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मंगलवार, 24 मार्च 2020

= २०० =

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*राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम ।*
*दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *अर्चना भक्ति*
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सदनजी कसाई के पास एक शालग्रामजी की मूर्ति थी । वे उससे मांस तोला करते थे । एक वैष्णव ने यह अनुचित समझ कर मूर्ति सदन से ले ली और घर जाकर विधि से पूजा करी । किन्तु रात्रि में स्वप्न में भगवान ने उसे कहा - "मुझे शीध्र सदना के घर पहुंचा दे ।" वैष्णव डर गया और दूसरे दिन पुन: सदना को दे आया । इससे सुचित होता है कि बिना प्रेम की पूजा से भगवान् कभी भी प्रसन्न नहीं होते ।
बिना प्रेम पूजा किये, प्रसन्न हों हरि नाँहिं ।
वैष्णव को स्वप्ना दिया, भेज सदन घर माँहिं ॥१४२॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १९९ =


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*तन मन विलै यों कीजिये, ज्यों घृत लागे घाम ।*
*आतम कमल तहँ बंदगी, जहँ दादू प्रकट राम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *अर्चना भक्ति*
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निवाई गांव के भक्त संतदासजी के मन में एक दिन इच्छा हुई, भगवान के छप्पन प्रकार के भोग लगना चाहिये । वाह्यभोग तो वे शीध्रतर जुटा नहीं सके । मानसी छप्पन भोग तैयार करके श्री जगन्नाथ के भोग लगाया । भगवान ने भी भक्त का वह प्रेम का भोजन से तृप्त होकर जीमा । उस दिन मंदिर में भोग के समय भोग नहीं लगा । भगवान ने स्वप्न में राजा से कहा - 'आज हमारा भोजन सन्तदास के घर था । उसने बहुत जिमा दिया है, इसलिये हमें भूख नहीं है । इससे सूचित होता है कि भगवान अपने सच्चे पूजक के मानसी भोग से भी तृप्त हो जाते हैं ।
प्रभु पूजक का मानसी, जीमे भोग अधाय ।
संतदास का खा कहा, अब नहीं जीमा जाय ॥१३९॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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सोमवार, 23 मार्च 2020

= १९८ =

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*दादू इस संसार सौं, निमष न कीजे नेह ।*
*जामण मरण आवटणा, छिन छिन दाझै देह ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *वैराग्य*
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संत बनादासजी भवहरकुंज अवध में रहते थे । रीवां नरेश श्री रधुराजसिंह जी उनके दर्शन करने गये और दस हजार की थैली भेंट की, किन्तु उसे नहीं लेते हुवे वे दोहा बोले -
जांचब, जाब, जमाति, जर, जोरू, जाति, जमीन ।
जतन आठ ये जहर सम, वनादास तज दीन ॥
याचना करना, जवाब देना, जमात बांधना, जर(धन) संग्रह करना, जोरू(नारी ) रखना, जमीन लेना और इन सब के लिये यत्न करना, ये आठ मैंने विष के समान जानकर त्याग दिये हैं ।
देने पर भी ले नहीं, त्यागी संत सुजान ।

ली नहीं थैली भूप की, वनादास मतिमान ॥१२८॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १९७ =

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*दादू सेवक सो भला, सेवै तन मन लाइ ।*
*दादू साहिब छाड़ कर, काहू संग न जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *पाद सेवन भक्ति*
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एक साधु सालग्रामजी का बटुआ वृक्ष की शाखा के बांध करके वल्लभाचार्य के दर्शन करने गया था । आया जब बटुआ नहीं मिला । पीछे लौट करके आचार्य से कहा । आचार्य ने उसे कहा - 'तुम कैसे सेवक हो जो स्वामी को छोड़ करके इधर उधर फिरते हो । बहुत विनय करने पर कहा - 'जाओ अब वहाँ ही देखो । 'साधु ने जाकर देखा तो सैकड़ों बटुवे लटक रहे थे पुन:आचार्य से प्रार्थना की । आचार्य ने कहा - तुम कैसे सेवक हो जो अपने स्वामी को भी नहीं पहचानते ।' साधु चरणों में पड़ गया । तब उसका बटुआ देकर उसे भली-भांति भजन में लगाया । इससे सूचित होता है कि पद सेवक स्वामी को छोड़कर इधर उधर फिरता है उसे लाज लगती है ।
सेवक स्वामी से हटे, तो लगती है लाज ।
वल्लभ ने इक साधु को, कहा न सुन्दर काज ॥१२९॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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रविवार, 22 मार्च 2020

