाना है सो जाइ ॥ 
दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल । 
निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥ 
दादू बिन बेसासी जीयरा, चंचल नांही ठौर । 
निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, स्वर्ग न बांछी धाइ । 
नरक कनै थी ना डरी, हुआ सो होसी आइ ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, जनि बांछे सुख दुःख । 
सुख मांगे दुख आइसी, पै पीव न विसारी मुख ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, जे कुछ किया पीव । 
पल बधै न छिन घटै, ऐसी जानी जीव ॥ 
दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ । 
लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥ 
ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह । 
साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥ 
-------------------------------------- 
साभार : Vipin Tyagi ~ 
इनसन का जीवन काँटेदार पेड़ के पास उगे केले के पौधे के समान है । जिस प्रकार हवा चलने पर केले के पत्ते काँटेदार पेड़ द्वारा छलनी हो जाते हैं । उसी तरह चिन्ता के झोंके इनसान को हरदिन पीड़ित करते रहते हैं । 
हम चिन्ता क्यों करते हैं? चिन्ता के पीछे डर छिपा होता है कि कोई अनहोनी या अप्रिय बात न हो जाये - ऐसा न हो जाए, वैसा न हो जाए । यह डर क्यों होता है ? यह डर अज्ञानता और अविश्वास से उत्पन्न होता है । अगर मन को विश्वास हो जाये कि परमेश्वर द्वारा बनायी दुनिया में कुछ ग़लत नहीं हो सकता, तब हम चिन्ता किस बात की कर सकते हैं ? इसी प्रकार अगर मन में विश्वास हो जाए कि संसार में जो कुछ हो रहा है, कर्म और फल के नियम के अनुसार हो रहा है और कभी कुछ भी अकारण नहीं हो सकता है, तब भी हम निश्चिन्त हो जाते हैं । 

चिन्ता हमारा कुछ बना नहीं सकती, बिगाड़ बहुत कुछ सकती है । कैसे ? चिन्ता दीमक की तरह अंदर ही अंदर जीव को खाती रहती है । चिन्ता रूपी नागिन ज्ञान और विश्वास के अमृत को नाश करके जीव के अन्दर अज्ञानता और अविश्वास का ज़हर भर देती है । यह पल-पल जीव के अन्दर व्यर्थ दुविधाओं और शंकाओं के बीज बोती रहती है । यह मनुष्य को मानसिक पतन की तरफ ले जाती है । इससे मनुष्य की हालात से लड़ने की शक्ति नष्ट हो जाती है । चिन्ता-ग्रस्त व्यक्ति न तो सांसारिक कार्य पूरी शक्ति से कर सकता है और न ही परमार्थ में तरक्की कर सकता है । चिन्ता स्वयं लगाया रोग है । हमें कुल-मालिक में पूर्ण विश्वास रखते हुए साहस, निडरता और दृढ़ता से स्वार्थ और परमार्थ दोनों में आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये । 

गुरु तेग बहादुर साहिब जीव को सावधान करते हुए कहते हैं: 
चिंता ता की कीजीऐ जो अनहोनी होइ ॥ 
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नही कोइ ॥५१॥(SGGS 1429) 
People become anxious, when something unexpected happens. This is the way of the world, O Nanak; nothing is stable or permanent. ||51|| 
आपजी कहते हैं कि चिन्ता तभी करनी चाहिये जब कोई अनहोनी बात हो सकती हो । परिवर्तन संसार का नियम है और यह संयोग और वियोग के नियम के अनुसार चल रहा है । कर्म और फल का नियम अटल है । इसलिए चिन्ता में डूबे रहने की बजाय कुल मालिक का हुक्म मानते हुए हर तरह के हालात में खुश रहना चाहिये । 

कबीर साहिब कहते हैं कि मुझे चिन्ता करने की क्या ज़रुरत है क्योंकि मेरा हरि मेरी चिन्ता करता है । 
कबीर क्या मैं चिंतहूँ, मम चिन्ते क्या होय । 
मेरी चिंता हरि करै, चिंता मोहिं न कोय ॥ (कबीर साखी - संग्रह, पृ ७३) 
चिन्ता सर्वव्यापक रोग है । क्या कभी आपका कोई ऐसा क्षण गुज़रा है जब आप पूर्ण चिन्ता-रहित हों ? सारा संसार चिन्ता की आग में जल रहा है । 

गुरु नानक साहिब कहते हैं: 
चिंतत ही दीसै सभु कोइ ॥ 
चेतहि एकु तही सुखु होइ ॥ 
चिति वसै राचै हरि नाइ ॥ 
मुकति भइआ पति सिउ घरि जाइ ॥२३॥ (SGGS 932) 
Everyone has worries and cares. He alone finds peace, who thinks of the One Lord. When the Lord dwells in the consciousness, and one is absorbed in the Lord's Name, one is liberated, and returns home with honor. ||23|| 
गुरु साहिब कह रहे हैं कि पूरा संसार ही चिंताग्रस्त है । वो ही सुखी है जो हरि की तरफ से चेता हुआ है और वह मुक्त होकर उसके धाम में चला जाता है । एक अन्य प्रसंग में गुरु अर्जुन देव जी फरमाते हैं: 
जिसु ग्रिहि बहुतु तिसै ग्रिहि चिंता ॥ 
जिसु ग्रिहि थोरी सु फिरै भ्रमंता ॥ 
दुहू बिवसथा ते जो मुकता सोई सुहेला भालीऐ ॥१॥ (SGGS 1019) 
The household which is filled with abundance - that household suffers anxiety. One whose household has little, wanders around searching for more. He alone is happy and at peace, who is liberated from both conditions. ||1|| 
जिस घर में मालिक ने ज़्यादा माया दे रखी है वह आशंकित है कि कब टैक्स की धाड़ पद जाए, कहीं कोई माया को चुरा न ले । जिसके घर में माया नहीं है वह माया पाने के लिए चिंतित है । वही चिन्ता से मुक्त है जो इन अवस्थायों से ऊपर उठ चुका है । 

