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बुधवार, 9 सितंबर 2020

*विचारपथ*

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*जहँ मन माया ब्रह्म था, गुण इन्द्रिय आकार ।*
*तहँ मन बिरचै सबनि थैं, रचि रहु सिरजनहार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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*श्यामारूप । उत्तम भक्त । विचारपथ*
श्रीरामकृष्ण(भावमग्न)- तुम लोगों को कोई शंका हो तो पूछो । मैं समाधान करता हूँ ।
गोविन्द तथा अन्यान्य भक्त लोग सोचने लगे ।
गोविन्द- महाराज, श्यामारूप क्यों हुआ ?
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श्रीरामकृष्ण- वह तो सिर्फ दूर से वैसा दिखता है । पास जाने पर कोई रंग ही नहीं ! तालाब का पानी दूर से काला दिखता है । पास जाकर हाथ से उठाकर देखो, कोई रंग नहीं । आकाश दूर से नीले रंग का दिखता है । पास के आकाश को देखो, कोई रंग नहीं । ईश्वर के जितने ही समीप उतनी ही धारणा होगी कि उनके नाम-रूप नहीं । कुछ दूर हट आने से फिर वही ‘मेरी श्यामा माता’ । जैसे घासफूल का रंग ।
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“श्यामा पुरुष है या प्रकृति? किसी भक्त ने पूजा की थी । कोई दर्शन करने आया तो उनसे देवी के गले में जनेऊ देखकर कहा, ‘तुमने माता के गले में जनेऊ पहनाया है !’ भक्त ने कहा, ‘भाई, तुम्हीं ने माता को पहचाना है । मैं अब तक नहीं पहचान सका कि वे पुरुष है या प्रकृति ! इसीलिए जनेऊ पहना दिया था ।’
“जो श्यामा हैं वे ही ब्रह्म हैं । जिनका रूप है वे ही रूपहीन भी हैं । जो सगुण हैं वे ही निर्गुण हैं । ब्रह्म ही शक्ति है और शक्ति ही ब्रह्म । दोनों में कोई भेद नहीं । एक सच्चिदानन्दमय है और दूसरी सच्चिदानन्दमयी ।”
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गोविन्द- योगमाया क्यों कहते हैं ?
श्रीरामकृष्ण- योगमाया अर्थात् पुरुष-प्रकृति का योग । जो कुछ देखते हो वह सब पुरुष-प्रकृति का योग है । शिव-काली की मूर्ति में शिव के ऊपर काली खड़ी हैं । शिव शव की भाँति पड़े हैं, काली शिव की ओर देख रही हैं, - यह सब पुरुष-प्रकृति का योग है । पुरुष निष्क्रिय है, इसीलिए शिव शव हो रहे हैं । पुरुष के योग से प्रकृति सब काम करती है – सृष्टि, स्थिति, प्रलय करती है ।
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“राधाकृष्ण की युगलमूर्ति का भी यही अभिप्राय है । इसी योग के लिए वक्रभाव है । और यही योग दिखाने के लिए श्रीकृष्ण की नाक में मुक्ता और श्रीमती की नाक में नीलम है । श्रीमती का रंग गोरा, मुक्ता जैसा उज्जवल है । श्रीकृष्ण का रंग साँवला है, इसीलिए श्रीमती नीलम धारण करती है । फिर श्रीकृष्ण के वस्त्र पीले और श्रीमती के नीले हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 8 सितंबर 2020

*माया का खेल देख श्रीरामकृष्ण की मूर्च्छा*

 

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*दादू स्वाद लागि संसार सब, देखत परलै जाइ ।* 
*इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बंधाणै आइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
*माया का खेल देख श्रीरामकृष्ण की मूर्च्छा* 
“त्रिगुणातीत होना बड़ा कठिन है । ईश्वरलाभ किए बिना वह सम्भव नहीं । जीव माया के राज्य में रहता है । यही माया ईश्वर को जानने नहीं देती । इसी माया ने मनुष्य को अज्ञानी बना रखा है । हृदय एक बछड़ा लाया था । एक दिन मैंने देखा कि उसे उसने बाग में बाँध दिया है, चारा चुगाने के लिए । मैंने पूछा, ‘हृदय, तू रोज उसे वहाँ क्यों बाँध रखता है?’ हृदय ने कहा, ‘मामा, बछड़े को घर भेजूँगा । बड़ा होने पर वह हल में जोता जाएगा ।’ ज्योंही उसने यह कहा, मैं मुर्च्छित हो गिर पड़ा । सोचा, कैसा माया का खेल है ! कहाँ तो कामारपुकुर सिहोड़ और कहाँ कलकत्ता ! यह बछड़ा उतना रास्ता चलकर जाएगा, वहाँ बढ़ता रहेगा, फिर कितने दिन बाद हल खींचेगा ! इसी का नाम संसार है – इसी का माया है ।” 
“बड़ी देर बाद मेरी मूर्च्छा टूटी थी ।” 
(३) समाधि में 
श्रीरामकृष्ण प्रायः रातदिन समाधिस्थ रहते हैं – उनका बाहरी ज्ञान नहीं के बराबर होता है, केवल बीच बीच में भक्तों के साथ ईश्वरीय प्रसंग और संकीर्तन करते हैं । करीब तीन-चार बजे मास्टर ने देखा कि वे अपने छोटे तख्त पर बैठे हैं – भावाविष्ट हैं । थोड़ी देर बाद जगन्माता से बातें करते हैं । 
माता से वार्तालाप करते हुए एक बार उन्होंने कहा, “माँ, उसे एक कला भर शक्ति क्यों दी?” थोड़ी देर बाद फिर कहते हैं, माँ, समझ गया, एक कला ही पर्याप्त होगी । उसी से तेरा काम हो जाएगा – जीवशिक्षण होगा ।” 
क्या श्रीरामकृष्ण इसी तरह अपने अन्तरंग भक्तों में शक्तिसंचार कर रहे हैं? क्या यह सब तैयारी इसीलिए हो रही है की आगे चलकर वे जीवों को शिक्षा देंगे ? 
मास्टर के अलावा कमरे में राखाल भी बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण अब भी भावमग्न हैं, राखाल से कहते हैं, “तू नाराज हो गया था? मैंने तुझे क्यों नाराज किया, इसका कारण है; दवा अपना ठीक असर करेगी समझकर । पेट में तिल्ली अधिक बढ़ जाने पर मदार के पत्ते आदि लगाने पड़ते हैं ।” 
कुछ देर बाद कहते हैं, “हाजरा को देखा, शुष्क काष्ठवत् है । तब यहाँ रहता क्यों है? इसका कारण है, जटिला कुटिला* के रहने से लीला की पुष्टि होती है । (*श्रीराधा की सास और ननद – आयान घोष की माता और बहन ।) 
(मास्टर के प्रति) “ईश्वर का रूप मानना पड़ता है । जगद्धात्री रूप का अर्थ जानते हो ? जिन्होंने जगत को धारण कर रखा है – उनके धारण न करने से, उनके पालन न करने से जगत् नष्टभ्रष्ट हो जाय । मनरूपी हाथी को जो वश में कर सकता है, उसी के हृदय में जगद्धात्री उदित होती हैं ।” 
राखाल- मन मतवाला हाथी है । 
श्रीरामकृष्ण- सिंहवाहिनी का सिंह इसीलिए हाथी को दबाये हुए है । 
सन्ध्यासमय मन्दिर में आरती हो रही है । श्रीरामकृष्ण भी अपने कमरे में ईश्वर का नाम ले रहे हैं । कमरे में धूनी दी गयी । श्रीरामकृष्ण हाथ जोड़कर छोटे तख्त पर बैठे हैं – माता का चिन्तन कर रहे हैं । बेलघरिया के गोविन्द मुकर्जी और उनके कुछ मित्रों ने आकर प्रणाम किया और जमीन पर बैठे । मास्टर और राखाल भी बैठे हैं बाहर चाँद निकला हुआ है । जगत चुपचाप हँस रहा है । कमरे के भीतर सब लोग चुपचाप बैठे श्रीरामकृष्ण की शान्त मूर्ति देख रहे हैं । आप भावमग्न हैं । कुछ देर बाद बातें की । अब भी भावाविष्ट हैं । 
(क्रमशः)

