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शुक्रवार, 27 नवंबर 2020

= २०० =

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*काल कुहाड़ा हाथ ले, काटन लागा ढाइ ।*
*ऐसा यहु संसार है, डाल मूल ले जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *फूट*
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क्षत्रिय वीर आमेर(जयपुर के पास) को चाहते थे किन्तु आमेर के शासक मीणे वीरता में कम न थे । क्षत्रिय ने फूट डालकर काम करना चाहा और आमेर के मीणों के एक ढोली को लोभ देकर उससे भेद ले लिया । ढोली बोला - "दीपमालिका के दिन मीणे शस्त्र रहित अमुक सरोवर में प्रवेश करके अमुक समय तर्पण करते हैं । यदि उसी समय आप लोग उन पर आक्रमण करें तो उनको जीत सकते हैं ।" 
क्षत्रियों ने वैसा ही किया । शस्त्र सहित मीणे मारे गये । ढोली बोला -" आपने जो मुझे बड़ा बनाने का वचन दिया था उसे पूर्ण करें।" क्षत्रियों ने उसके सिर पर सूखे चमड़े की पगड़ी बांध दी और उसे पानी में भिगो दिया । उसके सिर के टुकड़े टुकड़े होने लगे । 
फिर सब मीणों के शव एक स्थान में चुनकर सबके उपर उसे बिठा दिया और अग्नि लगा दी । फिर बोले - "देख, तुझको हमने तेरे सरदारों से भी बड़ा बना दिया है । तेरे जैसे काम करने वाले ऐसे ही बड़े बनाये जाते हैं ।" वह जल कर भस्म हो गया ।
भेदक का भी नाश हो, यह नहिं, मृषा विचार ।
मीणों का दे भेद सठ, ढोली मर कर छार ॥१७५॥

= १९९ =

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*दादू करबे वाले हम नहीं, कहबे को हम शूर ।*
*कहबा हम थैं निकट है, करबा हम थैं दूर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *आलस*
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दो आलसी मध्याहन में एक वृक्ष के नीचे सोये थे, वहां धूप आ गई । एक अन्य मनुष्य ने उन्हें धूप में सोते देखकर कहा - "अरे ! उठकर छाया में तो सो जाओ ।" तब उनमें से एक बोला - "भाई ! वह तो आलसी है तू उससे क्यों सिर खपाता है, इधर आ मेरे पैर पकड कर खींचकर मुझे छाया में कर जा।" इससे सूचित होता है कि आलसी भी दूसरे को आलसी मानता है ।
कहत आलसी अन्य को, यह आलसि दुख पाय ।
छाया में करजा मुझे, उससे शिर न खपाय ॥२५०॥

गुरुवार, 26 नवंबर 2020

= १९८ =

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*जहँ तिरिये तहँ डूबिये, मन में मैला होइ ।*
*जहँ छूटे तहँ बंधिये, कपट न सीझे कोइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधू का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *वंचकता*
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शकुनी नामक कौरवों के मामा ने द्यूत(जुवा) में युधिष्ठिर को छल से जीता है । इसी कारण ससहाय(कौरवों सहित) युद्ध मे मारा गया ।
वंचक का परिणाम में, होत अवश्य विनाश ।
छल से जयकर द्युत में, शकुनि ससहाय नाश ॥१२४॥

= १९७ =

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*दादू माया फोड़े नैन दोइ, राम न सूझै काल ।*
*साधु पुकारैं मेरू चढ़, देखि अग्नि की झाल ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ माया का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *अन्याय*
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द्रोपदीजी का चीर हरते समय भीष्म, कृत, द्रोणाचार्य आदि विद्वानों ने भी दुष्ट दु:शासन को नहीं रोका कारण दुर्योधन अन्यायी राजा था । इसलिये उन्हें वह बात ही नहीं फुरी । भगवान पर तो किसी अन्यायी का प्रभाव पङता नहीं इसलिए उनने द्रोपदीजी की लाज रख ली और दुष्ट को लज्जित कर दिया ।
अन्यायी की सभा में, न्यायी भी चुप होय ।
चीर हरत रोक न सके, भीष्मादिक बुध कोय ॥१३८॥

