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गुरुवार, 24 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/५७-८) =

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🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
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रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*करत करत अक्षर का जोरा,*
*निशा वितीत प्रगट भयो भोरा ।*
*सुन्दरदास गुरुमुख जाना,*
*खिरै नहिं तासौं मन माना ॥५७॥*
महाराज कहते हैं - इस तरह प्रत्येक अक्षर पर विचार करते-करते हमारा अज्ञानान्धकार विनष्ट हो गया । ज्ञानरूपी प्रभात के सूर्य का उदय हो गया । इन अक्षरों का यह सूक्ष्म अर्थ हमने अपने गुरु से जाना है । ये अक्षर कभी खिरते नहीं, मिटते नहीं, इसलिये इन्हें अक्षर कहते हैं । अर्थात् ये अव्यय(अविनाशी) ईश्वर के बोधक हैं ॥५७॥
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*क्षर मांही अक्षर लिख्या,*
*सतगुरु के जु प्रसाद ।*
*सुंदर ताहि विचारतैं,*
*छूटा सहजि विषाद ॥५८॥*
हमने गुरु-कृपा से हर रोज लिखे तथा मिटाये जाने वाले वर्णों का वास्तविक स्थायी अक्षरत्व समझ लिया । उसी अक्षरत्व के निरन्तर चिन्तन से हमारे सांसारिक दुःख द्वंद्व सहज ही मिट गये-- ऐसा हमारा विश्वास है ॥५८॥
॥ यह बावनी नामक ग्रन्थ समाप्त ॥

बुधवार, 23 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/५५-६) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*क्षक्ष्क्षा क्षिरि क्षिरि गये अनेक,*
*क्षण क्षणमाहि खबरि करि एका ।*
*क्षर संसार क्षाल जिनि कीया,*
*क्षालि सही खराकरि लीया ॥५५॥*
*(क्ष)* 'क्ष' कहता है कि पता नहीं आज तक इस संसार में कितने आये और तिल-तिल होकर बिखर गये । हमारा भी यही हाल होगा । अतः प्रतिक्षण उसी एक ब्रह्म में अपने चित्त को लगाये रखना चाहिये । इस संसार में डुबकी लगाने से जो बच गया वही होशियार(सावधान) है, उसी के सम्यक कर्म का पालन किया है ॥५५॥
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*ज्ञान उहै कोई जो पावै,*
*ज्ञाताकै हृदये ठहरावै ।*
*ज्ञेय वस्तुकौ जावै सोई,*
*ज्ञानी उहै और वहि कोई ॥५६॥*
*(ज्ञ)* उस ब्रह्मज्ञान को कोई बिरला ही प्राप्त कर सकता है और उसे प्राप्त कर जिज्ञासु(शिष्य) के ह्रदय में बैठा देना और भी दुष्कर कार्य है । जो ज्ञेय वस्तु(ब्रह्म, परम तत्व) को जानता है, हम उसे ही ज्ञानी कह सकते हैं । अन्य तो पाखण्ड का बाना(वेश) धारण किये हुए हैं ॥५६॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/५३-४) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*शश्शा साहिब सेवक संगा,*
*शुरति करै जब सिमटै अंगा ।*
*शो रस पिस्याहोइ ऐसा,*
*शंकर शेख रसिक है जैसा ॥५३॥*
*(श)*  सेवक को लययोग से अपने चित्त तथा इन्द्रियों की वृत्ति को समेट कर स्वामी(ब्रह्म) के आकार को धारण करने की चेष्टा करते रहना चाहिए । साधक उस ज्ञानामृत रस का इस तरह पान करे जैसे शंकर तथा शेष नाग ने किया था(शिव तथा शेषनाग की हरिभक्तों में श्रेष्ठता प्रसिद्ध है ।) ॥५३॥
*हह्हा हौणहार परि राखै,*
*हरखि हरखि करि हरिरस चाखै ।*
*हाल हाल होइ हेत लगावै,*
*हसि हसि हलैं हंस मिलावै ॥५४॥* 
*(ह)* साधक को अपने इस नश्वर देह की रक्षा का भार अपने प्रारब्ध पर छोड़ मुदित हो, निरन्तर हरिनामामृत का पान करना चाहिये । वह प्रतिक्षण उस भगवान् में चित्तवृत्ति लगाये रख कर भक्तिमग्न हो बेसुध होता रहे । और प्रसन्नतापूर्वक प्राणायाम-क्रिया द्वारा 'हंस' की साधना करे ॥५४॥
(क्रमशः)

