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बुधवार, 10 मई 2023

आरती करि हरि की मनां

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*अविचल आरती देव तुम्हारी,*
*जुग जुग जीवन राम हमारी ॥टेक॥*
*मरण मीच जम काल न लागे,*
*आवागमन सकल भ्रम भागे ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*॥आरती॥*
आरती करि हरि की मनां । सुफल होइ१ ज्यूं थारा दिनां ॥टेक॥
सुरति सदा ले सनमुष कीजै । ता सेती अंम्रित रस पीजै ॥
प्रांण मगन हरि आगैं नांचै । काल बिकाल सबै ही बाचै ॥
नख सीख सौंज सकल हीं वारै । तबही देषत राम उधारै ॥
गुर दादू यहु मत्य२ सिषावै । टीला कै कहैं होइ न आवै ॥५६॥
(पाठान्तर : १. होंहि, २. मति ।)
(टीलाजी का पद सम्पूरण भवेत् ॥पद ५६॥)
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हे मन ! परात्पर-परब्रह्म-परमात्मा हरि की आरती कर जिससे कि तेरे दिन=तेरा जीवन सफल हो जाए ।
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सुरति=चित्तवृत्ति को एकरस हरि के सन्मुख कर, हरि में लगा दे और फिर उसकी सहायता से आत्मसाक्षात्कारजन्य रस का पान कर । ऐसा प्रबन्ध कर कि तेरे प्राण हरिरस में निमग्न होकर हरि के आगे नाचें जिससे कि तू विकराल काल के शिकंजे में फँसने से बच जाए ।
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जब तू नख से लेकर शिखा पर्यन्त अपने आपको परमात्मा हरि के ऊपर न्यौछावर कर देगा तब तुझको ऐसा करते देखते ही रामजी तेरा तत्काल उद्धार कर देंगे । गुरुमहाराज दादूजी यही सिद्धांत सिखाते हैं । मुझ टीला के कहने से यह नहीं होगा । अर्थात् उक्त मत टीला का नहीं प्रत्युत् दादूजी का है ॥५६॥
(टीलाजी का पद सम्पूरण भवेत् ॥पद ५६॥)

रविवार, 7 मई 2023

बीनती हरि तुम्ह सूं मेरी

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*दादू साचा साहिब शिर ऊपरै, ताती न लागै बाव ।*
*चरण कमल की छाया रहै, किया बहुत पसाव ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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बीनती हरि तुम्ह सूं१ मेरी । क्रिपा करौ हूं बारी फेरी ॥टेक॥
तन मन चित हरि तुम्ह सूं लावौ । महा परमसुख नैंन दिखावौ ।
रहौ निकट सोई बिधि कीजै । देखि देखि अंम्रित रस पीजै ॥
भाव भगति रहै तुम्ह नेरा । चरन कवल तलि देहु बसेरा ॥
गुर दादू किरपा थैं जीजै । टीला नैं हरि इतनौं कीजै ॥५५॥
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हे हरि ! मैं आपसे मेरे ऊपर कृपा करने की प्रार्थना करता हूँ । कृपा करके मेरे ऊपर कृपा करो । मैं आपके ऊपर न्यौछावर होता हूँ ।
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मेरा तन, मन और चित्त आपसे अनन्यभाव से जुड़ जाए । महापरमसुख रूप आपका दर्शन मेरे नेत्रों को सुलभ कराओ । मैं सदैव आपके सन्निकट रह सकूँ, ऐसी कोई व्यवस्था करिए । आपके सुमधुर दर्शनों को देख-देखकर मैं रसामृत का पान कर सकूँ ।
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मेरी श्रद्धा और भक्ति सदैव आपमें ही रहे । मुझे अपने चरण-कमलों में निवास प्रदान करो । हे हरि ! टीला के ऊपर उक्त कही बातों के अनुसार इतनी कृपा करिये जिससे कि मैं गुरुमहाराज दादूजी की कृपा से हमेशा-हमेशा के लिए जीवित रह सकूं ॥५५॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 5 मई 2023

तुम्ह बिन क्यूं रहौं हो

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*काया मांहैं क्यों रह्या, बिन देखे दीदार ।*
*दादू बिरही बावरा, मरै नहीं तिहिं बार ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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तुम्ह बिन क्यूं१ रहौं हो, प्रांणसनेही लाल ।
आतम बिरहनि पन्थी बूझै, मेरा कौंन हवाल ॥टेक॥
घर मैं चैंन न सुख व्है बाहरि, जहां तहां दुख पावै ।
जनम बदीत भयौ सब यौंही, कांइ न साहिब आवै ॥
तिल तिल बरष२ बराबरि तूलै, यहु दुष सह्या न जाई ।
टीला कै दूज को नांहीं, सुनियौं३ राम दुहाई ॥५४॥
(पाठान्तर : १. क्यौं, २. बरिष, ३. सुनिहो)
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हे प्राणप्रिय परमात्मन् ! तुम्हारे बिना मैं क्यों कर जीवित रहूँ । अथवा तुम्हारे दर्श-स्पर्श से शून्य मैं क्योंकर रहूँ । मेरी आत्मा विरहनी है, मेरा हाल कैसा है, इसको आपके पास मेरा सन्देश लेकर आने वाला राहगीर समझता है ।
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मुझे न घर में शान्ति है और न बाहर सुख ही है । जहाँ जाती हूँ वही दुख ही दुख पाती हूँ । मेरा पूरा जन्म योंही व्यर्थ में व्यतीत हुआ जा रहा है । हे मेरे स्वामी ! तू क्यों नहीं मुझको दर्शन देने मेरे सन्निकट आता है ।
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आपके वियोग में एक-एक तिलभर का समय मुझको वर्ष-वर्ष के बराबर अनुभूत होता है । हे स्वामिन् ! आपके वियोग का यह असह्य दुख अब मेरे से सहन नहीं होता है । हे राम ! सुनिये, आपकी सौगंध ! मेरे स्वामी मात्र आप ही हैं । मेरा और कोई दूसरा आश्रय नहीं है ॥५४॥
(क्रमशः)

