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मंगलवार, 11 जून 2024

*श्रीरामकृष्ण के देह-धारण का अर्थ*

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*पर उपकारी संत जन, साहिब जी तेरे ।*
*जाती देखी आतमा, राम कहि टेरे ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीरामकृष्ण के देह-धारण का अर्थ*
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श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में हैं । शाम हो गयी है, वे अस्वस्थ हैं । ऊपरवाले बड़े कमरे में उत्तर की ओर मुँह किये बैठे हैं । नरेन्द्र और राखाल दोनों पैर दबा रहे हैं । पास ही मणि बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण ने इशारे से उन्हें पैर दबाने के लिए कहा । मणि चरण सेवा करने लगे ।
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आज रविवार है, १४ मार्च १८८६, फागुन की शुक्ला नवमी । गत रविवार को श्रीरामकृष्ण की जन्म-तिथि की पूजा बगीचे में हो गयी है । गत वर्ष दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में बड़े समारोह के साथ जन्म-महोत्सव मनाया गया था । इस वर्ष वे अस्वस्थ हैं । भक्तों के हृदय में विषाद छाया है । इसलिए पूजा और उत्सव नाममात्र के लिए हुए ।
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भक्तगण सदा ही बगीचे में उपस्थित रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा किया करते हैं । श्रीमाताजी दिनरात उनकी सेवा में लगी रहती हैं । किशोर भक्तों में से बहुतेरे सदा ही वहाँ उपस्थित रहते हैं - नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, शरद, शशि, बाबूराम, योगीन, काली, लाटू आदि ।
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जो कुछ अधिक उम्रवाले भक्त हैं, वे प्राय: नित्य आकर श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर जाते हैं । कभी कभी वे रह भी जाते हैं । तारक, सींती के गोपाल भी वहाँ हर समय रहते हैं तथा छोटे गोपाल भी ।
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श्रीरामकृष्ण आज बहुत अस्वस्थ हैं । आधी रात का समय है । ऊपर के हाल में श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । तबीयत बहुत खराब है - आँख नहीं लगती । दो-एक भक्त चुपचाप पास बैठे हुए हैं - इसलिए कि कब कैसी जरूरत हो । एक आध बार झपकी आती है, और श्रीरामकृष्ण सोते हुए से जान पड़ते हैं ।
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मास्टर पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके और भी पास आने के लिए कह रहे हैं । उन्हें इतना कष्ट है कि पत्थर का हृदय भी पानी-पानी हो जाय । वे धीरे धीरे बड़े कष्ट के साथ मास्टर से कह रहे हैं - "तुम लोग रोओगे, इसलिए इतना दुःख भोग कर रहा हूँ । सब लोग अगर कहो कि इतने कष्ट से तो देह का नाश हो जाना ही अच्छा है, तो देह नष्ट हो जाय ।"
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श्रीरामकृष्ण की इन बातों को सुनकर भक्तों का हृदय टूकटूक हो रहा है । वे भक्तों के माता-पिता और रक्षक हैं । वे ऐसी बातें कह रहे हैं ! सब लोग चुप हो रहे ।
गम्भीर रात्रि है । श्रीरामकृष्ण की बीमारी मानो और बढ़ रही है । अब क्या किया जाय ? बहुत सोचकर, भक्तों ने एक आदमी को कलकत्ता भेजा । उसी गम्भीर रात्रि में श्रीयुत उपेन्द्र डाक्टर तथा श्रीयुत नवगोपाल कविराज को लेकर गिरीश काशीपुर के घर में आये ।
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भक्तगण पास बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण जरा स्वस्थ हो रहे हैं - कह रहे हैं - "देह अस्वस्थ है, पंचभूतों से बना शरीर, - ऐसा तो होगा ही !"
गिरीश की ओर देखकर कह रहे हैं, "बहुत से ईश्वरीय रूपों को देख रहा हूँ । उनमें एक यह रूप भी (अपने रूप को) देख रहा हूँ ।"
(क्रमशः)

शनिवार, 8 जून 2024

*मायावाद शुष्क है*

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*हरि तरुवर तत आत्मा, बेली कर विस्तार ।*
*दादू लागै अमर फल, कोइ साधू सींचनहार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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नरेन्द्र तथा अन्य भक्त चुपचाप सुन रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - पर मायावाद शुष्क है । (नरेन्द्र से) मैंने क्या कहा, बतलाओ ।
नरेन्द्र - माया शुष्क है ।
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के हाथ और मुख का स्पर्श करके कहने लगे - "ये सब भक्तों के लक्षण हैं । ज्ञानियों के लक्षण और हैं - मुखाकृति में रूखापन रहता है ।
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"ज्ञान लाभ करने के बाद भी ज्ञानी विद्या-माया को लेकर रह सकता है - भक्ति, दया, वैराग्य, इन सब को लेकर रह सकता है । इसके दो उद्देश्य हैं । पहला, इससे लोक-शिक्षा होती है; दूसरा, रसास्वादन के लिए ।
"ज्ञानी अगर समाधि लगाकर चुप हो जाय, तो लोक-शिक्षा नहीं होती । इसीलिए शंकराचार्य ने ‘विद्या का मैं’ रखा था ।
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"और ईश्वरानन्द का भोग करने के लिए भक्त भक्ति लेकर रहता है ।
'इस 'विद्या के मैं' में या 'भक्ति के मैं' में दोष नहीं है । दोष तो 'बदमाश मैं' में है । उनके दर्शन करने के बाद बालक-जैसा स्वभाव हो जाता है । 'बालक के मैं' में कोई दोष नहीं है, जैसे आईने का प्रतिबिम्ब । वह लोगों को गालियाँ नहीं दे सकता । जली रस्सी देखने ही में रस्सी की तरह है । फूँकने से वह उड़ जाती है । इसी तरह ज्ञानी और भक्त का अहंकार ज्ञानाग्नि में जल गया है । अब वह किसी की क्षति नहीं कर सकता । वह 'मैं' नाममात्र के लिए है ।
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"नित्य में पहुँचकर फिर लीला में रहना । जैसे उस पार जाकर फिर इस पार लौटना । लोक-शिक्षा और विलास के लिए - उनकी लीला में सहयोग देने के लिए ।"
श्रीरामकृष्ण बड़े धीमे स्वर में वार्तालाप कर रहे हैं । वे कुछ देर चुप ही रहे । भक्तों से फिर कहने लगे –
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"शरीर को यह रोग है, परन्तु उसने(माता ने) अविद्यामाया नहीं रखी । देखो न, रामलाल, घर या स्त्री, इनकी मुझे याद भी नहीं आती । हाँ, यदि कोई चिन्ता है तो उसी पूर्ण नामक कायस्थ बालक की - उसी के लिए सोच रहा हूँ । औरों के बारे में तो मुझे कोई चिन्ता नहीं ।
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"विद्या-माया उन्हीं ने रख दी है - लोगों के लिए, भक्तों के लिए ।
"परन्तु विद्या-माया के रहते फिर आना पड़ता है । अवतार आदि विद्या-माया रख छोड़ते हैं । जरासी वासना के रहने पर फिर आना पड़ता है - बार बार आना पड़ता है । सब वासनाओं के मिट जाने पर मुक्ति होती है । भक्त मुक्ति नहीं चाहता ।
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"यदि काशी में किसी का देहान्त हो तो मुक्ति होती है; फिर उसे आना नहीं पड़ता । ज्ञानियों का लक्ष्य मुक्ति है ।"
नरेन्द्र - उस दिन हम लोग महिम चक्रवर्ती के यहाँ गये थे ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) – फिर ?
नरेन्द्र - उसकी तरह का शुष्क ज्ञानी मैंने नहीं देखा ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - क्या हुआ ?
नरेन्द्र - हम लोगों से गाने के लिए कहा । गंगाधर ने गाया - कृष्णगीत । गाना सुनकर उसने कहा, ‘इस तरह का गाना क्यों गाते हो ? प्रेम-प्रेम अच्छा नहीं लगता । इसके अलावा बीबी-बच्चों को लेकर यहाँ रहता हूँ, यहाँ इस तरह के गाने क्यों ?’
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखा, उसे कितना भय है !
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 जून 2024

*ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का समन्वय*

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*बाजी चिहर रचाय कर, रह्या अपरछन होइ ।*
*माया पट पड़दा दिया, तातैं लखै न कोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १३४~श्रीरामकृष्ण कौन हैं ?*
*(१)ज्ञानयोग तथा भक्तियोग का समन्वय*
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श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में भक्तों के साथ बड़े कमरे में रहते हैं । रात के आठ बजे का समय होगा । कमरे में नरेन्द्र, शशि, मास्टर, बूढ़े गोपाल और शरद हैं । आज बृहस्पतिवार है, फाल्गुन की शुक्ला षष्ठी, ११ मार्च, १८८६ ।
श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, जरा लेटे हुए हैं । पास ही भक्तगण बैठे हैं । शरद खड़े हुए पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमारी की बातें कह रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - भोलानाथ के पास जाना, वह तेल देगा; और किस तरह लगाया जाय, यह भी बतला देगा ।
बूढ़े गोपाल - तो कल सबेरे हम लोग जाकर ले आयेंगे ।
मास्टर - यदि कोई आज शाम को जाय तो वही ले आयगा ।
शशि - मैं जा सकता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - (शरद की ओर दिखाकर ) - वह जा सकता है ।
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शरद कुछ देर बाद दक्षिणेश्वर मन्दिर के मुहर्रिर श्रीयुत भोलानाथ मुखोपाध्याय के पास से तेल लाने के लिए गये ।
श्रीरामकृष्ण लेटे हुए हैं । भक्तगण चुपचाप बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एकाएक उठकर बैठे गये । नरेन्द्र के साथ वार्तालाप करने लगे ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - ब्रह्म अलेप हैं । उनमें तीनों गुण हैं; किन्तु फिर भी वे निर्लिप्त हैं ।
"जैसे वायु में सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों मिलती हैं, परन्तु वायु निर्लिप्त है ।
"काशी में रास्ते से शंकराचार्य जा रहे थे । उधर से माँस का भार लेकर चाण्डाल आया और एकाएक उसने इन्हें छू लिया । शंकर ने कहा, 'छू लिया !' चाण्डाल ने कहा, ‘भगवन्, न आपने मुझे छुआ और न मैंने आपको । आत्मा निर्लिप्त है । आप वही शुद्ध आत्मा हैं ।’
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“ब्रह्म और माया । ज्ञानी माया को अलग कर देता है ।
"माया पर्दे की तरह है । यह देखो, इस अँगौछे की आड़ कर देता हूँ । अब तुम दीपक की लौ नहीं देख सकते ।"
श्रीरामकृष्ण ने अपने तथा भक्तों के बीच अंगौछे की आड़ करके कहा, "यह देखो, अब तुम मेरा मुँह नहीं देख सकते ।
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"रामप्रसाद ने जैसा कहा है, 'मसहरी उठाकर देखो –’
"परन्तु भक्त माया को नहीं छोड़ता । वह महामाया की पूजा करता है । शरणागत होकर कहता है, 'माँ, रास्ता छोड़ दो, तुम जब रास्ता छोड़ोगी, तभी मुझे ब्रह्मज्ञान होगा !' जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति - इन तीनों अवस्थाओं को ज्ञानी अस्तित्वहीन कहकर हटा देते हैं । भक्त इन सब अवस्थाओं को लेते हैं - जब तक 'मैं' है, तब तक ये सब हैं ।
"जब तक 'मैं' है, तब तक भक्त देखता है, जीव-जगत्, माया और चौबीस तत्त्व, सब कुछ वे ही हुए हैं ।"
(क्रमशः)

बुधवार, 29 मई 2024

*भक्तों का तीव्र वैराग्य*

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*तुम बिन तारण को नहीं, दूभर यहु संसार ।*
*पैरत थाके केशवा, सूझै वार न पार ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(३)भक्तों का तीव्र वैराग्य*
दूसरे दिन मंगलवार है, ५ जनवरी । दिन के चार बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण शय्या पर बैठे हुए मणि से बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - क्षीरोद अगर गंगासागर जाय, तो उसे एक कम्बल खरीद देना ।
मणि - जी महाराज, जो आज्ञा ।
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श्रीरामकृष्ण - अच्छा, इन लड़कों को भला यह क्या हो रहा है ? कोई पुरी भाग रहा है तो कोई गंगासागर जा रहा है !
“सब घर छोड़-छोड़कर आ रहे हैं ! देखो न नरेन्द्र को । तीव्र वैराग्य के होने पर संसार कुआँ तथा आत्मीय काले साँप जैसे जान पड़ते हैं ।”
मणि - जी, संसार में बड़ा कष्ट है ।
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श्रीरामकृष्ण - जन्म से ही नरक-यन्त्रणा होती है । देख रहे हो न, बीबी और बच्चों को लेकर कितना कष्ट होता है !
मणि - जी हाँ, और आपने कहा था, उनको(बालक भक्तों को) न किसी से लेना है, न देना; इस लेने-देने के लिए ही अटका रहना पड़ता है ।
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श्रीरामकृष्ण - देखते हो न निरंजन को ! उसका भाव है - 'यह ले अपना और इधर ला मेरा ।' बस, और कोई सम्बन्ध नहीं, और कोई खिंचाव नहीं ।
"कामिनी-कांचन, यही संसार है । देखो न, धन होता है तो तुम्हें उसे भविष्य के लिए सुरक्षित रख छोड़ने की सूझती है ।"
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यह सुनकर मणि ठहाका मारकर हँसने लगे । श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।
मणि - रुपया निकालते हुए बड़ा हिसाब पैदा होता है । (दोनों हँस पड़े) आपने दक्षिणेश्वर में कहा था, त्रिगुणातीत होकर अगर कोई संसार में रह सके तो हो सकता है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, बालक की तरह ।
मणि- जी, परन्तु है बड़ा कठिन, बड़ी शक्ति चाहिए ।
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श्रीरामकृष्ण कुछ चुप हैं ।
मणि - कल वे लोग दक्षिणेश्वर में ध्यान करने के लिए गये । मैंने स्वप्न देखा ।
श्रीरामकृष्ण - क्या देखा ?
मणि - देखा, नरेन्द्र आदि संन्यासी हो गये हैं, धूनी जलाकर बैठे हुए हैं । उनके बीच में मैं भी बैठा हुआ हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - मन से त्याग होने से ही हुआ; अगर ऐसा कोई कर सका तो वह भी संन्यासी है ।
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श्रीरामकृष्ण चुप हैं । फिर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - परन्तु वासना में आग लगाओ, तब होगा ।
मणि - बड़ाबाजार में मारवाड़ियों के पण्डित से आपने कहा था, ‘मुझमें भक्ति की कामना है’, - भक्ति की कामना की गणना शायद कामनाओं में नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण - जैसे 'हिंचे' का साग सागों में नहीं गिना जाता, क्योंकि उससे पित्त का दमन होता है ।
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"अच्छा, इतना आनन्द-भाव था, वह सब कहाँ गया ?"
मणि - गीता में जो त्रिगुणातीत अवस्था लिखी है, वही हुई होगी । सत्त्व, रज और तमोगुण आप ही आप काम कर रहे हैं, आप स्वयं निर्लिप्त हैं - सत्त्वगुण से भी आप निर्लिप्त हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, जगन्माता ने मुझे बालक की अवस्था में रखा है ।
"क्या अबकी बार देह न रहेगी ?"
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श्रीरामकृष्ण और मणि चुप हैं । नरेन्द्र नीचे से आये । एक बार घर जायेंगे । वहाँ की व्यवस्था करके आयेंगे ।
पिता के स्वर्गवास के बाद से नरेन्द्र की माँ और भाई बड़े कष्ट में हैं । कभी कभी फाके भी हो जाते हैं । नरेन्द्र ही उनका एकमात्र भरोसा है कि वे रोजगार करके उन्हें खिलायेंगे । परन्तु कानून की परीक्षा नरेन्द्र दे नहीं सके । इस समय उन्हें तीव्र वैराग्य है । इसीलिए आज का प्रबन्ध करने के लिए वे जा रहे हैं । एक मित्र ने उन्हें सौ रुपया कर्ज देने के लिए कहा है । उन्हीं रुपयों से घर के लिए तीन महीने तक के भोजन का प्रबन्ध करके आयेंगे ।
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नरेन्द्र - जरा घर जाता हूँ एक बार । (मणि से) महिम चक्रवर्ती के घर से होकर जाऊँगा, क्या आप चलेंगे ?
मणि की जाने की इच्छा नहीं है । श्रीरामकृष्ण ने उनकी ओर देखकर नरेन्द्र से पूछा – ‘क्यों ?’
नरेन्द्र - उसी रास्ते से जा रहा हूँ, उनके साथ जरा बातें करता ।
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श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं ।
नरेन्द्र - यहाँ के एक मित्र ने सौ रुपये उधार देने के लिए कहा है । उन्हीं रुपयों से घर का तीन महीने के लिए प्रबन्ध करके आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । मणि की ओर उन्होंने देखा ।
मणि - (नरेन्द्र से) - नहीं, तुम लोग चलो, मैं बाद में आऊँगा ।
(क्रमशः)