सोमवार, 21 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/५१-२) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*सस्सा स्वेत पीत नहिं स्यामा,*
*सकल सिरोमनि जिसका नामा ।*
*संसकारतैं सुमरै कोई,*
*सोधे मूल सुखी सो होई ॥५१॥*
*(स)* वह ब्रह्म निरुप है । न उसमें श्वेत वर्ण है न पीत वर्ण, और न वह श्याम वर्ण वाला है । उसी का नाम संसार में सर्वमूर्धन्य है । कोई अच्छे सस्कारों वाला साधक ही उसकी भक्ति में लीन हो पाता है और मूलतत्व को खोजकर अनन्त सुख को प्राप्त होता है ॥५१॥
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*षष्षा खतकौ फाड़ि जवावै,*
*खोडि तजै खोटा नही खावै ।*
*खुसी होइ खग चडि आकाशा,*
*खाई अभख तब निहचल वासा ॥५२॥*
*'ष'* अक्षर(जिसे सन्त-साहित्य की लिपि में प्रायः 'ख' बोला जाता है) से हम यह जान पाते हैं कि साधक तप और ज्ञान के सहारे संचित(प्रारब्ध) कर्मों का नाश कर दे । कुस्वभाववाली इन्द्रियों की वृत्ति के चक्कर में न फँसे, उनसे धोखा न खावे । जो पक्षी रूपी प्राणी हर्षपूर्वक आकाश(आत्म-लोक) में विचर कर अपने आपे को मार लेता है तो वह निश्चल शान्ति का अधिकारी हो जाता है ॥५२॥
(क्रमशः)

