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रविवार, 23 अप्रैल 2017

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
निशिवासर मोहन तन मेरे, चरण कँवल मन जानै ।
निधि निरख देख सचु पाऊँ, दादू और न जानै ॥ 
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*कण-कण में भगवान*
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एक धार्मिक व्यक्ति था, भगवान में उसकी बड़ी श्रद्धा थी। उसने मन ही मन प्रभु की एक तस्वीर बना रखी थी। 
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एक दिन भक्ति से भरकर उसने भगवान से कहा-‘भगवान मुझसे बात करो।’ और एक बुलबुल चहकने लगी। लेकिन उस आदमी ने नहीं सुना... इसलिए इस बार वह जोर से चिल्लाया, ‘भगवान मुझसे कुछ बोलो’ तो और आकाश में अन्य घटाएं उमडनेमडने लगीं, बादलों की गडगड़ाहट होने लगी...। लेकिन आदमी ने कुछ नहीं सुना। 
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उसने चारों तरफ निहारा, ऊपर-नीचे सब तरफ देखा और बोला, ‘भगवान मेरे सामने तो आओ’ और बादलों में छिपा सूरज चमकने लगा पर उसने देखा ही नहीं। आखिरकार वह आदमी गला फाड़कर चीखने लगा - ‘भगवान मुझे कोई चमत्कार दिखाओ’ तभी एक शिशु का जन्म हुआ और उसका प्रथम रुदन गूंजने लगा...। 
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किन्तु उस आदमी ने ध्यान नहीं दिया। अब तो वह व्यक्ति रोने लगा और भगवान से याचना करने लगा- ‘भगवान मुझे स्पर्श करो पता तो चले तुम यहां हो, मेरे पास हो, मेरे साथ हो’ और एक तितली उड़ते हुए आकर उसकी हथेली पर बैठ गई... लेकिन उसने तितली को उड़ा दिया...। और उदास मन से आगे चला गया। भगवान इतने सारे रूपों में उसके सामने आये, इतने सारे ढंग से उससे बात की पर उस आदमी ने पहचाना ही नहीं। शायद उसके मन में प्रभु की तस्वीर ही नहीं थी। 
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हम यह तो कहते हैं कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में है, लेकिन हम उसे किसी और रूप में देखना चाहते हैं... इसलिए उसे कहीं देख ही नहीं पाते। इसे भक्ति में दुराग्रह भी कहते हैं। भगवान अपने तरीके से आना चाहते हैं, और हम अपने तरीके से देखना चाहते हैं... और बात नहीं बन पाती...!!! 
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बात तभी बनेगी जब हम भगवान को भगवान की आंखों से देखेंगे।
‘ब्लॉग से साभार’

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
सांई सत संतोष दे, भाव भक्ति विश्वास ।
सिदक सबूरी साँच दे, माँगे दादू दास ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

*★★ असंतुष्ट सदा निर्धन है.. !! ★★*
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इपीकुरस से मिलने यूनान का सम्राट गया था। देख कर दंग हुआ। उसने भी सोचा था, यह नास्तिक इपीकुरस ! न ईश्वर को मानता, न आत्मा को मानता, सिर्फ आनंद को मानता है; बिलकुल, निपट नास्तिक है ! तो सोचा था उसने, पता नहीं यह क्या कर रहा होगा। जब वे पहुंचे वहां तो बहुत हैरान हुए। इपीकुरस का बगीचा था जिसमें उसके शिष्य और वह रहता था। सम्राट ने उसे देखा तो वह इतना शांत मालूम पड़ा जैसा कि ईश्वरवादी कोई साधु कभी दिखाई नहीं पड़ा था। वह बहुत खुश हुआ उसके आनंद को देख कर। उनके पास कुछ ज्यादा नहीं था; लेकिन जो भी था वे उसके बीच ऐसे रह रहे थे जैसे सम्राट हों।
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सम्राट ने कहा कि मैं कुछ भेंट भेजना चाहता हूं। डरता था सम्राट - कि इपीकुरस से कहना कि भेंट भेजना चाहता हूं, जो भौतिकवादी, पता नहीं, साम्राज्य ही मांग ले - डरता था। तो उसने कहा, फिर भी उसने कहा कि आप जो कहें, मैं भेज दूं। तो इपीकुरस बड़े सोच में पड़ गया। उसके माथे पर, कहते हैं, पहली दफा चिंता आई। उसने आंखें बंद कर लीं; उसके माथे पर बल पड़ गए। और सम्राट ने कहा कि आप इतने दुखी क्यों हुए जा रहे हैं?
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तो इपीकुरस ने कहा, जरा मुश्किल है, क्योंकि हम भविष्य का कोई विचार नहीं करते। और आप कहते हैं कुछ मांग लो, कुछ आप भेजना चाहते हैं। तो बड़ी मुश्किल में आपने डाल दिया। हमारे पास जो है हम उसमें आनंद लेते हैं, और जो हमारे पास नहीं है उसका हम विचार नहीं करते। अब इसमें मुझे विचार करना पड़ेगा, जो मेरे पास नहीं है, आपसे मांगने का।
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तो उसने कहा कि एक ही रास्ता है। एक नया-नया आदमी आज ही आश्रम में भरती हुआ है। वह अभी इतना निष्णात नहीं हुआ आनंद में, उससे हम पूछ लें। मगर वह जो नया-नया आश्रम में आया था, इपीकुरस के ही आश्रम में आया था, सोच-समझ कर आया था। उसने भी बहुत सोच-समझ कर यह कहा कि आप ऐसा करें, थोड़ा मक्खन भेज दें; यहां रोटियां बिना मक्खन की हैं।
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सम्राट ने मक्खन भेजा नहीं, वह मक्खन साथ लेकर आया। वह देखना चाहता था कि मक्खन का कैसा स्वागत होता है। उस दिन आश्रम में ऐसा था जैसे स्वर्ग उतर आया हो। वे सब नाचे, आनंदित हुए; मक्खन रोटी पर था ! वह सम्राट अपने संस्मरणों में लिखवाया है कि मुझे भरोसा नहीं आता कि मैंने जो देखा वह सत्य था या स्वप्न। क्योंकि मेरे पास सब कुछ है और मैं इतना आनंदित नहीं हूं और उस रात सिर्फ रोटी पर मक्खन था और वे सब इतने आनंदित थे !
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जो है उसमें सुख लेने की कला संतोष है। संतोष का मतलब समझ लें। संतोष कोई अपने आपको समझा लेना नहीं है, कोई कंसोलेशन नहीं है, कि अपने मन को समझा लिया कि नहीं है अपने पास तो अब उसकी क्या मांग करना। जो नहीं है वह नहीं है, जो है इसी में भगवान को धन्यवाद दो। वैसे मन में लगा ही है कि वह होना चाहिए था। क्योंकि जो नहीं है, उसका भी क्या विचार करना? जो नहीं है उसका कोई विचार नहीं, और जो है उसका रस; उस रस में लीन हो जाने से संतोष जन्मता है। और संतोष सुख है, संतोष धन है।
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असंतुष्ट सदा निर्धन है, उसके पास कितना ही हो; क्योंकि वह जो है उसका तो हिसाब ही नहीं रखता, वह तो जो नहीं है उसका हिसाब रखता है। तो असंतुष्ट सदा निर्धन है, क्योंकि अभाव का हिसाब रखता है, वह जो नहीं है उसका हिसाब है। संतुष्ट धनवान है, क्योंकि वह उसका ही हिसाब रखता है जो है। और जो है वह इतना है कि आपने कभी उसका हिसाब नहीं रखा, इसलिए आपको पता नहीं है।
ओशो

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

= १९८ =

卐 सत्यराम सा 卐
मीठे सौं मीठा भया, खारे सौं खारा ।
दादू ऐसा जीव है, यहु रंग हमारा ॥ 
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*कोयले का टुकडा* 

अमित एक मध्यम वर्गीय परिवार का लड़का था। वह बचपन से ही बड़ा आज्ञाकारी और मेहनती छात्र था। लेकिन जब से उसने कॉलेज में दाखिला लिया था उसका व्यवहार बदलने लगा था। अब ना तो वो पहले की तरह मेहनत करता और ना ही अपने माँ-बाप की सुनता। यहाँ तक की वो घर वालों से झूठ बोल कर पैसे भी लेने लगा था। उसका बदला हुआ आचरण सभी के लिए चिंता का विषय था। जब इसकी वजह जानने की कोशिश की गयी तो पता चला कि अमित बुरी संगती में पड़ गया है। कॉलेज में उसके कुछ ऐसे मित्र बन गए हैं जो फिजूलखर्ची करने, सिनेमा देखने और धूम्र-पान करने के आदि हैं।
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पता चलते ही सभी ने अमित को ऐसी दोस्ती छोड़ पढाई-लिखाई पर ध्यान देने को कहा; पर अमित का इन बातों से कोई असर नहीं पड़ता, उसका बस एक ही जवाब होता। “मुझे अच्छे-बुरे की समझ है, मैं भले ही ऐसे लड़को के साथ रहता हूँ पर मुझपर उनका कोई असर नहीं होता…”
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दिन ऐसे ही बीतते गए और धीरे-धीरे परीक्षा के दिन आ गए, अमित ने परीक्षा से ठीक पहले कुछ मेहनत की पर वो पर्याप्त नहीं थी, वह एक विषय में फेल हो गया। हमेशा अच्छे नम्बरों से पास होने वाले अमित के लिए ये किसी जोरदार झटके से कम नहीं था। वह बिलकुल टूट सा गया, अब ना तो वह घर से निकलता और ना ही किसी से बात करता। बस दिन-रात अपने कमरे में पड़े कुछ सोचता रहता। उसकी यह स्थिति देख परिवारजन और भी चिंता में पड़ गए। सभी ने उसे पिछला रिजल्ट भूल आगे से मेहनत करने की सलाह दी पर अमित को तो मानो सांप सूंघ चुका था, फेल होने के दुःख से वो उबर नहीं पा रहा था।
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जब ये बात अमित के पिछले स्कूल के प्रिंसिपल को पता चली तो उन्हें यकीन नहीं हुआ, अमित उनके प्रिय छात्रों में से एक था और उसकी यह स्थिति जान उन्हें बहुत दुःख हुआ, उन्होंने निष्चय किया को वो अमित को इस स्थिति से ज़रूर निकालेंगे। इसी प्रयोजन से उन्होंने एक दिन अमित को अपने घर बुलाया।
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प्रिंसिपल साहब बाहर बैठे अंगीठी ताप रहे थे। अमित उनके बगल में बैठ गया। अमित बिलकुल चुप था, और प्रिंसिपल साहब भी कुछ नहीं बोल रहे थे। दस -पंद्रह मिनट ऐसे ही बीत गए पर किसी ने एक शब्द नहीं कहा। फिर अचानक प्रिंसिपल साहब उठे और चिमटे से कोयले के एक धधकते टुकड़े को निकाल मिटटी में डाल दिया, वह टुकड़ा कुछ देर तो गर्मी देता रहा पर अंततः ठंडा पड़ बुझ गया।
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यह देख अमित कुछ उत्सुक हुआ और बोला, “प्रिंसिपल साहब! आपने उस टुकड़े को मिटटी में क्यों डाल दिया, ऐसे तो वो बेकार हो गया, अगर आप उसे अंगीठी में ही रहने देते तो अन्य टुकड़ों की तरह वो भी गर्मी देने के काम आता !”
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प्रिंसिपल साहब मुस्कुराये और बोले, “बेटा ! कुछ देर अंगीठी में बाहर रहने से वो टुकड़ा बेकार नहीं हुआ, लो मैं उसे दुबारा अंगीठी में डाल देता हूँ….” और ऐसा कहते हुए उन्होंने टुकड़ा अंगीठी में डाल दिया। अंगीठी में जाते ही वह टुकड़ा वापस धधक कर जलने लगा और पुनः गर्मी प्रदान करने लगा।
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“कुछ समझे अमित।”, प्रिंसिपल साहब बोले, “तुम उस कोयले के टुकड़े के समान ही तो हो, पहले जब तुम अच्छी संगती में रहते थे, मेहनत करते थे, माता-पिता का कहना मानते थे तो अच्छे नंबरों से पास होते थे, पर जैस वो टुकड़ा कुछ देर के लिए मिटटी में चला गया और बुझ गया, तुम भी गलत संगती में पड़ गए और परिणामस्वरूप फेल हो गए, पर यहाँ ज़रूरी बात ये है कि एक बार फेल होने से तुम्हारे अंदर के वो सारे गुण समाप्त नहीं हो गए… जैसे कोयले का वो टुकड़ा कुछ देर मिटटी में पड़े होने के बावजूब बेकार नहीं हुआ और अंगीठी में वापस डालने पर धधक कर जल उठा, ठीक उसी तरह तुम भी वापस अच्छी संगती में जाकर, मेहनत कर एक बार फिर मेधावी छात्रों की श्रेणी में आ सकते हो… याद रखो, मनुष्य ईश्वर की बनायीं सर्वश्रेष्ठ कृति है उसके अंदर बड़ी से बड़ी हार को भी जीत में बदलने की ताकत है, उस ताकत को पहचानो, उसकी दी हुई असीम शक्तियों का प्रयोग करो और इस जीवन को सार्थक बनाओ।”
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अमित समझ चुका था कि उसे क्या करना है, वह चुप-चाप उठा, प्रिंसिपल साहब के चरण स्पर्श किये और निकल पड़ा अपना भविष्य बनाने…॥

