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रविवार, 10 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१८-२०) =

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🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
*रस महिया रस होइ हि नीर हि नीर ।*
*आतम मिलि परमातम खीर हि खीर ॥१८॥*
(अब महाकवि तीन उदाहरणों से उस तादात्म्य का वास्तविक स्वरूप बता रहे हैं --) जैसे रस में रस मिलकर एकरूप हो जाता है(उसमें कोई भेद नहीं कर पाता), जल में जल मिलकर एकरूप हो जाता है, दूध में दूध मिलकर एकरूप हो जाता है; इसी तरह यह आत्मा परमात्मा के साथ मिलकर एक(अभिन्न) हो जाता है ॥१८॥
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*सरिता मिलइ समुद्रहिं भेद न कोइ ।*
*जीव मिलइ परब्रह्महि ब्रह्मइ होइ ॥१९॥*
जैसे नदी(का जल) समुद्र में मिल एक हो जाती है, उन दोनों के जलों में कोई भेद नहीं रह जाता; इसी तरह जीवात्मा परब्रह्म से मिलकर ब्रह्मरूप हो जाता है । उसका जीव-अंश ब्रहमांश में लीन हो जाता है ॥१९॥
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*इह अध्यातम जानहुं गुरु मुख दीस ।*
*सुंदर सरस सुनावल बरबै बीस ॥२०॥*
॥ समाप्तोऽयं पूरबी भाषा बरबै ग्रन्थः ॥३७॥
महाराजश्री कहते हैं - यह अध्यात्म(आत्मविषयक) गूढ़ तत्व, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है, मैंने स्वयं अपने गुरुदेव से साक्षात् उपदेश द्वारा पाया है । इसी को मैंने साधारणजनों के लिये(करुणापरवश होकर कि वे भी इसे ग्रहण कर लें) इन ललित वरवै नामक छन्दों के माध्यम से सुना दिया है ॥२०॥
*॥ पूरबी भाषा बरवै ग्रन्थ समाप्त ॥*
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*॥ इति श्री स्वामी सुन्दरदास बिरचित ३७ लघु ग्रन्थ संपूर्ण ॥ *
(“सर्वांगयोगप्रदीपिका” ग्रन्थ से “पूर्वी भाषा बरवै” तक)(सैंतीस लघुग्रन्थों की सर्व् संख्या १२१६) स्वामी श्री सुन्दरदास जी के ३७ लघु ग्रन्थ समाप्त ॥ इन उपर्युक्त ३७ लघु ग्रन्थों में आये समग्र छन्दों की गणना १२१६(एक हजार दो सौ सोलह) है ॥
(क्रमशः)

