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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” २६/३० =

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” २६/३०)*
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*मनोहर छन्द*
गुरु कियो चातुर्मास, सोलह शिष्य संग पास,
गूलर सुथान मध्य कथा गुणगान ही ।
संतगुण सागर की, गुरुतें आयसु धरि,
साधु संत पूछि पूछि, सब सत्य मान ही ।
चन्द ॠतु पाँच शून्य, काती सुदी आठें पुण्य,
ग्रन्थ लिख्यो थान मध्य, गुरु यश ठान ही ।
चन्द ॠतु - ॠतु चंद, अषाढ़ सुदि तीन छंद,
पूरण भयहु ग्रन्थ, माधवदास बखान ही ॥२६॥ 
यह संतगुण सागर - ग्रन्थ गूलर - ग्राम में रचा गया था । जब गुरुदेव श्रीदादूजी सोलह शिष्यों के साथ वहाँ चातुर्मास प्रसंग में विराजे थे । तब श्रीगुरुदेव की आज्ञा लेकर, साधु संतों से श्रीदादूजी के चरित प्रसंगों को पूछ - पूछ कर तथ्यान्वेषण के साथ इस ग्रन्थ की रचना प्रारम्भ की गई थी । इसमें वर्णित सभी प्रसंग घटनायें सर्वथा सत्य है । यह ग्रन्थ विक्रम संवत् १६५० कार्तिक शुक्ला अष्टमी से लिखना प्रारंभ करके संवत् १६६० आषाढ़ शुक्ला तृतीया को सम्पूर्ण किया गया ॥२६॥ 
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*दोहा*
संत गुण सागर ग्रन्थ यह, माधव रचित बखान ।
बरसी प्रथम सुनाव ही, पाट गरीब सुजान ॥२७॥ 
माधवदास स्वरचित इस ग्रन्थ का व्याख्यान श्रीगुरुदेव की प्रथम वार्षिक पुण्यतिथि पर स्वामी श्री गरीबदासजी के सम्मुख संत सभा में सुनाकर कृतकृत्य हुआ ॥२७॥
नमो नमो गुरुदेवजु, नमो साधु सब सन्त ।
भक्ति सम्पूरण दीजिये, तिरि हैं जीव अनन्त ॥२८॥ 
ग्रन्थ संपूर्णता पर मैं माधवदास गुरुदेव श्री दादूदयाल महाराज को सादर नमस्कार करता हूँ, सभी साधुसंतों को भी प्रणाम करता हूँ । आप सभी मुझे सम्पूर्ण भक्ति का आशीर्वाद दीजिये । जिस भक्ति के प्रभाव से जगत् के अनन्तजीव तिर गये हैं, और तिर रहे हैं ॥२८॥
दादूराम उचारिये, यह गुरुमंत्र अबूझ ।
सत्यराम सब जानिये, मारग मोक्षहिं सूझ ॥२९॥ 
अपने कल्याण के इच्छुक भक्त जन ‘‘दादूराम - दादूराम’’ - शब्द का उच्चारण करते रहें, यह अबूझ गुरुमंत्र है । सत्यराम - शब्द मोक्ष मार्ग को दिखाने वाला परम प्रदीप है, इसके परम तत्व को पहिचानें ॥२९॥
दादूराम दादूराम दादूराम जपिये, 
जाँहि विधि राखे राम ताँहि विधि रहिये
सत्यराम सत्यराम सत्यराम कहिये, 
भक्तिभाव उर धरि, भव पार तिरिये ॥३०॥ 
दादूराम - मंत्र को जपते हुए भगवत् - शरण हो जाइये । वह प्रभु हमें जिस प्रकार भी रखना चाहे, वैसे रहिये । अपने व्यवहार एवं सभी कर्म ईश्‍वर समर्पित करते रहिये । इसी में कल्याण है । सत्यराम - शब्द कहते हुए भक्ति - भावना हृदय में धरिये, इसी से सहजतया भवसागर से पार हो जाएंगे ॥३०॥ 
इति माधवदास विरचित: श्री संतगुण सागरामृत ग्रन्थ: सम्पूर्ण
दादूराम - सत्यराम
॥ छब्बीसवीं तरंग के साथ ग्रन्थ सम्पूर्ण ॥२६
(क्रमशः)

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” २४/२५ =


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संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” २४/२५)*
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छन्दहिं दोह सवैय रु सोरठ, 
साधुन का गुण ग्रन्थ रचाई ।
वर्तनि मात्र लघू अरु दीरघ, 
अंकन की सुधि है नहिं काई ॥ 
संत सदा गुरु मात पिता सम, 
मोर गुन्हाँ सब माफ कराई ।
भूलहिं चूक रही किन अंकन, 
माधव शुद्ध करें कबिराई ॥२४॥ 
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*दोहा*
जोरि पाणि वन्दन करूँ, श्रीगुरु संत रु साध ।
ग्रन्थ समर्पित आपको, माधव भक्ति - प्रसाद ॥२५॥ 
इस चरित ग्रन्थ में दोहा सवैया सोरठा आदि विभिन्न छन्द रचे गये हैं । मुझ अल्पज्ञ को वर्तनी, दीर्घलघु मात्रा एवं शब्दों की भाषा शुद्धि का यथेष्ट ज्ञान नहीं है, अत: संत माता - पिता समान है, अत: इसे सुधार लेवें । गुणी जन क्षमा करते हुए भूल चूक सुधार लें, कविजन छन्दों तथा शब्द मात्राओं को शुद्ध कर लें । ग्रन्थ रचयिता मैं माधवदास इसके लिये विनम्र अनुमति देता हूँ ॥२४॥ 
और हाथ जोड़ कर श्रीगुरुदेव तथा सभी साधु संतों को प्रणाम करते हुए यह ग्रन्थ आपको समर्पित है । मुझे आप प्रसादरूप में भक्ति का आशीर्वाद प्रदान करें ॥२५॥ 
(ग्रन्थ रचना एवं संपूर्ण सूचना)
(क्रमशः)

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” २२/२३ =

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*(“षड्विंशति तरंग” २२/२३)*
साधु सुसंतहिं है महिमा अति, 
शारद शेषहु पार न पाई ।
हो वसुधा सब कागज लेखन, 
सागर की मसि लेय बनाई ॥ 
शेष सहस्त्रहिं जे मुख भाखत, 
शारद लेखनि न लिख पाई ।
मैं अपनी लघु बुद्धि कथी कछु, 
सिन्धु अथाह जु पार पाई ॥२२॥ 
साधुसंतों की महिमा अगाध है, उसका पार शारद शेषादि भी नहीं पा सकते । सम्पूर्ण वसुधा को कागद बना लिया जाए, और सम्पूर्ण सागरों की मसी(स्याही) बना ली जाए, सहस्त्र मुख वाले शेषनाग संत - महिमा का व्याख्यान करें, और शारदा स्वयं लिखने लगे, तो भी संतमहिमा का वर्णन सम्पूर्णत: करने में असमर्थ ही रहेंगे । फिर भला मैं माधवदास संत महिमा का वर्णन करने में कहाँ तक पार पा सकता हूँ । मैंने तो अपनी अल्पमति से जैसा बन पड़ा, वैा वर्णन किया है । संत चरित्र तो अथाह सिन्धु के समान है, उसका पार नहीं पाया जा सकता ॥२२॥ 
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*दादूराम कथा अतिपावन गंगा ~*
संत चरित्र कथा अति पावन, 
जो परसे चन्दन ह्वै जाई ।
भक्ति रु ज्ञानविराग त्रिवेणिहु, 
तीरथ रूप सदा सुखदाई ॥ 
निर्मल हो तन ही मन चित्त जु, 
आतम ज्ञान लहे हरिजाई ।
माधवदास तिरे गुण गावत, 
दादुदयालुहिं शिष्य कहाई ॥२३॥ 
संतचरित्रों की कथा अत्यन्त पावन होती है । जो भी इसके सम्पर्क में आता है, वह भी पावन हो जाता है । जैसे चन्दन के समीप उगे हुए पादप अर्क इत्यादि भी चन्दन तुल्य हो जाते है । संत कथाओं में भक्ति ज्ञान वैराग्य की त्रिवेणी बहती रहती है । ऐसे तीर्थ में स्नान करने से सदा के लिये प्राणी सुखी हो जाता है । उस भक्त का तन मन और चित्त निर्मल हो जाता है । वह आत्मज्ञान प्राप्त करके परम हर्षित हो जाता है । अन्य साधारण तीर्थों में केवल तन ही कुछ समय के लिये शुद्ध हो पाता है । माधवदास तो गुरुदेव श्री दादुदयालु के गुण गाते हुए तिर जायेगा ॥२३॥
(क्रमशः) 