बुधवार, 25 नवंबर 2020

= १९६ =

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*गंगा यमुना सरस्वती, मिलैं जब सागर मांहि ।*
*खारा पानी ह्वै गया, दादू मीठा नांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधू का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *काम*
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इन्द्र जब गौतम के आश्रम पर अहिल्या के पास गये तब चन्द्रमा उनके सहायक हुए थे । इसी से मुनी के कोपपूर्वक धोती के छीटें लगने से उनमें अब तक भी कालिमा(कालापन) है ।
कामी के सहायक हुए, होती हानि महान ।
प्रकट चन्द्र में कालिमा, लखते सभी सुजान ॥१७॥

= १९५ =

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*परमारथ को सब किया, आप स्वार्थ नांहि ।*
*परमेश्वर परमार्थी, कै साधु कलि मांहि ॥* 
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधू का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *धर्माधर्म निरूपण*
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एक समय महाराज रन्तिदेव को ४८ दिन तक कुछ न मिला । ४९वें दिन धी, खीर, हलवा और जल मिला । उसी दिन एक विप्र, एक शूद्र, फिर कई कुत्तों के साथ एक मनुष्य, फिर एक चांडाल क्रम से आये, रन्तिदेव ने जो मिला सो सब उपर्यक्तों को दे दिया । ये त्रिदेव थे, रन्तिदेव की परीक्षा के निमित्त आये थे ।
धर्मात्मा अति क्लेश भी, सहते परहित काज ।
जल रु अन्न सब ही दिया, रन्ति देव महाराज ॥३०॥

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

= १९४ =

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*आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।*
*दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥* 
*(#श्रीदादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *धर्माधर्म निरूपण*
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उशीनर के पुत्र राजा शिवि एक यज्ञ कर रहे थे, उसी समय एक कबुतर आकर उनकी गोद में छिप गया । पीछे से एक बाज आया शिवि ने अपने शरीर का एक पल(मांस) देकर कबूतर की रक्षा की थी । कबूतर अग्निदेव थे । बाज इन्द्र थे, शिवि के धर्म की परीक्षा के निमित्त थे । जब शिवि परीक्षा में पूरे उतरे तब दोनों देवता प्रसन्न होकर चले गये ।
धर्मात्मा नहिं करत है, शरणागत का त्याग ।
पल तक दे शिवि ने करी, रक्षा सह अनुराग ॥२९॥

= १९३ =

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*अन्तर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाइ ।*
*बाहर सुरझे देखतां, बहुरि अरूझे आइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *धर्माधर्म निरूपण*
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काशीराज की पुत्री अम्बा से विवाह करने को परसुरामजी ने भीष्म से आग्रह किया किन्तु भीष्म पहले प्रतिज्ञा कर चुके थे कि मैं विवाह नही करूंगा, इस कारण उनने परशुराम जी की बात न मानी, इस पर परशुरामजी ने भीष्म जी से युद्ध किया और सर्व संसार के क्षत्रियों के विजेता होने पर भी धर्मात्मा भीष्म से हार गये थे ।
धर्मात्मा जन का कभी, होत पराजय नाँहि ।
वीर भीष्म ने जय किया, परशुराम रण माँहिं ॥२८॥