बुधवार, 3 मई 2023

साध कहैं सो समझैं नांहीं

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*बाबा, काची काया कौण भरोसा, रैन गई क्या सोवे ।*
*दादू संबल सुकृत लीजे, सावधान किन होवे ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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म्हे क्यांन्हैं कहां रे, कोई भावै तैठा जाव ।
काल करम तौ छूटसी, जे लेसी हरि नांव ॥टेक॥
बेर न हेत नहीं तिहि जिय सौं, जिहि नर नांव बिसार्यौ ॥
साध कहैं सो समझैं नांहीं, जन्म अमोलिक हार्यौ ॥
हिरदै ग्यानं न ऊपजै, बैठि न करै बिचार ।
मनि बाह्यौ१ त्यूंही बह्यौ, मूरिष बडौ गंवार ॥
गोविन्द कै नातै मिलै, बिछुड्यां भी बहि हेत ।
टीला गुर दादू कहै, कांइ न रहै सुचेत ॥५३॥
(पाठान्तर : बायौ)
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हम किसी से क्यों कुछ कहें, जिसको जहाँ जाना अच्छा लगता है, वह वहीं जाए । काल और कर्मों से पीछा उसका ही छूटेगा जो हरि के नाम का स्मरण करेगा ।
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जिन्होंने हरिनाम का विस्मरण कर रखा है उन प्राणियों से हमारी न प्रीति है और न बैर ही है । ऐसे जीवों से ब्रह्मनिष्ठ साधु-महात्मा जो कुछ कहते हैं उसको वे समझते नहीं हैं और इस प्रकार वे अपने अमूल्य मनुष्य जन्म को बर्बाद कर बैठते हैं ।
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उनके हृदय में ज्ञानोदय होता नहीं है । सुने हुए को बैठकर विचारते नहीं, मनन नहीं करते हैं । बड़े भारी मूर्ख गँवार हैं । मन जैसे चलाता है वैसे ही चलते हैं ।
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साधु सन्तों का गोविन्द के कारण ही मिलना-संभाषण करना होता है और कोई दूसरा हेतु नहीं होता । उनसे बिछुड़ने पर=उनकी बातें न मानने पर भी उनके हृदय में बिछुड़ने वालों के प्रति वही हेत=प्रीति होती है जो पहले होती है । वे समदर्शी होते हैं । उनमें रागद्वेष का लेश भी नहीं होता । इसी कारण, टीला के गुरु दादूजी महाराज कहते हैं, हे जीव ! क्यों नहीं सावधान हो जाता है ! ॥५३॥
(क्रमशः)

रविवार, 30 अप्रैल 2023

*काहे पड़ै जंजालि*

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*दादू अल्लाह राम का, द्वै पख तैं न्यारा ।*
*रहिता गुण आकार का, सो गुरु हमारा ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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मींयां जिभ्या बोलि संभालि ॥
हिन्दू तुरक एक ही कीये, काहे पड़ै जंजालि ॥टेक॥
काटै तुरक रहैं१ कहैं ह्यन्दू२, अैसा यहु संसारा ।
एक अलह के नांव लिए बिन, कहि कौंण उतरयो पारा ॥
अरध जोनि व्है बाहरि आए३, दून्यूं एक सरीरा ।
‘साहिबजी की षबरि बाहिरा४, क्यूं करि पावै तीरा ॥’
जब की मांड मंडी यहु जग में, तदि कौ झगड़ौ होई ।
आपा उलटि आप नहिं५ चीन्हें, चेति न देषे कोई ॥
ह्यन्दू६ की रह ह्यन्दू७ जांणैं, तुरकी तुरक चलावौ ।
टीला गुर दादू परसादैं, अपणां साहिब ध्यावौ ॥५२॥
(पाठान्तर : १. जिबह, २. हिन्दू, ३. आये, ४. यह पंक्ति नहीं है, ५. ही, ६.हिन्दू, ७. हिन्दू)
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वादरत मुसलमान वादी को संबोधित करते हुए कहते हैं, हे मियां ! अपनी जिव्हा को सँभालकर बोल । बिना सोचे-समझे ऊटपटांग मत बोल । हिन्दू और तुरक दोनों को एक परब्रह्म-परमात्मा ने ही बनाया है । फिर तू क्यों व्यर्थ के जंजाल में पड़ रहा है ।
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यथार्थ में हत्या मुसलमान करता है जबकि कहा जाता है कि गला काटकर हत्या हिन्दू करता है, यह संसार इसी प्रकार का मिथ्यावाद करनेवाला है । एक अल्लाह का बिना नामस्मरण किए, बताइए कौन भवसागर से पार उतरा है ? हिन्दू या मुसलमान ? कोई नहीं ।
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दोनों एक ही माता के शरीर से एक ही जैसे योनिद्वार से निकलकर बाहर आते हैं और दोनों का शरीर भी एक जैसा होता है । जो साहिब की खबरि=भजन-स्मरण से बाहिर=दूर हैं वे क्योंकर दुस्तर संसार-सागर से पार होने के लिए उसका किनारा प्राप्त कर सकते हैं ।
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इस ब्रह्मांड में जब से सृष्टि का निर्माण हुआ है, झगड़ा तब ही से चला आ रहा है । शरीर-ज्ञान को छोड़कर कोई भी आत्मज्ञान को नहीं पहचानते । सावधान होकर उसको कोई न जानने का प्रयत्न करता है और न जानता ही है ।
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हिन्दुओं की राह को हिन्दू जानते हैं, मुसलमानों की चाल पर मुसलमान चलते हैं । गुरु दादू की कृपा से प्राप्त ज्ञान को आधार बनाकर टीला कहता है, सब अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार अपने-अपने साहिब का भजन-ध्यान करो, यही उत्तम बात है ॥५२॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