सोमवार, 15 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” २०/२१ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” २०/२१)*
संत सुखी, सुख पावत ईश्‍वर, 
ईश्‍वर को तन संत कहावे । 
ज्यों सब - धेनु रहे पय गुप्त जु, 
वच्छ बिना स्थन बूंद न पावे ॥ 
त्यों जग माँहिं बस्यो हरि को रस, 
संत सभा मुखते बरसावे । 
माधवदास कहे यह म्हातम, 
जो पठि हैं जन, सो फल पावे ॥२०॥ 
जब संत जन प्रसन्न होते हैं तो ईश्‍वर भी प्रसन्न होता है, क्योंकि संत तो ईश्‍वर के ही रूप में होते हैं । जिस प्रकार धेनु के सम्पूर्ण शरीर में दूध गुप्तरूप से विद्यमान रहता है, किन्तु बछड़े के सम्पर्क बिना वह दूध स्तनों में नहीं उतरता, उसी प्रकार संतों के हृदय में श्रीहरि का लीलारस भी सदा विद्यमान रहता है, किन्तु जिज्ञासु श्रद्धालु भक्तों की उपस्थिति के बिना वह भक्तिरस उनके मुखारविन्द से प्रकट नही होता । अत: माधवदास संत चरित का महात्म्य बताते हुए वर्णन करते हैं कि जो जन श्रद्धाभक्ति से पढ़ेंगे, सुनेंगे, वे ही कृपा फल प्राप्त करेंगे ॥२०॥ 
साधुहिं शब्द सुसार भरे अति, 
भक्त सुहंस जु सार गहावे । 
सागर - पंक रु कीटक खार हु, 
नीर तजे पुन मोति चुगावे ॥ 
ज्ञानहिं नांव तिरे भव सागर, 
जन्तु - विषै तिन नाँहि सतावे । 
ऐसहु नाव महात्तम जानहु, 
माधवदास तिरे सुख पावे ॥२१॥ 
साधुओं के उपदेश वचनों में अत्यन्त गूढ़ सार छिपा रहता है । कोई सुजान भक्त रूपी हंस ही उस सार को ग्रहण कर सकता है । अपिच - सागर के जल में कीचड़, काँटे, कीट व क्षार भी विद्यमान रहते हैं, किन्तु सुजान हंस उसमें से केवल मोती ही चुगता है, उसी प्रकार सुजान भक्त संतों के चरित्र से, उनके व्यवहार एवं उपदेशों से केवल जीवन कल्याण के तत्व मोती ही ग्रहण करते हैं ॥ 
*श्री दादूवाणी के वचनानुसार -* 
काम गाय के दूध सों, हाड चाम सो नाँहि । 
या विधि अमृत पीजिये, साधू के मुख माँहि । 
जो श्रद्धालु उक्त रीति से ज्ञान की नाव अपना लेते हैं, वे भवसागर से तिर जाते है । भवसागर के विषैले जीव जन्तु काम क्रोधादि, फिर उन्हें नहीं सताते । माधवदास इसी प्रकार नाम महात्म्य को समझकर उसे अपना कर भवसागर से तिरते हुए सुख का अनुभव कर रहा है ॥२१॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 14 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १८/१९ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” १८/१९)*
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*छप्पय*
*श्री दादू चरित्र महिमा*
चरित साहिं पठत निज प्रति, सर्वपातक - नाशनम् ।
शुद्ध हिरदय मति सुपावन, ब्रह्मज्ञान - प्रकाशनम् ॥ 
जगत जीव जु सुयश पावत, स्वर्गलोक निवासनम् ।
संत गुणसागर बखानत, दास माधव पावनम् ॥१८॥ 
जो श्रद्धालु साधु संत, भक्त सेवक इस चरित सारांश को नित्य प्रति पढ़ेगा, उसके सर्वपातक विनष्ट हो जाएंगे । उसके शुद्ध हृदय में ब्रह्म ज्ञान का प्रकाश उदय होगा । मति अत्यन्त निर्मल हो जाएगी । जगत् में वह सुयश प्राप्त करके स्वर्गलोक में निवास करेगा ॥१८॥ 
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*ग्रन्थ महात्मय*
*इन्दव छन्द*
जो गुण सागर पाठ पढ़े नित, 
मोह अज्ञान सबै तम जावे ।
बांचि कथा जन अन्य सुनावत, 
भक्ति रु प्रेम बधे जश पावे ॥ 
श्रद्धहिं भक्त लहे उर ज्ञान जु, 
ईश्‍वर में विश्वास धरावे ।
होय प्रबुद्ध तिरे भव सागर, 
आगम सार सुचित्त सुझावे ॥१९॥ 
जो जन संतगुण सागर का पाठ करेंगे, उनका मोह अज्ञान अंधेरा दूर हो जाएगा । इसकी कथा बाँच कर जो अन्य श्रद्धालुओं को सुनायेंगे । उनकी भक्ति प्रीति बढ़ेगी, यश फैलेगा । जो भक्त श्रद्धा से इस ग्रन्थ के उपदेशों को अपने हृदय में धारण करेगा, और ईश्‍वर पर विश्‍वास करेगा, उस प्रबुद्ध साधक का निस्तारण भवसागर से सहज ही हो जाएगा । उस चित्त में सम्पूर्ण वेद शास्त्रों का सार सहज ही भासित हो जाएगा ॥१९॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १६/१७ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
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*(“षड्विंशति तरंग” १६/१७)*
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*चौदह महिना नरायण तपे ~*
अम्बपुरी पुनि स्वामि सुसंतहु, 
थाल सरोजं हिं पायस ईशा ।
दौसहिं हाथ धर्यो शिर सुन्दर, 
मंत्र दियो निज संत तपीशा ।
यों करि के षट् मास व्यतीतहिं, 
मोरड़े ग्राम रहे जगदीशा ।
चौदह मास तपे जु नरायण, 
धाम बनावत सैन अहीशा ॥१६॥ 
तत्पश्‍चात् पुन: आमेर पधारे, सिद्ध संतों के साथ सत्संग किया । संरोज ग्राम से आये हुए थाल में पायस का प्रसाद ग्रहण किया, फिर उस प्रसाद थाल को योगसिद्धि से पुन: सँरोज ग्राम में ही भिजवा दिया । फिर दौसा ग्राम में पधारे । पूर्व शिष्य संत जगरामजी को सुन्दर बालक के रूप में जन्मे देखकर श्रीदादूजी ने उसके शिर पर हाथ धरा, कान में गुरुमंत्र दिया । पश्‍चात् मोरेड़े ग्राम में पधारे, वहाँ छ: मास तक विराजे । अनेक स्थानों पर भक्ति ज्ञान के प्रचार हेतु यात्रायें करने के बाद श्रीदादूजी नारायणपुर में विराजे, नागराज के संकेत पर ब्रह्मधाम की स्थापना की । नारायणपुर में श्रीदादूजी चौदह मास तक तपस्यारत रहे ॥१६॥ 
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*श्री दादूजी अन्तरध्यान*
संत नरायण - धाम विराजत, 
शालहिं ध्यान धरें सुख माने ।
ज्ञान सुपद्धति साधु सुझावत, 
पूरब संत रुभेष रचाने ।
साठहिं साल रु पाँचहु पक्षहिं, 
ज्येठ बदी शनि अष्टमि जाने ॥ 
दादु दयाल मिले भगवंतहिं, 
माधवदास कथा गुण गाने ॥१७॥ 
महान् संत श्रीदादूजी भजनशला में ही प्राय: ध्यान स्मरण करते रहते थे । समय - समय पर जिज्ञासु साधुओं को ज्ञान पद्धति भी समझा दिया करते । नारायणपुर की भजनशाला में ही पूर्वकालिक सिद्ध संतों और देवगणों का सत्संग हुआ । श्रीदादूपंथ के भेष का निर्धारण किया गया । शिष्यों की जिज्ञासायें एवं शंकायें दूर करने के पश्‍चात् श्रीदादूजी विक्रम संवत् १६६० के पश्‍चात् पाँच पक्षों तक इस धरा पर विद्यमान रहे । पश्‍चात् ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी के दिन श्रीदादूजी परब्रह्म में विलीन हो गये । माधवदास ने ये सभी घटनायें, लीलायें कुछ प्रत्यक्ष देखकर, तथा अन्य बातें गुरुदेव श्रीदादूजी बताया और आनन्द रामजी अहमदाबाद से सांभर आये थे, जो श्री दादूजी के खास चाचाजी थे, उन होने प्राकट्य लीला बताई जिन्हों ने प्रत्यक्ष देखा था, और साधु संतों से पूछ - पूछ कर वर्णित की है । महान् सिद्ध - संत गुरुदेव श्री दादूजी के चरित्र की सभी लीलायें सत्य है । इनका गुणगान निश्‍चल श्रद्धाभक्ति के साथ यथार्थ रूप में किया जाता है । इन पर ज्ञानी गुणी श्रद्धालु जन अवश्य विश्‍वास करेंगे ॥१७॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १४/१५ =