= १९७ =


卐 सत्यराम सा 卐
सबही मृतक ह्वै रहे, जीवैं कौन उपाइ ।
दादू अमृत रामरस, को साधू सींचे आइ ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta
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*(((((((( भक्त हरिदास यवन ))))))))*
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यशोहर जिले में एक छोटा-सा गांव बूड़न था। इसी गाव में एक गरीब मुस्लिम परिवार रहता था । इसी परिवार में हरिदास खां का जन्म हुआ था । पूर्वजन्म के संस्कार ही थे कि बाल्यकाल से ही हरिदास की श्रद्धा हरि नाम जपने में थी । किशोर होते ही उन्होंने वैराग्य ले लिया । गृहत्याग कर दिया और वनग्राम के समीप जंगल में कुटी बनाकर रहने लगे । वह बड़े ही शांतिप्रिय व धैर्यवान साधु थे। क्षमा उनका गुण था तो निर्भयता उनका आभूषण थी । उनकी आवाज में बड़ा ही माधुर्य था । वो प्रतिदिन तीन लाख हरि नाम का जाप करते थे । जाप भी उच्च आवाज में करते थे ।
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किसी ने जोर-जोर से जाप करने का कारण पूछा । “महाराज ! क्या भगवान को कम सुनाई देता है जो आप इतने उच्च स्वर में जाप करते हैं या अन्य कोई कारण है ?”
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“भक्त ! यह हरिनाम बड़ा ही अलौकिक है । इसका श्रवण मात्र भी प्राणी को इस नरक से मुक्त कर देता है। मैं इसी कारण इसका जाप उच्च स्वर में करता हूं कि इस निर्जन वन में जितने भी जीव-जन्तु हैं वातावरण में कितने ही प्रकार के अदृश्य कीट-पतंगे हैं सब इसका श्रवण करें और भव से पार हो जाए ।” हरिदास जी बोले। उनकी बात से वह व्यक्ति संतुष्ट हो गया ।
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उनकी ख्याति बढ़ती जा रही थी । कितने ही लोग उन्हें अपना आदर्श मान कर भगवद्भक्त हो गए । उनकी ख्याति से कुछ लोग चिढ़ते भी थे जिनमें रामचंद्र खां नाम का एक जमींदार था । उसने उनकी साधना और कीर्ति को नष्ट करने का षड़यंत्र रचा और एक वेश्या को धन का लालच दिया । वेश्या तो धन दीवानी थी ही । उसने तत्काल सहमति दे दी । रूप और सौंदर्य की साक्षात मूर्ति उस वेश्या ने सिंगार किया और रात्रि के समय हरिदास जी की कुटिया में पहुंच गई । 
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वह तो भगवान की आराधना में लीन थे । उनका मनोहर रूप देखकर वेश्या उन पर आसक्त हो गई । एक तो उसका उद्देश्य भी ऐसा ही था दूसरे हरिदास जी की तेजस्वी मुखमुद्रा से उसके मन में ‘काम’ का विकार आ गया । वह निर्लज्ज होकर निर्वस्त्र हो गई और रात-भर उनके साथ कुचेष्टाएं करने का प्रयास करती रही । रात्रि-भर वह वेश्या हरिदास जी की समाधि भंग करने का प्रयास करती रही परंतु सफल न हो सकी । प्रात: काल होने पर उसने अपने वस्त्र पहने और चलने को तैयार हुई । 
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“देवी ! क्षमा चाहता हूं । समाधिस्थ होने के कारण मैं आपसे बातें न कर सका । आप किस प्रयोजन से आई थीं ?” वह मुस्कराकर चली गई । तीन रात लगातार वह अपने प्रयास में विफल रही। वह साधु किंचित मात्र भी अपने तप से नहीं डिगा था जबकि उस वेश्या के कानों में निरंतर हरिनाम की आवाज गूंजने से उसका अंतकरण शुद्ध हो गया था । वह चौथी रात्रि भी आई । हरिदास जी उस वक्त भी पूर्णभाव से भगवद्भजन में लीन थे । इतने लीन थे कि उनकी आखों से अश्रुधारा बह रही थी। वेश्या को आत्मग्लानि हो उठी । 
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‘यह साधारण साधु नहीं हैं ।’ वह सोचने लगी: ‘जो मुझ जैसी परम सुंदरी की उपस्थिति का आभास तक नहीं करता और अपनी ही धुन में लीन रहता है तो निश्चय ही इसे किसी अलौकिक आनंद की प्राप्ति हो रही है । अवश्य ही इसे कोई अन्य ऐसा आनंद प्राप्त है जिसके समक्ष संसार के सब रूप इसे फीके लगते हैं ।’ वेश्या उसे पथभ्रष्ट करने आई थी और स्वयं ही सदमार्ग पर चल पड़ी । वह इच्छाओं पर विजयी चरणों पर गिर पड़ी और अपना अपराध क्षमा करने के लिए अश्रुरत स्वर में याचना करने लगी ।
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“हे पुण्यात्मा ! हे महात्मन् !! मुझ पापिन का उद्धार करो । मेरा अपराध क्षमा करो । मुझे अपनी शरण में ले लो ।” 
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उसके प्रायश्चित-भरे शब्दों से हरिदास जी ने समाधि तोड़ी । “देवी ! मानव जीवन मुक्ति मार्ग का एक मात्र रास्ता है। कोई इसे भोग मानकर जीता है तो कोई योग मानकर । उठो और अपने हृदय में हरिनाम धारण करो । तुम्हारा उद्धार हो जाएगा ।” वेश्या ने तत्काल सच्चे मन से प्रभु का स्मरण किया । 
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उसे हरिदास जी ने दीक्षित करके तपस्विनी बना दिया। उन्होंने उस स्थान को उसे ही सौंपा और स्वयं हरिनाम प्रचार करने चल पड़े। वेश्या उसी कुटिया में हरिनाम गाने लगी । यह साधु संग और हरिनाम श्रवण का प्रताप था कि वही वेश्या आगे चलकर भगवान की परम भक्त बनी । हरिदास जी वहां से चलकर शांतिपुर पहुंचे । शांतिपुर में मुस्लिम शासक था। उस धर्मांध शासक के फतवे से हिंदुओं को अपना धर्माचरण करना कठिन हो रहा था । ऐसे में हरिदास जी मुस्लिम होकर भी हिंदू आचरण करते हरिनाम लेते थे । कुछ मुस्लिम अधिकारियों को यह बात बुरी लगी । उन्होंने बादशाह को यह बात बढ़ा-चढ़ाकर बताई । 
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“बादशाह सलामत ! जबकि नगर में आपके हुक्मनामे से इस्लाम को सर्वव्यापी करने की मुहिम चलाई जा रही है ऐसे में हमारा ही एक मुस्लिम फकीर हिन्दू धर्म के गीत गाता फिर रहा है । इससे हमारी मुहिम पर बुरा असर पड़ता है । उस फकीर को सजा न दी गई तो हिंदू ताकतवर हो जाएंगे । बगावत हो जाएगी ।” 
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बादशाह ने तत्काल हरिदास जी की गिरफ्तारी का हुक्म दिया । उन्हें पकड़ कर जेल में डाल दिया गया । यह खबर आग की तरह हरिदास जी के भक्तों में फैली । सब बड़े दुखी हुए और ऐसे अन्यायी बादशाह की सर्वत्र भर्त्सना होने लगी । इधर हरिदास जी जेल में भी हरिनाम का जाप करते रहे । जेल के अन्य बंदी भी उनके भक्त हो गए । स्थिति काबू से बाहर होती देखकर अधिकारियों ने मुकदमा चलाया । उन्हें अदालत में काजी के सामने लाया गया ।
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“हरिदास ! तुम बड़े भाग्यों से तो मुसलमान के घर में जन्मे फिर भी काफिरों के देवता का नाम लेते हो । उन्हीं जैसा आचरण करते हो । हम तो हिंदू के घर का पानी भी नहीं पीते । यह महापाप तुम न करो । इसके लिए तुम्हें जहनुम्म की आग में झुलसना होगा । अब तुम कलमा पड़ लो तो तुम पाक हो जाओगे ।”
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“हे काजी साहब ! इस संसार का मालिक एक है । उसकी दृष्टि में मानव की अलग-अलग कौम नहीं है । हमने ही उसे बांट रखा है । उसी हरि ने प्रत्येक मानव को यह अधिकार दिया है कि वह चाहे जिस नाम से उसकी आराधना कर सकता है । जब उस अल्लाह भगवान की दृष्टि में मैं अपराधी नहीं हू तो आपके अनुसार मैं कैसे अपराधी हुआ ?”
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“यह अपराध है । इसकी तुम्हें सख्त सजा मिलेगी । या तो तुम कलमा पड़ो या सजा के लिए तैयार रहो ।” काजी गुस्से से बोला । 
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“कोई किसी मानव को धर्म बदलने के लिए बाध्य नहीं करता । यह तो मानव की अपनी दृष्टि होती है कि वह किस दृष्टि से प्रभु के पास जाता है । जो भी सजा दें मुझे मंजूर है परंतु देह के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी हरिनाम छोड़ना स्वीकार नहीं ।” 
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“यह काफिर है। इसे इसके गुनाह के लिए बाइस बाजारों में घुमाया जाए और इसे इतने बेंत लगाए जाएं कि इसकी सांसें इसका साथ छोड़ दें ।” क्रोध में उन्हें सजा सुना दी गई। हुक्म की तामील हुई । हरिदास जी को घुमाते हुए बाजारों में बेंत लगाए जाने लगे । हरिनाम में लीन उन्होंने अपने प्राण को केंद्र में स्थिर कर लिया । बेंतों की मार से उनके मुख से ‘उफ’ तक न निकली । मारने वाले थक गए परंतु पिटने वाला अडिग रहा ।
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चूंकि उन्होंने अपने प्राण केंद्र में स्थिर किए थे इसलिए सिपाहियों ने उन्हें मरा जानकर गंगा में फेंक दिया । परंतु जिसके जीवन की डोरी स्वय जगन्नाथ ने पकड़ी है उसे कौन मार सकता है ? वे भी चेतन होकर जीवित गंगा से निकल आए । अधिकारियों ने जब यह सुना तो भयभीत होकर हरिदास जी के चरण पकड़ लिए और क्षमा याचना करने लगे । साधु तो क्षमाशील होते हैं । 
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इसी समय कृष्ण रूप स्वामी चैतन्य महाप्रभु नवद्वीप में हरिनाम की पावन सुधा बरसा रहे थे । हरिदास जी भी वहीं पहुच गए और महाप्रभु के सानिथ्य में हरिनाम लेते रहे । फिर महाप्रभु की आज्ञा से वे एक अन्य संन्यासी नित्यानंद जी के साथ नगर-भर में हरिकीर्तन करते घूमने लगे । फिर वे पुरी में आ गए और वहीं कुटिया बना कर जीवन पर्यंत रहे । संत हरिदास यवन ने हरिनाम के भक्तों की संख्या असंख्य कर दी थी । कितने ही उनके शिष्य थे । 
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वह उन भगवद्भक्तों में से थे जो अपने साथ-साथ समस्त मानव जाति के उद्धार में प्रयास रत रहे और अपने शत्रुओं को भी हरिनाम की दीक्षा दी ।
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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शुक्रवार, 21 अप्रैल 2017

= १९६ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू समर्थ सब विधि सांइयाँ, ताकी मैं बलि जाऊँ ।
अंतर एक जु सो बसै, औरां चित्त न लाऊँ ॥ 
दादू मार्ग महर का, सुखी सहज सौं जाइ ।
भवसागर तैं काढ कर, अपणे लिये बुलाइ ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*श्रद्धा का अर्थ*
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श्रद्धा का अर्थ है: जिसे मानने के लिए तर्क के पास कोई कारण न हो; जिसे मानना बिलकुल असंभव मालूम पड़े, जिसे मानना बिलकुल ही अतक्र्य हो उसे मान लेना। जो दिखाई न पड़ता हो, जिसका स्पर्श न होता हो, जिसकी गंध न आती हो, और जिसको मानने के लिए कोई भी आधार न हो उसे मान लेने का नाम है श्रद्धा।
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लेकिन श्रद्धा बहुमूल्य सूत्र है। वह अंत नहीं है, शुरूआत है। जिसे तुम मान लेते हो, उसकी खोज की संभावना शुरू हो जाती है। वैज्ञानिक हायपोथिसिस निर्मित करते हैं। श्रद्धा हायपोथिसिस है। हायपोथिसिस का मतलब होता है कि पहले वैज्ञानिक एक सिद्धांत तय करता है, क्योंकि बिना सिद्धांत तय किए तुम जाओगे कहां, खोजोगे कैसे क्या खोजोगे? खोज की शुरूआत ही न हो सकेगी। वह सिद्धांत सिर्फ प्रारंभ है, वह कोई अंत नहीं है। लेकिन उससे द्वार खुलता है, उससे संभावना निर्मित होती है फिर आदमी खोज में निकलता है। हो सकता है वह मिले, हो सकता है न मिले। क्योंकि अंधेरे में तुमने जो तय किया था, उसके मिलने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन एक बात पक्की है: हो सकता है, तुमने जो तय किया था वह न मिले; लेकिन कुछ मिलेगा।
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परमात्मा को तुम अभी जानते नहीं, कोई पहचान नहीं, कभी देखा नहीं, कभी मिलन नहीं हुआ। श्रद्धा का अभी तो इतना ही अर्थ हो सकता है कि हम एक परिकल्पना स्वीकार करते हैं, और हम खोज में लगते हैं शायद जो परिकल्पना है वैसा सिद्ध हो, न हो। लेकिन एक बात पक्की है कि खोज शुरू हो जाएगी। आर जिसकी खोज शुरू हो गई, अंत ज्यादा दूर नहीं है। और एक बात यह भी पक्की है कि अज्ञानियों ने जितने ढंग से परमात्मा को माना है, अंतिम अर्थ में वे कोई भी सही सिद्ध नहीं होती; वे सभी परिकल्पनाएं असिद्ध होती हैं। जो प्रगट होता है, वह सभी परिकल्पनाओं से ज्यादा अनूठा है। जो प्रकट होता है वह तुम्हारी सभी मान्यताओं से बहुत ऊपर है। जो प्रगट होता है, तुमने उसे सोचा था दीया; लेकिन जो प्रगट होता है वह महासूर्य है। किसी की परिकल्पना परमात्मा के संबंध में कभी सही सिद्ध नहीं होती, हो भी नहीं सकती।
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छोटा सा मन है, छोटा सा उसका आंगन है कितना बड़ा आकाश उस आंगन में समाएगा? छोटे छोटे हाथ हैं। इन छोटे छोटे हाथों से उस विराट को छूने की कोशिश कितना विराट तुम छू पाओगे? बूंद जैसी क्षमता है, सागर को खोजने निकले हो कितना सागर तुम अपने में ले पाओगे?
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लेकिन श्रद्धा के बिना यात्रा शुरू नहीं होती। श्रद्धा का कुल इतना ही अर्थ है कि साहस की हम तैयारी करते हैं, हम ज्ञात से न बंधे रहेंगे, अज्ञात में, उतरने के लिए हमारी हिम्मत है; हम डरे डरे अपने घर में कैद न रहेंगे, हम खुले आकाश के महाअभियान पर निकलते हैं।
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एक बात पक्की है कि तुम जो भी मानकर निकलोगे, वह तुम कभी न पाओगे; क्योंकि तुम अभी जानते नहीं तो तुम ठीक मान कैसे सकोगे?
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सम्यक श्रद्धा तो ज्ञान से घटित होगी। लेकिन सम्यक श्रद्धा के पहले एक परिकल्पित श्रद्धा है, हायपोथेटिकल है। वैज्ञानिक भी उसके बिना काम नहीं कर सकता, तो धार्मिक तो कैसे कर सकेगा?
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तो, श्रद्धाएं दो प्रकार की हैं। एक श्रद्धा है साहस का नाम, जो अज्ञान से बाहर लाती है, द्वार के बाद हृदय में आरोपित होती है। उस दूसरी श्रद्धा को फिर डिगाने का कोई उपाय नहीं है। पहली भी उखाड़ ले सकता है। नए रोपे की बड़ी सुरक्षा करनी पड़ती है, चारों तरफ बागुड़ लगानी पड़ती है, देखभाल रखनी पड़ती है। एक बार वृक्ष की अपनी जड़ें जमीन को पकड़ लेती हैं, एक बार वृक्ष जमीन के साथ एक हो जाता है, फिर बागुड़ की कोई जरूरत नहीं। फिर बच्चे उसे न उखाड़ पाएंगे। फिर कोई उसे नुकसान न पहुंचा पाएगा। फिर तो वृक्ष बड़ा हो जाएगा। फिर तो सैकड़ों लोग उसके नीचे बैठकर छाया पा सकेंगे।
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इसलिए प्राथमिक रूप से जब श्रद्धा में कोई उतरता है तो बड़ी सावधानी की जरूरत है, क्योंकि चारों तरफ अंधों की भीड़ है। वह तुमसे कहेगी, “क्या मान रहे हो? क्या कर रहे हो? पागल हो गए? दिमाग तो ठीक है?’’ वह अंधों की भीड़ बच्चों की तरह है; वह तुम्हारे पौधे को उखाड़ दे सकती है।
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सुनो भई साधो ~ ओशो

