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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २६

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*मन ही जगत रूप होइ करि बिसतर्यौ,*
*मन ही अलख रूप जगत सौं न्यारौ है ।* 
*मन ही सकल घट व्यापक अखंड एक,*
*मन ही सकल यह जगत पियारौ है ॥* 
*मन ही आकाशवत हाथ न परत कछु,* 
*मन के न रूप रेख वृद्ध ही न वारौ है ।*
*सुन्दर कहत परमारथ बिचारै जब,* 
*मन मिटि जाइ एक ब्रह्म निज सारौ है ॥२६॥* 
॥ इति मन का अंग ॥११॥ 
*मन के विरोध का लाभ* : यह समस्त जगत् हमारे मन का ही विस्तार है । मन के कारण ही यह समस्त जगत् हमको प्रिय लगता है । 
फिर इस मन के कारण ही इस समस्त शरीर में एक अखण्ड सर्वव्यापक ब्रह्म का दर्शन होता है । मन के कारण वग अलक्ष्य(ब्रह्म) जगत् से भिन्न दीखता है । 
मन इस कारण इस जगत् में हम को आकाशवत् कुछ भी हाथ नहीं लगता(प्राप्त नहीं होता) । इस मन का न कोई रूप है न रेखा है, न कोई इसकी वृद्धि है न कोई अल्पता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - परमार्थ(वास्तविक अर्थ) से विचार किया जाय तो मन में स्थिरता आ जाय, तब उसे इस समस्त जगत् में ब्रह्म ही एक मात्र तत्व दिखायी देगा१॥२६॥ 
१. यदि इस 'मन के अंग' को श्रीदादूवाणी, रज्जब जी की वाणी तथा जगजीवन जी की वाणी में वर्णित मन के अंगों से मिलाकर पढ़ा जाय तो जिज्ञासु को विशेष आनन्द की अनुभूति होगी । - सं. ॥ मन का अंग सम्पन्न ॥११॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २५

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*मन ही कै भ्रम तैं जगत यह देखियत,*
*मन ही कौ भ्रम गये जगत बिलात है ।* 
*मन ही कै भ्रम जेवरी मैं उपजत सांप,* 
*मन कै बिचारें सांप जेवरी समात है ॥* 
*मन ही कै भ्रम तै मरीचिका को जल कहै ।* 
*मन ही कै भ्रम सींपि रूपौ सो दिखात है ।* 
*सुन्दर सकल यह दीसै मन की कौ भ्रम,* 
*मन ही कौ भ्रम गये ब्रह्म होइ जात है ॥२५॥* 
*शुद्ध मन के कार्य* : मन के भ्रम के कारण ही यह जगत् चलायमान दीखता है । मन का भ्रम मिट जाने पर जगत् से उत्पन्न सभी भ्रम भी मिट जाते हैं । 
मन के भ्रम के कारण ही मनुष्य को रज्जु में सर्प की भ्रान्ति होती है । जन मनुष्य उसे सम्यग्दृष्टि से देखता है तो उसे वह रज्जुगत सर्वधर्म विनष्ट हो जाता है । 
यह मनुष्य के मन का भ्रम ही है कि उसे मरुमरिचका में जल का भ्रम होता है तथा यह भी उस के मन का भ्रम है कि उस को शुक्ति(सीपी) में रजत भासमान होता है । 
वस्तुतः यह समस्त जगत् मानव का भ्रम ही है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं कि मन का भ्रम मिट जाने पर उस को यह समस्त जगत् ब्रह्ममय दिखायी देता है ॥२५॥
(क्रमशः)

बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २४

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*तौ सो न कपूत कोऊ कतहूं न देखियत,*
*तौ सो न सपूत कोऊ देखियत और है ।* 
*तूं ही आप भूलि महा नीच हूं तैं नीच होइ,* 
*तूं ही आपु जाने तैं सकल सिरमोर है ॥* 
*तूं ही आपु भ्रमै तब भ्रमत जगत देखै,* 
*तेरे थिर भये सब ठौर ही कौ ठौर है ।* 
*तूं ही जीव रूप तूं ही ब्रह्म है आकाशवत,* 
*सुन्दर कहत मन तेरी सब दौर है ॥२४॥* 
*मन के सत् असत् कार्य* : रे मन ! तेरा जैसा कुपुत्र मैंने अन्यत्र कहीं नहीं देखा, न तेरे जैसा सुपुत्र ही कहीं अन्य देखा है । 
तूँ कभी अपने प्रमाद के कारण अत्यधिक हीन से हीन(पतित) बन बैठता है, या फिर कभी अपने सुकृत के कारण सर्वोत्तम(श्रेष्ठ) बन जाता है । 
तूँ स्वयं भ्रांत है, अतः तुझे यह समस्त जगत् भ्रांत(घूमता हुआ) दिखायी देता है । तूँ जब स्थिर हो जाता है तो तुझे यह जगत् भी स्थिर दिखायी देता है, तूँ ही जीवात्मा है, 
तूँ ही आकाश की तरह व्यापक ब्रह्म है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - रे मन ! यह जगत् का भ्रम तेरी चञ्चलता(दोड़) के कारण ही दिखायी देता है ॥२४॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २३

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*एक ही बिटप विश्व ज्यौं कौं त्यौं ही देखियत,*
*अति ही सघन ताके पत्र फल फूल है ।* 
*आगिले झरत पात नये नये होत जात,* 
*ऐसौ याही तरु कौ अनादि काल मूल है ॥* 
*दश च्यारि लोक लौं प्रसरि जहां तहां रह्यौ,* 
*अध पुनि ऊरध सूखमि अरु थूल है ।* 
*कोऊ तौ कहत सत्य कोऊ तौ कहै असत्य,* 
*सुन्दर सकल मन ही कौ भ्रम भूल है ॥२३॥* 
*मन के भ्रम के मूल कारण* : इस 'संसार वृक्ष' को ज्यौं ज्यौं आप देखेंगे त्यों त्यों आप को इस के सभी पत्र पुष्प फल फूल सघन ही दिखायी देंगे ।
इसके पहले आये हुए पत्ते झरते रहते हैं, और नये नये उद्धत होते रहते हैं । इसी तरह, इस संसारवृक्ष की उतपत्ति का काल 'अनादि' कहा जा सकता है । 
यह संसार चौदह लोकों से व्याप्त है, ऊपर भी है, आकार में स्थूल भी है सूक्ष्म भी है । 
कोई इसे सत्य मानता है, कोई असत्य । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमारे मत में हमारे मन का यह उपर्युक्त भ्रम ही इस विश्ववृक्ष का मूल(आदि) कारण है ॥२३॥ 
[यह छन्द चित्रकाव्य में परिगणित है ।]
(क्रमशः)

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २२

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*जोई जोई देषै कछु सोई सोई आहि,*
*जोई जोई सुनै सोई मन ही कौ भ्रम है ।* 
*जोई जोई सूंघै जोई जोई खाई जौ सपर्श होई,* 
*जोई जोई करै सोई ही कौ क्रम है ॥* 
*जोई जोई ग्रहै जोई त्यागै जोई अनुरागै,* 
*जहां जहां जाइ सोई मन ही कौ श्रम है ।*
*जोई जोई कहै सोई सुन्दर सकल मन,* 
*जोई जोई कलपै सु मन ही को ध्रम है ॥२२॥* 
*मन का भ्रम* : यह(मन) जो कुछ देखता है उसी में आसक्त हो जाता है; जो सुनता है उसी को सर्वश्रेष्ठ मान बैठता है । यह उसका भ्रम ही तो है । 
जो सूँघता है, जो खाता है, जो स्पर्श करता है, अर्थात् यह जो कुह भी करता है उसी को अपना श्रेष्ठ कर्म मान बैठता है । 
जो ग्रहण करता है, जिसका त्याग करता है, जिसमें अनुराग(स्नेह) करता है, अर्थात् यह जहाँ जहाँ जाता है उस को ही अपना सर्वश्रेष्ठ श्रम मानता है ।
यह जो कुछ कहता है, उसी को 'सुन्दर' मानता है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - विविध कल्पना करना ही मन का धर्म(स्वभाव) है ॥२२॥
(क्रमशः)