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*(“षड्विंशति तरंग” १४/१५)*
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*बीरबल को हिम से बचाया आदि प्रसंग ~*
हिम्म गिरी मधि बीर रखे गुरु, 
देश केदारहिं रूप अनन्ता ।
लौंग प्रसाद दिये सबको गुरु, 
टौंक महोत्सव पूरहिं सन्ता ॥ 
मुक्ति करी गुठले मग स्वामिजु, 
धेनुहिं भेंटि चले गुरु पन्था ।
आंधिसुग्राम करी वरषा पुनि, 
वर्षहु दोय तपे तहँ महन्ता ॥१४॥ 
आमेर विराजे हुए ही अन्तर्यामी गुरुदेव ने हिमालय की घाटी में भीषण हिमस्खलन में फँसे हुए भक्त बीरबल की रक्षा की । केदार देश में योग विद्या से पधार कर अनन्त रूप धारण किये । टौंक नगर में संत महोत्सव में अपार भीड़ को एक साथ अनन्त रूपधारकर लौंग प्राद वितरित किया, सामग्री में अटूट ॠद्धि कर उद्धार किया । आँधी ग्राम में वर्षा का आह्वान करके जनसमाज को दुर्भिक्ष से बचाया । श्रीगुरुदेव आँधी ग्राम में दो वर्ष तक विराजे ॥१४॥ 
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*कल्याण पुरी महारास दिखाना आदि ~*
एकहिं वर्ष कल्याण पुरी तपि, 
पीथल को दिखलावत रासा ।
खाटु मतंगजु शीश निवावत, 
दूर भगे खल पावत त्रासा ॥ 
शाहपुरे तन दोय धरे गुरु, 
शाहु तिलोहिं पूरन आशा ।
मरुधर देश चिताय भली विधि, 
ईडवे आठहिं मास निवासा ॥१५॥ 
पश्‍चात् पुन: कल्याणपुरी पधार कर एक वर्ष तक तपस्या की । वहाँ पीथल को दिव्य रासलीला का दर्शन कराया । मारवाड़ क्षेत्र की यात्रा में खाटू ग्राम में दुष्ट शासक द्वारा छोड़े गये मतवाले हाथी को तप: प्रभाव से शान्त किया । हाथी ने गुरुदेव के चरणों में शीश निवाया । दुष्ट जन भयभीत होकर दूर भाग गये । शाहपुरा ग्राम में श्रीदादूजी ने दो जगह रूप धारण करके भक्त तिलोक शाहू की आशा पूर्ण की । मारवाड़ क्षेत्र के जन समाज में भक्ति ज्ञान को भली प्रकार जगा कर गुरुदेव ईडवा ग्राम में आठ मास तक विराजे ॥१५॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १२/१३ =

