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शनिवार, 8 मार्च 2014

दादू साधु सबै कर देखना ~ १९/१७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १७/१९*
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*दादू साधु सबै कर देखना, असाधु न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥१९॥*
कांगा पूजा साधु कर, परचा से भया मान ।
नृप पूजा लारे लगा, करंक चूमि भया ज्ञान ॥४॥
एक कांगा(नीच जाति का व्यक्ति) चोरी का अवसर खोजने के लिये साधु भेष बनाकर एक राजा के बाग में तपस्या करने लगा । उस बाग मे माली के पुत्र नहीं था । इससे उसने पुत्र प्राप्ति की कामना से उक्त साधु की भोजनादि की सेवा की । फिर उस के पुत्र हो गया । 
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इस परचा(चमत्कार) से उक्त कांगा की प्रतिष्ठा बढ़ गई । उसकी कीर्ति सुनकर वहां का राजा उसे गुरु बनाने के लिये एक दिन पूजा की सामग्री लेकर उसके पास आया तब कांगा ने सोचा मेरी जाती का पता लगने से राजा मुझे दंड देगा । यह समझकर डर गया और उठकर भागा । राजा ने सोचा - ये विरक्त संत हैं पूजा को अच्छी नहीं मानते किन्तु उपदेश तो दे ही देंगे । मैंने तो इनको मन से गुरु मान लिया है अतः उपदेश तो लेना ही है । 
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ऐसा विचार करके राजा भी उसके पीछे भागा । भागते हुये कांगा की दृष्टी में एक मरे हुये ऊंट का अस्थिपंजर आया । कांगा ने सोचा - मैं इस अस्थिपंजर को चूमूंगा तब राजा मुझे नीच जाति का समझकर लौट जायगा । उसने उस करंक को चूमा और फिर भागा । राजा में तो श्रद्धा का वेग बहुत बढ़ा हुआ था । अतः राजा ने सोचा - संत कहते हैं तुम इस को चूम लो ज्ञान हो जायगा । राजा ने अपने मानस गुरु की आज्ञा मानकर उस करंक को चूमा कि उसे ज्ञान हो गया । 
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सोई उक्त १९ की साखी में कहा है कि सारग्राहक दृष्टी से सभी को साधु ही समझना चाहिये । जैसे राजा ने सारग्राहक भाव से कांगा को साधु समझकर अति श्रद्धा की और करंक को चूमा तो भी उसकी इच्छा पूर्ण हो गई । 
इतिश्री सारग्राही अंग १७ समाप्तः

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

जा के हिरदै जैसी होयगी ~ १८/१७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १७/१८*
*जा के हिरदै जैसी होयगी, सो तैसी ले जाइ ।*
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥१८॥*
दृष्टांत - 
इक कोली इक बाणियां, साधु सेय दे गाल ।
बणक तिरा कोली मरा, द्वै भुज शिर लख बाल ॥३॥
एक ग्राम के पास एक नदी थी और नदी के पार एक संत एक स्थान पर भजन करते थे । ग्राम में से एक वैश्य उनकी सेवा करने प्रति दिन जाता था और उस ग्राम का ही एक कोली भी प्रति दिन जाकर उक्त संत को अपनी इच्छानुसार गालियाँ दिया करता था । 
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चातुर्मास का समय था । एक दिन नदी में पानी अधिक था इससे वैश्य तो डूबने के भय से नहीं गया किन्तु कोली तो तैरता हुआ संतजी के पास पहुँच कर गालियां देने लगा । उसके नियम की दॄढता देखकर संत प्रसन्न होकर बोले - तू आज भी चला आया अतः अपने नियम का पक्का है । अतः तेरी जो इच्छा हो वही वर मांग ले, कोली ने यह सोचकर कि दो हाथ एक शिर मेरे पीछे की ओर भी ओर भी आगे के समान दो हाथ और एक शिर और बना दें । संत ने कह दिया तथास्तु । 
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उसी समय पीछे की ओर उसके दो हाथ और एक शिर और बन गये । फिर वह नदी में घुसकर ग्राम में जाने लगा तो नदी के बाढ़ को देखने के लिये बहुत से बाल - युवक आये हुए थे, उन्होंने इसे देखा तब सोचा - यह कोई भूत है और ग्राम में जाकर उपद्रव करेगा । अतः इसे नदी में ही मार देना चाहिये । फिर जिनके हाथ जो लगा - ईट, पत्थर आदि मारने लगे । 
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एक के पास बन्दूक थी उसने उसे गोली मार कर नदी में ही मार दिया और वह मर कर नदी में ही बह गया । सोई उक्त १८ की साखी में कहा है कि जिसके मन में जैसी भावना होती है, वैसा ही उसे फल मिलता है । कोली संत को गालियाँ देकर दुःख देने की चेष्टा करता था तो उसका फल उसे दुःख ही मिला । वैश्य सेवा करता था उसका कल्याण ही हुआ । अतः व्यक्ति को निर्दोष ही रहना चाहिये ।

गुरुवार, 6 मार्च 2014

दादू करणी ऊपरि जाति है ~ १३/१७

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १७/१३*
*दादू करणी ऊपरि जाति है, दूजा सोच विचार ।*
*मैली मध्यम हो गये उज्ज्वल ऊंच विचार ॥१३॥* 
दृष्टांत - 
इक नृप के कर में उगा, नाम चांडाल बाल । 
मिट है खाये तास कण, ब्राह्मण मिला चंडाल ॥२॥ 
एक राजा की हथेली में चांडाल नामक बाल उग गया था । उस से राजा को अति पीड़ा होती थी । बहुत इलाज कराने पर भी वह नहीं मिटा था । फिर दैवयोग से एक संत पधार गये । राजा ने उनसे कहा तब संतजी ने कहा - चांडाल का अन्न खाने से मिट जायगा । संत ने राजा को चांडाल के लक्षण भी बता दिये । जो अति क्रोधी हो, उपकारक को दुःख देने वाला हो, इत्यादि । 
राजा गुप्तरूप में उक्त लक्षणों को चांडालों में खोजने लगा किन्तु उक्त लक्षणों वाला उनमें कोई भी नहीं मिला । फिर एक हल जोतने वाले ब्राह्मण में सब लक्षण मिल गये । फिर राजा ने किसी प्रकार उसका अन्न खाया तो खाते ही बाल जल गया और उससे होने वाली पीड़ा भी मिट गई । सोई उक्त १३ की साखी में कहा है कि जाति कर्तव्य से मानी जाती है जन्म से नहीं । देखो उक्त ब्राह्मण जन्म से तो ब्राह्मण ही था किन्तु कर्तव्य से चांडाल था । तब ही उसका अन्न खाते ही वह बाल नष्ट हो गया था ।