शनिवार, 9 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१६-१७) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
*सुख निधान परमातम आतम अंस ।* 
*मुदित सरोवर महिंया क्रीडत हंस ॥१६॥* 
यह आत्मा, जो कि उस परब्रह्म की ही अंश है, उसमें लीन होकर उसी आनन्द की अनुभूति करता है, जो आनन्द हंस को मानसरोवर मिलने पर होता है ॥१६॥ 
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*एक सेज बर कामिनि लागलि पाइ ।* 
*पिय कर अंगिह परसत गइल बिलाइ ॥१७॥* 
एक शय्या पर बैठकर कामिनी(जीवात्मा) अपने प्रियतम(परमात्मा) के पैर दबाती हुई तथा उसके अनन्य अंगों का स्पर्श करती हुई इतनी विभोर हो गयी कि वह उसी में लय(तादात्म्यभाव) को प्राप्त हो गयी ॥१७॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१४-१५) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*निशि दिन प्रेम हिंडुलवा दिहल मचाइ ।*
*सेई नारि सभागिनि झूलइ जाइ ॥१४॥*
इस दिव्य झूले पर वही सुहागिन नारी(ज्ञानी पुरूष) या जीवात्मा अपने कन्त(परमात्मा) के साथ झूलने का सौभाग्य पाती है, जिसने प्रेमा भक्ति के द्वारा अपने पति(परमात्मा) को वश में कर लिया है । (जीव-रूपी स्त्री प्रेमा भक्ति द्वारा ब्रह्मरूपी पति के साथ लीन हो जाती है । अर्थात् जीवतत्व परमात्मतत्व से मिल जाता है) ॥१४॥
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*सज्जन मिलिकैं गावल मंगलचार ।*
*प्रेम प्रकाश दसौं दिश भय उजरियार ॥१५॥*
इस सौभाग्यावस्था में अन्य सज्जन(जिज्ञासुजन) इस मिलन के लिये मंगलगान गाते हैं कि इस जीव का प्रेमानन्द के प्रकाश में दुःख(शोक) रूपी अन्धकार विनष्ट हो गया, केवल आनन्द की बृत्ति रह गयी है ॥१५॥
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१२-१३) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*सब के मन भावन सरस बसंत ।*
*करत सदा कौतूहल कामिनि कंत ॥१२॥*
इसी से कामिनी(ज्ञानी पुरूष) अपने कन्त(परब्रह्म-परमात्मा) के साथ अद्वैतानन्द का सुखभोग करती हैं ॥१२॥
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*झूलत बैसि हिंडोरनि पिय कर संग ।*
*उत्तम चीर बिराजल भूषन अंग ॥१३॥*
वह कामिनी नानाविध उत्तम वस्त्र एवं आभूषण पहनकर यहाँ अपने प्रियतम के साथ हिंडोले(झूले) में बैठकर झूला झूल रही है ॥१३॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१०-११) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*अंब डार पर बैसल कोकिल कीर ।*
*मधुर मधुर धुनि बोलइ सुखकर सीर ॥१०॥*
इस बाग के आमों की डालियों पर कोयल, तोते जगह-जगह पर बैठै हुए मीठी-मीठी ध्वनि में बोली बोल रहे हैं, जिससे सुननेवाले को सुखकर तुषार(हिमकरण) सा अनुभव होता है ॥१०॥
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*अवर अनेक विहंगम चातक मोर ।*
*चकवा कोकिल केकिय प्रकट चकोर ॥११॥*
दूसरी जगह और भी अनेक प्रकार के पक्षी हैं, जैसे चातक, मोर, चकवा, कोयल, केकी, चकोर आदि - इन सभी के मन को उस बाग की वह फूली बसन्त ऋतु मोह रही है ॥११॥
(क्रमशः)

सोमवार, 4 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/८-९) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*= आध्यात्मिक बसन्त वर्णन =*
*बहुत जतन कै लावल अद्भुत बाग ।* 
*मूल उपरतर डरिया देखहु भाग ॥८॥*
बहुत प्रयास(‘एकोऽहं बहु स्याम्’—यह संकल्प) करके यह अद्भुत बाग(संसार रूपी वृक्षसमूह) लगाया है जिसकी जड़ तो ऊपर(मूल पुरूष में) है, उसकी डाल(शाखारूपी संसार) नीचे है । यही फैला हुआ संसार वृक्ष कर्मफल देता है । (तुलना कीजिये -‘ऊर्ध्वमूल मधःशाखमश्वत्थं प्राहुर-व्ययम्’ - गीता अ०१५-१) ॥८॥ 
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*सहज फूल फल लागल बारह मास ।* 
*भंवर करत गुंजारनि बिबिध बिलास ॥९॥* 
इस संसार-वृक्ष में अपने प्रारब्ध कर्म-विपाकरूपी फल-फूल बारहों महीने लगते रहते हैं । भौंरे(संसारी प्राणी अपने प्रारब्धानुसार) उन कर्म-फलों को चारों ओर मँडराते रहते हैं । उन कर्म-फलों को(भोग- पदार्थों को) भोगते रहते हैं ॥९॥
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(यहाँ से ग्रन्थ के अन्त तक उस परमावस्था,  परमानन्दप्राप्ति और योग-समाधि के सुख और उसकी बहार के अनुपम दृश्य का वर्णन है जो योगस्थ ध्यानमग्न योगियों को अनुभव होता है --)
(क्रमशः)