सोमवार, 7 सितंबर 2020

*केशव को शिक्षा*

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*आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त ।*
*क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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*केशव को शिक्षा – ‘दल(साम्प्रदायिकता) अच्छा नहीं’*
एक भक्त- क्या ब्रह्मज्ञान होने के बाद सम्प्रदाय आदि चलाया जा सकता है ?
श्रीरामकृष्ण- केशव सेन से ब्रह्मज्ञान की चर्चा हो रही थी । केशव ने कहा, आगे कहिए । मैंने कहा, और आगे कहने से सम्प्रदाय आदि नहीं रहेगा । इस पर केशव ने कहा, तो फिर रहने दीजिए । (सब हँसे ।) तो भी मैंने कहा, ‘मैं’ और ‘मेरा’ यह कहना अज्ञान है । ‘मैं कर्ता हूँ, यह स्त्री, पुत्र, सम्पत्ति, मान, प्रतिष्ठा – यह सब मेरा है’ यह विचार बिना अज्ञान के नहीं होता । तब केशव ने कहा, महाराज, ‘अहं’ को त्याग देने से तो फिर कुछ रहता ही नहीं । मैंने कहा, केशव, मैं तुमसे पूरा ‘अहं’ त्यागने को नहीं कहता हूँ, तुम ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘मैं कर्ता हूँ, ‘यह स्त्री और पुत्र मेरा है’, ‘मैं गुरु हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है – इसी को छोड़ दो । इसे छोड़कर ‘पक्का अहं’ बनाए रखो । ‘मैं ईश्वर का दास हूँ. उनका भक्त हूँ; मैं अकर्ता हूँ और वे ही कर्ता हैं’ – ऐसा सोचते रहो ।
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एक भक्त-क्या ‘पक्का अहं’ सम्प्रदाय बना सकता है ?
श्रीरामकृष्ण- मैंने केशव सेन से कहा, ‘मैं सम्प्रदाय का नेता हूँ, मैंने सम्प्रदाय बनाया है, मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ – इस तरह का अभिमान ‘कच्चा अहं’ है । किसी मत का प्रचार करना बड़ा कठिन काम है । वह ईश्वर की आज्ञा बिना नहीं हो सकता । ईश्वर का आदेश होना चाहिए । शुकदेव को भागवत की कथा सुनाने के लिए आदेश मिला था । यदि ईश्वर का साक्षात्कार होने के बाद किसी को आदेश मिले और तब यदि वह प्रचार का बीड़ा उठाए – लोगों को शिक्षा दे, तो कोई हानि नहीं । उसका अहं ‘कच्चा अहं’ नहीं, ‘पक्का अहं’ है ।
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“मैंने केशव से कहा था, ‘कच्चा अहं’ छोड़ दो । ‘दास अहं’ ‘भक्त का अहं’ – इसमें कोई दोष नहीं । तुम सम्प्रदाय की चिन्ता कर रहे हो, पर तुम्हारे सम्प्रदाय से लोग अलग होते जा रहे हैं । केशव ने कहा, महाराज, तीन वर्ष हमारे सम्प्रदाय में रहकर फिर दूसरे सम्प्रदाय में चला गया और जाते समय उलटे गालियाँ दे गया । मैंने कहा, तुम लक्षणों का विचार क्यों नहीं करते? क्या चाहे जिसको चेला बना लेने से ही काम हो जाता है !
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“केशव से मैंने और भी कहा था कि तुम आद्याशक्ति को मानो । ब्रह्म और शक्ति अभिन्न हैं – जो ब्रह्म हैं वे ही शक्ति हैं । जब तक ‘मैं देह हूँ’ यह बोध रहता है, तब तक दो अलग प्रतीत होते हैं । कहने के समय दो आ ही जाते हैं । केशव ने काली(शक्ति) को मान लिया था ।
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“एक दिन केशव अपने शिष्यों के साथ आया । मैंने कहा, मैं तुम्हारा लेक्चर सुनूँगा । उसने चाँदनी में बैठकर लेक्चर दिया । फिर घाट पर आकर बहुत-कुछ बातचीत की । मैंने कहा, जो भगवान् हैं वे ही दूसरे रूप में भक्त हैं, फिर वे ही एक दूसरे रूप में भागवत हैं । तुम लोग कहो, भागवत-भक्त-भगवान् । केशव ने और साथ ही भक्तों ने भी कहा, भागवत-भक्त-भगवान् । फिर जब मैंने कहा, गुरु-कृष्ण-वैष्णव, तब केशव ने कहा, महाराज, अभी इतनी दूर बढ़ना ठीक नहीं । लोग मुझे कट्टर कहेंगे ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

*ब्रह्म क्या है*

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*तन मन विलै यों कीजिये, ज्यों पाणी में लूंण ।*
*जीव ब्रह्म एकै भया, तब दूजा कहिये कूंण ॥*
*तन मन विलै यों कीजिये, ज्यों घृत लागे घाम ।*
*आतम कमल तहँ बंदगी, जहँ दादू प्रकट राम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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“ब्रह्म क्या है, यह मुँह से नहीं बताया जा सकता । जिसे उसका ज्ञान होता है वह फिर खबर नहीं दे सकता । लोग कहते हैं कि कालेपानी में जाने पर जहाज फिर नहीं लौटता ।
“चार मित्रों ने घूमते-फिरते हुए ऊँची दीवार से घिरी एक जगह देखी । भीतर क्या है यह देखने के लिए सभी बहुत ललचाये । एक दीवार पर चढ़ गया । झाँककर उसने जो देखा तो दंग रह गया, और ‘हा हा हा हा’ करते हुए भीतर कूद पड़ा । फिर कोई खबर नहीं दी । इस तरह जो चढ़ा वही ‘हा हा हा हा’ करते हुए कूद गया ! फिर खबर कौन दे ?
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“जड़भरत, दत्तात्रेय – ये ब्रह्मदर्शन के बाद फिर खबर नहीं दे सके । ब्रह्मज्ञान के उपरान्त, समाधि होने से फिर ‘अहं’ नहीं रहता । इसीलिए रामप्रसाद ने कहा है, ‘यदि अकेले सम्भव न हो तो मन, रामप्रसाद को साथ ले ।’ मन का लय होना चाहिए, फिर ‘रामप्रसाद’ का अर्थात् अहं-तत्त्व का भी, लय होना चाहिए । तब कहीं वह ब्रह्मज्ञान मिल सकता है ।”
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एक भक्त- महाराज, क्या शुकदेव को ज्ञान नहीं हुआ था ?
श्रीरामकृष्ण- कितने कहते हैं कि शुकदेव ने ब्रह्मसमुद्र को देखा और छुआ भर था, उसमें पैठकर गोता नहीं लगाया । इसीलिए लौटकर उतना उपदेश दे सके । कोई कहता है, ब्रह्मज्ञान के बाद वे लौट आए थे – लोकशिक्षा देने के लिए । परीक्षित् को भागवत सुनाना था और कितनी ही लोकशिक्षा देनी थी – इसीलिए ईश्वर ने उनके सम्पूर्ण अहं-तत्त्व का लय नहीं किया । एकमात्र ‘विद्या का अहं’ रख छोड़ा था । 
(क्रमशः)

बुधवार, 2 सितंबर 2020

*ब्रह्म त्रिगुणातीत है*

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*जब मन मृतक ह्वै रहै, इन्द्री बल भागा ।*
*काया के सब गुण तजै, निरंजन लागा ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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(२)
*ब्रह्म त्रिगुणातीत है । ‘मुँह से नहीं बताया जा सकता’ ।*
मास्टर- क्या दया भी एक बन्धन है?
श्रीरामकृष्ण- वह तो बहुत दूर की बात ठहरी । दया सतोगुण से होती है । सतोगुण से पालन, रजोगुण से सृष्टि और तमोगुण से संहार होता है, परन्तु ब्रह्म सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों से परे है – प्रकृति से परे है ।
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“जहाँ यथार्थ तत्त्व है वहाँ तक गुणों की पहुँच नहीं । जैसे चोर-डाकू किसी ठीक जगह पर नहीं जा सकते; वे डरते हैं कि कहीं पकड़े न जायें । सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण डाकू हैं । एक कहानी सुनाता हूँ, सुनो-
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“एक आदमी जंगल की राह से जा रहा था कि तीन डाकुओं ने उसे पकड़ा । उन्होंने उसका सब कुछ छीन लिया । एक डाकू ने कहा, ‘अब इसे जीवित रखने से क्या लाभ?’ यह कहकर वह तलवार से उसे काटने आया । तब दूसरे डाकू ने कहा, ‘नहीं जी, काटने से क्या होगा? इसके हाथ-पैर बाँधकर यहीं छोड़ दो’ । 
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वैसा करके डाकू उसे वहीं छोड़कर चले गये । थोड़ी देर बाद उनमें से एक लौट आया और बोला, ‘ओह ! तुम्हें चोट लगी ? आओ, मैं तुम्हारा बन्धन खोल देता हूँ’ उसे मुक्त कर डाकू ने कहा, ‘आओ मेरे साथ, तुम्हें सड़क पर पहुँचा दूँ’ बड़ी देर में सड़क पर पहुँचकर उसने कहा, ‘इस रास्ते से चले जाओ, वह तुम्हारा मकान दिखता है’ । तब उस आदमी ने डाकू से कहा, ‘भाई, आपने बड़ा उपकार किया; अब आप भी चलिए मेरे मकान तक; आइये’ डाकू ने कहा, ‘नहीं मैं वहाँ नहीं आ सकता; पुलिस को खबर लग जाएगी’ । 
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“यह संसार ही जंगल है । इसमें सत्त्व, रज, तम ये तीन डाकू रहते हैं – ये जीवों का तत्त्वज्ञान छीन लेते हैं । तमोगुण मारना चाहता है; रजोगुण संसार में फँसाता है; पर सतोगुण रज और तम से बचाता है । सत्त्वगुण का आश्रय मिलने पर काम, क्रोध आदि तमोगुण से रक्षा होती है । फिर सतोगुण जीवों का संसारबन्धन तोड़ देता है । 
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पर सतोगुण भी डाकू है – वह तत्त्वज्ञान नहीं दे सकता । हाँ, वह जीव को उस परमधाम में जाने की राह तक पहुँचा देता है और कहता है, ‘वह देखो, तुम्हारा मकान वह दीख रहा है !’ जहाँ ब्रह्मज्ञान है, वहाँ से सतोगुण भी बहुत दूर है । 
(क्रमशः)