= १९५ =

卐 सत्यराम सा 卐
अखंड ज्योति जहँ जागै, 
तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा, 
हरि संग रहै नहिं दूरा ॥
तिरवेणी तट तीरा, 
तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा, 
तब भरम गया भय भागा ॥ 
दादू देख हरि पावा, 
हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना, 
निज निरखत हौं भगवाना ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*भीतर का अँधेरा*
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यहूदियों की बड़ी पुरानी कथा है कि हजरत मूसा जब सिनाई के पर्वत पर गए तो अचानक उन्होंने आवाज सुनी कि जूते उतार दे, क्योंकि यह पवित्र भूमि है। तो डरकर उन्होंने जूते उतार दिए। आगे बढ़े तो उन्होंने एक झाड़ी में आग को जलते देखा। वे बड़े हैरान हो गए। वह बड़ा चमत्कारी अनुभव था। आग तो जल रही थी और झाड़ी जल नहीं रही थी। आग में तो लपटें निकल रही थी; झाड़ी हरी की हरी थी।
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यहूदियों को बड़ी मुश्किल हुई यह समझाने में कि इसका क्या मतलब होगा। इसका मतलब बाहर की किसी कथा से नहीं है; इसका मतलब भीतर की आग से है। भीतर एक ऐसी आग है जो जलती है और जलाती नहीं। एक बड़ी ठंडी रोशनी है; ठंडी आग बरफ जैसी ठंडी, और आग जैसी उज्जवल।
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जब तुम भीतर जाओगे तो बाहर की रोशनी से इस रोशनी का गुणधर्म अलग है। इसलिए तुम्हारे पास नई आंखें चाहिए जो इसे देख सकें। और तुम्हें अपनी आंखों को धीरे धीरे समायोजित करना होगा।
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ध्यान की सारी प्रक्रियाएं और कुछ भी नहीं हैं, सिवाय इसके कि तुम्हारी बाहर देखने के लिए जो आदत बनी है आंखों की, उसमें एक नई आदत को प्रवेश करवा दें कि तुम भीतर देखते रहो, कितना ही अंधेरा हो, अंधेरे को ही देखते रहो अंधेरे को भी देखते देखते देखते तुम एक दिन पाओगे कि अंधेरा कम होने लगा; एक धीमीसी रोशनी आने लगी। अगर तुम देखते ही गए, देखते ही गए, तो एक नई रोशनी का जगत प्रारंभ हो जाता है।
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सुनो भई साधो ~ ओशो

गुरुवार, 20 अप्रैल 2017

= १९४ =

卐 सत्यराम सा 卐
गूंगे का गुड़ का कहूँ, मन जानत है खाइ ।
त्यों राम रसायन पीवतां, सो सुख कह्या न जाइ ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho

*गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाए !*

सारी भाषा बाहर की है। भीतर की कोई भाषा नहीं है, हो ही नहीं सकती। पूछा जा सकता है कि हजारों हजारों साल से ज्ञानी भीतर जा रहे हैं, अब तक भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हुई? कोई नई घटना तो नहीं है। उस भीतर के देश में न मालूम कितने लोग गए हैं! न मालूम कितने लोग वहां से डूबकर और सिक्त होकर आए हैं! न मालूम कितनों ने भीतर के उस अंतरध्यान में लीनता पाई है! अब तक भीतर की भाषा विकसित क्यों नहीं हो सकी? कारण है। 
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भाषा की जरूरत होती है, जहां दो हों। भीतर तो तुम अकेले ही होते हो। अकेले में तो भाषा की कोई जरूरत नहीं होती। भाषा की जरूरत होती है जहां दो हों, जहां द्वैत हो; अद्वैत में तो भाषा का कोई सवाल ही नहीं उठता। जहां अकेले ही हैं, वहां किससे बोलना है, किसको बोलना है? तो भीतर तो आदमी जाकर बिलकुल गूंगा हो जाता है। कबीर कहते हैं, “गूंगे केरी सरकरा, खाए और मुसकाए। गूंगा खा लेता है शक्कर, और मुसकाता है।
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वैसे ही भीतर का अनुभव है कि वहां एक ही बचता है, और वह भी इतने अपरिसीम आनंदउत्सव में लीन हो जाता है कि कौन खोजे भाषा और किसके लिए खोजे? जब बाहर आता है भीतर से, तब अड़चन शुरू होती है बाहर खड़े हैं लोग, इनको बताना मुश्किल हो जाता है। तो कबीर कहते हैं, “कहन सुनन कछु नाहिं न तो कुछ कहने को है, न कुछ सुनने को है। कहना सुनना दोनों छोड़कर, मार्ग पकड़ना है “होने का। बहुत कहा गया, बहुत सुना गया है कुछ भी हुआ नहीं। “होने का एकमात्र मार्ग है।
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*“नहीं कछु करन है” करने को भी कुछ नहीं है।*

इसलिए मैं कहता हूं, ये बड़े क्रांतिकारी वचन हैं। कोई करने की बात नहीं है। क्या करोगे उसे पाने के लिए? जिसे पाया ही हुआ है, उसे पाने के लिए क्या करोगे? जो भीतर छिपा ही है, मौजूद है, जो तुम्हारे साथ ही चला आया है, जो तुम्हारी अंतरसंपदा है उसे पाने के लिए क्या करोगे? उसे जितना तुम पाने की कोशिश करोगे, उतनी ही अड़चन खड़ी होगी। जैसे कोई अपनी ही खोज में निकल जाए भटकेगा। दूसरे की खोज, समझ में आती है; अपनी ही खोज कहां खोजोगे? हिमालय जाओगे? मक्का मदीना, काशी, गिरनार कहां जाओगे?

*सुनो भई साधो ~ ओशो*

= १९३ =

卐 सत्यराम सा 卐
काहे रे बक मूल गँवावै, 
राम के नाम भलें सचु पावै ॥ टेक ॥
वाद विवाद न कीजे लोई, 
वाद विवाद न हरि रस होई ।
मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं, 
मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥ १ ॥
हार जीत सौं हरि रस जाई, 
समझि देख मेरे मन भाई!
मूल न छाड़ी दादू बौरे, 
जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥ २ ॥
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साभार ~ Gems of Osho

*दलील से कुछ हल नहीं होता*
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मैंने सुना है, दो सन्यासी थे और उन दोनों में एक विवाद था, बड़ा लंबा विवाद था। उनमें एक सन्यासी था, जो इस बात को मानता था कि कुछ पैसे वक्त बेवक्त के लिए अपने पास रखना जरूरी है, उचित है। वह निरंतर, दूसरे मित्र से उसका निरंतर विवाद होता था। दूसरा मित्र कहता था, पैसे की क्या जरूरत है? पैसे रखने की क्या जरूरत है? हम संन्यासी हैं, हमें पैसे की क्या जरूरत है? पैसे तो वे रखते हैं, जो संसारी हैं। वे दोनों दलीलें देते थे और वे दोनों ठीक ही दलीलें देते थे, ऐसा मालूम पड़ता था।
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इस जगत का बड़ा रहस्य यह है कि इस जगत के बड़े रहस्य में जो विरोध की ईंटें रखी गई हैं, उनमें से किसी भी एक ईंट के संबंध में पूरी दलीलें दी जा सकती हैं। और दूसरी ईंट के संबंध में भी उतनी ही दलीलें दी जा सकती हैं। और यह विवाद कभी अंत नहीं हो सकता, क्योंकि वे दोनों ईंटें लगी हुई हैं। कोई भी इशारा करके बता सकता है कि देखो, मेरी ईंटों से बना हुआ है यह। और दूसरा भी बता सकता है कि मेरी ईंटों से बना हुआ है। और जिंदगी इतनी बड़ी है कि बहुत कम लोग इतना विकास कर पाते हैं कि पूरे द्वार को देख पाएं। वह जो ईंटें उनको दिखाई पड़ती हैं, उतनी ही देख पाते हैं।
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वे कहते हैं, ठीक ही तो कहते हो, संन्यास से ही तो बना हुआ है; ठीक ही तो कहते हो, ब्रह्म से बना हुआ है, ठीक ही तो कहते हो, आत्मा से बना है। वह दूसरा कहता है, पदार्थ से बना है, मिट्टी से बना है। डस्ट अनटू डस्ट, सब मिट्टी का मिट्टी में गिर जाएगा उसी से बना हुआ है, और कुछ भी नहीं है। वह भी ईंटें बता सकता है। इसलिए न आस्तिक जीतता है, न नास्तिक जीतता है। न पदार्थवादी जीतता है, न अध्यात्मवादी जीतता है। जीत भी नहीं सकते हैं, क्योंकि वे जिंदगी को आधा आधा तोड़कर कह रहे हैं।
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तो उन दोनों में बड़ा विवाद था। वह जो कहता था कि पैसे पास होना जरूरी है, एक जो कहता था कि पैसे की क्या जरूरत है। वे दोनों एक दिन सांझ एक नदी के किनारे भागे हुए पहुंचे हैं। रात उतरने के करीब है। माझी नाव बांध रहा है। नाव बांधते उस मांझी से उन्होंने कहा, नाव मत बांधो, हमें उस पार पहुंचा दो, रात उतरने को है, हमें उस पार जाना जरूरी है। उस मांझी ने कहा, अब तो मैं दिन भर का काम निपटा चुका और अपने गांव वापस लौट रहा हूं। अब सुबह उतार दूंगा। उन्होंने कहा, नहीं, सुबह तक हम प्रतीक्षा नहीं कर सकते। हमारा गुरु उनका गुरु, उनका सन्यासी जिसके पास उन्होंने जीया, जाना, पहचाना जीवन को वह मृत्यु के निकट है और खबर आई है कि सुबह तक उसके प्राण निकल जाएंगे। उसने हमें बुलावा भेजा है। हम रात नहीं रुक सकते। 
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माझी ने कहा कि मैं पांच रुपए लूंगा, तो उतार दूंगा। तो जो सन्यासी कहता था कि रुपए पास रखना चाहिए, वह हंसा और उसने कहा, कहो दोस्त, अब क्या खयाल है? उस सन्यासी से कहा जो कहता था कि पैसे रखना बिलकुल व्यर्थ है। उससे उसने कहा, कहो मित्र, क्या खयाल है? पैसा रखना व्यर्थ है या सार्थक है? वह दूसरा आदमी सिर्फ हंसता रहा। फिर उसने पांच रुपए निकाले, मांझी को दिए। 
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वह जीत गया है। फिर वे नाव पर सवार हुए और उस पार पहुंच गए। फिर उतर कर उसने कहा, कहो मित्र, आज नदी के पार न उतर पाते, अगर पैसे पास न होते। वह दूसरा खूब हंसने लगा। उसने कहा, हम पैसे पास होने की वजह से नदी पार नहीं उतरे हैं। तुम पैसे छोड़ सके, इसलिए नदी के पार उतरे हैं। पैसा होने से नहीं, पैसा छोड़ने से उतरे हैं नदी के पार। दलील फिर अपनी जगह खड़ी हो गई। उसने कहा, मैं सदा कहता हूं, पैसे छोड़ने की हिम्मत होनी चाहिए संन्यासी को। हम पैसे छोड सके, इसलिए पार आ गए। अगर तुम पकड लेते, न छोड़ते, तो कैसे पार आते?
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अब बड़ी मुश्किल हो गई। वह दूसरा भी हंसा। वे दोनों अपने गुरु के पास गए और मरते हुए गुरु से उन्होंने पूछा कि क्या करें? बड़ी मुश्किल है! और आज तो घटना ऐसी घट गई है साफ साफ। पहले वाले ने कहा कि पैसे थे, इसलिए हम उतरे हैं और दूसरा कहता है, पैसे छोड़े, इसलिए हम उतरे हैं। और हम अपने सिद्धातों पर अडिग हैं। और हमारे दोनों के सिद्धात ठीक मालूम पड़ते हैं। वह गुरु खूब हंसा। उसने कहा कि तुम दोनों पागल हो। तुम वही पागलपन कर रहे हो, जो आदमी बहुत जमाने से कर रहा है। क्या पागलपन है? उन्होंने पूछा। गुरु ने कहा, तुम एक सत्य के आधे हिस्से को देख रहे हो। यह सच है कि पैसे छोड़ने से ही तुम नाव से उतर सके, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि तुम पैसे इसलिए छोड़ सके कि पैसे तुम्हारे पास थे। और यह भी सच है कि पैसे पास होने से ही तुम नदी पार उतरे, लेकिन दूसरी बात भी उतनी ही सच है कि अगर पास ही होते तो तुम नदी उतर न सकते थे। तुम पास से दूर कर सके, इसलिए तुम नदी उतरे। ये दोनों ही बातें सच हैं। और ये दोनों बातें ही इकट्ठा जीवन है और इनमें विरोध नहीं है।
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जीवन के सारे तलों पर ऐसा ही विरोध हमने बांट कर रखा है। और हर विरोध का मानने वाला अपनी दलील दे सकता है। कठिनाई नहीं है। क्योंकि उसके पास भी आधी जिंदगी तो है ही। और आधी जिंदगी कोई कम बात है? बहुत है, दलील के लिए काफी है। इसलिए दलील से कुछ हल नहीं होता, खोजना पड़ेगा पूरी जिंदगी को।
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मैं मृत्यु सिखाता हूँ ~ ओशो