किसी को पैसा कमाने की चिन्ता है । किसी को सन्तान न होने की चिन्ता है, तो कोई सन्तान के कारण कई चिन्ताओं से ग्रस्त है । किसी को लड़कियों की शादी की चिन्ता है, तो कोई विधवा बहू की चिन्ता से परेशान है । व्यापारी व्यापार से सम्बन्धित , किसान खेती से सम्बन्धित और विद्यार्थी पढ़ाई से सम्बन्धित चिन्ताओं से परेशान है । जिन्हें ऊँची पदवी नहीं मिलती, वे तो चिन्तित हीं लेकिन जिन्हें ये पदवियाँ मिल जाती हैं, वे भी अनेक प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त हैं । बच्चा-बूढ़ा, औरत-मर्द, अमीर-गरीब, अनपढ़-विद्वान सब चिन्ता का शिकार हैं । 

सन्त-महात्मा सावधान करते हैं कि जीव को अपनी आत्मा की पहचान के लिए संसार में भेजा गया है । जीव परमात्मा की तरफ से दिए गए काम को करने की चिन्ता तो करता नहीं है बल्कि संसार की अन्य बेफजूल चिन्ताओं में मशगूल रहता है । प्रारब्ध अटल है, इसलिये सांसारिक, वस्तुओं और पदार्थों की चिन्ता में समय बर्बाद करने का कोई लाभ नहीं । 

कबीर साहिब कहते हैं: 
सुभ और असुभ करम पूरबले, रती घटै न बढ़ै । 
होनहार होवै पुनि सोई चिन्ता काहे करै ॥ (कबीर शब्दावली, भाग २, पृ १) 
कर्म की जननी इच्छा है और इच्छा की पूर्ति की चिन्ता दुखों की जननी है । जब तक हम इच्छा और वासना से मुक्त नहीं होते, तब तक चिन्ताओं से भी मुक्त नहीं हो सकते । इच्छा की जड़ काटने वाली शक्ति प्रभु का प्रेम और प्रेम का नाम है । गुरु रामदास जी कहते हैं: 
नामु मिलै मनु त्रिपतीऐ बिनु नामै ध्रिगु जीवासु ॥ 
कोई गुरमुखि सजणु जे मिलै मै दसे प्रभु गुणतासु ॥ (SGGS 40) 
Receiving the Naam, the mind is satisfied; without the Naam, life is cursed. If I meet the Gurmukh, my Spiritual Friend, he will show me God, the Treasure of Excellence. 
जब नाम रूपी अमृत की प्राप्ति हो गयी तो मन की सारी इच्छाएँ और तृष्णाएँ शान्त हो गयी । इसलिए कबीर साहिब कहते हैं: 
चिंता तो सतनाम की और न चितवे दास । 
जो कुछ चितवे नाम बिन सोई जम की फांस ।। 
कुल मालिक के भक्तों को राम-नाम की कमाई के अलावा और किसी बात की चिंता नहीं होती है । 

परमात्मा कहता है कि मुझे तेरी चिन्ता तुमसे अधिक है । तुम्हारी चिन्ता तुम्हारा कुछ नहीं सँवार सकती । तुम सिर्फ इस बात की चिन्ता करो कि तुम्हारे अंदर मेरा प्रेम भरोसा रहे । यदि तुम्हारे अंदर मेरा प्रेम-भरोसा है तो तुम्हें कुछ भी चिन्ता करने की ज़रुरत नहीं | 
हम संसार में भी देखते हैं कि माता-पिता अपने प्यारे बच्चों की सारी चिंताएँ अपने ऊपर ले लेते हैं । वे हमेशा बच्चों को निश्चिन्त और प्रसन्न देखना चाहते हैं, इसी तरह वह परम दयालु पिता हमारे चिन्ता करने से नहीं, हमारे प्रेम और भरोसे से प्रसन्न होता है । चिन्ता अविश्वास की निशानी है । जहाँ प्रेम होता है वहाँ पूरा भरोसा होता है । जिस हृदय में प्रभु का प्रेम और विश्वास है, उस हृदय में चिन्ता के लिए कोई भी स्थान नहीं हो सकता ।

= १९० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मूसा जलता देख कर, दादू हंस दयाल । 
मान सरोवर ले चल्या, पंखा काटे काल ॥
सब जीव भुवंगम कूप में, साधु काढैं आइ । 
दादू विषहर विष भरे, फिर ताही को खाइ ॥
दादू दूध पिलाइये, विषहर विष कर लेइ ।
गुण का औगुण कर लिया, ताही को दुख देइ ॥
--------------------------------------------- 