मंगलवार, 1 सितंबर 2020

*ब्रह्मतत्त्व तथा आद्याशक्ति*

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*दादू जे तूं समझै तो कहूँ, सांचा एक अलेख ।*
*डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावै भेख ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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वैष्णव भक्त-महाराज, ईश्वर का चिन्तन भला क्यों करें ?
परिच्छेद ४७ 
*ब्रह्मतत्त्व तथा आद्याशक्ति* 
(१)
*पण्डित पद्मलोचन । विद्यासागर*
आषाढ़ की कृष्णा तृतीया तिथि है, २२ जुलाई १८८३ ई. । आज रविवार है । भक्त लोग अवसर पाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन के लिए फिर आए हैं । अधर, राखाल और मास्टर कलकत्ते से एक गाड़ी पर दिन के एक-दो बजे दक्षिणेश्वर पहुँचे । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद थोड़ी देर आराम कर चुके हैं । कमरे में मणि मल्लिक आदि भक्त भी बैठे हैं । 
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श्री मणि मल्लिक पुराने ब्राह्मभक्त हैं । उनकी उम्र साथ-पैंसठ वर्ष की है । कुछ दिन हुए वे काशीजी गए थे । आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं और उनसे काशी-दर्शन का वर्णन कर रहे हैं ।
मणि मल्लिक- एक और साधु को देखा । वे कहते हैं कि इन्द्रिय-संयम के बिना कुछ नहीं होगा । सिर्फ ईश्वर की रट लगाने से क्या होगा ?
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श्रीरामकृष्ण- इन लोगों का मत यह है कि पहले साधना चाहिए – शम, दम, तितिक्षा चाहिए । ये निर्वाण के लिए चेष्टा कर रहे हैं । ये वेदान्ती हैं, सदैव विचार करते हैं, ‘ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या’ बड़ा कठिन मार्ग है । यदि जगत् मिथ्या हुआ तो तुम भी मिथ्या हुए जो कह रहे हैं वे स्वयं मिथ्या हैं, उनकी बातें भी स्वप्नवत् हैं । बड़ी दूर की बात है । 
“यह कैसा है जानते हो ? जैसे कपूर जलाने पर कुछ भी शेष नहीं रहता, लकड़ी जलाने पर राख तो बाकी रह जाती है । अन्तिम विचार के बाद समाधि होती है । तब ‘मैं’ ‘तुम’ ‘जगत्’ इन सब का कोई पता ही नहीं रहता ।
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“पद्मलोचन बड़ा ज्ञानी था, परन्तु मैं ‘माँ माँ’ कहकर प्रार्थना करता था, तो भी मुझे खूब मानता था, वह बर्दवानराज का सभापण्डित था । कलकत्ते में आया था – कामारहाटी के पास एक बाग में रहता था । पण्डित को देखने की मेरी इच्छा हुई । मैंने हृदय को यह जानने के लिए भेजा कि पण्डित को अभिमान है या नहीं । सुना कि अभिमान नहीं है । मुझसे उसकी भेंट हुई । वह तो इतना ज्ञानी और पण्डित था, परन्तु मेरे मुँह से रामप्रसाद के गाने सुनकर रो पड़ा । बातें करके ऐसा सुख मुझे कहीं और नहीं मिला उसने मुझसे कहा, ‘भक्तों का संग करने की कामना त्याग दो, नहीं तो तरह तरह के लोग हैं, वे तुमको गिरा देंगे’ । 
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वैष्णवचरण के गुरु उत्सवानन्द से उसने पात्र-व्यवहार करके विचार किया था, मुझसे कहा, ‘आप भी जरा सुनिये’ । एक सभा में विचार हुआ था – शिव बड़े हैं या ब्रह्मा । अन्त में पण्डितों ने पद्मलोचन से पूछा । पद्मलोचन ऐसा सरल था कि उसने कहा, ‘मेरे चौदह पुरखों में से किसी ने न तो शिव को देखा और न ब्रह्मा को ही’ । ‘कामिनी-कांचन का त्याग’ सुनकर एक दिन उसने मुझसे कहा, ‘उन सब का त्याग क्यों कर रहे हो? यह रुपया है, वह मिट्टी है, - यह भेदबुद्धि तो अज्ञान से पैदा होती है’ मैं क्या कह सकता था, बोला, ‘क्या मालुम, पर मुझे रुपया-पैसा आदि रुचता ही नहीं । 
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*विद्यासागर की दया । भीतर सोना छिपा है ।*
“एक पण्डित को बड़ा अभिमान था । वह ईश्वर का रूप नहीं मानता था । परन्तु ईश्वर का कार्य कौन समझे? वे आद्याशक्ति के रूप में उसके सामने प्रकट हुए । पण्डित बड़ी देर तक बेहोश रहा । जरा होश सम्हालने पर लगातार ‘का, का, का’(अर्थात्, काली) की रट लगाता रहा ।
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भक्त- महाराज, आपने विद्यासागर को देखा है ? कैसा देखा ?
श्रीरामकृष्ण- विद्यासागर के पाण्डित्य है, दया है, परन्तु अन्तर्दृष्टि नहीं है । भीतर सोना दबा पड़ा है, यदि इसकी खबर उसे होती तो इतना बाहरी काम जो वह कर रहा है, वह सब घट जाता और अन्त में एकदम त्याग हो जाता । भीतर, हृदय में ईश्वर हैं यह बात जानने पर उन्हीं के ध्यान और चिन्तन में मन लग जाता । किसी किसी को बहुत दिन तक निष्काम कर्म करते करते अन्त में वैराग्य होता है और मन उधर मुड़ जाता है – ईश्वर से लग जाता है ।
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“जैसा काम ईश्वर विद्यासागर कर रहा है वह बहुत अच्छा है । दया बहुत अच्छी है । दया और माया में बड़ा अन्तर है । दया अच्छी है, माया अच्छी नहीं । माया का अर्थ है आत्मीयों से प्रेम – अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, भतीजा, भानजा, माँ, बाप इन्हीं से प्रेम । दया अर्थात् सब प्राणियों से समान प्रेम ।”
(क्रमशः)