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” १२/१३)*
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*वैश्य कन्या बालकी से बालक ~*
वैश्य कन्या तन मेटि कियो नर, 
सात घरां धरि रूप जिमाये ।
मालहिं लौंग दई द्विजनारिहु, 
संतति पुत्र उमा तब पाये ॥ 
अम्बपुरी दशंवेद तपे गुरु, 
दास गरीबजु शिष्य कहाये ।
रज्जब आदिक ले उपदेशहु, 
भूपति पाँव परे मन भाये ॥१२॥ 
साँभर में ही एक वैश्यकन्या को वचन सिद्धि से बालक बना दिया था । एक साथ सात घरों में निमन्त्रण पाकर सात रूप धर कर भोजन किया । उमा नामक द्विज नारी को लौंग कालीमिर्च और माला का प्रसाद देकर दो पुत्र और दो पुत्री का वरदान दिया । तत्पश्‍चात् श्रीदादूजी आमेर पधार गये । वहाँ चौदह वर्ष तक तपे । गरीबदासजी आदि अनेक शिष्य वहाँ शरण में आये । श्री रज्जबजी ने भी वही उपदेश लिया था । राजा भगवानदास श्रीदादूजी के चरणों में नतमस्तक हुआ । उनके पुत्र राजामानसिंह ने अतीव गुरु सेवा की ॥१२॥ 
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*सीकरी और जोगी सीता आदि प्रसंग ~*
सीकरि शाह अकबर को गुरु, 
तेजहिं तख्त दिखावत भारी ।
तालहिं तीर जलेबि जिमावत, 
श्रीप्रकृती तहँ सेवन धारी ॥ 
अम्बपुरी लगि बाँह पसारत, 
डूबत ज्हाज रु शाहु उबारी ।
तुर्क संगोति जु खोल दिखावत, 
जोगि शिला उड़ि आप उतारी ॥१३॥ 
तत्पश्‍चात सीकरी शहर में बादशाह अकबर को ज्ञानोपदेश दिया । नूर तख्त(दिव्य तेजोमय) आसन का दर्शन कराया । सीकरी से आमेर पधारते समय मार्ग में दौसा ग्राम के तालाब पर संतों को जलेबी का प्रसाद जिमाया । श्रीदादूजी की प्रार्थना पर श्रीहरि की प्रेरणा से प्रकृति जलेबी प्रसाद लेकर आई । आमेर धाम पर विराजे हुए श्री दादू जी ने सागर में डूबती जहाज को बाहु पसार कर उबार लिया । एक तुर्क ने छलछद्म से प्रसाद भेंट में वस्त्र से ढकी हुई मांस भरी थाली प्रस्तुत की, श्रीदादूजी ने उसे बदल कर सात्विक सादा बना दिया । एक विद्वेषी जोगी ने आमेर में अहंकार प्रदर्शित किया तब शिष्य टीलाजी ने उसे शिला सहित आकाश में ऊँधा लटका दिया, किन्तु दयालु संत श्रीदादूजी ने उसे क्षमा कर दिया और पहाड़ी के ऊपर से शिला सहित वापिस नीचे उतरवा दिया ॥१३॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 10 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १०/११ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” १०/११)*
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*सांभर में वाणी रचना शुरूआत ~*
वाणी रची अनुभै मुख आपन, 
साखि रु शब्दहिं कीन्ह उचारा ।
सुन्दर आदिक सेवक शिष्यहु, 
दादुदयालुहिं मंत्र हु धारा ॥ 
दे परचा निधि ध्यान धर्यो तहँ, 
कोप कियो गुरु पे सिकदारा ।
छींत लिखी शठ, अंक फिरे सब, 
देखि डरे खल, आप उबारा ॥१०॥ 
साँभर - निवास के समय ही अनुभव - सिद्ध ज्ञान को वाणी रचना के रूप में प्रकट किया, साखी(साक्षी सिद्ध ज्ञान) और भक्ति ज्ञान वैराग्यपरक भजन पदों का उच्चारण किया । सुन्दरदासजी आदि अनेक शिष्यों ने, और सेवकों ने आपसे गुरुमंत्र लिया । झील मध्य विराज कर भजन ध्यान करते हुए आपने अनेक परचे दिये, जिससे कुपित होकर साँभर - प्रशासक सिकदार ने श्रीदादूजी से विरोध किया । श्रीदादूजी के दर्शनों पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये उस शाह ने लिखित फरमान जारी किया, किन्तु सिद्धसंत श्रीदादूजी के तप:प्रभाव से उस आदेश के अंक अक्षर ही बदल गये । मुस्लिम षड़यंत्रकारी श्रीदादूजी से डरने लगे, किन्तु श्री दादूजी ने उनको क्षमा कर दिया ॥१०॥ 
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*काजियों का प्रसंग ~*
काजिजु खौंस दई, गलि बाँहजु, 
सो दुख पाय मरे गुण मासा ।
बैर धरे सुत नारि जरे पर, 
देखि डरे खल होत उदासा ।
आय मतंगहि शीश निवावत, 
हाथ धरयो शिर पेठि निवासा ।
धारि उभै तन, काँप उठ्यो खल, 
बालिदं खान लिये अति त्रासा ॥११॥ 
एक मुस्लिम काजी ने श्रीदादूजी पर हाथ से प्रहार किया, उसका हाथ गल कर सड़ गया । वह तीन मास तक दु:ख पाकर मर गया । दूसरे काजी का घर पुत्र नारी सहित जल कर राख हो गया । ऐसे चमत्कार देखकर खलजन डरने लगे । दुष्टों ने मतवाला हाथी श्रीदादूजी के समक्ष मारने के लिये छोड़ा, किन्तु संत के तप: प्रभाव के आगे झुककर उस हाथी ने समक्ष आकर सूंड से चरण छूए, शीश निवाया । श्रीदादूजी ने उसके शिर पर हाथ धरा, वह वापिस अपने स्थान पर लौट गया । एक मुस्लिम प्रशासक ने श्रीदादूजी को कारागार - कोठरी में बंद कर दिया, किन्तु श्रीदादूजी कोठरी के बाहर और भीतर दोनों जगह दिखने लगे, इससे वह बालिदं खान त्रास के मारे कांपने लगे, शरणागत होकर क्षमा मांगने लगा ॥११॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” ८/९ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“षड्विंशति तरंग” ८/९)*
.
*श्रीदादूजी प्राकट्य ~*
चंद ॠतु शत शून्यहिं एकजु, 
अहिमदबादहिं ले अवतारा ।
नागर कूं सरिता मधि पावत, 
चैत्र सुदी वसु है गुरुवारा ॥ 
वर्ष व्यतीत भये अष्टादश, 
दादुजि बालक कमल धारा ।
आय मिले हरि शीश धर्योकर, 
मंत्र दियो हरिभक्ति उचारा ॥८॥ 
विक्रम संवत् १६०१ में चैत्र शुक्ल अष्टमी गुरुवार के दिन श्रीदादूजी ने अहमदाबाद में अवतार लिया । साबरमती नदी में नागर ब्राह्मण लोधीरामजी को विशाल कमल दल में तैरते हुए मिले । अठारह वर्ष तक नागर ब्राह्मण के घर आप बालकेलि करते रहे । फिर वृद्धसंत के रूप में श्रीहरि ने दर्शन देकर श्रीदादूजी के शिर पर हाथ धरा, गुरुमंत्र दिया, और जगत में भक्ति ज्ञान के प्रचार का आदेश दिया ॥८॥ 
.
*यहाँ ग्यारहवां वर्ष का रवाना होने का आता है, अहमदाबाद से ~*
*छन्द*
आप रमे गुरु धारि कमण्डलु, 
माणक ज्ञानहिं शिष्य किये हैं । 
आबु रमे पुनि पुष्कर आवत, 
शैल कल्याणहिं मौन गह्ये है ॥ 
पात भखे षट्वर्ष तपे तहँ, 
व्योम गिरा पय पान लिये हैं ।
साँभर ताल लियो अन्न भोजन, 
द्वादश वर्षजु प्रचा किये हैं ॥९॥ 
श्रीहरि की आज्ञानुसार आप कमण्डलु लेकर घर से निकल गये । सर्व प्रथम सेवा में आये हुए माणक और ज्ञानदास को शिष्य बनाया । आबू पुष्कर की यात्रा करते हुए आप कल्याणगिरि पर पहुँचे । वहाँ मौनव्रत धारण करके केवल तरुपात का आहार लेते हुए छ: वर्ष तक कठोर तपस्या की । फिर आकाशवाणी द्वारा श्रीहरि की आज्ञा सुनकर पय:पान किया । तत्पश्‍चात् साँभर झील के मध्य विराजे थे, अब श्रीदादूजी अन्न भोजन भी ग्रहण करने लग गये थे । साँभर में बारह वर्ष विराज कर अनेक चमत्कारी परचे दिये ॥९॥
(क्रमशः)