शनिवार, 25 मई 2024

*नरेन्द्र का तीव्र वैराग्य*

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*विरही जन जीवै नहीं, जे कोटि कहैं समझाइ ।*
*दादू गहिला ह्वै रहै, तलफि तलफि मर जाइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)नरेन्द्र का तीव्र वैराग्य*
शाम हो गयी है, नरेन्द्र नीचे बैठे हुए एकान्त में मणि से अपने प्राणों की विकलता के सम्बन्ध में बातें कर रहे हैं ।
नरेन्द्र - (मणि से) - गत शनिवार को मैं यहाँ ध्यान कर रहा था, एकाएक छाती के भीतर न जाने कैसा होने लगा ।
मणि - कुण्डलिनी का जागरण हुआ होगा ।
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नरेन्द्र - सम्भव है, वही हो । इड़ा और पिंगला का बिलकुल स्पष्ट अनुभव हुआ । हाजरा से मैंने कहा, छाती पर हाथ रखकर देखने के लिए । कल रविवार था, ऊपर जाकर मैं इनसे(श्रीरामकृष्ण से) मिला और सब बातें उन्हें कह सुनायीं ।
मैंने कहा, "सब की तो बन गयी, कुछ मुझे भी दीजिये । सब का तो काम हो गया और मेरा क्या न होगा ?".
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मणि - उन्होंने तुमसे क्या कहा ?
नरेन्द्र - उन्होंने कहा, ‘तू घर का कोई प्रबन्ध करके आ, सब हो जायगा । तू क्या चाहता है ?’
मैंने कहा, 'मेरी इच्छा है, लगातार तीन-चार दिन तक समाधि-लीन रहा करूँ । कभी कभी बस भोजन भर के लिए उठूँ !'
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उन्होंने कहा, ‘तू तो बड़ी नीच बुद्धि का है । उस अवस्था से भी ऊँची अवस्था है । तू गाता भी तो है - जो कुछ है, सो तू ही है ।’
मणि - हाँ, वे तो सदा ही कहते हैं कि समाधि से उतरकर मन देखता है कि वे ही जीव और जगत् हुए हैं । यह अवस्था ईश्वरकोटि की हो सकती है । वे कहते है, जीवकोटि समाधिअवस्था को प्राप्त करते हैं, परन्तु फिर वे वहाँ से उत्तर नहीं सकते ।
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नरेन्द्र - उन्होंने कहा, 'तू घर के लिए कोई व्यवस्था करके आ । समाधिलाभ की अवस्था से भी ऊँची अवस्था हो सकेगी ।'
"आज सबेरे मैं घर गया तो सब लोग डाँटने लगे और कहा, 'तुम क्या इधर-उधर घूमते रहते हो ! कानून की परीक्षा सिर पर आ गयी और तुम्हें न पढ़ना न लिखना - आवारा घूमते फिरते हो !"
मणि - तुम्हारी माँ ने भी कुछ कहा ?
नरेन्द्र - नहीं, वे मुझे खिलाने के लिए व्यस्त हो रही थीं ।
मणि – फिर ?
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नरेन्द्र - दीदी के घर में, उसी पढ़नेवाले कमरे में मैं पढ़ने लगा । पर पढ़ने बैठा तो हृदय में एक बहुत बड़ा आतंक छा गया, जैसे पढ़ना एक भय का विषय हो ! छाती धड़कने लगी ! - इस तरह मैं और कभी नहीं रोया ।
"फिर पुस्तकें फेंककर भागा ! - रास्ते से होकर भागता गया । जूते रास्ते में न जाने कहाँ पड़े रह गये ! धान के पयाल के ढेर के पास से होकर भाग रहा था । देह भर में पयाल लिपट गया । मैं काशीपुर के रास्ते की ओर भाग रहा था ।"
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नरेन्द्र कुछ देर चुप रहे । फिर कहने लगे - “विवेकचूड़ामणि सुनकर मन और बिगड़ गया है । शंकराचार्य लिखते हैं - इन तीन संयोगों को बड़ी ही तपस्या का फल समझना चाहिए, ये बड़े भाग्य से मिलते हैं, - मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रयः ।
"मैंने सोचा, मेरे लिए तीनों का संयोग हो गया है । बड़ी तपस्या का फल तो यह है कि मनुष्य-जन्म हुआ है, बड़ी तपस्या से मुक्ति की इच्छा हुई है, और सब से बड़ी तपस्या का फल यह है कि ऐसे महापुरुष का संग प्राप्त हुआ है !"
मणि- अहा !
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नरेन्द्र - संसार अब अच्छा नहीं लगता । संसार में जो लोग हैं, उनसे भी जी हट गया है । दो-एक भक्तों को छोड़कर और कुछ अच्छा नहीं लगता ।
नरेन्द्र फिर चुप हो रहे । नरेन्द्र के भीतर तीव्र वैराग्य है । इस समय भी प्राणों में उथल-पुथल मची हुई है । नरेन्द्र फिर बातचीत कर रहे हैं ।
नरेन्द्र (मणि के प्रति ) - आप लोगों को तो शान्ति मिल गयी है, परन्तु मेरे प्राण अस्थिर हो रहे हैं । आप ही लोग धन्य हैं ।
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मणि ने कोई उत्तर नहीं दिया । चुप हैं । सोच रहे हैं - श्रीरामकृष्ण ने कहा था, ईश्वर के लिए व्याकुल होना चाहिए, तब उनके दर्शन होते हैं । सन्ध्या के बाद ही मणि ऊपरवाले कमरे में गये । देखा, श्रीरामकृष्ण सो रहे हैं ।
रात के नौ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण के पास निरंजन और शशी हैं । श्रीरामकृष्ण जागे । रह-रहकर वे नरेन्द्र की ही बातें कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र की अवस्था कितने आश्चर्य की है ! देखो, यही नरेन्द्र पहले साकार नहीं मानता था । अब इसके प्राणों में कैसी खलबली मची हुई है, तुमने देखा ? जैसा उस कहानी में है - किसी ने पूछा था, 'ईश्वर किस तह मिल सकेंगे ?' तब गुरु ने कहा, 'मेरे साथ चलो, मै तुम्हें दिखलाता हूँ कि किस तरह की अवस्था में ईश्वर मिलते हैं ।' यह कहकर गुरु ने एक तालाब में उसे ले जाकर डुबो दिया और ऊपर से दबाकर रखा, फिर कुछ देर बाद उसे छोड़कर गुरु ने पूछा - 'कहो तुम्हारे प्राण कैसे हो रहे थे?' उसने कहा, 'प्राण छटपटा रहे थे - मानो अब निकलते ही हों ।'
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"ईश्वर के लिए प्राणों के छटपटाते रहने पर समझना कि अब दर्शन में देर नहीं है । अरुणोदय होने पर, पूर्व में लाली छा जाने पर समझ पड़ता है कि अब सूर्योदय होगा ।"
आज श्रीरामकृष्ण की बीमारी बढ़ गयी है । शरीर को इतना कष्ट है, फिर भी नरेन्द्र के सम्बन्ध में ये सब बातें संकेत द्वारा भक्तों को बतला रहे हैं ।
आज रात को नरेन्द्र दक्षिणेश्वर चले गये । अमावस्या की रात्रि, घोर अन्धकारमयी हो रही है । नरेन्द्र के साथ दो-एक भक्त भी गये । रात को मणि बगीचे में ही हैं । स्वप्न में देख रहे हैं, वे संन्यासियों की मण्डली के बीच में बैठे हुए हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 21 मई 2024

*ईश्वर के लिए नरेन्द्र की व्याकुलता*

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*सारा सूरा नींद भर, सब कोई सोवै ।*
*दादू घायल दर्दवंद, जागै अरु रोवै ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
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*परिच्छेद १३३~भक्तों का तीव्र वैराग्य*
*(१)ईश्वर के लिए नरेन्द्र की व्याकुलता*
श्रीरामकृष्ण काशीपुर के बगीचे में, मकान के ऊपरवाले मँजले में बैठे हुए हैं । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर से श्रीयुत राम चटर्जी उनका कुशल-समाचार लेने के लिए आये थे ।
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श्रीरामकृष्ण मणि के साथ इसी सम्बन्ध में बातचीत करते हुए पूछ रहे हैं – ‘क्या इस समय वहाँ (दक्षिणेश्वर में) ठण्डक ज्यादा है ?’
आज पौष कृष्णा चतुर्दशी, सोमवार है, ४ जनवरी, १८८६ । दिन के चार बजे का समय होगा ।
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नरेन्द्र आये और आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण उन्हें रह-रहकर देख रहे हैं और मुस्करा रहे हैं - मानो उनका स्नेह उछला जा रहा हो । श्रीरामकृष्ण ने मणि से इशारे से कहा कि नरेन्द्र रोये थे । फिर वे चुप हो गये । इसके बाद उन्होंने फिर इशारा किया कि नरेन्द्र घर से रास्ते भर रोते हुए आये थे ।
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सब लोग चुप हैं । अब नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं ।
नरेन्द्र - सोच रहा हूँ, आज वहाँ चला जाऊँ ।
श्रीरामकृष्ण - कहाँ ?
नरेन्द्र - दक्षिणेश्वर के बेलतल्ले में, - वहाँ रात को धूनि जलाऊँगा ।
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श्रीरामकृष्ण - नहीं, वे लोग (पड़ोस में 'मैगनीज' के पदाधिकारी) जलाने नहीं देंगे । पंचवटी बहुत अच्छी जगह है, - बहुत से साधुओं ने वहाँ जप-ध्यान किया है ।
"परन्तु बहुत ठण्डा है, और अँधेरा भी है ।"
सब लोग चुप हैं । श्रीरामकृष्ण फिर बोले ।
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श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से, सहास्य) - तू पढ़ेगा नहीं ?
नरेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण और मणि की ओर देखकर) - एक दवा पाऊँ तो जी में जी आये, - वह दवा ऐसी कि उससे जो कुछ मैने पढ़ा है, सब भूल जाऊँ ।
श्रीयुत गोपाल भी बैठे हुए हैं । उन्होंने कहा - 'साथ मैं भी चलूँगा ।'
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श्रीयुत कालीपद घोष श्रीरामकृष्ण के लिए अंगूर लाये हैं । अंगूरों का डब्बा श्रीरामकृष्ण के पास ही रखा था । श्रीरामकृष्ण भक्तों को अंगूर दे रहे हैं । नरेन्द्र को पहले दिया । फिर प्रसादी बताशों की तरह सब अंगूर लुटा दिये । भक्तों ने, जिसने जहाँ पाया, बीन लिया ।
(क्रमशः)