रविवार, 3 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/५-७) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*औरउ अचिरज देखल बांझ कपूत ।*
*पंगु चढल परबत पर बड अवधूत ॥५॥*
मैंने उस योगी के घर में एक और आश्चर्य देखा है कि उसके घरवाली बन्ध्या(सात्विक बुद्धि) है, परन्तु उसको पुत्र(ब्रह्मज्ञान) उत्पन्न हुआ है ॥५॥
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*जल महिं पावक प्रज्लयउ पुंज प्रकास ।*
*कंवल प्रफुल्लित भइले अधिक सुवास ॥६॥*
उसके यहाँ शीतल जल(सात्वि्क अन्तःकरण) में (ब्रह्मज्ञानी) अग्नि प्रज्वलित है । अब उसका ह्रदयकमल पूर्ण प्रफुल्लित(आनन्दमग्न) है । और वह अर्थी(जिज्ञासु) जनों को पहले की अपेक्षा अधिक सुगन्ध(तत्त्वोपदेश) देता हैं ॥६॥
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*अंधकार मिटि गइले ऊगल भान ।*
*हंस चुगै मुक्ताफल सरवर मान ॥७॥*
उसका अन्धकार(अविद्या, माया का) पूर्णतः मिट गया; क्योंकि(ज्ञानरुपी) सूर्य उदय हो गया है । अब वहाँ(उसके पास बैठ कर हंस रूपी ज्ञान के प्यासे जिज्ञासुजन) उसे मानसरोवर मान कर मुक्ताफल(ज्ञान, वैराग्य तथा ब्रह्म का उपदेश) प्राप्त करते हैं ॥७॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 1 जून 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/३-४) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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*कुम्भ भरल संपूरन निर्मल नीर ।*
*पंखि तिसाई गइले सागर तीर ॥३॥*
जिस जीवन्मुक्त महात्मा ने अपना घड़ा(शुद्ध अन्तःकरण) निर्मल जल(परम तत्व के ज्ञान) से भर रखा है, परन्तु प्यासे पक्षी(उसकी इन्द्रियाँ) अपनी प्यास बुझाने(प्रारब्ध भोग) के लिये सागर(बाह्य जगत्) के तट पर विचराती हो ॥३॥
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*गंग जमुन दोउ बहइय तीक्षण धार ।*
*सुमति नवरिया बैसल उतरब पार ॥४॥*
जिस(योगी) की गंगा-यमुना(इड़ा-पिंगला) दोनों नदियाँ(नाड़ियाँ) तीक्ष्ण धार में बहती हो, परन्तु वह सुमति(योगाभ्यास गाभ्यास) रूपी नाव(सुषुम्णा) के सहारे चित्तवृत्तियाँ निरुद्ध कर परम तत्व का साक्षात्कार कर लेता है ॥४॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 31 मई 2018

= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८/१-२) =

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*= पूरबी भाषा बरवै(ग्रन्थ ३८) =*
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{महात्मा अपने अवधूतपन(जीवन्मुक्त्ता) की मस्ती में पूरबी भाषा में - जिस पर कि वाराणसी में सुधीर्घ काल तक रहने के कारण उनका पूर्ण अधिकार था, विपर्यय (विरोधाभास अलंकार) के माध्यम से जिज्ञासुओं की आध्यात्मिक रहस्य का उपदेश कर रहे हैं ।} 
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*= बरवै =*
*सद्गुरु चरण निनाऊं मस्तक मोर ।* 
*बरवै सरस सुनावऊं अद्भुत जोर ॥१॥*
ग्रन्थ प्रारम्भ करने से पुर्व मैं अपने सद्गुरु(श्री दादूदयाल जी महाराज) के श्रीचरणकमलों में(जिनकी कृपा से मुझे यह रहस्यानुभूति हुई है) अपना शिर नँवाता हूँ । फिर सरस(ललित) बरवै छन्द के माध्यम से अद्भुत और गूढ़ आध्यात्मिक रहस्य का वर्णन करता हूँ ॥१॥ (*बरवै छन्द-(पूर्बीभाषा में)-मात्रिक छन्द । विषम(पाहिले तीसरे पाद में)१२, १२ मात्रा और दूसरे चौथे में ७, ७ की मात्रा होती है ।) 
*पण्डित होइ सु पावइ अरथ अनूप ।* 
*हेठ भरल पनिहारिय ऊपर कूप ॥२॥* 
मेरे लिये इस रहस्य का कोई पण्डित(ज्ञानी) ही वास्तविक(आध्यात्मिक अर्थ समझ सकेगा) जिसके यहाँ पनिहारिनें(पानी भरने वाली स्त्रियाँ, या इन्द्रियाँ) नीचे पानी भर रही हों जब कि कूआँ ऊपर(आकाश में) हो । (अर्थात् जिस योगी की इन्द्रियाँ और चित्तवृत्तियाँ योगाभ्यास द्वारा ब्रह्माण्ड में नीरुद्ध हो चुकी हों ।) ॥२॥
(क्रमशः)