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” ५/७ =

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संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“षड्विंशति तरंग” ५/७)*
.
*दोहा*
*संत गुण सागरामृत ग्रथ की महिमा ~*
स्वामी आज्ञा पाय तब, माधव करे बखान ।
श्री गुरु दादू चरित यह, सुनि हैं साधु सुजान ॥५॥ 
संत चरित के रत्नमय, गुण सागर यह ग्रन्थ ।
सारभूत संक्षेप में, माधव भाखत पंथ ॥६॥ 
गुरु दादू लीला सरस, दश इन्दव के छंद ।
भक्त कुमुद प्रमुदित धरें, संत सुयश मकरंद ॥७॥ 
संत भक्त सेवकों की सभा में श्रीवाणीजी की कथा तथा शब्दकीर्तन के पश्‍चात् स्वामी श्री गरीबदासजी की आज्ञा लेकर माधवदास ने स्वरचित श्री दादूचरित्र ग्रन्थ(संतगुणसागरामृत) का सारांश में व्याख्यान किया । सभी सभासद, सुजान साधु अतीव श्रद्धा और तन्मयता से उसे सुनने लगे ।
माधवदास बोले - हे संत भक्त सेवकों ! मेरे द्वारा गुरुश्रद्धा में रचित यह संतगुणसागरामृत ग्रन्थ गुरुदेव श्रीदादूजी के लीलामय चरित्रों का रत्नाकार है । जिस प्रकार सागर रत्नाकार है, उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी दादूजी के भक्ति ज्ञान वैराग्य - परक उपदेशों, लीलाओं, कृपाओं, साधना पद्धतियों तथा जीवोद्धारक चरित मालाओं रूपी रतनों से परिपूर्ण है । 
इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का सार रूप मैं आपके समक्ष दश इन्दव छन्दों से(इन्दु समान पदों से) प्रस्तुत भक्ति रस को कुमुद के समान धारण करके अवश्य ही प्रमुदित होंगे । संत श्रीदादूजी का सुयश आपके हृदयों में मकरन्द की भाँति सुवासित होगा ॥५-७॥
(क्रमशः)

रविवार, 7 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” ३/४ =

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
.
*(“षड्विंशति तरंग” ३/४)*
*जागरण सत्संग का महत्व ~*
रैन व्यतीत भई गुण गावत, 
लेय प्रसाद प्रणाम कराई ।
मध्य निशा गुरु पान - प्रसाद जु, 
सोरठ गावत भोग लगाई ।
ऊगत भानु पतास हिं बाँटत, 
लौंग रु मिर्च सबै बरताई ।
गाय प्रभाति रु आरति गावत, 
श्रीफल भेंट चढ़ाय सुहाई ॥३॥ 
रात्रि के विभिन्न प्रहरों में समयानुसार राग - रागिनियों में भजन शब्द गाते हुए सम्पूर्ण रात्रि व्यतीत हुई । प्रभाती गायन के साथ सभी ने प्रसाद लिया, श्री गुरुवाणी को प्रणाम किया । मध्यरात्रि में भी सोरठ गाते हुए भोग लगाकर पान का प्रसाद वितरित किया गया, क्योंकि श्रीदादूजी ने बाल्य स्वरूप सम्य में वृद्धपुरुष गुरुदेव को सर्वप्रथम पान का प्रसाद ही भेंट किया था । सूर्योदय पर जागरण की पूर्णावती हुई, पतासों का प्रसाद बाँटा गया । गायक जन बीच - बीच में लौंग काली मिर्च भी ग्रहण करते रहे । प्रभाती राग में आरती गाकर श्रीगुरुवाणीजी के समक्ष श्रीफल चढ़ाया गया ॥३॥
.
*श्री दादू वाणी कथा सत्संग*
सौंज विराजि धरी गुरु वाणिजु, 
पुष्पहिं माल सुगन्ध सुहाई ।
बाँचत संत कथा नित नेम सुं, 
फेर जुदे मिल मंगल गाई ।
कीर्तन शब्द गुणी जन गावत, 
भक्ति विनय बिरहा पद गाई ।
माधव संत समागम सोहत, 
सेवक भक्त सुदर्शन पाई ॥४॥ 
सौंज में विराजित श्रीगुरुवाणी अतीव सुशोभित हो रही थी । उस पर चढ़ी हुई पुष्प मालाओं की सुगन्ध चारों तरफ फैल रही थी । प्रात: स्नान - शौचादि के बाद नित्य नियम के अनुसार पुजारी गोपालदासजी ने श्रीगुरुवाणी की कथा सुनाई, पश्‍चात् सभी संतों ने मिलकर मंगल पद गाये । गुणीजनों ने हरिकीर्तन किया । भक्ति, विनय और विरह के पद गाये । माधवदास वर्णन करते हैं कि - सुहावने संत समागम से सेवक भक्त सभी प्रसन्न हो रहे थे । संत दर्शन पाकर हर्षित हो रहे थे ॥४॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 6 दिसंबर 2014

= “ष. विं. त.” १/२ =

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*(“षड्विंशति तरंग” १/२)*
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*इन्दव छन्द*
*श्री दादूदयाल की बरशी महोत्सव*
सम्वत सोलह सो इक षष्ठि जु, 
अष्टमि जेठ बदी बरशीजू ।
सेवक संत निमन्त्रण पावत, 
आवत हैं चहुं देश दिशी जु ॥ 
सप्तमि रात भयो शुभकीर्तन, 
दादू - रचे पद गाये निशीजू ।
अष्टमि आरति भोग प्रसाद जु, 
मन्दिर स्वामिहु दर्श खुशीजू ॥१॥ 
विक्रम संवत १६६१ ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को गुरुदेव श्रीदादूजी की वार्षिक पुण्यतिथि पर संत सम्मेलन का आयोजन रखा गया । निमन्त्रण पाकर चारों दिशाओं से सेवक और संत पधारने लगे । सप्तमी की रात्रि में अखण्ड कीर्तन भजन होता रहा । श्रीदादूजी द्वारा रचित पदों को श्रद्धा प्रीतिपूर्वक गाते हुए रात्रिजागरण किया गया । फिर प्रात: अष्टमी के दिन आरती उतार कर भोग प्रसाद चढ़ाया गया । मंदिर में साधु संतों के साथ स्वामी गरीबदासजी ने श्रीगुरुवाणीजी की सौंज के दर्शन करके परम हर्ष का अनुभव किया ॥१॥ 
.
*रात्री जागरण में देव गन्धर्वो ने श्री दादूजी के भजन गाये*
*छन्द*
दीप प्रकाश उजास निशा मध, 
देखत ही सबको मन मोहै ।
गावत शबद सुरगहिं गन्धर्व, 
साधुहिं रूप छिपे सूर सोहै ।
स्वामिजु आप लखी उनकी गति, 
दूसर भेद लख्यो नहिं को है ।
वर्ण सके नहिं ओपम शारद, 
माधव कौन बखान खरो है ॥२॥ 
श्री गुरुवाणी के निज मन्दिर में रात्रिभर अखण्ड दीप ज्योतियों से प्रदीप्त प्रकाश सबका मन मोह रहा था । सुसज्जित श्रीगुरुवाणीजी की सौंज के समक्ष साधु - समाज सुन्दर सामयिक राग रागिनियों में भजन गा रहे थे । गन्धर्व आदि देवगण भी साधुवेश में छिपे हुए भजन गा रहे थे, इस रहस्यलीला को केवल स्वामी गरीबदासजी ही जान पाए, और कोई भी इसका भेद नहीं पहिचान पाया । करुणा भक्ति, शरणागत विनती, श्रद्धाप्रीति एवं उपदेश भावना परक भजन शब्दों की संगीतमय प्रस्तुति की शोभा का वर्णन स्वयं शारदा भी नहीं कर सकती, फिर भला मैं माधवदास इस अलौकिक शोभा का व्याख्यान कैसे कर सकता हूँ ॥२॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