एक बार एक राजा ने अपनी सभा में अनेक प्रकार के प्रश्न पूछे । उन पर सभी विद्वानों ने अपनी अपनी राय प्रकट की । अचानक राजा ने कहा - कृपया यह बतायें कि सबसे तेज काटने वाला कौन होता है ?
एक विद्वान ने उत्तर दिया - 'महाराज सबसे तेज काटने वाला ततैया होता है, उसके काटने पर मनुष्य की चीख निकल जाती है ।' 
दुसरे विद्वान् ने उत्तर दिया - 'महाराज मेरी दृष्टि से तो सबसे तेज काटने वाली मधुमक्खी है ।' 
तीसरे विद्वान ने कहा - 'मेरे विचार से तो बिच्छू सबसे तेज काटता है ।' 
चौथा विद्वान बोला - 'महाराज सांप का काटा तो पानी भी नहीं मांगता, इसलिए सांप ही सबसे तेज काटने वाला हुआ ।'
परन्तु राजा को किसी भी उत्तर से संतुष्टि नहीं प्राप्त हुई । 
उन्होंने सिंहासन पर विराजमान राजगुरु से कहा - 'इसका उत्तर आप ही दीजिये ।' 
राजगुरु बोले - 'मेरे विचार से सबसे तेज दो ही काटते हैं ... एक निंदक और दूसरा चाटुकार ।' 
उत्तर सुनकर राजा आश्चर्यचकित होकर बोला - 'इसे कृपया विस्तार से समझाइए ।'
राजगुरु बोले - ' निंदक के हृदय में निंदा 'द्वेष' रूपी जहर भरा रहता है । वह निंदा करके पीछे से ऐसे काटता है कि मनुष्य तिलमिला उठता है । चाटुकार अपनी वाणी में मीठा विष भरकर ऐसी चापलूसी करता है कि मनुष्य को अपना गुण समझकर अहंकार के नशे में चूर हो जाता है । चापलूस की वाणी विवेक को काटकर जडमूल से नष्ट कर देती है ।' 
राजगुरु की शिक्षा सुन कर राजा समेत सभी विद्वान उनसे पूर्णतया संतुष्ट एवं सहमत हो गये ।
निंदा और प्रशंसा, दोनों ही व्यक्ति के लिए एक सीमित मात्रा के बाद उसी प्रकार से घातक सिद्ध होती हैं, जैसे विष । कम मात्रा में लिया गया विष व्यक्ति के प्राणों को बचा सकता है लेकिन अधिक मात्रा होने पर व्यक्ति का बचना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार निंदा और प्रशंसा भी सीमित मात्रा तक व्यक्ति को हानि हानि नहीं पहुंचतीं परन्तु इनकी अधिकता ले डूबती है ।
ऋग्वेद में कहा गया है कि कभी किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए । हर किसी को दूसरे की निंदा करने में तो आनन्द आता है परन्तु अपनी निंदा सबको बुरी लगती है । बहुत ही कम लोग होते हैं जो प्रशंसनीय कार्य करने पर भी प्रशंसा की अपेक्षा नहीं रखते । निंदा और प्रशंसा के बीच लोग अपना मूल्यवान समय व्यर्थ गंवा देते हैं । ऐसा बहुत कम होता है जब व्यक्ति अपनी निंदा सुनकर शांत रहे और प्रशंसा सुनकर निश्चल रहे ।
कई बार चापलूसी और प्रशंसा व्यक्ति का स्वभाव और आचरण ही बदल डालते हैं । जिसके फलस्वरूप मनुष्य अपने नैसर्गिक स्वभाव और गुणों को भूलकर अहंकार के मद में चूर हो गलत मार्ग पर चल पड़ता है । इसलिए जीवन में सफलता पाने हेतु यह आवश्यक है कि मनुष्य निंदा, आलोचना एवं प्रशंसा से प्रभावित न हो । 
सत्य ही तो है कि आलोचना को अपमान के रूप में नहीं अपितु व्यक्तित्व निखारने के रूप में शिक्षा की भांति स्वीकार किया जाये तो अवश्य ही होते हैं ... "संस्कार -बुलंद"

रविवार, 15 जून 2014

= १८९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू कहै, जे कुछ दिया हमको, सो सब तुम ही लेहु । 
तुम बिन मन मानै नहीं, दरस आपणां देहु ॥४२॥ 
दूजा कुछ मांगै नहीं, हमको दे दीदार । 
तूं है तब लग एक टग, दादू के दिलदार ॥४३॥ 
हे कृपामय प्रभु ! आपने जो कुछ लौकिक विभूति कहिए, ऐश्वर्य हमें दे रखा है, उसको वापिस ही ले लीजिए, क्योंकि आपके वियोग में सांसारिक पदार्थ हमको दु:खरूप प्रतीत होते हैं। इसलिए हम विरहीजनों को तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए। 
हे प्रभु ! हम आपसे और किसी पदार्थ की भी इच्छा नहीं करते हैं। हमें तो केवल आपका दर्शन ही चाहिए । हे प्यारे ! दिल की जानने वाले दिलदार ! जब तक इस पंच भौतिक शरीर पर आपकी कृपा है, तब तक यह जीवात्मा आपकी भक्ति में ही लयलीन रहे(यही प्रेम है) ॥४२-४३॥ 
(श्री दादूवाणी~विरह का अंग)

= १८८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
कोटि बर्ष लौं राखिये, बंसा चन्दन पास ।
दादू गुण लिये रहै, कदे न लागै बास ॥
कोटि वर्ष लौं राखिये, पत्थर पानी मांहि । 
दादू आडा अंग है, भीतर भेदै नांहि ॥
कोटि वर्ष लौं राखिये, लोहा पारस संग ।
दादू रोम का अन्तरा, पलटै नांही अंग ॥
कोटि वर्ष लौं राखिये, जीव ब्रह्म संग दोइ ।
दादू मांहीं वासना, कदे न मेला होइ ॥
-------------------------------------- 
साभार : Gita Press, Gorakhpur

