सोमवार, 29 अप्रैल 2024

= १२९ =

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*दादू निबहै त्यौं चलै, धीरै धीरज मांहि ।*
*परसेगा पीव एक दिन, दादू थाके नांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सूफियों ने परमात्मा को निन्यानबे नाम दिए, उनमें एक नाम है: सबूर, सब्र। अनंत प्रतीक्षा, अनंत धैर्य ! प्यारा नाम है ! बहुत नाम परमात्मा को दिए हैं लोगों ने अलग-अलग, मगर सूफियों ने सबको मात कर दिया। 
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उस नाम में सूचना दी है तुम्हें कि जब तुम भी सब्र हो जाओगे तभी से पा सकोगे ! उसे पाना है तो कुछ उस जैसे होना पड़ेगा। हम वही पा सकते हैं जिस जैसे हम हो जाए। हम अपने से बिलकुल भिन्न को नहीं पा सकेंगे। कुछ तारतम्य होना चाहिए–हम में और उसमें।
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उसका सब्र देखते हो ! उसका सबूर देखते हो ! रवींद्रनाथ की एक कविता है, जिसमें रवींद्रनाथ ने कहा है कि हे परमात्मा ! जब मैं सोचता हूं तेरे सब्र की बात तो मेरा सिर घूम जाता है ! और तेरा कितना धैर्य है, तू आदमी को बनाए चला जाता है ! और आदमी तेरे साथ दुरव्यवहार किए चला जाता है। और तू है कि आदमी की बनाए चला जाता है।
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तू आशा छोड़ता ही नहीं। तू सोचता है, अब की बार ठीक हो जाएगा, अब की बार ठीक हो जाएगा। तू पापी को भी प्राण दिए जाता है, पापी में भी श्वास लिए जाता है। तेरा धैर्य नहीं चुकता। हत्यारे से हत्यारा भी तेरी आंखों में जीने की योग्यता नहीं खोता, तू उसे भी जीवन दिए जाता है! तुझे आशा है, आज तक तो ठीक नहीं हुआ, कल तक हो जाएगा, परसों हो जाएगा।
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कब तक भटकेगा ! आज घर नहीं पाया, कल पाएगा, कल नहीं तो परसों आएगा। आएगा ही। जन्मों-जन्मों तक लोग भटकते रहते हैं, मगर तेरी अनुकंपा जरा भी कठोर नहीं होती। तेरी अनुकंपा वैसी ही सदा से है, वैसी ही उदार, वैसी ही बरसती रहती है। तू इसकी फिकर ही नहीं करता कि कौन पापी है, कौन पुण्यात्मा पी लेता है, तेरे बादल से और पापी नहीं पीता।
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यह उनका निर्णय है। मगर तेरी तरफ से कोई भेद नहीं होता। तेरी तरफ से अभेद है। तेरा सूरज निकला है और सब पर रोशनी बरसाता है। यह दूसरी बात है कि कोई आंख बंद रखे। यह उसकी मर्जी। मगर तेरी तरफ से भेंट में कभी फर्क नहीं पड़ती। तेरा कितना धीरज है। तू आदमी से थका नहीं। तू आदमी की हत्याएं, पाखंड, उपद्रव देखकर ऊब नहीं गया ? अभी तेरे मन में यह खयाल नहीं आता कि बस समाप्त करो ? तेरा आदमी पर अब भी भरोसा है ?
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रवींद्रनाथ ने कहा है कि जब भी कोई छोटा नया बच्चा पैदा होता है, तब फिर मुझे धन्यवाद देने की आकांक्षा होती है कि फिर उसने एक आशा की किरण, भेजी। हर नया बच्चा इस बात की खबर है कि परमात्मा अभी आदमी से चुका नहीं, अभी आदमी पर भरोसा है। अभी आदमी से आशा है।
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सूफी ठीक ही कहते हैं कि वह सब्र है, सबूर है। धीरज है। धैर्य है। तुम भी कुछ उस जैसे बनो। कब तक मत पूछो। मैं जानता हूं, हम थक जाते हैं, हम जल्दी थक जाते हैं। थोड़े बहुत दिन ध्यान किया, मन मगन होता है। अब कब तक करते रहें ? थोड़े बहुत दिन प्रार्थना की और मन होने लगता है कि यह क्या जिंदगी भर करते रहेंगे ?
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अभी तक कुछ नहीं हुआ, आगे भी क्या होगा ? हमारा मन बड़ा शंकाशील है। उसकी शंकाओं के कारण कभी-कभी हम ठीक दरवाजे पर पहुंचे हुए वापस लौट जाते हैं। कभी-कभी बस एक हाथ और गङ्ढा खोदना था कि कुएं का जल मिल जाता। मगर मन कहता है बस बहुत हो गई खुदाई। अभी तक जल नहीं मिला, अब क्या मिलेगा !
ओशो

= १२८ =

 
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*धनि धनि साहिब तू बड़ा, कौन अनुपम रीत ।*
*सकल लोक सिर सांइयां, ह्वै कर रह्या अतीत ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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ऐसा हुआ। एक ईसाई फकीर औरत हुई–सेंट थेरेसा। बड़ी बहुमूल्य स्त्री थी। उसने एक दिन गांव के चर्च में जा कर घोषणा की कि मैं एक बहुत बड़ा परमात्मा का मंदिर बनाना चाहती हूं। गांव छोटा था; चर्च भी बहुत छोटा था। लोगों ने कहा, हम कहां से पैसा इकट्ठा करेंगे ? कहां से बड़ा मंदिर बनाएंगे यहां ? कौन देगा ? कहां से आएगा ?
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एक आदमी ने उससे पूछा कि थेरेसा, यह तो ठीक है कि तुम बनाना चाहती हो, हम भी चाहेंगे। लेकिन तुम्हारे पास पैसे कितने हैं ? थेरेसा ने अपने खीसे में हाथ डाला; दो पैसे थे उसके पास। उसने कहा कि दो मेरे पास हैं, इनसे काम शुरुआत का हो जाएगा। तो लोग हंसने लगे। लोगों ने कहा कि हमको पहले ही शक था कि तेरा दिमाग खराब है। दो पैसे से महान मंदिर बनाने की योजना बना रही है ? करोड़ों रुपयों की जरूरत पड़ेगी !
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सेंट थेरेसा ने कहा कि तुम्हें ये दो दिखाई पड़ते हैं, यह तो ठीक है। मेरे पास दो हैं। लेकिन उसके पास ? वह भी मेरे साथ है। दो पैसा+परमात्मा, कितना होता है हिसाब ? उसने कहा। और दो पैसे तो सिर्फ शुरुआत के लिए हैं, आखिर में तो उसी को करना है। हम कर ही क्या सकते हैं ? हमारी शक्ति क्या है ? उसने कहा, दो ही पैसे की हमारी शक्ति है, बाकी तो उसी की है। और दो पैसे हमारे पास हैं। उतने तक हम जाएंगे, फिर उससे कहेंगे, अब तेरी मर्जी।
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और वह मंदिर बना। वह मंदिर आज भी खड़ा है। विराट मंदिर बना है। वह मंदिर तुम्हारी शक्ति से नहीं बनता। तुम्हारे पास तो दो ही पैसे हैं। उससे तो तुम कल्पना ही नहीं कर सकते बनाने की। क्या बनेगा ? तुम हो क्या ? तुमसे होगा क्या ? तुम क्या पा सकोगे ? बड़े मंदिर को बनाने चले हो! लेकिन दो पैसे+परमात्मा, तब अपार संपत्ति तुम्हारे पास है। फिर कोई हर्जा नहीं। फिर तुम जो भी बनाना चाहोगे, बनेगा। लेकिन तुम दो ही पैसा रहना।
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जैसे ही तुम निर्बल हुए, परम शक्ति का स्रोत उपलब्ध हो जाता है। जब तक तुम सबल हो, तब दो पैसे से ज्यादा तुम्हारी शक्ति नहीं। इसलिए नानक दोहरा रहे हैं, न इसमें शक्ति है, न उसमें शक्ति। वे तुमसे शक्ति छीन रहे हैं। इसलिए मैं कहता हूं, सदगुरु तुमसे छीन लेता है, तुम्हें देता नहीं। सदगुरु तुमसे छीन लेता है, तुम्हें निर्बल बना देता है, तुम्हें असहाय कर देता है।
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तुम्हें उस हालत में छोड़ देता है, जैसे मरुस्थल में कोई पड़ा हो और प्यासा हो, और जल के कोई स्रोत करीब न हों। उस क्षण जो प्यास प्रार्थना की तरह उठेगी, वहीं तुम पाओगे, निर्बल के बल राम ! वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा उपलब्ध है। मरुस्थल से उठी प्यास जब तुम्हारे जीवन से उठेगी, उसी क्षण। जब तुम पूर्ण असहाय हो, तभी उस परम का सहारा मिलता है।
ओशो