सोमवार, 23 नवंबर 2020

= १९२ =

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*दादू सूखा सहजैं कीजिये, नीला भानै नांहि ।*
*काहे को दुख दीजिये, साहिब है सब मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ दया निर्वैरता का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी 
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *भक्त*
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भक्तमाल के कर्ता दादूपंथी संत राधवदासजी के शिष्य को किसी ने इमली के हरे वृक्ष का दांतुन लाकर दिया उन्होंने कहा - 'रामजी यह हरा वृक्ष क्यों तोड़ लाये ? वे परम दयालु थे फिर उस दांतुन को करके उसकी दो फाड़े की और जीभी करके उन दोनों को अलग अलग पृथ्वी में रोप दिया । दोनों पेड़ बन गये । जब फल आने लगे तो दोनों के फलों में आधा आधा दालिया(बीज) पड़ने लगा । यह उन पेड़ों की खास विशेषता थी । इससे सूचित होता है कि भक्तों में महान दया होती है ।
भक्तजनों में दया की, अतिशयता दिखलाय ।
दांतुन करके फेरि भी, दीन्हे वृक्ष लगाय ॥३७५॥

= १९१ =

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*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *संशय*
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चम्पकपुरी के राजा हंसध्वज ने पांडवों के अश्वमेध के घोडे को पकड़ लिया था । इस कारण अर्जुन आदि से युद्ध करना था । राजा की आज्ञा थी कि - "अमुक समय तक जो रणक्षेत्र में उपस्थित न होगा उसे तप्त तेल के कड़ाह में डाल दिया जायगा ।" राजा के छोटे पुत्र सुधन्वा को माता आदि से मिलने के कारण कुछ देर हो गयी । पुरोहित की संमति से सुधन्वा को उबलते हुये तेल के कड़ाह में डाला । 
भक्त होने से भगवान ने उनकी रक्षा की । किन्तु शंखमुनी को इस भगवत् रक्षा में संशय हुआ, उसने सोचा कि - "इसमें कोई चालाकी है । यदि तेल गरम होता तो सुधन्वा कैसे बच सकता था ।" परीक्षा के लिये एक नारियल कड़ाह में डाला । वह गरम तेल से तड़ाक से फूट कर दो टुकडे होकर उछले और शंख तथा लिखित के सिर में लगे ।
संशय ईश्वर कार्य में, किये भलाई नांहिं ।
शंख लिखित मुनि के लगी, चोट शीश के माँहिं ॥२८१॥

रविवार, 22 नवंबर 2020

= १९० =

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*ज्यों यहु काया जीव की, त्यों सांई के साध ।*
*दादू सब संतोषिये, मांहि आप अगाध ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ साधू का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *संतोष*
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एक छोटे से गांव में संतों की मण्डली आई थी । सब को एक व्यक्ति भोजन नहीं करा सकता था । इसलिये योग्यता अनुसार सब घरों की एक-एक दो-दो बांट दिये । एक वृद्धा माता के हिस्से में एक संत आया । उसके घर में रोज खिलाने के लिये कुछ नहीं था । संत को देखकर वह हर्षित तो हुई, किंतु अन्न के नहीं होने से तुरंत रोने लगी । 
संत ने पूछा - रोती क्यों हो ? माता - मेरा अहो भाग्य की आप घर पर पधारे किंतु खेद है कि आज घर में खाने पीने की कोई वस्तु नहीं है । संत - माताजी, चिंता नहीं करो, थोड़ा सा जल गरम करके मुझे पिला दो । माता ने वैसा ही किया । संत जल पीकर गये कि उसके घर में खूब द्रव्य की वर्षा हुई । इससे सूचित होता है कि संतोषी का सम्मान करने से भी अति लाभ होता है । 
होत लाभ संतुष्ट का, करने से सम्मान ।
दिये गरम जल भी तुरंत, वर्षा द्रव्य महान ॥२६१॥