= १९६ =

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*इहि जग जीवन सो भला, जब लग हिरदै राम ।*
*राम बिना जे जीवना, सो दादू बेकाम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *भगवत् धाम भक्ति*
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काकभुशुण्डित पूर्व जन्म में अयोध्या निवासी शूद्र थे। उज्जयिनी में जा रहे थे। शिव मंदिर में गुरु को प्रणाम नहीं करने से शिवजी रुष्ट हुये फिर गुरु की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा । गुरु ने भक्ति तथा शूद्र का कल्याण मांगा । शंंकरजी बोले - शूद्र का जन्म अयोध्या में जन्म और निवास का फल राम भक्त होकर कृतार्थ होना है । इसलिये अयोध्या के प्रताप से इसकी परम गति ही होगी । इससे सूचित होता है कि भगवत् धाम में निवास से भी भक्ति प्राप्त होकर परम गति प्राप्ति होती है ।
धाम नवासी अन्त में, होता है हरि भक्त ।
दैखो, काकभुशुण्डिजी, हुये राम अनुरक्त ॥२१३॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १९५ =

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*परमारथ को सब किया, आप स्वार्थ नांहि ।*
*परमेश्वर परमार्थी, कै साधु कलि मांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *वैराग्य*
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अजमेर मदारगेट के रामद्वारा के संत त्यागीरामजी के कार्य ही आज भी उनके त्याग को बतला रहा है, तथा त्यागीरामजी में अनुराग पैदा कर है । त्यागीरामजी जहां जल का अभाव होता ऐसे स्थान वन में तथा मार्ग पर जाकर आसान लगा देते थे । वहां भी भक्त लोग पानी के मटके व चनों की बोरियां रख देते थे । स्वामीजी पथिकों को चने खिलाकर प्रेम से पानी पिला दिया करते थे । कुछ दिनों में जब कूप बन जाता था, तब वहां से उठकर दूसरे स्थान में जा बैठते थे । 
इस प्रकार उनके बनाए हुए कुएँ पुष्कर तीर्थ के आस-पास के गांवों में कई स्थानों में हैं । उन पर प्राय: जल का प्रबन्ध आज भी अच्छा ही रहता है । उनने अपने रहने के लिये कुछ भी नहीं बनाया था, पुष्कर में जहां अब स्वामी ब्रह्मानन्दजी की बगीची है यहां ही उनकी समाधि बनी है, बगीचे का कूप भी त्यागीरामजी का ही बनाया हुआ सुना जाता है । समाधि धारण त्यागियों के भक्त भी आडम्बर को वहां कहां पसन्द करते हैं ।
कार्य सच्चे त्यागि के, बतलाते हैं त्याग ।
कुँऐं त्यागीराम की, जगा रही अनुराग ॥२२१॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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शनिवार, 21 मार्च 2020

