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सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१५७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह विनती* 
*आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार ।* 
*हरे पटंबर पहरि करि, धरती करै सिंगार ॥१५७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मर्षि दादू दयाल जी महाराज कहते हैं हे इन्द्र महाराज ! आपको अपरंपार परमात्मा की आज्ञा हैं कि इस प्रजा का पालन करो । क्योंकि आप इस पृथ्वी के भर्तार हो(पति हो) । इस पृथ्वी के जो वस्त्र हैं, वे आपके अधीन हैं । वे जब आप पहनाओगे, तब पहनेगी । वस्त्र क्या हैं ? सो बताते हैं ।
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*वसुधा सब फूलै फलै, पृथ्वी अनंत अपार ।* 
*गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥१५८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वसुधा कहिए पृथ्वी अनन्त अपार है वनस्पतियों के सहित । और यह पृथ्वी नाना प्रकार के फल - फूल इत्यादि हरे वस्त्र धारण करके समस्त अंगों पहाड़, झील आदि सहित अपना श्रृंगार करती है । इसी से प्रजा में आनंद होता है । इसलिए हे इन्द्र महाराज ! आप आकाश में मेघों द्वारा जल - वर्षा करके पृथ्वी को जल से पूर्ण कर दो ।
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*काला मुँह कर काल का, सांई सदा सुकाल ।*
*मेघ तुम्हारे घर घणां, बरसहु दीनदयाल ॥१५९॥* 
इति विरह का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग ३ ॥ साखी १५९ ॥ 
टीका - हे इन्द्र महाराज ! आपके घर में अनेक मेघमाला हैं, इसीलिए आप सदा सुकाल रूप हो और इस दीन प्रजा के आप मालिक हो । अब आप इस काल का कहिए वर्षा बिना जो काल पड़ रहा है, इसका काला मुँह करो । और दयालु होकर वर्षा करो । 
सोरठा :-
आँधी गाँव हि माहिं, रहे जो दादूदास जी । 
वर्षा वर्षी नांहि, कर विनती वर्षाइयो ॥ 
द्रष्टान्त :- एक समय आनन्दकन्द श्री दादू दयाल महाराज ने आंधी ग्राम में अपने अनन्य भक्त पूरणदास जी ताराचंद जी महरवाल के चातुर्मास किया । उस वर्ष आंधी ग्राम में भयंकर दुष्काल पड़ा । ग्रामवासी आंधी ग्राम को त्यागकर मालवा प्रदेश में जाने लगे । जब ग्रामवासियों को महाप्रभु श्री दादूदयाल ने ग्राम त्याग कर जाने का कारण पूछा तो उन्होंने अन्न - पानी - चारे का अभाव व अकाल बतलाया । तब स्वामी जी ने उक्त तीन साखियों से इन्द्रदेव को वर्षा वर्षाने की आज्ञा दी । घनघोर घटाएँ घिरीं और इतनी जबर्दस्त वर्षा हुई कि सब ताल-तलैया पानी से लबालब भर गये और अकाल सुकाल में परिवर्तित हो गया । पृथ्वी जल से पूर्ण हो गई । कु एँ, तालाब, बावड़ी पानी से पूर्ण भर गए और रामजी महाराज की दया से जय - जयकार हो गया । ये तीनों मंत्र अनुष्ठान(साधना) रूप हैं, वर्षा के लिए । 
हे जिज्ञासुओं ! द्रष्टान्त में यह भाव है कि विरहीजन भक्त, भगवान् से विरह सहित विनती करते हैं कि हे अपरम्पार ! अपनी आज्ञा अनुसार आप हमारे भरतार(मालिक) हैं । हमारे हृदय आकाश में निवास करो । धरती जो हमारी बुद्धि है सो गुरु - आज्ञा, हरि - स्मरण आदिक वस्त्रों को पहन कर, शरीर रूपी वसुधा, अनन्त आपार भक्ति वैराग्य आदिक फूल और राम-रस आदिक फल रहित संपन्न होवै । हे सांई ! आपके तो मेघरूपी दया भरपूर है, जिससे आप सदा सुकाल स्वरूप हो । अब हमारे परेमश्वर, आपके वियोग रूपी काल का काला मुँह करो और हम दोनों के हृदय रूपी अकाल में प्रेम - दृष्टी का उदय करके दर्शनरूप वर्षा बरसाओ । हे प्रभु ! आपकी कृपा होगी, तो हमारा रोम - रोम आनन्दित होगा । और हम सदैव आपका जय - जयकार करेंगे, आप अनुग्रह करिए और हम विरहीजनों को अपना दर्शन दीजिए । 
इति विरह का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग ३ ॥ साखी १५९ ॥ 