सोमवार, 31 अगस्त 2020

*जीवन्मुक्त । उत्तम भक्त । ईश्वरदर्शन के लक्षण*

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*राम तूँ मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥टेक॥*
*एकै संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥१॥*
*तन मन तुम कौं देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥२॥*
*रस माँही रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥३॥*
*ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥४॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद. ४०७)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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वैष्णव भक्त- महाराज, ईश्वर का चिन्तन भला क्यों करें ?
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*जीवन्मुक्त । उत्तम भक्त । ईश्वरदर्शन के लक्षण*
श्रीरामकृष्ण- यह बोध यदि रहे तो फिर वह जीवन्मुक्त ही है । परन्तु सब में यह विश्वास नहीं होता, केवल मुँह से कहते हैं । ईश्वर है, उन्हीं की इच्छा से सब कुछ हो रहा है – यह विषयासक्त लोग सुन भर लेते हैं, इस पर विश्वास नहीं रखते ।
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“विषयासक्त लोगों का ईश्वर कैसा होता है, जानते हो ? जैसे माँ-काकी का झगड़ा सुनकर बच्चे भी झगड़ते हुए कहते हैं, मेरे ईश्वर हैं ।
“क्या सभी लोग ईश्वर की धारणा कर सकते हैं? उन्होंने भले आदमी भी बनाए हैं और बुरे आदमी भी, भक्त भी बनाए हैं और अभक्त भी, विश्वासी भी बनाए हैं और अविश्वासी भी । उनकी लीला, में सर्वत्र विविधता है । उनकी शक्ति कहीं अधिक प्रकाशित है तो कहीं कम । सूर्य का तेज मिट्टी की अपेक्षा जल में अधिक प्रकाशित होता है, फिर जल की अपेक्षा दर्पण में अधिक प्रकाशित होता है ।
“फिर भक्तों के बीच अलग अलग श्रेणियाँ हैं – उत्तम भक्त, मध्यम भक्त, अधम भक्त । गीता में ये सब बातें हैं ।
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वैष्णव भक्त- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- अधम भक्त कहता है, - ईश्वर बहुत दूर आकाश में हैं । मध्यम भक्त कहता है, - ईश्वर सर्वभूतों में चेतना के रूप में, प्राण के रूप में विद्यान हैं, उत्तम भक्त कहता है, - ईश्वर स्वयं ही सब कुछ हुए हैं; जो भी कुछ दीख पड़ता है वह उन्हीं का एक एक रुप है; वे ही माया, जीव, जगत् आदि बने हैं; उनके सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है ।
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वैष्णव भक्त- क्या ऐसी अवस्था किसी को प्राप्त होती है ?
श्रीरामकृष्ण- उनके दर्शन हुए बिना ऐसी अवस्था नहीं हो सकती । परन्तु दर्शन हुए हैं या नहीं इसके लक्षण हैं । दर्शन होने पर मनुष्य कभी उन्मत्तवत् हो जाता है – हँसता, रोता, नाचता, गाता है । फिर कभी बालकवत् हो जाता है – पाँच साल के बच्चे जैसी अवस्था ! सरल, उदार, अहंकार नहीं, किसी चीज पर आसक्ति नहीं, किसी गुण का वशीभूत नहीं, सदा आनन्दमय अवस्था है ! कभी वह पिशाचवत् बन जाता है – शुचि-अशुचि का भेद नहीं रहता, आचार अनाचार सब एक हो जाता है । फिर कभी वह जड़वत् हो जाता है – मानो कुछ देखकर स्तब्ध हो गया है ! इसी से किसी भी प्रकार का कर्म, किसी भी प्रकार की चेष्टा नहीं कर सकता । 
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क्या श्रीरामकृष्ण स्वयं की ही अवस्थाओं की ओर संकेत कर रहे हैं ?
श्रीरामकृष्ण(वैष्णव भक्त से)- ‘तुम और तुम्हारा’ – यह ज्ञान है; ‘मैं और मेरा’ – यह अज्ञान ।
“हे ईश्वर तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता’ – यही ज्ञान है । ‘हे ईश्वर, सब कुछ तुम्हारा है; देह, मन, घर, परिवार, जीव, जगत् – यह सब तुम्हारा ही है, मेरा कुछ नहीं’ – इसी का नाम ज्ञान है ।
“जो अज्ञानी है, वही कहता है कि ईश्वर ‘वहाँ’ – बहुत दूर हैं । जो ज्ञानी है, वह जानता है कि ईश्वर ‘यहाँ’ – अत्यन्त निकट, हृदय के बीच अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं, फिर उन्होंने स्वयं भिन्न भिन्न रूप भी धारण किये हैं ।”
(क्रमशः)

रविवार, 30 अगस्त 2020

*श्रीरामकृष्ण का सर्वधर्मसमन्वय*

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*अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।* 
*दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)* 
================ 
*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
(४) 
*खेलात घोष के मकान पर* 
श्रीरामकृष्ण खेलात घोष के मकान में प्रवेश कर रहे हैं । रात के दस बजे होंगे । मकान और बड़ा आँगन चन्द्र के प्रकाश से आलोकित हो रहा है । भीतर प्रवेश करते हुए श्रीरामकृष्ण भावाविष्ट हो गए । साथ में रामलाल, मास्टर तथा और भी एक-दो भक्त हैं । मकान बहुत बड़ा और पक्का है । दुमँजले पर पहुँचने पर बरामदे से दक्षिण की ओर बहुत लम्बा जाकर, फिर पूर्व की ओर मुडकर फिर उत्तर की ओर लम्बा रास्ता चलकर मकान के भीतरी हिस्से में पहुँचने पर ऐसा मालुम होने लगा कि मानो घर में कोई नहीं है – बड़े बड़े कमरे और सामने लम्बा बरामदा – सब खाली पड़ा है । 
श्रीरामकृष्ण को उत्तर-पूर्व ओर के एक कमरे में बैठाया गया । आप अब भी भावमग्न हैं । घर के जिन भक्त ने आपको बुला लाया है, उन्होंने आकर स्वागत किया । ये वैष्णव हैं । देह पर तिलक की छाप है और हाथ में जपमाला की गोमुखी । ये प्रौढ़ हैं । खेलात घोष के सम्बन्धी हैं । ये बीच बीच में दक्षिणेश्वर जाकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर आते हैं । परन्तु किसी किसी वैष्णव का भाव अत्यन्त संकीर्ण होता है । वे शाक्तों या ज्ञानियों की बड़ी निन्दा किया करते हैं । श्रीरामकृष्ण अब वार्तालाप कर रहे हैं । 
*श्रीरामकृष्ण का सर्वधर्मसमन्वय* 
श्रीरामकृष्ण(भक्तों के प्रति)-मेरा धर्म ठीक है और दूसरों का गलत – यह मत अच्छा नहीं । ईश्वर एक ही हैं, दो नहीं । उन्हीं को भिन्न भिन्न व्यक्ति भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं । कोई कहता है गाड तो कोई अल्लाह, कोई कहता है कृष्ण, कोई शिव तो कोई ब्रह्म । जैसे तालाब में जल है । एक घाट पर लोग उसे कहते हैं, ‘जल’, दूसरे घाट पर कहते हैं ‘वाटर’, और तीसरे घाट पर ‘पानी’ । हिन्दू कहते हैं, ‘जल’, ख्रिश्चन कहते हैं ‘वाटर’ और मुसलमान ‘पानी’ – परन्तु वस्तु एक ही है । मत तो पथ हैं । 
एक-एक धर्ममत एक-एक पथ है जो ईश्वर की और ले जाता है । जैसे नदियाँ नाना दिशाओं से आकर सागर में मिल जाती हैं । 
“वेद, पुराण, तन्त्र – सब का प्रतिपाद्य विषय वही एक सच्चिदानन्द है । वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म, पुराणों में सच्चिदानन्द कृष्ण, तन्त्रों में सच्चिदानन्द शिव कहा है । सच्चिदानन्द ब्रह्म, सच्चिदानन्द कृष्ण, सच्चिदानन्द शिव – एक ही हैं ।” सब चुप हैं । 
(क्रमशः)

शनिवार, 29 अगस्त 2020

मन ईश्वर और संसार दोनों ओर

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*सेवा सुकृत सब गया, मैं मेरा मन मांहि ।*
*दादू आपा जब लगै, साहिब मानै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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भाव का किंचित उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कहते हैं, “माँ का प्रसाद खाऊँगा ।” तब आपको सिंहवाहिनी का प्रसाद ला दिया गया ।
यदु मल्लिक बैठे हैं । पास ही कुछ मित्र बैठे हुए हैं; कुछ खुशामद करनेवाले मुसाहब भी हैं ।
यदु मल्लिक की ओर मुँह कर श्रीरामकृष्ण कुर्सी पर बैठे हैं और हँसते हुए बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण के साथ आये हुए भक्तों में से कोई कोई बाजू के कमरे में हैं । मास्टर तथा और दो-एक भक्त श्रीरामकृष्ण के पास ही बैठे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- अच्छा, तुम मुसाहब क्यों रखते हो ?
यदु(सहास्य)- मुसाहब रखने में क्या हर्ज है ! क्या तुम उद्धार नहीं करोगे ?
श्रीरामकृष्ण(सहास्य)- शराब की बोतलों के आगे गंगा भी हार मानती है !
यदु ने श्रीरामकृष्ण के सम्मुख घर में चण्डी-गान का आयोजन करने का वचन दिया था । बहुत दिन बीत गये, पर चण्डी-गान नहीं हुआ ।
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श्रीरामकृष्ण- क्यों जी, चण्डी-गान का क्या हुआ ?
यदु- कई तरह के काम-काज थे, इसीलिए इतने दिन नहीं हो पाया ।
श्रीरामकृष्ण- यह क्या ! मर्द आदमी की एक जबान चाहिए ! ‘पुरुष की बात, हाथी का दाँत ।’ मर्द की जबान एक चाहिए – क्यों, ठीक है न ?
यदु(सहास्य)- सो तो ठीक है ।
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श्रीरामकृष्ण- तुम बड़े हिसाबी आदमी हो । बहुत हिसाब करके काम करते हो । ब्राह्मण की गाय-खाये कम, गोबर ज्यादा करे, और धर-धर दूध दे ! (सब हँसते हैं ।) 
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण यदु से कहते हैं, “समझ गया । तुम रामजीवनपुर की सिल के जैसे हो – आधी गरम, आधी ठण्डी । तुम्हारा मन ईश्वर की भी ओर है, और संसार की भी ओर ।
श्रीरामकृष्ण ने एक–दो भक्तों के साथ यदु के मकान पर फल, मिष्टान्न, खीर आदि प्रसाद ग्रहण किया । अब आप खेलात घोष के यहाँ जायेंगे ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