= १९४ =

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*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै, आयु घटै तन छीजै ।*
*अंतकाल दिन आइ पहुंता, दादू ढील न कीजै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ काल का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *नम्रता*
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सुनते हैं कि रावण वध के समय रामचन्द्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा - "तुम रावण के पास जाकर नीति सीख आओ ।" वह इस विषय में बड़ा निपुण है । लक्ष्मण गये और मृत्युशय्या पर पड़े रावण के सिर की ओर खड़े होकर प्रश्न किया । रावण कुछ भी नहीं बोला । लक्ष्मण पीछे लौट आये । रामजी ने पूछा - तुमने रावण के किस अंग की ओर खड़े होकर प्रश्न किया । लक्ष्मण - सिर की ओर । रामजी - तुमने यह ठीक नहीं किया, नम्रता बिना शिक्षा नहीं मिलती, फिर जाओ और नम्रतापूर्वक पैरों की ओर खड़े होकर प्रश्न करो । 
लक्ष्मणजी ने वैसा ही किया । रावण बोला - अब तो मेरे प्राण निकल रहे हैं, इसलिये विशेष रूप से नहीं कह सकता । इतना ही कहूँ कि मनुष्य को जो कुछ करना हो वह शीघ्र कर ले । मेरा विचार था कि स्वर्ग को सीढी लगा दूं और सोने में सुगंध कर दूं इत्यादि, किन्तु मैं सोचता ही रहा कि जब चाहूँगा तभी कर दूँगा । अब प्राण निकल रहे हैं, वे कार्य रह ही गये । इतना कह वह चुप हो गया । इससे सूचित होता है कि नम्रता से ही शिक्षा का पात्र बनता है ।
शुभ शिक्षा मिलती नहीं, बिना नम्रता देख ।
कही नीति दशकंठ ने, लक्ष्मण पद दिशि पेख ॥१५९॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १९३ =

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*दादू राम नाम निज औषधि, काटै कोटि विकार ।*
*विषम व्याधि थैं ऊबरै, काया कंचन सार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *श्रद्धा विश्वास*
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भैराणा(जयपुर जिला में) पर्वत में संतवर दादूजी की गुफा पर रहने वाले संत मोहनदासजी के नेत्रों में मोतिया बिन्दु हो गया था । उसके भक्तों ने मोतिया उतारने का आग्रह भी किया था । किन्तु उनका विश्वास था कि - दादूजी की कृपा होगी तो आप ही ठीक हो जायेगी । अन्त में एक दिन गुफा की ओर मुख करके बैठे-बैठे भजन कर रहे थे कि सहसा नेत्रों में ज्योति आ गई ।
क्या न होत विश्वास से, जो संशय हो नांहि ।
आंखे मोहनदास की, खुली भैराणे मांहि ॥२३६॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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शुक्रवार, 20 मार्च 2020

= १९२ =

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*ज्यों ज्यों होवै त्यों कहै, घट बध कहै न जाइ ।*
*दादू सो सुध आत्मा, साधू परसै आइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी​ 
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *सरलता*
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एक राजा को सभा मण्डप बनवाने के लिये एक शहरीर की आवश्यक्ता हुई । बहुत खोज करने पर एक शहरीर मिला । जब वह राजधानी में लाया गया तब मंत्री आदि के सहित राजा तथा प्रजा उसे देखने गये । उसी भीड़ में एक संत भी मिले । संत ने शहरीर के पास जाकर धीरे - धीरे से कुछ कहा और हट गये । 
राजा संत से बोले - 'आपने क्या कहा ?' संत- "मैंने शहरीर से पूछा था कि तेरा इतना सम्मान किस कारण से हुआ है । शहरीर ने कहा कि सीधापन से हुआ है और कोई कारण नहीं ।" इससे सूचित होता है कि सीधापन से जब जड़ का भी सम्मान होता है तब मनुष्य का हो इसमें तो कहना ही क्या है ?
विदित सरलता से अधिक, होता है सम्मान ।
लखन सरल शहरीर को, गये करा बहु मान ॥१६५॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १९१ =