रविवार, 21 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१५४-६)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह पतिव्रत*
*बाट विरही की सोधि करि, पंथ प्रेम का लेहु ।* 
*लै के मारग जाइये, दूसर पांव न देहु ॥१५४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विरह की कसौटी को निश्चय करके के वल प्रेम का ही पंथ कहिए, मार्ग ग्रहण करो । अन्य जो बहिरंग साधन हैं, उन सबसे उदासीन होकर, अपनी सुरति को परमेश्वर के स्वरूप में ही लगाइये ॥१५४॥ 
छंद :-
होइ अनन्य भजै भगवंत ही, 
और कछु उर में नहिं राखै । 
देवी रू देव जहाँ लग है, 
डर के तिन सौं कहुँ दीन न भाखैं । 
योग रू यज्ञ व्रतादि क्रिया, 
तिन को तो नही स्वप्ने अभिलाषै । 
सुन्दर अमृत पान कियो तब, 
तो कहु कौन हलाहल चाखै ॥ 
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*बिरही बेगा भक्ति सहज में, आगै पीछै जाइ ।* 
*थोड़े माहीं बहुत है, दादू रह्या ल्यौ लाइ ॥१५५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के दर्शन करने की व्याकुलता का जो भाव है, सो विरहीजनों को प्राप्त है । उससे परमेश्वर के दर्शन विरहीजनों को अवश्य होते हैं । और जो नवधा भक्ति है, वह तो सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों से मुक्त करके सहजावस्था द्वारा परमेश्वर का दर्शन कराती है । परन्तु विरह - भावना रूप भक्ति तो, तुरन्त ही परमेश्वर का साक्षात्कार कराती है । और विरह तो अल्प समय(थोड़े समय) में होवे तो भी बहुत होता है अथवा विरहीजन भक्तों का जीवन थोड़े ही काल रहता है, परन्तु उसमें ही उनको बहुत जीवन प्रतीत होता है । इसलिए परमेश्वर के नाम - स्मरण रूप लय में विरहभाव से स्थिर रहिये ॥ १५५ ॥ 
विरह रस पावत विरह में बिना मरि जाय । 
ज्यों चूने का कांकरा, रज्जब जल मिल जाय । 
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*बिरहा बेगा ले मिलै, तालाबेली पीर ।* 
*दादू मन घाइल भया, सालै सकल सरीर ॥१५६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! यह विरह - बाण का स्वरूप है, जिसके लगने से सारा शरीर कहिये, रोम-रोम घायल हो जाता है अर्थात् रोम-रोम में वह विरह दर्द की चोट सालती(महसूस) रहती है । और ताला - तलब और बेली - विलाप के सहित विरहीजन पुकारते रहते हैं । जिससे बिरही मन परमेश्वर के दर्शनों के लिए व्याकुल रहता है । किन्तु वह विरह, विरहीजनों को कहिये, भक्तों को साथ लेकर शीघ्र ही परमेश्वर में अभेद कर देता है ॥१५६॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१५१-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
*विरहा मेरा मीत है, विरहा बैरी नांहि ।* 
*विरहा को बैरी कहै, सो दादू किस मांहि ॥१५१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! समस्त संसार में हमारा केवल विरह ही एक मात्र मित्र है । यद्यपि व्यवहार में विरह-संताप आदि नाना कष्ट देता दिखता है, तथापि वह हमारा वैरी नहीं है, अर्थात् शत्रु नहीं है । कदाचित् कोई विरह को शत्रु कहे, तो वह विरहीजनों की गणना में नहीं गिना जाता है और वह विरही भक्त ही क्या है ? जो विरह को वैरी कहता है ॥१५१॥ 
विरह सरीखा मीत को, जो हरि पठावैं आप । 
जगन्नाथ जड़ जीव को, चेतन करै मिलाप ॥ 
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*दादू इश्क अलह की जाति है, इश्क अलह का अंग ।*
*इश्क अलह वजूद है, इश्क अलह का रंग ॥१५२॥* 
टीका - हे अकबर, अल्लह नाम खुदा की जाति प्रेम ही है । खुदा के अवयव प्रेम स्वरूप ही हैं । खुदा का वजूद कहिए शरीर, प्रेममयी ही है और खुदा का रंग केवल प्रेम ही है ॥१५२॥ 
प्रसंग :- सतगुरु भगवान से अकबर बादशाह ने चार प्रश्न सीकरी में किए थे :- हे गुरुदेव ! उस खुदा की जाति क्या है ? और खुदा का अंग कहिए, अवयव कैसे हैं ? खुदा का शरीर किस प्रकार का है ? खुदा का रंग कैसा है ? दादू दयाल महाप्रभु ने इन प्रश्नों का उत्तर इसी साखी से दिया है । अकबर ने यह सुनकर, मन में निश्चय किया कि सतगुरु देव ने वास्तविक यर्थाथ उत्तर दिया है । 
गुरु दादू से बादशाह, बूझी चार जो बात । 
जाति अंग औजूद रंग, साहिब के विख्यात ॥ 
"कौन अलह की जाति है, क्या है अलह का अंग? 
कैसा अलह औजूद है, कैसा अलह का रंग ?"
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*साध महिमा महात्म*
*दादू प्रीतम के पग परसिये, मुझ देखण का चाव ।*
*तहाँ ले सीस नवाइये, जहाँ धरे थे पाँव ॥१५३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! प्रीतम प्यारे तेजोमय परमेश्वर के तेज पुँज के चरणों का स्पर्श करो, क्योंकि हम विरहीजनों को परमेश्वर के दर्शनों का अति चाव लगा है । इसलिए हे विरहीजनों ! जहाँ अन्त:करण में परमेश्वर ने अपने चरण रखे हैं, वहाँ पर परमेश्वर की शरण लेकर अपना मानसिक सिर नवाइये अथवा विरह - भाव ही मानो भगवान् के चरण हैं, उनको अखण्ड वृत्ति(बुद्धि) में धारण करिये । परमेश्वर की कृपा से जब विरह भाव का उदय हो, उसी समय से परमेश्वर के अन्त: करण की वृत्ति को कहिए, बुद्धि को स्थिर करिये । प्रीतम प्यारे जो विरहीजन सतगुरु हैं, उनके चरणों का स्पर्श करिये अर्थात् सतगुरु के चरण-स्पर्श का, परमेश्वर के दर्शनों का, जो अपूर्व फल है, उसको देखने का हमें अत्यन्त चाव है । जहाँ जहाँ उन विरहीजनों ने अपने चरण रखे हैं, तहाँ - तहाँ ही जाकर उनके चरणचिन्हों पर अपना मस्तक झुकाइये । इस प्रकार नमस्कार करने से जीव के जन्म - जन्मान्तरों के पाप - ताप नष्ट हो जाते हैं ॥१५३॥ 
शिव मग जात निवात शिर, देख उभै सु स्थान । 
त्यों गुरु दादू कांकरिया, नमत सदा सनमान ॥ 
द्रष्टान्त - भगवान् शंकर एक समय पार्वतीजी के साथ मार्ग - मार्ग जा रहे थे । एक ऐसी जगह आई, कि महाराज शंकरजी वहाँ बारम्बार सास्टांग प्रणाम करने लगे । वहाँ की धूलि को अपनी जटाओं एवं शरीर पर रमाने लगे और अनेक बार स्तुति करने लगे । भवानी ने देखा, कोई दिखाई तो नहीं देता है ? भगवान् शंकर किसको नमस्कार करते हैं ? कुछ देर में फिर पार्वती के साथ चल पड़े । दुबारा फिर एक वैसा ही स्थान आया । पूर्वोक्त प्रकार से वैसे ही करने लगे । तब गिरिजा ने हाथ जोड़कर शंकर भगवान् से प्रश्न किया कि हे नाथ ! कोई दिखाई नहीं पड़ रहा है । आप किसको नमस्कार करते हो ? पीछे भी आपने इसी प्रकार नमस्कार किया था । आप कृपा कर बतलाइये । शंकर बोले :- हे भवानी ! जहाँ हमने पहले नमस्कार किया था, वहाँ दस हजार वर्ष पहले एक विरही भक्त हुए थे । उन्होंने पमेश्वर को प्रकट किया था । इससे वह भूमि अत्यन्त पवित्र थी । इसलिए मैंने, उसको नमस्कार किया और अब यहाँ पर दस हजार वर्ष के बाद एक विरहीजन भक्त उत्पन्न होंगे, उस महात्मा का यह पृथ्वी ध्यान करती है कि कब वह महापुरुष आएंगे और मुझ पर चरण रखेंगे । उस महापुरुष का यह पृथ्वी भजन करती है, सो यह पवित्र हो चुकी है । पहले वाली पृथ्वी और इस पृथ्वी का एक ही फल है । इसलिए मैं इसको नमस्कार करता हूँ कि हे माता ! तू भक्त और भगवान का ध्यान करके पवित्र हो गई है, तुझे बारम्बार मेरा नमस्कार है । यह सुनकर पार्वती के भी भक्त और भगवान् की भक्ति का भारी रंग लग गया ।
दूसरा ब्रह्मर्षि दादू दयाल महाराज ने और उनके सदगुरु वृद्धरूप भगवान् ने अहमदाबाद में कांकरिया तालाब पर अपने चरण रखे थे और बच्चों से ध्यान कराया था । यह पृथ्वी भी अत्यन्त पवित्र है । भंडारी सनमानदास जी कहते थे कि मैं उस पृथ्वी को बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जहाँ ब्रह्मर्षि ने अपने चरण रखे थे । 
(क्रमशः)