*यदु मल्लिक के मकान पर*

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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।* 
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
(३) 
*यदु मल्लिक के मकान पर* 
श्रीरामकृष्ण यदु मल्लिक के मकान पर आए । कृष्णा प्रतिपदा है । चाँदनी रात है । 
जिस कमरे में सिंहवाहिनी देवी की नित्यसेवा होती है उस कमरे में श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उपस्थित हुए । सचन्दन पुष्पों और मालाओं द्वारा पूजित और विभूषित होकर देवी ने अपूर्व शोभा धारण की है । सामने पुजारी बैठे हुए हैं । प्रतिमा के सम्मुख दीप जल रहा है । सहचरों में से एक को श्रीरामकृष्ण ने रुपया चढ़ाकर प्रणाम करने कहा, क्योंकि देवता के दर्शन के लिए आने पर कुछ प्रणामी चढ़ानी चाहिए । 
श्रीरामकृष्ण सिंहवाहिनी के सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं । आपके पीछे भक्तगण हाथ जोड़कर खड़े हैं । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक दर्शन कर रहे हैं । 
क्या आश्चर्य है ! दर्शन करते हुए आप सहसा समाधिमग्न हो गए । पत्थर की मूर्ति की तरह निःस्तब्ध खड़े हैं । नेत्र निष्पलक हैं । 
काफी समय के बाद आपने लम्बी साँस छोड़ी । समाधि छूटी । नशे में मस्त हुए-से कह रहे हैं - “माँ चलता हूँ !” परन्तु चल नहीं पाते – उसी प्रकार खड़े हैं । 
फिर रामलाल से कहा, “तुम वह गाना गाओ – तभी मैं ठीक होऊँगा ।” 
रामलाल गाने लगे – “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है ।” 
गीत समाप्त हुआ । अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकखाने की ओर आ रहे हैं । चलते हुए बीच बीच में कहते हैं – “माँ, मेरे हृदय में रहो, माँ ।” 
यदु मल्लिक अपने लोगों के साथ बैठकखाने में बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण भावावस्था में ही हैं । आकर गा रहे हैं – (भावार्थ)- “हे माँ, तुम आनन्दमयी होते हुए मुझे निरानन्द मत करना ।” 
गीत समाप्त होने पर भावोन्मत्त होकर यदु से कहते हैं, “क्यों बाबू, क्या गाऊँ? 
“माँ, आमिकि आटाशे छेले’ – यह गाना गाऊँ?” यह कहकर गाने लगे – 
(भावार्थ)- “माँ, क्या मैं तेरा अठवाँसा* बालक हूँ ? तेरे आँखें तरेरने से मैं नहीं डरता । शिव जिन्हें अपने हृदयकमल पर धारण करते हैं वे तेरे आरक्त चरण मेरी सम्पदा हैं ।.......” (*आठ महीने में जन्म लेनेवाला बच्चा दुर्बल और भीरु होता है ।)
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

*मनोहर सहस्त्रदल कमल*

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*दादू साधन सब किया, जब उनमन लागा मन ।*
*दादू सुस्थिर आत्मा, यों जुग जुग जीवैं जन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सजीवन का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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रामलाल ने फिर गाया-
(भावार्थ)- “हे भवानी, मैंने तुम्हारा भयहर नाम सुना है, इसीलिए तो अब मैंने तुम पर अपना भार सौंप दिया है । अब तुम मुझे तारो या न तारो ! माँ, तुम ब्रह्माण्डजननी हो, ब्रह्माण्डव्यापिनी हो । तुम काली हो या राधिका – यह कौन जाने ! हे जननी, तुम घट घट में विराजमान हो । मूलाधारचक्र के चतुर्दल कमल में तुम कुलकुण्डलिनी के रूप में विद्यमान हो । तुम्हीं सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठती हुई स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल तथा मणिपुरचक्र के दशदल कमल में पहुँचती हो । 
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हे कमलकामिनी, तुम ऊर्ध्वोर्ध्व कमलों में निवास करती हो । हृदयस्थित अनाहतचक्र के द्वादशदल कमल को अपने पादपद्म के द्वारा प्रस्फुटित कर तुम हृदय के अज्ञानतिमिर का विनाश करती हो । इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है, वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है । 
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इसके ऊपर ललाट में अवस्थित आज्ञाचक्र के द्विदल कमल में पहुँचकर मन आबद्ध हो जाता है – वह वहीँ रहकर मजा देखना चाहता है, और ऊपर नहीं उठना चाहता । इससे ऊपर मस्तक में सहस्त्रारचक्र है । वहाँ अत्यन्त मनोहर सहस्त्रदल कमल है, जिसमें परमशिव स्वयं विराजमान हैं । हे शिवानी, तुम वही शिव के निकट जा विराजो ! 
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हे माँ, तुम आद्याशक्ति हो । योगी तथा मुनिगण तुम्हारा नगेन्द्रनन्दिनी उमा के रूप में ध्यान करते है । तुम शिव की शक्ति हो । तुम मेरी वासनाओं का हरण करो ताकि मुझे फिर इस भवसागर में पतित न होना पड़े । माँ, तुम्हें पंचतत्त्व हो, फिर तुम तत्त्वों के अतीत हो । तुम्हें कौन जान सकता है ! हे माँ, संसार में भक्तों के हेतु तुम साकार बनी हो, परन्तु पंचेन्द्रियाँ पंचतत्त्व में विलिन हो जाने पर तुम्हारे निराकार स्वरूप का ही अनुभव होता है ।” 
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रामलाल जिस समय गा रहे थे- ‘इसके ऊपर कण्ठस्थित विशुद्धचक्र में धूम्रवर्ण षोडशदल कमल है । इस कमल के मध्यभाग में जो आकाश है वह यदि अवरुद्ध हो जाय तो सर्वत्र आकाश ही रह जाता है’ – उस समय श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा-
“यह सुनो, इसी का नाम है निराकार सच्चिदानन्द-दर्शन । विशुद्धचक्र का भेदन होने पर ‘सर्वत्र आकाश ही रह जाता है ।”
.
मास्टर- जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- इस माया मय जीव-जगत् के पार हो जाने पर तब कहीं नित्य स्वरूप में पहुँचा जा सकता है । नादभेद होने पर ही समाधि लगती है । ओंकार-साधना करते करते नादभेद होता है और समाधि लगती है ।
अधर ने फलमिष्टान्न आदि के द्वारा श्रीरामकृष्ण की सेवा की । श्रीरामकृष्ण ने कहा, “आज यदु मल्लिक के यहाँ जाना पड़ेगा ।”
(क्रमशः)

बुधवार, 26 अगस्त 2020

*माँ हरमोहिनी*

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*तहँ वचन अमोलक सब ही सार,*
*तहँ बरतै लीला अति अपार ।*
*उमंग देइ तब मेरे भाग,*
*तिहि तरुवर फल अमर लाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६९)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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(२)
*अधर सेन के मकान पर, कीर्तनानन्द में* 
श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर आए हैं । बैठकखाने में रामलाल, मास्टर, अधर तथा कुछ और भक्त आपके पास बैठे हुए हैं । मुहल्ले के दो-चार लोग श्रीरामकृष्ण को देखने आए हैं । राखाल के पिता कलकत्ते में रहते हैं – राखाल वहीँ हैं ।
श्रीरामकृष्ण(अधर के प्रति)- क्यों, राखाल को खबर नहीं दी ?
अधर- जी, उन्हें खबर दी है ।
.
राखाल के लिए श्रीरामकृष्ण को व्यग्र देखकर अधर ने राखाल को लिवा लाने के लिए एक आदमी के साथ अपनी गाड़ी भिजवा दी ।
अधर श्रीरामकृष्ण के पास आ बैठे । आप के दर्शन के लिए अधर आज व्याकुल हो रहे थे । आज आपके यहाँ आने के बारे में पहले से कुछ निश्चित नहीं था । ईश्वर की इच्छा से ही आप आ पहुँचे हैं । 
अधर- बहुत दिन हुए आप नहीं आए थे । मैंने आज आपको पुकारा था, - यहाँ तक कि आँखों से आँसू भी गिरे थे ।
श्रीरामकृष्ण(प्रसन्न होकर हँसते हुए)- क्या कहते हो !
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शाम हुई । बैठकखाने में बत्ती जलायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने हाथ जोड़कर जगज्जननी को प्रणाम कर मन ही मन शायद मूलमन्त्र का जाप किया । अब मधुर स्वर से नाम-उच्चारण कर रहे हैं – ‘गोविन्द ! गोविन्द ! सच्चिदानन्द ! हरि बोल ! हरि बोल !’ आप इतना मधुर नाम-उच्चारण कर रहे हैं कि मानो मधु बरस रहा है ! भक्तगण निर्वाक् होकर उस नामसुधा का पान कर रहे हैं । 
.
रामलाल गाना गा रहे हैं-
(भावार्थ)- “हे माँ हरमोहिनी, तूने संसार को भुलावे में डाल रखा है । मूलाधार महाकमल में तू वीणावादन करती हुई चित्तविनोदन करती है । महामन्त्र का अवलम्बन कर तू शरीररूपी यन्त्र के सुषुम्नादि तीन तारों में तीन गुणों के अनुसार तीन ग्रामों में संचरण करती है । मूलाधारचक्र में तू भैरव राग में अवस्थित है; स्वाधिष्ठानचक्र के षड्दल कमल में तू श्री राग तथा मणिपूरचक्र में मल्हार राग है । तू वसन्त राग के रूप में हृदयस्थ अनाहतचक्र में प्रकाशित होती है । तू विशुद्धचक्र में हिण्डोल तथा आज्ञाचक्र में कर्णाटक राग है । तान-मान-लय-सुर के सहित तू मन्द्र-मध्य-तार इन तीन सप्तकों का भेदन करती है । हे महामाया, तूने मोहपाश के द्वारा सब को अनायास बाँध लिया है । तत्त्वाकाश में तू मानो स्थिर सौदामिनी की तरह विराजमान है । ‘नन्दकुमार’ कहता है कि तेरे तत्त्व का निश्चय नहीं किया जा सकता । तीन गुणों के द्वारा तूने जीव की दृष्टि को आच्छादित कर रखा है ।”
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