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*खोटा खरा कर देवै पारिख, तो कैसे बन आवै ।*
*खरे खोटा का न्याय नबेरे, साहिब के मन भावै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पारिख का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *न्याय*
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एक बार कलकत्ते में किन्ही दो भाईयों में संपति के विषय में झगड़ा हो गया और बंटवारे में एक मुद्रिका पर बात अड़ गई । दोनों भाई अँगुठी लेना चाहते थे । श्री लक्ष्मीनारायणजी मुदोरिया पञ्च थे । उन्होंने समझाया, कि एक अंगुठी ले लो, और दूसरा कीमत, परन्तु वे नहीं माने । मुदोरियाजी ने वैसी ही एक अँगुठी और बनवाई । फिर जिसके पास अँगुठी थी उसको कहा कि - उसे तो मैं समझा दूंगा । किन्तु तुम अँगुठी को न पहन कर उसे घर में रख दो, जिससे वह भूल जाय । 
दूसरे को अपनी बनाई अँगुठी देकर कहा - मैने तुमको अँगुठी ला दी है, किन्तु तुम इसको घर में रख दो । न तो पहनो और न अन्य को बात कहना । कहने से तुम्हारा भाई अपनी हार मानकर दुखी होगा । इस युक्ति से दोनों भाईयों का झगड़ा मिट गया । दो - तीन वर्ष के बाद भेद खुला तब दोनों भाईयों को बड़ा आश्चर्य हुआ । अँगुठी लेकर दोनों उनके पास गये किन्तु मुदोरियाजी ने यह कहकर कि मैं बड़ा हूँ मेरा तुम्हे देने का अधिकार है, नहीं ली ।
अति विचित्रता से करत, उदार न्यायी न्याय ।
रही मुद्रिका प्रथम ज्यों, उभय पक्ष हर्शाय ॥११०॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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गुरुवार, 19 मार्च 2020

= १९० =

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*दादू जब ही साधु सताइये, तब ही ऊँघ पलट ।*
*आकाश धँसै, धरती खिसै, तीनों लोक गरक ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निंदा का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *अतिथि*
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अतिथि अनादर किये से, भला न होत अन्त ।
पट्टण परले हो गई, कोपा धुंधलि संत ॥३१॥
धुन्धलीनाथ ने पट्टण गांव में १२ वर्ष की समाधि लगाई थी उनका शिष्य गांव में भिक्षा को जाता तब गांव के लोग भिक्षा न देकर हँसी करते थे । एक कुम्हारी ने कुछ दिन रोटी दी, फिर कहा - मैं गरीब हूँ, १२ वर्ष तक आपको पूरा भोजन न दे सकूंगी । आप सुखी लकड़ियाँ लाकर बेच के उनके पैसों का अन्न मुझे लाकर ला दिया करें, अन्य सब मैं करूंगी । नाथ ने वैसा ही किया, १२ वर्ष पूरे हो गये। 
धुन्धलीनाथ ने समाधि खोली और एक दिन स्वंय गये किसी ने भी भिक्षा न दी, अन्त में कुम्हारी के घर आये, उसने रोटी दी । नाथजी ने आश्रम पर जाकर शिष्य से पूछा - तेरे १२ वर्ष कैसे निकले ? शिष्य ने सब सत्य सुना दिया । नाथजी ने शिष्य से कहा - उस कुम्हारी से कह दे कि वह शीध्र ही सपरिवार पट्टण की सीमा से बाहर हो जाय । "पट्टण उलट जाय" योगी के ऐसा कहते ही पट्टण पलट कर पृथ्वी में मिल गया ।
दोहा -
यथा शक्ति सबही करें, अतिथिन का सत्कार ।
किया अनादर पाप हो, कहते व्यास पुकार ॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १८९ =