शनिवार, 18 मई 2024

*श्रीमुखकथित चरितामृत*

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*आत्म उपज आकाश की, सुनि धरती की बाट ।*
*दादू मारग गैब का, कोई लखै न घाट ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीमुखकथित चरितामृत*
श्रीरामकृष्ण - (मणि से) - जब ईश्वर भक्तों के लिए शरीर धारण करके आते हैं, तब उनके साथ साथ भक्त भी आते हैं । उनमें कोई अन्तरंग होते हैं, कोई बहिरंग, और कोई रसददार(आवश्यकताओं को पूरी करनेवाले) होते हैं ।
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"दस ग्यारह साल की उम्र में विशालाक्षी के दर्शन करने के लिए जब मैं गया था, तब मैदान में मेरी पहली भावावस्था हुई थी । कितनी सुन्दर अवस्था थी वह ! मैं बिलकुल बाह्यज्ञान शून्य हो गया था ।
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“जब बाईस-तेईस साल की उम्र थी तब उसने(जगन्माता ने) मुझसे कालीघर (दक्षिणेश्वर) में पूछा - 'क्या तू अक्षर होना चाहता है ?" मैं अक्षर का अर्थ जानता ही न था । पूछने पर हलधारी ने बतलाया, 'क्षर का अर्थ है जीव और अक्षर का अर्थ है परमात्मा ।'
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“जब आरती होती थी, तब मैं कोठी के ऊपर से चिल्लाता था, 'अरे भक्तो, तुम सब कहाँ हो ? आओ, जल्दी आओ । सांसारिक मनुष्यों के बीच में मेरे प्राण निकले जा रहे हैं ।' इंग्लिशमैनों(अंग्रेजी पढ़े आदमियों) से अपना हाल कहा तो उन्होंने बतलाया, 'यह सब मन की भूल है ।' तब, अपने मन में यह कहकर 'शायद ऐसा ही हो' मैं चुप हो गया । परन्तु अब तो वह सब ठीक उतर रहा है । - अब भक्त आकर एकत्रित हो रहे हैं ।
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"फिर माँ ने दिखलाया, पाँच आदमी सेवा करनेवाले हैं । पहला मथुरबाबू है । फिर शम्भु मल्लिक, उसे पहले मैंने कभी नहीं देखा था । भावावेश में मैंने देखा, गोरे रंग का आदमी, सिर पर टोपी पहने हुए । जब बहुत दिनों बाद शम्भु को देखा, तब याद आ गया कि इसी को मैंने भावावस्था में देखा था । सेवा करनेवाले और तीन आदमी अभी ठीक नहीं हुए; परन्तु सब गोरे रंग के हैं ।
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सुरेन्द्र बहुत करके रसददार की तरह जान पड़ता है । यह अवस्था जब हुई, तब ठीक मेरी तरह का एक आदमी आकर मेरी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों को खूब हिला गया । षड्चक्रों के एक-एक पद्म के साथ जिव्हा के द्वारा रमण करता था, ऐसा करने से ही वे अधोमुख पद्म ऊर्ध्वमुख हो गये । अन्त में सहस्रार पद्म विकसित हो गया ।
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"कब किस तरह का आदमी आयेगा, यह पहले ही से माँ मुझे दिखा देती थीं । इन्हीं आँखों से मैं देखा करता था - भावावेश में नहीं । मैंने देखा, चैतन्यदेव का संकीर्तन बकुल वृक्ष से वट वृक्ष की ओर जा रहा है। उसमें मैंने बलराम को देखा था और शायद तुम्हें भी देखा था । मेरे पास बार बार आने से तुममें और चुन्नी में आध्यात्मिक जागृति हुई है ।
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"शशी और शरद को देखा था, ये ईशु के दल में थे ।
"वट वृक्ष के नीचे एक बच्चे को देखा था । हृदय ने कहा, 'तब तो तुम्हारे एक लड़का होगा ?' मैंने कहा, 'मेरे लिए तो सब मातृयोनि है, मेरे लड़का कैसे होगा ?" वह लड़का राखाल है ।
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"मैंने कहा, ‘माँ, जब तुमने मेरी ऐसी ही अवस्था कर दी है तब एक बड़ा आदमी भी मिला दो ।’ इसीलिए मधुरबाबू ने चौदह वर्ष तक सेवा की । और उसने कितना किया ! - साधुओं की सेवा के लिए अलग भण्डार कर दिया; गाड़ी, पालकी, जो वस्तु जिसे देने के लिए मैं कहता था, वह तुरन्त दे देता था ! ब्राह्मणी उसे प्रताप रुद्र* कहती थी । (*प्रताप रुद्र उड़ीसा के राजा तथा श्रीचैतन्य महाप्रभु के भक्त थे । उन्होंने श्रीचैतन्य देव की अत्यन्त श्रद्धा तथा भक्ति के साथ सेवा की थी ।)
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"विजय ने इस रूप के (अपनी ओर इंगित कर) दर्शन किये थे । अच्छा, यह क्या है ? - वह कहता है, तुम्हें इस समय छूने पर जैसा अनुभव होता है, वैसा ही मुझे उस समय हुआ था ।
“लाटू ने गिना, इकतीस भक्त हैं । इतने तो बहुत नहीं हुए । पर हाँ, कुछ भक्त विजय तथा केदार के द्वारा भी बन रहे हैं ।
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“भावावेश में माँ ने दिखलाया, अंतिम दिनों में मुझे पायस खाकर ही रहना होगा ।
“इस बिमारी में वह(श्रीरामकृष्ण की धर्मपत्नी) मुझे एक दिन पायस खिला रही थी । तब यह कहकर मैं रोने लगा, ‘क्या यही मेरा अंतिम दिनों का पायस खाना है, और इतने कष्टपूर्वक !’”
(क्रमशः)

बुधवार, 15 मई 2024

निराकार की ओर

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*हरि जल बरसै बाहिरा, सूखे काया खेत ।*
*दादू हरिया होइगा, सींचणहार सुचेत ॥*
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श्रीरामकृष्ण - एक स्टूल खरीद लाना - यहाँ के लिए । कितना लगेगा ?
मास्टर - जी, दो-तीन रुपये के भीतर आ जायगा ।
श्रीरामकृष्ण - नहाने की चौकी जब बारह आने में मिलती है तो उसकी कीमत इतनी क्यों होगी ?
मास्टर - कीमत ज्यादा न होगी - उतने के ही भीतर हो जायगा ।
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श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कल तो बृहस्पतिवार है - तीसरा पहर अशुभ होगा । क्या तीन बजे से पहले न आ सकोगे ?
मास्टर - जी हाँ, आऊँगा ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यह बीमारी कितने दिनों में अच्छी होगी ?
मास्टर - जरा बढ़ गयी है, कुछ दिन लगेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - कितने दिन ?
मास्टर - पाँच-छ: महीने लग सकते हैं ।
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यह सुनकर श्रीरामकृष्ण बालक की तरह अधीर हो गये । कहते हैं - “कहते क्या हो ?"
मास्टर - जी, मैंने जड़-समेत अच्छी होने के लिए इतने दिन बतलाये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह कहो । अच्छा, ईश्वरी रूपों के इतने दर्शन होते हैं, भाव और समाधि होती है, फिर ऐसी बीमारी क्यों हुई ?
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मास्टर - जी, आपको कष्ट तो बहुत हो रहा है, परन्तु इसका उद्देश्य है ।
श्रीरामकृष्ण - क्या उद्देश्य है ?
मास्टर - आपकी अवस्था में परिवर्तन हो रहा है । निराकार की ओर झुकाव हो रहा है । आपका 'विद्या का मैं' भी नष्ट हुआ जा रहा है ।
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श्रीरामकृष्ण - हाँ, लोक-शिक्षा बन्द हो रही है । अब और नहीं कहा जाता । सब राममय देख रहा हूँ । कभी कभी मन में आता है, किससे कहूँ ? देखो न, यह मकान किराये पर लिया गया, इससे कितने प्रकार के भक्त आ रहे हैं ।
“कृष्णप्रसन्न सेन या शशधर की तरह साइन-बोर्ड तो न लटकाया जायगा कि इतने समय से इतनी समय तक लेक्चर होगा !" (श्रीरामकृष्ण और मास्टर हँसते हैं)
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मास्टर - एक उद्देश्य और है, भक्तों का चुनना । पाँच साल तक तपस्या करके जो कुछ न होता, वह इन्हीं कुछ दिनों में भक्तों को हो गया । उनका प्रेम, उनकी भक्ति आषाढ़ की बाढ़ के समान बढ़ती जा रही है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह तो हुआ । अभी निरंजन घर गया था ।
(निरंजन से) "तू बता, तुझे क्या मालूम पड़ता है ?"
निरंजन - जी, पहले प्यार ही था, परन्तु अब छोड़कर नहीं रहा जाता ।
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मास्टर - मैंने एक दिन देखा था, ये लोग कितना बढ़े-चढ़े हैं ।
श्रीरामकृष्ण - कहाँ ?
मास्टर - एक तरफ खड़ा हुआ श्यामकुरवाले मकान में देखा था । जान पड़ा, ये लोग कितनी बड़ी बाधाओं को हटाकर वहाँ सेवा के लिए आकर बैठे हुए हैं ।
यह बात सुनते ही श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है । कुछ देर तक वे स्तब्ध रहे, फिर समाधिस्थ हो गये ।
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भाव का उपशम होने पर मास्टर से कह रहे हैं - “मैंने देखा, साकार से सब निराकार में जा रहे हैं । और सब बातें कहने की इच्छा हो रही है, परन्तु कहने की शक्ति नहीं है ।
"अच्छा, यह निराकार की ओर का सुझाव केवल लीन होने के लिए है न ?"
मास्टर - ( आवाक् होकर) - जी, ऐसा ही होगा ।
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श्रीरामकृष्ण - अब भी देख रहा हूँ, निराकार अखण्ड सच्चिदानन्द - ठीक इसी तरह ..... परन्तु बड़े कष्ट से मुझे भाव-संवरण करना पड़ रहा है ।
"तुमने जो भक्तों के चुनने की बात कही, वह ठीक है । इस बीमारी में यह समझ में आ रहा है कि कौन अन्तरंग है और कौन बहिरंग । जो लोग संसार को छोड़कर यहाँ पर हैं, वे अंतरंग हैं । और जो लोग एक बार आकर केवल पूछ जाते हैं, 'कैसे हैं, आप महाशय ?" वे बहिरंग हैं ।
"भवनाथ को तुमने देखा नहीं ? श्यामपुकुर में दूल्हा-सा सजकर आया और पूछा – ‘कैसे हैं आप ?’ बस तब से फिर उसने इधर का नाम तक नहीं लिया । नरेन्द्र के कारण ही मैं उसका इतना ख्याल करता हूँ, परन्तु अब उस पर मेरा मन नहीं है ।"
(क्रमशः)