वास्तव में प्रेम के आस्पद तो एक भगवान् ही है | महात्माओं में प्रेम की अपेक्षा श्रद्धा आवश्यक है | ईश्वर में प्रेम-श्रद्धा दोनों की आवश्यकता है; क्योंकि ईश्वर का स्वरुप अलौकिक, दिव्य, चेतन हैं; महात्माओं का शरीर जड है, भौतिक है | ईश्वर के स्वरुप में तो प्रेम होने और उसके दर्शन होने से कल्याण हो जाता है, पर महात्मा के शरीरमात्र में प्रेम होनेसे मुक्ति नहीं हो सकती | महात्मा में श्रद्धा होनी चाहिए | श्रद्धा का रूप क्या है ? महात्मा जो कहें उसका पालन करे, वही श्रद्धा है |....असली महात्मा लोग सेवा-पूजा नहीं कराते हैं | वे आराम तथा मान-बड़ाई से दूर रहते हैं | 
.
भगवान् के तो स्वरुप, लीला, धाम,नाम, गुण किसी में भी प्रेम होने से उद्धार हो जाता है, अतः भगवान् प्रेम करने के योग्य हैं | भगवान् के सिवा संसार, शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, घर, मान, बड़ाई आदि में जो आसक्ति है, वही खतरे की चीज है | शास्त्र में, परलोक में, महात्मा में, परमात्मा में सबमें श्रद्धा करनी चाहिए | श्रद्धा के सब पात्र हैं, पर प्रेम करने योग्य तो केवल परमात्मा ही हैं | संसार के सब प्राणियों से उनके हित के लिए जो निष्काम प्रेम है, वह भगवान् में ही है | 
.
महात्मा के पास अगर पचास वर्ष रहें और उनकी आज्ञा का पालन न करें तो कल्याण नहीं हो सकता | उनका अनुकरण और उनकी आज्ञा का पालन दोनों कल्याणकारी है |.......अभिप्राय यह है कि महात्मा पुरुष के द्वारा कहे वचनों को सुनकर जो उनके अनुसार साधन करते हैं, पालन करते हैं, वे दत्तचित्त, श्रुतिपरायण पुरुष संसार-सागर को तर जाते हैं |....सुनने के परायण होना क्या है?....महात्मा जो बताएं, उसे सुनने में मन लगा दे, फिर उसे समझे और तदनुसार आचरण करे | 

- Jaydayalji Goyandka - Sethji

शनिवार, 14 जून 2014

= १८७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
काहे को दुख दीजिये, सॉंई है सब मांहि ।
दादू एकै आत्मा, दूजा कोई नांहि ॥
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥
दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥
आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।
दादू सब संतोषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥
----------------------------------------- 
साभार : Pradyumn Singh Chouhan

"एक घटना, विचार और अनुभूति" .... लेखन -प्रद्युम्न सिंह चौहान 

उन दिनों की बात है जब कालेज में पढता था और कालेज जाने के लिए सुबह-सुबह बस के लिए जल्दी होती थी । ऐसे ही एक दिन सुबह जब कालेज जा रहा था तब रास्ते में एक सब्जी वाला दिखाई दिया । मेरी आत्मा ने कहा मुझसे इससे कुछ भाजी लेकर आगे जो गौ मिलेगी उसे खिला देना।उस दिन आत्मा की आवाज सुनकर सब्जी वाले से पालक खरीदने गया ।सब्जियां भी सस्ती थी पाँच रुपये की काफी पालक आ गई थी, लेकिन जब पालक वह तौल रहा था तब उससे यह बात भी हो गई थी कि यह पालक गौ को खिलाऊँगा । 
फिर वह जब पालक देने लगा तो उसने पालक के साथ और भी पालक दे दी। मैंने कहा भैया यह तो मेरे पाँच रुपये की पालक से ज्यादा है ! तभी उसने कहा आप भी तो गाय को खिलायेंगे तो मैं भी तो पुण्य का भागी बनूं इसमें । इसलिए मैंने इसमें और भी पालक डाल दी है। … 
मैं सोच रहा था सामान्य जीवन जीने वाले और दूसरे लोगों की नजर में हेय की नजर से देखे जाने वाले लोगो में भी आत्मीयता और अच्छे विचार इतने उच्च हो जाते हैं ।अब वह बात याद आती है दिमाग में तो सोचने में आता है उसी कालोनी में जिसमें मैं रहता था, वहाँ मल्टियों और बंगलो में रहने वाले लोग जो पढ़े लिखे कहे जाते हैं, वे घर की बनी बासी रोटियाँ रोड किनारे, या फिर कुछ निम्न सोच वाले तो रोड पर ही डाल देते थे उन रोटियों को जो लोगो के पैरो में आती है। 
यानि जिनके पास भगवान ने दिया है वह निम्न है लेकिन जिनके पास सीमित है वह उस सीमित में से भी कुछ अच्छा कर लेते हैं । जैसे उस सब्जी वाले बन्धु ने किया इसलिए जीवन में सभी तरह के लोगों से मिलता हूँ कोई भेद नहीं रखता हूँ कि कौन छोटा कौन बड़ा है क्योकि हमारा परमात्मा भी किसी से कोई भेद नहीं करता है । 
जय माँ भारती ……… जय भारत वर्ष -प्रद्युम्न सिंह चौहान