बुधवार, 19 अप्रैल 2017

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू करणी ऊपर जाति है, दूजा सोच निवार ।
मैली मध्यम ह्वै गये, उज्ज्वल ऊँच विचार ॥
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साभार ~ Girdhari Agarwal

*संतोष कैसे पहचानें?*

संत-महात्मा और उनको पहचानने वाले बहुत ही दुर्लभ है| आज तो दम्भ, पाखण्ड और बनावटीपन इतना हो गया कि असली संत-महात्मा को पहचानना अत्यन्त ही कठिन कार्य हो गया है| पर सच्चे जिज्ञासु को पता लगता है| भगवान् कृपा करते है, तभी उनको पहचाना जा सकता है| अब उनकी पहचान क्या हो? हम उनकी पहचान नहीं कर सकते, हम तो अपनी पहचान कर सकते है|
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एक कहानी है| एक नवयुवक राजगद्दी पर बैठा| पांच-सात वर्ष राज्य करने के बाद उसने अपने राज्य के बड़े-बूढ़ों को इकट्ठा करके पूछा - 'आप लोग बतायें कि राज्य हमारा ठीक रहा या हमारे पिताजी का ठीक था? अथवा हमारे दादा जी का ठीक था? किसका राज्य ठीक था? आपने हमारी तीनों पीढियों का राज्य देखा है| बेचारे सब चुप रहे| एक बहुत बूढ़ा आदमी खड़ा होकर कहने लगा कि 'महाराज! हम आपकी प्रजा हैं| आप उमर में छोटे हैं तो क्या हुआ, आप हमारे मालिक हैं| अब हम आपके बारे में निर्णय कैसे करें कि आप में कौन योग्य और कौन योग्य है? कौन बढ़िया और कौन घटिया है? यह हमारी क्षमता नहीं है? मेरी बात पूछें तो मैं अपनी बात तो कह सकता हूं, पर आपकी परीक्षा नही कर सकता|' राजन ने कहा - 'अच्छा! अपनी बात बताओ|' 
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वह कहने लगा - 'जब आपके दादा जी का राज्य था, उस समय मै जवान था| मैं पढ़ा-लिखा था| शरीर में बल भी अच्छा था| मैं एक लाठी पास में रखता था| उस समय यदि पांच-दस आदमी एक साथ भी सामना करने के लिए आ जाते तो मैं हार नहीं खाता, बल्कि उन सबको मार दूं- ऐसा मेरा विश्वास था| एक दिन मैं किसी गांव जा रहा था| रास्ते चलते मेरे कान में किसी स्त्री के रोने की आवाज आयी तो मैंने सोचा चलकर देखें, क्या बात है? मैं आवाज की दिशा में गया, तो देखा कि एक सुन्दर युवती अकेली जंगल में बैठी रो रही है| उसने बहुत कीमती गहने, कपड़े पहने रखे थे| मैं अचानक उसके पास पहुँचा तो वह डर गयी और एकदम चुप हो गयी| मैंने बड़े प्यार से कहा कि बहिन! घबराओ मत| बताओ कि तुम क्यों रो रही हो? मेरे ऐसा कहने पर वह आश्वस्त हुई और बोली - मैं पीहर से ससुराल जा रही थी| साथ में दो-चार बैलगाड़ियाँ और ऊँट थे| रास्ते में डाकू मिल गये, तो उनसे मुठभेड़ हो गयी| मेरे सम्बन्धी और डाकू आपस में लड़ने लगे| मुझे डर लगा तो भागकर जंगल में चली आयी और यहां आकर बैठ गयी| अब उनका क्या हाल हुआ, यह तो भगवान् जानें? किन्तु मैं कहाँ जाऊं, यह भी मुझे रास्ता मालूम नहीं है| मेरा जन्म-गांव तो बहुत दूर रह गया, लेकिन ससुराल-गांव पास ही है, ऐसा अंदाजा है| लेकिन मै जानती नहीं, क्या करूँ? यह सोचकर रोना आ रहा है|' इस तरह कहकर उसने मुझे अपने ससुराल का पता बताया| 
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मैं उस गांव को जानता था, इसलिए मैंने उससे कहा - बहिन! तुम चलो, डरने की कोई बात नही है, मै तुम्हारे साथ हूँ| पूछने पर उसने अपने श्वशुर का नाम कागज पर लिख कर बताया| मैं उसके श्वशुर को जानता था, इसलिए उसे उसके ससुराल ले गया| रात हो चुकी थी, सब लोग तरह-तरह की चिंता कर रहे थे| वे लोग बहुत दुखी थे; क्योंकि बहू के शरीर पर गहने आदि बहुत थे| बहू को सही-सलामत पहुँची देखकर सबके मन में प्रसन्नता छा गयी| उस स्त्री ने अपने घरवालों से कहा - इन सज्जन को मैं पिता कहूँ या भाई कहूँ| इन्होंने मुझे बड़े प्यार से धीरज दिलाया और यहाँ तक पहुँचाया| उसके श्वशुर मझे इनाम देने के लिए पांच सात सौ रूपये लाये और लेने का आग्रह करने लगे| मैंने अपना कर्तव्य समझकर यह काम किया था कि कोई दुखी है तो उसका दुख दूर हो जाय, इसलिए मैंने रूपये नहीं लिये| मैंने मन में सोचा कि अपने कर्तव्य-पालन की बिक्री नहीं करूंगा| मेरे मन में रूपये न लेने से बड़ा संतोष रहा| मैं वापस चला आया|
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यह बात तो आपके दादा जी के समय की बात थी| इसके बाद आपके पिता जी का राज्य आया| उनके राज्य-काल के पांच-सात वर्ष बीतने पर मेरे व्यापार में बड़ा घाटा लगा| धन की तंगी हुई तो मेरे मन में बात आने लगी कि उस समय इतना अच्छा अवसर मिला था, दस-पन्द्रह हजार का तो गहना, जेवर मिल जाता| आज दुख नही भोगना पड़ता| उस समय बड़ी भूल हो गयी| अब पछताने से क्या होगा| जब वे इनाम देने लगे, तब भी नहीं लिया| बड़ाई का भूख आज तंगी भोगता है| इस प्रकार के भाव मन में आये थे| महाराज आप तो अवस्था में मेरे पोते के समान हैं, आपके सामने लज्जा आती है| अब तो मन में ऐसे भाव आ रहें है कि उस समय उस स्त्री को समझा बुझाकर या धमका कर अपनी स्त्री बना लेता, तो आज वह मेरी सेवा करती और धन भी मिल जाता| परन्तु, अब तो बात हाथ से निकल गयी, पछताने से क्या लाभ? इस तरह, महाराज! हम तो अपने मन के विचार बता सकते हैं| आप! राजाओं का निर्णय कौन करे| आपका निर्णय करने की ताकत हम में कहाँ!
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राजा समझ गया कि बुड्ढा बड़ा बुद्धिमान है| 'यथा राजा तथा प्रजा|' यह बात भी कह दी और हमें रुष्ट भी नहीं किया| इस तरह संतो की पहचान हम नहीं कर सकते कि ये कहाँ तक पहुँचे हुए है, किन्तु उनके पास जाने से हमारे मन में मच रही हलचल शांत होती हो, अपने में दैवी सम्पूर्ण के गुण आते हों अर्थात् दया, क्षमा, उदारता, त्याग, संतोष, निति, धर्म आदि की वृद्धि होती हो, दुर्गुण-दुराचार दिखने लगें आर घटने लगें| जिन महापुरुषों के संग अथवा दर्शन से ऐसी विलक्षणतायें आती हो - तो हम अंदाज लगा सकते हैं|
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इसके आलावा हम गरीब हों अथवा धनी हों - जिनके मन में हमारी कोई गरज नही दिखती| हम धनी हैं तो कुछ ज्यादा आदर करे और गरीब हैं तो निरादर करें, हम से वे कुछ स्वार्थ सिद्ध करना चाहें - ऐसा हमें कभी लगता ही नहीं| हम उनसे ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग आदि की बातें पूछते हैं तो वे उनसे भी आयोग की बाते बता देते हैं| हमारी दृष्टि में सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार के तत्व को जानने वाला, उनसे बढ़कर कोई दीखता नहीं- ऐसे महापुरुषों का संग मिल जाय तो बडा लाभ होता है|

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू साध सबै कर देखना, असाध न दीसै कोइ ।
जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥ 
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साभार ~ Rp Tripathi

**Pearls of wisdom :: विचारों के मोती** 

In 1881, a professor asked his student whether it was God who created everything that exists in the universe? Student replied: Yes. He again asked :- What about evil ? Has God created evil also? The student got silent... Then the student requested that may he ask a question from him? Professor allowed him to do so.
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Student asked : - Does cold exist? Professor said: Yes! Don't you feel the cold dear? Student said: I'm sorry but you are wrong sir. Cold is a complete absence of heat... There is no cold, it is only an absence of heat.
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Student asked again : Does darkness exist? Professor Said: Yes ! Student replied: you are again wrong sir. There is no such thing like darkness. It’s actually the absence of light. Sir! We always study light & heat, but not cold & darkness. Similarly, the evil does not exist. Actually it is the absence of Love, Faith & True belief in God. Are you able to guess the name of the student dear friends ? 
Yes you are right !! 
The name of the student was...
Vivekananda...!!!
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सन १८८१ में एक प्रोफ़ेसर ने अपने स्टूडेंट्स से पूछा - क्या जो भी यूनिवर्स में है, वो सब God ने बनाया है? स्टूडेंटस - हां !!!!
टीचर ने फिर दोबारा पूछा - फिर शैतान(evil) क्या है? क्या evil को भी God ने बनाया?
सारे स्टूडेंट्स मौन हो गये.. तब एक स्टूडेंट ने रिक्वेस्ट की कि क्या वह एक सवाल पूछ सकता है।
प्रोफेसर ने कहा हाँ……..
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स्टूडेंट ने प्रोफेसर से सवाल किया - क्या कोल्ड है ?
प्रोफेसर ने कहा– हाँ !!!! क्या आप महसूस नहीं कर रहे हैं?
स्टूडेंट ने कहा - “I am sorry” सर लेकिन आप गलत हैं क्योंकि cold “heat” की complete absence है। cold कुछ नहीं है सिर्फ heat की अनुपस्थिति है।
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स्टूडेंट ने फिर पूछा - क्या अँधेरा होता है ? प्रोफसर ने जवाब दिया - हां !!!!
स्टूडेंट ने कहा - आप फिर गलत कह रहे हैं सर! अँधेरा नाम की कोई चीज़ नहीं होती। वास्तव में यह लाइट की absence है। सर ! हम हमेशा जो स्टडी करते हैं वो light और heat है, वो cold और डार्कनेस नहीं। उसी तरह evil(शैतान)कुछ नहीं है, वास्तव में वो love faith और God पर आपके भरोसे की absence है। वो स्टूडेंट थे स्वामी विवेकानंद !!!