आव रे आव मन मूरिषा

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*लोभ मोह मद माया फंध,*
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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आव रे आव मन मूरिषा, बुरौ दिषावै कांड रे ।
त्यांह का कारिज ऊजड़ै, जे घरां परायां जांइ रे ॥टेक॥
घट माहैं गोब्यंद१ है, तैठै थारौ बासौ रे ।
देषि पराया लूंबका२, क्यांन्हैं३ फिरै उदासौ रे ॥
निहिचल४ व्है, सुष ऊपजै, अति ही आनंद होए५ रे ।
गोब्यंद६ कौ सुमिरण करै, तूंनैं बुरौ कहै नहिं कोए७ रे ॥
तूं फिरतां व्हैलो बावलौ, थारी सुधि बुधि सगली जाए८ रे ।
कारिज कोई नां सरै, धका किसानैं षाए९ रे ॥
गुर गोब्यंद१० किरपा करै, तौ मन कहीं न जाए११ रे ।
टीला निंहचल व्है रहै, जे साहिब करै सहाए१२ रे ॥५१॥
(पाठान्तर : १. गोबिन्द, २. लूबिका, ३. क्यांहनैं, ४. निहचल, ५. होये, ६. गोविन्द, ७. कोये, ८. जाये, ९. षाये, १०. गोविन्द, ११. जाये, १२. सहाये ।)
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हे मूर्ख मन ! सांसारिक-विषय-भोगों से वापिस आजा । वहाँ उनमें कुछ नहीं रखा है । अतः जल्दी ही वहाँ से लौट आ । क्यों अपने आपको बुरा दिखा रहा है । अरे ! तू तो बहुत अच्छा है । बस, तुझे तेरी मात्र धारा को बदलनी है । अभी तक तू विषयों की ओर दौड़ रहा था । अब आगे तुझे परमात्मा की ओर दौड़ना है । याद रख, उनके कार्य बिगड़ते हुए देखे गए हैं जो दूसरों के घरों में जाते हैं और उनके परामर्शों को मानते हैं ।
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तेरे शरीर में ही गोविन्द का निवास है और गोविन्द के निवासस्थान में ही तेरा निवास नियत है । पराए सुख-आनन्दों को देखकर क्यों उदास हुआ फिरता है । अरे ! घट में ही अखण्ड आनन्द का सागर निवास करता है, उससे मित्रता कर ले । फिर दूसरी ओर देखने की जरूरत ही नहीं है । तू निश्चल हो जा । निश्चल होने से ही आनन्द मिलता है ।
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तू गोविन्द का नामस्मरण कर । तुझे कोई भी बुरा नहीं कहेगा । इधर-उधर घूमने से तुझे हासिल तो कुछ होगा नहीं उलटे तू बावला हो जाएगा और तेरी सारी सुधी और बुद्धि भी जाती रहेगी । इधर-उधर घूमने से तेरा कोई भी कार्य सिद्ध होने वाला नहीं । अतः तू क्यों इधर-उधर के धक्कों को खाने में लग रहा है ।
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गुरु और गोविन्द द्वारा कृपा कर देने पर मन इतस्तत भटकता नहीं है, लक्ष्यारूढ़ हो जाता है । टीला कहता है, यदि परमात्मा भी सहायता-कृपा कर दे तो मन निश्चल होकर रहने लग जाता है ॥५१॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

म्हारै कब घरि आवै रामंजी

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*राम ! सुनहुन विपति हमारी हो,*
*तेरी मूरति की बलिहारी हो ॥टेक॥*
*मैं जु चरण चित चाहना, तुम सेवक-सा धारना ॥१॥*
*तेरे दिन प्रति चरण दिखावना, कर दया अंतर आवना ॥२॥*
*जन दादू विपति सुनावना, तुम गोविन्द तपत बुझावना ॥३॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग धनाश्री ॥१४॥
म्हारै कब घरि आवै रामंजी, जाको प्यंड परांणौं रे ।
यहु अचेत है आतमां, हरि है चतुर सुजाणौं रे ॥टेक॥
नष सिष साजि षड़ी रही, ऊभी देषै बाटो रे ।
अरस परस सुष लीजिये, तब सुफल होइ सब गातो रे ॥
बिरहणिं म्हारी आतमां, अब यहु करै पुकारो रे ।
जबहीं देषौं नैंन भरि, तबहीं होइ अधारो रे ॥
जीव डरै यहु१ काल थैं, निसदिन कंपत जाए२ रे ।
क्यूं जीऊं हूं एकली३ बेगा, प्रगटहु आए४ रे ॥
दीन जांनि किरपा करौ, जिय५ की यहु अरदासि हो ।
टीलौ६ जीव चरणां रहै, सदा तुम्हारे पासि हो ॥५०॥
(पाठान्तर : १. यौं, २. जाए, ३. येकली, ४. आये, ५. जिव, ६. टीला)
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मेरे घर में मेरे प्रियतम रामजी कब आएँगे ? मेरा शरीर परांणौ=पड़ने ही वाला है । शरीर में से प्राणों का निष्क्रमण होने ही वाला है । मेरी आत्मा अचेत=असावधान है जबकि प्रियतम हरि परम चतुर सुजान है ।
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विरहनी नख से लेकर शिखा पर्यन्त सजधजकर खड़ी-खड़ी आपकी राह देख रही है । हे प्रियतम ! विरहनी से अरस-परस होकर मिलन का सुख प्राप्त करिए जिससे कि मेरा शरीर धारण करना सफल हो जाए ।
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मेरी आत्मा विरहनी है । अब यह आपसे मिलने के लिए पुकार कर रही है । जब आपको यह नयन भरके देखेगी तब ही इसको राहत मिलेगी ।
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मेरा जीव काल के भय से भयभीत है । दिन-रात उसके भय से मेरा शरीर कँपकँपाता है । मैं तुम्हारे बिना अकेली जीऊँ भी तो क्यों जीऊँ । हे प्रियतम ! मुझे जीवित देखना चाहते हो तो तत्काल मेरे सामने प्रकट हो जाओ ।
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मुझको दीन-हीन समझकर कृपा करो । मेरे सच्चे मन की यही प्रार्थना है । टीला की प्रार्थना है, आप मुझ पर ऐसी कृपा करो कि सदैव मेरा जीव आपके चरणों के पास ही पड़ा रहे ॥५०॥
(क्रमशः)