शनिवार, 11 मई 2024

*कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण*

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*तहँ भाव प्रेम की पूजा होइ,*
*जा पर किरपा जानै सोइ ।*
*कृपा करि हरि देइ उमंग,*
*तहँ जन पायो निर्भय संग ॥*
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*परिच्छेद १३२~काशीपुर में श्रीरामकृष्ण*
*(१)कृपासिन्धु श्रीरामकृष्ण*
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श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ काशीपुर में रहते हैं । शुक्रवार, ११ दिसम्बर १८८५ को श्यामपुकुर का मकान छोड़कर उन्हें यहाँ ले आया गया । यहाँ आये आज बारह दिन हो गये । इतनी कठिन बीमारी होते हुए भी उन्हें यही चिन्ता रहती है कि किस तरह भक्तों का कल्याण हो । दिन-रात किसी-न-किसी भक्त के सम्बन्ध में चिन्ता किया करते हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए बालक भक्त क्रमश: काशीपुर में आकर रह रहे हैं । अभी भी बहुतेरे भक्त अपने घर आया जाया करते हैं । गृही भक्त प्रायः रोज आकर देख जाया करते हैं, कभी कभी रात को भी रह जाते हैं ।
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इस समय तक लगभग सभी भक्त एकत्रित हो गये हैं । १८८१ ई. से भक्तों का समागम होने लगा था । अन्त के प्रायः सभी भक्त आ गये हैं । १८८४ ई. के अन्तिम भाग में शरद और शशी ने श्रीरामकृष्ण का प्रथम दर्शन किया था ।
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कालेज की परीक्षा के बाद, १८८५ ई. की मई-जून से वे सदा ही उनके पास आया-जाया करते हैं । गिरीश घोष ने श्रीरामकृष्ण का सर्वप्रथम दर्शन १८८४ ई. के सितम्बर मास में स्टार थिएटर में किया था, शारदा ने १८८४ दिसम्बर के अन्त में, तथा सुबोध और क्षीरोद ने १८८५ अगस्त में ।
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आज बुधवार है, २३ दिसम्बर १८८५ । आज सुबह से प्रेम की मानो लूट मची हुई है । श्रीरामकृष्ण निरंजन से कह रहे हैं, 'तू मेरा बाप है, मैं तेरी गोद में बैठूँगा ।' कालीपद की छाती पर हाथ रखकर वे कह रहे हैं, 'चैतन्य हो', और उनकी ठुड्डी पकड़कर उनका दुलार कर रहे हैं ।
.
कह रहे हैं, 'जिसने हृदय से ईश्वर को पुकारा होगा, जिसने सन्ध्योपासना की होगी, उसे यहाँ आना ही होगा ।' आज प्रातःकाल दो भक्त-स्त्रियों पर भी कृपादृष्टि हो गयी । समाधिस्थ होकर उन्होने अपने पैर से उनका स्पर्श किया ।
.
उस समय उन स्त्रियों की आँखों में आँसू आ गये । एक ने रोते हुए कहा, 'आपकी इतनी कृपा !' सचमुच ही, आज श्रीरामकृष्ण ने प्रेम की लूट मचा रखी है । सींती के गोपाल पर कृपा करने की इच्छा है, इसलिए कह रहे हैं, 'उसे बुला ले आओ ।'
.
सन्ध्या हो गयी है । श्रीरामकृष्ण जगन्माता की चिन्ता कर रहे हैं । कुछ देर बाद बड़े ही धीमे स्वर में दो-एक भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । कमरे में काली, चुन्नीलाल, मास्टर, नवगोपाल, शशी, निरंजन आदि भक्त हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 8 मई 2024

*श्रीकालीपूजा*

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*प्रेम लग्यो परमेश्वर सों तब,*
*भूलि गयो सिगरो घरु बारा ।*
*ज्यों उन्मत्त फिरें जितहीं तित,*
*नेक रही न शरीर सँभारा ॥*
*श्वास उसास उठे सब रोम,*
*चलै दृग नीर अखंडित धारा ।*
*सुंदर कौन करे नवधा विधि,*
*छाकि पर्यो रस पी मतवारा ॥*
===============
*(३)श्रीकालीपूजा*
शरद ऋतु की अमावस्या है, - रात के आठ बजे होंगे । उसी ऊपरवाले कमरे में पूजा का सारा प्रबन्ध किया गया है । अनेक प्रकार के पुष्प, चन्दन, बिल्वपत्र, जवापुष्प, खीर तथा अनेक प्रकार की मिठाइयाँ भक्तगण ले आये हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । चारों ओर से भक्त-मण्डली घेरे हुए बैठी है । शरद, राम, गिरीश, चुन्नीलाल, मास्टर, राखाल, निरंजन, छोटे नरेन्द्र, बिहारी आदि बहुत से भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा - 'धूना ले आओ ।' कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जगन्माता को सब कुछ निवेदित कर दिया । मास्टर पास बैठे हुए हैं ।
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मास्टर की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'सब लोग थोड़ी देर ध्यान करो ।' भक्तगण ध्यान करने लगे । पहले गिरीश ने श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में माला चढ़ायी, फिर मास्टर ने गन्ध-पुष्प चढ़ाये । तत्पश्चात् राखाल ने, फिर राम ने । इसी तरह सब भक्त श्रीचरणों में पुष्प-दल चढ़ाने लगे ।
श्रीचरणों में फूल चढ़ाकर निरंजन 'ब्रह्ममयी' कहकर भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे । भक्तगण 'जय माँ, जय माँ' कह रहे हैं ।
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देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भक्तों की आँखों के सामने ही श्रीरामकृष्ण में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया । उन लोगों ने उनके मुख-मण्डल पर दैवी ज्योति का अवलोकन किया । उनके दोनों हाथ इस प्रकार उठे हुए थे जैसे कि वे भक्तों को वरदान तथा अभय-दान दे रहे हों ।
.
उनका शरीर निश्चल है, बाह्य संसार का उन्हें बिलकुल ज्ञान नहीं । वे उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । क्या इनके भीतर साक्षात् जगन्माता आविर्भूत हुई हैं ? सभी अवाक् हो, एकटक दृष्टि से इस अद्भुत वराभयदायिनी जगन्माता की जीवन्त मूर्ति का दर्शन कर रहे हैं । भक्तगण स्तुतिपाठ कर रहे हैं । पहले एक भक्त गाता है, उसके पीछे सब एक ही स्वर में उसी पद की आवृत्ति करते हैं ।
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गिरीश गा रहे हैं –
(भावार्थ) - देवताओं के बीच वह कौन रमणी चमक रही है, जिसके घने काले केश मेघ-श्रेणी के समान जान पड़ते हैं ? वह कौन है, जिसके रक्तोत्पल युगलचरण शिव की छाती पर विराजमान हैं ? वह कौन है, जिसके नखों में रजनीकर का वास है और जिसके पैरों की दीप्ति सूर्य को भी मात कर रही है ? वह कौन है, जिसके मुख पर मधुर हास्य शोभायमान है ओर जिसका विकट अट्टाहास रह-रहकर दसों दिशाओं को गुँजा दे रहा है ?
.
उन्होंने फिर गाया –
गाना - दीनतारिणी, दुरितहारिणी,
सत्त्व-रजस्तम-त्रिगुणधारिणी ।
सृजन-पालन-निधन-कारिणी,
सगुणा निर्गुण सर्वस्वरूपिणी ।...
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बिहारी गा रहे हैं - (भावार्थ) –
"ऐ श्यामा ! शवारूढ़ा माँ सुनो, मैं तुम्हारे पास अपने हृदय की आन्तरिक कामना व्यक्त करता हूँ । जब मेरी अन्तिम साँस इस देह को छोड़ चलेगी तब, ऐ शिवे, तुम मेरे हृदय में प्रकाशित होना । उस समय, माँ, मैं मन-मन वन-वन घूमकर सुन्दर जवा-कुसुम चुनकर ले आऊँगा, और उसमे भक्ति-चन्दन मिलाकर तुम्हारे श्रीचरणों में पुष्पांजलि दूँगा ।"
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भक्तों के साथ मणि गा रहे हैं - (भावार्थ) –
“ओ माँ ! सब कुछ तुम्हारी ही इच्छा से होता है । ऐ तारा ! तुम इच्छामयी हो ! तुम अपने कर्म आप ही करती हो, पर लोग बोलते हैं 'मैं करता हूँ ।' माँ, तुम हाथी को कीचड़ में फँसा देती हो, पंगु को गिरि लाँघने में समर्थ कर देती हो, किसी को तुम इन्द्रत्वपद दे देती हो, तो किसी को अधोगामी बना देती हो । अम्बे ! मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो; मैं गृह हूँ, तुम गृहिणी हो; मैं रथ हूँ, तुम रथी हो । माँ, तुम मुझे जैसा चलाती हो, वैसा ही चलता हूँ ।"
.
पुनः –
"ऐ माँ, तुम्हारी करुणा से सभी कुछ सम्भव हो सकता है । अलंघ्य पर्वत के समान विघ्न-बाधा भी तुम्हारी कृपा से दूर हो जाती है । तुम मंगलनिधान हो, तुम सभी का मंगल करती हो - सभी को सुख और शान्ति प्रदान करती हो । तो फिर माँ, अपने फलाफल की चिन्ता करके मैं ही क्यों ही क्यों व्यर्थ जला जा रहा हूँ ?"
.
पुनः –
"ओ माँ आनन्दमयी, मुझे निरानन्द न कर देना !....”
पुनः –
"निबिड़ अंधकार में, ऐ माँ, तेरी अरूप-राशि चमक उठती है ।...”
श्रीरामकृष्ण अब प्रकृतिस्थ हो गये हैं । उन्होंने इस गीत को गाने को कहा - "ऐ श्यामा ! सुधातरंगिणी ! नहीं मालूम, तुम कब किस रंग में रहती हो ।"
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इस गाने के समाप्त होने पर श्रीरामकृष्ण 'शिव के साथ सदा ही रंग में रंगी हुई तुम आनन्द में मग्न हो' इस गीत को गाने के लिए आदेश कर रहे हैं ।
भक्तों के आनन्द के लिए श्रीरामकृष्ण कुछ खीर अपने मुख में लगा रहे हैं, परन्तु उसी समय भाव में विभोर हो बिलकुल बाह्य संज्ञाशून्य हो गये ।
.
कुछ देर बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके प्रसाद लेकर बैठकखाने में चले गये । सब एक साथ आनन्दपूर्वक प्रसाद पाने लगे ।
रात के नौ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण ने कहला भेजा, ‘रात हो गयी है, सुरेन्द्र के यहाँ आज कालीपूजा है, तुम लोगों का न्योता है, तुम लोग जाओ ।’
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भक्तगण आनन्द करते हुए सिमला में सुरेन्द्र के यहाँ पहुँचे । सुरेन्द्र ने आदरपूर्वक उन्हें ऊपरवाले बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । घर में उत्सव है, सब लोग गीत और वाद्य के द्वारा आनन्द मना रहे हैं ।
सुरेन्द्र के यहाँ से प्रसाद पाकर लौटते हुए भक्तों को आधी रात से अधिक हो गयी ।
(क्रमशः)