रविवार, 28 अप्रैल 2024

= १२७ =

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*दादू सचु बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।*
*भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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नानक कहते हैं, लेकिन विचार होगा कर्म का। वह परमात्मा सच्चा है और उसका दरबार भी सच्चा है। और ध्यान रखना कि तुम सच्चे हुए तो ही उसके दरबार में प्रवेश पा सकोगे। तुम किसे धोखा दे रहे हो ? तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो, लेकिन क्या तुम स्वयं को धोखा दे सकते हो ? तुम तो जानते ही हो कि तुम क्या हो !
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सारी दुनिया तुम्हें पूजे, कहे कि तुम साधु हो, लेकिन तुम तो भीतर जानते ही हो कि तुम कौन हो ? उस भीतर छिपे को कैसे धोखा दोगे ? वह जो तुम्हारा भीतर छिपा हुआ अस्तित्व है, वही तो परमात्मा है। परमात्मा के सामने तुम कैसे वंचना करोगे ? वहां तो तुम नग्न हो। वहां तो सब खुला है। वहां तो कुछ ढंका नहीं हो सकता।
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उस दरबार में तो सच्चे ही तुम हो सकोगे तो ही प्रवेश पा सकोगे। लोग पूछते हैं, परमात्मा कैसे पाएं ? लोगों को पूछना चाहिए, सच्चे कैसे हों ? परमात्मा को पाने की बात ही छोड़ देनी चाहिए। जैसे लोग पूछते हैं, परमात्मा दिखायी नहीं पड़ता। उन्हें पूछना चाहिए, मुझे परमात्मा क्यों दिखायी नहीं पड़ता ?
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झूठी आंखें उसे नहीं देख सकतीं। सत्य को देखना हो तो सच्ची आंखें चाहिए। सत्य को अनुभव करना हो तो सच्चा हृदय चाहिए। सत्य को पहचानना हो तो तुम्हें भी सच्चा होना पड़े। क्योंकि समान ही समान को पहचान सकता है। तुम अभी जहां खड़े हो, जैसे खड़े हो, बिलकुल झूठ हो।
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झूठ का मतलब इतना नहीं है कि तुम जो बोलते हो वह झूठ है। तुम्हारा होना ही झूठ है। तुम्हारे चेहरे झूठ हैं। तुम्हारा व्यवहार झूठ है। तुम कहते कुछ हो, तुम सोचते कुछ हो, तुम करते कुछ हो। तुम्हारी बात का, तुम्हारे होने का कोई भी भरोसा नहीं है। तुम्हें खुद ही भरोसा नहीं है कि तुम क्या कर रहे हो। क्या तुम यही करना चाहते हो ? तुम क्या कह रहे हो ? क्या तुम यही सोचते हो जो तुम कह रहे हो ?
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लेकिन तुम डरोगे बहुत। क्योंकि अगर तुम सच्चे होने लगे तो तुमने धर्मशाला में जो घर बनाया है, वह गिरने लगेगा। क्योंकि इस धर्मशाला में–धर्मशाला का अर्थ है, वह पड़ाव है, घर नहीं है–बड़े से बड़ा झूठ तो तुमने यह खड़ा किया है कि तुमने घर बना लिया है। अब तुम कागज की नाव में बैठे हो और यात्रा कर रहे हो। तुम यात्रा करोगे कैसे ? किनारे पर ही बैठे रहोगे। नाव को पानी में भी उतारना खतरनाक है। क्योंकि कागज की नाव है, उतरी कि डूबी। उतरी कि गली।
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लोग मेरे पास आते हैं। और वे कहते हैं कि अगर हम सच्चे हो जाएं तो जीवन बहुत मुश्किल हो जाएगा। हो ही जाएगा। क्योंकि झूठ से तुमने जीवन को बनाया है, इसलिए। शुरू में तो बहुत मुश्किल होगा। न बदलो तो भी मुश्किल है। कौन सा सुख तुमने जाना है ? कौन से आनंद का फूल तुम्हारे जीवन में खिला है ? कौन सी सुगंध आयी है ? क्या है कि जिसके कारण तुम कह सको कि जीना सार्थक हुआ ? कुछ भी तो दिखायी नहीं पड़ता।
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कठिन तो अभी भी है। लेकिन इस कठिनाई के तुम आदी हो गए हो। जब तुम सच में बदलने की कोशिश करोगे तो आदतें टूटेंगी। जिस आदमी से तुम्हें कुछ प्रेम नहीं है, उससे तुम कहते हो, आप आए, बड़ा सौभाग्य है। और भीतर सोचते हो कि इस दुष्ट का चेहरा कैसे दिखायी पड़ गया सुबह-सुबह ! आज का दिन खराब हो गया।
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अगर वह आदमी भी थोड़ा समझदार हो, थोड़ा सजग हो, तो वह तुम्हारे झूठ को देख लेगा। क्योंकि तुम कहो कुछ भी, तुम्हारी आंखें खबर देंगी। तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा हाव-भाव प्रसन्नता प्रकट नहीं करेगा। तुम्हारे शब्द और होंगे, तुम्हारे ओंठ और होंगे। उन दोनों में कोई संगति न होगी।
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क्योंकि जब कोई आदमी सच ही प्रसन्न होता है, तो प्रसन्नता की बात कहता थोड़े ही है ! उसका रोआं-रोआं गदगद हो उठता है। जब कोई आदमी सच ही प्रसन्न होता है, तो उसको तुम पहचान सकते हो। लेकिन दूसरा भी सोया हुआ है। वह भी सोचता है कि तुम ठीक कह रहे हो। इसलिए तो खुशामद दुनिया में सफल होती है। सब झूठी है। और सुनने वाला भी अगर गौर से सुने तो समझेगा कि तुम बिलकुल गलत बात कह रहे हो। यह है ही नहीं।
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इंग्लैंड में कवि हुआ ईट्स। उसे नोबल प्राइज मिली। उसका स्वागत किया गया। वह बहुत सच्चा आदमी था। बहुत सरल आदमी था। उसके काव्य में भी वैसी सच्चाई है। जब उसका स्वागत किया गया तो स्वागत में तो जैसा होता है, लोग स्तुति करते हैं। जो सदा गाली देते थे, वे भी वहां खड़े हो कर स्तुति करते हैं। वह बड़ा हैरान हुआ। और उसे बड़ा संकोच होने लगा कि ये सब झूठी बातें मेरे संबंध में कही जा रही हैं। वह अपनी कुर्सी में सिकुड़ता गया–दो घंटे !
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जब स्तुति खतम हुई तो लोगों ने देखा कि वह कुर्सी में बिलकुल ऐसा दबा बैठा है कि जैसे अब उसके बर्दाश्त के बाहर है। उसे हिलाया सभापति ने और उससे कहा, आप सो तो नहीं गए हैं ? उसने कहा कि मैं सो नहीं गया हूं, लेकिन अगर मुझे यह पता होता तो मैं न आता। कुछ समझा नहीं सभापति।
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उसने खड़े हो कर घोषणा की कि पच्चीस हजार पौंड हमने पूरे मित्रों ने इकट्ठे किए हैं तुम्हारी भेंट के लिए। सोचा सभी ने कि वह बड़ा प्रसन्न होगा। उसने खड़े हो कर कहा कि अगर मुझे पता होता कि सिर्फ पच्चीस हजार पौंड के लिए इतना झूठ मुझे सुनना पड़ता तो मैं आता ही नहीं। सिर्फ पच्चीस हजार पौंड के लिए इतना झूठ ! महंगा सौदा रहा। दो घंटे !
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अगर तुम थोड़े सजग हो तो तुम्हारी कोई खुशामद न कर सकेगा। क्योंकि तुम पाओगे कि यह आदमी झूठ बोल रहा है। लेकिन तुम सजग नहीं हो, लोग झूठ बोल रहे हैं चारों तरफ, तुम्हारे खयाल में नहीं आता। तुम खुद झूठ बोल रहे हो, वह तक तुम्हारे खयाल में नहीं आता कि तुम क्या कह रहे हो ? और तब तुम फंसते हो बड़ी झंझटों में। किसी स्त्री से कह बैठते हो कि तू बड़ी सुंदर है। तुझसे मुझे बड़ा प्रेम है। फिर तुम उलझन में पड़े। तुम शायद झूठ ही कह रहे थे। अब यह सिलसिला शुरू हुआ। कल तुम पछताओगे।
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मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी ने कहा उससे एक दिन सुबह चाय पीते वक्त कि तुम ही मेरे पीछे पड़े थे। मैं तुम्हारे पीछे कभी नहीं पड़ी थी। और अब तुम्हारे ये ढंग ! अगर यही व्यवहार करना था तो मेरे पीछे क्यों पड़े थे ? मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, तू बिलकुल ठीक कह रही है। कभी किसी चूहादानी को चूहे को पकड़ने के लिए दौड़ते देखा है ? चूहा खुद ही फंसता है। यह बात सच है तेरा कहना कि हम खुद ही तेरे पीछे पड़े थे।
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स्त्रियां होशियार हैं इस मामले में। इसलिए कोई पति कभी उनको यह नहीं कह सकता कि तू मेरे पीछे पड़ी थी। कोई स्त्री ऐसी भूल नहीं करती। क्योंकि यह झंझट आज नहीं कल तो आने ही वाली है। हमेशा पुरुष ही फंसता है। क्योंकि स्त्री चुपचाप देखती है। वह सुनती है, वह राजी होती है, सिर हिलाती है। बाकी कभी इनिशिएटिव नहीं लेती। पहल नहीं करती। वह नसरुद्दीन ठीक कहता है कि कोई पिंजड़ा चूहे के पीछे नहीं भागता। स्त्रियां ज्यादा होशियार हैं। वे अपने आप ही…।
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जब नसरुद्दीन मरने लगा तो उसके बेटे ने पूछा कि कोई सूत्र जीवन के अनुभव के ? तो उसने कहा, तीन बातें सीखी हैं पूरे जीवन में। एक यह कि अगर लोग थोड़ा धैर्य रखें तो फल अपने आप ही पक जाते हैं और गिरते हैं। उनको तोड़ने के लिए झाड़ पर चढ़ने की कोई जरूरत नहीं। और दूसरी बात कि लोग अगर धैर्य रखें तो लोग अपने आप ही मर जाते हैं। उनको मारने के लिए युद्ध वगैरह करने की कोई जरूरत नहीं। और तीसरी बात, अगर लोग सच में धैर्य रखें तो स्त्रियां खुद पुरुषों के पीछे भागेंगी। उनके पीछे भागने की कोई जरूरत नहीं है। उसने कहा, ये तीन चीजें मैंने जीवन का सार अनुभव की हैं। लेकिन कोई सार से तो चलता नहीं। न कोई अनुभव से चलता है।
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क्या तुम बोलते हो ? क्या तुम करते हो ? होशपूर्वक करोगे तो तुम पाओगे निन्यानबे तो गिर गया। निन्यानबे प्रतिशत तो गिर गया। एक प्रतिशत बचेगा। वह एक प्रतिशत धर्मशाला के लिए काफी है। वह निन्यानबे प्रतिशत से घर बना रहे थे तुम। वह जो एक प्रतिशत बचेगा, वही संन्यासी का जीवन है। जो अनिवार्य है वही बचेगा।
ओशो