********Om Krishnam Vande Jagat Gurum********

मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।
क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥ 
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साभार ~ Ajay Singh

जो व्यक्ति भीतर से परिपूर्ण हो, उसे प्रदर्शन की कोई आवश्यकता नहीं होती है । जो संतुष्ट है, प्रसन्न है, उसे किसी को बताने की जरूरत नहीं पड़ती कि वह खुश है । बताने की जरूरत उसे पड़ती हैं जो भीतर से खाली हो । जिसके भीतर अभाव हो, जो मरूभूमि समान हैं । वह बाहर की सुंदरता को ओढकर यह बताने का प्रयास करता हैं कि मैं भरा हुआ हूँ, सुंदर हूँ । वस्त्र दो क्षण के लिए सुंदर दिखने का आभास करा सकता है, सुंदर नहीं बना सकता ।
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हमारे देश में संत, महात्मा खुले बदन रहते हैं, लंगोटी पहने रहते हैं, लेकिन उनके चेहरे पर जो अपार शांति हैं, वह कीमती वस्त्र और आभूषण पहने हुए लोगों के चेहरे पर भी नहीं होती है । वहाँ उनके चेहरे पर कोई गहरी खाई, गहरा सन्नाटा दिखाई नहीं पड़ता । कोई पुराना खंड़हर, किसी अतीत की कहानी, उनके चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ती । तभी तो करोड़ों रूपये के जेवरात पहनकर लाखों लोग भगवान के सामने हाथ जोड़े खड़े रहते हैं लेकिन उन्हें शांति नहीं मिलती है ।
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सच कहा जाए, तो जो भी लोग बाहर के संसार में सुख खोजते हैं, उन्हें बाहर सुख नहीं मिलता, दुख ही मिलता है । बाहर केवल दुख ही है । कहीं कोई सुखी नहीं है ।बाहर कराहते हुए, छटपटाते हुए पीड़ा में रोते हुए हम सभी मिलते हैं । हमें बाहर जो चकाचौंध दिखाई पड़ती है, वह नकली हैं जो रूप हमें आकर्षित कर रहा है, वह असली नहीं है ।
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जो व्यक्ति नकली चेहरा लेकर बाहर निकलता हैं वह कहीं न कहीं अपने मन के घावों को भरना चाहता है, अपनी पीड़ा को छिपाना चाहता है । जिस व्यक्ति का मन खाली रहता है, वह अपना खालीपन किसी को दिखाना नहीं चाहता। इसलिए वह जब भी बाहर निकलता हैं तो रंग बिरंगे कपड़े पहन कर निकलता है अगर हम सभी अपने माता- पिता, भाई- बंधु के साथ प्रेम - भाव से रहें, हम सभी एक दूसरे की सुख दुख की साथी बनें तो हमें कोई नकली वस्तु की आवश्यकता नहीं पड़ेगी । मन की शांति के लिए कहीं बाहर खोज नहीं करनी पड़ेगी । मन को सदा सत्य मार्ग पर लायें हम सभी प्रभू को याद करें यही हमारे असली जीवन का सत्य मार्ग होगा ।
॥ जय शिव ॥

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू बिन पाइन का पंथ, क्यों करि पहुँचै प्राण ।
विकट घाट औघट खरे, मांहि शिखर असमान ॥
मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम ।
शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥ 
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साभार ~ Chetna Kanchan Bhagat

जिनके पास कोई आत्मिक अनुभव नहीं, उनके पास गंवाने को भी कुछ नहीं। वै निश्चित रहें। वे बेसुध सोए, वे घोड़े बेचकर सोए, कुछ हर्जा नहीं। लेकिन जब तुम्हारे पास कुछ आने लगे संपदा, तब सावधान होना, तब सजग, सावचेत होना, क्योंकि अब कुछ है जो खो सकता है।
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जो ऊंचाइयों पर चले, उसे बहुत ही जागरूक हो जाना चाहिए क्योंकि वहां से गिरेगा तो हड्डी - पसलियां टूट जाएंगी, चकनाचूर हो जाएगा। जो सपाट भूमि पर चल रहा है, उसे डरने की जरूरत नहीं। वह नशा करके भी चले तो चलेगा। लेकिन अब तुम्हें जरा भी अस्मिता का नशा न आए।
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तुमने देखा न, हमारे पास एक शब्द है : ‘योग - भ्रष्ट’। लेकिन तुमने ‘भोग - भ्रष्ट’ शब्द सुना ? भोगी को भ्रष्ट होने का उपाय नहीं है, इसलिए भोग - भ्रष्ट जैसा शब्द नहीं है। भोगी सपाट जमीन पर चलता है; वहा से गिर ही नहीं सकता। योग - भ्रष्ट कोई हो सकता है, भोग - भ्रष्ट क्या होगा ? योग ऊंचाइयों पर ले जाता है; वहां से पतन संभव है। आकाश में उड़ोगे तो गिर सकते हो, इसलिए जितनी ऊंचाई बढ़े उतनी सजगता। धन्यभागी हो। इस धन्यवाद को प्रगट करना, अनेक - अनेक रूपों में; पर भूलकर भी, अनजान में भी, अचेतन में भी, अस्मिता को मत उठने देना।

सोमवार, 17 अप्रैल 2017

= १८८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू इस संसार में, ये द्वै रत्न अमोल ।
इक सांई अरु संतजन, इनका मोल न तोल ॥ 
दादू इस संसार में, ये द्वै रहै लुकाइ ।
राम स्नेही संतजन, और बहुतेरा आइ ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

(((((((( इच्छाओं पर विजय ))))))))
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एक युवक था. उस को जीवन से बड़ी अपेक्षाएँ थीं. उसे लगता था कि उसे बचपन में वह सब नहीं मिल सका जिसका वह हकदार था. 
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बचपन निकल गया. किशोरावस्था में आया. वहां भी उसे बहुत कुछ अधूरा ही लगा. उसे महसूस होता कि उसकी बहुत सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकीं. उसके साथ न्याय नहीं होता.
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इसी असंतोष की भावना में युवा हो गया. उसे लगता था जब वह अपने पैरों पर खड़ा होगा तो सारी इच्छाएं पूरी करेगा. वह अवस्था भी आएगी. पर उसकी इच्छाएं इतनी थीं कि लाख कोशिशों पर भी वह पूरा नहीं कर पा रहा था.
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वह युवक बेचैन रहने लगा. इसी बीच किसी सत्संगी के संपर्क में आया और उसे वैराग्य हो गया. वह स्वभाव से और कर्म दोनों से संत हो गया. संत होने से उसे किसी चीज की लालसा ही न रही.
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जिन संत की संगति से उसमें वैराग्य आया था, वह लगातार भगवान की भक्ति में लगे रहते. उनकी इच्छाएं बहुत थोड़ी थीं. वह पूरी हो जातीं तो वह योग, साधना और यज्ञ-हवन करते.
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इस युवक में भी वह गुण आ गए. अब वह भी संत हो गए. इससे उन्हें मानसिक सुख मिलने लगा और उसमें दैवीय गुण भी आने लगे. अब वह भी एक बार वह ईश्वर की लंबी साधना में बैठे.
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इनकी साधना से एक देवता प्रसन्न हो गए. उन्होंने दर्शन दिए और कोई इच्छित वरदान मांगने को कहा.
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संत ने कुछ पल सोचा फिर देवता से बोले कि मुझे कुछ भी नहीं चाहिए. 
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देवता ने प्रश्न किया- जहां तक मैं जानता हूं आपकी ज्यादातर आकांक्षाएं पूरी ही न हो सकी हैं.
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इस पर संत ने कहा- जब मेरे मन में इच्छाएं थीं तब तो कुछ मिला ही नहीं. अब कुछ नहीं चाहिए तो आप सब कुछ देने को तैयार है. आप प्रसन्न हैं यही काफी है. मुझे कुछ नहीं चाहिए.
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देवता मुस्कुराने लगे.उन्होंने कहा- इच्छा पर विजय प्राप्त करने से ही आप महान हुए. भगवान और आपके बीच की एक ही बाधा थी, आपकी अनंत इच्छाएं.
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उस बाधा को खत्म कर आप पवित्र हुए. मुझे स्वयं परमात्मा ने भेजा है. इस लिए आप कुछ न कुछ स्वीकार करके हमारा मान अवश्य रखें.
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संत ने बहुत सोच-विचारकर कहा- मुझे वह शक्ति दीजिए कि यदि मैं किसी बीमार व्यक्ति को स्पर्श कर दूं तो वह भला-चंगा हो जाए.
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किसी सूखे वृक्ष को छू दूं तो उसमें जान आ जाए. देवता ने कहा- आप जैसा चाहते हैं वैसा ही होगा.
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वरदान देकर देवता चलने को हुए तो संत ने कहा- रुकिए मैं अपना विचार बदल रहा हूं.
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देवता को लगा क्या इसमें फिर से लालसा पैदा हो गईं. उन्होंने कहा- अब क्या विचार किया है, बताएं. आपको एक अवसर विचार बदलने का मैं देता हूं.
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संत ने कहा- मैं अपने वरदान में संशोधन चाहता हूं. मैंने आपसे मांगा कि यदि मैं बीमार व्यक्ति को छूं दूं तो उसे स्वास्थ्य लाभ हो जाए. सूखे वृक्ष को छूं दूं तो हरा भरा हो जाए.
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मैं इस वरदान में एक संशोधन यह चाहता हूं रोगी और वृक्ष का कल्याण मेरे छूने से नहीं मेरी छाया पड़ने ही होने लगे और मुझे इसका पता भी न चले.
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देवता को बड़ा आश्चर्य हुआ. उन्होंने पूछा- क्या आप ऐसा इसलिए मांग रहे हैं क्योंकि आप किसी मलिन या बीमार को स्पर्श करने से बचना चाहते हैं ?
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संत ने कहा- ऐसा बिल्कुल नहीं है. रोगी या मलिन व्यक्ति से दूर रहने के लिए नहीं मैं ऐसा मांग रहा. मैं नहीं चाहता कि संसार में यह बात फैले कि मेरे स्पर्श करने से लोगों को लाभ होता है.
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एक बार यह बात फैली तो फिर संसार में मुझे लोग एक चमत्कारिक शक्तियों वाला सिद्ध प्रचारित कर देंगे. मैं लोगों का कल्याण तो चाहता हूं लेकिन उस कल्याण के साथ मेरी प्रसिद्धि हो यह नहीं चाहता.
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देवता ने प्रश्न किया- पर आप ऐसा क्यों चाहते हैं. इससे क्या नुकसान हो सकता है.
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संत बोले- शक्ति का अहसास मन को मलिन करके कुचक्रों की रचना शुरू करता है चाहे वह कोई दैवीय सिद्धि ही हो क्यों न हो. यदि प्रचार शुरू हुआ और मेरे मन में श्रेष्ठता का अभिमान होने लगा तो फिर यह वरदान मेरे लिए शाप बन जाएगा.
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इससे तो अच्छा है कि लोगों का कल्याण चुपचाप ही हो जाए. न मुझे पता चलेगा न अभिमान की संभावना रहेगी.
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देवता प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा- परमात्मा ने ऐसे वरदान के लिए सर्वथा योग्य व्यक्ति का चयन किया है. आपकी मनोकामना अवश्य पूरी होगी.
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जब आपकी किसी चीज के लिए बहुत ज्यादा इच्छा होती है तब वह वस्तु आसानी से नहीं मिलती. लालसा घटते ही वह सरलता से उपलब्ध होने लगती है.
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बहुत ज्यादा इच्छाएं मानसिक अशांति का कारण बनती हैं. परोपकार का भाव रखना बहुत अच्छा है लेकिन उस परोपकार के बदले उपकार का भाव रखना लालसा है.
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लालसा आते ही परोपकार का आपका सामर्थ्य कम होता है. आजमाई हुई बात है. ध्यान से सोचिए, सत्य लगेगा.
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परमात्मा मनुष्य की तरह-तरह से परीक्षा लेते हैं. किसी दिन परमात्मा ने सच में कोई दैवीय शक्ति देने का मन बना लिया तो इस कथा को याद रखिएगा. परमात्मा उसी को चमत्कारी शक्तियां देते हैं जो इसका प्रयोग परमार्थ के लिए करता है.
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
काया माया ह्वै रही, जोधा बहु बलवंत ।
दादू दुस्तर क्यों तिरै, काया लोक अनंत ॥ 
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साभार ~ Gems of Osho
*कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है।ऐसा क्यों हो गया है?*
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मैंने सुना है, एक बार चीन के एक सम्राट ने अपने प्रधान मंत्री को फांसी की सजा दे दी। जिस दिन प्रधान मंत्री को फांसी दी जाने वाली थी, सम्राट उससे मिलने आया, उसे अंतिम विदा कहने आया। वह उसका बहुत वर्षों तक वफादार सेवक रहा था, लेकिन उसने कुछ किया जिससे सम्राट बहुत नाराज हो गया और उसे फांसी की सजा दे दी। लेकिन यह याद करके कि यह उसका अंतिम दिन है, सम्राट उससे मिलने आया।
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जब सम्राट आया तो उसने देखा कि प्रधान मंत्री रो रहा है, उसकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वह सोच भी नहीं सकता था कि मृत्यु उसके रोने का कारण हो सकती है, क्योंकि प्रधान मंत्री बहुत बहादुर आदमी था। उसने कहा. ‘यह कल्पना करना भी असंभव है कि तुम मृत्यु को निकट देखकर रो रहे हो। यह सोचना भी असंभव है। तुम बहादुर आदमी हो और मैंने अनेक बार तुम्हारी बहादुरी देखी है। अवश्य कोई और बात है। क्या बात है? यदि मैं कुछ कर सकता हूं तो जरूर करूंगा।’
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प्रधान मंत्री ने कहा : ‘अब कुछ भी नहीं किया जा सकता; और बताने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। लेकिन अगर आप जिद करेंगे तो मैं अभी भी आपका सेवक हूं आपकी आज्ञा मानकर बता दूंगा।’ सम्राट ने जिद की और प्रधान मंत्री ने कहा : ‘मेरे रोने का कारण मृत्यु नहीं है; क्योंकि मृत्यु कोई बड़ी बात नहीं है। मनुष्य को एक दिन मरना ही है; किसी भी दिन मृत्यु हो सकती है। मैं तो बाहर खड़े आपके घोड़े को देखकर रो रहा हूं।’
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सम्राट ने पूछा. ‘घोड़े के कारण रोते हो? लेकिन क्यों?’ प्रधान मंत्री ने कहा. ‘मैं जिंदगी भर इसी तरह के घोड़े की तलाश में रहा; क्योंकि मैं एक प्राचीन कला जानता हूं। मैं घोड़ों को उड़ना सिखा सकता हूं लेकिन उसके लिए एक खास किस्म का घोड़ा चाहिए। यह उसी किस्म का घोड़ा है। और यह मेरा अंतिम दिन है। मुझे अपनी मृत्यु की फिक्र नहीं है; मैं रोता हूं कि मेरे साथ एक प्राचीन कला भी मर जाएगी।’
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सम्राट की उत्सुकता जगी घोड़ा उड़े, यह कितनी बड़ी बात होगी उसने कहा : ‘घोड़े को उड़ना सिखाने में कितने दिन लगेंगे? प्रधान मंत्री ने कहा : कम से कम एक वर्ष और यह घोड़ा उड़ने लगेगा।’
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सम्राट ने कहा. ‘बहुत अच्छा ! मैं तुम्हें एक वर्ष के लिए आजाद कर दूंगा। लेकिन स्मरण रहे, यदि एक वर्ष में घोड़ा नहीं उड़ा तो तुम्हें फिर फांसी दे दी जाएगी। और यदि घोड़ा उड़ने लगा तो तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। और माफ ही नहीं, मैं तुम्हें अपना आधा राज्य भी दे दूंगा। क्योंकि मैं इतिहास का पहला सम्राट होऊंगा जिसके पास उड़ने वाला घोड़ा होगा। तो जेल से बाहर आ जाओ और रोना बंद करो।’
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प्रधान मंत्री घोड़े पर सवार, प्रसन्न और हंसता हुआ अपने घर पहुंचा। उसकी पत्नी अभी भी रो धो रही थी। उसने कहा : ‘मैंने सब सुन लिया है। तुम्हारे आने के पहले ही मुझे खबर मिल गई है। लेकिन बस एक वर्ष? और मैं जानती हूं तुम्हें कोई कला नहीं आती है और यह घोड़ा कभी उड़ नहीं सकता। यह तो तरकीब है, धोखा है। तो अगर तुम एक साल का समय मांग सकते थे तो दस साल का समय क्यों नहीं माग लिया?’
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प्रधान मंत्री ने कहा : ‘वह जरा ज्यादा हो जाता। जो मिला है वही बहुत ज्यादा है। घोड़े के उड़ने की बात ही अविश्वसनीय है, फिर दस साल का समय मांगना सरासर धोखा होता। लेकिन रोओ मत।’ 
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लेकिन पत्नी ने कहा : ‘यह तो मेरे लिए और बड़े दुख की बात है कि मैं तुम्हारे साथ भी रहूंगी और भीतर भीतर मुझे पता भी है कि एक वर्ष के बाद तुम्हें फांसी लगने वाली है। यह एक वर्ष तो भारी दुख का वर्ष होगा।’ 
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प्रधान मंत्री ने कहा. ‘अब मैं तुम्हें एक प्राचीन भेद की बात बताता हूं जिसका तुम्हें पता नहीं है। इस एक वर्ष में सम्राट मर सकता है, घोड़ा मर सकता है, मैं मर सकता हूं। या कौन जाने घोड़ा उड़ना ही सीख जाए। एक वर्ष !’
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बस आशा मनुष्य आशा के सहारे जीता है, क्योंकि वह इतना ऊबा हुआ है। और जब ऊब उस बिंदु पर पहुंच जाती है जहां तुम और आशा नहीं कर सकते, जहां निराशा परिपूर्ण होती है, तब तुम आत्महत्या कर लेते हो। ऊब और आत्महत्या, दोनों मानवीय घटनाएं हैं।
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कोई पशु आत्महत्या नहीं करता है। कोई वृक्ष आत्महत्या नहीं करता है। ऐसा क्यों हो गया है? इसके पीछे कारण क्या है? क्या आदमी बिलकुल भूल गया है कि कैसे जीया जाता है, कि कैसे जीवन का उत्सव मनाया जाता है? जब कि सारा अस्तित्व उत्सवपूर्ण है, यह कैसे संभव हुआ कि केवल मनुष्य उससे बाहर निकल गया है और उसने अपने चारों ओर विषाद का एक वातावरण निर्मित कर लिया है?
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मगर ऐसा ही हो गया है। पशु वृत्तियों के द्वारा जीते हैं; वे बोध से नहीं जीते। वे प्रकृति द्वारा संचालित होते हैं, वे यंत्रवत जीते हैं। उन्हें कुछ सीखना नहीं है; वे उसे लेकर ही जन्म लेते हैं जो सीखने योग्य है। उनका जीवन वृत्तियों के तल पर निर्बाध चलता रहता है। उन्हें कुछ सीखना नहीं है। उन्हें जीने और सुखी होने के लिए जो भी चाहिए वह उनकी कोशिकाओं में बिल्ट इन है, उसका ब्‍लूप्रिंट पहले से तैयार है। इसलिए वे यंत्रवत जीए जाते हैं।
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मनुष्य ने अपने वृत्तिया खो दी हैं, अब उसके पास कोई ब्‍लूप्रिंट नहीं है। तुम बिना किसी ब्लूप्रिंट के, बिना किसी बिल्ट इन प्रोग्रेम के जन्म लेते हो। तुम्हारे लिए कोई बनी बनाई यांत्रिक रेखाएं उपलब्ध नहीं हैं, तुम्हें अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना है। तुम्हें वृत्ति की जगह कुछ ऐसी चीजें निर्मित करनी हैं जो वृत्ति नहीं हैं, क्योंकि वृत्ति तो जा चुकी। तुम्हें वृत्ति की जगह विवेक से काम लेना है; तुम्हें वृत्ति की जगह बोध से काम लेना है। तुम यंत्र की भांति नहीं चल सकते हो।
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तुम उस अवस्था के पार चले गए हो जहां यांत्रिक जीवन संभव है; यांत्रिक जीवन तुम्हारे लिए संभव नहीं है। समस्या यह है कि तुम पशु की भांति नहीं जी सकते और तुम यह भी नहीं जानते कि जीने का और कोई ढंग भी है यही समस्या है।
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तंत्र सूत्र ~ ओशो