= १८६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
पंडित, राम मिलै सो कीजे । 
पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, सोई तत्त्व कह दीजे ॥टेक॥ 
आतम रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा । 
परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटै सब संसारा ॥१॥ 
ए गुण इन्द्री अग्नि अपारा, ता सन जलै शरीरा । 
तन मन शीतल होइ सदा सुख, सो जल नहाओ नीरा ॥२॥
सोई मार्ग हमहिं बताओ, जेहि पंथ पहुँचे पारा । 
भूलि न परै उलट नहीं आवै, सो कुछ करहु विचारा ॥३॥ 
गुरु उपदेश देहु कर दीपक, तिमिर मिटे सब सूझे । 
दादू सोई पंडित ज्ञाता, राम मिलन की बूझे ॥४॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! जिस मार्ग से राम की प्राप्ति होवे, उसी मार्ग पर चलने का काम करना चाहिये । इसलिये शरीरधारी को, राम - नाम का स्मरण, निष्काम भाव से करने से ही राम प्राप्ति होती है । वेद और पुराणों का प्रवचन करने से ही राम की प्राप्ति नहीं होती । वेद पुराण लक्षणा वृत्ति द्वारा, जिस तत्व को बतलाते हैं, उसी चैतन्य तत्व को, अपने मन को उपदेश करके, ग्रहण करिये । 
यह जीवात्मा जन्म - मरण रूपी व्याधियों से अति रोगी रहता है । इसलिये वह चैतन्य सबका सार रूप परमेश्वर है । उसका नाम - स्मरण रूप औषधि करनी चाहिये । जिससे यह प्राणधारी उस राम का स्पर्श करके परम सुख को प्राप्त होवे, तभी सम्पूर्ण संसार से छुटकारा होता है । इन इन्द्रियों के शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, गुण रूप अपार अग्नि में शरीर सदैव जलता रहता है । 
हे भाई ! अब उसी निष्काम नाम - स्मरण रूप जल से स्नान करो, जिससे तन और मन, शीतलता को प्राप्त होकर सदा सुख की अनुभूति करे । इसके सिवाय और दूसरी कोई साधना है तो मुक्तपुरुष कहते हैं कि वह हमें बताओ, जिस मार्ग से चलकर संसार से पार, परमेश्वर को प्राप्त हो जावें । परन्तु यह जीव मायिक सुखों में उस परमेश्वर को भूल जाता है । फिर वापिस संसार में न आवें, उस मार्ग का विचार करो, वह कौन सा मार्ग है ? 
वह तो केवल गुरु का ज्ञान उपदेश रूप दीपक, बुद्धिरूप हाथ में लेकर, अन्तःकरण में अन्तर्मुख आने से ही, अज्ञानरूप तिमिर=अन्धकार नष्ट होता है, तब सत्य - मिथ्या का स्वरूप जैसा है, वैसा प्रतीत होने लगता है । मुक्त पुरुष कहते हैं कि वही शरीरधारी पंडित वेद - पुराणों को पढ़ने वाला श्रेष्ठ है, जो राम के मिलने के मार्ग को अन्तर्मुख वृत्ति से समझता है ।
जगजीवन जी बैल लदि, आये चरचा काज । 
गुरु दादू यह पद कह्यो, सब तज सिष्य सिरताज ॥१९३॥ 
दृष्टान्त ~ जगजीवन जी पंडित, कई विद्यार्थियों को साथ लिये, पुस्तकों की बालद भरके, कासी से दिग्विजय करने को चले । जहॉं तहॉं शास्त्रार्थ में पंडितों को जीतते हुए’ उनसे जीत के पत्र प्राप्त करते - करते आमेर आ पहुँचे । 
वहॉं के सम्पूर्ण विद्वानों को, इन्होंने शास्त्रार्थ में जीत लिया और उनसे अपनी जीत का पत्र मॉंगा । तब वे सब ब्रह्मऋषि जगतगुरु दादूदयाल महाराज के पास गये और नमस्कार किया तथा उपरोक्त सब बात सुनाई और बोले ~ ‘‘हमारी लाज आप बचाइये और आमावती नगर की शोभा बढ़ाइये ।’’ परमगुरुदेव बोले ‘‘आप खास दरबार में पंडित जी को राजा के समक्ष बुलाओ ।’’ दिन निश्चय कर लिया । 
उस रोज राजा मानसिंह के आमखास दरबार में ब्रह्मऋषि पधारे । राजा के सहित सभी दरबारियों ने सतगुरु को नमस्कार करके चरण स्पर्श किये और आसन पर पधराये । सम्पूर्ण विद्वानों की सभा लगी । फिर महाराज का आदेश पाकर पंडित जी को लेने गये । जगजीवनराम जी को आमेर के पंडित बोले कि आज आप हमारे गुरुदेव को शास्त्रार्थ में जीत लीजिये । तो हम आपको जीत का पत्र लिख देंगे । 
यह सुनकर पंडित जगजीवनराम जी ब्राह्मणों के साथ, दरबार की ओर चले । जब दूर से गुरुदेव ने पंडित जी की तरफ देखा और पंडित जी ने भी गुरुदेव के दर्शन किये, तो पंडित जी ने अन्तःकरण में ‘‘अपना कल्याण करूँ ।’’ यह सोचकर तत्काल गुरुदेव के चरणों में आकर साष्टांग प्रणाम किया । और हाथ जोड़कर गद्गद् कंठ से विनती की, कि सूते हुए जीव को अपनी दया करके जगाइये । 
तब परमगुरुदेव उपरोक्त शब्द से इनको उपदेश किया और वह सम्पूर्ण सम्पत्ति जो जीत कर लाये थे, पुस्तकों के सहित, सब गुरुदेव के भेंट कर दी । ब्रह्मऋषि ने वह सम्पूर्ण विभूति वहॉं के ब्राह्मणों को बँटवा दी और विद्यार्थियों को वापिस काशी जाने का आदेश दिया, पंडित जगजीवनराम जी ने । आप ब्रह्मऋषि के श्री चरणों में निवास करके जीवन - मुक्त हो गए । सभा में जय - जयकार की ध्वनि गूंज उठी । 
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साभार : Suresh Aggarwal

शुभ संन्धया काल दोस्तों, ღ जय श्री कृष्णा !! ღ 
मैं जाण्यूं पढिबौ भलो, पढ़बा थैं भलौ जोग । 
राम-नाम सूं प्रीति करि, भल भल नींदौ लोग ॥३॥ 
भावार्थ - पहले मैं समझता था कि पोथियों का पढ़ना बड़ा अच्छा है, फिर सोचा कि पढ़ने से योग-साधन कहीं अच्छा है । पर अब तो इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि रामनाम से ही सच्ची प्रीति की जाय, भले ही अच्छे-अच्छे लोग मेरी निन्दा करें । भक्त कबीर जी...