= “पं. विं. त.” २२/२३ =

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*(“पञ्चविंशति तरंग” २२/२३)*
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*मुख्य सेवक नाम,* 
*मनोहर छन्द*
रामदास ताराचंद पूरण रु लाखा जन,
नरहरि सारण शरण गुरु लह्ये है ॥ 
भगवान मान नृप अकबर बीरबल,
सूरी खींची सेव किये, गुरु पाद गह्ये हैं ॥
पीथा निर्वाण कछावाह वंश ईश्‍वर,
लाडखानी गोविन्द भगत धन्य भये हैं ॥
जैमल रु नारायण भोजनृप परिजन,
गुरु दरशन पाय, धन्य भाग लह्ये है ॥२२॥ 
तत्कालीन मुख्य सेवकों के नाम - 
रामदास, ताराचंद, पूरणदास, लाखाराम, नरहरि, सारण आदि ने गुरुदेव की शरण ग्रहण की । राजा भगवानदास, राजा मानसिंह, अकबर, बीरबल, सूरी खींची आदि ने गुरुसेवा में यश अर्जित किया, गुरुचरण कमलों का प्रसाद पाया । पीथा निर्वाण वंशी, कछावाहा - वंशी ईश्‍वर, लाडखानी गोविन्दराम आदि भक्त गुरुकृपा से धन्य हुए । जैमल, नारायणसिंह, भोजराज आदि राज परिवार गुरु दर्शनों से धन्य - धन्य हो गया, अपना जीवन सफल बनाया ॥२२॥ 
.
हीराबाई नेमाबाई रामाबाई जमनाबाई,
गंगाबाई लाडांबाई भगवन्ती नांव है ॥ 
रतना यशोदाबाई उमाबाई सीताबाई,
तुलसी संतोषीबाई - रुकमणी भाव है ॥ 
राणीबाई जोधाबाई राणी कनकावती,
ऐती बाई भक्ती करी, धारे गुरुभाव है ॥ 
माधव कहत जन, हिरदा में राम धन,
दादूराम दादूराम गहीभव नाव है ॥२३॥ 
हीराबाई, नेमाबाई, रामाबाई, जमुनाबाई, गंगाबाई, लाडांबाई, भगवन्ती, रतना, यशोदाबाई, उमाबाई, सीताबाई, तुलसी, संतोषीबाई, रुक्मणीबाई आदि के मनों में गुरुदेव के प्रति अगाध श्रद्धाभाव रहा । राणीबाई, जोधाबाई, राणी कनकावती आदि ने ऐसी गुरुभक्ति प्रस्तुत की, जिससे अन्य भक्त सेवकों को आदर्श प्रेरणा मिली । माधवदास कहते हैं कि - इन भक्त सेवकों ने हृदय में रामरूपी धन को धारण किया, दादूराम - दादूराम जपते हुए गुरुनाम को नाव के समान अपनाकर भवसागर पार किया ॥२३॥
.
इति माधवदास विरचिते श्री संतगुण सागरामृत 
श्रीगुरुवाणी स्थापना, शिष्य नाम निरुपण ॥ 
इति पंचविंशति - तरंग सम्पूर्ण ॥२५

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

= “पं. विं. त.” १७/२१ =

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*(“पञ्चविंशति तरंग” १७/२१)*
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*दोहा*
*बावन शिष्यों ने लोक हितार्थ संदाय किया ~*
देवहिं सद् उपदेश जन, बावन शिष गुरु दादुके ।
रचे धाम निज स्तम्भ पुनि, चरित उजागर साधु के ॥१७॥
इन सौ शिष्यों से अतिरिक्त बावन शिष्य जनसमाज में सदुपदेश देकर भक्ति ज्ञान का प्रचार करने लगे । उन्होंने यत्र तत्र अपने स्थान आश्रम बनाये, जो दादूस्तम्भ कहलाये । इन साधुओं के सत्चरित्र समाज में उजागर हुये ॥१७॥
.
*नाम आख्यान इस प्रकार है -*
*इन्दव छन्द*
पाट गरीब लघू मसकीनजू, बाइ युगल्ल महातपधारी ।
सुन्दर दोय जगा जगजीवन, रज्जब शंकर मोहन च्यारी ।
श्री हरिसिंह नारायणजू हरि, चांद रु चत्तर त्रय सुखकारी ।
तीन गोपाल टीला बखना जन, जैमल दोय सुधी बनवारी ॥१८॥
.
माधो दयाल तेजानन्द पूजन, दोय प्रयाग जस्सा जगन्नाथा ।
घड़सी चरण सदा परमानन्द, साधुजि माखुजि लाल विख्याता ।
झाँझुजि बांझुजि टीकम नागर, श्याम निजाम हरी रंग राता ।
संतहिंदास हिंगुल्ल कपिल्ल रु, माधव दीरध बावन भ्राता ॥१९॥
.
*सोरठा*
बावन शिष्य विख्यात, गुरुदादू के पंथ मधि ।
बांटत ज्ञान प्रसाद, शिष साधक सेवक घने ॥२०॥
रुचि अनुसार विराज, थरपे आश्रम स्तम्भ तहँ ।
पूरण कीन्हे काज, भक्ति ज्ञान सेवक सुने ॥२१॥
गुरुगद्दी पर विराजमान गरीबदासजी, लघुभ्राता मसकीनदासजी दोनों बाई साध्वी(रामा, श्यामा) दोनों सुन्दरदासजी, जगजीवनजी, रज्जबजी, शंकरदासजी, चारों मोहनदासजी, हरिसिंहजी, नारायणदासजी, हरिदासजी, चाँदारामजी, तीनों चत्तरदासजी, तीनों गोपलदासजी, टीलाजी, बखनाजी, दोनों जैमलजी, बनवारीदासजी... माधोदासजी, दयालदासजी, तेजानन्दजी, दूजनदासजी, दोनों प्रयागदासजी, जस्सारामजी, जगन्नाथजी, घड़सीदासजी, चरणदासजी, सदारामजी, परमानन्दजी, साधूरामजी, माखूजी, लालदासजी, झाँझूजी, बाँकूजी, टीकमदासजी, नागरदासजी, श्यामदासजी, निजामजी संतदासजी, हिंगोलजी, कपिलजी, माधवदास...
ये बावन शिष्य श्री दादूपंथ में विख्यात हुए । इन्होंने जन समाज में ज्ञान प्रसाद बाँटा । अनेक साधक भक्त इनके शिष्य बने । इनके आश्रमों में अनेक सेवक भक्ति ज्ञान का प्रसाद पाते रहे हैं ॥१७-२१॥
(क्रमशः)