बुधवार, 17 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१४८-१५०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =*
*राम विरहनी ह्वै रह्या, विरहनी ह्वै गई राम ।*
*दादू विरहा बापुरा, ऐसे कर गया काम ॥१४८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! राम तो विरहिनी हो रहे हैं और विरहीजन राम हो रहे हैं । जब अन्त:करण में विरह है, तो फिर विरहीजन इसी परम पद को प्राप्त होते हैं, अर्थात् राम रूप हो जाते हैं । देखो विचारवान् विरह ने वपुधारी के शरीर में, कैसा अलौकिक काम कर दिया ॥१४८॥ 
"ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम् ।"
मोहन बात स्नेह की, कहन सुनन की नांहि । 
सो मुख देखे ही बने, जो बीते दुहुँ मांहि ॥ 
*विरह बिचारा ले गया, दादू हमको आइ ।* 
*जहं अगम अगोचर राम था, तहँ विरह बिना को जाइ ॥१४९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हम विरहीजनों के अन्त:करण में विचार सहित विरहभाव का उदय हुआ जो अगम और अगोचर परमेश्वर है, वहाँ पर विरह के अतिरिक्त और किसी साधन की सहज गति नहीं है, वह उसे परमेश्वर से हमें तदाकार(एक रूप) किए है । विरह के बिना ऐसा कौन साधन है, जो राम में लय कर पहुँचावे ॥१४९॥ 
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*विरह बापुरा आइ कर, सोवत जगावे जीव ।* 
*दादू अंग लगाइ कर, ले पहुँचावे पीव ॥१५०॥* 
टीका - दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि हे विरहीजनों ! विरह क्या है ? यह तो मानो राम नाम का शरीर है । यह विरहीजनों के हृदय में प्रकट होकर अज्ञान-निद्रा में सोते हुए जीवात्मा को जगाकर आत्म-परायण करता है और विरहीजनों को अपना स्वरूप विरही बनाकर परमेश्वर में अभेद कर देता है । विरह ऐसा है ॥१५०॥ 
"जैमल" विरहा खूब है, निद्रा जैसी नांहिं । 
सब मृतक, सो जीवता विरहा जा घट माहिं ॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१४४-५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*जे हम छाड़ै राम को, तो राम न छाड़ै ।* 
*दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढै ॥१४५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के भक्तों के हृदय में अनन्य विरह-भाव उपजता है, जिससे विरहीजनों की सुरति परमेश्वर से कभी अलग नहीं होती है । जैसे संसारी अमली अमल का साधारण नशा नहीं छोड़ सकता, तो फिर परमेश्वर के विरही भक्तों की बात ही क्या है ? वे भक्ति को कैसे छोड़ें ॥१४५॥ 
मन माहीं साजन बसे, मो मन साजन हाथ । 
नर कर दर्पन मांहि नर, अरस परस जगन्नाथ ॥ 
कोउ अमली मगजात था, अमल समय हो जाय । 
गाँव दूर दुख अति लहा, मूंज नीर पी जाय ॥ 
द्रष्टान्त -(इसी अंग की ५० वीं साखी देखिये)
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*विरह प्रतिबिम्ब*
*विरहा पारस जब मिला, तब विरहनी विरहा होइ ।*
*दादू परसै विरहनी, पीव पीव टेरे सोइ ॥१४६॥* 
टीका - जैसे पारस से मिलते ही लोहा कंचना हो जाता है, उसी रीति से पारस रूप विरह के मिलते ही विरहीजन परमेश्वर रूप हो जाते हैं ॥१४६॥ 
यथा अग्निनाहेममलं जहाति, 
ध्यातं पुन: स्वं भजते च रूपम् । 
आत्मा च कर्मानुशयं विधूय, 
मद्भक्ति योगेन, भजत्यथो माम् ॥ 
दोस्त नहीं है दर्द सम, जो दिल अन्दर होय । 
जीव शिव एकै करै, जो थे सदा ये दोय ॥ 
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*आशिक माशूक ह्वै गया, इश्क कहावै सोइ ।* 
*दादू उस माशूक का, अल्लाह आशिक होइ ॥१४७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! आशिक कहिए, विरहीजन भक्त, और माशूक नाम परमेश्वर अर्थात् विरहीजन और परमेश्वर एक रूप हो जाते हैं । भक्ति की शक्ति देखिए कि स्वयं भगवान् ही एक सेवक बनकर अपने विरहीजन भक्तों की सेवा करते हैं । अर्थात् उनका ही रूप बन जाते हैं इस दशा में पहुँचने पर प्रेम की पूर्णता है ॥१४७॥ 
मनहर
औलिया निजामुद्दीन बावड़ी चुणावै रात, 
नीर दीप जोइके-दिखाई करामात को । 
आइ के कलंदरबली, छीन लेहगए तेहू, 
आवत मुरीद पूछी, कही उन बात को ॥ 
गावत अनूप जा रिझाया उस बालक को,
देखत अखंड ताहि, पावै नित शांति को ॥ 
बैठ के उछंग में माशूक कहा दाढी ऐंच । 
औलिया निजाम को कहायो सिद्ध पांति को ॥ 
द्रष्टान्त - एक समय औलिया निजामुद्दीन ने बावड़ी चिनवाने का काम शुरु किया । इधर बादशाह अकबर ने भी एक महल बनवाना शुरू किया । दिल्ली के जितने मिस्त्री थे, उन सबकों निजामुद्दीन ने बुलाया और कहा :- हमारी बावड़ी पहले बनाओ । बादशाह ने सुना कि तमाम मिस्त्री निजामुद्दीन के यहाँ जाते हैं । बादशाह ने मिस्त्रियों को बुलाया, बोला :- पहले हमारा महल बनाओ । मिस्त्रियों ने कहा :- निजामुद्दीन के जाते हैं, हजूर ! "उसके जाना बन्द कर दो, पहले हमारा महल बनेगा ।" निजामुद्दीन को पता चला, मिस्त्रियों को बोला :- रात को हमारी बावड़ी की चिनाई करो । चिनाई करने लगे । तेल में बिनौल डालकर, निजामुद्दीन ने कई दीपक जलवा दिए । जब सुबह बादशाह के महल का काम करने मिस्त्री गए, तो मिस्त्रियों को नींद आने लगी । बादशाह ने पूछा :- तुम लोग रात को नहीं सोये ? हुजूर, नहीं सोये, चुनाई करते हैं, रात को । बिना प्रकाश कैसे करते हो ? हुजूर, निजामुद्दीन औलिया तेल के कुण्डे भरकर बिनौले डाल कर, प्रकाश करवा देता है । बादशाह ने तेल विक्रेताओं को बुलाकर हुक्म दिया कि निजामुद्दीन को कोई तेल नहीं देगा और मिस्त्रियों को बोला :- आज तुम उसके यहाँ काम करने नहीं जाना । 
दूसरे रोज बादशाह के महल की चिनाई करने सब मिस्त्री आ गए । जब निजामुद्दीन ने तेल लेने भेजे, तो तेल विक्रता बोले कि निजामुद्दीन को तेल बेचने से बादशाह ने इन्कार कर दिया है । अब निजामुद्दीन ने मिस्त्रियों को बुलाया और कहा :- रात को काम करने आना । जब मिस्त्री लोग रात को काम करने आए, तब बावड़ी में से पानी मंगवा कर, सब कुंडे पानी से भरवा कर रोशनी करवा दी । दूसरे रोज बादशाह के महल की चिनाई करने को मिस्त्री गए, तो फिर नींद आने लगी । बादशाह नें कहा :- आज कैसे सोते हो ? "हुजूर, रात को निजामुद्दीन के काम करने गये थे ।" उसे तेल तो नहीं मिलता ? "हुजूर, पानी के कुण्डे भरवाकर रोशनी करवा देता है ।" तब बादशाह चकित हो गया और बोला:- कल से निजामुद्दीन की बावड़ी की चिनाई करो । देखेंगे समय आने पर । 
कुछ दिन बाद एक रोज कलंदरबली फकीर बादशाह के दरबार में आया । बादशाह ने सेवा की । कलंदरबली बोले :- मांगो क्या चाहते हो ? "मैं यह चाहता हूँ कि निजामुद्दीन की करामात को ले जाओ ।" फकीर ने कहा :- ठीक है । कलंदरबली चले । निजामुद्दीन के तकिया के पास से निकले और बोले :- "निजामुद्दीन !" वह बोला, "हाँ" इतना कहते ही कलंदरबली के साथ करामात चली गई । शाम को कुण्डों में मशाल जलाने लगे, तो वह नहीं जली । तब सभी मिस्त्री अपने घर चले गए । निजामुद्दीन ढीले हो गए । 
मिस्त्री लोग बादशाह के महल की चिनाई करने लगे । इधर निजामुद्दीन का शिष्य(मुरीद) मीर कुसरा आया । गुरु(मुर्शद) को उदास देखकर बोला :- उदासी का क्या कारण है ? उपरोक्त वृत्तान्त निजामुद्दीन ने सब कह सुनाया । मुरीद बहुत बढ़िया गायक था । वह बोला :- मुर्शद ! आपकी करामात कैसे वापिस आवे ? निजामुद्दीन बोला :- कलंदरबली यह कहे कि "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध" मेरी करामात वापिस आ जायेगी । 
वह मुरीद चला और कलंदरबली के शहर में जा पहुँचा और पता चलाया कि कलंदरबली किसका कहना मानता है । एक ने बताया :- अमुक लड़का है । उसका कहना अवश्य मानता है । वह गायक उस लड़के के घर पहुँचा । वह साहूकार का लड़का था । गायक ने जाकर लड़के को सलाम किया । लड़के ने देखा :- इसके पास सितार है, यह तो कोई गायक मालूम पड़ता है । "क्या सांई ! कुछ गाते हो ?" 'हाँ, दाता' 'सुनाओ', फिर सितार मिलाकर एक दो राग सुनाई । लड़का मस्त हो गया । कहने लगा :- 'मांगो !' गायक कहता है कि यही मांगता हूँ कि कलंदरबली यह बोले कि "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध" यही मांगता हूँ । 
लड़का बोला :- "आप कलंदरबली के तकिया पर पहुँचो । मैं आ रहा हूँ ।" वह गायक जाकर कलंदरबली को सलाम करके बैठ गया । इधर वह लड़का भी पहुँचा, जाकर बैठा । "क्या सांई, कुछ गाते हो ?" "हाँ" तो "सुनाओ" गायक ने दो चार राग सुनाई । लड़का कहने लगा :- मांगो क्या चाहिए ? गायक बोला :- कलंदरबली यह कहे कि "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध !", यही माँगता हूँ । तब लड़का कलंदरबली से बोला, मुर्शद ! कह दो "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध"! कलंदरबली बोले :- यह नहीं कहेंगे और कुछ मांग लो । गायक बोला :- "हुजूर, यही चाहता हूँ और कुछ नहीं माँगता । 
प्रेमपात्र(माशूक) लड़का जमीन से उठकर कलंदरबली की गोदी में बैठ गया और दोनों हाथों से दाढ़ी खींच कर कहने लगा । बोले "ओलिया निजामुद्दीन सिद्ध" । कलंदरबली बोले :- "तेरा बाप सिद्ध । फिर बोला :- कहो "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध" । "तेरा दादा सिद्ध ।' इस प्रकार सात पीढ़ी को सिद्ध बना दिया । फिर आठवीं बार प्रसन्न होकर बोला । "औलिया निजामुद्दीन सिद्ध", इतना कहते ही निजामुद्दीन के यहाँ दीपक जगमगा उठे । कहा भी है :- 
"शिष्य करे तो ऐसा करे, जैसा किया निजाम । 
गुरु को पीर कहाइया, यह मर्दा का काम ॥"
अपने प्रेमी भक्तों के लिये भगवान सब कुछ कर सकते हैं, जैसे कलंदर बली ने अपने भक्त बालक के लिये किया ।
(क्रमशः)