बुधवार, 5 मार्च 2014

दादू हँस मोती चुगै ~ ९/१७

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*सारग्राही का अंग १७/९*
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*दादू हँस मोती चुगै, मान सरोवर न्हाइ ।*
*फिर फिर वैसे बापुड़ा, काक करंका आइ ॥९॥*
दृष्टांत - हंस काक के संग लग, थलियां आया भूल ।
त्रिशाख देखा करंक जल, दुख भया गया डूले ॥१॥
एक हंस काक के यह कहने से कि हमारा देश सुन्दर है, मानसरोवर को भूलकर मारवाड़ के टीलों मे आ गया । वहां तीन शाखाओं वाला ठूंठ तथा मरे हुये पशुओं के करंक - अस्थिपंजर और गंदी तलाई देखकर अति दुःखी हुआ और विचार किया कि मैं काक के संग से भटक गया । कारण ?
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हंस तो मानसरोवर में डुबकी लगाकर मोती चुगने वाला और काक बारंबार करंक तथा ठूंठ पर बैठने वाला तथा गंदी तलाई का जल पीने वाला था । अतः उसका काक के साथ आना भटकना ही था ।
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उक्त प्रकार ही संत अन्तःकरण में वृत्ति को रोक कर महावाक्य रूप मोती चुगने वाले होते हैं और पामर मानव त्रिशाख - त्रिगुण की शाखा रूप विषयों में और नारी शरीर में आसक्त रहने वाले होते हैं । संत यदि पामरों के साथ हो जाय तो उनका भटकना ही माना जाता है । अतः उक्त ९ की साखी का यही तात्पर्य है । पामरों का संग संतों के लिये हेय है

काला मुँह संसार का ~ ५७/१६

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*मध्य का अंग १६/५७*
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*काला मुँह संसार का, नीले कीये पाँव ।*
*दादू तीन तलाक दे, भावे तीधर जाँव ॥५७॥*
प्रसंग कथा - 
आँधी चौमासे रहे, गुरु वरसाया नीर ।
ताहि समय साखी कही, दुनियां पूजा पीर ॥६॥
आँधी ग्राम में दादूजी ने चातुर्मास किया था । वर्षा न होने से जनता का दुःख मिटाने को दादूजी ने वर्षा कराई थी फिर वहां के काजी और मुल्लाओं ने ग्राम में प्रचार किया कि - हमने वर्षा कराने के लिये पीरजी से अर्ज की थी । उस हमारी अर्ज को सुनकर पीरजी ने ही वर्षा कराई है । अतः सब ग्राम निवासियों को मिलकर पीरजी की पूजा करनी चाहिये । 
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अतः नियत दिन को हिन्दू भी यूथ बना - बनाकर नाचते गाते बजाते पीर को पूजने जा रहे थे । उनका कोलाहल सुनकर दादूजी ने पूर्णदास से पू़छा - आज ये कोलाहल करते हुये लोग कहां जा रहे हैं ? पूर्णदास ने कहा - वर्षा तो आपने कराई थी, आपका उपकार तो कु़छ नहीं माना और काजी, मुल्ला आदि मुसलमानों के बहकाने से पीर को पूजने जा रहे हैं । 
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यह सुनकर ईश्वर इच्छा से दादूजी के मुख से उक्त ५७ की साखी निकली थी । उक्त साखी के उच्चारण करते ही पीर पूजने जा रहे थे उन सब के काले मुख और नीले पैर हो गये थे । वे एक दूसरे से कहने लगे हमारे सबके मुख काले और पैर नीले कैसे हो गये ? फिर काजी, मुल्ला आदि सब ने पीर से प्रार्थना की कि - हमारे मुख काले और पैर नीलें क्यों हुये ? 
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हमने तो आप की पूजा ही की थी, पाप तो नहीं किया था । तब पीर ने आकाश वाणी से कहा - मेरी पूजा का फल काला मुख, नीले पैर होना नहीं है, यह तो तुम्हारी कृतघ्नता का ही फल है । तुमको वर्षा कराने वाले संत प्रवर दादूजी की पूजा करना चाहिये था किन्तु तुम काजी मुल्लाओं के बहकाने से मेरी पूजा करने आये इसी से तुम्हारे साथ काजी मुल्लादि के भी काले मुख और नीले पैर हुये हैं । 
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अब तुम संत प्रवर दादूजी के पास जाओ वे तुमको ठीक करेंगे और किसी से भी ठीक नहीं होंगे । तब सब दादूजी के पास आये । दयालु दादूजी ने उनकी प्रार्थना सुनकर उनको ठीक कर दिया था । फिर वे दादूजी की जय बोलते हुये अपने घरों को चले गये थे । सोई उक्त ५७ की साखी में कहा है ।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