रविवार, 23 अप्रैल 2023

भूलो रे मन भूलो रे

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*दादू अंतर कालिमा, हिरदै बहुत विकार ।*
*प्रकट पूरा दूर कर, दादू करै पुकार ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग मलारगुंड१ ॥१३॥
भूलो रे मन भूलो रे । राम बिसारि र१ डूलो रे ॥टेक॥
साध कहैं सो न कीयौ रे । तैं चुणि चुणि औगुण लियौ रे ॥
हिरदै हरि क्यूं आवै रे । साध न कोई भावै रे ॥
योंही पाप कमायौ रे । तैं जण जण सबदि दुषायौ रे ॥
दीन गरीबी कीजै रे । टीला हरि रस पीजै रे ॥४९॥
(पाठान्तर : १. ‘मलारगुंड’ के स्थान पर केवल ‘गुंड’ है । वैसे दूसरे क्रमांक पर राग गुंड पूर्व में आ चुकी है । २. रु)
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हे मन ! तू भूल गया है, भ्रमित हो गया है । तू रामजी के भजन करने को विस्मृत करके इतस्तत घूमता-फिरता है ।
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तूने कभी भी वह नहीं किया जिसको ब्रह्मनिष्ठ सन्तों ने करने को कहा । उलटे तूने चुन-चुनकर अवगुणों को ही अपने में धारण में किया । ऐसी स्थिति में हरि तेरे हृदय में क्योंकर निवास करेंगे । अरे ! तुझको कोई साधु-संत भी अच्छे नहीं लगते हैं ।
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तूने संसार में अनुरक्त होकर योंही पापों को कमा लिया है । तूने जने-जने को दुःख दिया है । टीला कहता है, अब भी समय है, दीनता और गरीबी को धारण करके रामभजन करता हुआ हरिरस का पान कर ॥४९॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 20 अप्रैल 2023

दरसन कब देषूं१ हो भाई

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*सुरति पुकारै सुन्दरी, अगम अगोचर जाइ ।*
*दादू विरहनी आत्मा, उठ उठ आतुर धाइ ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग मलार ॥१२॥
दरसन कब देषूं१ हो भाई ।
नां जांनूं२ वै कहां पधारे, कोई कहै न आई ॥टेक॥
पल पल रती निमष नहिं रहते, अब दिन बरिष गिणाई ।
काली रैंनि काल व्है, आई, कोइ न करै सहाई ॥
मधुर बैंन सुनि सुनि रस पीवत, सो सुष कह्यौ न जाई ।
अब कहुं गोपि रहे३ अपरछन, नष सष दौं प्रजराई ॥
दिन के अरस परस मिलि रहते, बात न गोपि दुराई ।
टीला गुर दादू बिन देषें, हियरौ कहूं न सिराई ॥४८॥
(पाठान्तर :१. देषौं, २. जांनौं, ३. व्है रहे )
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हे भाई ! मैं मेरे प्रियतम गुरुमहाराज दादू के दर्शन कब कर पाऊँगा ? मैं नहीं जानता, वे कहाँ पधार गए हैं । कोई भी उनकी खबर आकर बताता नहीं है ।
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पहले उनके बिना में पल=क्षण भर ही नहीं रहता था किन्तु अब तो उनके बिछोह का एक दिन भी एक वर्ष के समान लगता है ।
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अँधियारी रात्रि काल के समान होकर सामने आती है । उसमें कोई भी सहायता नहीं करता है ।
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मैं पहले गुरुमहाराज के मधुर वचनों को सुन-सुनकर रामरसामृत का पान करता था जिसके सुख का वर्णन करना अशक्य है । अब गुरुमहाराज कहीं पर गुप्त रूप में अप्रकट हो गए हैं जिससे मुझको उनका प्रत्यक्ष दर्शन नहीं हो रहा है । उनके दर्शन नहीं होने के कारण में नख से लेकर शिखा पर्यन्त विरहाग्नि में जला जा रहा हूँ ।
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दिन में हम अरस-परस=साथ-साथ ही रहते थे; हमारा निमिष मात्र के लिए भी बिछोह नहीं होता था । वे अपने मन की बात मुझसे गुप्त नहीं रखते थे और मैं उनसे नहीं । टीला कहता है, गुरुमहाराज दादू के दर्शन किए बिना हृदय कहीं पर भी कैसे भी शीतल नहीं हो रहा है ॥४८॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

पंडित अपणैं घरिं जांहिं भाई

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*नांव न आवै तब दुखी, आवै सुख संतोष ।*
*दादू सेवक राम का, दूजा हर्ष न शोक ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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पंडित अपणैं घरिं जांहिं भाई ।
हम तुम बात कहण की नांहीं, काहे करै लड़ाई ॥टेक॥
हम गरीब परमेसुर सेवैं१, तुम्ह ब्रह्मा का नाती ।
अहं बिकार बुराई राते, हम तुम जाति न पांती ॥
सुमिरण करैं सहज में बैठे, तहीं आइ दुंद उठावै ।
धरम करम की बात चलावै, निर्मल नांव न भावै ।
जप तप संजम एक२ नांव मैं, जो सेवै सो पावै ।
गुर दादू किरपा करि दीनीं, टीलौ बंदौ गावै ॥४७॥
(पाठान्तर : १. सुमिरैं, २. येक)
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हे पंडित भाई ! तुम अपने घर जाओ । हमारे पास तुमसे कहने के लिए कोई बात नहीं है । अतः तुम क्यों व्यर्थ ही लड़ाई करते हो ।
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हम गरीब साधु हैं । परमेश्वर का भजन करते हैं । जबकि तुम ब्रह्मा के पौत्र हो । इसके उपरान्त भी तुम अहंकार, विषय-विकार और बुराई में आकण्ठ डूबे पड़े हो । वस्तुतः हमारी और तुम्हारी न एक जाति है और न भोजन करने की ही एक पंक्ति है ।
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हम भगवद्भजन करते हैं, सहज में रहते हैं, कोई उपाधि, उपद्रव नहीं करते, किसी को अदाते-सताते नहीं । फिर भी तुम यहाँ आकर द्वन्द्व=उपद्रव, झंझट-झगड़े करते हो । आप यहाँ आकर भ्रम और कर्मों की बातों को करते हो जबकि आपको परमात्मा का निर्मल नाम नहीं भाता ।
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जप, तप, संयम सब कुछ एक भगवन्नाम का आश्रय ले लेने से स्वतः ही सध जाते हैं । जो भगवन्नामजप करते हैं उनको इन सब का फल स्वयमेव प्राप्त हो जाता है । गुरुमहाराज दादूजी ने कृपा करके भगवन्नामजप का उपदेश दिया है जिसको दास टीला गा रहा है ॥४७॥
(क्रमशः)