= १८९ =

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*दादू दीया है भला, दीया करौ सब कोइ ।*
*घर में धर्या न पाइये, जे कर दीया न होइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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कच्छ देश के भद्रेश्वर गांव के सेठ सोलक और लक्ष्मीबाई के जगडू, राज और पदम ये तीन पुत्र थे । पिता के मर जाने पर जगडू ने अपने हाथ में सब काम ले लिया । 
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जगडू बडे उदार थे, उनके यहां से कोई भी अर्थी निरास नहीं होता था । धीरे धीरे धन घटने लगा, जगडू को चिंता होने लगी कि कही ऐसा समय न आ जाय तो मेरे यहां कोई अर्थी खाली हाथ चला जाय । 
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उसके भाग्य ने जोर पकड़ा, एक दिन गांव के एक बकरियों के झुण्ड में एक बकरी के गले में एक बहुमुल्य मणि बंधी देखी और बकरियों वाले को धन से राजी करके मणि के सहित वह बकरी खरीद ली । उस मणि के द्वारा उसका धन बहुत बढ गया । देखो दान के प्रभाव से अकस्मात मणि मिल गई और पुन: महाधनी हो गया ।
दानी का धन घटत भी, अकस्मात बढ जाय ।
जगडू का अतिशय बढा, बकरी मणि को पाय ॥१०१॥

शनिवार, 21 नवंबर 2020

= १८८ =

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*वैरी मारे मरि गये, चित तैं विसरे नांहि ।*
*दादू अजहूँ साल है, समझ देख मन मांहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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एक समय सूर्यग्रहण के मेले पर कुरूक्षेत्र में मैंने एक दिन विरक्त संत को देखा था, जो केवल कमर में एक वस्त्र बांधे हुये थे और सिर पर एक ठीकरा धर रखा था । वे प्रत्येक व्यक्ति के पास जाकर कहते थे कि - हमारे समान त्यागी कौन होगा ? हम केवल एक वस्त्र और एक ठीकरा ही रखते हैं ।
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बाम्बार यही बात कहने पर लोग प्राय: उनकी हँसी करते थे । इससे सूचित होता है कि अपने मुख से अपने त्याग की बात कहने से उपहास ही होता है ।
निजी त्याग निज मुख कहे, होता नहिं उल्लास।
कुरुक्षैत्र में मैं लखा, अस त्यागी उपहास ॥१९५॥

= १८७ =

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*हरि भज साफिल जीवना, पर उपकार समाइ ।*
*दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पंखी खाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
=================
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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########################
संत रज्जब जी जब १२० वर्ष की आयु के हो गये तब देह का अंत समय जानकर अपने शिष्य रामदास को साथ लेकर टौंक के वन में जाकर शिष्य को पीछे भेजकर तथा अपने शरीर को पशु पक्षियों के लिये वन में छोड़ कर अपने गुरु दादूजी का परोपकार का यह उपदेश -
"(दादू मरणा तहाँ भला, जहाँ पशु पक्षी खाय ।)"
का पूरा-पूरा निर्वाह कर ब्रह्मलीन हो गये ।
संतों में उपकार की, सीमा देखी जाय ।
रज्जब ने निज देह को, छोड़ा वन में आय ॥१००॥

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

= १८६ =

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*जो मति पीछे ऊपजै, सो मति पहली होइ ।*
*कबहुं न होवै जीव दुखी, दादू सुखिया सोइ ॥*
*आदि अन्त गाहन किया, माया ब्रह्म विचार ।*
*जहँ का तहँ ले दे धर्या, दादू देत न बार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विचार का अंग)*
=================
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
########################
एक ब्राह्मण ने एक तोता पाला और परिश्रम करके उसे "अत्र क: सन्देह:" पढा दिया, फिर उसे बेचने के लिये निकला । एक सेठ ने पूछा - इसका क्या मूल्य है ? ब्राह्मण ने कहा - एक लाख रुपये । सेठ - इसमें ऐसा क्या गुण है ? ब्राह्मण - यह भूत, भविष्य और वर्तमान को जाननेवाला तथा महान विद्वान है ।
.
सेठ ने तोते से पूछा - क्या महाराज का कहना ठीक है ? तोता - अत्र क: सन्देह:(इसमे क्या शक है) यह सुनकर सेठ को विश्वास हो गया कि यह अवश्य महा विद्वान है । झट से लाख रुपये दे दिया । ब्राह्मण लेकर चलता बना । सेठ तोते को घर ले गया और पूछा - दाना खायेगा, पानी पिएगा । तोता- अत्र क: सन्दह: ।
.
फिर सेठ ने जितने प्रश्न किये, उन सब को उत्तर में तोते ने, अत्र क:सन्देह: ही कहा । तब चक्कर में पड़कर सेठ ने कहा - बस तू यही जानता है ? तोता - अत्र क: सन्देह: । सेठ तो क्या मैं ठगा गया ? तोता - अत्र क: सन्देह: ।
.
बस फिर तो सेठ सिर पकड़ कर पछताने लगा । इससे ज्ञात होता है कि बिना विचारे कार्य करने से अंत में पश्चाताप करना पड़ता है ।
बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय ।
इसमें क्या संदेह सुन, बनिया गया ठगाय ॥१६॥