= १२६ =

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*अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।*
*जोति स्वरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गावन हारा कदे न गावै,अनबोल्या नित गावै ।
कबीर कहते हैं, जो असली गायक है, वह गाता थोड़े ही है। उससे गीत पैदा होता है। असली गायक स्वयं ही गीत है। वह गाता नहीं। क्योंकि गाना तो कृत्य है। असली गायक की तो आत्मा ही गीत है। उसका होना गीतपूर्ण है। तुम उसके पास जाकर संगीत सुनोगे।
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वह चुप बैठा हो, तो भी उसके चारों तरफ मधुर संगीत गूंजता हुआ तुम पाओगे। एक गुनगुनाहट हवा में होगी। एक गीत उसके होने से पैदा रहेगा। एक सन्नाटा–लेकिन संगीतपूर्ण। तुम्हें छुएगा, स्पर्श करेगा, तुम्हें भर देगा। गावन हारा कदे न गावै।
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इसलिए तो परमात्मा का गीत तुम्हें सुनाई नहीं पड़ता। क्योंकि वह गा नहीं रहा, वह स्वयं गीत है। जब तक तुम परिपूर्ण शून्य न हो जाओ तुम उस गीत को न सुन पाओगे–अवधू, शून्य गगन घर कीजै। जैसे ही तुम शून्य-घर में प्रविष्ट हो जाओगे, वैसे ही वह गीत सुनाई पड़ने लगेगा, जो परमात्मा है।
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गावन हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
बोलता नहीं, फिर भी नित उसका गीत चलता रहता है
नटवर पेखि पेखना पेखै, अनहद बेन बजावै।
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और जिसने उसको देख लिया, नाचनेवाले को, उस गानेवाले को, उस नटवर को, उस नटराज को, उसने सब देख लिया। क्योंकि उसका नृत्य ही तो सारा दृश्य जगत है। ये जो तुम्हें फूल-पत्ते, आकाश, वृक्ष, बादल दिखाई पड़ रहे हैं, ये सब उसके नृत्य की भाव-भंगिमाएं हैं। पूरा अस्तित्व नाच रहा है। इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा की जो गहनतम प्रतिभा गढ़ी है, वह नटराज है। और सारी प्रतिमाएं फीकी हैं। नटराज बेजोड़ है। नाचनेवालों का राजा ! वह दिखाई नहीं पड़ता।
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तिब्बत में एक कथा है, कि एक व्यक्ति नाचते-नाचते ऐसी दशा में पहुंच गया कि जब वह नाचता था, तो नाच ही रह जाता था और नाचनेवाला खो जाता था। सभी नर्क उसी दशा में पहुंच जाते हैं। तब उनके जीवन में अनूठी घटनाएं घटती हैं। वह नर्तक इस अवस्था में पहुंच गया वर्षों के नृत्य के बाद। जब वह नाचता था, तो शुरू में तो लोगों को दिखाई पड़ता था।
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थोड़ी देर में धुंधला हो जाता। और थोड़ी देर में धुएं की रेखा रह जाती और थोड़ी देर में नाचनेवाला खो जाता। कुछ दिखाई न पड़ता। लेकिन जो शांत हो सकते थे, वह उसके नृत्य को पूर शरीर पर स्पर्श होते अनुभव करते। क्योंकि उसके नृत्य से सारी हवा तरंगायित होती।
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नटराज का अर्थ है, ऐसा नर्तक, जिसके भीतर नर्तक और नृत्य में भेद नहीं है। जो स्वयं अपना नृत्य है। जो नर्तक भी है और नृत्य भी है। यह सारा अस्तित्व उसका नर्तन है। और इस नर्तन को तुम समझ लो तो नर्तक मिल जाए। नर्तक मिल जाए, तो तुम नर्तक को समझ लो।
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प्रकृति को तुम ठीक से पहचान लो, तो परमात्मा की प्रतिमा उभर आए। या तो परमात्मा से तुम्हारा मिलन हो जाए, तो प्रकृति तुम्हें उसकी भाव-भंगिमा मालूम होने लगे। आकाश पर घिरते बादल उसके चेहरे पर ही घिरते हैं। झीलों में चमकती शांति उसकी आंखों में ही चमकी है, उसकी आंखों की ही गहराई है।
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सब वही है। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है, सबका सारभूत! इसलिए तुम उसे खोजने जाओ, तो कहीं मिलेगा नहीं। तुम इस भ्रांति में मत रहना कि कहीं किसी दिन पहुंच जाओगे, परमात्मा आमने-सामने खड़ा है और तुम जैरामजी कर रहे हो। कभी तुम्हें परमात्मा आमने-सामने न मिलेगा। वह सब है।
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गावना हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना पेखै..... और जिसने उसे देख लिया, नृत्य के विस्तार को देख लिया। उसने सारा दृश्य समझ लिया, जिसने द्रष्टा को समझ लिया। अनहद बेन बजावै–उसकी वीणा तो अनहद बज रही है। तुम्हीं को अपने कान सम्हालने हैं। उसकी वीणा तो कभी रुकती नहीं। तुम्हें ही अपने को सम्हाल लेना है, ताकि तुम वीणा को सुन सको।
🌸आचार्य रजनीश ओशो🌸