सोमवार, 15 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१४२-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
*विरह अग्नि में जल गये, मन के विषय विकार ।* 
*ताथैं पंगुल ह्वै रज्जब, दादू दर दीदार ॥१४२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विरह रूप अग्नि में मन के विकार कहिए, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि जल गए हैं, जिससे विरही मन पंगुल यानी निर्विकार होकर "दर" अन्त: करण में परमेश्वर का दर्शन करता है ॥१४२॥
"स्वाद, वाद अरु विषय रस, चौथा निद्रा नेह । 
चौरासी के चलनि को, जन रज्जब पग येह ॥" 
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*जब विरहा आया दर्द सौं, तब मीठा लागा राम ।* 
*काया लागी काल ह्वै, कड़वे लागे काम ॥१४३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब दर्द सहित विरह भाव का उदय हुआ, तो फिर राम नाम में ही चित्त की वृत्ति संलग्न रहती है और शरीर सम्बन्धी जो विषय-विकार है, वे सब काल रूप प्रतीत होते हैं और फिर बन्धनरूप प्रतीत होने लगता है जिससे सांसारिक कामनाओं से मन अनासक्त हो जाता है ॥१४३॥
गृह दारा सुत वित्त सूं, यहु मन भया उदास । 
जन रज्जब राम ही रच्या, छूट्या जगत निवास ॥ 
(राम ही रच्या = जब राम में रच जाता हैं ।)
.
*जब राम अकेला रह गया, तन मन गया बिलाइ ।* 
*दादू विरही तब सुखी, जब दर्श पर्श मिल जाइ ॥१४४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब निरन्तर अभ्यास करते-करते विरहीजनों की सुरति एक परमेश्वर में ही स्थिर होती है, तो फिर वे तन-मन की सुध-बुध भूल जाते हैं और परमेश्वर से साकार रूप में मिलने से विरहीजन परमसुखी मन तद्रूप हो जाते हैं ॥१४४॥ 
"विरहा ब्रह्म न अंतरा, जो निज विरहा होइ ।
"जगन्नाथ" या जोग का, साखि साध सब कोइ ॥"
(क्रमशः)

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१३९-१)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू नैन हमारे ढीठ हैं, नाले नीर न जांहि ।* 
*सूके सरां सहेत वै, करंक भये गलि मांहि ॥१३९॥* 
टीका - हमारे ये नेत्र निर्लज्ज हैं, क्योंकि इन नेत्रों से आँसुओं के नाले नहीं बहते हैं एवं नीर के नाले के साथ ये नेत्र गलकर भी नहीं बह जाते हैं । कैसे ? कि जिस तरह तालाब के सूख जाने पर, उसमें रहने वाली मीन, मेंढ़क आदि भी उसी में गल कर सूख जाते हैं । ऐसी अवस्था हमारी होवे, तो हम विरह-भाव को प्राप्त होवें ॥१३९॥ 
"विरहा आवत हे सखी ! सूखा सकल सरीर । 
नैनां पापी रहि गया, ढुर ढुर आवत नीर ॥"
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*विरही विरह लक्षण* 
*दादू विरह प्रेम की लहर में यह मन पंगुल होइ ।* 
*राम नाम में गलि गया, बूझे बिरला कोइ ॥१४०॥*
टीका - जब मन विरह के प्रेम की तन्मयता में निर्वासनिक होकर राम-नाम में पूर्ण अभेद हो जाये, तब सफलता है । किन्तु कोई बिरले भाग्यवान् मुमुक्षजन ही इस कसौटी को समझते हैं या पार उतरते हैं ॥१४०॥ 
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*विरह ज्ञान अग्नि* 
*दादू विरह अग्नि में जल गये, मन के मैल विकार ।* 
*दादू विरही पीव का, देखेगा दीदार ॥ १४१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! विरह रूप अग्नि में मन के मैल, ईर्ष्या, आदि जल गए हैं, जिससे विरही मन निर्विकार होकर "दर" अन्त: करण में परमेश्वर का दर्शन करता है ॥१४१॥
(क्रमशः)

बुधवार, 10 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१३६-८)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =*
*विरह विलाप*
*रात दिवस का रोवणां, पहर पलक का नांहि ।* 
*रोवत रोवत मिल गया, दादू साहिब माँहि ॥१३६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! व्यवहार में तो नाना सुख-दु:ख संघात से(शरीर से) रूदन आदि में न्यून अधिक भाव भी सम्भव है । किन्तु विरहीजनों को तो एक भगवान् का ही पतिव्रत है । इसलिए ईश्वर-वियोग में रात-दिन का ही रोवणां बना रहता है । ऐसे परमेश्वर के अनन्य विरहीजन परमेश्वर के वियोग में रोते-रोते तदाकार वृत्ति होकर परमेश्वर में ही लीन हो जाते हैं ॥१३६॥ 
कबीर हँसना दूर कर, रोने से कर प्रीत । 
बिन रोये क्यों पाइये, प्रेम पियारा मीत ॥ 
जेते तरवर वृक्ष वन, वन उपवन संसार । 
"अहमद" इक-इक वृक्ष तल, रोना लख-लख बार ॥
अजयपाल के रुदन को, पूछ सकत नहीं कोइ । 
वृद्ध विप्र गयो पूछ के, तीन सिद्ध तहं जोइ ॥ 
तहां चार लव कोटड़ी, देखन किया विचार । 
गज द्विज नांद्यो देखकर, खर चढ़ रोवे अपार ॥ 
द्रष्टान्त :- राजा अजयपाल को एक महात्मा ने परमेश्वर की विरह-भक्ति का उपदेश दिया था । वह एक पहर रोया करते थे । उनके रोने को देखकर, रनिवास और जनता बहुत दुखी रहती थी । परन्तु राजा को पूछ नहीं सकते थे । रोने के समय एक रोज राजा का पुरोहित राजा के पास जाकर बैठा । जब राजा रोने से बन्द हुआ तो पुरोहित को नमस्कार किया । फिर पुरोहित ने पूछा :- महाराज ! आपको क्या दु:ख है ? तब राजा बोला :- अमुक स्थान पर जाओ, वहाँ आपको पता चलेगा । ब्रह्मण वहीं पहुँचा । महात्मा का दर्शन किया और वहाँ देखा, तो वह महात्मा दो पहर रोते थे । फिर वहाँ से महात्मा का आदेश पाकर और आगे गए, वहाँ आठों पहर ही एक संत का रोना देखा । जब आधी रात का समय हुआ, तब एक विमान आया । महात्मा जी ने रोना बन्द किया और ब्राह्मण ने महात्मा जी को नमस्कार किया तो पूछा :- कहाँ से आये हो ? ब्राह्मण ने पूर्वोक्त सब सुना दिया । गुरु महाराज ने वहाँ चाबियों का झूमका डाल दिया और बोले :- ये हमारी चार कोठरियाँ हैं, इनको खोलकर नहीं देखना । यह कहकर विमान में बैठकर गुरुदेव परमधाम को चले गए । फिर ब्राह्मण ने पहली कोठरी को खोला तो उसमें देखा, इन्द्र का हाथी खड़ा है । बोला :- स्वर्ग में चलेगा ? बोला :- हाँ, चलूंगा । "मुझ पर बैठ ।" तत्काल स्वर्ग ले गया । इन्द्र के दर्शन कराये । फिर आकर उसी जगह खड़ा हो गया और कहा कि मुझे बन्द कर दो । 
दूसरी कोठरी खोली, उसमें देखा, गरुड(द्विज = पक्षी) खड़े हैं, कहा :- बैकुण्ठ चलेगा ? पूर्व की भाँति धुमाकर ले आया और कहा :- बन्द कर दे । 
तीसरी कोठरी खोली, उसमें नन्दीगण खड़ा था, तुरन्त कैलाश में ले गया, और वैसे ही आकर खड़ा हो गया । कहा :- मुझे बन्द कर दो । चौथी कोठरी खोली तो शीतलावाहन(खर) गर्दभ खड़ा था बोला :- मृत्युलोक में चलेगा । "हाँ" बैठ मुझ पर । तुरन्त अजमेर के बाहर गर्दभ आकर खड़ा हो गया । बोला :- दो घन्टे में आ जाना, फिर नहीं मिलूंगा । ब्राह्मण दो घन्टे में राजा के पास न पहुँच सका और बीच में समय खत्म हो गया, गर्दभ चल दिया । बीच मार्ग से ब्राह्मण दौड़ा गर्दभ के पास कि थोड़ा और रुको, यह कहने को । गर्दभ को नहीं देखा, तो ब्राह्मण मुर्छित होकर, वहीं गिर पड़ा । "हाय स्वर्ग ! हाय बैकुण्ठ ! हाय कैलाश ! हाय गुरु महाराज !" पुकारने लगा । जनता एकत्रित हो गई । राजा भी आ पहुँचा । राजा बोला "हे ब्राह्मण ! तुम मुझे मेरा रोना पूछते थे, तुम किस लिये रोते हो, बतलाओ ? ब्राह्मण राजा की तरफ देखकर बोला :- "हाय स्वर्ग ! हाय बैकुण्ठ ! हाय कैलाश ! हाय गुरू महाराज !" राजा बोला :- तुमने आँखों से दर्शन कर लिये, धन्य है, मैं तो अभी रोता ही हूँ । 
ऐसे ही विरही भक्त रात-दिन रुदन करते-करते ईश्वर में लीन हो जाते हैं ।
*दादू नैन हमारे बावरे, रोवें नहीं दिन रात ।* 
*सांई संग न जागही, पीव क्यों पूछे बात ॥१३७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे नेत्र कर्तव्य शून्य हैं, क्योंकि परमेश्वर के विरह में ये दिन-रात रोते नहीं हैं और "सांई संग न जागही" -अर्थात् परमेश्वर का संग छोड़कर बाह्य पदार्थों में आसक्त हो रहे हें । इसलिए हमारे प्रीतम सुख-दु:ख की संभाल कैसे लेवें ॥१३७॥ 
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*नैनहुँ नीर न आइया, क्या जाणैं ये रोइ ।*
*तैसें ही करि रोइये, साहिब नैनहूँ जोइ ॥१३८॥* 
हमारे इन नेत्रों में नीर तक नहीं आया है । यह क्या रोना जाने ? हे विरहीजनों ! इतनी व्याग्रता से रोना चाहिए कि हमारा स्वामी प्रसन्न होकर इन नेत्रों को देखे, अथवा इतना रोवे कि इन नेत्रों का संसार-मैल धुल जावे और फिर पवित्र नेत्र, अपने साहिब का दर्शन करे ॥१३८॥ 
"हँस हँस कन्त न पाइया, जिन पाया तिन रोय । 
हाँसी खेले पीव मिले, कौन दुहागिन होय ॥"
सक बोल विरक्त भये, गुरु बाइक मन लाग । 
रज्जब रोवे दर्श को, यह साचो वैराग ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१३३-५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
*विरह बिनती*
*रोम-रोम रस प्यास है, दादू करहि पुकार ।* 
*राम घटा दल उमंग कर, बरसहु सिरजनहार ॥१३३॥* 
टीका - हे सिरजनहार ! हम विरहीजनों को रोम-रोम से राम-रस की प्यास है, जिससे प्रतिक्षण आपको ही पुकारते हैं । हे दयानिधि ! राम-रस की घटा उमड़-घुमड़ कर बरसाइये अर्थात् आप अपना दर्शन दीजिए ॥१३३॥ 
काहि न बरसि बुझावही, महा तपत है देह । 
बरियां चूक न चाहिये, इक बालम अरु मेह ॥ 
पद परसनि कूँ कर तपै, श्रवण सुननि कूँ बैन । 
हिरदो तपै तो मिलनि कूँ, मुख देखनि कूँ नैन ॥ 
श्रवण रहत तव सुजस सुन, रसन रहत जप सुख । 
अखराय फूटे नयन, देखनि कूँ पिय मुख ॥
*विरह लक्षण*
*प्रीति जु मेरे पीव की, पैठी पिंजर मांहि ।* 
*रोम-रोम पीव-पीव करै, दादू दूसर नांहि ॥१३४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हमारे समस्त शरीर में एक प्रियतम की प्रीति ही व्याप्त हो रही है, जिससे प्रत्येक रोम-रोम से "पीव-पीव" की ध्वनि हो रही है । ऐसे विरहीजनों के हृदय में "दूसर नांहि" नाम कहिए, ब्रह्म से अतिरिक्त और कोई द्वैतभाव नहीं है । अथवा विरहीजन ही "पीव-पीव" करते हैं और दूसरे संसारीजन नहीं करते हैं ॥१३४॥ 
चित्त न आवत और, तव मूरति उर में बसी । 
नीर न पावत ठौर, उमंगि चल्यो मग नैन ह्वै ॥ 
*सब घट श्रवणा सुरति सौं सब घट रसना बैंन ।*
*सब घट नैनां ह्वै रहै, दादू विरहा ऐन ॥१३५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! कान, जिह्वा, समस्त शरीर देह के रोम-रोम क्षोत्र-इन्द्रियरूप होकर ईश्वर-सुरति में ही लीन रहें अर्थात् ईश्वर के गुणानुवाद सुनने में ही मग्न रहें और शरीर के रोम-रोम रसना-इन्द्रीयरूप होकर शेष भगवान् की भांति परमेश्वर के स्मरण में ही लीन रहें । उच्चारण शक्ति सम्पन्न होवें । इसी प्रकार शरीर के रोम-रोम अनन्त नेत्ररूप बनकर परमेश्वर को देखने के योग्य बनें ऐसे उत्तम विरहीजन परमेश्वर का स्वरूप ही होते हैं ॥१३५॥ 
पृथ नृप श्रवण विष्णु से, मांगे रोम शरीर । 
कहा विष्णु द्वै कान में, व्है है रुचि नृप धीर ॥ 
द्रष्टान्त - राजा पृथु की भक्ति देखकर भगवान विष्णु प्रकट हुए और बोले :- वरदान मांगो । राजा बोला :- हे नाथ ! मेरे रोम रोम को श्रोत्र बना दो, जिससे मैं आपका कथा अमृत श्रवण किया करूं । भगवान् बोले :- राजन् इससे शरीर की सुन्दरता खराब हो जाएगी । जो रोम-रोम श्रोत्र कथा का आनन्द प्राप्त होगा वह आपको दो ही कानों से प्राप्त हुआ करेगा । यह कह कर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गए । 
(क्रमशः)