शनिवार, 4 मई 2024

अँधेरे कमरे में बन्द पागल

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*दादू जब लग सुरति सिमटै नहीं,*
*मन निश्‍चल नहीं होहि ।*
*तब लग पीव परसै नहीं,*
*बड़ी विपति यहु मोहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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दिन के दो बजे के लगभग डाक्टर श्रीरामकृष्ण को देखने आये; साथ में अध्यापक नीलमणि भी हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बहुत से भक्त बैठे हुए हैं । गिरीश, कालीपद, निरंजन, राखाल, खोखा (मणीन्द्र), लाटू, मास्टर, आदि बहुतसे भक्त हैं ।
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श्रीराम प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए हैं । डाक्टर से पहले बीमारी और दवा की बातें हो जाने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'तुम्हारे लिए ये पुस्तकें मँगवायी गयी हैं ।' डाक्टर को मास्टर ने दोनों पुस्तकें दे दीं । डाक्टर ने गाना सुनना चाहा । श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पा मास्टर और एक भक्त रामप्रसाद का गाना गा रहे हैं –
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गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ! तुम तो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो...।
गाना - कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों को भी जिनके दर्शन नहीं हो पाते । ....
गाना - ऐ मन, तू खेती करना नहीं जानता । .....
गाना - आ मन, चल घूमने चलें । ...
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डाक्टर गिरीश से कह रहे हैं - 'तुम्हारा वह गाना बड़ा सुन्दर है - वीणावाला - बुद्धचरित का गाना ।' श्रीरामकृष्ण का इशारा पाकर गिरीश और काली दोनों मिलकर गाना सुना रहे हैं –
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गाना - मेरी यह बड़ी ही साध को वीणा है, बड़े यत्नपूर्वक इसके तारों का हार गूँथा गया है । ...
गाना - मैं शान्ति के लिए व्याकुल हूँ, पर वह मिलती कहाँ है ? न जाने कहाँ से आकर कहाँ बहा जा रहा हूँ ।...
गाना - ऐ निताई, मुझे पकड़ो ! मेरे प्राणो में आज न जाने यह क्या हो रहा है !...
गाना - आओ, आओ, ऐ जगाई माधाई, प्राण भरकर, आओ, हरि का नाम लो !...
गाना - यदि तुझे किशोरी राधा का प्रेम लेना है तो चला आ, प्रेम की ज्वार बही जा रही है ।...
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गाना सुनते सुनते दो-तीन भक्तों को भावावेश हो गया । गाना हो जाने पर श्रीरामकृष्ण के साथ डाक्टर फिर बातचीत करने लगे । कल डा. प्रताप मजूमदार ने श्रीरामकृष्ण को नक्स वोमिका(Nux Vomica) दी थी । डाक्टर सरकार को यह सुनकर क्षोभ हो रहा है ।
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डाक्टर - मैं मर तो गया नहीं था ! फिर नक्स वोमिका कैसे दी गयी !
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - तुम क्यों मरोगे ? तुम्हारी अविद्या की मृत्यु हो !
डाक्टर - मेरे किसी समय अविद्या नहीं थी !
डाक्टर ने अविद्या का अर्थ भ्रष्ट-स्त्री समझ लिया था ।
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श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - नहीं जी, संन्यासी की अविद्या-माँ मर जाती है, और विवेक-पुत्र हो जाता है । अविद्या-मां के मर जाने पर अशौच होता है, इसीलिए कहते हैं - संन्यासी को छूना नहीं चाहिए ।
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हरिवल्लभ आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, ‘तुम्हें देखकर आनन्द होता है ।’ हरिवल्लभ बड़े विनयशील हैं । चटाई से अलग जमीन पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को झल रहे हैं । हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं ।
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पास ही अध्यापक नीलमणि बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण उनकी मान-रक्षा करते हुए कह रहे हैं, 'आज मेरा शुभ दिन है ।' कुछ देर बाद डाक्टर और उनके मित्र नीलमणि बिदा हो गये । हरिवल्लभ भी उठे । चलते समय उन्होंने कहा, 'मैं फिर आऊँगा ।'
(क्रमशः)

बुधवार, 1 मई 2024

*भजनानन्द में*

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*साहिब देवै राखणा, सेवक दिल चोरै ।*
*दादू सब धन साह का, भूला मन थोरै ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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*(२)भजनानन्द में*
श्रीरामकृष्ण उसी ऊपरवाले कमरे में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के दस बजे का समय होगा । बिस्तरे पर तकिये के सहारे बैठे हुए हैं, चारों ओर भक्तगण हैं । राम, राखाल, निरंजन, कालीपद, मास्टर आदि बहुतसे भक्त हैं । श्रीरामकृष्ण के भाँजे हृदय मुखर्जी की बात चल रही है ।
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श्रीरामकृष्ण - (राम आदि से) - हृदय अभी भी जमीन जमीन रट रहा है ! जब वह दक्षिणेश्वर में था, तब उसने कहा था, 'दुशाला दो, नहीं तो मैं नालिश कर दूँगा ।'
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"माँ ने उसे दक्षिणेश्वर से हटा दिया । आदमी जब आते थे, तब बस रुपया-रुपया करता था । वह अगर रहता तो ये सब आदमी न आते । इसीलिए माँ ने उसे हटा दिया । 
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“गो, भी पहले पहले उसी तरह किया करता था। नाकभौं सिकोड़ता था । मेरे साथ गाड़ी में कहीं जाना पड़ता था तो देर करने लगता था । दूसरे लड़के अगर मेरे पास आते, तो उसे रंज होता था । उन्हें देखने के लिए अगर मैं कलकत्ते जाता था, तो मुझसे कहता था, 'क्या वे संसार छोड़कर आयेंगे जो उन्हें देखने के लिए जाइयेगा ?'
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उन लड़कों को मिठाई आदि देने से पहले मैं उससे डरकर कहता था, 'तू भी खा और उन्हें भी दे ।' अन्त में मालूम हो गया कि वह यहाँ न रहेगा ।
"तब मैंने माँ से कहा, 'माँ, उसे हृदय की तरह बिलकुल न हटा देना ।' फिर मैंने सुना वह वृन्दावन जायेगा ।
.
"गो. अगर रहता तो इन सब लड़कों का कुछ न होता । वह वृन्दावन चला गया, इसीलिए वे सब लड़के आने-जाने लगे ।"
गो. - (विनयपूर्वक) - पर वैसी कोई बात मेरे मन में नहीं थी, आप सच जानिये ।
राम दत्त - तुम्हारे मन के सम्बन्ध में वे जितना समझेंगे, उतना क्या तुम समझ सकोगे ?
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गो. चुप हो रहे ।
श्रीरामकृष्ण - (गो. से) - तू क्यों ऐसा सोचता है ? मैं तुझे पुत्र से भी अधिक प्यार करता हूँ !....
"अब तू चुप रह ।... अब तुझमें वह भाव नहीं रह गया ।"
भक्तों के साथ बातचीत होने के पश्चात्, उन लोगों के दूसरे कमरे में चले जाने पर श्रीरामकृष्ण ने गो. को बुलवाया और पूछा - 'तूने कुछ और तो नहीं सोच लिया ? गो. ने कहा - 'जी नहीं ।'
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श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, 'आज कालीपूजा है, पूजा के लिए कुछ आयोजन किया जाय तो अच्छा हो । उन लोगों से एक बार कह आओ ।'
मास्टर ने बैठकखाने में जाकर भक्तों से कहा । कालीपद तथा दूसरे भक्त पूजा के लिए प्रबन्ध करने लगे ।
(क्रमशः)