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४५/४८*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४५/४८*
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कहि जगजीवन रांमजी, रोपा रोपै खांइ ।
जे धर बीरज सोइ फल, घटि बधि कही न जाइ ॥४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो बोया है वह ही खायेंगे जैसा बीज है वैसा ही फल होगा जरा भी घटता बढता नहीं है ।
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ध धौ४ त तौ अक्शर५ उभै, इन मांहि सकल बिलास ।
अब आवै उस एक करि, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
(४. ध धौ=धर्म) {५. त तौ=तत्त्व(ब्रह्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ध एवं त इन दो अक्षरों में ही सकल संसार का ऐश्वर्य है । ये दोनों धर्म व तत्त्व जो कि ब्रह्म है प्रभु सानिध्य में आते हैं ।
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कहि जगजीवन तीन खड़६, करउ छाट गंधेल७ ।
सावण मास हर्या सकल, ए कुदरत का खेल ॥४७॥
(६. खड़=घास) (७. गंधेल=विषमय या निरर्थक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसकी जैसी प्रवृत्ति होती है उसे सब वैसा ही भासता है । जैसे सावन मास में प्राकृतिक रुप हे ही हरा होता है पर इस ऋतु में दृष्टि हीन हुये गर्दभ को तीनों ही ऋतु शीत ताप वर्षा में सावन ही दिखता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, तुलसी मंजर जाइ ।
सघन बाग मंहि पीपली, निहचल रहै समाइ ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तुलसी मंजरी हटाने पर ही वृद्धि को प्राप्त होती है । किन्तु वहीं पीपल का वृक्ष चाहे कितने ही सघन वन में हो बिना रखाव के भी एकदम निश्चल खड़ा रहता है । तुलसी विशेष रुष से ठाकुर प्रिया है । व पीपल ब्रह्म भरोसे है ।
(क्रमशः)

*है चक चौंध रु मंडल छायो*

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🌷🙏🇮🇳 *#भक्तमाल* 🇮🇳🙏🌷
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*दादू बंझ बियाई आत्मा, उपज्या आनन्द भाव ।*
*सहज शील संतोष सत, प्रेम मगन मन राव ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*रास रज्यो शरै पिय प्यारि ये,* 
*रंग बढ्यो किमि जात सुनायो ।*
*प्यारि लिई गति दामनि-सी दुति,* 
*है चक चौंध रु मंडल छायो ॥*
*नूपुर टूट गिर्यो मन सोचत,* 
*तोरि जनेउ कर्यो उहि भायो ।*
*कैत सबै यह काम सु आवत,* 
*बोझ सह्यो नित सोफल पायो ॥३९६॥*
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शरद पूर्णिमा की रात को रास हो रहा था, समाज में प्रेम रंग बहुत बढ़ा चढ़ा था । उसको सुनाया कैसे जा सकता है ?
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उसी समय श्रीप्रियाजी ने आवेश में आकर नृत्य की ऐसी विचित्र गति ली कि रास मण्डल में मानों बिजली-सी चमक उठी । उसकी आँखों में चकाचौंध हो गया, ऐसा विलक्षण प्रकाश छा गया ।
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किन्तु प्रियाजी का नूपुर(घुंघरू) टूट गया । उसके दाने बिखर गये । यह देखकर व्यासजी का मन चिन्ता में पड़ गया, किन्तु आपने शीघ्र ही अपना जनेऊ तोड़कर उसे ठीक बनाके पहना दिया । आपको ऐसा करना अच्छा लगा ।
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किन्तु किसी ने कहा- "जनेऊ क्यों तोड़ा, यह तो किसी अन्य धागे से भी ठीक बन सकता था ?" तब आपने उस महात्माओं के समाज में कहा- "आज तक इस यज्ञोपवीत का नित भार ही ढोना सहन किया था किन्तु आज यह काम आ गया । इससे आज इसके भार ढोने का फल मुझे मिल गया है"॥
(क्रमशः)

= १२५ =

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*वाचा बंधी जीव सब, भोजन पानी घास ।*
*आत्म ज्ञान न ऊपजै, दादू करहि विनास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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मैंने सुना है कि ऐसा हुआ, कि हेनरी फोर्ड और फायर स्टोन कंपनी का प्रथम मालिक फायर स्टोन, दोनों; और एक कवि हेनरी वैलेस तीनों एक पुरानी हेनरी फोर्ड की पुरानी कार में एक यात्रा पर गए थे। बीच में एक गांव पर पेट्रोल भरवाने के लिए रुके। तो हेनरी फोर्ड खुद ही गाड़ी चला रहा था। पीछे फायर स्टोन बैठा था वालेस बैठा था, जो कवि था। तीनों की बड़ी दाढ़ी और तीनों बड़े संभ्रात व्यक्ति।
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हेनरी फोर्ड ने ऐसे ही बात की बात में, जो आदमी पेट्रोल भरने आया उससे कहा, कि तुम सोच भी नहीं सकते कि तुम किसकी गाड़ी में पेट्रोल भर रहे हो ? मैं हेनरी फोर्ड हूं। हेनरी फोर्ड यानी सारी दुनिया की मोटरों का मालिक। उस आदमी ने ऐसे ही गौर से देखा और कहा हूं। उसको भरोसा नहीं आया, कि हेनरी फोर्ड यहां क्या मरने आएंगे, इस छोटे गांव में ?
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और अगर हेनरी फोर्ड ही है, तो बताने की क्या जरूरत ? वह अपना पेट्रोल भरता रहा। हेनरी हुई, कि उसने कुछ भी नहीं कहा। उसने कहा, शायद तुम्हें पता न हो कि मेरे पीछे जो बैठे हैं वे फायर स्टोन हैं–फायर स्टोन टायरों के मालिक। उस आदमी ने पीछे भी गौर से देखा और जोर से कहा हूं ! और जैसे ही हेनरी फोर्ड ने कहा कि तुम्हें शायद कल्पना भी नहीं हो सकती कि तीसरा आदमी कौन है।
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इस आदमी ने नीचे पड़ा लोहे का डंडा उठाया और कहा कि तुम मुझसे यह मत कहना, कि ये ही परमात्मा है जिन्होंने दुनिया बनाई। सिर खोल दूंगा। सभी मौजूद हैं ! एक परमात्मा ही भर मौजूद नहीं है समझो। हेनरी फोर्ड सादा आदमी था, कि उसके कपड़े देख कर कोई पहचान नहीं सकता था कि हेनरी फोर्ड हैं; न उसकी का देखकर।
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क्योंकि वह पहला माडल–टी माडल; जो उसने बनाया था, उसीमें यात्रा करता रहा जिंदगी भर। अच्छे माडल बने, अच्छी कारें आई लेकिन हेनरी फोर्ड अपने टी माडल में चलता रहा। और साधु जैसा लगता था। इसलिए तो भरोसा नहीं आया कि हेनरी फोर्ड इस गांव में क्या करेंगे ? और फिर यह वेशभूषा। सांताक्लाज हो सकते हैं लेकिन हेनरी फोर्ड ?
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सीधा आदमी था। धनी आदमी सादगी से भर जाता है। कुछ आश्चर्य नहीं, कि महावीर, बुद्ध राजपुत्र हो कर भिखारी हो गए। सिर्फ राजपुत्र ही भिखारी हो सकते हैं। भिखारी तो राजपुत्र होना चाहता है। जो तुम नहीं हो, वह तुम होना चाहते हो। जो तुम हो, वह होने की आकांक्षा चली जाती है। आदमी इसीलिए तो इतना गर्वाया फिरता है; कि जो-जो उसमें नहीं है, वह उसी कह खबर देता है। और उसके भीतर घाव छिपे हैं गर्व के।
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जिस चीज में आदमी गर्व करे, तुम समझ लेना कि वही उसकी हीनता की ग्रंथि है। उसको तुम जरा छुओ तुम पाओगे, भीतर से घाव निकल आया, मवाद बहने लगी। वह क्रोधित हो जाएगा। पंडित के ज्ञान पर शक मत करना; अन्यथा वह झगड़ने को तैयार हो जाएगा, विवाद पर उतारू हो जाएगा। गरीब आदमी के धनी होने पर संदेह मत उठाना, मान लेना। शिष्टाचार वही है। चुपचाप कह देना, कि निश्चित। आप जैसा धनी और कौन ?
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जो तुम्हारे पास है, तुम उसकी घोषणा नहीं करते। माया मोहे अर्थ देखि करि काहै कू गरवाना। भयभीत आदमी बहादुरी की बातें करता है। भयभीत आदमी हमेशा दावेदारी करता है कि मैं बड़ा वीर पुरुष हूं। मुल्ला नसरुद्दीन बहुत भयभीत आदमी है। अंधेरे में जाने में डरता है। अंधेरे में भी जाए तो पत्नी को लालटेन लेकर आगे कर लेता है।
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घर में उसके चोरी हुई। तो चोर की शिनाख्त करनी थी। तो अदालत में मजिस्ट्रेट ने पूछा कि नसरुद्दीन, तुम जाग गए थे जब चोरी हुई ? तो उसने कहा कि बिलकुल जाग गया था। तुम सीढ़ियां से नीचे उतर कर देखने आए थे कि नीचे चोर क्या कर रहा है ? बिलकुल आया था। तुम उसको चेहरा पहचान सकते हो ? नसरुद्दीन ने कहा, बिलकुल नहीं।
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तुमने उसको देखा था ? नसरुद्दीन ने कहा, कि देख नहीं पाया। तुम जागे तुम नीचे आए; उस वक्त यह आदमी मौजूद था ? था। तो मजिस्ट्रेट ने कहा, यह तो तुम पहले बात रहे हो। तुम देख क्यों नहीं पाए ? लालटेन पास थी। लालटेन भी थी। तो उसने कहा, लालटेन मेरी पत्नी के हाथ में थी। मैं पत्नी के पीछे था इसलिए देख नहीं पाया। यह डरा हुआ आदमी है।
ओशो