रविवार, 16 अप्रैल 2017

= १८६ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू कहै सतगुरु शब्द सुनाइ करि, भावै जीव जगाइ । 
भावै अन्तरि आप कहि, अपने अंग लगाइ ॥ २४ ॥ 
टीका ~ हे परमेश्वर ! आप इन अज्ञानी जीवों को जगावें, सचेत करें, आप अन्तर्यामी हैं । "अंतरि" कहिए अन्त:करण में प्रेरणा पैदा करके, अपने अंग स्वरूपानन्द में लगाओ, अथवा गुरु से शिष्य प्रार्थना करता है, कि हे सतगुरु ! भले ही आप इस जीव को अपने शब्द उपदेशों से सत्यमार्ग का बोध कराओ या हमारे हृदय में अपनी कृपा-दृष्टि द्वारा राम-नाम में प्रेम पैदा करो । अत: जैसे भी बने, इस अज्ञानी जीव को आप अपनी शरण में लीजिए ॥ २४ ॥ 
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शिष्य की विनती सुनकर दयालु सतगुरु ने शब्द द्वारा शिष्य को उपदेश किया । जिसका शिष्य पर जो प्रभाव हुआ, वह निम्न साखी से स्पष्ट करते हैं :-
*सतगुरु शब्द बाण* 
दादू बाहरि सारा देखिये, भीतरि किया चूर ।
सतगुरु शब्दों मारिया, जाण न पावै दूर ॥ २५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि ज्ञान उपदेश द्वारा सतगुरु ने शिष्य की बाह्य वासनाओं का नाश किया, जिससे बाहरी व्यवहार में सारे शरीर की स्थूलतादिक या बाहरी पठन-पाठन वा उपदेशादि देखने में आते हैं, किन्तु भीतरी अहंकार, काम, क्रोधादि वासनामय अन्त: करण का अत्यन्त प्रभाव प्रगट करने के लिए श्री सतगुरु महाराज ने "चूर" पद का प्रयोग किया है । अर्थात् पुन: वासनाओं का उदय होना कदापि सम्भव नहीं है । इसीलिए आगे कहते हैं कि "जाण न पावै दूर" अर्थात् आसुरी विभूतियों के नाश हो जाने से अन्त:करण में जो महानन्द हुआ है, उसको छोड़कर गुरु उपदेश से विमुख मायाकृत पदार्थों में आसक्त नहीं होता है ॥ २५ ॥ 
लूट लिए सब संत जन, चोरन कियो विचार । 
तुम मारन के हाथ थे, सतगुरु काटे डार ॥ 
द्रष्टान्त :- ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज के शिष्य पण्डित जगजीवन राम जी, दौसा नगर के टहलड़ी आश्रम में निवास करते थे । आप के यहाँ संतों की खूब सेवा होती थी । एक समय चोरों ने विचार किया कि इस स्थान में हम लोग चोरी करें, क्योंकि यह स्थान धन-धान्य सम्पन्न है । वे चोरी करने आए और सम्पत्ति के गट्ठर बाँधने लगे । संत लोग लेटे हुए देख रहे थे । चोरों ने विचार किया कि ये लोग हमें मना क्यों नहीं करते ? इनसे पूछना चाहिए । चोर बोले :- "महाराज ! हम आपकी सम्पत्ति बांध कर ले जाने को तत्पर हैं । आप लोग हमें मना क्यों नही करते हो ? आप बड़े बली हो, आप में से एक ही हमें सबक सिखा सकता है ।" संत जी बोले:- "तुम्हारे को सबक देने के जो हाथ थे, वे सतगुरु ने हमारे काट दिये । अब दया-पालन, रक्षा करने, के हाथ सतगुरु ने बना दिये । आप सम्पत्ति को ले जाओ और बच्चों को खिला देना ।" यह सुनकर चोर चरणों में पड़ गए और चोरी का कुकर्म छोड़कर सच्चे मानव बन गए ।
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दादू सतगुरु मारे शब्द सौं, निरखि निरखि निज ठौर ।
राम अकेला रह गया, चित्त न आवै और ॥ २६ ॥ 
टीका ~ पूर्व कही हुई साखी के ही भावार्थ का उल्लेख करते हैं निज अहंत्व या कामना आदि कृपा-सिन्धु सतगुरु, बाह्य विषयों में शिष्य की अहंत्व या ममत्व की शारीरिक या मानसिक चेष्टाओं को खोज-खोज करके शब्द से मारते हैं । ज्ञान उपदेश व ताड़ना द्वारा उनका समूल नाश करते हैं । इसका फल क्या हुआ ? "चित्त न आवै और" अर्थात् जब सतगुरु ने उपदेश द्वारा शिष्य को निरावरण किया, तो फिर अनात्म-वासना चित्त में नहीं उठती, है जिससे फिर केवल राम ही ध्यान में रह जाता है अर्थात् निरंजन राम ही व्याप्त रहता है ॥ २६ ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू दीये का गुण तेल है, दीया मोटी बात ।
दीया जग में चाँदणां, दीया चालै साथ ॥ ३८ ॥ 
टीका - दीपक का मुख्य गुण तेल है, किन्तु उसके लिए मोटी बत्ती आदिक और भी सामग्री चाहिए । चन्द्रमा, सूर्य अस्त होने पर जग में कहिए-घर में दीपक से ही प्रकाश होता है और अन्धकार में दीपक को साथ लेकर ही चलना हो सकता है । 
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दान के विषय में भी सतगुरु उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु-जनों ! दीया अर्थात् अन्न-वस्त्रादि का जो दान, वह उनको ही परलोक में फल प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त दान के और भी गुण हैं । "दीया मोटी बात" "दीया जग में चाँदणां" अर्थात् - जो कोई भी अन्न, वस्त्र, औषधि, विद्या आदि का दान देते हैं, उसका फल तो परमेश्वर देवेंगे ही, साथ ही जग में उनका नाम भी उजागर होगा ॥ ३८ ॥ 

दिया मिलै परलोक में, कर्ण की गति जोइ । 
कंचन दत कंचन मिल्या, और मिल्या नहिं कोइ ॥ 
रोटी कोपीन दोवटी, तंदुल पैसा रोक(रोकड़ी) । 
जन रज्जब ते ऊबरें, जो बावें हरि की ओक ॥ 