‘तागी’ और ‘त्यागी’

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*गुरुमुख पाइये रे, ऐसा ज्ञान विचार ।* 
*समझ समझ समझ्या नहीं, लागा रंग अपार ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ७६)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
मणि- ग्रीस देश में सुकरात नाम का एक आदमी था । यह दैववानी हुई थी कि सब लोगों में वही ज्ञानी है । उसे आश्चर्य हुआ । बहुत देर तक निर्जन में चिन्ता करने पर उसे भेद मालुम हुआ । तब उसने अपने मित्रों से कहा, ‘केवल मुझे ही मालुम हुआ है कि मैं कुछ नहीं जानता; पर दूसरे सब लोग कहते हैं कि हमें खूब ज्ञान हुआ है । परन्तु वास्तव में सभी अज्ञान हैं ।’ 
श्रीरामकृष्ण- मैं कभी कभी सोचता हूँ कि मैं जानता ही क्या हूँ कि इतने लोग यहाँ आते हैं ! वैष्णवचरण बड़ा पण्डित था । वह कहता था कि तुम जो कुछ कहते हो वह सब शास्त्रों में पाया जाता है । तो फिर तुम्हारे पास क्यों आता हूँ ? तुम्हारे मुँह से वही सब सुनने के लिए । 
मणि- आपकी सब बातें शास्त्र से मिलती हैं । नवद्वीप गोस्वामी भी उस दिन पानीहाटी में यही बात कहते थे । आपने कहा कि ‘गीता’ ‘गीता’ बार बार कहने से ‘त्यागी’ ‘त्यागी’ हो जाता है । वास्तव में ‘तागी’ होता है, परन्तु नवद्वीप गोस्वामी ने कहा कि ‘तागी’ और ‘त्यागी’ दोनों का एक ही अर्थ है; ‘तग्’ एक धातु है, उसी से ‘तागी’ बनता है । 
श्रीरामकृष्ण- मेरे साथ क्या दूसरों का कुछ मिलता-जुलता है ? किसी पण्डित या साधु का ? 
मणि- आपको ईश्वर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया है । और दूसरों को मशीन में डालकर । -जैसे नियम के अनुसार सृष्टि होती है । 
श्रीरामकृष्ण(सहास्य, रामलाल आदि से)- अरे, कहता क्या है ! 
श्रीरामकृष्ण की हँसी रूकती ही नहीं । अन्त में उन्होंने कहा, “शपथ खाता हूँ, मुझे तनिक भी अभिमान नहीं होता ।” 
मणि- विद्या से एक लाभ होता है । उससे यह मालुम हो जाता है कि मैं कुछ नहीं जानता, और मैं कुछ नहीं हूँ । 
श्रीरामकृष्ण- ठीक है, ठीक है । मैं कुछ नहीं हूँ मैं कुछ नहीं हूँ ! अच्छा, अंग्रेजी ज्योतिष पर तुम्हें विश्वास है ? 
मणि- उन लोगों के नियम के अनुसार नये अविष्कार हो सकते हैं; युरेनस(Uranus) ग्रह की अनियमित चाल देखकर उन्होंने दूरबीन से पता लगाकर देखा कि एक नया ग्रह(Neptune) चमक रहा है । फिर उससे ग्रहण की गणना भी हो सकती है । 
श्रीरामकृष्ण- हाँ, सो तो होती है । 
गाड़ी चल रही है – प्रायः अधर के मकान के पास आ गयी है । श्रीरामकृष्ण मणि से कहते हैं, “सत्य में रहना, तभी ईश्वर मिलेंगे ।” 
मणि-एक और बात आपने नवद्वीप गोस्वामी से कही थी – ‘हे ईश्वर, मैं तुम्हीं को चाहता हूँ । देखना, भुवनमोहिनी माया के ऐश्वर्य से मुझे मुग्ध न करना । मैं तुम्हीं को चाहता हूँ ।’ 
श्रीरामकृष्ण- हाँ, यह दिल से कहना होगा । 
(क्रमशः)

सोमवार, 24 अगस्त 2020

*सच्चिदानन्द मायारूपी काई से ढका*

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*बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।* 
*माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
श्रीरामकृष्ण- ईश्वर ने अपनी माया से सब कुछ ढक रखा है – कुछ जानने नहीं देते । कामिनी और कांचन ही माया है । इस माया को हटाकर जो ईश्वर के दर्शन करता है, वही उन्हें देख पाता है । एक आदमी को समझाते समय मुझे ईश्वर ने एक अद्भुत दृश्य दिखलाया । अचानक सामने देखा उस देश का एक तालाब, और एक आदमी ने काई हटाकर उससे जल पी लिया । जल स्फटिक की तरह साफ था । इससे यह सूचित हुआ कि वह सच्चिदानन्द मायारूपी काई से ढका हुआ है, - जो काई हटाकर जल पीता है, वही पाता है । 
“सुनो, तुमसे बड़ी गूढ़ बातें कहता हूँ । झाउओ के तले बैठे हुए देखा कि चोर दरवाजे का-सा एक दरवाजा सामने है । कोठरी के अन्दर क्या है, यह मुझे दिखायी नहीं पड़ा । मैं एक नहरनी से छेद करने लगा, पर कर न सका । मैं छेदता रहा, पर वह बार बार भर जाता था । परन्तु एक बार इतना बड़ा छेद बना !” 
यह कहकर श्रीरामकृष्ण चुप रहे । फिर बोलने लगे – “ये सब बड़ी ऊँची बातें हैं । यह देखो, कोई मानो मेरा मुँह दबा देता है । 
“योनि में ईश्वर का वास प्रत्यक्ष देखा था ! – कुत्ता और कुतिया के समागम के समय देखा था । 
“ईश्वर के चैतन्य से जगत् चैतन्यमय है । कभी कभी देखता हूँ कि छोटी छोटी मछलियाँ में वही चैतन्य खेल रहा है ।” 
गाड़ी शोभाबाजार के चौराहे पर से दरमाहट्टा के निकट पहुँची । श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- 
“कभी कभी देखता हूँ कि वर्षा में जिस प्रकार पृथ्वी जल से ओतप्रोत रहती है, उसी प्रकार इस चैतन्य से जगत् ओतप्रोत है । 
“इतना सब दिखलायी तो पड़ता है, पर मुझे अभिमान नहीं होता ।” 
मणि(सहास्य)- आपका अभिमान कैसा ! 
श्रीरामकृष्ण- शपथ खाकर कहता हूँ, थोड़ा भी अभिमान नहीं होता । 
(क्रमशः)