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*सतगुरु संतों की यह रीत,*
*आत्म भाव सौं राखैं प्रीत ।* 
*ना को बैरी ना को मीत,*
*दादू राम मिलन की चीत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *गुण ग्राहकता*
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एक गुणग्राहक व्यक्ति के सिर में दर्द रहता था । एक दिन उसके एक शत्रु ने सिर पर तलवार मार दी । सिरपेच के कारण अधिक चोट न आकर थोड़ी चोट आई और कुछ रक्त निकल गया । इससे उसका सिर दर्द चला गया। इसलिये उस गुण-ग्राहक ने अपने शत्रु को धन्यवाद देते हुये कहा- 'आपको कुछ परिश्रम हुआ, किन्तु आपकी कृ्पा से मेरा सिर्ददर्द हमेशा के लिये चला गया है, अत: मैं आपका भारी उपकार मानता हूँ ।
अवगुण से भी गुण गहैं, गुणग्राहक मतिमान ।
सिर में खा तलवार की, माना गुण हि महान ॥३४॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
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बुधवार, 18 मार्च 2020

= १८८ =

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*कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।* 
*क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *स्वाध्याय*
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बूंदी(राजस्थान) का एक ब्राह्मण काशी पढकर आया और राजा को सुचना भेजी कि - मैं भली भांती गीता पढकर आया हूँ । राजा ने कहा - अभी उन्हें अभी गीता का अर्थ समझ में नहीं आया है । यह सुन ब्राह्मण पुन: काशी को गया और गीता के जो उच्चकोटि के भाष्य, टीका आदि थे उन्हे पढकर आया और राजा को सूचित किया । तब राजा ने कहा - 'अभी उन्हे गीता का अर्थ समझ में नहीं आया है ।' 
ब्राह्मण पुन: गया और एक संत के मुख से गीता सुन कर आया, और अपने घर में गीता के अनुसार चलने का अभ्यास करने लगा । उसकी राजादि से मिलने की तथा धन प्राप्ति आदि कि सब आशाऐं नष्ट हो गई । राजा ने जब सुना कि अब पंडित का व्यवहार बदल गया है वे एकांत को ही अधिक प्रिय समझते हैं । तब राजा ब्राह्मण के पास बिना सूचना दिये ही स्वयं गया और प्रणाम करके बोला - 'अब आपको गीता का अर्थ भली भांति समझ मे आ गया है । पंडित भी समझ गये, कुछ न बोले ।
ज्ञान सीख धारे तभी, मिटे आश की ताप ।
धारत ही नृप आगया, पंडित के घर आप ॥६७॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
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= १८७ =

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*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।* 
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *सरलता*
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एक संत भिक्षा के लिये एक घर में गये । घरवाले ने क्रोधित होकर कहा - यहां क्यों आया है ? जूते खायेगा क्या ? सन्त - रोटी नहीं मिलेगी तो जूते भी खा लेंगे । यह सुनते ही घरवाले का क्रोध शांत हो गया और उसने क्षमा मांगकर संत को सादर भिक्षा दी ।
क्रोधी के भी क्रोध को, शांत सरल कर देत ।
जूते खासी सुन कहा, रोटी बिन खा लेत ॥१६३॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
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मंगलवार, 17 मार्च 2020

= १८६ =

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*सुफल वृक्ष परमार्थी, सुख देवै फल फूल ।* 
*दादू ऊपर बैस कर, निगुणा काटै मूल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निगुणा का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *दया*
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दादूपंथी सैनिक नागों की जमात उदयपुर(जयपुर) के संत हीरादासजी विचरते हुये कसूर(पंजाब) में जाकर रहने लगे थे । वहां उनकी प्रतिष्ठा से दुखी होकर उनके साथ शत्रुता करने वाले हरिहर नामक वैरागी ने उन्हें मरवाने के लिये चार यवन भेजे । जब ये हीरादासजी के आश्रम पर पहुँचे तो देखा कि उनके शरीर के टुकड़े टुकड़े हुये अलग अलग पड़े हैं । यह देख कर वे पीछे लौट पड़े । तब हीरादासजी ने अपने अपने शरीर को योग शक्ति से ठीक बनाकर तुरन्त आवाज दी - क्यों जा रहे हो ? हीरादासजी को काट काट कर जाओ । 
चारो यवन भयभीत होकर चरणों मे जा पड़े और हरिहर की सब कथा सुना दी । फिर कुछ दिन बाद राजा रणजीतसिंह उनके पास आये और सवा लाख का पट्टा देने लगे । हीरादासजी ने कहा - 'यह सब हरिहर वैरागी को दे दो, रणजीतसिंह ने सब तो नहीं दिया किन्तु सन्तों के कहने से हरिहर को कुछ दे दिया । देखो संतों की दया-मारने वाले को भी जीविका दिलवाई ।
करें शत्रु पर भी दया, यह संतन की रीति ।
करी हरिहर पर दया, हीरादास सप्रिति ॥१३५॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
^^^^^^^//सत्य राम सा//^^^^^^^