बुधवार, 30 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७ / ९) =

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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
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*= उपसंहार =*
*चतुष्ट२ अंतः करण सुनाये ।*
*त्रिधा भेद सद्गुरु तैं पाये ॥*
*यह नीकैं करी संमुझौ प्रानी ।*
*सुन्दर नौ चौपाई बखानी ॥९॥*
*॥ समाप्तोऽयं त्रिविध अन्तःकरण भेद ग्रन्थ ॥३६॥*
महाकवि सुन्दरदास जी कहते हैं - इस तरह उपनिषद् आदि शास्त्रों में वर्णित अन्तःकरणचतुष्टय का वर्णन कर दिया गया । प्रत्येक के ‘वाह्य’ ‘अन्तः’ एवं ‘परम’ भेद से तीन-तीन भेद बता दिये गये । जिज्ञासु को ये भेद इन नौ चौपाइयों के सहारे भली भांति हृदयंगम कर लेने चाहिये ॥९॥
(२.चतुष्ट =चतुष्टय, चार)
*॥ त्रिविध अन्तःकरणभेद ग्रंथ समाप्त ॥*
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७ / ७-८) =

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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
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*= अहंकार विषयक प्रश्न =*
*बहि जो अहं१ सु कौन प्रकारा ।*
*अंतः अहं कौन निर्द्धारा ॥*
*परम अहं कैसैं करि पइये ।*
*सुन्दर सद्गुरु मोहि लखइये ॥७॥*
(अब त्रिविध अहंकार के विषय में प्रश्न है --) बाह्य-अहंकार की भी आपने तीन अवस्थाएं बतायी थीं - बाह्य अहंकार, अन्तरहंकार और परम अहंकार । हे सद्गुरु ! इन तीनों का भी विशद वर्णन करने की कृपा करें?॥७॥
(१.अहं= अहंकार ।)
.
*= उत्तर =*
*बहि जो आहं देह अभिमानी ।*
*चारि वर्ण अंतिज लौं प्रानी ॥*
*अंतः अहं कहै हरिदासं ।*
*परम अहं हरि स्वयं प्रकासं ॥८॥*
हे शिष्य ! देहाभिमानी अहंकार को ‘बहिरहंकार’ कहते हैं, जिसकी लपेट में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि सभी प्राणी आये हुए हैं । भगवान् की सेव्य- सेवकावस्था में अहंभाव ‘अन्तरहंकार’ कहलाता है । ‘परमअहंकार’ तब होता है जब ज्ञानी ब्रह्म-साक्षात्कार कर स्वयंप्रकाश आत्मा से अद्वैत भाव को प्राप्त कर लेता है ॥८॥
(क्रमशः)

सोमवार, 28 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७/५-६) =

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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
.  
*= चित्त विषयकप्रश्न =*
*बहिर्चित्त कैसैं पहिचानैं ।*
*अंतर्चित कवन विधि जानैं ॥*
*परम चित्त कैसैं करी कहिये ।*
*सुन्दर सद्गुरुबिन नहिं लहिये ॥५॥*
(प्रसंगवश शिष्य चित्त के विषय में प्रश्न करता है -) हे गुरुदेव ! बाह्य चित्त को कैसे पहचाना जा सकता है और अन्तश्चित्त को कैसे ? इसी तरह परम चित्त की किस अवस्था को कहते हैं ? यह बताने की कृपा करें क्योंकि यह गूढ विषय बिना सद्गुरु की कृपा से समझ में नहीं आ सकता ॥५॥
.
*= उत्तर =*
*बहिर्चित्त चितवै अनेक ।*
*अंतर चित्त चिंतवन एकं ॥*
*परम चित्त चितवन नहिं कोई ।*
*चितवन करत ब्रह्ममय होई ॥६॥*
नाना प्रकार के बाह्य संसार के संकल्प-विकल्पात्मक चित्त को “बाह्यचित्त’’ कहते है, तत्व का चिन्तन मनन करनेवाली चित्ता-वस्था को ‘अन्ताश्चित्त’ कहते हैं और ‘परमचित्त’ से चिन्तन तो कोई विरला ही कर सकता है, क्योंकि यह चित्त की वह अवस्था है जब ज्ञानी ब्रह्ममय होकर इस चित्त के सहारे अनवरत उस अद्वैत समाधि में लीन रहता है ॥६॥
(क्रमशः)