रविवार, 23 अगस्त 2020

*भक्तों के साथ*

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*धनि धनि साहिब तू बड़ा, कौन अनुपम रीत ।* 
*सकल लोक सिर सांइयां, ह्वै कर रह्या अतीत ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
परिच्छेद ४६ 
*भक्तों के साथ(१) कलकत्ते की राह पर* 
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर से गाड़ी पर कलकत्ते की ओर जा रहे हैं । साथ में रामलाल और दो-एक भक्त हैं । फाटक से निकलते ही आपने देखा कि मणि हाथ में चार फजली आम लिए हुए पैदल आ रहे हैं । मणि को देखकर गाड़ी को रोकने के लिए कहा । मणि ने गाड़ी पर सिर टेककर प्रणाम किया । 
आज शनिवार, २१ जुलाई १८८३ ई., आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा है । दिन के चार बजे हैं । श्रीरामकृष्ण अधर के मकान पर जाएँगे, उसके बाद यदु मल्लिक के घर और फिर खेलात घोष के यहाँ जाएँगे । 
श्रीरामकृष्ण(मणि से हँसते हुए)- तुम भी आओ न, हम अधर के यहाँ जा रहे हैं । 
मणि- ‘जैसी आपकी आज्ञा’ कहकर गाड़ी पर बैठ गये । 
मणि- अंग्रेजी पढ़े-लिखे हैं, इसी से संस्कार नहीं मानते थे पर कुछ दिन हुए श्रीरामकृष्ण के पास यह स्वीकार कर गए थे कि अधर के संस्कार थे, इसी से वे उनकी इतनी भक्ति करते हैं । घर लौटकर विचार करने पर मास्टर ने देखा कि संस्कार के बारे में अभी तक उनको पूर्ण विश्वास नहीं हुआ । यही कहने के लिए आज श्रीरामकृष्ण से मिलने आए हैं । श्रीरामकृष्ण बातें करने लगे । 
श्रीरामकृष्ण- अच्छा, अधर को तुम कैसा समझते हो ? 
मणि- उनमें बहुत अनुराग है । 
श्रीरामकृष्ण- अधर भी तुम्हारी बड़ी प्रशंसा करता है । 
मणि- कुछ देर तक चुप रहे, फिर पूर्वजन्म के संस्कार की बात उठायी । 
*ईश्वर के कार्य समझना असम्भव है* 
मणि- मुझे ‘पूर्वजन्म’ और ‘संस्कार’ आदि पर उतना विश्वास नहीं है; क्या इससे मेरी भक्ति में कोई बाधा आएगी ? 
श्रीरामकृष्ण- ईश्वर की सृष्टि में सब कुछ हो सकता है- यह विश्वास ही पर्याप्त है । मैं जो सोचता हूँ वही सत्य है, और सब का मत मिथ्या है – ऐसा भाव मन में न आने देना बाकी ईश्वर ही समझा देंगे । 
“ईश्वर के कार्यों को मनुष्य क्या समझेगा ? उनके कार्य अनन्त हैं । इसलिए मैं इनको समझाने का थोड़ा भी प्रयत्न नहीं करता । मैंने सुन रखा है कि उनकी सृष्टि में सब कुछ हो सकता है । इसीलिए मैं इन बातों की चिन्ता न कर केवल ईश्वर ही की चिन्ता करता हूँ । हनुमान से पूछा गया था, आज कौनसी तिथि है; हनुमान ने कहा था, मैं तिथि, नक्षत्र आदि नहीं जानता, केवल एक राम की चिन्ता करता हूँ । 
“ईश्वर के कार्य क्या समझ में आ सकते हैं ? वे तो पास ही हैं – पर यह समझना कितना कठिन है ! बलराम कृष्ण को भगवान् नहीं जानते थे ।” 
मणि- जी हाँ ! जैसे आपने भीष्मदेव की बात कही थी । 
श्रीरामकृष्ण- हाँ, हाँ ! क्या कहा था, कहो तो ! 
मणि- भीष्मदेव शरशय्या पर पड़े रो रहे थे । पाण्डवों ने श्रीकृष्ण से कहा, ‘भाई, यह कैसा आश्चर्य है ! पितामह इतने ज्ञानी होकर भी मृत्यु का विचार कर रो रहे हैं !’ श्रीकृष्ण ने कहा, ‘उनसे पूछो न, क्यों रोते हैं ।’ भीष्मदेव बोले, ‘मैं यह विचार कर रोता हूँ कि भगवान् के कार्य को कुछ भी न समझ सका । हे कृष्ण, तुम इन पाण्डवों के साथ साथ फिरते हो, पग पग पर इनकी रक्षा करते हो, फिर भी इनकी विपद् का अन्त नहीं !’ 
(क्रमशः)

शनिवार, 22 अगस्त 2020

*अधर के मकान पर*

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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।* 
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
परिच्छेद ४५ 
*अधर के मकान पर*
श्रीरामकृष्ण कलकत्ते के बेनेटोला में अधर के मकान पर पधारे हैं । आषाढ़ शुक्ला दशमी, १४ जुलाई १८८३, शनिवार । अधर श्रीरामकृष्ण को राजनारायण का चण्डी-संगीत सुनाएँगे । राखाल, मास्टर आदि साथ हैं । मन्दिर के बरामदे में गाना हो रहा है । 
राजनारायण गाने लगे- (भावार्थ)- “अभय पद में प्राणों को सौंप दिया है, फिर मुझे यम का क्या भय है ? अपने सिर की शिखा में कालीनाम का महामन्त्र बाँध लिया है । मैं इस संसाररूपी बाजार में अपने शरीर को बेचकर श्रीदुर्गानाम खरीद लाया हूँ । काली-नामरूपी कल्पतरु को हृदय में बो दिया है । अब यम के आने पर हृदय खोलकर दिखाऊंगा, इसलिए बैठा हूँ । देह में छः दुर्जन हैं, उन्हें भगा दिया है । मैं जय दुर्गा, श्रीदुर्गा कहकर रवाना होने के लिए बैठा हूँ ।” 
श्रीरामकृष्ण थोड़ा सुनकर भावाविष्ट हो खड़े हो गए और मण्डली के साथ सम्मिलित होकर गाने लगे । 
श्रीरामकृष्ण पद जोड़ रहे हैं – “ओ माँ, रखो माँ !” पद जोड़ते जोड़ते एकदम समाधिस्थ ! बाह्यशून्य, निस्पन्द होकर खड़े हैं । 
गायक फिर गा रहे हैं – (भावार्थ)-“यह किसकी कामिनी रणांगण को आलोकित कर रही है? मानो इसकी देहकान्ति के सामने जलधर बादल हार मानता है और दन्त पंक्ति मानो बिजली की चमक है !” श्रीरामकृष्ण फिर समाधिस्थ हुए । 
गाना समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण अधर के बैठकघर में जाकर भक्तों के साथ बैठ गए । ईश्वरीय चर्चा हो रही है । इस प्रकार भी वार्तालाप हो रहा है कि कोई कोई भक्त मानो ‘अन्तःसार फल्गु नदी’ है, ऊपर भाव का कोई प्रकाश नहीं ! 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

*मधुर अनाहत ध्वनि*

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*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।* 
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
सन्ध्या हुई, मन्दिरों में आरती हो रही है । श्रीरामकृष्ण अपने कमरे में छोटे तख़्त पर बैठकर जगज्जननी का चिन्तन कर रहे हैं । राखाल, लाटू, रामलाल, किशोरी गुप्त आदि भक्तगण उपस्थित हैं । मास्टर आज रात को ठहरेंगे । कमरे के उत्तर की ओर एक छोटे बरामदे में श्रीरामकृष्ण एक भक्त के साथ एकान्त में बातें कर रहे हैं । कह रहे हैं, “भोर में तथा उत्तर-रात्रि में ध्यान करना अच्छा है और प्रतिदिन सन्ध्या के बाद ।” किस प्रकार ध्यान करना चाहिए, साकार ध्यान, अरूप ध्यान, यह सब बात बता रहे हैं । 
थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण पश्चिम के गोल बरामदे में बैठ गए । रात के नौ बजे का समय होगा । मास्टर पास बैठे हैं, राखाल आदि बीच बीच में कमरे के भीतर आ-जा रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- देखो, यहाँ पर जो लोग आएँगे, उन सभी का सन्देह मिट जाएगा; क्या कहते हो ? 
मास्टर- जी हाँ । 
उसी समय गंगा में काफी दूरी पर माँझी अपनी नाव खेता हुआ गाना गा रहा था । गीत की वह ध्वनि मधुर अनाहत ध्वनि की तरह आकाश के बीच में से होकर मानो गंगा के विशाल वक्ष को स्पर्श करती हुई श्रीरामकृष्ण के कानो में प्रविष्ट हुई । श्रीरामकृष्ण उसी समय भावाविष्ट हो गए । सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो उठे । श्रीरामकृष्ण मास्टर का हाथ पकड़कर कह रहे हैं, “देखो, देखो, मुझे रोमांच हो रहा है । मेरे शरीर पर हाथ रखकर देखो ।” 
प्रेम से आविष्ट उनके उस रोमांचपूर्ण शरीर को छूकर वे विस्मित हो गये । ‘पुलकपूरित अंग !’ उपनिषद् में कहा गया है कि वे विश्व में आकाश में ‘ओतप्रोत’ होकर विद्यमान हैं । क्या वे ही शब्द के रूप में श्रीरामकृष्ण को स्पर्श कर रहे हैं ? क्या यही शब्दब्रह्म है?* 
(*एतस्मिन् नु खलु अक्षरे गार्गि आकाश ओतश्च प्रोतश्च । -बृहदारण्यक उपनिषद्, ३-८-११; शब्दः खे पौरुषं नृषु । - गीता, ७/८) 
थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर वार्तालाप कर रहे हैं । 
श्रीरामकृष्ण- जो लोग यहाँ पर आते हैं, उनके शुभ संस्कार हैं, क्या कहते हो ? 
मास्टर- जी, हाँ ।
श्रीरामकृष्ण- अधर के वैसे संस्कार थे । 
मास्टर- इसमें क्या कहना है ! 
श्रीरामकृष्ण- सरल होने पर ईश्वर शीघ्र प्राप्त होते हैं । फिर दो पथ हैं, - सत् और असत्, सत् पथ से जाना चाहिए । 
मास्टर- जी हाँ, धागे में यदि रेशा निकला हो तो वह सुई के भीतर नहीं जा सकता । 
श्रीरामकृष्ण- कौर के साथ मुँह में केश चले जाने पर सब का सब थूककर फेंक देना पड़ता है । 
मास्टर- परन्तु जैसे आप कहते हैं, जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है, असत्-संग उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता; प्रखर अग्नि में केले का पेड़ तक जल जाता है ! 
(क्रमशः)