रविवार, 16 अप्रैल 2023

तजौ कुसंग द्रुमति करि दूरि

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*इन्द्री के आधीन मन, जीव जंत सब जाचै ।*
*तिणे तिणे के आगे दादू, तिहुं लोक फिर नाचै ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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जोगिया जिनि करै बिकारा । तेरे पीछैं सब परिवारा ॥टेक॥
परहरि बिषिया इंद्री भोग । रांम भजन करि पावै जोग ॥
तजौ कुसंग द्रुमति करि दूरि । राजा राम रहैं भरपूरि ॥
गुर दादू कौ सबद बिचारै । तौ टीला या मन कूं१ मारै ॥४६॥
(पाठान्तर : १. कौं)
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हे जोगी ! तू विषय विकारों का भोग मत कर । इनको भोगना छोड़ दे । तेरे पीछे इन्द्रियों का पूरा परिवार=समुदाय पड़ा हुआ है । इन्द्रियों के भोग= विषय-बिकारों को त्याग दे । रामजी का भजन कर जिससे कि तुझको योग=ब्रह्मात्मैक्य-बोधोपलब्धि हो जाए ।
.
कुसंग को त्याग दें । दुरमति को दूर कर दे । इससे तेरे में राजाराम का पूर्णतः निवास हो जाएगा । यदि कोई गुरुमहाराज दादू के वचनों कर सम्यक् मनन करे तो टीला कहता है वह इस संसारी मन को मारने में सफल हो जाएगा ॥४६॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

जोगी जग मैं क्यांन्हैं फिरै

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*दादू जन ! कुछ चेत कर, सौदा लीजे सार ।*
*निखर कमाई न छूटणा, अपने जीव विचार ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग आसावरी ॥११॥
जोगी जग मैं क्यांन्हैं१ फिरै, 
बेसि गुफा में ध्यांन न धरै ॥टेक॥
साहिब कारणि लीया जोग । 
तजि बिषिया इंद्री रस भोग ॥
आपण देषै दिषांवण जाइ । 
उलटि अपूठी न बैठे आइ ॥
आवत जातां होइ न उपाधि । 
रांम रसांइन घर मैं साधि ॥
गुर दादू यूँ कह्यौ बिचारि । 
टीला रे तूं हिरदे धारि ॥४५॥
(पाठान्तर : १. क्यांहनैं)
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हे जोगी ! तू जगत् में क्यों फिरता-फिरता है । गुफा में बैठकर क्यों नहीं ध्यान लगाता है । साहिब को प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों के विषय भोगों के रस=आनन्द को त्यागकर तूने जोग धारण किया था । आप स्वयं तो अपने चरित्रों को देखता नहीं है उलटे दूसरों को उनके दोषों को दिखाता फिरता है । क्यों नहीं, इन सांसारिक क्रिया-कलापों से विमुख होकर निश्चल होने के लिए गुफा में आकर बैठता है....
.
जिससे कि आने-जाने में होने वाली कोई भी उपाधियाँ तुझको लक्ष्यच्युत न कर सकें । राम नाम रूपी रसायन की साधना घर में ही बैठकर कर । गुरुमहाराज दादू ने विचारपूर्वक उपर्युक्त बात कही है । टीला कहता है, तू इन बातों को हृदय में धारण कर ले ॥४५॥
(क्रमशः)

बुधवार, 12 अप्रैल 2023

कहु मैं तेरा क्या किया

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*गुनहगार अपराधी तेरा, भाजि कहाँ हम जाहिं ।*
*दादू देख्या शोध सब, तुम बिन कहीं न समाहिं ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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कहु मैं तेरा क्या किया, तैं ज्वाब न दीया ।
बिन देषें हूँ१ क्यूं रहूं२, क्या मेरा हीया ॥टेक॥
गुनहगार कूं३ पकड़िये, गहिये कर हाथा ।
गुनह बकसि फिल कीजिए, करिये नहिं घाता ॥
कौंण दोष बोलै नहीं, सो जीव न बूझै ।
आगैं पीछैं अंतिव्है, पिय तुम्ह कूं सूझै ॥
गुर दादू कहै सु कीजिये, मैं बंदा तेरा ।
टीला कै दूजा नहीं, तूं साहिब मेरा ॥४४॥
(पाठान्तर : १. हौं, २. क्यौं, ३. कौं)
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कहो, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? तूने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया है । मैं मेरे दोषों को जाने बिना कैसे रह सकता हूँ कि मेरा क्या हुआ है ?
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मुझ गुनहगार के हाथ को अपने हाथ में लेकर पकड़ लीजिए । गुनाहों को माफ करने में शीघ्रता करो ।
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मारो मत । दोष कौन से हैं, जिनको बताते नहीं हो क्योंकि वे गुन्हा मुझे सूझ नहीं रहे हैं । जो भी दोष आगे, पीछे या अन्त में होते हैं वे सभी आप को ज्ञात हो जाते हैं ।
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मैं तेरा बन्दा हूँ । गुरुमहाराज दादूजी कहते हैं, वही करो । टीला का आपके अतिरिक्त और दूसरा कोई भी स्वामी नहीं है । मेरा स्वामी तो मात्र तू ही है ॥४४॥
(क्रमशः)