शुक्रवार, 13 जून 2014

= १८५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाण ।
राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परवाण ॥
पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ ।
चतुर्दशी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥ 
दादू नीका नांव है, तीन लोक तत सार ।
रात दिवस रटबो करो, रे मन इहै विचार ॥ 
दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि ।
मूरति मन मांहैं बसै, सांसैं सांस संभारि ॥ 
सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ ।
सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥ 
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साभार ~ My Lord ! I'm Yours and only yours(नाथ मैँ थारो जी थारो !!)
बहुत से लोग कहते हैँ- तुम नाम जपते हो तो मन लगता है कि नहीँ ? अगर मन नहीं लगता तो नाम जपने का कोइ फायदा नहीँ- ऎसा कहने वाले वे भाइ भोले हैँ, वे भूल मेँ है ! वे कुछ नहीं जानते क्योँकि उन्होने कभी नाम जप किया ही नहीँ ! पहले मन लगेगा फिर रामनाम जाप करेँगे ऎसा कभी हुआ है क्या और क्या कभी ऎसा होगा ? ऎसी सम्भावना भी है क्या ? पहले मन लग जाए पीछे राम-राम करेँगे-ऎसा होता ही नहीँ ! रामनाम जपते जपते ही नाम महाराज की कृपा से मन लगने लगेगा...
हरि से लागा रहो भाइ ! 
तेरे बिगडी बात बन जाइ, 
रामजी से लागा रहो भाइ !! 
इसलिए नाम-महाराज की शरण लेनी चाहिये ! जीभ से ही राम-राम-राम शुरू कर दो मनकी परवाह न करो ! परवाह न करो का मतलब यह नहीं है कि मन लगाओ ही नहीँ ! इसका अर्थ यह है कि हमारा मन नहीँ लगा इससे घबराओ मत कि हमारा जप नहीं हुआ ! यह बात नहीं है ! जप तो हो ही गया, जपते जाओ ! 
रामजी ने कृपा करके अपने नाम 'राम' मेँ अपनी पूरी शक्ति रखदी है और इसमेँ विलक्षणता यह है कि इसके जपने मेँ कोइ समय नहीं बाँधा गया है राम नाम को सुबह, शाम, दोपहर, रात्री-हर समय ले सकते हैँ ! कइ लोग कहते हैँ क्या करेँ हमारे नाम लेना लिखा ही नहीँ तो सज्जनोँ ! अभी नाम जप करके नाम लिखा लो, इसमे देरी का कोइ काम नहीं है ! 
इसका दफ्तर हर समय खुला है दिन मेँ, रात्री मेँ, सुबह मेँ, शाम मेँ, सम्पत्ति मेँ, विपत्ति मेँ, सुख मेँ, दुख मेँ, आप रामनाम लो अभी लिखा जाएगा ! और रामनाम की पूँजी हो जाएगी ! अब रामनाम को भूल ना जाएँ इसका ख्याल रखो ! इसके लिये उपाय है कि मन ही मन भगवान को प्रणाम करके उनसे यह प्रार्थना करेँ- हे नाथ ! मै आपको भूलूँ नहीँ, हे रामजी ! मै आपको भूलूँ नहीँ, हे प्रभो ! मै आपको भूलूँ नहीँ ! ऎसा मिनट मिनट आधे आधे मिनट मेँ आप कहते रहो! नीँद खुले तब से लेकर गाढी नीँद न आ जाए तब तक हे नाथ ! मै आपको भूलूँ नहीं ! ऎसा कहते रहो ! राम राम राम राम कहते हुए साथ मेँ कह देँ- हे नाथ मै आपको भूलूँ नहीँ...
राम राम राम राम राम राम हे राम मै आपको भूलूँ नहीं, राम राम राम राम
भगवान से ऎसी प्रार्थना करते रहो तो भगवान की कृपा से यह भूल मिट जाएगी फिर अखण्ड भजन होगा अखण्ड ! 'ताली लागी नाम से और पड्यो समँद से सीर' रामनाम की धुन लग जाएगी ! फिर आपको कोइ उद्योग नहीं करना पड़ेगा स्वत: ही भगवान की कृपा से भजन चलेगा ! परन्तु आप पहले रामनाम लेना आरम्भ तो करो...
राम राम राम
- स्वामी रामसुखदास जी

गुरुवार, 12 जून 2014

= १८४ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
जब हम ऊजड़ चालते, तब कहते मारग मांहि । 
दादू पहुंचे पंथ चल, कहैं यहु मारग नांहि ॥ 
पहले हम सब कुछ किया, भरम करम संसार । 
दादू अनुभव उपजी, राते सिरजनहार ॥ 
दादू अनुभव उपजी गुणमयी, गुण ही पै ले जाइ । 
गुण ही सौं गहि बंधिया, छूटै कौन उपाइ ॥ 
सोई अनुभव सोई ऊपजी, सोई शब्द तव सार । 
सुनतां ही साहिब मिले, मन के जाहिं विकार ॥ 
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साभार : Rp Tripathi
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**विचारों के मोती :: Pearls pearls of Wisdom** 
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"आप सत्य की खोज करें, सत्य स्वतः ही आपको, मोक्ष तक पहुंचा देगा" ..!! भावार्थ :-- हम सिर्फ सत्य की खोज करें, फिर सत्य स्वयं ही हमें, जीवन की सम्पूर्ण समस्याओं से, मुक्ति दिला देगा ..!! 