कलियुग कूकर कल मुहां ~ ५६/१६

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*मध्य का अंग १६/५६*
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*कलियुग कूकर कल मुहां, उठ उठ लागे धाइ ।*
*दादू क्यों कर छूटिये, कलयुग बड़ी बलाइ ॥५६॥*
दृष्टांत - 
कलियुग साधू रूपधर, किये उपद्रव तीन ।
जन राघव ता नगर का, धर्म ले गया छीन ॥५॥
एक नगर में एक अच्छे वक्ता संत प्रवचन करते थे । राजा तथा राणी आदि राज परिवार और प्रजा के लोग अति श्रद्धा से सुनते थे । उनके यथार्थ प्रवचन से धर्म का यथार्थ प्रचार तथा भगवद् भक्ति की वृद्धि हो रही थी । 
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एक दिन कलियुग साधु का रूप धारण करके उक्त संत के पास आया और बोला - भगवन ! यह कलियुग का समय है, अतः आप कु़छ काल्पनिक मिथ्या बातें भी प्रवचन में कहा करो और लोगों को बताया भी करो । संत ने कहा - हमसे तो ऐसा नहीं होगा । साधु ने कहा - मैं कलियुग हूं, मेरे समय में आप को ऐसा करना ही पड़ेगा । तो भी संतजी ने नहीं माना । तब कलियुग यह कह कर चला गया कि नहीं मानते हो तो फिर मेरी लीला देखना । 
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दूसरे दिन एक गरीब गर्भवती स्त्री का रूप धारण करके आया और कथा करते समय सबको सुनाकर बोला - महाराज ! आपने मेरे संग का सुख भोगा किन्तु मेरे गर्भ रह गया अब पूरे महिनों का होने आया है, मुझसे अब विशेष काम नहीं होता । अतः आपको मेरे खाने पीने का प्रबन्ध तो अवश्य करना ही चाहिये । संत ने कहा - ठीक है, करेंगे । यह सुनकर बहुत से श्रोताओं की संत से श्रद्धा हट गई । वे दूसरे दिन कथा सुनने नहीं आये । 
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दूसरे दिन कलियुग कसाई रूप बना कर आया और कथा के समय सबको सुनाकर कहा - महाराज ! आपको मांस ला ला कर खाते बहुत दिन हो गये अब तो पैसे दो । संत ने कहा - देंगे । यह सुनकर आज भी बहुत से श्रोताओं की अश्रद्धा हो गई । अतः वे भी दूसरे दिन नहीं आये । तीसरे दिन कलियुग कलाल का रूप बना कर आया और कथा करते समय सब को सुना कर बोला - महाराज ! शराब के पैसे बहुत चढ़ गये हैं अब तो दो । संतजी ने कहा - देंगे । यह सुन कर जो आज आये थे उन सबको भी अश्रद्धा हो गई किन्तु राजा राणी की श्रद्धा तो संत पर पूर्ववत ही रही । 
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कलियुग की उक्त माया देख कर भी संत तो हरि भक्ति में ही लीन रहे किन्तु कलियुग संत में अश्रद्धा कर कर नगर का धर्म छीन ले गया । इतना होने पर भी जब संत शांत ही रहे और अपने समय पर कथा भी करते रहे । राजा राणी उनकी स्थिती को देख कर विचलित नहीं हुये । फिर अन्त में कलियुग ने भी संतजी के चरणों पड़ कर क्षमा याचना की और यथार्थता का निर्णय होने पर पुनः संत की पूर्व से भी अधिक प्रतिष्ठा हुई । सोई उक्त ५६ की साखी में कहा है कि कलियुग ऐसा है उससे उक्त संत के समान ही बच सकते हैं ।

सोमवार, 3 मार्च 2014

अधर चाल कबीर की ~ १७.५३/१६

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*मध्य का अंग १६/१७.५३*
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*दुहुँ बिच राम अकेला आपै, आवण जाण न देई ।*
*जहँ के तहँ सब राखे दादू, पार पहुंचे सेई ॥१७॥*
दृष्टांत - गुरु दादू गये सीकरी, परचा लिया न दीन्ह ।
राम बीच दउ के रहे, चरचाही में चीन्ह ॥३॥
दादूजी को अकबर बादशाह के कु़छ चमत्कार देखने के लिये ही सीकरी बुलाया था । किन्तु दादूजी की ज्ञान चर्चा सुनकर अकबर बादशाह कृत्य कृत्य हो गया था, अतः उसके मन में चमत्कार देखने को इच्छा ही नहीं हुई और दादूजी तो मध्य मार्ग की साधना द्वारा उच्च स्थिति को प्राप्त थे ही अतः उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा वृद्धि के लिये भी चमत्कार नहीं दिखाया । 
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दोनों के बीच में व्यापक परमात्मा थे इससे दोनों में ही लेने देने की इच्छा नहीं होने दी । सोई उक्त १७ की साखी में कहा है - मध्यमार्ग के साधक संत की तथा सिद्ध संत की वृत्ति परमात्मा माया में नहीं जाने देते और माया को भी उनके अन्तःकरण में नहीं आने देते । आप बीच में रहते हैं । जैसे दादूजी और अकबर बादशाह के बीच में रहे थे ।
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*अपने अपने पंथ की, सब को कहै बढाइ ।*
*तातैं दादू एक सौं, अंतरगति ल्यौं लाइ ॥५३॥*
दृष्टांत - 
षट् दर्शन खोजे सभी, बांदि जिमावन काज ।
सबन कही अप आपनी, बांदा ज्याऊं आज ॥४॥
एक राजा की दासी हरिद्वार के कुम्भ मेले में गई थी, वहां संतों का समुदाय देखकर उसके मन में इच्छा हुई कि इन सब संतों को एक दिन भोजन करा दूं । फिर उसने साधुओं की छावनियों में जाकर भंडारा करने का परामर्श किया तो सबने यही कहा - संत तो हम ही हैं और छावनियाँ में कहा संत हैं सब ऐसे ही भेष बनाये फिरते हैं । तुमको अधिक पैसे खर्चने हैं तो हमारे यहां कई दिन तक भंडारे करती रहो । तब तुमको भारी पुण्य होगा और अन्यों को जिमावोगी तो पुण्य तो कहां पाप ही पल्ले पड़ेगा । उनमें साधुपना तो है नहीं ।
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जहां - जहां गई वहां - वहां सबने अपनी ही बडाई की और दूसरों की निन्दा की तब दासी के भाव बदल गये । उसने सोचा - ये सोग साधु बनकर भी उक्त प्रकार राग - द्वेष, पक्ष - विपक्ष में पड़ते हैं और अपनी ही बडाई करते हैं तब इनको न जिमाकर अपनी जाति को ही क्यों न जिमाऊं । फिर उसने भंडारा करने का विचार छोड़ दिया । 
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सोई उक्त ५३ की साखी में कहा है - सब अपने - अपने पंथ की बडाई करते हैं । अतः पक्ष - विपक्ष को छोड़कर मध्यमार्ग से भीतर में स्थित साक्षी रूप ब्रह्मचिन्तन में ही अपनी वृत्ति लगाना चाहिये । जैसे बांदी - दासी ने सबको जिमाना छोडकर अपनी जाति को ही जिमाने का विचार किया ।