रविवार, 9 अप्रैल 2023

*रे मन जाहिलौ रे*

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*रे मन साथी माहरा, तूनें समझायो कै बारो रे ।*
*रातो रंग कसुंभ के, तैं बिसार्यो आधारो रे ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग रामगिरी१ ॥१०॥
रे मन जाहिलौ रे, वारै कछु न आयौ हाथ ।
घर मांहैं आवै नहीं, फिरै पंच कै साथ ॥टेक॥
स्वाण्यौं२ तूं सोवै नहीं, बैठौ करै उपाधि ।
गोब्यंद३ नैं सुमिरै नहीं, यहु मन बड़ौ असाधि ॥
साधां सूं सनमुष नहीं, हरि सूं४ नांहीं हेत ।
ज्यूं आयौ त्यूंही चल्यौ, मूरिष बड़ौ अचेत ॥
यहु औसर पावै नहीं, गुर दादू कौ साथ ।
टीला चेति हुस्यार हो, गहै रामजी हाथ ॥४३॥
(पाठान्तर : १. रामकली, २. स्वाण्यूं, ३. गोविन्द, ४. स्यूं)
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प्राणी को सावधान करते हुए कहते हैं, यह मन जाहिल है जिसके कारण तुझको कुछ भी लाभ नहीं हुआ । यह मन अपने घर=आत्मचिन्तन में संलग्न नहीं होता उलटे पाँचों स्वादों के आस्वादन हेतु पाँचों इन्दिर्यों के साथ-साथ रमण करता फिरता है ॥टेक॥
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सुलाने पर तू सोता नहीं है । जागृत रहता है तब कुछ न कुछ उपद्रव करता है । गोविन्द का स्मरण नहीं करता है । वस्तुतः यह मन बहुत ही असाध्य है ।
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साधुओं के सन्मुख= शरणागत नहीं होता है । परात्पर-परब्रह्म-परमात्मा-हरि से प्रीति नहीं करता है । अतीव असावधान मूर्ख प्राणी जैसा आया था, वैसा ही रीता का रीता चला जाता है ।
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हे मूर्ख ! गुरुमहाराज दादू के सत्संग का यह अवसर पुनः मिलने वाला नहीं है । अतः टीला कहता है सावधान होकर होशियार हो जा, रामजी स्वरूप दादूजी महाराज का सत्संग कर ले जिससे कि रामजी तेरे हाथ को थाम लें । रामजी तेरे हाथ को थाम लेंगे ॥४३॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

रे जिव१ बातनि जनम गवायौ

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*राम तुम्हारे नांव बिन, जे मुख निकसै और ।*
*तो इस अपराधी जीव को, तीन लोक कित ठौर ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग कानड़ौ ॥९॥
रे जिव१ बातनि जनम गवायौ ।
संग ही सदा रहै हरि तेरे, तासूं मन नहिं लायौ२ ॥टेक॥
लटकत फिरत घरैं घर डोलत, इत उत चितवत३ धायौ ॥
सेयौ नहीं निरंजन साहिब, ताकौ जस नहिं गायौ ॥
जिभ्या स्वादि श्रवण रस लायौ, कियौ है इंद्रिन कौ भायौ ॥
टीला गुर दादू समझायौ, ‘तासौं४ चित नहिं लायौ’ ॥४२॥
(पाठान्तर : १. जीव, २. लायौ, ३. ‘चितवत’ नहीं है, ४. यह पंक्ति छूट गई है)
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हे जीव ! तूने सांसारिक बातों को करने में ही सारा समय नष्ट कर डाला । परात्पर-परब्रह्म-परमात्मा सदैव तेरे साथ तेरे अन्दर ही रहता है । फिर भी तू उसमें मन को संलग्न नहीं करता है ।
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लटकता-फिरता घर-घर डोलता-फिरता है । इधर-उधर देखता फिरता है । तूने निरंजन-निराकार साहिब को कभी भी नहीं साधा, उसकी साधना नहीं की; उसके यशों का गुणगान नहीं किया ।
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जिव्हा के स्वादों और श्रवणों द्वारा रसों को ही लेने में लगा रहा और इन्द्रियों को जो अच्छा लगा वही करता रहा । टीला कहता है, दादूजी महाराज ने जो परमार्थी ज्ञान समझाया उसको कभी भी चित्त में नहीं लाया, उसमें कभी भी चित्त को नहीं लगाया ॥४२॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