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

= “पं. विं. त.” १२/१६ =

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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
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*(“पञ्चविंशति तरंग” १२/१६)*
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*मनोहर छन्द* 
*तपोवन में १०० शिष्य तपस्या किये* 
ब्रह्म मुनि नारायण बालदास छीतर दास, 
गुणीराम रामदास द्वारिकाजू दास है ॥ 
मनोहर नेताराम, जीतराम गोविन्दास, 
दुरगा जू देवादास, भैंरू धीरादास है । 
बोहित दो बीरादास, जगदीश हरिदास, 
माधो काणी बाजिंद रु तोलाजू संतोष है ॥ 
तुलसी हु कान्हड़राम, नर्बद नाथूराम, 
ईश्‍वर जु संतदास गोविन्द टीकमदास है ॥१२॥ 
तत्त्ववेता ठाकुरदास, आल्हण रु सिन्धुदास, 
बनमाली परशुराम भगवानदास जू । 
परमानन्द कृष्णदास, दयाल अरु व्यासदास, 
जोधा सांगा टोडर हु सारंग उजासजू । 
चतुरा सुमेरु खाकी, चेतन दृढ़दास भाषी, 
मुरारि सुजानदास जानो केवलदासजू । 
चरण रु गंगादास पंचानन सांवलदास, 
जंगीदास चूहड़जू संत पांचूदासजु ॥१३॥ 
विष्णूदास माधोदास जग्गाजी धरमदास, 
चत्तरदास लांबरोहू नृसिंह दोऊ जान ही । 
दोउ जगन्नाथ मोहन ध्यानदास भीखूदास, 
मांगा बीसा चतुरदास मदन सुजान ही । 
धर्मदास कलाराम लालदास नागाराम, 
दूधाराम चेतन हु, ठाकुरदास मान ही ॥ 
ताऊजी मुरारीदास बद्रीदास श्यामदास, 
हांफाजी हु रामदत्त केशोजी प्रमान ही ॥१४॥ 
हेमदास खेमदास डूंगजी सुरमदास, 
दामोदर कमलनयन बिसरामजी । 
गुणीदास भावूदास, भजन उजास खास । 
दादूगुरु शत शिष्य, जपें दादूरामजी । 
भजन करत नित, रहत इकंत व्रत, 
रात दिन एकतार हरि गुरु नाम जी । 
माधो कहे अभय होत, मिलत अखंड ज्योत, 
जीवन मुकति भइ, दादूजी के धाम जी ॥१५॥ 
*दोहा* 
स्वामी के शत शिष्य ये, देव मुनी सम जान, 
भयहरणां गिरि वन तपे, माधव करे बखान ॥१६॥ 
ब्रह्मदासजी, मुनिजी, नारायणदासजी, बालदासजी, छीतरदासजी, गुणीरामजी, रामदासजी, द्वारकादासजी, मनोहरदासजी, नेतारामजी, जीतरामजी, गोविन्ददासजी, दुर्गादासजी, देवादासजी, भैंरुदासजी, धीरादासजी, दोनों बोहितदासजी, बीरादासजी, जगदीशजी, हरिदासजी, माधो काणी जी, बाजिंदजी, तोलारामजी, संतोषदासजी, तुलसीरामजी, कान्हहड़रामजी, नर्बदजी, नाथूरामजी, ईश्‍वरदासजी, संतदासजी, गोविन्दरामजी, टीकमदासजी.... 
.
तत्ववेत्ता, ठाकुरदासजी, आल्हणरामजी, सिन्धुदासजी, वनमालीजी, परशुरामजी, भगवानदासजी, परमानन्दजी, कृष्णदासजी, दयालदासजी, व्यासदासजी, जोधारामजी, सांगारामजी, टोडरमलजी, सारंगदासजी, चतुरादासजी, सुमेरजी, खाकीदासजी, चेतनरामजी, दृढदासजी, मुरारिजी, सुजानदासजी, केवलरामजी, चरणदासजी, गंगादासजी, पंचाननजी, सांवलदासजी, जंगीदासजी, चूहडरामजी, पाँचूदासजी... 
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विष्णुदासजी, माधोदासजी, जग्गाजी, धरमदासजी, चतरदासजी, दोनों नृसिंहदासजी, दोनों जगन्नाथजी, मोहनजी, ध्यानदासजी, भीखूदासजी, मांगारामजी, बीसाजी, चतुरदासजी, मदनदासजी, धर्मदासजी, कलारामजी, लालदासजी, नागारामजी, दूधारामजी, चेतनदासजी, ठाकुरदासजी, ताऊजी मुरारिदासजी, बद्रीदासजी, श्यामदासजी, हाँफाजी, रामदत्तजी, केशोजी... 
.
हेमदासजी, खेमदासजी, डूंगजी, सुरमदासजी, दामोदरजी, कमलनयनजी, विसरामजी, गुणीदासजी, भावूदासजी - 
.
ये सौ शिष्य संत एकांत तपोवन में रहकर निरन्तर हरि - गुरु नाम का स्मरण करते हुए अभय पद को प्राप्त हो गए । उनकी जीव ज्योति अखंड ब्रह्म ज्योति में समा गई । माधवदास वर्णन करते हैं - ये संत श्रीदादूजी के मुक्तिधाम में भजन करते हुए जीवनमुक्त हो गए ॥१२-१६॥ 
(क्रमशः) 

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

= “पं. विं. त.” ९/११ =


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*दोहा*
भयहरणा गिरी तपोवन के नाम से प्रसिद्ध है ~
गुरु दादू के शिष्य शत, भजन करें धरि ध्यान ।
भय हरणां गिरि कन्दरा, तपे तपोवन स्थान ॥९॥
गुरुदेव श्री दादूजी की आज्ञानुसार उनके सौ शिष्य, भयहरण गिरि की कन्दराओं में जाकर भजन करने लगे । गरीबदासजी, भाई मसकीनदासजी के साथ जाकर बार - बार उन्हें संभालते रहते । समीपस्थ ग्रामों के सेवक भक्त उन तपस्वियों के लिये दूध पहुँचा दिया करते थे ॥९॥
.
*इन्दव छन्द*
*सौ शिष्य तपस्या में लीन ~*
संत सभी गुरु आयसु धारत,
ब्रह्महिं ध्यान करें लय लाई ।
शुद्ध तपोवन भयहरणां गिरि,
अन्न तजे पय पान कराई ।
पासहिं ग्राम बसे जन सेवक,
संतहिं सेवन को चित लाई ।
एक समै सब बाहर आवत,
गुप्त रहें पुनि ध्यान लगाई ॥१०॥
सेर सवानित दूध लहें जन,
पूरण योग समाधि उपासी ।
ब्रह्महिं ध्यान धरें गिरिकन्दर,
यों निरविघ्न रहें अन्यासी ।
नाम बखा करूं तिन सन्तन,
जो शत शिष्यजु तेज उजासी ।
माधवदास सुभ्रात सभी जन,
श्री हरि प्रेमहिं प्यास प्रकाशी ॥११॥
सभी तपस्वी संत पय पान के लिये केवल एक बार ही दिन में अपनी तप:स्थली से बाहर आते थे । शेष समय गुप्त रहकर ही भजन ध्यान करते रहते । प्रत्येक साधु सवा सेर दूध नित्यप्रति ग्रहण किया करते, पश्‍चात् पूर्ण योग समाधि में लीन होकर निर्विघ्न ब्रह्मध्यान का अभ्यास करते रहते । मैं माधवदास अब उन तपस्वी सौ गुरुभाइयों के नामों का व्याख्यान कर रहा हूँ, जो श्रीहरि के प्रेम में अन्तर्मन की प्यास के साथ तपस्या कर रहे थे ॥१० - ११॥
(क्रमशः)