रविवार, 20 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/४९-५०) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*लल्ला लगिकरि उठे भभूका,*
*लंबा गुरु लगावे लूका ।*
*लूंटी लाटि लोगनिकौ खाई,*
*लंका छोड़ प्रलंका जाई ॥४९॥* 
*(ल)* 'ल' अक्षर कहता है कि जब साधक के हृदय में तत्वज्ञान प्राप्त करने की अति तीव्र ललक उठ पड़ती है तो सद्गुरु उसे ज्ञानोपदेशाग्नि से और अधिक प्रज्वलित कर देते हैं । यह ज्ञानाग्नि-ज्वाला चित्त तथा इन्द्रियों की वृत्तियों को तथा प्रारब्ध कर्मों को जलाकर खाक कर देती है, जैसे हनुमान् ने लंका को लूटकर फिर जलाकर खाक कर डाला था । और साधक की वे सब चित्तवृत्तियाँ तथा कर्म सदा के लिये प्रलीन हो जाते हैं ॥४९॥
*वव्वा वोरा ज्यूं गरि जावै,*
*वैसा होय उसी लय लावै ।*
*वासों कोई कहे न जूवा,*
*वाहि वाहि करि वाहि हूवा ॥५०॥* 
*(व)* 'व' से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जैसे पानी से उत्पन्न ओला थोड़ी देर में गल जाता है और पानी के ही आकार का होकर उसी में मिल जाता है, इसी तरह साधक को अपना स्वत्व मिटाकर लययोग से ब्रह्माकार होने की साधना करनी चाहिये कि उसे कोई उस ब्रह्म से भिन्न न कह सके और उसका नाम लेते-देते तदाकार ही हो जाय ॥५०॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 19 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/४७-८) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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यय्या याकौ याही पावै, याहि पकरि याकै घर ल्यावै ।
याकौ याही बेरी होई, याकौ इहै मित्र है सोई ॥४७॥ 
(य) 'य' अक्षर का विचार यों समझना चाहिये--इस(परमात्मा) को यही(जीवात्मा ही) प्राप्त कर सकता है । यह परमात्मा ही इसको पकड़कर स्वरूप में स्थित करा सकता है; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है, और आत्मा ही आत्मा का शत्रु ॥४७॥
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रर्रा रती रती समुझाय, रे रे रंक सुमरि लै राया ।
रमित राम रह्या भरपुरा, राखि रिदे प्रण छाडि न सूरा ॥४८॥ 
(र) 'र'कार संसार में फँसे प्राणी को अधिक से अधिक बार सूक्ष्मता से समझता है कि, रे तत्वज्ञान की पूँजी से विहीन दरिद्र ! तूँ उस घट-घट व्यापक जगन्नियन्ता परमात्मा, जो हर तरह से भरा पूरा है(अतः तेरी सब इच्छाओं पूर्ण कर सकता है), के चिन्तन में ध्यान लगा और इस निश्चय से न डिग । क्योंकि वीर लोग अपने एक बार किये प्रण(दृढ़ निश्चय) से 
डिगा नहीं करते ॥४८॥ 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/४५-६) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*भभ्भा भया सिंधु का मेला,*
*भारी भेट बूझि लै चेला ।*
*भिष्टाभोजन भरि भरि खाई,*
*भंडारा गुरु बांट्या आई ॥४५॥*
*(भ)* 'भ' कहता है कि रे साधक ! सिद्ध पुरुषों का मेला लगा हुआ है, तूँ भी उनका सत्संग कर अपना भाग्य आजमा ले । और तुझे जो त्वचिन्तन में शंका-सन्देह हो उनकी बारे में पूछ कर अपना भ्रम-निवारण कर ले । उनका साथ करने का एक लाभ यह भी मिलेगा कि वहाँ रहने से उतने दिन भिक्षा की चिन्ता नहीं रहेगी; क्योंकि वे भरपेट भोजन-भिक्षा(ज्ञान-भिक्षा) बिना माँगे ही सत्पात्र को देने के लिये लालायित रहते हैं । वे गुरुदेव इतने दयालु हैं ॥४५॥
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*मम्मा मरि ममता मति आनै,*
*मोम होइ तब मेरम जाने ।*
*मदही मान मैल होइ दूरी,*
*मनमैं मिलै सजीवनि मूरी ॥४६॥*
*(म)* 'म' अक्षर कहता है कि साधक को संसार के प्रति मोह-ममता का त्याग कर देना चाहिये । और गुरु के सामने मोम की तरह मृदु(कोमल, विनीत) व्यवहार रखना चाहिये, ताकि वे प्रसन्न होकर मर्म की बात(ब्रह्मज्ञान) समझा सकें । यदि तूँ दृढ़ता से मेरी बात मानकर अपनी इन्द्रियों की वृत्तियों का मर्दन(दमन) कर अभिमानरूपी मन का मैल धो डालेगा तब अन्तर्मुख होने पर तुझे अमर बनाने वाली सञ्जीविनी बूटी(ब्रह्मज्ञान) प्राप्त हो जायगी ॥४६॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/४३-४) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*फफ्फा फूल बिना फल चाखै,*
*फल जाई तौ फिरिकरि नाखै ।*
*फटकि पिछीडि झारि चतुराई,*
*फूकि देह सब मानि बढाई ॥४३॥*
*(फ)* 'फ' कहता है कि साधक फूल(माया-प्रपंच) का संग और उसमें तृष्णा न करे तो वह फल(ईश्वर) को प्राप्त कर सकता है । यदि वह साधना करते-करते फूल के चक्कर(माया के प्रभाव) में पड़ जायगा तो वह साधना से पतित होकर पथभ्रष्ट भी हो सकता है । साधक को चाहिये कि अपने साधनाभ्यास से परम तत्व को प्राप्त कर ले, और सांसारिक यशोलिप्सा-आदि निस्तत्व धर्मों को उसी तरह त्याग दे जैसे समझदार गृहणी सूप(छाज) से गेहूँ आदि अन्न को अच्छी तरह पिछोड़ कर उसमें से जीवनोपयोगी अच्छा अन्न रख लेती है और कूड़े को फूँक से उड़ा देती है ॥४३॥ 
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*बब्बा बानिक बनि है तेरा,*
*बंद लगाइ शब्द सुनी मेरा ।*
*बार बार बहुसौं नहिं भेटा,*
*बेगि न मिलै बाप को बेटा ॥४४॥*
*(ब)* 'ब' अक्षर साधक से यही कहता है कि हे साधक ! तेरा उस परम तत्व को प्राप्त करने का रास्ता तभी बनेगा जब तूँ मेरा(गुरु) का उपदेश सुनकर योगक्रिया के उपायों से(जालन्धर बन्ध आदि से) अपनी चित्तवृत्ति को निरुद्ध कर लेगा । मैंने तुझे(पूर्वजन्मों में) कई बार उपदेश किया, परन्तु तूँ बार बार उस मार्ग से भटक गया और अपने परमपिता को प्राप्त नहीं कर सका । यह तूँ अच्छी तरह समझ ले कि इस मार्ग में बेटा(जीवात्मा) पिता(परमात्मा) से जल्दी(मामूली उपायों से) नहीं मिल पाता ॥४४॥
(क्रमशः)