रविवार, 2 मार्च 2014

अधर चाल कबीर की ~ १६/१२

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मध्य का अंग १६/१२*
*अधर चाल कबीर की, असंघी नाहिं जाइ ।*
*दादू डाके मिरग ज्यों, उलट पड़े भुई आई ॥१२॥*
प्रसंग कथा - 
कोउ भेष धारी कही, चले कबीर जु चाल ।
तब साखी स्वामी कही, मूढ वसे क्यों ताल ॥२॥
दादूजी मारवाड़ से दूसरी बार सांभर पधारे तब सांभर में अच्छा सत्संग चलता रहा । २० दिन तक खुला भण्डारा चलता रहा । फिर नारायणा से बखना आदि सत्संगी सांभर आकर दादूजी को नारायणा ले आये । वहाँ आस - पास के संत भी दादूजी का सत्संग करने आ गये थे । 
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उन्ही दिनों में पाँच कबीर पंथी संत भी नारायणा के तालाब पर ठहरे थे । दादूजी को उनका पता लगने पर दादूजी ने कहा - उन संतों को भी भोजन के समय पंक्ति में बुला लिया करो । तब रज्जबजी उनको बुलाने गये और प्रणामादि शिष्टाचार के पश्चात् कहा - संतो ! आप लोग ११ बजे भोजन के लिये पंक्ति में पधारना और जह तक हम लोग यहां है तब तक आप लोग भी पंक्ति में ही भोजन किया करो । 
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तब उन में जो मुखिया संत थे उन्होंने कहा - हम कबीरजी की मर्यादा रूप चाल में चलते हैं, अतः कैसे आयेंगे ? तब रज्जबजी ने कहा – 
कबीर की मर्यादा है, रज्जब बोले जोय । 
अन - जल दूजे दिवस लें, ऊंधी हांडी सोय ॥ 
अर्थात् रज्जबजी उनके व्यवहार को देखकर बोले - कबीर की मर्यादा तो है - दिन में एक बार भोजन करने हँडिया को ओंधी रख देना, फिर दूसरे दिन ही भोजन करना और सर्वथा सांसारिक आशाओं का त्याग कर निरंतर निरंजन राम का भजन करना किन्तु वैसा तो आप लोगों का व्यवहार है नहीं । 
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आप लोगों का व्यवहार तो देखने से ज्ञात होता है - 
ओंधा कीया ठीकरा, सूधी किन्ही आस । 
त्याग दिखावें जगत को, कर तालों पर वास ॥
अर्थात आप लोग अपने खाने के पात्रों को साफ कर के ओंधे रख देते हैं किन्तु अच्छा भोजन करने की इच्छा आदि आशायें आप लोगों मे विद्यमान हैं । आप लोग तो लोगों के ऊपर का त्याग दिखाने के लिये ग्राम से बाहर तालाब पर निवास करते हैं किन्तु मन से तो नगर में ही हैं अर्थात् सेवा करने वाले भक्तों का ही सदाचिन्तन करते रहते हैं । 
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रज्जबजी के उक्त वचन सुनकर वे लोग समझ गये कि इन्होंने तो हमारे हृदय का चित्र ही ज्यों का त्यों खींच लिया है । इस से चुप ही रहे, कु़छ भी नहीं बोले । रज्जबजी ने उक्त कथा दादूजी को सुनाई तब दादूजी ने उक्त १२ और १३ की साखियां कही थी ।

शनिवार, 1 मार्च 2014

मति मोटी उस साधु की ~ १६/४


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*मध्य का अंग १६/४*
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*मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।*
*दादू आपा मेट कर, सेवा करे सुजान ॥४॥*
दृष्टांत -
तुलाधार द्वै पख तजी, समता ज्ञान सु धार ।
मध्य मार्ग दादू गहा, जाजलि जनक उतार ॥१॥
तुलाधार वैश्य काशी में रहते थे । वे सत्यपरायण और भगवान के भक्त थे । इनकी किर्ति दूर - दूर तक फैल गई थी उन्हीं दिनों में एक जाजलि नामक मुनि समुद्र के किनारे घोर तपस्या कर रहे थे । पूरे संयम के द्वारा वे ऊंची भूमिका में पहुँच गये थे । एक दिन वे जल में खड़े होकर ध्यान कर रहे थे, तब उनके मन में सृष्टि ज्ञान का उदय हुआ । भूगोल - खगोल आदि के विषय उन्हें करमलकवत प्रत्यक्ष भासने लगे ।  .
तब उनके मन में अभिमान हो गया कि मेरे समान दूसरा कोई भी नहीं है । तब आकाशवाणी ने कहा - ऐसा तो काशी के तुलाधार वैश्य भी नहीं कर सकते । तुम तो उनके समान भी नहीं हो । यह सुनकर जाजलि तुलाधार के दर्शन करने काशी गये और तुलाधार को दुकान पर व्यापार करते देखा ।
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तुलाधार जाजलि को देखते ही खड़े होकर जाजलि का स्वागत सत्कार करके बोले - आइये आप मेरे ही पास आये है । अपकी तपस्या की मुझे पता है । आपने केवल वायु पीकर ठूंठ के समान खड़े रहकर तपस्या की है । आपकी जटा में पक्षियों ने घोंसले बनाये, अंडे भी दिये । सृष्टि ज्ञान का हृदय में उदय होने से जब आपको अभिमान हुआ, तब आप आकाश वाणी सुनकर मेरे पास आये हैं तुलाधार की उक्त बातें सुनकर जाजलि को अति आश्चर्य हुआ और उन्होंने पू़छा - आपको ऐसा ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ?
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तुलाधार ने सत्यपालन आदि सदाचार और पक्ष - विपक्ष रहित मध्यमार्ग से ईश्वर भजन करना बताया । फिर जाजलि का तुलाधार के सत्संग से अज्ञान नष्ट हो गया तब वे भी मध्यमार्ग से ब्रह्म चिन्तन में लग गये । उक्त प्रकार राजा जनक ने और दादूजी ने भी पक्ष - विपक्ष रहित होकर ही ब्रह्मचिन्त किया था । अतः सबको अपने जीवन में मध्यमार्गी उतार करके ब्रह्मचिन्तन करना चाहिये । यही उक्त ४ की साखी में कहा है ।