सोमवार, 8 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१३०-१)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
*छिन बिछोह*
*दादू पड़दा पलक का, येता अन्तर होइ ।* 
*दादू विरही राम बिन, क्यों कर जीवै सोइ ॥१३०॥* 
टीका - हे प्यारे प्रीतम ! आपके दर्शनों में यदि पल मात्र का भी अन्तर हो तो, वह सहा नहीं जाता है और जो पल मात्र से भी अधिक वियोग होवे, तब तो परमेश्वर के वियोग में विरहीजनों का जीवन ही कहाँ संभव है ॥१३०॥ 
गवन समय अँचरा गह्यो, छाड़न कह्यो सुजान । 
प्रेम पियारे ! सुन प्रथम, अँचरा तजूं कि प्राण ॥
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*विरह लक्षण*
*काया मांहैं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार ।*
*दादू बिरही बावरा, मरै नहीं तिहिं बार ॥१३१॥* 
टीका - हे विरहीजनों ! परमेश्वर के दर्शनों बिना भी ये तुम्हारे प्राण इस शरीर में कैसे बस रहे हैं ? क्योंकि जो विरहीजन प्यारे प्रीतम का वियोग होते ही अपने प्राणों का विसर्जन नहीं करते हैं, वे विरह की कसौटी को नहीं समझ पाए हैं ॥१३१॥ 
देख पतंगे बहु जुड़े, भूंड मिला इक आइ ।
दीप देखकर आव तूं, गयो देख उठ जाइ ॥ 
द्रष्टान्त :- बहुत से पतंगे इकट्ठे होकर अपने-अपने विरह की व्यथा व्यक्त कर रहे थे, उनमें एक भूंड(मल की गोली बनाकर गुड़काने वाला) भी आ बैठा । पतंगों ने पूछा- तूं कौन है ? भूंड ने कहा- मैं भी पतंग हूँ । "तू पतंग है, तो इस ग्राम के दीपकों को गिनकर आ कितने है ?" वह गया और थोड़ी देर में आकर बोला । गिन आया इतने दीपक हैं । 
तब सब पंतग बोले- तूं पंतग नहीं है । पतंग तो एक दीपक को देखकर ही उससे मिलने को इतना आतुर हो जाता है कि वह अपने प्राणों की आहुति वहीं पर दे देताहै । पतंग तो दीपक से मिले बिना रहता ही नहीं । 
"दादू विरही बावरा, मरे नहीं तिहिं बार ।"
"बांजिद बालम बीछुरे, भई ब्रज की देह । 
निकस गये मंहि प्रान ये, रहे लजावन नेह ।"
"सम्मन झूठे पाठ, सप्त चिरंजीव जे कहें । 
गिन मोहि सूधा आठ, पिय बिछुरतां ना मुई ॥"
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*विरह कसौटी*
*बिन देखे जीवै नहीं, विरह का सहिनाण ।* 
*दादू जीवै जब लगै, तब लग विरह न जाण ॥१३२॥* 
टीका - उत्तम विरह-भक्त की यह कसौटी है कि वह परमेश्वर के वियोग में क्षण-भर भी जीवित नहीं रह सकता । कदाचित कोई जीवित रहे, तो वह पूर्ण विरही नहीं है ॥१३२॥ 
"जगजीवन" क्यूं जानिये, विरहीजन की टेक । 
बिन देखे जीवै नहीं, इहै भली मति एक ॥ 
"जैमल" सोही विरहनी, पीव बिन धरै न धीर ।
ज्यूं जल त्यागे मच्छली, तत्क्षण तजे सरीर ॥
(क्रमशः)