बुधवार, 16 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/४१-४२) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*नन्ना निरनै करि निरबारा,*
*निकटि निरंजन सबतै न्यारा ।*
*न्यारैकौ नीकै करि जानै,*
*नाहीतहां कछु मनमानै ॥४१॥*
*(न)* साधक दृढ़ता से(अनिवार्य रूप से) निश्चय (विश्वास) करके संसार से निर्लिप्त, परन्तु सर्वव्यापक, एतएव उसके पास ही स्थित परब्रह्म का चिन्तन करे । उस असंग, निर्लिप्त परमात्मा को भलीभाँति अनुभव से साक्षात्कार कर ले तब उसकी चित्तवृत्ति को अन्यत्र(संसार के तुच्छ सुखों में) कहीं भी आनन्द नहीं मिलेगा ॥४१॥
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*पप्पा परमिति है न कोई,*
*परम परमिति हैन कोई ।*
*पानि पादौ पेट न पृष्ठी,*
*पंचतत्वतैं पैला इष्टी ॥४२॥*
*(प)* पप्पा हमको यह बताता है कि उस परब्रह्म परमात्मा का कोई
अन्त या सीमा नहीं पा सकता; क्योंकि वह अविनाशी है, आदिपुरुष है । उसके न हाथ है न पैर, न पेट है न पीठ, अर्थात् वह नीरवयव है, वह पञ्च तत्व से भिन्न है, वही हमारा इष्ट देवता है ॥४२॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/३९-४०) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*दद्दा दमगहि दिलकौं धोई,*
*दिलमैं दर्द मिलैगा सोई ।*
*दहदिस तोहि होई दीदारा,*
*देइ अभैपद सिरजनहारा ॥३९॥*
*(द)* यदि साधक अपनी इन्द्रियों का यम-नियमादि द्वारा दमन करके स्वचित्त को निर्मल(निर्विकार) बनाकर ईश्वर के लिये अपने ह्रदय में विरह-व्यथा पैदा कर ले तो उसे एक दिन सर्वत्र दसों दिशाओं में ईश्वर दिखायी देंगे । और वह सृष्टि का निर्माता परब्रह्म उसे अभय(मोक्ष) प्रदान कर देगा ॥३९॥
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*धध्धा धाम धणीका कीसै,*
*धूध मार जो नान्ह पीसै ।*
*ध्यान धरे धुनिसौं ले लावै,*
*नाहीं कछु तहां मन मानै ॥४०॥*
*(ध)* साधक को ब्रह्मसायुज्य प्राप्त हो सकता है, यदि वह दृढ़ निश्चय कर सूक्ष्म चिन्तन करता रहे । जब वह ध्यानयोग का अभ्यास करे, अनहद नाद में लय-साधना करे तब वह स्वयं तो मोक्षपद प्राप्त कर ही लेगा, दुनिया भी उसको महापुरुष समझकर उसका यशोगान करेगी ॥४०॥
(क्रमशः)