सत्य क्या है ..? 
सत्य वह है, जो समय से भी अधिक, बलशाली है ..!! अर्थात, समय के बदलने(भूत-वर्त्तमान-भविष्य) से, वह नहीं बदलता ..!! 

और वह हम, स्वयं हैं, 
एक आत्मा (दृष्टा/साक्षी) के रूप में ..!! अर्थात हम सिर्फ अपनी, पहचान सुधार लें, परम सत्य ( परमात्मा ) से हमारी पहचान, स्वतः ही हो जायेगी ..!! संत कबीर के शब्दों में :-- 
साँच बराबर तप नहीं, झूँठ बराबर पाप; 
जाके ह्रदय साँच है, ताके हृदय आप ..!! 
अपने आपको, आत्मा या दृष्टा/साक्षी, समझने से बड़ी कोई तपस्या अर्थात पुण्य नहीं है, और अपने आपको, शरीर समझने से बड़ा कोई झूँठ अर्थात, पाप नहीं है ..!! 

और जिसके मन में, 
मैं आत्मा अर्थात दृष्टा/साक्षी हूँ, ऐसा भाव है, उसके ह्रदय में, सदैव परमात्मा का निवास होता है ..!!
"You find the Truth, the Truth will lead you to Salvation" ..!! Meaning -- Let's concentrate our all efforts to find the Truth, the Truth then will remove, all problems from our lives ..!! 

What is Truth ..? 
Truth is that, which is More Powerful than the Time ..!! With change in time(Past-present-future), it remains Un-changed ..!! 

And that is We, 
In the form of a Soul, the Observer ..!! So, by Correcting our Identification, the Doors of the Kingdom of God gets Open in Automation ...!! In the words of Sant Kabeer :--- 
Saanch barabar Tap nahin, Jhooth barabar Paap; 
Jake Hriday Saanch hai, Take Hriday Aap ......... !! 
No Meditation is bigger than the realisation of the Truth, that .. I am the Soul(Observer) .. !! And no Vice is bigger than a Lie, that .. I am a Body ...!! 

And the one, 
who has this Truth in his/her Mind, Owns The Divine(Super-Soul/God/Almighty) in his/her Heart ..!! 