दादू सहजैं .. दादू मम शिर ~ ११५-११६/१५


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*साधू का अंग १५/११५-११६*
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*दादू सहजैं मेला होयगा, हम तुम हरि के दास ।* 
*अंतर गति तो मिल रहे, पुनः प्रकट परकास ॥११५॥*
प्रसंग कथा - जगजीवनजी टहलड़ी, आंधी थे गुरु देव ।
ताहि समय साखी लिखी, जगजीवन प्रति भेव ॥२९॥
दादूजी जब आंधी ग्राम में चातुर्मास कर रहे थे तब जगजीवनजी ने दादूजी को पत्र लिखा था कि मैं तो आप की आज्ञा है टहलड़ी पर ही रह कर भजन करो । उसका उलंघन करके आंधी आ नहीं सकात अतः आप ही चातुर्मासे से उठते ही टहलड़ी पधारने की कृपा अवश्य करना । उक्त पत्र के उत्तर रूप में दादूजी ने उक्त ११५ की साखी लिख कर जगजीवन के पास भेजी थी ।
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*दादू मम शिर मोटे भाग, साधू का दर्शन किया ।*
*कहा करे जम काल, राम रसायन भर पिया ॥११६॥*
प्रसंग कथा - आप निराणे गुहा में, संतन दिया दीदार ।
तब या साखी पद कहा, रामकली मधि सार ॥३०॥
नारायण ग्राम में एक दिन रात्रि के समय दादूजी के पास भूतकाल के उच्चकोटि के संत गुफा में पधारे थे तब उक्त ११६ की साखी और राम रामकली में स्थित १९८ का पद -
आज हमारे रामजी साधु घर आये ।
मंगला चार चहुँ दिशि भये, आनन्द बधाये ॥टेक॥
यह चार चरण का पद दादूजी ने उनके सामने कहकर उनका स्वागत सत्कार किया था । फिर सब अपने अपने विचारों के कथन श्रवण रूप गोष्ठी रात्रि भर करते रहे थे । वे आकाश मार्ग से ही रात्रि में आये और आकाश मार्ग से ही रात्रि की चौथी पहर में पधार गये थे किन्तु गुफा के द्वार पर स्थित रात्रि की उक्त गोष्ठी टीलाजी सुनते रहे थे । प्रातः दादूजी से टीलाजी ने पू़छा तब दादूजी ने टीला को अधिकारी जानकर उक्त गोष्ठी का परिचय दिया था ।
इति श्री साधु का अंग १५ समाप्तः

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

भाव भक्ति का भंग कर ~ ११०/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/११०*
*भाव भक्ति का भंग कर, बटपारे मारहिं बाट ।*
*दादू द्वारा मुक्ति का, खोले जड़े कपाट ॥११०॥*
दृष्टांत - 
गुरुदादू की कथा में, आवत इक रजपूत ।
हूका की साधां कही, स्वामी कहा जु सूत ॥२७॥
दादूजी का प्रवचन सुनने एक राजपूत आते थे और हुक्का भी पीते थे । दादूजी के शिष्य संतों ने कहा - हुक्का पीना अच्छा नहीं है । इससे श्वास नलिका खराब होती है । हिंसा भी होती है । इत्यादि अनेक हानियां होती हैं और भाव भक्ति का भी नाश होता है । यह मुक्ति के खोले हुये द्वार को बन्द करता है । दादूजी के पास भी यह बात गई तब दादूजी ने भी कहा - सूत है अर्थात् संत लोग हुक्का छोड़ने की बात ठीक ही कहते है । अतः हुक्का छोड़ ही देना चाहिये । सोई उक्त ११० की साखी में कहा है कि इन मादक पदार्थो का सेवन बटमारो के समान हैं ।
द्वितीय दृष्टांत - 
जशवन्त नृप दिये ताड़ि सब, मरुधर में से भेख ।
रखे नारायणदास ने, थैली नाणा पेख ॥२८॥
एक समय जोधपुर नरेश जशवन्तसिंह प्रथम ने किसी भेषधारी साधु के अत्याचार से कुपित होकर अपने देश के सब साधुओं को देश से बाहर निकालने की आज्ञा दे दी थी । जब दादूजी के पौत्र शिष्य और घड़सीदासजी के शिष्य नारायणदासजी दूधाधारी चांपासर वालों को अन्य साधुओं ने कहा - आपके शिष्य राजा जशवन्तसिंह ने सभी साधुओं को देश से निकालने की आज्ञा दी है । नारायणदासजी ने कहा - चिन्ता मत करो, मैं उक्त आज्ञा को कार्य रूप में परिणित नहीं होने दूंगा । भगवान की दया से राजा अपनी आज्ञा को पीछी ले लेगा । 
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फिर नारायणदासजी एक रूपयों की थैली में एक खोटा रुपया डालकर राजसभा में गये । राजा ने गुरुजी को आये देख कर खड़े होकर स्वागत किया और आसन पर बैठा कर पू़छा - कैसे पधारे हैं ? नारायणदासजी ने कहा - हम अपने रुपयों की परीक्षा कराने आये हैं । आप इनकी परीक्षा करवा दें । राजा ने अर्थमंत्री को कहा । मंत्री ने परीक्षक को बुलाकर कहा महाराज के रुपयों की परीक्षा यहां ही बैठकर कर दो । 
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परीक्षक ने परीक्षा करके कहा - एक खोटा है और सब अच्छे हैं । नारायणदासजी ने कहा - फिर तो सब को ही फिंकवा दो । राजा ने कहा - जो खोटा है उसे ही फेंकिये अन्य को क्यों फिंकवाते हैं ? नारायणदासजी ने कहा - जैसे राजा करे वैसे ही प्रजा को करना पड़ता है । अतः सब को ही फिंकवा दो । राजा ने कहा - जो खोटा है उसे फेंकना चाहिये, नारायणदास जी ने कहा - आपने फिर एक भेषधारी के दोष पर सब साधुओं को देश से निकालें । 
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यह सुनकर राजा समझ गये और अपने गुरु नारायणदासजी को प्रणाम करके कहा - गुरुवर ! आप यथार्थ ही कहते हैं । मैं मेरी आज्ञा पीछी लेता हूं अब दोषी को ही निकाला जायगा । नारायणदासजी ने कहा - फिर तो हम भी खोटे रूपये को ही फेंकेंगे । फिर राजा ने दोषी भेषधारी को ही निकाला अन्य सबको पूर्ववत ही देश में बसने दिया । 
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सोई उक्त ११० की साखी में कहा है कि - भक्ति भाव का भंग हो ऐसा नहीं करना चाहिये । सब साधुओं को देश से निकालने से देश में भक्ति भाव की हानि ही होती । अतः नारायणदासजी ने उसकी रक्षा की । ऐसे ही करना चाहिये ।