सोमवार, 14 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/३७-८) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*तता तरली लगै शरीरा,*
*तनमन भूलै पैली तीरा ।*
*तब त्रिभुवन पति पकरे बाहि,*
*तत्वै तत्व मिले तूं नाहीं ॥३७॥*
*(त)* हे साधक ! जब तूँ अपने सूक्ष्म शरीर से निरन्तर ईश्वरचिन्तन में लग जाय और स्थूल देह की वासनाएँ त्याग दे तब वह त्रिलोकी का नाथ भगवान् तेरी बाँह पकड़कर तुझे भवसागर से पार उतार देगा । केवल कोरे तत्वविचार(शास्त्रचिन्तन) से तूँ ब्रह्मसायुज्य प्राप्त नहीं कर सकता ॥३७॥
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*थथा थावर जंगम थाना,*
*थिरहिं रह्या सब माहि समाना ।*
*थिर है ई थकियो जिनि राहा,*
*थाहत थाहत मिले अथाहा ॥३८॥*
*(थ)* संसार में जितनी भी स्थावर(अचल) जंगम(चल) सृष्टि है सब में समान रूप से वह परब्रह्म परमात्मा स्थित है । अतः हे साधक ! तूँ भगवत्प्राप्ति के लिये निराश होकर रास्ते में ही न रुक जाना । यदि तूँ उत्साहपूर्वक उसके चिन्तन में लगा रहेगा तो तूँ अन्त में उस परमात्मा को प्राप्त कर ही लेगा ॥३८॥
(क्रमशः)

रविवार, 13 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/३५-६) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*ढढा ढरतहि ढारै पासा,*
*ढारै अब जिनि देखि तमासा ।*
*ढूंढे चौपडि ढलि मलि जाई,*
*दुबका तब काहैकौ खाई ॥३५॥* 
*(ढ)* 'ढ' अक्षर हमको यह शिक्षा देता है कि जैसे जुआड़ी जूवा खेलने(पासा फेंकने) से पूर्व पासों की गति को मन में निश्चय कर पासा फेंकता है, और पासा फेंकने के बाद वह फिर तमाशा नहीं देखता, बल्कि चौपड़ की उस कमजोर जगह को बराबर ध्यान में रखता है जहाँ से उसकी विजय सुनिश्चित हो, इतना सावधान आदमी धोखा कैसा खा सकता है, फिर तो उसकी विजय सुनिश्चित है; उसी तरह साधक यदि एक बार संसारसुख का व्यामोह छोड़ कर तत्वमार्गणा की ओर चल पड़ता है तो वह फिर उसमें ढिलाई नहीं करता, अपितु यम-नियम, प्राणायामादि योगसाधनों द्वारा इन्द्रियनिग्रह कर उन पर निरन्तर ध्यान रखता है कि वे मन-इन्द्रियाँ कहीं फिर से सांसारिक सुखों की ओर फिसल न जाँय । ऐसा सावधान साधक बिना तत्वज्ञान(मोक्ष) प्राप्त किये बीच में कैसे धोखा खा सकता है !॥३५॥
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*णण्णा रूणझुण बाजै वीणां,*
*नारायण मारग अति झीणां ।*
*णाम प्रवीण दोई जे कोई,*
*णागर मरण मिटावै सोई ॥३६॥*
*(ण)* "ण' से साधक को वीणा की झंकार(अनहद नाद) सुनायी देता है, उसे नारायण(भगवान्) की ओर ले जाने वाला मार्ग, जो कि अतिसूक्ष्म है, सपष्ट दिखायी देने लगता है । निरन्तर हरिनाम का कीर्तन करने वाला साधक अपने लक्ष्य(मोक्षप्राप्ति) में पूर्ण हो जाता है । भगवान् उसका मृत्युभय(संसार में आवागमन) मिटा देते हैं ॥३६॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 12 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/३३-४) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*ठठा ठगनीकौ मति घीजै,*
*ठगै फरीकै तबका कीजै ।*
*ठौर छोडि जिनि तकै पसारा,*
*ठगनी पैठि करै घट छारा ॥३३॥*
*(ठ)* ठ कहता है- सन्तों को माया ठगिनी का किंचित भी विश्वास नहीं करना चाहिये । वह धोखा देकर ठग ही लेगी तो बाद में उसका कोई क्या कर लेगा ! जिस किसी साधक ने ईश्वर में दृढ़ निश्चय छोड़कर संसार(मायाप्रपन्च) की ओर ललचायी नजर(वासना) से देखा, उस विषयलोलुप प्राणी के ह्रदय में बैठकर इस माया-पिशाची ने उसका शरीर भस्मीभूत कर डाला ॥३३॥
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*डडा डारि देह डर सबही,*
*झोरि पकरि झिगै नही कबहीं ।*
*डंड कमंडल डिढ करि राखी,*
*डेरै गयै सु बोले साखी ॥३४॥*
*(ड)* शरीर को अवलम्ब मानकर सभी प्रकार के भय का त्यागकर साधक को गुरुज्ञानरूपी डोरी का सहारा पकड़ कर अपने लक्ष्य पर डटे रहना चाहिये । उससे कभी च्युत नहीं होना चाहिए । अपने दण्ड-कमण्डलु(ज्ञान-ध्यान के साधन या साधु का बाना) दृढ़ता से पकडे रहना चाहिये । उसे कोई न ले ले । अपने मुकाम(लक्ष्य स्थान, मोक्षवस्था) पर पहुंचने वाले(सन्त) इस में प्रमाण हैं । अर्थात् ज्ञानी भी वही उपदेश कहते हैं जो हम कह रहे हैं ॥३४॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/३१-२) =