शनिवार, 26 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७/३-४) =

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*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
.
*= बुद्धिविषयक प्रश्न =*
*बहिर्बुद्धि अब कहौ गुसांई ।*
*अंतर्बुद्धि कहौ किहिं ठांई ॥*
*परम बुद्धि का कहौ बिचारा ।*
*सुन्दर पूछै शिष्य तुम्हारा ॥३॥*
(हे गुरुदेव ! आपने मन के भेद बहुत सरल रीति से समझा दिये,) अब कृपया बुद्धि, के विषय में भी - बहिर्बुद्धि, अन्तर्बुद्धि एवं परमबुद्धि ये तीन भेद क्यों है ? यह मुझ शिष्य को बताने का कष्ट करें ॥३॥
.
*= उत्तर =*
*बहिर्बुद्धि रज तम गुण रक्ता ।*
*अंतर्बुद्धि सत्व आसक्ता ॥*
*परम बुद्धि त्रय गुण तें न्यारी ।*
*सुन्दर आतम बुद्धि विचारी ॥४॥*
बुद्धि की वह अविद्याग्रस्त कलुषितावस्था, जिसमे रह कर वह रज, तम गुणों से संयुक्त रहती है, बहिर्बुद्धि कहलाती है ।
‘अन्तर्बुद्धि’ बुद्धि की वह शुद्धावस्था है जब वह सत्वगुणावृत हो कर गुरुपदेश के सहारे परम तत्व का चिन्तन करती है और परमबुद्धि वह पवित्र एवं निर्मल अवस्था है जिसमें तत्त्वसाक्षात्कार के बाद आत्मा से तादात्म्य स्थापित हो जाता है ॥४॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 मई 2018

= त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७/१-२) =

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.
*=त्रिविध अन्तःकरण भेद(ग्रन्थ ३७)=*
.
{इस ग्रन्थ में वेदान्त में वर्णित अन्तःकरणचतुष्टय - मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार की तीन-तीन अवस्थाओं - बहिर्गत, अन्तःस्थिति और परम(उभय वृत्तियों से ऊपर) उत्कृष्ट - का संक्षिप्त परन्तु सुन्दर वर्णन है । ‘त्रिधा भेद सद्गुरु तैं पाये” कहने से शायद यही प्रोयजन हो कि यह निराला एवं उत्कृष्ट वास्तविक विषय किसी ग्रन्थान्तर में नहीं है । परम कहने से निवृत्ति की अवस्था या समाविस्थ होना समझिये । यही अवस्था ब्रह्मानन्द का अनुभव कहलाती है ।}
.
*= मनविषयक प्रश्न = चौपई =*
*कौन बहरि मन कहिये स्वामी ।*
*अंतर्मन कहि अंतर्ज्जामी ॥*
*कौन परम मन कहिये देवा ।*
*सुन्दर पूछत मन कौ भेवा ॥१॥*
श्री गुरुदेव ! पीछे वेदान्त के उपदेश के प्रसंग में आपने मन के तीन भेद बताये थे - बहिर्मन अन्तर्मन तथा परम मन । अब कृपया बताइये कि बहिर्मन किसे कहते हैं ? अन्तर्मन किसे कहते हैं ? और हे देव ! परम मन किसे कहते हैं ? मैं अपने ह्रदय का संदेह आप से पूछ रहा हूँ ॥१॥
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*= उत्तर =*
*उहै बहिर्मन भ्रमत न थाकै ।*
*इंन्द्रिय द्वार बिषै सुख जाकै ॥*
*अंतर्मन यौं जानैं कोहं ।*
*सुन्दर ब्रह्म परम मन सोहं ॥२॥*
श्री गुरुदेव ने उत्तर दिया- ‘बहिर्मन’ मन की वह कलुषित अवस्था है जब वह माया के वश भ्रान्त हो कर सांसारिक विषयों की और लगा रहता है । ‘अन्तर्मन’ मन की वह अवस्था है जिससे जिज्ञासु गुरुपदेश के सहारे ‘मैं कौन हूं’- यह चिन्तन करता है । इसी तरह ‘परम मन’ उसे कहते हैं जब ब्रह्म-साक्षत्कार के बाद जो शुद्ध मन ‘सोऽहं’ का अनुभव होता है ॥२॥
(क्रमशः)