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

*कालीपूजा के दिन भक्तों के संग में*

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*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ बेली का अंग)*
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*परिच्छेद १३१~कालीपूजा तथा श्रीरामकृष्ण*
*(१)कालीपूजा के दिन भक्तों के संग में*
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श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान के ऊपर दक्षिण के कमरे में खड़े हुए हैं । दिन के ९ बजे का समय होगा । आप शुद्ध वस्त्र पहने ललाट में चन्दन की बिन्दी लगाये हुए हैं । मास्टर आपकी आज्ञा पाकर सिद्धेश्वरी काली का प्रसाद ले आये हैं ।
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प्रसाद को हाथ में ले, बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण खड़े हुए उसका कुछ अंश ग्रहण कर रहे हैं और कुछ मस्तक पर धारण कर रहे हैं । प्रसाद ग्रहण करते समय आपने पादुकाओं को पैरों से उतार दिया । मास्टर से कह रहे हैं- "बहुत अच्छा प्रसाद है ।" आज शुक्रवार है, आश्विन की अमावस्या, ६ नवम्बर १८८५ । आज कालीपूजा का दिन है ।
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श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को आदेश दिया था ठनठनिया की सिद्धेश्वरी काली मूर्ति की पुष्प, नारियल, शक्कर और सन्देश चढ़ाकर पूजा करने के लिए । मास्टर स्नान करके नंगे पैर सबेरे पूजा समाप्त करके नंगे पैर ही श्रीरामकृष्ण के लिए प्रसाद लेकर आये हैं ।
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श्रीरामकृष्ण ने मास्टर को रामप्रसाद और कमलाकान्त की संगीत-पुस्तकें खरीद लाने के लिए कहा था । वे डाक्टर सरकार को ये पुस्तकें देना चाहते थे ।
मास्टर कह रहे है - "ये पुस्तकें भी लाया हूँ - रामप्रसाद और कमलाकान्त के गाने की पुस्तकें ।" श्रीरामकृष्ण ने कहा, “डाक्टर के भीतर इन गीतों का भाव संचारित कर देना होगा ।"
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गाना - ऐ मेरे मन ! ईश्वर का स्वरूप जानने के लिए तुम यह कैसी चेष्टा कर रहे हो ? तुम तो अँधेरे कमरे में बन्द पागल की तरह भटक रहे हो ...।
गाना - कौन कह सकता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शनों को भी जिसके दर्शन नहीं हो पाते .....?
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गाना - ऐ मन ! तू खेती करना नहीं जानता । यह मनुष्यजन्म परती जमीन की तरह पड़ा रह गया ! अगर तू खेती करता तो इसमें सोना फल सकता था !......
गाना - आ मन, चल, टहलने चलें । काली-कल्पतरु के नीचे तुझे चारों फल पड़े मिल जायेंगे ।.....
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मास्टर ने कहा, 'जी हाँ ।' श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ कमरे में टहल रहे हैं - पैरों में चट्टी जूता है । इस तरह की कठिन बीमारी, परन्तु फिर भी श्रीरामकृष्ण सदा ही प्रसन्न रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - और वह गाना भी अच्छा है । 'यह संसार धोखे की टट्टी है ।'
मास्टर - जी हाँ ।
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श्रीरामकृष्ण एकाएक चौंक पड़े। पादुकाओं को निकालकर वे स्थिर भाव से खड़े हो गये और गम्भीर समाधि में मग्न हो गये । आज जगन्माता की पूजा का दिन है, शायद इसीलिए बारम्बार उन्हें रोमांच हो रहा है और समाधि में मग्न हो रहे हैं । बड़ी देर बाद एक लम्बी साँस छोड़ मानो बड़े कष्ट से उन्होंने अपना भाव संवरण किया ।
(क्रमशः)

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश

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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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डाक्टर सरकार आये । डाक्टर को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । भाव का कुछ उपशम होने पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “कारणानन्द के बाद है सच्चिदानन्द ! - कारण का कारण !"
डाक्टर कह रहे हैं - "जी, हाँ ।”
श्रीरामकृष्ण - मैं बेहोश नहीं हूँ ।
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डाक्टर समझ गये कि श्रीरामकृष्ण को ईश्वरावेश है । इसीलिए उत्तर में कहा - "हाँ, आप खूब होश में हैं !"
श्रीरामकृष्ण हँसकर गाने लगे - "मैं सुरा-पान नहीं करता, किन्तु 'जय काली' कह-कहकर सुधापान करता हूँ । इससे मेरा मन मतवाला हो जाता है, पर लोग बोलते हैं कि मैं सुरा-पान करके मत्त हो गया हूँ !
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गुरुप्रदत्त रस को लेकर, उसमें प्रवृत्तिरूपी मसाला छोड़कर, ज्ञान-कलार शराब बनाकर भाँड़े में छान लेता है । मूलमन्त्ररूपी बोतल से ढालकर मैं 'तारा-तारा' कहकर उसे शुद्ध कर लेता हूँ; और मेरा मन उसका पान कर मतवाला हो जाता है । प्रसाद कहता है, ऐसी सुरा का पान करने से चारों फलों की प्राप्ति होती है ।"
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गाना सुनकर डाक्टर को भावावेश-सा हो गया । श्रीरामकृष्ण को भी पुनः भावावेश हो गया । उसी आवेश में उन्होंने डाक्टर की गोद में एक पैर बढ़ाकर रख दिया । कुछ देर बाद भाव का उपशम हुआ । तब पैर खींचकर उन्होंने डाक्टर से कहा - "अहा, तुमने कैसी सुन्दर बात कही है ! 'उन्हीं की गोद में बैठा हुआ हूँ । बीमारी की बात उनसे नहीं कहूँगा तो और किससे कहूँगा ?' - बुलाने की आवश्यकता होगी तो उन्हें ही बुलाऊँगा ।"
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यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण की आँखें आँसुओं से भर गयीं । वे फिर भावाविष्ट हो गये । उसी अवस्था में डाक्टर से कह रहे हैं - "तुम खूब शुद्ध हो । नहीं तो मैं पैर न रख सकता !" फिर कह रहे हैं – “'शान्त वही है जो रामरस चखे ।'
"विषय है क्या ? - उसमें क्या है ? - रुपया, पैसा, मान, शरीर-सुख इनमें क्या रखा है ? 'ऐ दिल, जिसने राम को नहीं पहचाना, उसने फिर पहचाना ही क्या ?’”
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बीमारी की इस अवस्था में श्रीरामकृष्ण को भावावेश में रहते देखकर भक्तों को चिन्ता हो रही है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "उस गाने के हो जाने पर मैं रुक जाऊँगा - 'हरि-रस-मदिरा – ’।" नरेन्द्र एक दूसरे कमरे में थे, बुलाये गये ।
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गन्धर्वोपम कण्ठ से नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "ऐ मेरे मन हरि-रस-मदिरा का पान करके तुम मस्त हो जाओ । मधुर हरिनाम करते हुए धरती पर लोटो और रोओ । हरि-नाम के गम्भीर निनाद से गगन को छा दो । 'हरि-हरि' कहते हुए दोनों हाथ ऊपर उठाकर नाचो, और सब में इस मधुर हरि-नाम का वितरण कर दो । ऐ मन, हरि के प्रेमानन्द-रसरूपी समुद्र में रात्रन्दिवा तैरते रहो । हरि का पावन नाम ले-लेकर नीच वासना का नाश कर दो और पूर्णकाम बन जाओ ।”
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श्रीरामकृष्ण - और वह गाना, ‘चिदानन्द-सागर में... ?’
नरेन्द्र गा रहे हैं - (भावार्थ) - "चिदानन्द-सागर में आनन्द और प्रेम की तरंगें उठ रही हैं; उस महाभाव और रासलीला की कैसी सुन्दर माधुरी है ! ....”
डाक्टर सरकार ने गानों को ध्यानपूर्वक सुना । जब गाना समाप्त हो गया तो उन्होंने कहा, "यह गाना अच्छा है - 'चिदानन्द-सागर में ....’”
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डाक्टर को इस प्रकार प्रसन्न देखकर श्रीरामकृष्ण ने कहा, "लड़के ने बाप से कहा, "पिताजी, आप थोड़ीसी शराब चख लीजिये और उसके बाद यदि मुझसे कहेंगे कि मैं शराब पीना छोड़ दूँ, तो छोड़ दूँगा ।' शराब चखने के बाद बाप ने कहा, 'बेटा, तुम चाहो तो शराब छोड़ दो, मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु मैं स्वयं तो अब निश्चय ही न छोडूँगा !'
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(डाक्टर तथा अन्य सब हँसते हैं)
"उस दिन माँ ने मुझे दो व्यक्ति दिखाये थे । उनमें से एक तुम (डाक्टर) थे । उन्होंने यह भी दिखाया कि तुम्हें बहुत ज्ञान होगा, पर वह शुष्क ज्ञान रहेगा । (डाक्टर के प्रति मुस्कराते हुए) पर धीरे-धीरे तुम नरम हो जाओगे ।"
डाक्टर सरकार चुप रहे ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

*श्रीरामकृष्ण तथा ईशु*

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*दादू सिरजनहार के, केते नाम अनन्त ।*
*चित आवै सो लीजिये, यों साधु सुमरैं संत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(२)श्रीरामकृष्ण तथा ईशु*
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के ग्यारह बजे का समय होगा । मिश्र नाम के एक ईसाई भक्त के साथ बातचीत हो रही है । मिश्र की आयु पैंतीस वर्ष की होगी । इनका जन्म ईसाई वंश में हुआ है । बाहर से तो वे साहबी वेश-भूषा धारण किये हुए हैं, परन्तु भीतर गेरुआ वस्त्र पहने हैं ।
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इस समय इन्होंने संसार का त्याग कर दिया है । इनका जन्म-स्थान पश्चिम है । इनके एक भाई के विवाह के दिन इनके दूसरे दो भाइयों की मृत्यु हो गयी थी, तब से मिश्र ने संसार का त्याग कर दिया है । ये Quaker(क्वेकर) सम्प्रदाय के हैं ।
मिश्र - 'वही राम घट-घट में लेटा ।'
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श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र से धीरे-धीरे कह रहे हैं, परन्तु इस ढंग से कि मिश्र भी सुनें – “राम एक ही हैं, परन्तु उनके नाम हजारों हैं ।
“ईसाई जिन्हें गाड(God) कहते हैं, हिन्दू उन्हें ही राम, कृष्ण और ईश्वर कहकर पुकारते हैं । तालाब में बहुत से घाट हैं । हिन्दू एक घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं ‘जल’; ईसाई दूसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'वाटर' (Water); मुसलमान तीसरे घाट में पानी पीते हैं, कहते हैं 'पानी' ।
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“इसी प्रकार जो ईसाइयों का 'गाड'(God) है, वही मुसलमानों का 'अल्ला' है ।”
मिश्र - ईशु मेरी का लड़का नहीं है, ईशु साक्षात् ईश्वर हैं ।
(भक्तों से) "ये (श्रीरामकृष्ण) अभी तो ऐसे दिखते हैं, पर ये साक्षात् ईश्वर हैं । आप लोगों ने इन्हें पहचाना नहीं । मैं पहले ही इनके दर्शन ध्यान में कर चुका हूँ - अब इस समय इन्हें साक्षात् देख रहा हूँ । मैंने देखा था, एक बगीचा है, ये ऊँचे आसन पर बैठे हुए हैं; जमीन पर एक व्यक्ति और बैठे हुए हैं, - वे उतने पहुँचे हुए नहीं थे ।
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“इस देश में ईश्वर के चार द्वारपाल हैं । बम्बई प्रान्त में तुकाराम, काश्मीर में रॉबर्ट माइकेल(Robert Michael), यहाँ ये, और पूर्व बंगाल में एक और हैं ।"
श्रीरामकृष्ण - क्या तुम्हें कुछ दर्शन होता है ?
मिश्र – जी, जब मैं घर पर था, तब ज्योति-दर्शन होता था । इसके बाद ईशु को मैंने देखा । उस रूप की बात अब क्या कहूँ - उस सौन्दर्य के सामने स्त्री का सौन्दर्य खाक है !
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कुछ देर बाद भक्तों के साथ बातचीत करते हुए मिश्र ने कोट और पतलून खोलकर भीतर गेरुए की कौपीन दिखलायी ।
श्रीरामकृष्ण बरामदे से आकर कह रहे हैं - "इसे (मिश्र को) देखा, वीर की तरह खड़ा है ।"
यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण समाधिमान हो रहे हैं । पश्चिम की ओर मुँह करके खड़े हुए वे समाधिमग्न हो गये ।
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कुछ प्रकृतिस्थ होने पर मिश्र पर दृष्टि लगाकर हँस रहे हैं । अब भी खड़े हैं । भावावेश में मिश्र से हाथ मिलाते हुए हँस रहे हैं । हाथ पकड़कर कह रहे हैं, 'तुम जो चाहते हो, वह प्राप्त हो जायगा ।'
श्रीरामकृष्ण ईशु के भाव में हैं ।
मिश्र - (हाथ जोड़कर) - उस दिन से मैंने अपना मन, अपने प्राण, अपना शरीर, सब कुछ आपको समर्पित कर दिया है ।
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श्रीरामकृष्ण भावावस्था में अब भी हँस रहे हैं । वे बैठे । मिश्र भक्तों से अपने सांसारिक जीवन का वर्णन कर रहे हैं । उन्होंने बताया कि किस प्रकार विवाह के समय शामियाना के नीचे गिर जाने से उनके दो भाइयों की मृत्यु हो गयी ।
श्रीरामकृष्ण ने भक्तों से मिश्र की खातिर करने को कहा ।
(क्रमशः)