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रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*

संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री

साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान

अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज

https://www.facebook.com/DADUVANI

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*

*नना नाव लिये निसतरियै,*
*निखर उपाई कछू नही करियै ।*
*नारी नखसिख करै शृंगारा,*
*नाकि बिना फजीहति वारा ॥३१॥*
*(ञ)* 'ञ' कहता है कि जैसे कोई नारी, यदि उसको सुघड़ नाक(चेहरा) नहीं है, तो वह लाख सिंगार करे पर लोग उसका मजाक ही उड़ाते हैं, उसकी तरफ कोई आकृष्ट नहीं होता; उसी तरह बिना हरि का नाम लिए भवसागर से पार नहीं उतरा जा सकता । इसके लिए अन्य क्षुद्र कार्य करने से कोई लाभ नहीं, अतः उन्हें न करना ही अच्छा है ॥३१॥
*टटा टेरि कह्या गुरु ज्ञाना,*
*टूक टूक व्हे मरि मैदाना ।*
*टगै न टेक टूटि नहिंजाई,*
*टलै काल और हिकौं खाई ॥३२॥*
*(ट)* साधक को गुरुपदिष्ट ज्ञान का निरन्तर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना चाहिए । उसे तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिये निरन्तर अपनी इन्द्रियों से लड़ते हुए अपनी तृष्णा(वासना) को टुकड़े-टुकड़े कर डालना चाहिये । उसे अपने लक्ष्य से  कथमपि च्युत नहीं होना चाहिये । तभी मौत उसे छोड़कर किसी दूसरे की तरफ मुंह कर लेगी । अर्थात् साधक इन्द्रियनिग्रह द्वारा तत्व-ज्ञान प्राप्त कर अपने पुनः पुनः जीवन-मरण का प्रश्न हल कर लेता है ॥३२॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 9 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२९-३०) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
*जजा जानत जानत जाने,*
*जतन करे तो सहज पिछाने ।*
*जो जुगति तनमनहि जरावै,*
*जरा न व्यापै जोति जगावै ॥२९॥*
*(ज)* 'ज' हमें यह बताता है साधक उस परमतत्व को श्रवण, मनन, तथा निदिध्यासन द्वारा साधना करते-करते एक दिन उसे जान लेता है । प्रयत्न करके उसका साक्षात्कार कर लेता है । योग की विधि से तन-मन(इन्द्रिय) के वेग को जला दे तो ऐसा साधक कभी अपना बुढ़ापा ही नहीं देखता(दीर्घायु हो जाता है) । अपितु वह एक दिन तेजःपुञ्जमय शरीरधारी होकर अपनी अन्तःर्ज्योति(ब्रह्मज्ञान) जगा लेता है अर्थात ब्रह्मज्योतिस्वरूप आत्मा के आकार का साक्षात्कार कर लेता है ॥२९॥
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*झझा झरत रहै झल देखै,*
*झकि झुकिनी झर पिचै अलेखै ।*
*झूंकी कटकि उलटा रस बूझै,*
*झलमल झाल दशौदिश सूझै ॥३०॥*
*(झ)* 'झ' का गूढार्थ यह है- साधक सतत साधना से अपने अन्तःपटल से उस दिव्यज्योति की किरणें निकलती हुई देखता है । और कुछ श्रम करने से वह उससे निरन्तर निकलते हुए अदृश्य अमृत रस का पान कर सकता है । वीरता-पूर्वक अपनी इन्द्रियों का शिर काट कर(निग्रह कर) उलट रस(ब्रह्मरस) पी सकता है । और साधना के अन्त में उस योगी की यह स्थिति हो जाती है कि वह दसों दिशाओं में(अपने चारों ओर) एकमात्र उस दिव्य ज्योति की अपूर्व चकमक देखता है ॥३०॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२७-८) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*चचा चित्त चहुं दिशतैं फेरै,*
*चौकहि बैठि चहुं दिश हेरै ।
*चलत चलत जब आगै जाई,*
*चारि पदारथ लागै पाई ॥२७॥*
*(च)* साधक अपने चित्त को सभी प्रकार के इन्द्रिय भोगों से अपने को दूर हटा ले । चौकन्ना(सावधान) होकर मैदान में आकर सब तरह से उस सर्वव्यापक की ही उन इन्द्रियों से खोज करे । जब इस तरह निरन्तर साधना करते-करते वह इस पथ पर आगे बढ़ चलेगा तो अन्त में वह सौभाग्यशाली चारों पदार्थों(धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) को अपने सामने(हस्तामलकवत्) ही खड़ा देखता है । अर्थात् उनका फल प्राप्त कर लेता है ॥२७॥ 
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*छछा छाया देखि न भूली,*
*छलबल करै छलैगी ऊली ।*
*छिन्न भिन्न जो तरू तन पीवै,*
*छाकि रै तौ जुगि जुगि जीवै ॥२८॥*
*(छ)* साधक इस त्रिगुणात्मिका माया के चक्कर में न फंसे । यह बदमाश ठगिनी छल-बल(धोखा-धड़ी) से हर प्राणी को ठगती रहती है । साधक को इसकी उपेक्षा कर निरन्तर अमर वृक्ष(परमात्मा के नाम) का रसपान करते रहना चाहिये । उसको पीकर ही वह मस्त रहे और संसार की ओर वापस न मुड़े तो वह अमर हो जाता है ॥२८॥
(क्रमशः)