बुधवार, 23 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / १२-१३) =

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रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
*= आत्मस्वरूपवर्णन =*
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*घटै न बढ़ै न आवै जाय ।*
*आतम नभ ज्यौं रह्यौ समाय ॥*
*जो कोई यह समुझै भेद ।*
*सन्त कहैं यौं भाखै बेद ॥१२॥*
यह चेतन आत्मा न घटता है, न बढ़ता है, न कहीं आता है न जाता है(जन्म-मरणरहित है) । आकाश की तरह यह आत्मा सर्वव्यापी है । जो इस देह और आत्मा के अशाश्वतता एवं शाश्वतता के अन्तर को समझ लेगा, वह सन्त है, वही ज्ञानी है । हमारी ऊपर कही बात उपनिषदों का सार है ॥१२ ॥
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*ये चौपाई त्र्यौदश कही ।*
*आतम साक्षी जानों सही ॥*
*सुन्दर सुनै बिचारै कोई ।*
*सो जन मुक्ति सहज ही होइ ॥१३॥*
*॥ समाप्तोऽयं आयुर्बल-भेद आत्माबिचार ग्रन्थः ॥३५॥*
ऊपर की तेरह चौपाइयों में आत्मा का स्वयम्प्रकाशत्व, साक्षित्व, नित्यत्व(सिद्ध कर दिया गया है । महाकवि कहते हैं - इस आत्म-विचार को जो सुनेगा, सुनकर चिन्तन मनन करेगा वह उस आत्म तत्व का साक्षात्कार कर उसकी प्राप्ति से सहज मुक्ति का लाभ ले सकता है ॥१३॥
*॥ आयुर्बलभेद ग्रन्थ समाप्त ॥*
(क्रमशः)

सोमवार, 21 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / ११) =

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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
*= आत्मस्वरूपवर्णन =*
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*यौं लघु दीरघ घाट कौ नाश ।*
*आतम चेतन स्वयं प्रकाश ॥*
*अजर अमर अविनाशी अंग ।*
*सदा अखंडित सदा अभंग ॥११॥*
जब इस स्वयम्प्रकाश चेतन आत्मा, जो कि अजर है, अमर है, अविनाशी है, सदा अखण्डित पूर्ण रहता है, का प्रकाश देह में ही जाता है(ब्रह्मज्ञान हो जाता है) तो इस नश्वर देह की घटने-बढ़ने वाली छाया(माया = अविद्या) नष्ट हो जाती है या उस ब्रह्म में लीन हो जाती है ॥११॥
(क्रमशः)

रविवार, 20 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / ९-१०) =

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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
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*यौं आयुर्बल घटतौ जाइ ।* 
*काल निरंतर सब कौं खाइ ॥* 
*ब्रह्मा आदि पतंग जहाँ लौं ।* 
*उपजै बिनसै देह तहां लौं ॥९॥*
यौं, क्रमशः प्राणियों का आयुर्बल धीरे-धीरे क्षीण होता जात है । मृत्यु सब को खाती रहती है । ब्रह्मा से लेकर कीट पतंग तक सभी चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते हैं ॥ 
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*= बांस की छाया की उपमा =*
*यथा बांस लघु दीरघ होई ।* 
*तिनकी छाया घटि बधि होइ ॥* 
*जब सूरज आवै मध्यान ।* 
*दोऊ छाया एक समान ॥१०॥* 
(महाकवि आयुर्बल के न्यूनाधिक भाव को बांस की छाया के उदाहरण से समझाना चाहते हैं --) जैसे बांस की छाया सूर्य के कारण छोटी-बड़ी होती रहती है । जब सूर्य मध्यान में ऊपर आता है तब छाया बराबर हो जाती है(बाँस में ही लीन हो जाती है), न छोटी रहती है न बड़ी ।(इसी तरह ब्रह्मज्ञान रूपी मध्यान सूर्य के रहते मायारूपी छाया नष्ट हो जाती है, अपितु यों कहिये, उसी ब्रह्म में विलीन हो जाता है ।) ॥१०॥  
(क्रमशः)
 