रांमजी नांव२ तुम्हारौ दीजै,

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*दादू देखत ही भया, श्याम वर्ण तैं सेत ।*
*तन मन यौवन सब गया,*
*अजहुँ न हरि सौं हेत ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग सोरठ१ ॥८॥
रांमजी नांव२ तुम्हारौ दीजै, 
मोहि अपनां३ करि लीजै ॥टेक॥
चारि पहरि दिन जाई । रैंनि अंधारी आई ॥
आठ पहर यूँ४ बीता । तुम्ह सूं लागै नहिं चीता ॥
बालापण षेलि गवायौ । तरणापै रांम न गायौ ॥
तीजै चित न लावै६ । चौथे प्रांणीं पछितावै७ ॥
जब तैं जोनि षंदायौ । भ्रमि भ्रमि जनम गवायौ ॥
उलटि न कियौ बिचारा । तौ क्यूं उतरै भौ पारा ॥
जीव कुं८ जुरा९ बियापै । क्रिया करि कांइ न कापै ॥
अब टीलौ करै पुकारा । तूं है धणी हमारा ॥४१॥
(पाठान्तर : १. सोरठि, २. नांउं, ३. अपनौं, ४. यौं, ५. ‘सूं’ नहीं है, ६. लायौ, ७. पछितायौ, ८. कौं, ९. जुरहा)
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विनती करते हुए कहते हैं, हे रामजी ! अपना नाम मुझे प्रदान करिए और मुझको अपना बना लीजिए ।
.
चार प्रहारात्मक दिन के जाने पर अन्धकारयुक्त रात्रि आती है । इस प्रकार चार प्रहर दिन के व चार प्रहर रात्रि के योंही व्यर्थ व्यतीत हो जाते हैं किन्तु यह संसारासक्त मन आपमें अनुरक्त होता नहीं है ।
.
बाल्यावस्था खेलकूद में व्यतीत कर डाली । तरुणावस्था में भी रामजी के नाम का स्मरण नहीं किया । तीसरी अवस्था में भी पुराने संस्कारों के कारण चित्त भगवद्भजन में नहीं लगता है । अन्ततः चौथी जरावस्था आने पर प्राणी पश्चाताप करता है ।
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जब से परमात्मा ने जीव को जन्मने-मरने को संसार में भेजा है तबसे नाना-योनियों में जन्मकर और मरकर जन्मों को व्यर्थ ही गँवाया है । इस बारम्बार भ्रमण के विपरीत अभ्रमणावस्था प्राप्त्यर्थ विचार ही नहीं किया । बताइए, फिर भवसागर से कैसे पार उतर सकता है प्राणी ।
.
मुझको अब जरावस्था व्याप गई है कृपा करके मेरी जरावस्था को क्यों नहीं काट देते हो । अब टीला पुकार कर कहता है, हे परमात्मन् ! आप ही मेरे स्वामी हो । बस, आप ही मेरा उद्धार कर सकते हो । मैं आपसे मेरा उद्धार करने की प्रार्थना करता हूँ ॥४१॥
(क्रमशः)

रविवार, 2 अप्रैल 2023

बाबा मोहन आयौ हो

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आत्मा राम है, राम है आत्मा,
ज्योति है युक्ति सौं करो मेला ।
तेज है सेज है, सेज है तेज है,
एक रस दादू खेल खेला ॥
.
संत टीला पदावली
संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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बाबा मोहन आयौ हो ॥
आग्याकारी साध थौ, थां बेगि बुलायौ हो ॥टेक॥
पद लिखतौ साषी लिखी, अर अरथ बिचार्यौ हो ।
तुम्ह हीं सौं सनमुख रह्यौ, और सबै निवार्यौ हो ॥
हांजी हांजी हीं कियौ, नांहीं कदै न भाष्यौ हो ।
मनसा बाचा करमना, चित तुम सौं राष्यौ हो ॥
मोहन माया तजि गयौ, होइ रह्यौ निवारौ हो ।
‘टीला’ राम षुसी हुवौ, यौं लागै प्यारौ हो१ ॥४०॥
(पाठान्तर : १. यह पंक्ति नहीं है)
.
मोहन बाबाजी इस धराधाम पर पधारे । वे गुरुमहाराज के आज्ञाकारी साधु शिष्य थे किन्तु हे परब्रह्म-परमात्मा ! आपने उनको अपने पास बहुत जल्दी ही बुला लिया ।
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वे पद लिखा करते थे । उन्होंने साषियाँ भी लिखीं और गुरुमहाराज के पद साषियों के अर्थों का विचार भी करते थे । वे सदैव तुमसे ही सन्मुख रहे, सदैव आपके ही अनन्यभक्त बने रहे । उन्होंने आपके अतिरिक्त अन्य सभी का परित्याग कर दिया था ।
.
वे सदैव ‘हाँ जी’, ‘हाँ जी’ ही कहा करते थे । उन्होंने कभी भी ‘नहीं’ शब्द का उच्चारण ही नहीं किया । मनसा-वाचा-कर्मणा सदैव चित्तवृत्ति आपमें ही लगाकर रखी ।
.
अब मोहन बाबाजी शरीर त्यागकर चले गए हैं । वे हमसे अलग हो गए हैं । (शरीरेण अलग हुए हैं । आत्मरूपेण तो अलग होने का प्रश्न ही नहीं) टीला कहता है, मोहन बाबाजी को रामजी अपने पास बुलाकर आनन्दित है क्योंकि ये उसको प्रिय लगते हैं ॥४०॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 मार्च 2023

नैंननि देषि देषि देषि

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*पारब्रह्म सूं प्रीति निरन्तर,*
*राम रसायन भर पीवै ।*
*सदा आनन्द सुखी साचे सौं,*
*कहै दादू सो जन जीवै ॥*
.
*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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राग मारूकनबड़ौ ॥७॥
नैंननि देषि देषि देषि१, सोभित सुंदर सुष पायौ ।
सबहिन के जीवनि प्रांन, सो मेंरैं ग्रिह आयौ ॥टेक॥
मधुर बैंन निरमल नैंन, सुंदर सुषदाई ।
अन्तरगति हरि सूं रत, रहे रांम समाई ॥
परमभाग उदै जाग, चितवत सोइ पायौ ।
निरषि नैंन मुदित बैंन, आनद बधायौ ॥
जीवनि के२ भाग देषौ, साहिब रांम पठायौ ।
टीला गुर दादू देषि, साधनि सुष पायौ ॥३९॥
(पाठान्तर : १. तीन बार ‘देषि’ न होकर दो बार है, २. कौ ।)
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महाराज दादूजी से मिलने पर टीलाजी के मन में क्या-क्या भाव आए, का विवरण इस पद में है । शोभायमान सुन्दर शरीर को देख-देखकर मेरे नेत्रों ने अपार सुख पाया । गुरु महाराज दादूजी सभी के जीवनप्राण=सर्वस्व हैं । वे मेरे गृह में आ गए । मेरे हृदय में बस गए ।
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उनके वचन मधुर हैं, नयन निर्मल हैं, वृत्ति सुन्दर-उत्तम और सुखों को देने वाली है । उनका अन्तःकरण=मन सर्वतोभावेन परात्पर-परब्रह्म हरि में रत रहता है । वे सदैव रामजी में समाए रहते हैं ।
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मेरे परमभाग्य का उदय हुआ कि गुरु धारण करने का विचार मन में आते ही वे मेरे को तत्काल मिल गए । आँखों से देखकर और हर्षित करने वाले वचनों से संभाषण करके उन्होंने मेरे आनन्द को अनन्त गुणा बढ़ा दिया ।
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जीवों के भाग्य को देखो उनको परमानन्द का लाभ देने को परमात्मा ने ही अपने स्वरूपभूत रामजी रूप दादूजी को संसार में भेजा । टीला कहता है, गुरु महाराज दादूजी को देखकर साधुओं ने अनन्तानन्त अखण्ड सुख पाया ॥३९॥
(क्रमशः)