= १८५ =

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*है तो रती, नहीं तो नांहीं, सब कुछ उत्पति होइ ।* 
*हुक्मैं हाजिर सब किया, बूझे बिरला कोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *सत्य*
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सीहा गांव(गुड़गांवा) में पानी की अति आवश्यकता जानकर दादूपंथी संत रामरूपजी ने एक तालाब बनाना आरम्भ किया, उसके मजदूरों को जब मजदूरी देने लगे, तब अपने कार्यकर्ता से कहा कि अमुक शिला के नीचे से रुपया निकाल लाओ, जितनी आवश्यकता होती, उतने ही रुपये वहाँ मिल जाते थे । एक मजदूर को लोभ हुआ उसने जिस-जिस शिला के निचे से रुपया निकालते देखा था तथा अन्य भी कई शिलाएँ रात को खोदकर देखी, किन्तु कुछ न मिला । अबकी बार मजदूरी चुकाते समय रामरूपजी ने शिलाएँ खोदने वाले को कहा - तू एक ओर बैठ जा, तुझे पीछे मिलेगी ।" सबको देने के बाद रामरूपजी ने कार्यकर्ताओं से कहा - 'इसे दुगनी मजदूरी दो, कारण इसने दिन में तालाब खोदा है और रात को शिलाएँ ।' पूछने पर भेद जानकर सब लोग संत को धन्यवाद देने लगे । यह तालाब बहुत ही सुन्दर पक्का बना हुआ है । पानी सदा रहता है । रामरूपजी का वचन मिथ्या कभी नहीं होता था । अब तक भी रामरूपजी की समाधि पर होली के समय मेला लगता है । लोगों की कामनाएं उनके भाव के अनुसार पूर्ण होती हैं ।
सिद्ध संत जन की गिरा, मिथ्या नहिं हो पाय ।
रामरूप जहँ की कहें, तहँ ही धन मिल जाय ॥६२॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
^^^^^^^//सत्य राम सा//^^^^^^^

सोमवार, 16 मार्च 2020

= १८४ =

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*झूठा साचा कर लिया, काँचा कंचन सार ।* 
*मैला निर्मल कर लिया, दादू ज्ञान विचार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *सत्य*
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एक सेठ के पुत्र में मद्यपान, वेश्या सेवन आदि बहुत अवगुण थे । सेठ को इससे बड़ा दु:ख था । एक दिन एक संत आ गये, सेठ ने उनसे प्रार्थना की कि - "आप कृपा करके मेरे पुत्र को समझाकर उसके दुर्गुण छुड़वा दो ।" संत ने लड़के को दुर्गुण छोड़ने को कहा। किन्तु लड़का बोला - "मैं तो इनको छोड़ नहीं सकता ।" सन्त ने कहा - "हमारी एक बात मानेगा ? लड़का- कहिये, क्या ? संत - "सत्य बोलने का नियम ले ले, कभी भी असत्य न बोलना ।" लड़के ने स्वीकार कर लिया । एक दिन वैश्या के जाने लगा कि पिता ने पूछ लिया, कहां जाता है लड़का यह सोचकर कि झूठ तो बोलना नहीं है और सत्य भी ऐसी बात पिता के सामने कैसे कही जा सकती है, कुछ न बोल कर वहां ही बैठ गया उसी दिन से वैश्यागमन भी छोड़ दिया । इसी प्रकार उसके सब दोष केवल सत्य बोलने से ही छूट गये और दिव्य गुण भी आ गये ।
सभी दोष सत से छुटें, इसमें संशय नांहि ।
वैश्य पुत्र के सब छूटे, रहा न एकहुँ मांहि ॥५१॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १८३ =

