॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*११. मन को अंग*
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*मन ही जगत रूप होइ करि बिसतर्यौ,*
*मन ही अलख रूप जगत सौं न्यारौ है ।*
*मन ही सकल घट व्यापक अखंड एक,*
*मन ही सकल यह जगत पियारौ है ॥*
*मन ही आकाशवत हाथ न परत कछु,*
*मन के न रूप रेख वृद्ध ही न वारौ है ।*
*सुन्दर कहत परमारथ बिचारै जब,*
*मन मिटि जाइ एक ब्रह्म निज सारौ है ॥२६॥*
॥ इति मन का अंग ॥११॥
*मन के विरोध का लाभ* : यह समस्त जगत् हमारे मन का ही विस्तार है । मन के कारण ही यह समस्त जगत् हमको प्रिय लगता है ।
फिर इस मन के कारण ही इस समस्त शरीर में एक अखण्ड सर्वव्यापक ब्रह्म का दर्शन होता है । मन के कारण वग अलक्ष्य(ब्रह्म) जगत् से भिन्न दीखता है ।
मन इस कारण इस जगत् में हम को आकाशवत् कुछ भी हाथ नहीं लगता(प्राप्त नहीं होता) । इस मन का न कोई रूप है न रेखा है, न कोई इसकी वृद्धि है न कोई अल्पता ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परमार्थ(वास्तविक अर्थ) से विचार किया जाय तो मन में स्थिरता आ जाय, तब उसे इस समस्त जगत् में ब्रह्म ही एक मात्र तत्व दिखायी देगा१॥२६॥
१. यदि इस 'मन के अंग' को श्रीदादूवाणी, रज्जब जी की वाणी तथा जगजीवन जी की वाणी में वर्णित मन के अंगों से मिलाकर पढ़ा जाय तो जिज्ञासु को विशेष आनन्द की अनुभूति होगी । - सं. ॥ मन का अंग सम्पन्न ॥११॥
(क्रमशः)