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

= १२४ =

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*दादू जैसा ब्रह्म है, तैसी अनुभव उपजी होइ ।*
*जैसा है तैसा कहै, दादू विरला कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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यूनान में एक बड़ी प्रसिद्ध कथा है। तुमने भी सुनी होगी। एक पुरानी कथा है, कि देवता नाराज हो गए एक व्यक्ति पर। उसका नाम था प्रोमोथियस। वे उस पर नाराज हो गए, क्योंकि उसने देवताओं के जगत से अग्नि चुरा ली और आदमियों के जगत में पहुंचा दी।
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और अग्नि के साथ आदमी बड़ा शक्तिशाली हो गया। उसका भय कम हो गया, उसका भोजन पकने लगा, उसके घर में गर्मी आ गई, जंगली जानवरों से रक्षा होने लगी। और जितना आदमी मजबूत हो गया, उतनी उसने देवताओं की फिक्र करना बंद कर दी। प्रार्थना, पूजा क्षीण हो गयी।
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प्रोमोथियस पहला वैज्ञानिक रहा होगा, जो अग्नि को पैदा किया। देवता बहुत नाराज हो गए, क्योंकि उनकी पूजा-पत्री में बड़ा भग्न हो गया। सारी व्यवस्था टूट गयी। आदमी डरे न, कंपे न। उसके पास अपनी आग हो गई बचाने के लिए। 
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तुम सोच भी नहीं सकते कि आदमी आग के बिना कैसा रहा होगा। बड़ा भयभीत ! रात सो नहीं सकता था क्योंकि जंगली जानवर ! रात भयंकर अंधकार था। सिवाय भय के और कुछ भी नहीं। रात में ही बच्चे जंगली जानवर ले जाते, आदमियों को ले जाते, पत्नियों को ले जाते; सुबह पता चलता। रात बड़ी भयंकर थी।
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उसका भय अभी भी आदमी के मन में मौजूद रह गया है। करोड़ों साल बीत गए, लेकिन भय अभी रात में सरकने लगता है फिर से। तुम्हारे अचेतन मन में तुम अब भी वही आदमी हो, जिसके पास अग्नि न थी। फिर अग्नि ने बड़ी सुरक्षा दी। अग्नि सबसे बड़ी खोज है। अभी तक भी अग्नि से बड़ी खोज नहीं हो पाई। एटम बम भी उतनी बड़ी खोज नहीं है।
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प्रोमोथियस पर देवता नाराज हुए। उन्होंने उसे स्वर्ग से निष्कासित कर दिया, जमीन पर भेज दिया। फिर उसे कष्ट देने के लिए, उसे पीड़ा में डालने के लिए उन्होंने एक स्त्री रची। पिंडोरा उस स्त्री का नाम है। उसको उन्होंने बड़ा सुंदर रचा। सौंदर्य के देवता ने उसको सौंदर्य दिया, बुद्धि के देवता ने उसे प्रतिभा दी, नृत्य के देवता ने उसको पदों में नृत्य भरा, संगीत के देवता ने उसके कंठ को संगीत से सजाया; ऐसे सारे देवताओं ने मिलकर पिंडोरा बनाई।
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पिंडोरा जैसी कोई सुंदर स्त्री नहीं हो सकती; क्योंकि सारे देवताओं की सारी सृजनशक्ति उस पर लग गई। वह प्रोमोथियस को भ्रष्ट करने के लिए उन्होंने पृथ्वी पर भेजी। और उसके साथ चलते वक्त उन्होंने एक पेटी दे दी–एक संदूकची, जो बड़ी प्रसिद्ध है: “पिंडोरा की मंजूषा" और कहा, कि इसे खोलना मत। कभी भूलकर मत खोलना।
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देवता चाहते थे, कि वह खोले। इसलिए उन्होंने कहा कि इसको खोलना मत, भूलकर मत खोलना। इसको खोलना ही नहीं है, चाहे कुछ भी हो जाये ! स्वभावतः देवता कुशल हैं, चालाक हैं, जिस चीज को खुलवाना हो, उसके लिए यह जिज्ञासा भर देनी, कि खोलना मत, उचित है। अगर वे कुछ न कहते तो शायद पिंडोरा भूल भी जाती उस संदूकची को। लेकिन उस दिन से उसको दिन रात एक ही लगा रहता मन में, कि उस संदूक में क्या है ?
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बड़ी सुंदर संदूक थी, हीरे-ज़वाहरातों से जड़ी थी। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। आधी रात में उठकर उसने संदूक खोलकर देख ली। संदूक खोलते ही वह घबड़ा गई। उसमें से भयंकर मनुष्य जाति के दुश्मन निकले–क्रोध, लोभ, मोह, काम, भय, ईष्या, जलन ! एकदम पिंडोरा की संदूकची खुल गई और उसमें से निकले ये सारे भूत-प्रेत और सारी पृथ्वी पर फैल गए।
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घबड़ाहट में उसने संदूकची बंद कर दी, लेकिन तब तक देर हो चूकी थी। सब निकल चुके थे, संदूकची में जो-जो थे, सिर्फ एक तत्व रह गया; उस तत्व का नाम है: आशा। बाकी सब निकल गए, संदूक बंद हो गई। सिर्फ आशा, होप भीतर रह गई। कहानी का अर्थ है, कि लोभ, काम, क्रोध सब तुम्हें बाहर से सताते हैं। आशा तुम्हें भीतर से सताती है।
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आशा यानी कल्पना ! सपना ! इंद्रधनुष ! जैसा है नहीं, उसकी कामना। उसका भरोसा, जैसा कभी नहीं होगा। तुम भी अपने यथार्थ क्षणों में जानते हो, ऐसा कभी नहीं होगा, लेकिन सपना तुम्हें पकड़ता है तो तुम भी मानने लगते हो, कि ऐसा ही होगा। वह पिंडोरा की संदूकची में आशा भीतर बंद है–कल्पना, आशा का जाल।
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कबीर कहते हैं, “गुरुदेव बिना जीव की कल्पना ना मिटै।" बिना उस आदमी से मिले, जिसकी कल्पना मिट गई हो, और जिसने सत्य को जाना हो, जिसने सत्य को रंगने-पोतने की व्यवस्था छोड़ दी हो, जिसने सत्य को वैसा ही जाना हो जैसा है, जिसने यथार्थ में अपनी आंखों से कुछ भी उड़ेलना बंद कर दिया हो, जिसने अपने मन के जाल को बाहर फैलाने से रोक लिया हो, जिसने मन ही तोड़ दिया हो, जो अ-मन हो चुका हो।
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जब तक वह तुम्हें न मिले जाये, कौन तुम्हें तुम्हारी कल्पना से जगाए ? कल्पना: माया। कल्पना–नींद में आंख बंद आदमी का सपना। कितना ही सुंदर हो, लेकिन झूठा। और हमारी तकलीफ यह है, कि हम झूठ को भी मान लेते हैं, सुंदर होना चाहिए। और सत्य कठोर है। ऐसा नहीं, कि वह सुंदर नहीं है, लेकिन उसके सौंदर्य में एक कठोरता है–होगी ही।
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वह तुम्हें मालूम पड़ती है कठोरता, क्योंकि तुम सपनों के सौंदर्य में धीरे-धीरे इतने आदी हो गए हो, कि यथार्थ की सख्ती और यथार्थ का यथार्थ तुम्हारे सपनों को तोड़ता मालूम पड़ता है। तुम सपनों के साथ-साथ धीरे-धीरे बहुत कमजोर हो गए हो। इसलिए सत्य को झेल नहीं पाते।
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तुम सत्य को भी झेलना चाहो, तो उसके ऊपर झूठ की थोड़ी सी पर्त चाहिए। तुम सत्य को सीधा-सीधा साक्षात नहीं कर पाते। तुम घबड़ाते हो, कि कहीं तुम मिट न जाओ, कहीं तुम टूट न जाओ। तुम कमजोर हो गए हो कल्पना के साथ। कल्पना ने तुम्हें शक्ति तो नहीं दी, तुम्हारी सारी शक्ति छीन ली है।
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गुरु का अर्थ है, जो तुम्हें धीरे-धीरे, कदम-कदम, हाथ पकड़ कर ले चले सत्य की तरफ। जो धीरे-धीरे तुम्हारी कल्पना से तुम्हें छुड़ाए।
ओशो