शनिवार, 19 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / ७-८) =

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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
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*तीस बीस दश पाँच की एक ।* 
*एक घड़ी मैं गये अनेक ॥* 
*एक घड़ी की साठि निमेष ।* 
*घटत घटत एकै पल शेष ॥७॥*
फिर आगै तीस, बीस, दस, पाँच यहाँ तक कि अन्त में एक घड़ी का ही आयुर्बल रह जायगा । एक घड़ी भी उस समय ज्यादा मानी जायगी । एक घड़ी में भी साठ निमेष(पल) होते हैं । इन निमेषों में आयुर्बल माँपा जायगा । और अन्त में एक पल आयुर्बल रह जायगा ॥७॥
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*एक पलक षट स्वासा होइ ।* 
*तासौं घटि बधि कहै न कोइ ॥* 
*पंच च्यारि त्रिय द्वै इक स्वास ।* 
*अर्थ पाव अध पाव विनास ॥८॥*  
एक पल छह श्वास का होता है । इससे नीचे(कम) आयुर्बल का न्यूनाधिक भाव क्या कहा जाय ! परन्तु इसमें पाँच, चार, तीन, दो, एक श्वास तक और इससे भी आगे अन्त में आधा और चौथाई श्वास तक आयुर्बल रहता है ॥८॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / ५-६) =

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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
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*तीन दोई कै एकै होइ ।*
*आयुर्बल गति लखै न कोइ ॥*
*एक महीना के दिन तीस ।*
*घटत घटत दिन रहे जु बीस ॥५॥*
घोर कलिकाल में आकर प्राणियों की आयु धीरे-धीरे तीन, दो या एक महीने रह जाती है । फिर एक महीने की आयु(जो उस समय बहुत बड़ी मानी जाती है) भी घटने लगती है और वह दिनों तक सीमित हो जाती है । पहले तीस दिन फिर बीस दिन ही रह जाती है ॥५॥
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*बीसहु मैं पन्द्रह दश पाँच ।*
*च्यारि तीन द्वै इक दिन सांच ॥*
*एक दिवस की घटिका साठि ।*
*कै पचास चालीस हु नाठि ॥६॥*
फिर पापाचार के और बढ़ने पर बीस दिन में भी पन्द्रह, दस, पांच, चार, तीन, दो या एक दिन का ही आयुःप्रमाण रह जाता है । यह भी उस समय अधिक आयु मानी जायगी । आगे चल कर तो घड़ियों में ही आयुर्बल रह जायगा । एक दिन में साठ घड़ी होती हैं । वही आयुर्बल होंगी । फिर पचास, चालीस घड़ी का आयुर्बल भी मुश्किल से मिलेगा ॥६॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 17 मई 2018

= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६ / ३-४) =

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*= आयुर्बल-भेद आत्मा-बिचार(ग्रन्थ ३६) =*
*= आयुर्बल की क्षीणता =*
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*घटत घटत नउवै रहिं जांहिं ।*
*असी वर्ष कै सत्तर मांहिं ॥*
*साठि पचास वर्ष चालीस ।*
*तीस बीस दश एक बरीस ॥३॥*
(कलियुग) में यही सौ वर्ष की आयु घटते-घटते पहले नब्बे वर्ष की होती है, फिर, अस्सी, फिर सत्तर, फिर साठ, पचास यों ह्रास होते-होते क्रमशः चालीस, तीस, बीस, दस औ अन्त में एक वर्ष जाती है ॥३॥
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*एक वर्ष के बारह मास ।*
*ताहू मांहि घटत हैं स्वास ॥*
*ग्यारह दश नव आठ कि सात ।*
*षट कै पांच च्यारि पुनि जात ॥४॥*
फिर धीरे-धीरे(ज्यों-ज्यों पाप बढ़ता है) एक बरस के बारह महीने भी कम होने लगते है, जीवन के श्वास की अवधि कम होने लगती है । फिर ११ महीने, दस, नौ, आठ, सात, छह, पांच और चार महीने ही मनुष्य की आयु रह जाती है ॥४॥
(क्रमशः)