सोमवार, 27 अप्रैल 2015

॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२०१. चौताल ~
चलो मन माहरा, जहाँ मित्र अम्हारा ।
तहँ जामण मरण नहिं जाणिये, नहिं जाणिये ॥ टेक ॥ 
मोह न माया, मेरा न तेरा, आवागमन नहीं जम फेरा ॥ १ ॥ 
पिंड पड़ै नहीं प्राण न छूटै, काल न लागै आयु न खूटै ॥ २ ॥ 
अमर लोक तहँ अखिल शरीरा, व्याधि विकार न व्यापै पीरा ॥ ३ ॥ 
राम राज कोई भिड़ै न भाजै, सुस्थिर रहणा बैठा छाजै ॥ ४ ॥ 
अलख निरंजन और न कोई, मित्र अम्हारा दादू सोई ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें अत्यन्त निर्मल उपदेश करते हैं कि हे हमारे मन ! वहाँ चल, जहाँ हमारा मित्र परमेश्‍वर है । मैं तुझे बारबार समझाता हूँकि वहाँ जाने वाला जन्म - मरण आदि क्लेश को कोई जानता ही नहीं है । वहाँ माया, माया का कार्य मोह, मेरा - तेरा, जन्मना - मरना, यमराज के द्वारा नरक में जाना, वहाँ नहीं है । शरीर गिरता नहीं, और शरीर से प्राण नहीं निकलते हैं । वहाँ पर फिर काल का कोई भी जोर नहीं चलता है तथा न आयु समाप्त होती है । वह अमर लोक है । उस जगह सम्पूर्ण शरीरों को कभी रोग - जन्य पीड़ा नहीं व्यापती है । वहाँ उस निरंजन राम के राज्य में “कोई भिड़ै न भाजै” अर्थात् न तो वहाँ कोई किसी के साथ युद्ध करता है और न कायरता से कोई भागता ही है । वहाँ तो सम्यक् रूप से बैठे हुए ही सुशोभित होते हैं, अर्थात् ब्रह्मभाव ही बना रहता है । ऐसा तो अलख, मन वाणी का अविषय निरंजन राम ही का स्वरूप है । उसमें किसी प्रकार का कोई दुनियावी देश नहीं है और मुक्त पुरुषों का परम श्रेष्ठ मित्र भी वही है ।
छन्द ~
तो सो न कपूत कोऊ, कित हू न देखियत, 
तो सो न सपूत कोऊ, देखिये न और है ॥ 
तूही आप भूल महा, नीच हूँ तैं नीच होइ, 
तूही आप जानै तो, सकल सिरमौर है ॥ 
तूही आप भ्रमै तब, जगत भ्रमत देखै, 
तेरे स्थित भये सब, ठौर ही को ठौर है ॥ 
तूही जीव रूप, तूँ ही ब्रह्म है आकाशवत, 
सुन्दर कहत मन, तेरी सब दौर है ॥ २०१ ॥ 

Go to the immortal grove, O mind,
where the Saint of the highest purity dwells.
In the Saint you shall find the fruit
of the ineffable Name, the Inaccessible
and Unfathomable, the very life breath
and source of sustenance.
The shade of there is cooling and soothing to the body,
and the holy feet of the Saint is the pond
of pure water.
During all the months does that grove bear fruit,
and the fruit is always lovely;
varied are the melodies, sound and light
of the place.
Dwelling there, many have attained immortality.
Go there, O Dadu; therein lies wisdom.
(English translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic" 
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

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