= १२३ =

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*निर्मल गुरु का ज्ञान गहि, निर्मल भक्ति विचार ।*
*निर्मल पाया प्रेम रस, छूटे सकल विकार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पहला प्रश्न:
भगवान, श्री शंकराचार्य तत्वज्ञान सिखाते हैं और साथ ही गोविन्द के भजन भी गाते हैं। क्या ज्ञान और भजन में, ज्ञान और भक्ति में कोई अंतर्संबंध है ?
ज्ञान निषेधात्मक है, भक्ति विधायक। ज्ञान ऐसा है जैसे कोई भूमि तैयार करे, घास-पात अलग करे, खाद डाले; और भक्ति ऐसी है जैसे कोई बीज बोए।
.
ज्ञान अपने में अधूरा है। उससे सफाई तो हो जाती है, लेकिन बीज आरोपित नहीं होते। जरूरी है, काफी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो है बुद्धि का, भक्ति है हृदय की। परमात्मा के मार्ग पर जितनी बाधाएं हैं, वे तो ज्ञान से काटी जा सकती हैं; लेकिन जो सीढ़ियां हैं, वे भक्ति से चढ़ी जाती हैं। इसलिए ज्ञान निषेधात्मक है; व्यर्थ को तोड़ने में बड़ा कारगर है, सार्थक को जन्माने में नहीं।
.
शंकर ज्ञान की बात कर रहे हैं, ताकि तुम्हारे भीतर अज्ञान की जो पर्त दर पर्त भीड़ लगी है, कट जाए। और जब एक बार मन की भूमि साफ हो गई, व्यर्थ का कचरा न रहा, कूड़ा-करकट न रहा, तो फिर भक्ति के बीज बोए जा सकते हैं; फिर भज गोविन्दम्‌ की संभावना है। विरोध नहीं है दोनों में; भक्ति ज्ञान की ही पराकाष्ठा है और ज्ञान भक्ति की ही शुरुआत है। क्योंकि मनुष्य के भीतर हृदय भी है, बुद्धि भी है। दोनों को छूना होगा। दोनों का रूपांतरण चाहिए।
.
अगर तुम सिर्फ ज्ञान में ही उलझ गए, तो कोरे रेगिस्तान की भांति हो जाओगे--साफ-सुथरे, पर कुछ भी ऊगेगा नहीं; स्वच्छ, पर निर्बीज; विस्तीर्ण, पर न तो कोई ऊंचाई, न कोई गहराई। ज्ञान शुष्क है, अकेला। और अगर तुम अकेले भक्त हो गए, तो तुम्हारे जीवन में वृक्ष तो उगेंगे, फूल तो फलेंगे, हरियाली होगी, लेकिन उस हरियाली को बचाने के तुम्हारे पास उपाय न होंगे। तुम उन पौधों की रक्षा न कर पाओगे।
.
अगर कोई संदेह जगाने आ गया, तो तुम्हारी उर्वर भूमि में संदेह के बीज भी पड़ जाएंगे, उनमें भी अंकुर आ जाएंगे। भक्त अगर ज्ञान की प्रक्रिया से न गुजरा हो, तो उसका भवन सदा डगमगाता रहेगा। कोई भी संदेह डाल सकता है। और भक्त तो विश्वास करना जानता है। 
.
वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे ले जा रहे हैं; वह उन पर भी विश्वास कर लेता है जो उसे भटका रहे हैं। वह गलत को भी पकड़ लेता है उसी तरह, जिस तरह ठीक को पकड़ता है। उसके पास सोचने-समझने की क्षमता नहीं; उसके पास विवेक नहीं। तो भक्त ऐसे है, जैसे अंधा हो; ज्ञान ऐसे है, जैसे लंगड़ा हो; और दोनों मिल जाएं तो परम संयोग घटित होता है।
Bhaj Govindam (भज गोविन्दम्) 02