रोटी देती वीर, बांदी एक दीवान की । 
टपक लगै नहीं तीर, खैर खसम आडी भाई ॥ 
द्रष्टान्त - कन्नौज शहर में, वहाँ के दीवान की दासी यानी नौकरानी, दीवान के निमित्त कहिए-रक्षा के लिए एक रोटी रोज साधु को दिया करती थी, परन्तु दीवान की घरवाली उसके काम से रुष्ट रहती थी और कहती, "मूर्ख ! रोज एक रोटी क्यों देती हैं ?" परन्तु वह उसकी बात नहीं मानती और चुपके ही साधु को दे देती । एक समय कन्नोज पर शत्रुओं ने हमला किया । दीवान सेना लेकर लड़ने को गया । जंग में देखा कि गोल-गोल रोटी के आकारमय चक्कर उसके सारे शरीर को ढक लेते । शत्रु के हथियार नहीं लग पाते और जब वह शत्रुओं पर प्रहार करता, तब वह गोल रोटी चक्ररूप धरकर शत्रु की सेना को कत्ल करते, उसे दिखलाई पड़ते । दीवान की विजय हुई । घर में आकर एक साधु से पूछा कि युद्ध की बात मुझे समझ में नहीं आई । युद्ध में वह रोटी जैसा गोल-गोल क्या था ? साधु ने कहा:- तेरी रक्षा के लिए घर में कोई रोटी दान करती है, मालूम करो । दीवान ने घर में मालूम किया, तो दासी को हृदय से प्यार किया, दान का महत्व समझा और बोला :- आपने मेरे राजा की, नगर की और मेरी रक्षा की है, आपको धन्य है । 
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सिर शोभा उतार कर, द्रौपदी पूज्या साध । 
बखना नंगी ना भई, नृप कीना अपराध ॥ 
द्वितीय द्रष्टान्त - एक समय दुर्वासा ऋषि पांडवों के यहाँ चतुर्मास ठहरे थे । वह एक ही कोपिन धारण करते थे । जब गंगा स्नान को जाते, कटि-पर्यन्त जल में घुस कर स्नान करते, फिर लंगोट को वहीं खोल और धोकर बांध लेते थे । एक रोज हाथ से लंगोट छूट गई और गहरे पानी में बह गई । ऋषि ने बाहर नंगे नहीं आना चाहा और वहीं खड़े रहे । द्रौपदी महारानी ऊपर महलों से देख रही थी कि गुरु जी आज जल से बाहर नहीं आ रहे हैं, सो क्या कारण है ? तब वह गंगा के किनारे आई और ऋषि जी को प्रणाम करके बोली :- "आज प्रभु गंगा में ही कैसे खड़े हो" ? ऋषि बोले :- पुत्री ! हमारी लंगोट हाथ से छूट गई, नंगे बाहर कैसे आवें ? यह सुनकर द्रौपदी ने अपने सिर से चीर उतार, उसमें से एक लंगोट का कपड़ा फाड़ कर ऋषि की तरफ फेंक दिया । वह उस लंगोट को लगा कर गंगा के किनारे बाहर आए । द्रौपदी जी ने चरण स्पर्श किया । ऋषि बोले बेटी ! तैने हमारे लाज रखी है, भगवान कृष्ण तेरी लाज बचायेंगे । महाभारत के समय जब द्रौपदी जी को दु:शासन ने नग्न करना चाहा, तब भगवान ने उसका चीर बढ़ाया और भक्त की लाज बचाई । मुनि का आशीर्वाद सत्य किया ।
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तृतीय द्रष्टान्त - कबीर भक्त सच्चे महापुरुष थे और उदारवृत्ति, संतोषी, सत्यवक्ता इत्यादिक इनमें भारी गुण थे । वह एक रेजी रोज हाथ से बनाते थे । आधी रेजी रोज दान कर दिया करते थे और आधी रेजी बेच, दूसरे दिन के लिए सूत लाते और घर का खर्च चलाते थे । एक रोज इनकी परीक्षा भगवान् ने स्वयं की । भगवान् ब्राह्मण रूप में आकर बोले :- भक्त कपड़ा चाहिए । कबीर जी बोले :- महाराज! आधी रेजी ले जाइये । ब्राह्मण बोला :- आधी से काम नहीं चलता । तब कबीर जी ने पूरी रेजी दान कर दी । ब्राह्मण ने आशीर्वाद दिया, "आपकी जय हो", कहकर प्रस्थान कर गया । कबीर सोचने लगे, अब सूत और कैसे लाऊँ तथा घर की रोजी कैसे चलाऊँ ? घर वाले खाने को मांगेंगे, कहाँ से दूँगा ? यह सोचकर भाग निकले और काशी में अस्सी घाट के नलों में छुप गए । तीन रोज बाद भगवान् कबीर का रूप बनाकर "बालद" भरकर कबीर के घर आए और सब माल उनके घर में डाल दिया । फिर संत रूप में कबीर को जाकर बोले - यहाँ क्यों पड़ा है ? कबीर के घर जा, वहाँ संतों की सेवा अन्न-वस्त्र से हो रही है, तूं भी जाकर खा । यह उस रेजी दान का फल हुआ है कि भगवान् कबीर के यहाँ कलिकाल में तीन बार बालद भर कर लाए ।
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चतुर्थ द्रष्टान्त - सुदामा ब्राह्मण था और भगवान कृष्ण का मित्र भी था । क्योंकि दोनों ने संदीपनी ऋषि के यहाँ साथ विद्या पढ़ी थी । एक रोज ऋषि ने एक एक मुट्ठी चने देकर सभी विद्यार्थियों से कहा :- जंगल से ईंधन लाओ । भगवान कृष्ण और सुदामा भी विद्यार्थियों के साथ जंगल में पहुँचे और ईंधन काटने लगे । अनायास बड़े जोरों से आंधी और वर्षा आ गई । सभी लोग जहाँ-तहाँ छुप गए । सुदामा और कृष्ण भी एक पेड़ के सहारे अर्थात् एक तरफ सुदामा तथा दूसरी तरफ कृष्ण बैठ गए । जो गुरु जी ने चने दिए थे, सो दोनों का हिस्सा सुदामा के पास था । भूख लगने पर सुदामा चबाने लगे । कृष्ण बोले :- मित्र क्या चबाते हो ? सुदामा बोले :- गुरु जी के दिए हुए चने । कृष्ण बोले :- मेरे हिस्से के चने ? सुदामा बोले :- मैंने सब चबा लिए । कृष्ण बोले :- अरे जा दरिद्री ! उसी दिन से सुदामा दरिद्री बन गया । पढ़ाई पूरी करने के बाद द्वारिकाधीश त्रिलोकीनाथ कृष्ण हैं । एक रोज इनकी पतिव्रता स्त्री बोली :-
एक मित्र भोगै बहु भोगू । 
एक मित्र के अन्न का सोगू ॥ 
यह कैसी मित्रता । आप जानते हो कि सुदामा की पत्नी ने सुदामा जी को चावल की कणी, प्रेम भरी कृष्ण के लिए भेंट देकर सुदामा को द्वारका भेजा । जब सुदामा भगवान् कृष्ण से जाकर मिले और भगवान कृष्ण द्वारा भाभी जी के प्रेम भरे, तंदुल कहिए चावल कच्चे चबाते ही, सुदामा के यहाँ घर पर आठ सिद्धि, नौ निधि जाकर बस गई । यह भगवान् के अर्पण करने का फल देखिए द्वापर में । 
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पाँचवा द्रष्टान्त - ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज की कीर्तन भक्ति देखकर अहमदाबाद कांकरिए तालाब पर भगवान् सहसा वृद्ध रूप धरकर प्रकट हुए और एक पैसा मांगा । दादू दयाल महाराज ने तब दोनों हाथों में एक पैसा लेकर भगवान् को भेंट किया । भगवान् बोले :- इसके तामूल नाम पान ले आओ । जब तामूल लाए तो भगवान् के मुख में दादू जी ने एक पान का बीड़ा दिया । दूसरा पान बीड़ा भगवान् ने अपने हाथ से दादू जी के मुँह में दिया । ऐसी लीला भगवान् भक्तों के साथ किया ही करते हैं । भगवान् के मुख से एक पान की पीप की बून्द, दादू जी के दाहिने पाँव के अंगूठे पर हँसते समय गिरी । दादू जी बोले :- प्रभु, यह तो प्रसाद मेरे मुख में डालना चाहिए था । यह तो बड़ा अनर्थ हुआ कि पाँव पर प्रसाद गिरा । तब भगवान् बोले :- 
एक बून्द पग ऊपर आई, 
चरणों लागि मुक्त हो जाई । 
एक जनम के दूजे तीजे, 
कलयुग माहिं मुक्त सब कीजे ॥ 
हे मेरे रूप ब्रह्मर्षि दादू दयाल ! आपके चरण पर मेरे मुख की एक बून्द गिरी है, आपके चरणों की जो जीव शरण ग्रहण करेंगे, उनको मैं कलियुग में सबको मुक्त कहिए, अपने स्वरूप में विलय कर लूंगा । यह आशीर्वाद देकर त्रिलोकीनाथ अन्तर्धान हो गए । ब्रह्मर्षि दादू दयाल ने रोकड़ी एक पैसा प्रभु को भेंट किया था । उसका फल देखिए, दादू जी के सम्पूर्ण काम भगवान् ने सिद्ध किए । 
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इसलिए इस लोक में दान देने वाले की कीर्ति होती है और दान से सब प्राणीमात्र वश में हो जाते हैं । यहाँ तक समझो कि बैरी लोग बैर छोड़कर मित्र बन जाते हैं । पराये लोग भी अपने भाई बन जाते हैं । दान एक ऐसा उत्तम कर्म है कि यह सब बुराईयों को दूर कर देता है । सत्य तो यह है कि जिसको दान देने की आदत पड़ जाती है, उनको फिर अन्य कोई व्यसन सूझ ही कैसे सकता है ? उसका धन तो परोपकार में ही लगता है । इसलिए धन, दान, धर्म में लग गया हो तो ठीक ही है, अन्यथा उसकी गति अच्छी नहीं होती । दान में नहीं लगेगा तो, दुर्व्यसनों में जायेगा अथवा नष्ट हो जाएगा क्योंकि कहा है :-
धन की गति तो तीन है, दान, भोग और नाश । 
दान, भोग जो ना करे, निश्चय होय विनाश ॥ 
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दान से वंश, जाति, देश की, मान प्रतिष्ठा की, इससे वृद्धि होती है । यह सब फल तो सुखी अवस्था के हैं । परन्तु दुखी अवस्था में भी इससे ही फल मिलता है कहिए रक्षा होती है । "दीया चालै साथ" - देहान्त होने पर भी हाथों से किया हुआ दान ही साथ चलता है । ज्ञान पक्ष में "दीया" सतगुरु का जो सत्योपदेश है, उसे वे जिनमें गुरु भक्ति, श्रद्धा आदि गुण विद्यमान हैं, वे लहैं कहिए, नाम प्राप्त करते हैं । "दीया मोटी बात" अर्थात्-मनुष्य देह प्राप्त करके, मन अनेक विषयों से आकर्षित होता है, किन्तु परमार्थ सतगुरु से सत्य का ही ज्ञान मिलता है । यही प्रशंसायुक्त बात है । "दीया जग में चाँदणा"- जैसे घर में धरी हुई इष्ट अनिष्ट वस्तु का बोध प्रकाश से होता है, वैसे ही जगत् प्रपंच में, इष्ट जो आत्मतत्व और अनिष्ट जो अनात्मतत्व है, उनका भी ज्ञानरूपी प्रकाश से ही बोध होता है । "दीया चालै साथ"- आत्म ज्ञान से ही प्राणी अजर, अमर होता है । जिस से अन्त में केवल ज्ञान ही साथ चलता है । भावार्थ यह है कि प्रथम तो अन्त:करण की शुद्धि के निमित्त निष्कामभाव से दानादिक करने चाहिए, और अन्त:करण की शुद्धि के अनन्तर सतगुरुओं की शरण में उपस्थित होकर आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहिए । मनुष्यत्व की इसी में सफलता है ।

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जोति चमकै झिलमिलै, तेज पुंज प्रकाश ।
अमृत झरै रस पीजिए, अमर बेलि आकाश ॥ 
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साभार ~ Rajnish Gupta