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१२७-९)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
*सहजैं मनसा मन सधै, सहजैं पवना सोइ ।* 
*सहजैं पंचों थिर भये, जे चोट विरह की होइ ॥१२७॥* 
टीका - यदि विरह का सच्चा दु:ख होवे तो विरहीजनों की सहजावस्था होने पर मन, बुद्धि, प्राण आदिक पवन तथा पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँ स्वस्वरूप में स्थिर हो जाती हैं ॥१२७॥
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*मारणहारा रहि गया, जिहिं लागी सो नांहि ।* 
*कबहूँ सो दिन होइगा, यहु मेरे मन मांहि ॥१२८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं! विरहीजन कहते हैं कि जब प्यारे प्रीतम ने विरह रूपी बाण मारे, तो लगने वाले के केवल परमेश्वर का ही फिर स्मरण रहता है और जिनको ये विरह-बाण लगते हैं, उनका आपा-अहंकार आदि परिछन्न भाव समाप्त हो जाता है अर्थात् जीव और ब्रह्म का जो द्वैतभाव था, वह सब दूर हो जाता है । इसलिए हे प्रियतम ! वह दिन कब आवेगा, जब यह पूर्वोक्त आनन्द भाव मुझ विरहिनी के हृदय में व्याप्त होगा ॥१२८॥ 
*प्रीतम मारे प्रेम सौं, तिन को क्या मारे ।* 
*दादू जारे विरह के, तिन को क्या जारे ॥१२९॥* 
टीका - हे प्यारे प्रीतम ! विरहीजनों को आपने अपने प्रेम रूपी बाण मारे है, अर्थात् जिनके अविद्या आदिक माया आवरण दूर किए हैं, उनको आप अपने दर्शनों के वियोग में क्यों तड़फाते हो ? हे परमेश्वर ! जो आपकी विरह अग्नि में जले हुए हैं, उन्हें अब अपने दर्शनों के बिना क्यों जलाते हों ? अथवा जिन विरहीजनों के गुण विकार, विरह-भाव से ही जल गए हैं, वे उन गुण विकारों को मारने के लिये और क्या उपाय करेंगे ? जो विरहीजन परमेश्वर के विरह दु:ख से मरे हुए हैं, उन्हें और काल आदिक क्या मारेंगे ? इसी रीति से "दादू जारे विरह के"- इस तुक का भी विकल्पार्थ जानना चाहिए, फिर उनको कोई क्या जलायेगा ?१२९॥ 
विरह पावक उर बसै, नखशिख जारै देह । 
रज्जब ऊपर रहम कर, बरषहु मोहन मेह ॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 6 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१२४-६)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =* 
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*जिहि लागी सो जागि है, बेध्या करै पुकार ।* 
*दादू पिंजर पीड़ है, सालै बारम्बार ॥१२४॥* 
*विरही सिसकै पीड़ सौं, ज्यूं घायल रण माहिं ।*
*प्रीतम मारे बाण भर, दादू जीवै नाहिं ॥१२५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! प्रीतम प्यारे परमेश्वर ने "बाण भर" नाम विरह-भाव रूप मंत्र-तंत्र आदि से सिद्ध करके, विरहीजनों को विरह के बाण मारे हैं, जिससे विरहीजन "जीवै" नहीं अर्थात् संसार विषयों में पुन: आसक्त नहीं होते हैं और "जागि" कहिए, अविद्या-निद्रा से मुक्त होकर "बेध्या" विरह दु:ख से व्याकुल हुए, केवल प्यारे प्रीतम को ही पुकारते हैं । जैसे युद्धक्षेत्र में कोई शूरवीर घायल हो जाये, तो सद्गति के लिए सिसकता है, वैसे ही विरहीजन अपने प्रियतम स्वस्वरूप में अभेद होने के लिए अति व्याकुल हैं ॥१२४-५॥ 
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*दादू विरह जगावे दर्द को, दर्द जगावे जीव ।* 
*जीव जगावे सुरति को, पंच पुकारैं पीव ॥१२६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के दर्शनों के लिए जिन भक्तों को व्याकुलता हो रही है, उनको परमेश्वर का क्षणभर का वियोग भी असह्य प्रतीत होता है । जिससे जीवात्मा माया-प्रपंच की यथार्थता का बोध प्राप्त करके स्वस्वरूप निश्चय में प्रवृत्त होता है और पुन: स्वस्वरूप बोध होने पर जीव की सूक्ष्म संस्काररूप सुरति माया-आवरण को छोड़कर स्वस्वरूप में स्थिर होती है । जिससे चतुर्थ अवस्था में विरहीजनों का पंच तत्वों का बना हुआ समस्त शरीर पीव-पीव पुकारता है अर्थात् रोम-रोम से अन्र्तध्वनि होने लगती है । पंच शब्द से पाँच ज्ञानेन्द्रियों का भी तात्पर्य सम्भव है अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ ब्रह्माकार होकर पीव को पुकारती हैं ॥१२६॥ 
पंच इन्द्री पीव पीव करै, छठा जु सुमिरै मन । 
याही सुरति कबीर की, पाया राम रतन ॥
(क्रमशः)

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१२१-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
*दादू भलका मारे भेद सौं, सालै मंझि पराण ।*
*मारणहारा जाणि है, कै जिहिं लागे बाण ॥१२१॥* 
शब्द-बाण का भाला मर्मस्थान(हृदय) में मार कर आत्मज्ञानी सतगुरु जिज्ञासुओं की जिन विषयों में प्रवृत्ति देखते हैं, उनमें नि:सारता का बोध कराके उनको वैराग्य का उपदेश देते हैं और परमेश्वर के प्रति विरहभाव उत्पन्न करते हैं । जिससे प्राणधारियों के हृदय में असह्यय विरह दु:ख होता है । किन्तु विरहीजनों के उस विरह दु:ख की व्यथा को सद्गुरु या विरहीजन ही जानते हैं और कोई नहीं जानते ॥१२१॥ 
*दादू सो शर हमको मार ले, जिहिं शर मिलिये जाइ ।* 
*निशदिन मारग देखिये, कबहूँ लागे आइ ॥१२२॥* 
टीका - विरहीजन कहते हैं कि हे सतगुरु ! जिस विरह उपदेश से हमें स्वरूप-बोध प्राप्त हो अर्थात् ईश्वर-दर्शन हों, ऐसा आपका विरह उपदेश सदा ही मिलता रहें । प्रतिक्षण हम यही प्रतीक्षा करते हैं कि कब तो आपका विरह उपदेश मिले और कब हम अपने स्वरूप का निश्चय करें ॥१२२॥
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*दादू मारे प्रेम सौं, बेधे साध सुजाण ।* 
*मारणहारे को मिले, दादू बिरही बाण ॥१२३॥* 
टीका - तात्पर्य यह है कि व्यवहारिक मंत्र सिद्धि से अस्त्र-शस्त्र आदि तो लक्ष्य भेदन करके ही अपने स्वामी के पास आ मिलते हैं, किन्तु परमेश्वर के विरह-बाणों का यह स्वभाव है कि विरह-बाण अपने लक्ष्य ही को संग लेकर मारणहारे के पास आ मिलते हैं ॥१२३॥ 
(नोट- अधिकांश वाणियों में उक्त साखी १२६ वीं साखी के बाद लिखी है)
(क्रमशः)

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(११८-१२०)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)" 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 

