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*अविचल आरती देव तुम्हारी,*
*जुग जुग जीवन राम हमारी ॥टेक॥*
*मरण मीच जम काल न लागे,*
*आवागमन सकल भ्रम भागे ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*॥आरती॥*
आरती करि हरि की मनां । सुफल होइ१ ज्यूं थारा दिनां ॥टेक॥
सुरति सदा ले सनमुष कीजै । ता सेती अंम्रित रस पीजै ॥
प्रांण मगन हरि आगैं नांचै । काल बिकाल सबै ही बाचै ॥
नख सीख सौंज सकल हीं वारै । तबही देषत राम उधारै ॥
गुर दादू यहु मत्य२ सिषावै । टीला कै कहैं होइ न आवै ॥५६॥
(पाठान्तर : १. होंहि, २. मति ।)
(टीलाजी का पद सम्पूरण भवेत् ॥पद ५६॥)
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हे मन ! परात्पर-परब्रह्म-परमात्मा हरि की आरती कर जिससे कि तेरे दिन=तेरा जीवन सफल हो जाए ।
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सुरति=चित्तवृत्ति को एकरस हरि के सन्मुख कर, हरि में लगा दे और फिर उसकी सहायता से आत्मसाक्षात्कारजन्य रस का पान कर । ऐसा प्रबन्ध कर कि तेरे प्राण हरिरस में निमग्न होकर हरि के आगे नाचें जिससे कि तू विकराल काल के शिकंजे में फँसने से बच जाए ।
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जब तू नख से लेकर शिखा पर्यन्त अपने आपको परमात्मा हरि के ऊपर न्यौछावर कर देगा तब तुझको ऐसा करते देखते ही रामजी तेरा तत्काल उद्धार कर देंगे । गुरुमहाराज दादूजी यही सिद्धांत सिखाते हैं । मुझ टीला के कहने से यह नहीं होगा । अर्थात् उक्त मत टीला का नहीं प्रत्युत् दादूजी का है ॥५६॥
(टीलाजी का पद सम्पूरण भवेत् ॥पद ५६॥)