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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १७/१९*
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*दादू साधु सबै कर देखना, असाधु न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥१९॥*
कांगा पूजा साधु कर, परचा से भया मान ।
नृप पूजा लारे लगा, करंक चूमि भया ज्ञान ॥४॥
एक कांगा(नीच जाति का व्यक्ति) चोरी का अवसर खोजने के लिये साधु भेष बनाकर एक राजा के बाग में तपस्या करने लगा । उस बाग मे माली के पुत्र नहीं था । इससे उसने पुत्र प्राप्ति की कामना से उक्त साधु की भोजनादि की सेवा की । फिर उस के पुत्र हो गया ।
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इस परचा(चमत्कार) से उक्त कांगा की प्रतिष्ठा बढ़ गई । उसकी कीर्ति सुनकर वहां का राजा उसे गुरु बनाने के लिये एक दिन पूजा की सामग्री लेकर उसके पास आया तब कांगा ने सोचा मेरी जाती का पता लगने से राजा मुझे दंड देगा । यह समझकर डर गया और उठकर भागा । राजा ने सोचा - ये विरक्त संत हैं पूजा को अच्छी नहीं मानते किन्तु उपदेश तो दे ही देंगे । मैंने तो इनको मन से गुरु मान लिया है अतः उपदेश तो लेना ही है ।
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ऐसा विचार करके राजा भी उसके पीछे भागा । भागते हुये कांगा की दृष्टी में एक मरे हुये ऊंट का अस्थिपंजर आया । कांगा ने सोचा - मैं इस अस्थिपंजर को चूमूंगा तब राजा मुझे नीच जाति का समझकर लौट जायगा । उसने उस करंक को चूमा और फिर भागा । राजा में तो श्रद्धा का वेग बहुत बढ़ा हुआ था । अतः राजा ने सोचा - संत कहते हैं तुम इस को चूम लो ज्ञान हो जायगा । राजा ने अपने मानस गुरु की आज्ञा मानकर उस करंक को चूमा कि उसे ज्ञान हो गया ।
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सोई उक्त १९ की साखी में कहा है कि सारग्राहक दृष्टी से सभी को साधु ही समझना चाहिये । जैसे राजा ने सारग्राहक भाव से कांगा को साधु समझकर अति श्रद्धा की और करंक को चूमा तो भी उसकी इच्छा पूर्ण हो गई ।
इतिश्री सारग्राही अंग १७ समाप्तः