********ॐ कृष्णम वंदे जगत-गुरुम********

= १८३ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
रतन एक बहु पारिखू, सब मिल करैं विचार । 
गूंगे गहिले बावरे, दादू वार न पार ॥ 
केते पारिख जौहरी, पंडित ज्ञाता ध्यान । 
जाण्या जाइ न जाणिए, का कहि कथिये ज्ञान ॥ 
केते पारिख पच मुये, कीमत कही न जाइ । 
दादू सब हैरान हैं, गूँगे का गुड़ खाइ ॥ 
‘पाया पाया’ सब कहैं, केतक ‘देहुँ दिखाइ’ ।
कीमत किनहूँ ना कही, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥
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साभार : Vipin Tyagi
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प्रश्न : क्या परमात्मा एक है या अनेक ? 
उत्तर: वह आदि शक्ति एक है | अनंत है और अविनाशी है | इसका क्या प्रमाण है कि यह शक्ति एक है और यह ब्रह्माण्ड एक से अधिक शक्तियों के टकराने से नहीं बना ? अगर धर्म ग्रंथों की बात लें तो सभी धर्म-ग्रंथों ने इसकी पुष्टि की है | यजुर्वेद कहता है: 
उस परमेश्वर ने सारे संसार को पैदा किया है | (यजुर्वेद २९:९) 
वही एक हम सब का स्वामी है | (यजुर्वेद १३:४)
वह अकेला ही इस सृष्टि को पैदा या नाश करने वाला है | (श्वेताश्वर उपनिषद, २-३) 
उस परमात्मा की प्रशँसा करो जिसने सारी दुनिया बनायी है | (श्रग्वेद ८: ५८: ३) 
वही सम्पूर्ण जगत का पिता तथा सबके रचने वाला है | (गीता ११:४३) 
हे अर्जुन ! जो सारी हस्तियों की उत्पत्ति का मूल है वह मैं ही हूँ | जो स्थावर और जंगम है, वे मेरे बगैर नहीं | (गीता १०:३९)
मैं ही सबका स्वामी हूँ तथा यह संसार का व्यवहार मेरे से ही चलता है | यह समझ कर बुद्धिमान लोग प्रेम सहित मुझे स्मरण करते हैं | (गीता १०:८) 
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एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर है || 
(गुरु अर्जुन देव - आदि ग्रन्थ, प्र. १३४९) 
अवलि अलह नूर उपाइया कुदरति के सभ बन्दे || 
एक नूर से सभु जग उपजिया कउन भले को मंदे || 
(कबीर साहिब - आदि ग्रन्थ, प्र. १३४९) 
जैसे एक आग ते कनूका कोट आग उठे निआरे निआरे हुइ कै फेरि आग मै मिलाहिंगे ॥ 
जैसे इक नद ते तंरग कोट उपजत हैं पान के तंरग सबै पान ही कहाहिंगे ॥ 
तैसे बिस्व रुप ते अभूत भूत प्रगट हुइ ताही ते उपज सबै ताही मै समाहिंगे ॥१७॥८७॥ (Guru Govind Sahib, Dasam Granth, Page 51) 
(Just as millions of sparks are created from the fire; although they are different entities, they merge in the same fire. Just as from of waves are created on the surface of the big rivers and all the waves are called water. Similarly the animate and inanimate objects come out of the Supreme Lord; having been created from the same Lord, they merge in the same Lord. 17.87.) 
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आदि में शब्द था और शब्द परमात्मा था / वह पहले परमात्मा के साथ था, सब चीज़ें उसने बनाई, कोई भी चीज़ उसके बगैर प्रकट नहीं हुई | (बाइबल, सेंट जोन १:१:१३) 
तू, हाँ तू ही, एकमात्र परमात्मा है, तुने ही आसमान, आसमानों के आसमान, तथा उनकी आबादी ज़मीन और समुन्द्र और जो कुछ उनके अन्दर है, सबको बनाया है | तू सबका पालन करता है | ये सब आसमां अदि तेरी पूजा कर रहे हैं | (नहे मिआह ९:६) 
उसी मालिके कुल ने सब जानदार इस दुनिया में फैलाए हैं | 
(कुरान शरीफ, सूरत बकर, ३० वीं रकूह) 
लोइण लोई डिठ पिआस न बुझै मू घणी ॥ 
नानक से अखड़ीआ बिअंनि जिनी डिसंदो मा पिरी ॥३॥ (SGGS 1100) 
With my eyes, I have seen this world; my great thirst for Him is not quenched. O Nanak, these are not the eyes which can see my Beloved Husband Lord. ||3|| 
हमारा मालिक एक ही है, हम सब उसके पुत्र हैं, इसलिए हम सब भाई, भाई हैं | चमड़े की आँख इसको नहीं देख सकती है | जिनसे मालिक दिखाई देता है वह आँखे और है, हमें उसके दर्शन के लिए वे आँखे खोलनी चाहिये: 
सैकड़ों आशिक हैं दिल-आराम सब का एक है, 
मजहबों-मिल्लत जुदा है काम सब का एक है | 
सारे मजहबों की धर्म-पुस्तकों में जहाँ भी उल्लेख हुआ है, उसको किसी एक जाति, धर्म या देश का नहीं , बल्कि 'रब्बुल -आलमीन (वो रब जो पुरे आलम का है), 'परमेश्वर', '१-ओ' कह कर बयान किया गया है | उस मालिक से ही सब कुछ प्रकट हुआ है और वह सबमें व्यापक है | 
ब्रह्दारन्यक उपनिषद में कहा है कि वास्तविक तत्व(हकीकत) न तो नाम और रूप के ज्ञान की तरह विद्धायों की पकड़ में आ सकता है और न ही इसका वर्णन किया जा सकता है | जिस तरह रेत से तेल निकालना और शराब से प्यास बुझाना असम्भव है, उसी तरह ब्रह्म को विद्धया द्वारा समझने की कल्पना करना व्यर्थ है | इस उपनिषद में एक छोटा सा विचार करने योग्य, सूत्र आया है - 'नेति-नेति' - जिसे चार बार दोहराया गया है | इसका अभिप्राय यह है कि जो कुछ वर्णन किया गया है वह ब्रह्म नहीं है, यानी नाम और रूप के परे जो हस्ती है, वो ब्रह्म है | वह निर्गुण और अकथनीय होने के कारण इस आँखों का विषय नहीं है और मन और वाणी की उस तक रसाई (पहुँच) नहीं है | गुरु साहिब भी फरमाते है कि वह मालिक सोच-विचार की सीमा में नहीं आ सकता है, 'सोचै सोचि न होवई जे सोची लाख वार' (आदि ग्रन्थ, प्र.१ ) 
यह अनन्त सृष्टि और ब्रह्माण्ड हमारी आँखों के सामने है | इसके पीछे एक अकथनीय शक्ति मौजूद है जो सारे कार्यक्रम को चला रही है | जो लोग नास्तिक हैं और धर्मों की सच्चाई को स्वीकार नहीं करते और कहते हैं कि ईश्वर की प्रकृति और स्वरुप को मनुष्य नहीं जान सकता, वे भी इस महान शक्ति के अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते | प्रसिद्द दार्शनिक, हरबर्ट स्पैंसर इस निर्णय पर पहुंचा था, "हकीकत न किसी को मालूम है, न हो सकती है |" वह केवल बुद्धि और विचार द्वारा हकीकत तक पहुँचना चाहता था, पर हकीकत तो मन और इन्द्रियों से परे है, इसलिए उसका यह निष्कर्ष कि हकीकत बुद्धि या तर्क से नहीं जानी जा सकती है, अनिवार्य था | संसार की हर वस्तु के साथ तर्क चल सकता है, पर आत्मिक मंडलों पर गति प्राप्त करने के लिए यह बिलकुल व्यर्थ है | लेकिन स्पैंसर को आखिर इस हकीकत को मानना पडा और उसने 'नाईंटीन्थ सेंचुरी' नामक मासिक पत्र के जनवरी, सन १८८४ के अंक में एक लेख में संसार के आदि-कारण के बारे में इस प्रकार कहा है, "इस दुनिया में एक अविनाशी और अनन्त शक्ति मौजूद है, जिससे हर एक वस्तु प्रकट हुई है |" 
जर्मन दार्शनिक कांट ने विवश होकर न जानी जा सकने वाली हकीकत पर विचार करना ही छोड़ दिया | जान स्टुअर्ट मिल ने भी अपनी पुस्तक, 'थ्री एसेज़ ऑन रिलिजन, में लिखा है कि आदि-कारण के बारे में जो अनुभव बताता है और 'कारण' शब्द का जो अर्थ हमने समझा है, यह वही है कि सब कारणों में जो आदि और व्यापक तत्व मौजूद है, वह उस शक्ति के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है | इस विद्धानों का यही मत है कि एक अकथनीय शक्ति अनन्त और अविनाशी है |