= १२२ =

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*विष का अमृत नांव धर, सब कोई खावै ।*
*दादू खारा ना कहै, यहु अचरज आवै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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एक सुख होता है कि बड़े दुख के साथ अहंकार बड़ा होता है। छोटी—मोटी बीमारियां छोटे —मोटे लोगों को होती हैं। बड़ी बीमारियां बड़े लोगों को होती हैं ! छोटे—मोटे दुख, दो कौड़ी के दुख कोई भी भोग लेता है। तुम महंगे दुख भोगते हो। तुम्हारे दुख बहुत बड़े हैं। तुम दुखों का पहाड़ ढोते हो। तुम कोई छोटे—मोटे दुख से नहीं दबे हो। तुम पर सारी दुनिया की चिंताओं का बोझ है।
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तुम अपने दुखों को बड़ा करके बताते हो। तुम बढ़ा—चढ़ाकर बात करते हो। ओर कोई तुम्हारे दुख को छोटा करने की कोशिश करे, तो तुम उससे नाराज होते हो। तुम उसे कभी क्षमा नहीं करते ! आदमी बहुत अदभुत है। तुम अपने दुख की कथा कह रहे हो और कोई उदास होकर सुने, या उपेक्षा करे, तो तुम्हें चोट लगती है, कि मैं अपने दुख कह रहा हूं और तुम सुन नहीं रहे हो! तुम्हें चोट इस बात से लगती है कि तुम मेरे अहंकार को स्वीकार नहीं कर रहे हो ! मैं इतने दुखों से दबा जा रहा हूं; तुम्हें इतनी भी फुर्सत नहीं ?
.
दुख के द्वारा तुम दूसरों का ध्यान आकर्षित करते हो। और अक्सर यह तरकीब मन में बैठ जाती है—गहरी बैठ जाती है—कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है। बचपन से ही सीख लेते हैं। छोटे—छोटे बच्चे सीख लेते हैं ! जब वे चाहते हैं, मां का ध्यान मिले, पिता का ध्यान मिले, लेट जाएंगे बिस्तर पर कि सिर में दर्द है ! स्त्रियों ने तो सारी दुनिया में यह कला सीख रखी है।
.
मैं अनेक घरों में मेहमान होता था। मैं चकित होकर देखता था कि पत्नी ठीक थी, प्रसन्न थी, मुझसे ठीक—ठीक बात कर रही थी। उसके पति आए और वह लेट गयी ! उसके सिर में दर्द है ! पति से ध्यान को पाने का यही उपाय है। सिर में दर्द हो तो पति पास बैठता है। सिर में दर्द न हो, तो कौन किसके पास बैठता है ? और हजार काम हैं !
.
और एक बार तुमने यह तरकीब सीख ली कि दुख से ध्यान आकर्षित होता है, तो आदमी कुछ भी कर सकता है। तुम्हारे ऋषि—मुनि जो उपवास करके अपने को दुख दे रहे हैं, इसी तर्क का उपयोग कर रहे हैं जो स्त्रियां हर घर में कर रही हैं; बच्चे हर घर में कर रहे हैं।
.
किसी ने तीस दिन का उपवास कर लिया है; और तुम चले दर्शन करने ! उसने दुख पैदा कर लिया है, उसने तुम्हारे ध्यान को आकर्षित कर लिया है। अब तो जाना ही होगा ! ऐसे और हजार काम थे। दुकान थी, बाजार था, लेकिन अब मुनि महाराज ने तीस दिन का उपवास कर लिया है, तो अब तो जाना ही होगा ! भीड़ बढ़ने लगती है। लोग काटो पर लेटे हैं। सिर्फ इसीलिए कि कीटों पर लेटे, तभी तुम्हारी नजरें उन पर पड़ती हैं। लोग अपने को सता रहे हैं।
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धर्म के नाम पर लोग हजार तरह की पीड़ाएं अपने को दे रहे हैं; घाव बना रहे हैं। जब तक तुम्हारे मुनि महाराज बिलकुल सूखकर हड्डी—हड्डी न हो जाएं, जब तक तुम्हें थोडा उन पर मांस दिखायी पड़े, तब तक तुम्हें शक रहता है कि अभी मजा कर रहे हैं ! अभी हड्डी पर मांस है। जब मांस बिलकुल चला जाए, जब वे बिलकुल अस्थि—पंजर हो जाएं, तुम कहते हो : वाह, यह है तपस्वी का रूप ! जब उनका चेहरा पीला पड़ जाए और खून बिलकुल खो जाए ।..... OSHO

श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश

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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
===============
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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डाक्टर सरकार आये । डाक्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भाव का कुछ उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"
डाक्टर कह रहे हैं - "जी, हाँ ।”
श्रीरामकृष्ण - मैं बेहोश नहीं हूँ ।
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डाक्टर समझ गये कि श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश है । इसीलिए उत्तर में कहा - "हाँ, आप खूब होश में हैं !"
श्रीरामकृष्ण हँसकर गाने लगे - "मैं सुरा-पान नहीं करता, किन्तु 'जय काली' कह-कहकर सुधापान करता हूँ । इससे मेरा मन मतवाला हो जाता है, पर लोग बोलते हैं कि मैं सुरा-पान करके मत्त हो गया हूँ !
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गुरुप्रदत्त रस को लेकर, उसमें प्रवृत्तिरूपी मसाला छोड़कर, ज्ञान-कलार शराब बनाकर भाँड़े में छान लेता है । मूलमन्त्ररूपी बोतल से ढालकर मैं 'तारा-तारा' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ; और मेरा मन उसका पान कर मतवाला हो जाता है । प्रसाद कहता है, ऐसी सुरा का पान करने से चारों फलों की प्राप्ति होती है ।"
.
गाना सुनकर डाक्टर को भावावेश-सा हो गया । श्रीरामकृष्ण को भी पुनः भावावेश हो गया । उसी आवेश में उन्होंने डाक्टर की गोद में एक पैर बढ़ाकर रख दिया । कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । तब पैर खींचकर उन्होंने डाक्टर से कहा - "अहा, तुमने कैसी सुन्दर बात कही है ! 'उन्हीं की गोद में बैठा हुआ हूँ । बीमारी की बात उनसे नहीं कहूँगा तो और किससे कहूँगा ?' - बुलाने की आवश्यकता होगी तो उन्हें ही बुलाऊँगा ।"
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यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण की आँखें आँसुओं से भर गयीं । वे फिर भावाविष्ट हो गये । उसी अवस्था में डाक्टर से कह रहे हैं - "तुम खूब शुद्ध हो । नहीं तो मैं पैर न रख सकता !" फिर कह रहे हैं – “'शान्त वही है जो रामरस चखे ।'
"विषय है क्या ? - उसमें क्या है ? - रुपया, पैसा, मान, शरीर-सुख इनमें क्या रखा है ? 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”
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बीमारी की इस अवस्था में श्रीरामकृष्ण को भावावेश में रहते देखकर भक्तों को चिन्ता हो रही है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "उस गाने के हो जाने पर मैं रुक जाऊँगा - 'हरि-रस-मदिरा – ’।" नरेन्द्र एक दूसरे कमरे में थे, बुलाये गये ।
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गन्धर्वोपम कण्ठ से नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "ऐ मेरे मन हरि-रस-मदिरा का पान करके तुम मस्त हो जाओ । मधुर हरिनाम करते हुए धरती पर लोटो और रोओ । हरि-नाम के गम्भीर निनाद से गगन को छा दो । 'हरि-हरि' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचो, और सब में इस मधुर हरि-नाम का वितरण कर दो । ऐ मन, हरि के प्रेमानन्द-रसरूपी समुद्र में रात्रन्दिवा तैरते रहो । हरि का पावन नाम ले-लेकर नीच वासना का नाश कर दो और पूर्णकाम बन जाओ ।”
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श्रीरामकृष्ण - और वह गाना, ‘चिदानन्द-सागर में... ?’
नरेन्द्र गा रहे हैं - (भावार्थ) - "चिदानन्द-सागर में आनन्द और प्रेम की तरंगें उठ रही हैं; उस महाभाव और रासलीला की कैसी सुन्दर माधुरी है ! ....”
डाक्टर सरकार ने गानों को ध्यानपूर्वक सुना । जब गाना समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा, "यह गाना अच्छा है - 'चिदानन्द-सागर में ....’”
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डाक्टर को इस प्रकार प्रसन्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "लड़के ने बाप से कहा, "पिताजी, आप थोड़ीसी शराब चख लीजिये और उसके बाद यदि मुझसे कहेंगे कि मैं शराब पीना छोड़ दूँ, तो छोड़ दूँगा ।' शराब चखने के बाद बाप ने कहा, 'बेटा, तुम चाहो तो शराब छोड़ दो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मैं स्वयं तो अब निश्चय ही न छोडूँगा !'
.
(डाक्टर तथा अन्य सब हँसते हैं)
"उस दिन माँ ने मुझे दो व्यक्ति दिखाये थे । उनमें से एक तुम (डाक्टर) थे । उन्होंने यह भी दिखाया कि तुम्हें बहुत ज्ञान होगा, पर वह शुष्क ज्ञान रहेगा । (डाक्टर के प्रति मुस्कराते हुए) पर धीरे-धीरे तुम नरम हो जाओगे ।"
डाक्टर सरकार चुप रहे ।
(क्रमशः)