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

कुसंगति केते गये ~ १०९/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/१०९*
*कुसंगति केते गये, तिनका नाम न ठांव ।*
*दादू ते क्यों उद्धरैं, साधु नहीं जिस गांव ॥१०९॥*
प्राचीन दृष्टांत - 
नारद कोपा संत बिन, कोप कह इक बैन ।
संत शरण नगरी बची, वज्र शिला से चैन ॥२५॥
उक्त १०९ की साखी के उत्तरार्ध पर दृष्टांत है - नारदजी भ्रमण करते हुये एक ग्राम में आये तो वहां के लोगों का बुरा व्यवहार देखकर सोचा - यह लोग इतने हीन विचारों के क्यों हैं ? इनको शिक्षा देने वाला कोई संत इस ग्राम में नहीं है क्या ? फिर उन्हें ज्ञात हुआ कि इस ग्राम में संत तो नहीं है । तब नारदजी ने सोचा - इस ग्राम के मनुष्य महान पापों में पड़कर उनका फल दुःखी हीं पावेंगे । इनके स्वभाव को बदलना तो कठिन है किन्तु यह ग्राम नष्ट हो जाय तो ये लोग पापों से बचकर अगले जन्म में धर्म संपादन के द्वारा अपना हित कर सकते हैं । 
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उक्त विचार करके नारदजी ने ग्राम को शाप दिया कि इस ग्राम पर वज्र शिला पड़ जाय । वज्र पड़ने का शाप सुनकर ग्राम के सज्जन लोग अपने ग्राम की सीमा पर दूसरे ग्राम की सीमा में एक श्रेष्ठ संत रहते थे । उनकी शरण में गये और उक्त कथा सुनाई । तब संत ने कहा - घबराओ नहीं ईश्वर रक्षा करेंगे । फिर संत ने वज्र को अपनी योग - शक्ति से उस ग्राम के बाहर एक स्थान में भूत रहते थे, वहां पर पटका जिससे उस वज्र शिला के पड़ने पर भी संत कृपा से भूतों का नाश होने से ग्राम को चैन अर्थात् आनन्द ही प्राप्त हुआ । 
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सोई उक्त १०९ की साखी में कहा है - जिस ग्राम में साधु नहीं होते वहां के लोगों का कुसंग से पतन ही होता है । किन्तु संत शरण जाने पर तो उनका भी कल्याण ही होता है, जैसे उक्त ग्राम का हुआ ।
द्वितीय दृष्टांत - 
परोपकारी संत थे, गाव तजा कर छोह ।
तीन ताप पुर को भई, पुनि लाये जन सोह ॥२६॥
एक ग्राम में एक परोपकारी संत रहते थे । ग्राम से भिक्षा लाकर बाहर से आये हुये अतिथि आदि की सेवा करते थे । ग्राम के हरि विमुख लोग उनको कहते थे तुम ग्राम को लूट - लूट कर बाहर के लोगों को खिलाते हो अतः ग्राम छोड़कर चले जाओ । उक्त प्रकार बारम्बार कहने से संत क्षुब्ध होकर चले गये । उनके जाते ही ग्राम में अध्यात्म - शारीरिक रोगादि के अधिभूत - सिंह, सर्प चोरादि के अधिदेव - अतिवृष्टी, अनावृष्टि, वज्र पातादि के उपद्रव बढ़ गये । 
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उक्त तीनों तापों से ग्राम अतिव्यथित होने लगा तब सज्जनों ने कहा - संतों को लौटा कर लाओ तब ही ये उपद्रव शांत होंगे । फिर सब लोग संतों के पास गये और प्रार्थना करके ग्राम में लाये तब सब उपद्रव भी शांत हो गये । सोई उक्त १०९ की साखी में कहा है कि - जिस ग्राम में साधु नहीं हो उसका दुःखों से उद्धार कैसे हो सकता है ।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