११. मन को अंग ~ २१

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*सुख मांनै दुःख मांनै सम्पति बिपति मांनै,*
*हर्ष मांनै शोक मांनै मांनै रंक धन है ।* 
*घटि मांनै बढ़ि मांनै शुभ हू अशुभ मांनै,* 
*लाभ मांनै हानि मांनै याहि तैं कृपन है ॥* 
*पाप मांनै पुन्य मांनै उत्तम मध्यम मांनै,* 
*नीच मांनै ऊंच मांनै मेरौ तन है ।* 
*सुरग नरक मांनै बंध मांनै मोक्ष मांनै,* 
*सुन्दर सकल मांनै तातैं नांम मन है ॥२१॥* 
*मन का लक्षण* : यह(मन) कहीं सुख मानता है, कहीं दुःख, कहीं सम्पति मानता है, कही विपत्ति; कहीं हर्ष मानता है, कहीं शोक; कभी स्व को निर्धन मानता है, कभी धनवान् । 
कभी अपने को किसी से कम मानता है, कभी किसी से अधिक । कभी किसी को शुभ मानता है, कभी किसी को अशुभ । कभी कहीं लाभ मानता है, कभी कहीं हानि । इसी से यह कृपण(मतिमन्द) कहलाता है ।
यह कहीं पाप मानता है, कहीं पुण्य; किसी को उत्तम मानता है, किसी को ऊँचा । कभी यह अपने शरीर में ही सर्वाधिक ममत्व मान लेता है । 
यह कहीं स्वर्ग मान बैठता है, कहीं नरक; कहीं स्वकीय बन्धन मान बैठता है, कहीं मोक्ष । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमारा यह मन इस तरह की सभी बातें मानता रहता है, अतः इसको 'मन' कहते हैं ॥२१॥
(क्रमशः)

शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ २०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*हाथी कौ सौ कांन किधौं पीपर कौ पांन किधौं,*
*ध्वजा कौ उड़ान कहूं थिर न रहतु है ।* 
*पानी कौ सौ घेरि किधौं पौंन उरझेर किधौं,* 
*चक्र कौ सौ फेरि कोऊ कैसैं कै गहतु है ॥* 
*अरहट माल किधौं चरखा कौ ख्याल किधौं,* 
*फेरि खात बाल कछु सुधि न लहतु है ।* 
*धूम कौ सौ धाव ताकौ राखिबे कौ चाव ऐसौ,* 
*मन कौ सुभाव सु तौ सुन्दर कहतु है ॥२०॥* 
*मन का स्वभाव* : कभी यह(मन) हाथी के कान के समान अल्प चञ्चलता युक्त्त, कभी पीपल के पत्ते जे समान अतिचञ्चलता युक्त्त तथा कभी ध्वजा के समान अस्थिर होता रहता है । 
यह कभी जल, कभी पवन(वायु) तथा कभी वात्याचक्र के समान यथेच्छ गतियाँ धारण करता रहता है । 
कभी अरहट के तथा कभी चरखे के चक्र के समान यह चक्कर लगाता रहता है । इस पर चढ़े बालक की तरह इस को अपनी वास्तविकता का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस मन का स्वभाव ऐसा है कि यह कभी कभी धुएँ की उड़ान को अपनी मुट्ठी में बाँधने जैसा निरर्थक कार्य भी करने लगता है ॥२०॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १९