= १८५ =

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*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
=================
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*#०दृष्टान्त०सुधा०सिन्धु*, *श्रद्धा विश्वास*
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भैराणा धाम(जयपुर के पास) पर्वत में संतवर दादूजी की गुफा पर रहने वाले सन्त मोहनदासजी के नेत्रों में मोतियाबिन्दु हो गया था। उनके भक्तों ने मोतिया उतारने का आग्रह किया । किंतु उनका विश्वास था कि - दादूजी की कृपा होगी तो आप ही ठीक हो जायेगी। अंत में एक दिन गुफा की ओर मुख करके बैठे बैठे भजन कर रहे थे कि सहसा नेत्रों में ज्योति आ गई ।
क्या न होत विश्वास से, जो संशय हो नांहि ।
आंखे मोहनदास की, खुली भैराणा मांहिं ॥२३६॥

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

= १८४ =

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*कहि कहि क्या दिखलाइये, सांई सब जाने ।*
*दादू प्रगट क्या कहै, कुछ समझि सयाने ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ जरणा का अंग)*
=================
साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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########################
एक संत कहीं जा रहे थे, बड़ी भूख लगी । समीप में कोई गांव दृष्टि नहीं आता था । मन का संकल्प उठा - भगवान से मांगू लूँ किंतु सावधान रहने से तत्काल विचार हुआ कि - प्रभु विश्वासी का यह काम नहीं । फिर संकल्प उठा कि - भूख के कारण व्याकुलता आएगी । इसलिये भगवान से धैर्य माँग लू । सचेत रहने के कारण पुन: विचार आया कि - धैर्य के समुद्र भगवान मेरे भीतर ही तो है । भक्त का योग क्षेम करने की भी उनकी प्रतिज्ञा है । फिर इस मन का कहना क्यों करूँ ? इस प्रकार विचार के संत शम को धारण करते हैं ।
निज सचेत रह जीत ते, मन को संत सुजान ।
नहीं संत ने भीख अरु, मांगा धीरज दान ॥२२३॥

= १८३ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
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*जब अंतर उरझ्या एक सौं, तब थाके सकल उपाइ ।*
*दादू निश्चल थिर भया, तब चलि कहीं न जाइ ॥*
*दादू मन सुध साबित आपणा, निश्‍चल होवे हाथ ।*
*तो इहाँ ही आनन्द है, सदा निरंजन साथ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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किसी घड़े में चींटा गिर पड़ता है तो वह घड़े में दौड़ने लगता है । किंतु घड़े में मिश्री का टुकड़ा डाल दिया जाय और वह चींटा को मिल जाय तो चींटा मिश्री को तज कर नहीं जाता । इसी प्रकार ब्रह्मतत्व की प्राप्ति होने पर मन भी कहीं नहीं जाता ।
तत्व प्राप्ति से चित्त यह, सहज ही रुक जात ।
घट चींटा तज सिता को, अन्य ओर नहिं जात ॥१८॥