अज्ञान मूर्खः हितकारी ~ १०८/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/१०८*
*अज्ञान मूर्खः हितकारी, सज्जनो हि समो रिपुः ।*
*ज्ञात्वा (परि) त्यजंति ते, निरामयी मनोजितः ॥१०८॥*
दृष्टांत - इक नृप वानर का किया, मन में अति विश्वास ।
चोर विप्र रक्षा करी, वाहि किया बिन श्वास ॥२३॥
एक राजा ने एक पालतू वानर का अपने मन में अति विश्वास कर रक्खा था कि यह मेरा परम हितैषी और रक्षक है । गरमी के दिनों में राजा भवन के छाजे के पास शय्या पर सो रहा था और छाजे पर एक सर्प लटक रहा था । उसकी छाया राजा की गर्दन पर पड़ी तब वानर ने सोचा - राजा के गले पर सर्प आ गया है, राजा को काट लेगा । अतः मै पहले ही इसे मार दूं । 
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उसी समय एक अर्थ संकट में पड़ा ब्राह्मण भी वहां गया था । उसने देखा कि वानर राजा की गर्दन पर तलवार मारने को तैयार है और मारते ही राजा मारा जायेगा । अतः राजा की रक्षा करना ही चाहिये । ब्राह्मण ने वानर को मार दिया और उसके कान काटकर अपनी जेब में रख लिये । फिर उस सर्प को मार कर एक पत्र लिखा, वानर राज को मार रहा था, ब्राह्मण चोर ने राजा की रक्षा की है । सर्प और पत्र ढाल के नीचे दबाकर ब्राह्मण चला गया । 
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राजा की निद्रा टूटी तो वानर का शिर कटा देखकर राजा को अति दुःख हुआ किन्तु ढाल पर दृष्टी पड़ी तब उसको उठाया तो उसके नीचे सर्प और पत्र को देखा । पत्र को पढा फिर नगर में से विप्र चोर को बुलवाकर पुरस्कार देने की घोषणा कराई तब वह ब्राह्मण आया और उक्त सब घटना सुनाई और कान दिखाये । फिर राजा ने पुरस्कार देकर ब्राह्मण को भेज दिया । 
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सोई उक्त १०८ की साखी में कहा है कि अज्ञानी मूर्ख हितकारी भी उचित नहीं होता, जैसे उक्त वानर । और सज्जन शत्रु के समान हो तो उचित ही ठहरता है, जैसे विप्र चोर । चोरी करने गया अतः शत्रु के समान ही था किन्तु उसने राजा के प्राणों की रक्षा की । अतः उचित ही माना गया ।
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द्वि. दृष्टांत प्रा. - 
पंडितो हि वरं शत्रु, न मूर्खो हितकारकः ।
वानरेण हतो राजा, विप्रश्वरेण रक्षिताः ॥२४॥
एक राजा का एक पालतू वानर पर पूरा विश्वास था कि यह मेरा रक्षक है, एक दिन मध्यह्न में राजा सो रहा था और वानर मक्खी उड़ा रहा था, एक मक्खी बारम्बार राजा के गले पर बैठती थी । उसको मारने के लिये वानर ने राज के गले पर तलवार मारी, उससे राज मर गया । यद्यपि वानर ने राजा का हित करने को ही तलवार मारी थी किन्तु मूर्ख होने से हित के स्थान में अनहित कर दिया । अतः हितकारक मूर्ख अच्छा नहीं होता ।
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दूसरी कथा - कु़छ ब्राह्मण मार्ग से जा रहे थे । एक चोर भी अवसर पाकर उनकी चोरी करने के भाव से उनके साथ हो गया । आगे वन प्रदेश में उनको डाकू मिल गये और बोले - सब धन एक ओर रख दो । ब्राह्मणों ने कहा - धन तो हमारे पास नहीं है । डाकू बोले - तुमने रत्न अपनी जंघाओ में दबा रखें होंगे । अतः तुम सबको मारकर वे रत्न तुम्हारी जंघाओं से हम निकालेंगे । 
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तब जो चोर ब्राह्मणों के साथ था उसने सोचा - ये इनको मारकर मुझे भी मारेंगे । अतः पहले मेरे को मारेंगे तो मेरी जंघाओ से कु़छ न मिलेगा तब इनको छोड़ देगें । उसने कहा - सबको एक साथ न मार कर पहले मुझे मारकर देख लो । उसे मारा तो कु़छ भी न मिला तब उन ब्राह्मणों को डाकू छोड़कर चले गये । यद्यपि उक्त चोर चोरी करने के भाव से साथ हुआ था । अतः शत्रु के समान ही था किन्तु विद्वान होने से उसने आप मर के भी उन सबकी रक्षा करली । 
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सोई उक्त १०८ की साखी में कहा है कि अज्ञानी मूर्ख हितकर भी अच्छा नहीं होता जैसे उक्त वानर । और विद्वान शत्रु भी मूर्ख के समान हानि नहीं कर सकता जैसे उक्त चोर । अतः मूर्ख पर पूर्ण विश्वास उचित नहीं है ।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

दादू कुसंगति सब परहरी ~ १०७/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/१०७*
*दादू कुसंगति सब परहरी, मात पिता कुल कोइ ।*
*सजन स्नेही बान्धवा, भावै आपा होइ ॥१०७॥*
दृष्टांत - भरत मात को तज दिई, पिता तजा प्रहलाद ।
गोप्यांपति अनुज लंकापति, अज आया तज साध ॥२२॥
भरत ने माता, प्रहलाद ने पिता, गोपियों ने पति, विभीषण ने बड़े भाई रावण और अज राजा भक्ति विमुखों का संग त्याग के साधु पुरुषों के पास आये । उक्त सब का त्यागना उनकी बात न मानना ही है । सोई उक्त १०७ की साखी में कहा है - चाहे कोई भी ही भगवत् विमुखों का संग सर्वथा त्याज्य ही है ।

दादू राम न छाडिये ~ १०६/१५

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*साधू का अंग १५/१०६*
*दादू राम न छाडिये, गहला तज संसार ।*
*साधू संगति शोध ले, कुसंगति संग निवार ॥१०६॥*
दृष्टांत - 
निष्कामी सेवक कहै, सुख दुःख सुनिये नांहिं ।
मोडे घोड़ो के कनैं, धोती दिई सुखांहिं ॥२१॥
एक निष्कमी भक्त था । उसने अपने ग्राम में संत आश्रम भी बना रखा था किन्तु आश्रम में ठहराने से पहले संत से प्रार्थना करता था - हमारे दुःख सुख की बात न आप सुने और न उनके विषय में हम को कहै तो आप इच्छानुसार रहिये और जिस दिन आप हमको सुख दुःख सम्बन्धी बात कहेंगे उसी दिन आपको आश्रम छोड़ना होगा । अनेक विरक्त संत आते थे किन्तु उक्त नियम भंग होते ही उनको जाना पड़ता था । 
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एक विरक्त यह दृढ नियम करके उसके आश्रम में रहे कि हम उसके सुख दुःख की बात कभी नहीं कहेंगे । आश्रम के पास ही भक्त की पशुशाला भी थी । भक्त के एक सुन्दर घोड़ी थी । एक रात को चोर खोलने लगे तब संत न चोरों को रोक सके ओर न हल्ला ही कर सके । वे जानते थे ऐसा करने से प्रातः ही आश्रम छोड़कर जाना पड़ेगा । अतः चोरों से अदृश्य रहकर चोरों के पीछे - पीछे चल पड़े । 
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अरुणोदय के समय एक नदी को किनारे आकर चोरों ने सोचा - यह घोड़ी इस प्रदेश में प्रसिद्ध है । अतः सूर्योदय होने पर इसे पहचान कर लोग हमें पकड़ लेगे । इससे घोड़ी को नदी तट की झाडी में बांधकर रात्रि के समय आकर ले जाने का विचार किया फिर बाँध कर चले गये । संत ने नदी में स्नान किया और घोड़ी के पास अपनी धोती सुखाकर आश्रम में आ गये । 
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प्रातः भक्त संतजी के दर्शन करने आया तब संतजी ने कहा - अमुक नदी के किनारे अपनी धोती सुखा कर भूल आये । भक्त - दूसरी ला दूंगा । संत - नहीं वही मंगवा दें । घोड़ी की सेवा करने वाला सामने दिखाई दिया । अतः उसे ही कहा - संतों की धोती लाकर दे । उसने कहा - आज घोड़ी नहीं मिली है अतः घोड़ी खोजने जाऊंगा । भक्त - पहले संतों का काम करो, पीछे घोड़ी खोजने जाना । उसको संत ने ठीक स्थान बता दिया, वह गया । धोती के पास ही घोड़ी उसे मिल गई । अतः घोड़ी मिलने की सूचना भक्त को दे दी । 
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भक्त ने पू़छा - घोडी कहाँ मिली ? उसने कहा - धोती के पास । यह सुनकर भक्त संतजी के पास जाकर बोला - आप अपना भजन छोड़कर घोड़ी के पीछे क्यों गये और चले गये तो अब आश्रम से भी आज ही पधार जाइये । फिर संत को जाना ही पड़ा । सोई उक्त १०६ की साखी में कहा है - राम भजन नहीं छोड़ना चाहिये । संसार को ही छोड़ना चाहिये । उक्त संत ने भजन छोड़ा तो आश्रम छोड़ना ही पड़ा ।