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*कबहूंक साध होत कबहूंक चोर होत,* 
*कबहूंक राजा होत कबहूंक रंक सौ ।* 
*कबहूंक दीन होत कबहूं गुमांनी होत,* 
*कबहूंक सूधौ होत कबहूंक बंक सौ ॥* 
*कबहूंक कामी होत कबहूंक जती होत,* 
*कबहूंक निर्मल होत कबहूंक पंक सौ ।* 
*मन कौ स्वरूप ऐसौ सुन्दर फटिक जैसौ,* 
*कबहूं क सूर होत कबहूं मयंक सौ ॥१९॥* 
हमारे इस मन का व्यवहार कभी साधुओं के समान सत् हो जाता है, कभी चौरों के समान असत् । कभी यह राजा के समान दानवृत्ति स्वीकार कर लेता है, कभी किसी भिखारी की तरह याच्ञावृति । 
कभी यह असीमित दीनता दिखाने लगता है, कभी अभिमान प्रकट करने लगता है । कभी यह बहुत सरल स्वभाव वाला बन जाता है तो कभी यह दुष्ट(वंक) प्रकृति का । 
कभी यह कामभोगों में लिप्त हो जाता है, कभी यतियों(त्यागियों) का आचरण करने लगता है । कभी विकारों से रहित(स्वच्छ) हो जाता है, कभी मलिन दोषों से युक्त हो जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी इस मन का रूप वस्तुतः स्फटिक के समान स्वच्छ दिखायी देता है, परन्तु कभी यह सूर्य के समान उष्ण तथा कभी चन्द्रमा के समान शीतल प्रतीत होता है ॥१९॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १८

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*कबहूं तौ पांख कौ परेवा कै दिखावै न,*
*कबहूं क धूरि के चांवर करि लेत है ।* 
*कबहूं तौ गोटिका उछारत आकाश ओर,* 
*कबहूं क राते पीरे रंग श्याम शेत है ॥* 
*कबहूं तौ आंब कौ उगाइ करि ठाडौ करै,* 
*कबहूं तौ शीस धर जुदे कर देत है ।* 
*बाजीगर कौ सौ ख्याल सुन्दर करत मन,* 
*सदाई भ्रमत रहै ऐसौ कोऊ प्रेत है ॥१८॥* 
*मन बाजीगर के सदृश* : यह हमारा मन बाजीगर की तरह कभी अपने शरीर पर पक्षी के पंख लगा कर दिखाता है, कभी धूल के कणों से चाँवल के कण बनाने लगता है । 
कभी आकाश में गोलियाँ उछालने लगता है, कभी लाल पीले काले या सफ़ेद रंग की चीजें दिखाने लगता है । 
कभी कृत्रिम आम्रवृक्ष खड़ा कर देता है, कभी किसी के शरीर के निचले भाग(धड़) से शिर को पृथक् कर दिखाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमारे मन के ये सभी समग्र क्रियाकलाप किसी बाजीगर या भूत - प्रेत के समान ही हैं । और यह भूत प्रेत के समान ही सदा इधर उधर घूमता रहता है ॥१८॥
(क्रमशः)