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*सतगुरु संतों की यह रीत, आत्म भाव सौं राखैं प्रीत ।* 
*ना को बैरी ना को मीत, दादू राम मिलन की चीत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *दया*
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दया करे से इष्ट की, कृपा सहज हो जाय ।
मक्का सुरसा में मिला, पचास कोस पर आय ॥१३२॥
एक तपस्विनी मक्का जा रही थी । एक वन में एक कूप पर व्याइ हुई भूखी प्यासी कुतिया को देखकर उसे दया आ गई । आप भूखी रहकर अपनी रोटी उसे खिला दी और शिर के केश काटकर उनकी रस्सी बनाकर तथा अपनी धोती की झोली बनाकर उससे पानी निकालकर कुतिया को पिलाया । इसी पुण्य से मक्का का अधिपति सुर(देवता) उसके स्वागत के लिये ५० कोस दूरी पर उसे सामने आया । कहा भी है --
"शिर के केश उतार कर, दिया कुती को नीर ।
पचास कोस मक्का चला, देख दया कर वीर ।"
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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रविवार, 15 मार्च 2020

= १८२ =

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*दादू वाणी प्रेम की, कमल विकासै होहि ।* 
*साधु शब्द माता कहैं, तिन शब्दों मोह्या मोहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *मधुर वचन*
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पिक(कोयल), शुकादी(तोता मैनादिक) की वाणी सुनने में जो लोगों की रुचि होती है, उसमें एक मात्र कारण उनका मधुर भाषण होना ही है । इससे सूचित होता है कि मधुरता के साथ बोलने से भी पक्षी भी प्यारे लगते हैं, फिर यदि मनुष्य बोले तब तो अवश्य ही सबका प्रेम -पात्र होगा । इसमें क्या संशय है ?
मधुर गिरा पर सहज ही, प्रेम सभी का होय ।
पिक-शुकादि की भी सुनत, प्रेम सहित सब कोय ॥६६॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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= १८१ =

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*दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।* 
*कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विश्‍वास का अंग)*
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साभार ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु,* *दृढ़ता*
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नारनौल में एक अग्रवाल वैश्य परिवार है, जो करीब ढाई सौ बर्षो से सन्त दादूजी को अपना इष्ट मानता आ रहा है । इस कारण वह "दादू" नाम से विख्यात है । उसी परिवार के एक महानुभाव का नियम था कि - श्री दादूवाणी के परचा तथा विनती के अंग का पाठ करते समय न किसी से बोलना तथा उठना । वर्षाकाल था, नगर के समीप की बरसाती नदी का पानी चढ रहा था । 
उपर्युक महानुभाव का ८/१० वर्ष का पुत्र नदी में बह गया, लोगों ने दौड़कर 'श्री दादू मंदिर' में नित्य नियम करते हुये बालक के पिता को सूचना दी, किन्तु अपने लडले लाल का नदी में बहना सुनकर भी अपने नियम से नहीं डिगे । बैठे-बैठे पाठ करते ही रहे । फिर पाठ पूर्ण होते ही उठकर चले ही थे कि सूचना मिली- लड़का कुछ दूर जाकर स्वयं ही नदी तट आ गया है और जीवित है । इससे ज्ञात होता है कि भजनादि नियम की दृढ़ता में अन्त में हानि नहीं होती ।
भजन-नियम में दृढ़ रहे, अन्त हानि कुछ नांहि ।
दादू भक्त का सूत सरित, बहा मरा नहिं मांहि ॥४९॥
#### श्री दृष्टान्त सुधा सिन्धु ####
### श्री नारायणदासजी पुष्कर, अजमेर ###
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