*((((((( महाकवि भक्त जयदेव )))))))*
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जिस कुल या वंश में कोई भगवद्भक्त जन्म लेता है तो उस कुल के समस्त पूर्वजों और वंशजों का उद्धार हो जाता है । 
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वीरभूमि से दस कोस दूर केदुली गाव में भोजदेव और रामादेवी नाम के एक दम्पती रहते थे जो कृष्णमार्ग के अनुयायी थे ।
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कृष्ण में अपार स्नेह श्रद्धा रखने के कारण इनकी अभिलाषा थी कि इनके घर में पुत्र पैदा हो जो कि कृष्ण जैसा हो । 
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भगवान कब भक्त की इच्छा की अवहेलना करते हैं । सम्बत् 1107 में इनके घर पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम जयदेव रखा गया ।
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माता-पिता के संस्कार और भगवान कृष्ण के प्रति आस्था को रक्त में लेकर जन्मे जयदेव भी श्रीकृष्ण के उपासक थे । 
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दैवयोग से बचपन में ही माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । जयदेव यद्यपि अल्प आयु के बालक थे ।
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अन्य लोगों ने माता-पिता के स्वर्गवास को इनके जीवन पर आघात बताया परंतु जयदेव ने इस आघात को भगवद्भक्ति का निष्कंटक मार्ग समझकर वैराग्य से प्रीति लगाई और अपने जीवन को वह दिशा दे दी जिसके लिए बड़े-बड़े ज्ञानी तरसते हैं ।
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वैरागी होकर इनके होंठों पर कृष्ण का ही नाम रहता था । यह जगन्नाथ जी से प्रीति लगाकर पुरुषोत्तम क्षेत्र पहुंच गए जहां जगन्नाथ जी की महिमा सर्वत्र फैली हुई थी । 
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जब जगन्नाथ जी की यात्रा प्रारम्भ होती थी तो दूर-दूर से भक्त और कृष्ण भक्त आते थे ।
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जयदेव ने पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही एक विद्वान ब्राह्मण से कुछ समय विद्याध्ययन किया था और अब वह क्षेत्र ही इनकी भक्ति का केंद्र बन गया था । 
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वैरागी तो थे ही। एक कमंडल और गुदड़ी के अतिरिक्त कृष्णधारा की सुरीली तान ही इनका खजाना थी ।
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एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने सखा भगवान को सुमिरते रहते थे । जगन्नाथ जी अपने इस भक्त के सुमिरन से अत्यंत खुश थे ।
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उन्होंने स्वप्न में एक ब्राह्मण को जयदेव के लिए एक संदेश दिया । “हे ब्राह्मण, मेरे मंदिर के समीप एक वृक्ष के तले मेरा परमभक्त जयदेव मेरे ध्यान में लीन है ।
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वह एक उच्च गुणों वाला श्रेष्ठ भक्त है । तुम उसे अपनी कन्या दे दो और एक ऐसे यश के भागी बनो जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते हैं।”
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जगन्नाथ जी की आज्ञा से ब्राह्मण प्रात काल होते ही अपनी कन्या पद्मावती को लेकर जयदेव के पास पहुंचे और प्रभु की आज्ञा कह सुनाई ।
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“ब्राह्मणदेव मैं तो वैरागी हूं । मेरी साधना में विवाह का स्थान कहा है । उचित होगा कि आप इस रूपवती के लिए कोई सुयोग्य वर की खोज करें ताकि यह आनंदमय जीवन व्यतीत कर सके ।” जयदेव ने सरल उत्तर दिया ।
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“जयदेव जी आपसे सुयोग्य वर मुझे कहा मिलेगा जिसके लिए स्वय प्रभु जगन्नाथ जी ने मुझे आदेश दिया है ।”
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“संभवत: आप सत्य कहते हो परंतु वही जगन्नाथ जी ऐसे तो नहीं हैं जो मेरे हृदय से अपरिचित हों । क्या वह नहीं जानते कि मेरे हृदय में उनके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं रह सकता ।” 
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“यह सब मैं नहीं जानता भक्त श्रेष्ठ !” ब्राह्मण ने कहा: “मैं तो उनकी आज्ञा से यहा आया हूँ और मेरी पुत्री आपकी शरण में है ।
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अब आप इसे रखें या न रखें यह आप पर निर्भर है । मैं तो अपने ऋण से उऋण हो गया ।” इतना कहकर ब्राह्मण पद्मावती को वहीं छोडकर चले गए। 
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“हे सुंदरी आपके पिताश्री की बाध्यता तो आस्था है परंतु आप तो शिक्षित हैं। अत: आप मेरी विवशता समझें और…।”
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“स्वामी मेरे पिता ने मुझे आपकी शरण में दिया है । अब मेरा भी यही कर्त्तव्य है कि एक हिन्दू पुत्री का कर्त्तव्य निभाऊं । मेरा लौटना मेरे कुल के लिए उचित नहीं और न ही स्त्री के लिए ।” 
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जयदेव दुविधा में पड़ गए । पद्मावती मन से उन्हें अपना पति वरण कर चुकी थी ।
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अंतत: एक रात जगन्नाथ जी ने जयदेव को भी स्वप्न में दर्शन दिए और उन्हें विवाह की आज्ञा दी । अब जयदेव कैसे पद्मावती का तिरस्कार करते ? फलत: उन्होंने पद्मावती को पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया ।
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पद्मावती की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वहीं एक कुटिया बनाकर वे दोनों सुखपूर्वक रहने लगे ।
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जगन्नाथ जी का स्मरण और नाम ही उन दोनों का प्रतिक्षण कार्य था । पद्मावती भी चिंतनशील युवती थी । 
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शीघ्र ही वह जयदेव के हृदय में प्रेरणा बनकर अंकित हो गई और तब ‘गीत गोविंद’ का जन्म हुआ । 
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‘गीत गोविंद’ एक ऐसा कालजयी काव्य है, जिसमें समस्त रस एक साथ इस तरह मिश्रित किए गए जिन्हें भुला देना सरल नहीं है ।
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जयदेव के कवि हृदय में नवीन विचार भी आते रहते थे जिन पर वे पूर्ण चिंतन करते थे । जब उन्होंने ‘गीत गोविंद’ के नौ सर्ग लिख लिए और दसवां सर्ग लिख रहे थे तो उनके हृदय में राधा-कृष्ण से सम्बंधित एक नवीन विचार आया ।
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जब रासबिहारी भगवान कृष्ण अपना कोई अपराध क्षमा कराने के लिए राधिका जी से विनती करते हैं तो जयदेव ने उस विनय को एक अनोखे अदाज में विचार लिया । 
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‘देवपद पल्लव मुरारम’ अर्थात-हे राधे, तुम मेरा अपराध क्षमा करो और अपने चरण-कमलों को मेरे सिर पर रखो ।
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जयदेव के इस पद में राधा के प्रति कृष्ण की प्रेमोपासना छुपी थी परतु फिर जयदेव ने ही इस विचार को स्थगित किया । 
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उन्होंने सोचा कि जो कृष्ण जगत के पालक और परमगुरु हैं वह अपनी प्रेयसी के चरणों में गिरें यह उचित न होगा । अत: उन्होंने उस पद को वहीं छोड़ा और स्नान करने चल पड़े ।
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उनकी पत्नी पदमावती कुटिया में ही थीं । कुछ ही देर पश्चात जयदेव पुन: लौटे और अपनी लेखनी उठाई उस छंद को उसी प्रकार पूर्ण करके जैसा उन्होंने सोचा था फिर स्नान को लौट पड़े । 
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“आर्यपुत्र लगता है आपका वह छंद पूर्ण हो गया ।” पद्मावती ने कहा: “तभी आप स्नान मार्ग से ही लौट आए ।”
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जयदेव तीनों लोकों को मुग्ध कर देने वाली मुस्कराहट बिखेरकर वहा से चल दिए । पद्मावती उन्हें जाते हुए देखती रही और फिर अपने कार्य में जुटी ही थीं कि जयदेव स्नान करके लौटते दिखाई दिए । 
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“हे स्वामी यह क्या आश्चर्य है ।” पद्मावती ने कहा: “अभी कुछ क्षणों पूर्व ही तो आप छंद पूर्ति करके गए हैं । इतनी शीघ्र स्नान करके भी लौट आए ?”
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“क्या कह रही हो प्रिये !” जयदेव भी आश्चर्य में पड़ गए । उन्होंने अपनी लेखन पुस्तिका खोलकर देखी तो उनके विचार को एक सुंदर हस्तलेख में लिखा गया था । वह रासबिहारी का रास समझ गए । 
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“हे देवी !” वह पद्मावती से भाव विह्वल होकर बोले: “मैं आज धन्य हो गया कि तुम जैसी महाभाग और कृष्ण की उपासिका मुझे पत्नी रूप में मिली ।
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तुम साक्षात भगवान कृष्ण का दर्शन कर चुकीं जो स्वयं मुझ अभागे की दुविधा दूर करने आए थे ।” 
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पद्मावती आश्चर्यचकित भी थी और अति प्रसन्न भी । अब उन्हें उस त्रिलोक को मुग्ध करने वाली मुस्कान का रहस्य समझ आ गया था । वह स्वयं को धन्य समझने लगीं ।
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और इस तरह जयदेव का गीत गोविंद बारह सर्गों में पूर्ण हुआ । कुछ ही समय में गीतगोविंद अत्यंत लोकप्रिय और चर्चित हो गया । प्रत्येक भक्त के मुख से गीतगोविंद के छंद निकल रहे थे । 
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एक दिन पुरी का राजा सात्विक राम जब सायंकाल भगवान जगन्नाथ के दर्शनों को पहुंचा तो यह देखकर उसके क्रोध का पारावार न रहा कि भगवान का महीन जामा फटा हुआ है उसमें कांटे लगे हैं और भगवान के श्रीमुख पर धूल जमी हुई है ।
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उसने इसे मंदिर के पुजारी का अपराध समझ कर पुजारी को बुलाया । 
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“पुजारी जी आप यहां पूजा करते हैं या पाखंड ? भगवान जगन्नाथ की तरफ देखिए । इनका जामा फटा है कांटे लगे हैं धूल जमी है ।” सात्विक राम ने क्रोध से गरजकर कहा : “आप यहां किस लिए हैं ?”
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“महाराज अभी कुछ समय पूर्व तो सब कुशल था ।” 
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”आप झूठ भी बोल रहे हैं । कुछ ही समय में यह दशा । आपने तो अक्षम्य अपराध किया है जिसका दंड आपको अवश्य ही मिलना चाहिए ।” 
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पुजारी जी निर्दोष होने के कारण दुखी होने लगे ।
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“ठहरो राजन् !” तभी भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के होंठों से स्वर निकला “इसमें इनका कोई दोष नहीं है । मेरी यह दशा तो स्वय मेरे कारण हुई है । 
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कुछ समय पूर्व ही तो पुजारी जी ने मुझे वस्त्र पहनाए और स्नान भी कराया था परतु तभी मुझे एक सुंदर मधुर स्वर सुनाई पड़ा तो मैं अपने-आपको न रोक सका । मैं स्वर के समीप पहुंचा तो एक बगीचे में एक बालिका एक छंद गा रही थी । 
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मैं उसी के पीछे-पीछे चलकर छंद सुनता रहा तो अवश्य ही कहीं झाडू में मेरे कपड़े उलझ गए होंगे । मुझे वह छंद अति मधुर लगे थे राजन् ।”
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“हे प्रभो, हे जगत के स्वामी, वह कौन से छंद हैं जो आपको इतने प्रिय हैं कि आप मंदिर छोड्कर झाड़ियों-बगीचों में पहुंच गए ?” राजा ने विनय की , “नाथ हमें भी बताइए ।” 
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‘धीर समीरे यमुना तीरे, वसति वने वनवारी ।’ “यह तो जयदेव जी के गीतगोविंद की अष्टपदी है ।” राजा को पुजारी जी ने बताया ।
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“पुजारी जी, अब मंदिर में नित्य गीतगोविंद का पाठ हुआ करेगा ।” राजा ने आदेश दिया और उस दिन से नित्य मंदिर में गीतगोविंद का पाठ होता है । 
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जयदेव पर जगन्नाथ जी का वात्सल्य ही अधिक था । एक बार शरद ऋतु में जयदेव जी अपनी कुटिया के छप्पर को बना रहे थे । पद्मावती नीचे खड़ी उन्हें फूस पकड़ा रही थीं । 
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काफी समय व्यतीत हो गया तो पद्मावती को भोजन बनाने की सुधि आई । पद्मावती रसोई में चली गईं । जयदेव अकेले कार्य करने लगे । परंतु वह ध्यानमग्न थे और कार्य में तल्लीन थे ।
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उनके परिश्रम पर राधामाधव भी पसीज गए और स्वय वहां आकर उन्हें फूस पकड़ाने लगे । जयदेव तो अपने इष्ट के ध्यान में इतने मग्न थे कि उन्हें आभास तक न हो सका कि अब पद्मावती के स्थान पर स्वयं जगत बिहारी उन्हें फूंस पकड़ा रहे हैं । 
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अंतत: काम समाप्त हुआ और वे नीचे उतरे । तब उन्होंने देखा कि वहां पद्मावती नहीं थीं । वहां तो कोई भी नहीं था । वह आश्चर्य में पड़े अंदर पहुंचे तो वहां पद्मावती को रसोई में भोजन तैयार करते देखा ।
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उनके हृदय में एक उत्कंठा जाग्रत हुई और वे राधामाधव की मूर्ति के समक्ष पहुंचे तो देखा कि रासबिहारी के हाथों में कालिख लगी थी । निश्चय हो गया कि उन्हें फूंस पकड़ाने वाले स्वयं राधामाधव थे ।
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यह प्रेम और आस्था का अनूठा उदाहरण था । जयदेव जी की कीर्ति दूर-दूर तक फैलने लगी थी । लोग उन्हें सच्चा प्रभु-पात्र कहने लगे थे । 
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जयदेव जी के हृदय के रोम-रोम में कृष्ण बस गए थे और अपनी इसी आस्था के बल पर उन्होंने अपनी कुटिया में राधामाधव का उत्सव करने का सकल्प किया और द्रव्य सग्रह करने के लिए पदयात्रा शुरू की ।
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वे जहां भी जाते लोगों की भीड़ लग जाती और सब अपनी श्रद्धानुसार उन्हें धन देते । 
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एक दिन जगंल में कुछ डाकुओं ने उन्हें घेर लिया और उनसे सारा धन छीनकर उन्हें कुएं में डाल दिया । दुष्ट डाकुओं ने उनके हाथ-पैर भी काट डाले थे ।
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जयदेव अंगविहीन होकर कुएं में पड़े ‘कृष्ण-कृष्ण’ का जाप कर रहे थे । न उन्हें पीड़ा का आभास था न मृत्यु का भय । 
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बांके बिहारी अपने भक्त से कैसे विमुख हो सकते थे ? जब भक्त कष्ट में होता है तो भगवान भी व्याकुल हो जाते हैं ! 
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उसी समय वहां से राजा की सवारी गुजरी जो उस वन में आखेट के लिए आया हुआ था ।
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राजा के किसी अनुचर ने कुए से आती कृष्ण-कृष्ण की ध्वनि सुनी और राजा को बताया । तत्काल राजा की आज्ञा से जयदेव को बाहर निकाला गया । 
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जयदेव पीड़ा की अधिकता से मूर्च्छित हो चुके थे । एक अनुचर ने उन्हें पहचान लिया और राजा को बताया कि वे भक्त शिरोमणि जयदेव हैं ।
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राजा उन्हें महल में लाया और उपचार कराया । जयदेव जी स्वस्थ हो गए और राजा से जाने की आज्ञा मांगी । परंतु राजा ने अनुनय-विनय करके उन्हें वहीं रहने को मना लिया और उन की पत्नी पद्मावती को भी वहीं बुला लिया।
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स्वयं रानी पद्मावती की सेवा में तत्पर हो गई । एक दिन रानी और पद्मावती में वार्तालाप हो रहा था । “मेरे भाई की मृत्यु के पश्चात मेरी भावज भी उन्हीं के साथ सती हुई थी ।” रानी ने कहा । 
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“प्रीति की यही रीति होती है ।” पद्मावती सहज भाव से बोली: “यही एक सुहागन का व्रत होता है और यही उसका मोक्ष ।”
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रानी ने पद्मावती की परीक्षा लेने का मन बनाया और एक दिन जयदेव को राजा के साथ बगीचे में भेज दिया और योजनानुसार एक दासी ने महल में आकर खबर दी ।
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“महारानी जी महात्मा जयदेव का स्वर्गवास हो गया ।” दासी ने कहा । रानी रोने लगी । पद्मावती भी वहीं थीं । वह सब समझ रही थीं परतु परीक्षा देना भी भक्त का कार्य है । अत: उन्होंने उसी क्षण अपने प्राण त्याग दिए । 
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रानी हतप्रभ रह गई और उसने राजा को सब वृत्तांत कहा । अपनी रानी के इस कृत्य से राजा को दुख ही नहीं हुआ बल्कि स्वयं को दोषी मानकर अपने जीवन का अंत करने लगा । 
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जयदेव जी ने यह समाचार सुना तो उन्होंने राजा को समझाया और अतत: गीतगोविंद की अष्टपदी का गान किया तो पद्मावती जीवित हो उठीं ।
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राजा सहित समस्त नर-नारी उस चमत्कार पर नतमस्तक हो गए । राजा के प्राणों की रक्षा हो चुकी थी अत: पद्मावती ने अपने पति की आज्ञा लेकर उसी क्षण पुन:स्वांस छोड़ दिया । 
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कुछ समय पश्चात जयदेव अपने गांव केंदुली आ गए । वृद्धावस्था और अंगविहीन होने पर भी वह प्रतिदिन 5 मील दूर गंगा स्नान करने जाते थे ।
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भगवान ने अपने भक्त पर असीम अनुकम्पा की और गगा मैया की पावन धारा जयदेव जी की कुटिया के समीप बहने लगी । यह धारा जयदेवी गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुई । 
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जयदेव ने जीवन-मरण का नियम मानते हुए केंदुली में ही शरीर त्यागा और गोलोक को गए ।
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आज भी माघ की मकर संक्रांति को वहां विशाल मेला लगता है और हजारों वैष्णव श्रद्धालु जयदेवी गंगा में स्नान करते हुए गीतगोविंद का गान करते हैं । 
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भक्त शिरोमणि कृष्ण प्रेमी जयदेव मृत्योपरांत भी जनमानस की स्मृति में जीवित हैं ।
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(((((((((( जय जय श्री राधे ))))))))))
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