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

= “पं. विं. त.” ७/८ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पञ्चविंशति तरंग” ७/८)*
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*संत देश देशांतर में*
केतिक पूरब दक्षिण पश्‍चिम, 
केतिक उत्तर देश निवासी ।
केतिक मारु मेवाड़ रु मालव, 
नागर चाल हडोति जु वासी ॥ 
केतिक संत पंजाब हरियाणहु, 
केते रमे गुजरात उपासी ।
केते ढुंढाड़ नराणे दिपे पुनि, 
दास गरीब सबै सुखराशी ॥७॥ 
कुछ संत पूर्व दिशा में तो कुछ पश्‍चिम में, कोई उत्तर में तो कोई दक्षिण में पधार गये । कितने ही संत मरुधर, मेवाड़, मालव, नागर प्रदेश हाड़ोती, पंजाब, हरियाणा तथा गुजरात प्रान्त में जाकर निवास करने लगे । कुछ साधु ढूंढार क्षेत्र और नारायणपुर में ही रहकर भजन करते रहे । गरीबदासजी समय - समय पर सभी के सुख पूछते रहते ॥७॥ 
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*श्री दादूजी के पांच धाम*
संत नये गुरुगादि गरीबहिं, 
भाव रहे उर इष्ट सदा ही ।
साधु शुची गुणज्ञान धरें सब, 
दें वरदान सबै हरषाही ।
पंथ प्रधान सुधाम नरायण, 
भयहरणां गिरि तीर्थ रहा ही ।
साँभर अम्बपुरी जु कल्याणहिं, 
पंचहु धाम सुतीर्थ कहा ही ॥८॥ 
गुरुगद्दी पर विराजित श्रीगरीबदास जी के प्रति सभी साधु संत श्रद्धा रखते थे । इष्टदेव परब्रह्म की उपासना में दृढ़ सभी साधुओं के भाव शुचिता, साधुता ज्ञानगरिमा से परिपूर्ण थे । भक्त सेवकों को वरदान देकर वे हर्षित करते रहते । श्रीदादूजी के पंथ अनुयायियों के लिये प्रधान गुरुधाम नारायणपुर माना जाने लगा । भयहरण गिरि तीर्थरूप मुक्तिधाम के नाम से प्रसिद्ध हुआ । साँभर परिचयधाम, आमेर, लीलाधाम और कल्याणपुरी साधना - धाम के नाम से विख्यात हुए । इस तरह श्रीदादूपंथ के पाँच तीर्थ, भक्ति ज्ञान, वैराग्य कल्याण और मुक्ति के प्रेरक रूप में उजागर हुए ॥८॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 नवंबर 2014

= “पं. विं. त.” ५/६ =

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*(“पञ्चविंशति तरंग” ५/६)*
पालकि छाप धरी गुरु मन्दिर, 
सव्य बनाय सुभांति सजाई ।
जो अपनो गुरुपंथ उपासक, 
पास रखे गुरुवाणि पुजाई ॥ 
दास - गरीब दई सबको सुध, 
संत सुधानहिं वाणि धराई ।
देश दिशा निज साधुन को पठि, 
माधव वाणिजु कीरति गाई ॥५॥ 
श्रीगुरुवाणी - विराजित सौंज को ‘‘श्रीदादू पालकी’’ - संज्ञा से संघोशित किया जाने लगा । श्रद्धा प्रीति से उसे बहुत अच्छी तरह सजाया जाता । पंथ उपासक सभी संत अपने पास भी श्रीदादू वाणी की हस्तलिखित प्रतिलिपि रखने लगे । गरीबदासजी ने विभिन्न दिशाओं में साधुओं को भेजकर गुरुवाणी की स्थापना करवाई, पूजा पद्धति के लिये निर्देश दिये । माधवदास कहते हैं कि - सर्वत्र गुरुवाणी की कीर्ति गाई जाने लगी ॥५॥ 
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*शब्दों को तालमात्राओं के अनुसार गरीबदास जी ने किया ~*
*छन्द*
दादु गुरु निज आयसु पावत, 
रज्जब मोहन श्री जगन्नाथा ।
साखि हु शोध अनुक्रम राखत, 
ताल रु राग गरीबहिं साथा ॥ 
अंग सैंतीसहिं साखि लिखी सब, 
राग सताइस शब्दहिं गाथा ।
यों करि संत लिखी गुरु वाणिजु, 
स्थान रु स्थान भई विख्याता ॥६॥ 
इस गुरुवाणी का सम्पादन श्रीदादूजी की आज्ञा लेकर श्रीरज्जबजी मोहनजी, जगन्नाथजी तथा गरीबदासजी ने किया था । प्रसंगानुसार शोध - शोध कर अनुक्रम से सैंतीस अंगों में साखियों को रखा गया था । भजन - पद्यों की २७ रागों में, तालानुसार निबद्ध करके गरीबदासजी ने सु नियोजित किया ॥६॥
(क्रमशः)

सोमवार, 24 नवंबर 2014

= “पं. विं. त.” ३/४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पञ्चविंशति तरंग” ३/४)*
*श्री वाणी जी की कथा सत्संग ~*
बाँचत संतकथा गुरु ग्रन्थ जु, 
दास गोपाल उचार कराई ।
संत समाज सबै मंडली मिल, 
स्वामिजु संत सभा मध आई ।
होत कथा निज दोय मुहूरत, 
संत कथा करि शब्दहु गाई ।
ध्यान धरें अरु भोजन पावत, 
संत जु आसन जाय रहाई ॥३॥ 
नित्य प्रात: स्नानादि के बाद प्रथम प्रहर में श्री गुरुवाणी जी की कथा का वाचन किया जाने लगा । पुजारी गोपालदासजी संत सभा में नित्य कथा करते । स्वामी गरीबदासजी भी वाणीजी की कथा में पधारते । दो मुहूर्त तक कथा होती, पश्‍चात् कथा - प्रसंग के अनुसार भजन - शब्द गाये जाते । सभी संत गुरुदेव एवं ईश्‍वर का ध्यान स्मरण करने के पश्‍चात् भोजन प्रसाद पाते, फिर अपने आसनों पर जाकर विश्राम करते ॥३॥ 
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*सायंकाल आरती होती ~*
पाछलि याम सुसंत रु साधु जु, 
न्हावन धोवन शौच कराई ।
प्रात सु साँझ सबै मिलि गावत, 
ढोलक झांझु मंजीर बजाई ।
आरति साँझ करें मिलि गावत, 
बैठत ही पद मंगल गाई ।
आसन पे फिर जाय विराजत, 
यों निशिवासर संत रहाई ॥४॥ 
पिछले प्रहर अपराह्न में सभी संत स्नान शौचादि से निवृत्त होकर संध्या आरती में सम्मिलित होते । ढोलक झाँझ मंजीरों के साथ प्रीतिपूर्वक आरती गाते । गुरुदेव रचित निराकार परब्रह्म की आरती स्तुति गाने के पश्‍चात् एक प्रहर तक भक्ति ज्ञान वैराग्य परक भजन गाते । फिर अपने आसनों पर जाकर रात्रि विश्राम करते । इस प्रकार की दिनचर्या के साथ संत गुरुधाम में रहने लगे ॥४॥ 
यद्यपि गुरुदेव श्री दादूजी की तो पूजा - उपासना पद्धति में बाह्य सामग्री प्रपञ्चों को महत्व नहीं दिया था(इहिं विधि आरती राग की कीजे । आतम अन्तर वारणा लीजे ॥) किन्तु उस उच्चकोटि की उपासना स्थिति में साधारण साधक नहीं पहुँच सकता । प्रारंभिक उपासना - सोपान पर बाह्य उपचारों के बिना मन को ठहराना अत्यन्त कठिन है । अत: प्रारम्भिक सोपानों पर चढ़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । 
(क्रमशः)