बुधवार, 18 नवंबर 2020

= १८२ =

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*दादू जहाँ कनक अरु कामनी, तहँ जीव पतंगे जांहि ।*
*आग अनंत सूझै नहीं, जल-जल मूये माँहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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दक्षिण प्रान्त में कृष्ण वीणा नदी के तट पर एक गांव मे रामदास नामक एक भक्त ब्राह्मण रहते थे, उनके पुत्र का नाम विल्वमंगल था ।
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पिता के मरने पर उसका चिन्तामणी नामक वैश्या से प्रेम हुआ, उसके बिना वह नहीं रह सकता था । पिता के श्राद्ध के दिन देर हो गई ।
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चिन्तामणि और इसके गांव के मध्य नदी थी, उसका पानी बहुत बढा हुआ था ।
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रात्रि में विल्वमंगल नदी तट पहँचा और एक मुरदे को चिंतामणि का भेजा हुआ काष्ठ समझ उसके ऊपर चढकर पार गया । चिंतामणि का घर बंद था ।
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उसकी अटारी की छत की मोरी में लटकते हुए सर्प को रेशम की डोरी जान, पकड़कर ऊपर जा चढा ।
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चिंतामणि ने पूछा - तुम कैसे आये । विल्वमंगल - तेरे भेजे हुए काष्ठ से नदी पार करके तथा तेरे लटकाई हुई डोरी से चढकर ।
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चिंतामणि - मैंने न काष्ठ भेजा है न डोरी लटकाई है । फिर चिंतामणि ने उसे साथ लेकर देखा तो सर्प और मुर्दा मिला ।
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चिंतामणि बोली - विल्व ! जैसा तुमने मुझसे प्रेम किया है वैसा हरि से करते तो तुम्हारा कल्याण हो जाता । आगे चलकर दोनों कृष्ण भक्त बने ।
नहीं रहे कामान्ध को, तिय तज पर का ज्ञान ।
देख विल्वमंगल नहीं, शव अहि सका पिछाण ॥२॥

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*मन ही सौं मन थिर भया, मन ही सौं मन लाइ ।*
*मन ही सौं मन मिल रह्या, दादू अनत न जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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संत भर्तृहरि एक नगर में हलवाई की दुकान पर हलवा देखकर हलवाई से बोले - मुझे हलवा दे । हलवाई - पैसे लाओ । भर्तृहरि - पैसे तो नहीं है । हलवाई - तब हलवा नहीं मिलेगा । भर्तृहरि - पैसे कहां मिलेंगे । हलवाई - गांव के दक्षिण की ओर एक तालाब खुद रहा है वहां जाकर काम करो तो पैसा मिलेगा ।
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भर्तृहरि का मन नहीं रुका, वे तालाब पर जाकर दिन भर टोकरियां ढोते रहे । सांझ को उन्हें पैसे मिले, पैसे लेकर हलवाई के पास आये, हलवा लिया और बोले यहां कोई जलाशय है ? हलवाई - गांव की उत्तर की ओर तालाब भरा है ।
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भर्तृहरि तालाब की ओर चले जाते थे तथा सोचते जाते थे कि आज तो मन ने मुझे बहुत हैरान किया । इतने में ही मार्ग में एक भैंस का बड़ा पोठा पड़ा था उसे उठा लिया और तालाब पर जा घाट पर बैठकर गोबर का बड़ा ग्रास बना कर मुख में डाले ओर हलवे का ग्रास तालाब में मच्छियों को डाल दें ।
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इसी प्रकार सब गोबर आप खा गये एक ग्रास हलवे का बचा तब मन मानों मूर्ति धार कर कहता है कि एक ग्रास तो दे दो किंतु भर्तहरि ने नहीं दिया । ऐसे जो करता है वह अवश्य मन को जीत लेता है ।
तजे प्राप्त सो चित को, जीत सके सत भाव ।
भर्तृहरि ने विजय किया, हलवा डाल तलाव ॥२३॥