रविवार, 6 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२५-६) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*घघा घटमैं औ घट कहिये,*
*घटही मांहि घाटकौं लहिये ।*
*घाट मांहि घनघुरे निसानी,*
*घंटा घोर सुनैं को कानी ॥२५॥*
*(घ)* 'घ' से यह मानना चाहिये कि प्राणी के इस शरीर में ही परमात्मा कहीं न कहीं टेढ़ा-मेढ़ा पड़ा हुआ है । अतः इस परमात्मा को अपने शरीर ही प्राप्त किया जा सकता है । जब उसकी प्राप्ति के योगी साधना करने लगेगा तो धीरे-धीरे उसे अपने शरीर में बादलों की गड़ागड़ाहट, या घोर(भयंकर) घण्टा का शब्द(अनाहत नाद) सुनायी देगा । इससे उसे अपने इन्द्रियनिग्रह में अत्यधिक सहायता मिलेगी ॥२५॥
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*नना नेह निरंजन लागै,*
*नारी तजै नरकतैं भागै ।*
*निशदिन नैनहु नींद न आवै,*
*नर तब हीनारायण पावै ॥२६॥*
*(ड:)* 'ड:' अक्षर हमको यह सिखाता है कि साधक को परब्रह्म
परमात्मा से ही स्नेह करना चाहिये । जब ऐसा साधक स्त्रीसंग बिलकुल छोड़ दे, नरक की ओर ले जाने वाले क्षुद्र सुखों को त्याग दे, और ईश्वर की प्रेमा भक्ति में ऐसा लीन हो जाय कि उसे दिन-रात में कभी नींद भी न आवे तब(ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर) वह नारायण(परमात्मा) को पा सकता है ॥२६॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२३-४) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*खखा खेल पसारा बाका,*
*खल कहिं ते जु खसम होइ ताका ।*
*खेंचि खेंचि मनसौ मलावै,*
*खरी बात बालककौ भावै ॥२३॥*
*(ख)* 'ख' अक्षर हमें यह सिखाता है कि यह सारी लीला(जगत्प्रपञ्च) उसी परब्रह्म परमात्मा की रची हुई है । अतः साधक को संसार के क्षुद्र सुखों का प्रलोभन त्याग कर उस जगत्प्रपञ्च पर अपना यन्त्रण(निग्रह) स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहिए । इन्द्रियों को, मन को, जबर्दस्ती खींच खींच कर इनकी वृत्तियों(वासनाओं) से दूर हटाना चाहिये; क्योंकि प्राणी का उत्तम(उदात्त, सात्विक) चरित्र ही उस परमात्मा को अच्छा लगता है ॥२३॥
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*गगा गुप्त कहै गुरु दैवा,*
*ग्यान गुफा मेंअलख अभेवा ।*
*गल गल स्वादत जे गुण सारै,*
*गगन गहै गोविन्द निहारे ॥२४॥*
*(ग)* 'ग' अक्षर से गुरुदेव ने हमको यह बताया कि वह ब्रह्म इन स्थूल इन्द्रियों से अगोचर है । ज्ञान-गह्वर में वास है, अतः वह साधारण प्राणी के लिये अलक्ष्य है, अभेद्य है । प्राणी को इस संसार के त्रिगुणात्मक कोमल सुखों का मोह छोड़कर इन्द्रियों पर निग्रह कर आकाशवत् सर्वव्यापक उस परमात्मा की निरन्तर ध्यान करना चाहिए ॥२४॥ 
(क्रमशः)