बुधवार, 8 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १७


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग* 
*मनहर छन्द -* 
*कबहूं क हंसि उठै कबहूं क रोइ देत,* 
*कबहूं बकत कहूं अंत हू न लहिये ।* 
*कबहूं क खाइ तौ अघाइ नहिं काहू करि,* 
*कबहूं क कहै मेरे कछु नहिं चाहिये ॥* 
*कबहूं आकाश जाइ कबहूं पाताल जाइ,* 
*सुन्दर कहत ताहि कैसैं करि गहिये ।* 
*कबहूं क आइ लागै कबहूं उतरि भागै,* 
*भूत के से चिन्ह करै ऐसो मन कहिये ॥१७॥* 
*मन भूत-प्रेत के तुल्य* : हमारे इस मन के क्रियाकलाप भूत प्रेत के समान हो गये हैं । 
कभी यह हँसता है, कभी यह रोता है, कभी यह बोलने लगता है तो इतना प्रलाप करने लगता है कि उसकी कोई सीमा ही नहीं दिखायी देती । 
कभी खाने लगता है तो इतना खाता जाता है कि इसका पेट ही नहीं भरता । कभी कहता है कि मझे कुछ नहीं चाहिए, मैं सर्वथा सन्तुष्ट(तृप्त) हूँ । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - कभी आकाश में उड़ता है, तो कभी पाताल की ओर जाने को मुख कर लेता है । कभी स्वस्थ हो जाता है तो कभी चन्चल हो उठता है । ये सब भूत प्रेत से आविष्ट के लक्षण हैं । हमारे मन की यही दशा है ॥१७॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १६

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*जौ मन नारि की ओर निहारत,*
*तौ मन होत है ताहि कौ रूपा ।*
*जौ मन काहु सौं क्रोध करै जब,*
*क्रोधमई हो जाइ तद्रूपा ॥* 
*जौ मन माया ही माया रटै नित,*
*तौ मन डूबत माया के कूपा ।* 
*सुन्दर जौ मन ब्रह्म बिचारत,*
*तौ मन होत है ब्रह्मस्वरूपा ॥१६॥* 
*ब्रह्मचिन्तक मन ब्रह्ममय* : यह मन किसी नारी का रूप देखता है, तो यह उसी पर मुग्ध होता हुआ तन्मय हो जाता है । 
यह(मन) किसी पर क्रोध करता है तो उस समय उसका रूप क्रोधमय हो जाता है । 
यदि यह लोभ के वश में होकर धन की ही दिनरात तृष्णा करता है तो उसी में रम जाता है तब वह उस माया के कूप में डूबने उतराने लगता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यदि यह मन ब्रह्म का चिन्तन करने लगे तो इस को ब्रह्ममय(ब्रह्मरूप) होने में कोई विलम्ब नहीं लगेगा ॥१६॥
(क्रमशः)

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*व्है सब कौ सर मौर ततक्षिन,*
*जौ अभि अन्तरि ज्ञान बिचारे ।*
*जौ कछु और बिषै सुख बंछत,*
*तौ यह देह अमोलिक हारै ॥* 
*छाड़ि कुबुद्धि भजै भगवंत हि,*
*आपु तिरै पुनि और हि तारै ।* 
*सुन्दर तोहि कह्यौ कितनी बर,*
*तूं मन क्यौं नहिं आपु संभारै ॥१५॥* 
रे मन ! जब तूँ आध्यात्मिक तत्वज्ञान पर तत्काल चिन्तन करना आरम्भ कर दे तभी तूँ जगत् में सर्वश्रेष्ठ कहला सकता है । 
तथा उस समय तूँ किसी लौकिक सुख प्राप्ति की इच्छा भी उसके प्रभाव से पूर्ण कर सकता है, परन्तु इससे तेरी यह अमूल्य देह प्राप्ति व्यर्थ ही कहलायगी । 
तूँ अपनी इस सांसारिक तृष्णायुक्त कुमति को छोड़ दे तथा एकमात्र हरिभजन में अपने को लगा दे । इससे दो लाभ होंगे - प्रथम तूँ स्वयं इस भवसागर से पार हो जायेगा, तथा दूसरे तूँ जिसको इस तत्वज्ञान का उपदेश करेगा, वह भी भवसागर से पार हो जायेगा । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मैंने तुझ को कितनी बार समझाया है, तूँ अपने आप को क्योँ नहिं सम्हालता है ॥१५॥
(क्रमशः)