*= विरह का अंग - ३ =* 
*करणी बिना कथनी*
*दादू अक्षर प्रेम का, कोइ पढ़ेगा एक ।*
*दादू पुस्तक प्रेम बिन, केते पढें अनेक ॥११८॥* 
*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*वेद पुरान पुस्तक पढे, प्रेम बिना क्या होइ ॥११९॥* 
हे जिज्ञासुओं ! अनेक पण्डित लोग, प्रेम के बिना वेद पुराण, धर्म ग्रन्थों के पाठ रोजगार समझकर करते हैं, परन्तु प्रेमपूर्वक निष्काम भाव से कोई विरले ही पाठ पढ़ते हैं । परमेश्वर का विरहरूपी दर्द किसी बिरले पुरुष को ही होता है और बाकी तो सब जीवन-निर्वाह के लिए ही परमेश्वर के प्रेम की कथा वार्ता कहते और सुनते हैं, परन्तु निष्काम प्रेम बिना समस्त वेद पुराण आदि पढ़ने से क्या लाभ है ? केवल उदरपूर्ति हो जाती है । परमेश्वर के दर्शन तो सम्भव हैं नहीं, इसलिए जो निष्काम परमेश्वर के भक्त, प्रेम की पत्रिका पढ़ते हैं वे ही धन्य हैं ॥११८/९॥ 
वेत्ता चारों वेद का, नवधारत जितकाम । 
रामदास इक प्रेम बिन, मिल्यो न मिलि है राम ।
"भगवद्भक्तिहीनस्य नास्ति शास्त्रजपस्तप: । 
अप्राणस्यैव देहस्य मंडनं लोकरंजनं ॥"
"वेदशास्त्रं शतं वापि, तारयन्ति न तं नरम् । 
यस्तु स्वमनसा वाचा, न करोति हरौ रतिम ॥ 
"यथा खरश्चन्दन-भारवाही, 
भारस्य वेत्ता, न तु चन्दनस्य ।
एवं हि शास्त्राणि बहुन्यधीत्य 
चार्थेषु मूढा: खरवद् वहन्ति ॥"
जो मनुष्य भगवन्नाम में प्रेम नहीं करते, उनको वेदशास्त्र भी नहीं तार सकते । उनका जीवन तो बोझ ढोने वाले गदहे की तरह है जो उसकी पीठ पर लदे चन्दन के बोझ को तो अनुभव करता है, किन्तु उसकी सुगन्ध को नहीं जानता ।
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*विरह बाण*
*दादू कर बिन, शर बिन, कमान बिन, मारे खैंचि कसीस ।*
*लागी चोट शरीर में, नखशिख सालै सीस ॥१२०॥*
हे जिज्ञासुओं ! दयालु सतगुरु ने बिना हाथ, बिना बाण, बिना धनुष, कान पर्यन्त खींचकर विरह के बाण मारे हैं, जिससे शरीर में सब चोटों से असह्य चोट लगी है, जो नख से शिखा पर्यन्त विरहीजनों को व्याकुल कर रही है ॥१२०॥ 
सालभद्र बत्तीस तिय, त्यागी नृप जान । 
धना सेठ तिहिं त्याग सुन, षोडश तजी सुजान ॥ 
द्रष्टान्त - सेठ सालभद्र के बत्तीस स्त्रियाँ थीं । उसने सब स्त्रियों को एक-एक बेशकीमती साड़ी लाकर दी । एक दिन सबसे छोटी बहू भूल से वह साड़ी पहनकर शौचालय में चली गई । अत: उसने वह साड़ी भंगिन को दे दी । भंगिन वह साड़ी पहन कर राजा के अन्त:पुर में झाडू लगाने गई तो उस साड़ी को देखकर रानी चकित रह गई । उसने उससे साड़ी देने वाले का नाम पता पूछा । रानी ने राजा से कहा-आप उस सेठ से मिलते हो या नहीं, जो अपनी भंगिन को भी ऐसी साड़ी देता है, जो हमें भी सुलभ नहीं ? राजा ने उस सेठ से मिलने का विचार कर उसके घर सूचना भिजवा दी । राजा की सेठ ने आवभगत की और साथ ही भोजन किया । जाते समय सेठ की माता ने राजा से अपने पुत्र में कोई दोष दिखाई दिया हो तो उसके बारे में पूछा । राजा ने सेठ के तीन दोष बतलाये -
(१) बार-बार आसन बदलना,
(२) बार-बार आँख मींचना
(३) चावलों में एक-एक दाना चुनकर खाना । 
राजा के चले जाने पर माता ने अपने पुत्र से इन दोषों का कारण पूछा, तो सेठ ने कहा -
(१) गद्दे में खरगोश का बाल चुभता था,
(२) आँखों पर खिड़की के काँच का चिलका पड़ता था और
(३) मेरे खाने लायक कोई-कोई चावल का दाना ही था । 
फिर सोचा - मैंने इतनी आवभगत की और व्यवस्था में कितना परेशान व पराधीन रहा, फिर भी दुनिया दोष ही ढूंढती हैं, अत: उसे वैराग्य हो गया और वन में जाकर ईश्वर-भजन करके पूर्ण स्वतन्त्र रहने का निश्चय किया । उसकी स्त्रियों ने उसे बहुत समझाया, पर वह अपने निश्चय पर दृढ़ रहा । अन्त में उसने सब पत्नियों को एक-एक दिन साथ बिताने का अवसर दिया और तेतीसवें दिन वन में जाने का तय हुआ । सालभद्र की बहिन को भी इसकी सूचना दी गई । उसे पत्र मिला, तब वह अपने पति धना सेठ को स्नान करा रही थी । पत्र पढ़ते ही उसकी आँखों में आँसू आ गये । जब गरम-गरम आँसू शरीर पर पड़े तो धना ने ऊपर देखा तो स्त्री रो रही है । पति के पूछने पर उसने अपने भाई के तैतीसवें दिन जंगल जाने की बात बतलाई । धना ने कहा - तेरा भाई कायर है, भजन करने के लिये तो उसे तुरन्त चल देना चाहिये था । पता नहीं, तैंतीसवें दिन प्राण रहे या न रहे । पत्नी ने कहा - क्या आप इस तरह एकदम जा सकते हैं क्या ? यह सुनते ही धना सेठ गीली धोती कंधे पर डालकर वन में ईश्वर-भजन को चला गया । उसके वचन-बाण ही ऐसा लगा ।
(क्रमशः)

सोमवार, 1 अक्टूबर 2012

= विरह का अँग ३ =(११५-७)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू तो पीव पाइये, भावै प्रीति लगाइ ।*
*हेजैं हरि बुलाये, मोहन मंदिर आइ ॥११५॥* 
हे जिज्ञासुजनों ! श्रद्धापूर्वक परमेश्वर में प्रीति लगाओ और मन, सुरति को एकाग्र करने से अपने प्रीतम प्यारे के दर्शन होंगे । जो सब पापों को हरने वाले परमेश्वर स्वरूप हरि हैं, उनका "हेजैं" कहिए, विरह-प्रेम की व्याकुलता से पुकारिये । हे मोहन ! मेरे हृदय रूपी मंदिर में प्रकट हो ॥११५॥* 
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*विरह उपजन*
*दादू जाके जैसी पीड़ है, सो तैसी करै पुकार ।*
*को सूक्ष्म, को सहज में, को मृतक तिहिं बार ॥११६॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिसके हृदय में जैसी विरह की पीड़ा होती है, वह वैसी ही पुकार करता है । जो कनिष्ठ श्रेणी के विरहीजन हैं, वे तो अल्प समय में भगवान् को पुकारते हैं और मध्यम श्रेणी के विरहीजन सहजभाव से पुकारते हैं और उत्तम श्रेणी के विरहीजन तो क्षण भर भी ईश्वर का वियोग नहीं सह सकते, अपितु पुकारते ही रहते हैं । उत्तम विरहीजनों का परमेश्वर के वियोग में उसी क्षण प्राण-पिण्ड का वियोग हो जाता है ॥११६॥ 
उपजणि पंच प्रकार, जीव जग में जिज्ञासी ।
जाके जैसी प्रीति लगन तैसो फल पासी ॥ 
भँवरी बिच्छू सर्प मकोड़ी कीड़ी लागै । 
घटि बधि दर्द सरीर राम रसना जपि जागै ॥ 
पुनि को सूक्ष्म को सहज में को मृतक तिहिं बार जू । 
कहै बालकराम ऐसी दसा सौ देखै दीदार जू ॥
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*विरह लक्षण*
*दर्द हि बूझै दर्दवंद, जाके दिल होवे ।*
*क्या जाणै दादू दर्द की, नींद भरि सोवे ॥११७॥* 
हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के विरहीजन ही भक्तों के असह्य दु:ख को समझते हैं । शेष जो संसारीजन मोह-निद्रा में मग्न हैं, वे परमेश्वर के भक्तों के विरह-दु:ख को क्या समझे ? तात्पर्य यह है कि निद्रा में संसारीजनों को ईश्वर को विरहभाव प्राप्त नहीं होता है, जिससे संसारीजन ईश्वर-विमुख हुए ही भ्रमते हैं ॥११७॥ 
"विद्वानेव हि जानाति विद्वज्जन-परिश्रमम् । 
वन्ध्या किं विजानीयात् शिशु-प्रसव वेदनाम ॥"
"जाकै पैर न फटी बिवाई । 
वह क्या जाने पीर पराई ॥"
(क्रमशः)

रविवार, 30 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(११२-४)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*विरह उपदेश*
*दादू तो पीव पाइये, कश्मल है सो जाइ ।*
*निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहि लखाइ ॥११२॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जैसे दर्पण(शीशा) स्वच्छ हो तो, उसमें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाई देता है । इस प्रकार जिज्ञासुजन अपने अन्त:करण के मल विक्षेप को धोकर आरसी रूपी मन को निष्पाप करके स्वस्वरूप का दर्शन करे ॥११२॥ 
मनस्तु सुखदु:खानां, कारणं विधिबुद्धिन: । 
निर्मले चकृते तस्मिन् सर्वभवति निर्मलम् ॥ 
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*दादू तो पीव पाइये, कर मंझे विलाप ।* 
*सुनि है कबहुँ चित्त धरि, परगट होवै आप ॥११३॥* 
हे जिज्ञासुजनों ! परमात्म देव तुम्हारे हृदय में ही विद्यमान है । उनका अपने आप में ही स्वआत्मरूप से अनुभव करो । किस रीति से ? सो बताते हैं कि अन्तर्गत कहिए, अन्त:करण में ही परमेश्वर का विलाप करिये ॥११३॥
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*दादू तो पीव पाइये, कर सांई की सेव ।*
*काया मांहि लखाइसी, घट ही भीतर देव ॥११४॥* 
हे जिज्ञासुजनों ! भीतर ईश्वर के चिंतन रूप परमेश्वर की सेवा करिये, क्योंकि परम दयालु परमेश्वर सर्वत्र व्यापक हैं । वे अपने विरही भक्तों के विलाप को सुनकर उनकी सेवा को स्वीकार करके परमेश्वर कभी भी प्रकट हो सकते हैं । इसलिए सदैव परमेश्वर की भक्ति में ही लीन रहो ॥११४॥
(क्रमशः)