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/२१-२) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*अह अह उपजै आतमग्यान,*
*अह न अह न वाही ध्याना ।*
*अहलताहि कबहू नहीं होई,*
*अहटि रहै तौ बूजै सोई ॥२१॥*
*(अ:)* यदि साधक(गुरुपदेशानुसार) निरन्तर उसकी ध्यान-साधना करे तो शनै: शनै: एक दिन उसे आत्मज्ञान हो ही जाता है । उसकी साधना में कभी विघ्न नहीं पड़ सकता । यदि कोई इस मार्ग से विनुख हो गया तो उसे इस भवसागर में डूबने से कौन बचा पायेगा ! ॥२१॥
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*कका करि काया में वासा,*
*काया माया कमल प्रकाशा ।*
*कमल माहि करताकों जोई,*
*करता मिलै करम नहिं कोई ॥२२॥*
*(क)* 'क' नाम परब्रह्म परमात्मा है, वह प्राणी की काया में वास करता है । प्राणी के शरीर में तेजःपुंज्जमय ह्रत्कमल है । उसी ह्र्त्कमल में उसके वास की कल्पना कर उसका चिन्तन करे । इस चिन्तन से उसे तत्वज्ञान प्राप्त हो जायगा । ज्ञानी को इस संसार के कर्ता का ज्ञान हो जाने पर उसका कोई अन्य कर्तव्य कर्म शेष नहीं रहता ॥२२॥
(क्रमशः)

बुधवार, 2 अगस्त 2017

= बावनी(ग्रन्थ १३/१९-२०) =

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*= बावनी(ग्रन्थ १३) =*
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*औषद याहि एक विचारा,*
*और उपाई सकल अंधियारा ।*
*औसर बीत फिरि पछितावै,*
*औतरि औतरि यातें आवै ॥१९॥*
*(औ)* इस भवरोग से छूटने की एक ही दवा है, एक ही उपाय है कि ब्रहमोपासना की जाय । अन्य उपाय (षड्दर्शन के बनाये मार्ग) तो अन्धकार, की तरफ ही ले जाने वाले हैं । हे प्राणी ! अभी से तूँ उस मालिक(स्वामी, जगन्नियन्ता) को याद करना शुरू कर दे, अन्यथा समय बीतने पर पछताना ही पड़ेगा । इस ब्रहमोपासना की साधना से नीचे उतर कर अन्य उपायों से साधना करना मूर्खता है, क्योंकि इससे तो उत्तरोत्तर तेरा अज्ञान ही बढ़ेगा ॥१९॥
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*अंस उहै बोले या मांही,*
*अंजनमांहि निरंजन छाहीं ।*
*अंध न लहै और दिश दौरै,*
*अंतक आइ आइ सिर फौरै ॥२०॥*
*(अं)* इस जड़ देह में बोलना आदि क्रियाएँ वही चेतन का अंश करता है इस अंजन(माया) में उसी निरंजन(ब्रह्म) का प्रतिबिम्ब है । संसार के सुखों में अन्धा हुआ प्राणी इस तथ्य को नहीं देख पाता और इधर उधर ही सुख की खोज में भटकता रहता है । एक दिन उसे मौत आ घेरती है और उस का सिर फौड़(कर मार) डालती है ॥२०॥
(क्रमशः)