सोमवार, 22 अप्रैल 2024

God is God

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*ज्यों दर्पण में मुख देखिये, पानी में प्रतिबिम्ब ।*
*ऐसे आत्मराम है, दादू सब ही संग ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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हरिवल्लभ उठे । श्रीरामकृष्ण उनकी खातिर करने के लिए उठकर खड़े हो गये । कह रहे हैं, "बलराम बहुत दुःख करता है । मैंने सोचा, एक दिन जाऊँ, जाकर तुम लोगों से मिलूँ । परन्तु भय भी होता है कि तुम लोग कहीं यह न कहो कि इसे कौन यहाँ लाया !"
हरिवल्लभ - इस तरह की बातें कहीं किसने ? आप कुछ सोचियेगा नहीं ।
हरिवल्लभ चले गये ।
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श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - उसमें भक्ति है; नहीं तो जबरदस्ती पैरों की धूलि क्यों लेता ?
"वह बात जो तुमसे मैंने कही थी कि भाव में मैंने डाक्टर को देखा था तथा एक आदमी और था - यह वही है ! इसीलिए देखो आया !"
मास्टर - जी, सचमुच वह भक्त है ।
श्रीरामकृष्ण - कितना सरल है !
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श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल लेकर मास्टर डाक्टर सरकार के पास शाँकारिटोला आये हुए हैं । डाक्टर आज फिर श्रीरामकृष्ण को देखने जायेंगे । डाक्टर श्रीरामकृष्ण और महिमाचरण आदि की बातें कह रहे हैं ।
डाक्टर - महिमाचरण वह पुस्तक तो नहीं लाये जिसे उन्होंने दिखाने के लिए कहा था । उन्होंने कहा, ‘भूल गया ।’ हो सकता है । मैं भी प्रायः इसी तरह भूल जाता हूँ ।
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मास्टर - उनका अध्ययन बहुत अच्छा है ।
डाक्टर - तो फिर उनकी ऐसी दशा क्यों है ?
श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में डाक्टर कह रहे हैं - "केवल भक्ति लेकर क्या होगा, अगर ज्ञान न रहा ?"
मास्टर - श्रीरामकृष्ण तो कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है; परन्तु उनके ज्ञान और भक्ति से आप लोगों के ज्ञान और भक्ति में बड़ा अन्तर है ।
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"वे जब कहते हैं, ज्ञान के बाद भक्ति है तो उसका अर्थ यह है कि पहले तत्त्वज्ञान होता है और बाद में भक्ति; पहले ब्रह्मज्ञान और बाद में भक्ति; पहले भगवान का ज्ञान, फिर उनके प्रति प्रेम । आप लोगों के ज्ञान का अर्थ है, इन्द्रियजन्य ज्ञान । श्रीरामकृष्ण जिस ज्ञान की चर्चा करते हैं, उसकी परख हमारे मापदण्ड द्वारा नहीं हो सकती । परन्तु आपका ज्ञान तो इन्द्रियजन्य है, उसकी परख हो सकती है ।"
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डाक्टर कुछ देर चुप रहे, फिर अवतार के सम्बन्ध में बातचीत करने लगे ।
डाक्टर - अवतार क्या है ? और पैरों की धूलि लेना, वह क्या है ?
मास्टर – क्यों ? आपही तो कहते हैं कि अपनी साइन्स की प्रयोगशाला में अन्वेषण करते समय ईश्वर की सृष्टि के बारे में सोचने से आपको भावावस्था हो जाती है, और फिर आदमी को देखने से भी आपमें उसी भाव का उद्रेक होता है । अगर यह ठीक है तो ईश्वर को फिर हम सिर क्यों न झुकावें ? मनुष्य के हृदय में ईश्वर है ।
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"हिन्दू धर्म के अनुसार सर्वभूतों में ईश्वर का वास है । यह विषय आपको अच्छी तरह मालूम नहीं है । सर्वभूतों में जब ईश्वर हैं तो मनुष्य को प्रणाम करने में क्या बुराई है ? "श्रीरामकृष्णदेव कहते हैं किसी-किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है । सूर्य का प्रकाश पानी में, आईने में अधिक है । पानी सब जगह है, परन्तु नदी और सरोवर में अधिक है ।
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नमस्कार ईश्वर को ही किया जाता है, मनुष्य को नहीं । God is God, not, man is God. (ईश्वर ही ईश्वर हैं, मनुष्य ईश्वर नहीं ।) "ईश्वर को कोई साधारण विचार द्वारा समझ ही नहीं सकता । सब विश्वास पर अवलम्बित है । ये ही सब बातें श्रीरामकृष्ण कहते हैं ।"
आज डाक्टर ने मास्टर को अपनी लिखी पुस्तक 'मनोविज्ञान - शारीरिक' (Physiological Basis of Psychology) की एक प्रति उपहार-स्वरूप दी ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

*बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*

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*दादू सोइ जन साधु सिद्ध सो, सोइ सकल सिरमौर ।*
*जिहिं के हिरदै हरि बसै, दूजा नाहीं और ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद १३०~सर्वधर्म-समन्वय*
*(१)बलराम के लिए चिन्ता । श्री हरिवल्लभ वसु*
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श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुरवाले मकान में चिकित्सा के लिए भक्तों के साथ ठहरे हुए हैं । आज शनिवार है, आश्विन की कृष्णा अष्टमी, ३१ अक्टूबर १८८५ । दिन के नौ बजे का समय होगा । यहाँ दिन-रात भक्तगण रहा करते हैं, श्रीरामकृष्ण की सेवा के लिए । अभी किसी ने संसार का त्याग नहीं किया है ।
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बलराम सपरिवार श्रीरामकृष्ण के सेवक हैं । उन्होंने जिस वंश में जन्म लिया है, वह बड़ा ही भक्त-वंश है । इनके पिता वृद्ध होकर अब श्रीवृन्दावन में अपने ही प्रतिष्ठित श्रीश्यामसुन्दर कुँज में रहा करते हैं । उनके चचेरे भाई श्रीयुत हरिवल्लभ बसु और घर के दूसरे सब लोग वैष्णव हैं ।
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हरिवल्लभ कटक के सब से बड़े वकील हैं । उन्होंने जब यह सुना कि बलराम श्रीरामकृष्णदेव के पास आया-जाया करते हैं और विशेषकर स्त्रियों को ले जाते हैं, तब वे बहुत नाराज हुए । उनसे मिलने पर बलराम ने कहा था, ‘तुम पहले एक बार उनके दर्शन करो, फिर जो जी में आये मुझे कहना ।’
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अतएव आज हरिवल्लभ आये हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण को बड़े भक्तिभाव से प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण - किस तरह बीमारी अच्छी होगी ? आपकी राय में क्या यह कोई कठिन बीमारी है ?
हरिवल्लभ - जी, यह तो डाक्टर ही कह सकेंगे ।
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श्रीरामकृष्ण – स्त्रियाँ जब मेरे पैरों की धूलि लेती हैं तब यही सोचता हूँ कि भीतर तो वे ही हैं, वे उन्हीं को प्रणाम कर रही हैं । इसी दृष्टि से मैं देखता हूँ ।
हरिवल्लभ - आप साधु हैं, आपको सब लोग प्रणाम करेंगे, इसमें दोष क्या है ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, वह हो सकता था अगर ध्रुव, प्रह्लाद, नारद, कपिल, ये कोई होते; पर मैं क्या हूँ ? अच्छा आप फिर आइयेगा ।
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हरिवल्लभ - जी, हम लोग आप ही खिंचकर आयेंगे, आप कहते क्यों है ?
हरिवल्लभ बिदा होंगे, प्रणाम कर रहे हैं । पैरों की धूलि लेने जा रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पैर हटा लिये । परन्तु हरिवल्लभ ने छोड़ा नहीं, जबरदस्ती उन्होंने पैरों की धूलि ली ।
(क्रमशः)