रविवार, 5 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १४

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*कौन सुभाव पर्यौ उठि दौरत,*
*अमृत छाड़ि चचोरत हाडै ।* 
*ज्यौं भ्रम की हथिनी दृग देखत,*
*आतुर होइ परै गज खाडै ॥* 
*सुन्दर तोहि सदा समुझावत,*
*एक हु सीख लगै नहिं रांडे ।* 
*बादि वृथा भटकै निस-बासर,*
*रे मन ! तूं भ्रमबौ किन छांडै ॥१४॥* 
रे मन ! तेरा यह कौन स्वभाव पड़ गया कि तूँ अमृत फल को छोड़कर हड्डियों को चूसने में ध्यान लगा रहा है ! 
जैसे कोई कामोन्मत्त हाथी किसी हथिनी की पुतली(प्रतिमा) को देखने के बाद उस को वास्तविक हथिनी समझ कर उसके पीछे दौड़ता हुआ उसके बन्धन के लिए खोदे गये गड़हे(गर्त) में जा गिरता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - मैं तुझे इतना समझाता रहता हूँ परन्तु तुझे मेरी दी हुई यह शिक्षा उसी तरह प्रभावित नहीं कर पाती; जैसे किसी रंडवै(विधुर) पुरुष के लिये ब्रह्मचर्य(परदारगमननिषेध) की शिक्षा निरर्थक हो जाया करती है । 
अरे ! तूँ यह दिन रात व्यर्त इधर उधर घूमना क्योँ नहीं छोड़ देता ! ॥१४॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १३

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*इन्द्रिनि के सुख चाहत है मन,*
*लालच लागि भ्रमैं शठ यौं ही ।*
*देखि मरीचि भर्यौ जल पूरन,*
*धावत है मृग मूरिख ज्यौं ही ।* 
*प्रेत पिशाच निशाचर डोलत,*
*भूख मरै नहिं धापत क्यौं ही ।* 
*वायु बघूर हिं कौन गहै कर,*
*सुन्दर दौरत है मन त्यौं ही ॥१३॥* 
रे मूर्ख मन ! तूँ इन्द्रिय - सुखों के लोभ में पड़कर इधर उधर वैसे ही घूम रहा है; 
जैसे कोई प्यासा हरिण मृगमरीचिका को जल समझ कर भ्रांत हुआ इधर उधर दौड़ता है । 
तूँ प्रेत, पिशाच एवं निशाचर(राक्षस) के समान कर्म करता हुआ इधर उधर दौड़ रहा है, फिर भी तेरी भूख नहीं मिटती, तुझे तृप्ति नहीं होती । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - जैसे कोई वात्याचक्र(ववंडर = भभूलिया) को मुट्ठी में नहीं पकड़ सकता, उसी तरह रे मन ! तूँ भी इधर उधर व्यर्थ ही भ्रांत हो रहा है ॥१३॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १२


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*कै बर तू मन रंग भयौ शठ,*
*मांगत भीख दसौं दिन डूल्यौ ।*
*कै बर तैं मन छत्र धर्यौ सिर,*
*कांमिनि संग हिंडोरनि झूल्यौ ॥* 
*कै बर तूं मन छीन भयौ अति,*
*कै बर तूं सुख पाइक फूल्यौ ।* 
*सुन्दर कै बर तोहि कह्यौ मन,*
*कौंन गली किहिं मारग भूल्यौ ॥१२॥* 
*मन को उपदेश* : अरे मूर्ख मन ! तूँ कितनी बार इतना कंगाल(निर्धन) हुआ है कि तुझे दशों दिशाओं दौड़ कर भीख माँगनी पड़ी । 
कितनी बार तूँ छत्रधारी राजा बनकर नयनाभिराम नारियों के साथ झूले पर बैठकर झूला है । 
कितनी बार तूँ अत्यधिक क्षीण होकर संकट में पड़ा है, और कितनी बार तूँ अत्यधिक सुख से प्रमुदित हुआ है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - रे मन ! तुझे किस गली या किस मार्ग से चलना है, जिससे तूँ सत्कर्म कर सके - इसे तूँ सर्वथा भूल चुका है ॥१२॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014



॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*श्वान कहूं कि श्रृगाल कहूं कि,*
*बिडाल कहूं मन की मति तैसी ।*
*ढ़ेढ़ कहूं किधौं, डूम कहूं किधौं,*
*भांड कहूं कि भंडाइ दे जैसी ।* 
*चौर कहूं, वटपार कहूं,*
*ठग जाइ कहूं, उपमा कहुं कैसी ।* 
*सुन्दर और कहा कहिये अब,*
*या मन की गति दीसत ऐसी ॥११॥* 
*इसकी किससे तुलना हो* : मैं अपने इस मन को कुत्ता कहूँ, या गीदड़ कहूँ, या बिल्ली कहूँ ! क्योंकि मेरे इस मन की प्रवृत्ति इन्हीं हिंसक पशुओं जैसी हो गयी है । 
या फिर इसे मानव की चाण्डाल जाति में उत्पन्न ढेढ(मृत पशु का चर्म उतारने वाला) या डोम(झाडू लगाने वाला) या भाँड(नाचने वाला) कहूँ ; क्योंकि इसका क्रियाकलाप भडैंत(नाचने) का ही हो गया । 
या फिर इसे चौर कहूँ या लुटेरा कहूँ, या ठग कहूँ, ऐसी जो भी उपमा दी जाय, इस के लिए कम ही है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसके लिये इनमें से जो भी उपमा दी जाय उचित ही लगेगी; क्योंकि इस मन की गति ऐसी ही दिखायी दे रही है ॥११॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

११. मन को अंग ~ १०

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*दौरत है दस हूं दिसि कौं शठ,*
*वायु लगी तब तैं भयौ बैंडा ।* 
*लाज न काज कछू नहिं राखत,*
*सील सुभाव की फौरत मैंडा ॥* 
*सुन्दर सीख कहा कहि देइ,*
*भिदै नहिं बांन छिदै नहिं गैंडा ।* 
*लालच लागि गयौ मन बीखरि,*
*बारह वाट अठारह पैंडा ॥१०॥* 
*इसको उपदेश देना निरर्थक* : यह हमारा मूर्ख मन दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और इसको जिस दुर्गुण की हवा लगती है, उधर ही झुक जाता है ।
तब इसे न शास्त्र की मर्यादा का ध्यान रहता है, न कोई लोक लज्जा ही रहती है । तथा इसका आचार विचार भी मर्यादा का उलंघन कर जाता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसे हम क्या शिक्षा दें ! क्या गैंडा पशु भी किसी बाण से बींधा जा सकता है । 
इस मन के, लोभ के वशीभूत हो जाने से, बारह मार्ग एवं अट्ठारह पगडंडियाँ हो गयी हैं । अर्थात् यह लालचीपन कर इन्हीं पर दौड़ता रहता है ॥१०॥ 
(क्रमशः)

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ९

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*केतक ध्यौंस भये समुझावत,*
*नैकु न मानत है मन भौंदू ।* 
*भूली रह्यौ विषिया सुख में,*
*कछु और न जांनत है शठ दौंदू ॥* 
*आंखि न कांन न नाक बिना सिर,*
*हाथ न पांव नहीं मुख पौंदू ।* 
*सुन्दर ताहि गहै कोऊ क्यौं करि,*
*निकसि जाइ बड़ौ मन लौंदू ॥९॥* 
इस मन को हम कितने दिनों से समझाते चले आ रहे हैं, परन्तु यह मूर्ख मन हमारी शिक्षा को कुछ भी कान पर नहीं धरता । 
यह विषयसुख में इतना आसक्त हो गया है की यह काम के अतिरिक्त किसी अन्य तत्व को दोदा कौवे के तुल्य अपने लिये उपयोगी समझता ही नहीं है । 
इसकी आँख, कान, नासिका, सिर, हाथ, पाँव, मुख एवं पीठ आदि अंगों में से कोई भी अंग नयनाभिराम नहीं हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह मिटटी के लौंदे(पिण्ड) के समान आकृति वाला मन इस शरीर से निकल कर जब चाहे तब बाहर संसार में दौड़ लगाने लगता है, इसे कोई कैसे निगृहित करे ! ॥९॥ 
(क्रमशः)