शनिवार, 29 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१०९-११)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =*
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*बिन ही नैनहुँ रोवाणां, बिन मुख पीड़ पुकार ।*
*बिन ही हाथों पीटणां, दादू बारम्बार ॥१०९॥* 
अर्थात् जैसे धुआँ अग्नि का आदि रूप है तथापि पूर्ण रूप से अग्नि प्रज्वलित हो जाने पर धुआँ अग्नि में विलय हो जाता है । इसी रीति से जब परमेश्वर के विरहीजन भक्त विरह की ऊँची दशा में होते हैं, तो विरही की समस्त लौकिक क्रियाएँ तथा व्यावहारिक आचार-विचार की सुध-बुध जाती रहती है ॥१०९॥ 
प्रीति की रीति नहीं कुछ जानत, 

जाति न पाती नहीं कुल गारो । 
प्रेम के नेम नहीं कछु दीसत, 
लाज न काण लग्यो सब खारो ।
लीन भयो हरि सौं अभि अन्तर, 
आठों ही पहर रहै मतवारो । 
सुन्दर कोउ न जान सकै यह, 
गोकुल गाँव को पैंडो ही न्यारो ॥ 
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*प्रीति न उपजै विरह बिन, प्रेम भक्ति क्यों होइ ।*
*सब झूठै दादू भाव बिन, कोटि करे जे कोइ ॥११०॥* 
परमेश्वर की भक्ति के लिए प्रथम जिज्ञासुजनों में परमेश्वर के दर्शनों का भाव होना चाहिए, तदनन्तर दर्शनों के लिए व्याकुल हो । व्याकुलता की रीति से पुन: प्रीति का परिपक्व कहिए, स्वरूप में प्रेम हो । तत्पश्चात् जिज्ञासुजनों में अनन्य भक्तिभाव उदय होता है । इसलिए हे जिज्ञासुजनों ! परमेश्वर के दर्शनों के भाव बिना भले ही करोड़ों प्रयत्न करो, किन्तु सब व्यर्थ हैं ॥११०॥
विरह मूल हरि भक्ति का, पत्र प्रीति गुन साख । 
"जगजीवन" पुहुप प्रेम रस, फल दरसन रस दाख ॥ 
सुन्दर नफो न वस्तु में, नफो भाव में होइ । 
भाव बिहूँना प्राणियाँ, बैठा पूंजी खोई ॥ 
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*दादू बातों विरह न ऊपजै, बातों प्रीति न होइ ।*
*बातों प्रेम न पाइये, जनि रू पतीजै कोइ ॥१११॥* 
हे जिज्ञासुओं ! विरह की बात करने से विरह उपजता नहीं है और प्रीति एवं प्रेम की बातों से(दिखावटी बातों से) प्रेम पैदा नहीं होता है । और हे जिज्ञासुजनों ! विरह-प्रीति मात्र की केवल बातें करने वाले का विश्वास नहीं करना कि यह वास्तव में विरही तथा प्रेमी भक्त है ॥१११॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१०६-८)


॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
*= विरह का अंग - ३ =* 
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*दादू पीड़ न ऊपजी, ना हम क री पुकार ।*
*ताथैं साहिब ना मिल्या, दादू बीती बार ॥१०६॥* 
हमारे हृदय में न तो भगवान् की विरहरूप पीड़ा उत्पन्न हुई और न हमने आतुरता से अपने प्यारे प्रीतम को कभी पुकारा ही, इसलिए हम अपने प्यारे प्रीतम का साक्षात्कार नहीं कर सके और यह मनुष्य जन्म वृथा ही जा रहा है ॥१०६॥ 
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*अंदर पीड़ न ऊभरै, बाहर करै पुकार ।*
*दादू सो क्यों करि लहै, साहिब का दीदार ॥१०७॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिन जिज्ञासुजनों के हृदय में न तो विरह की पीड़ा उत्पन्न हई और न ही लोक दिखावे में ईश्वर को पुकारते हैं, तो ऐसे विरहीजन परमेश्वर का कैसे दर्शन कर सकते हैं ॥१०७॥ 
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*मन ही मांही झूरणां, रोवै मन ही मांहिं ।*
*मन ही मांहीं धाह दे, दादू बाहर नांहिं ॥१०८॥* 
हे जिज्ञासुओं ! मन में ही व्याकुल होकर विलाप करिये । मन में ही परमेश्वर के लिये रुदन करिये और भीतर ही प्रबल पुकार करो । बाहर कहिए, दुनिया के दिखाने के लिए कुछ भी साधन नहीं करना । विरहीजनों के यही लक्षण हैं ॥१०८॥
(क्रमशः)

बुधवार, 26 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१०४-५)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= विरह का अंग - ३ =
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*दादू चोट बिना तन प्रीति न ऊपजै, औषध अंग रहंत ।*
*जनम लगै जीव पलक न परसै, बूंटी अमर अनंत ॥१०४॥* 
तात्पर्य यह है कि जैसे अंग और अंगी का अभेद है, उसी रीति से जीव और ईश्वर का भी अभेद ही है । इसके अतिरिक्त परमेश्वर का अमर अनन्त स्वरूप है, किन्तु मंदभागी जीव विरह-पीड़ा बिना क्षण भर भी परमेश्वर का स्मरण नहीं करता है ॥१०४॥ 
पीड़ प्राण रोगी नहीं, औषधि नाम न लेहि । 
तो बैद विधाता क्या करै, दारू दरस न देहि ॥ 
आर्त बिन उपजै नहीं, ब्रह्म विरह तन पीर । 
बूंटी निकट सजीवनी, दर्द बिना मन धीर ॥ 
प्यास बिना नहिं नीर जु भावत, 
सागर शुद्ध भरे चहुँ फेरी । 
भूख बिना नहिं भोजन खावत, 
पाक पवित्र बने नहिं हेरी ॥ 
बूंटि न पीवत व्याधि बिना नर, 
औषधि पास रहै बहुतेरी । 
यूं सत संगति पैठि सकै नाहिं, 
जा घट प्राति नहिं हरि केरी ॥ 
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*दादू चोट न लागी विरह की, पीड़ न उपजी आइ ।*
*जागै न रोवै धाह दे, सोवत गई बिहाइ ॥१०५॥* 
हे जिज्ञासुओं ! जिसके हृदय में विरह की चोट नहीं लगी है, उसे ईश्वर के दर्शनों की इच्छा उत्पन्न नहीं होती है । इसलिए संसारीजन अविद्या कहिए, अज्ञान से जागकर नहीं रोते हैं । उन जीवों की आयु अविद्या में सोते-सोते ही बीतती है ॥१०५॥ 
उर आरन कोयला असत, श्वास धवन जिय सार । 
यहु तन ऐरण दुख अगन मन घन वार लुहार ॥ 
आर्त बिन उपजै नहीं, परचा कैसे होइ । 
जगन्नाथ औसर थकां,गाफिल रहहि सोइ ॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

= विरह का अँग ३ =(१०२-३)

॥ दादूराम-सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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= विरह का अंग - ३ = 
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*दादू क्षुधा बिना तन प्रीति न ऊपजै, बहु विधि भोजन नेरा ।*
*जनम लगैं जीव रती न चाखै, पाक पूरि बहु तेरा ॥१०२॥* 
इसी प्रकार द्रष्टान्त में विरह-वैराग्य के बिना आत्मा आनन्द रूपी और भक्ति स्वरूप भोजन को संसारीजन अनुभव नहीं करते हैं । जन्म से मरण पर्यन्त, ईश्वर से विमुख ही बने रहते हैं ॥१०२॥ 
आर्त बिन उपजै नहीं, ब्रह्म नाम सों हेत । 
नाना विधि भोजन किये, क्षुधा बिना नहिं लेत ॥ 
रसना रसहि न लाइये, हिरदै नांही हेत । 
रज्जब रामहिं क्या कहैं, हम ही भये अचेत ॥ 
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*दादू तप्त बिना तन प्रीति न ऊपजै, संग ही शीतल छाया ।*
*जनम लगै जीव जाणैं नाही, तरवर त्रिभुवन राया ॥१०३॥* 
इसी प्रकार जब तक सतगुरु उपदेश से संसारीजन संसार कष्ट को नहीं जानते हैं, तब तक वैराग्य और परमेश्वर में विरहभाव उत्पन्न नहीं होता है । अत: संसारी प्राणी परमेश्वर को जानते हुए भी परमेश्वर से विमुख हुए ही भ्रमते हैं ॥१०३॥ 
दर्द बिना क्यूं देखिये, दरसन दीन दयाल । 
रज्जब विरह वियोग बिन, कहां मिलै सो लाल ॥ 
(क्रमशः)