*श्री रज्जबवाणी, विरह का अंग(४) ~ १.२८*

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*दादू तलफि तलफि विरहनी मरै,*
*करि करि बहुत बिलाप ।*
*विरह अग्नि में जल गई, पीव न पूछै बात ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
विरह का अंग(४)
दुखी दनि रात परी१ विललात,
कहूं किसे बात जनम्म ताती२ ।
जु मांड३ के सुख भये सब दु:ख,
बिना पिय मु:ख सु विगसत४ छाती ॥
गई सब वयस५ न आये नरेश जु,
याही अंदेश६ परी उर काती७ ।
हो१० रज्जब कंत सु लेत है अंत जु,
हेत सु हंत८ जरी जिय९ जाती ॥२८॥
प्रियतम के बिना दिन रात दु:खी हूं, पड़ी१ पड़ी विलाप कर रही हूं, यह बात किससे कहूं, मैं तो जन्म से संतप्त२ हूं ।
जो ब्रह्माण्ड३ के सुख हैं, वे सब तो मेरे लिये दु:ख हो गये हैं, प्रियतम के मुख को देखे बिना छाती फट४ रही है ।
मेरी सभी अवस्था५ विलाप करते हुये चली गई है, किंतु वे अखिल नरों के ईश्वर अभी तक नहीं आये हैं । इसी चिंता६ से हृदय में कटार७ पड़ने जैसी पीड़ा हो रही है ।
हे१० संतों ! खेद८ है प्रभु तो मेरा अंत ले रहे हैं मेरा हृदय९ उनके प्रेम से जल रहा है और मैं मर रही हूं ।
(क्रमशः)

*काल कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल ।*
*हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥*
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*काल कौ अंग ॥*
जाकै सूरज तपै रसोई, पवन अंगना बुहारै ।
नौ गिरह बंध्या पाइ, मींच कौ कुवै उसारै ॥१॥
बिह जाकै दाणौं दलै, बंदि बांध्या तेतीस ।
बषनां वै भी कालि गिरासिया, जाकै दस माथा भुज बीस ॥२॥
जिसके यहाँ सूर्य रसोई-भोजन बनाता था, पवन देवता आंगन की सफाई करता था; जिसने नवों ग्रहों को खाट के पाये से बांधकर रखे हुये थे; यमराज को कुवे में उतार दीया था;
जिसके यहाँ बिह=विधि=विधाता आटा पीसता था; जिसने तेतीस कोटि देवताओं को बंदी बना कर अपने यहाँ कैद कर रखा था, ऐसे दस शिर और बीस भुजाओं वाले बलशाली रावण को भी काल ग्रस गया । वह भी अमर नहीं रह सका । फिर हमारे तुम्हारे जैसे साधारण मानवों की क्या बिसात ? हमें चेतकर तत्काल भगवत्स्मरण में लग जाना चाहिये ॥१-२॥
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जाकै जल था जंघ सँवाना । 
सारा मथिया करि मेर मथाणा ॥
हाथाँ धरि धरि परबत ल्याये । 
बषनां काल उसे नर खाये ॥३॥
जिनके समुद्र का मंथन करते समय, समुद्र का जल जंघाओं तक था (जंघ = जंघा । सँवाना = समान, तक) उन सभी ने उस समुद्र का मंथन मेरु को मथानी = रई बनाकर किया । मेरु पर्वत को वे लोग हाथों में उठा लाये थे; इतने बलशाली थे वे किन्तु बषनांजी कहते हैं, समुद्र का मंथन करने वाले दैत्य और देवता सभी को काल खा गया ॥३॥
“ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं,
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशंति ।”
गीता ९/२१॥
इति काल कौ अंग संपूर्ण ॥अंग १०३॥साषी १८५॥
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२०

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२०)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२०. (सिंधी) वैराग्य । वर्ण भिन्न ताल*
*ये खूहि पयें सब भोग विलासन,*
*तैसेहु वाझौं छत्र सिंहासन ॥टेक॥*
*जन तिहुंरा बहिश्त नहिं भावे, लाल पलिंग क्या कीजे ।*
*भाहि लगे इह सेज सुखासन, मेकौं देखण दीजे ॥१॥*
*बैकुंठ मुक्ति स्वर्ग क्या कीजे, सकल भुवन नहिं भावे ।*
*भठी पयें सब मंडप छाजे, जे घर कंत न आवे ॥२॥*
*लोक अनंत अभै क्या कीजे, मैं विरहीजन तेरा ।*
*दादू दरशन देखण दीजे, ये सुन साहिब मेरा ॥३॥*
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मेरे लिये चाहे, भोग विलास कूप में पड़ो । क्योंकि मुझे उन की कोई इच्छा नहीं हैं । भोगविलास तो भगवान् के दर्शनों के बाधक हैं । ऐसे ही मेरे लिये राजाओं का राज्य जो छत्र सिंहासनयुक्त हैं वह भी निरर्थक हैं । मेरे लिये स्वर्गसुख भी सुख देने वाला नहीं है ।
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शय्या आसन भूषण वसन आदि गृहसुख भी तुच्छ ही हैं । अतः मुझे अच्छे नहीं लगते । चाहे ये सारे भोग अग्नि में जल जाय तो भी मुझे कुछ दुःख नहीं होगा । मैं तो केवल प्रभु को चाहता हूँ । स्वर्गलोक बैकुण्ठलोक चार प्रकार की मुक्ति भी मैं नहीं चाहता । भगवान् के बिना मेरे लिये त्रिभुवन के वैभव भी तुच्छ ही हैं ।
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जिस घर में घर का मालिक न हो तो उस घर की क्या शोभा मानी जाय । इसलिये संसार के अतिरम्य हर्म्य(घर) जो अनन्त वैभवपूर्ण होने पर भी मेरे लिये तो तुच्छ ही हैं । त्रिलोकी में जो अनन्त वैभवपूर्ण स्थान हैं, वे भी निरर्थक हैं । उनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है ।
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हे नाथ ! मैं तो आपको एकमात्र देखने की इच्छा वाला विरहीभक्त हूँ इस निष्कामी भक्त को दर्शन देकर प्रसन्न करो । श्रीमद्भागवत में कहा है कि – हे प्रिय ! उद्धव जो सब और से निरपेक्ष हो गया है । किसी भी कर्म या फल की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे समर्पित कर दिया उसकी आत्मा में, मैं परमानन्दस्वरूप से स्फुरित होने लगता हूँ । इससे वह जिज्ञासु सुख का अनुभव करने लगता है ।
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वह सुख विषयलोलुप प्राणियों को किस प्रकार मिल सकता है । जो सब प्रकार के संग्रह से रहित अकिंचन हैं । जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर शान्त और समदर्शी हो गया । जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा पूर्ण संतोष का अनुभव करता हैं । उसके लिये सब दिशाओं में आनंद ही आनन्द हैं । जिसने अपने को मुझे सौंप दिया ।
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वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता और न देवराज इन्द्र का न सार्वभौम राज्य का सम्राट बनने की इच्छा होती और स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का भी स्वामी नहीं होना चाहता । वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता है ।
(क्रमशः)

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४१/४४*

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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ४१/४४*
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संझ्या बेद सरीर मांहि, सुर नर सकल बिलास ।
चार बार एही कह्या, सु कहि जगजीवनदास ॥४१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चाहे जीवन की संध्या हो या दिवस की सब वेदन से पूर्ण है । जो देव मनुष्य सब ऐश्वर्य मे में रहते हैं चारों पहर प्रभु स्मरण ही श्रेष्ठ कहा है ।
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प्रव्रिति१ में तुलसी बिराजै, मूरति सालिगरांम२ ।
कहि जगजीवन बेद सास्त्र, कोइ गति लखै न रांम ॥४२॥
(१. प्रव्रिति=लोक धर्म व्यवहार) (२. सालिगराम=शालग्राम की मूर्ति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लोक धर्म व व्यवहार में तुलसी जी व सालिगराम जी की मूर्ति पूजा है । व वेद शास्त्रों में भी प्रभु की लीला कोइ नहीं देख सकता है ।
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चुलू चुलू३ कर पीजिये, ये दधि पीया जाइ ।
कहि जगजीवन पीवतां, रांम पिछांणै ताहि ॥४३॥
(३. चुलू चुलू कर पीजिये=हथेली भर जल बार बार पीजिये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शनै शनै कर अमृत पान कीजिये पीने की प्रक्रिया से ही प्रभु योग्यता मापते हैं ।
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सह माया रति त्रिया थति, छिप्त सहंस्क्रित नांम ।
कहि जगजीवन रांम बरम ल्यौ गंगा निज ठांम ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि स्त्री पुरूष की रति क्रिया को भी संस्कार नाम से परिष्कृत किया है । संत कहते हैं कि राम ब्रह्म व गंगा भी अपने स्थान पर परिष्कृत करते हैं ।
(क्रमशः)