सोमवार, 27 मार्च 2023

बाबा लाज तूंनैं हो

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*दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर उर्ध्व मुख खीर ।*
*जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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बाबा लाज तूंनैं हो ।
तूं साहिब सिर ऊपरैं, कांई चिन्ता मूंनैं हो ॥टेक॥
बालक सोवै गोद में, माता दुलरावै हो ।
बाकौं तन की सुधि नहीं, वा दूध पावै हो ॥
गरभवास मैं राषिया, बहू च्यंता कीन्हीं हो ।
पाँचौं तत मिलाइ करि, काया करि दीन्हीं हो ॥
अनेक जुगां तैं राषिया, केताक बषांणौं हो ।
टीला कौं अब राषिलै, तौ साहिब जांणौं हो ॥३८॥
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विनती करते हुए कहते हैं, हे बाबा ! मेरी लाज तुझको है । यदि मैं तेरी शरण में रहकर भी विपदाग्रस्त हो गया, पतित हो गया, नरकगामी हो गया तो तुझको ही लज्जित होना पड़ेगा । अतः मेरी लाज रखने का दायित्व तेरा ही है । हे साहिब ! तू मेरे सिर के ऊपर है । अतः अब मुझे मेरी तनिक सी भी चिन्ता-फ़िक्र नहीं है कि मेरा क्या होगा ॥टेक॥
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बालक माता की गोदी में निश्चिन्त होकर सोता है और माता उसको दुलराती है, उससे प्रेम करती है, उसे दुत्कारती नहीं है । बालक को अपने शरीर को कोई सुध-बुध नहीं होती है । माता स्वयं ही उसकी चिन्ता करके उसके शरीर के पुष्ट्यर्थ उसको दूध पिलाती है ।
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हे परमप्रभु-परमात्मा ! आप जीव को गर्भवास-काल में रक्षा करते हैं । उसकी भलाई के लिए सर्वविध चिन्ता करके उसको वहाँ सुरक्षित रखते हैं । आहार-पानी का प्रबन्ध करते हैं । जठराग्नि से जलने से बचाते हैं । माता के गर्भ में ही पाँचों तत्त्वों को मिलाकर काया का निर्माण कर देते हैं जिसमें जीव सुखपूर्वक रह पाता है ।
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आप अनेक युगों से रक्षा करते आ रहे हैं । मैं उन उपकारों का कहाँ तक वर्णन करूँ । हे साहिब ! मैं टीला आपको साहिब तबही जानूँगा जब अबकी बार मुझे आप अपनी अभय, अक्षय, अखण्डानन्द रूप शरण में रख लोगे ॥३८॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

साहिब कै नातै मिलै

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*दादू ये सब किसके ह्वै रहे, यहु मेरे मन माँहि ।*
*अलख इलाही जगत-गुरु, दूजा कोई नांहि ॥*
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*संत टीला पदावली*
*संपादक ~ ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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देषि चालौ रे बीरा देषि चालौ रे ॥
कलिजुग घोर अंधार है, तामैं हाथ न घालौ रे ॥टेक॥
कै सोफी कै सन्तजन, घरि बैठां आवै रे ।
ताकूं१ सुष संतोष दे, तूं कांइ दुषावै२ रे ॥
जैंनबोध जोगी जती, सिंन्यासी कोई रे ।
साहिब कै नातै मिलै, भारी सुख होई रे ॥
जिहिं जो धारी सो करै, अपणीं३ जिनि छाड़ो रे ।
साध कहैं सो कीजिए, थे रांति न मांडो रे ॥
साध कहावौ देस में, क्यूं करौ लड़ाई रे ।
कोई रोस न मांनि४ यूँ, कह टीलौ भाई रे ॥३७॥
(पाठान्तर : १. ताकौं, २. सतावै, ३. अबर्णी, ४. मांनि यौं, ५.टीला)
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हे भाई ! देखकर चलो, सोच-विचारकर आचरण करो । कलियुग घोर अन्धकार रूप है । इसमें हाथ मत डालो, इसमें अनुरक्त मत होओ ।
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या तो सूफी महात्मा या साधु-सन्तजन घर बैठे ही सत्संग करने को आते हैं । उनको सुख और सन्तोष=शान्ति देने का प्रयत्न करो । अरे ! उनको सुख-शान्ति नहीं दे सकते हो तो दुख भी क्यों देते हो । जैन, बौद्ध, योगी यती, संन्यासी चाहे कोई भी हो, ये सभी साहिब की बातें सुनाने के लिए आते हैं, मिलते हैं । इनके मिलने से अखण्डानन्द रूप स्वात्मतत्व का बोध होता है । जिन्होंने जिस सिद्धांत को धारण कर लिया है, वे उसी को मानते रहें । किसी को भी अपने सिद्धांत को छोड़ने की आवश्यकता नहीं है ।
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ब्रह्मनिष्ठ साधु-सन्त जो बातें बताते हैं उन्हीं को मानो तथा उन्हीं पर अमल करो । आप व्यर्थ ही रांति=झगड़ा मत पैदा करो । आप अपने देश में साधु कहलाते हो । साधु होकर क्यों लड़ाई करते हो । हे साधुओं ! मेरी बातों पर क्रोधित मत होओ । मैं आपही का भाई टीला आपसे उक्त प्रकार कहता हूँ, निवेदन करता हूँ ॥३७॥
(क्रमशः)