सोमवार, 29 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ८

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*रंक कौं नचावै अभिलाष धन पाइवै की,*
*निस दिन सौचि करि ऐसैं ही पचतु है ।* 
*राजा ही नचावै सब भूमि हू कौ राज लेव,* 
*और ऊ नचावै जोई देह सौं रचतु है ॥* 
*देवता असुर सिद्ध पन्नग सकल लोक,* 
*कीट पसु पंखी कहू कैसैं कै बचतु है ।* 
*सुन्दर कहत काहु संत की कही न जाइ,* 
*मन कै नचायै सब जगत नचतु है ॥८॥* 
*मन सभी को नचाने वाला* : यह किसी अति दरिद्र को धन पाने की इच्छा जाग्रत् कर यथेच्छ नचाता है । 
किसी राजा में समस्त पृथ्वी को भूमि प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत् कर उसको भी यथेच्छ नाच नचाता है । वे अपनी इस इच्छा की पूर्ति हेतु दिन रात श्रम करते रहते हैं । किसी का नारी देह प्राप्ति की इच्छा जाग्रत् कर उसके लिए नचाता रहता है । 
यों इसकी ओर से देवता, असुर, सिद्ध, नाग(पाताल) आदि लोकवासी कीट, पशु, पक्षी आदि में से कोई नहीं बचा । 
*महात्मा श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - किसी सन्त के विषय में तो हम कह नहीं सकते, शेष संसार के सभी प्राणी इस मन के नचाये हुए काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों के वश में होकर नाच रहे हैं ॥८॥
(क्रमशः)

रविवार, 28 सितंबर 2014

११. मन को अंग ~ ७

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*११. मन को अंग*
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*ठगे जिनि शंकर बिधाता इन्द्र देव मुनि,*
*आपनौ ऊ अधिपति ठग्यौ जिनि चन्द है ।* 
*और जोगी जंगम संन्यासी सेख कौंन गिनै,* 
*सबही कौं ठगत, ठागावै न सुछंद है ॥* 
*तापस ऋषिश्वर सकल पचि पचि गये,* 
*काहू कै न आवै हाथ ऐसौ या पै बंद है ।* 
*सुन्दर कहत बस कौंन बिधि कीजै ताहि,* 
*मन सौ न कोऊ या जगत मांहि रिन्द है ॥७॥* 
*मन एक अनुपम ठग* : जिसने शिव, ब्रह्मा, इन्द्र, देवता, मुनि - सभी को समय समय पर ठगा है, यहाँ तक अपने अधिपति चन्द्रदेव को भी उसने नहीं छोड़ा । 
तथा समय समय पर जितने जोगी, जंगम, सन्यासी, शेख या अन्य कितने साधु महात्माओं की गणना की जाय - इस मन ने सभी को ठगा है, ऐसा कोई नहीं बचा जो इसके द्वारा जो ठगाया न गया हो, इससे स्वच्छन्द(मुक्त) रहा हो । 
बड़े बड़े तपस्वी एवं ऋषि इस का निग्रह करते करते थक गये, किन्तु इसको मल्लविद्या के ऐसे ऐसे दाव पेच आते हैं की उनका प्रयोग करता हुआ, उनमें से किसी के वश में न हो सका । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस मन को किस उपाय से अपने अधीन किया जाये ? हम तो यही समझते हैं कि मन से बढ़कर इस संसार में कोई अन्य शैतान(रिंद) नहीं है ॥७॥
(क्रमशः)