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

*मानव की सीमाबद्धता*

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*प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।* 
*पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
परिच्छेद ४४ 
*दक्षिणेश्वर में जे.एस.मिल और श्रीरामकृष्ण । मानव की सीमाबद्धता*
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे हैं । ज्येष्ठ मास, १८८३, ई. (जून, १८८३) । खूब गर्मी पड़ रही है । थोड़ी देर बाद सन्ध्या होगी । बर्फ आदि लेकर मास्टर आए और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर उनके चरणों के पास शिवमन्दिर की सीढ़ी पर बैठे । 
श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- मणि मल्लिक की नातिन का स्वामी आया था । उसने किसी पुस्तक* में पढ़ा है, ईश्वर वैसे ज्ञानी, सर्वज्ञ नहीं जान पड़ते । नहीं तो इतना दुःख क्यों? और यह जो जीव की मौत होती है, उन्हें एक बार में मार डालना ही अच्छा होता, धीरे धीरे अनेक कष्ट देकर मारना क्यों ? जिसने पुस्तक लिखी है, उसने कहा है कि यदि वह होता तो इससे बढ़िया सृष्टि कर सकता था ! (*John Stuart Mill’s Autobiography) 
मास्टर विस्मित होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं और चुप बैठे हैं । 
श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं- श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)- उन्हें क्या समझा जा सकता है जी ? मैं तो कभी उन्हें अच्छा मानता हूँ और कभी बुरा । अपनी महामाया के भीतर हमें रखा है । कभी वह होश में लाते हैं, तो कभी बेहोश कर देते हैं । एक बार अज्ञान दूर हो जाता है, दूसरी बार फिर आकर घेर लेता है । तालाब का जल काई से ढँका हुआ है । पत्थर फेंकने पर कुछ जल दिखायी देता है, फिर थोड़ी देर बाद काई नाचते नाचते आकर उस जल को भी ढँक लेती है । 
“जब तक देहबुद्धि है, तभी तक सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु, रोग-शोक हैं । ये सब देह के हैं, आत्मा के नहीं । देह की मृत्यु के बाद सम्भव है वे अच्छे स्थान पर ले जायें – जिस प्रकार प्रसव-वेदना के बाद सन्तान की प्राप्ति ! आत्मज्ञान होने पर सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु स्वप्न जैसे लगते हैं । “हम क्या समझेंगे ? क्या एक सेर के लोटे में दस सेर दूध आ सकता है ? नमक का पुतला समुद्र नापने जाकर फिर खबर नहीं देता । गलकर उसी में मिल जाता है ।”
(क्रमशः)

बुधवार, 19 अगस्त 2020

*आत्मदर्शन का उपाय । नित्यलीला-योग*

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*दादू निराकार मन सुरति सौं, प्रेम प्रीति सौं सेव ।*
*जे पूजे आकार को, तो साधु प्रत्यक्ष देव ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)*
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ*
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*परिच्छेद ४३* 
*बलराम के मकान पर* 
श्रीरामकृष्ण ने आज कलकत्ते में बलराम के मकान पर शुभागमन किया है । मास्टर पास बैठे हैं, राखाल भी हैं । श्रीरामकृष्ण भावमग्न हुए हैं । आज ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, सोमवार, २५ जून १८८३, ई. । समय दिन के पाँच बजे का होगा ।
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श्रीरामकृष्ण(भाव के आवेश में)- देखो, अन्तर से पुकारने पर अपने स्वरूप को देखा जाता है, परन्तु विषयभोग की वासना जितनी रहती है, उतनी ही बाधा होती है ।
मास्टर- जी, आप जैसा कहते हैं, डूबकी लगाना पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण(आनन्दित होकर)- बहुत ठीक ।
सभी चुप है; श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं । 
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श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)-देखो सभी को आत्मदर्शन हो सकता है ।
मास्टर- जी, परन्तु ईश्वर कर्ता हैं; वे अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न प्रकार से लीला कर रहे हैं । किसी को चैतन्य दे रहे हैं, किसी को अज्ञानी बनाकर रखा है ।
श्रीरामकृष्ण- नहीं, उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करनी पड़ती है । आन्तरिक होने पर वे प्रार्थना अवश्य सुनेंगे ।
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एक भक्त- जी हाँ, ‘मैं’ है, इसलिए प्रार्थना करनी होगी ।
श्रीरामकृष्ण(मास्टर के प्रति)-लीला के सहारे नित्य में जाना होता है – जिस प्रकार सीढ़ी पकड़-पकड़कर छत पर चढ़ना होता है । नित्यदर्शन के बाद नित्य से लीला में आकर रहना होता है, भक्ति-भक्त लेकर यही मेरा परिपक्व मत है । “उनके अनेक रूप, अनेक लीलाएँ हैं । ईश्वर-लीला, देव-लीला, नर-लीला, जगत्-लीला । वे मानव बनकर, अवतार होकर युग युग में आते हैं – प्रेम-भक्ति सिखाने के लिए । देखो न चैतन्यदेव को । अवतार द्वारा ही उनके प्रेम तथा भक्ति का आस्वादन किया जा सकता है । उनकी अनन्त लीलाएँ हैं – परन्तु मुझे आवश्यकता है प्रेम तथा भक्ति की । मुझे तो सिर्फ दूध चाहिए । गाय के स्तनों से ही दूध आता है । अवतार गाय के स्तन हैं ।”
क्या श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं कि वे अवतीर्ण हुए हैं, उनका दर्शन करने से ही ईश्वर का दर्शन होता है ? चैतन्यदेव का उल्लेख कर क्या श्रीरामकृष्ण अपनी ओर संकेत कर रहे हैं ?
(क्रमशः)

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

*निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण*

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*मीन मगन मांहीं रहैं, मुदित सरोवर मांहिं ।* 
*सुख सागर क्रीड़ा करैं, पूरण परिमित नांहिं ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २४६)* 
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*साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)* 
*साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ* 
*निराकार ध्यान और श्रीरामकृष्ण* 
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मार्ग में मोटी शील का मन्दिर है । श्रीरामकृष्ण बहुत दिनों से मास्टर से कहते आए हैं कि एक साथ आकर इस मन्दिर की झील को देखेंगे – यह सिखलाने के लिए कि निराकार ध्यान कैसे करना चाहिए । 
श्रीरामकृष्ण को खूब सर्दी हुई है, तथापि भक्तों के साथ मन्दिर देखने के लिए गाड़ी से उतरे । 
मन्दिर में श्रीगौरांग की पूजा होती है । अभी सन्ध्या होने में कुछ देर है । श्रीरामकृष्ण ने भक्तों के साथ गौरांग-मूर्ति के सम्मुख भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । 
अब मन्दिर के पूर्व की ओर जो झील है; उसके घाट पर आकर झील का पानी और मछलियों को देख रहे हैं । कोई इन मछलियों की हिंसा नहीं करता । कुछ चारा फेंकने पर बड़ी बड़ी मछलियाँ झुण्ड के झुण्ड सामने आकर खाने लगती हैं – फिर निर्भय होकर आनन्द से पानी में घूमती-फिरती हैं । 
श्रीरामकृष्ण मास्टर से कहते हैं, “यह देखो कैसी मछलियाँ हैं ! चिदानन्द-सागर में इन मछलियों की तरह आनन्द से विचरण करो ।” 
(क्रमशः)