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

गरथ न/साहिब का उनहार ~ ९१/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/९१*
*दादू अवगुण छाडे गुण गहे, सोइ शिरोमणि साध ।*
*गुण अवगुण तैं रहित हैं, सो निज ब्रह्म अगाध ॥९१॥*
दृष्टांत - 
गुण ग्राहक इक नृपति था, अवगुण लेता नांहि ।
मरे श्वान को देख के, दांत सराहे तांहि ॥२०॥
एक राजा संतों के संग से गुणग्राहक बन गया था । वह प्रत्येक व्यक्ति व वस्तु से गुण ही ग्रहण करता था । उस राजा के प्रधान मंत्री ने एक दिन विचार किया कि मैं राजा को ऐसी वस्तु दिखाऊं जिसमें कु़छ भी गुण न हो, तब उससे क्या ग्रहण करेंगे ? एक दिन मंत्री ने एक मरे हुये कुत्ते को देखा, उसमें बहुत दुर्गन्ध भी आ रही थी । 
मंत्री राजा को भ्रमण के निमित्त से उसके पास ले गया और बोला - राजन ! यह कुत्ता मर गया है इसमें बहुत दुर्गन्ध आ रही है । यह सुनकर राजा ने कहा - इसके दांतों की ओेर देखा, कितने श्वेत और सुन्दर हैं । ऐसे तो नित्य दातुन करने वाले मनुष्य के भी श्वेत नहीं रहते । राजा ने उस दुर्गन्धपूर्ण मरे हुये कुत्ते से भी गुण ही ग्रहण किया था । अवगुण की ओर उसकी दृष्टी ही नहीं गई । सोई उक्त ९१ की साखी में कहा है - जो अवगुणों को छोड़ कर गुण ही ग्रहण करता है, सोई शिरोमणि साधु माना जाता है । जैसे उक्त राजा ।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

गरथ न/साहिब का उनहार ~ ८४.८८/१५

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*साधू का अंग १५/८४.८८*
*गरथ न बाँधे गांठड़ी, नहिं नारी सौ नेह ।* 
*मन इन्द्री सुस्थिर करे, छाड़ सकल गुण देह ॥८४॥* 
प्रा०दृष्टांत - 
गल में पहरे गूदड़ी, गांठ न बाँधे दाम । 
शेख भावदी यूं कहैं, मैं तिसको करुं सलाम ॥१६॥ 
जो संत शीत से बचने के लिये गले में गुदड़ी पहने और धन संग्रह नहीं करे । शेख भावदी कहते है में ऐसे विरक्त संतों को प्रणाम करता हूँ । सोई उक्त ८४ की साखी में कहा है । इस दोहे में कथा रूप दृष्टांत का संकेत तो नहीं ज्ञात होता किन्तु परम विरक्तों की और संकेत है और वही संकेत उक्त ८४ की साखी में हें । ऐसे शुकदेव, दत्तात्रेय आदि संत सर्व पूज्य होते हैं । यही संकेत है । 
*साहिब का उनहार सब, सेवक मांही होइ ।* 
*दादू सेवक साधु सो, दूजा नांही कोइ ॥८८॥* 
दृष्टांत - 
मारवाड़ मधि कोउ नृप, बांटा सब को त्याग । 
ता सौं इक चारण कहा, नर नारी सुत भाग ॥१७॥ 
मारवाड़ के राजा ने दान के अधिकारियों को त्याग बांटा था अर्थात दान दिया था । एक चारण देर से आया और उसने राजा से अपना, अपनी स्त्री और अपने पुत्र का भाग भी मांगा । राजा ने कहा - तुम देर से आये, त्याग तो बँट चुका और स्त्री, पुत्र तो आये भी नहीं हैं, उनका भाग कैसे मांगते हो ? तब उस चारण ने नीचे लिखे दो सोरठे राजा को सुनाये । 
सोरठा - प्रा० - 
पगा जु तेही पाण, पुण्य पाणि पहले पिवे । 
पंगु जु तेही ठांण, पीया चाहै मालवणि ॥१८॥ 
बेटा बाप तिणांह, चील्हां जे चाले नहीं । 
जननी ताहि जणाह, बुरी कहावै वैरिसल ॥१९॥ 
अर्थात् हे मालवणि नृप ! जैसे जिस पशु के पैरों में शक्ति हो वह तो दौड़कर पहले पाणी पी लेता है किन्तु जो कमजोर हो वह पीछे जाकर पीता है और पंगु हो वह अपने ठाण पर रहते हुये भी तो पानी पीना चाहता है । वैसे ही मैं पहले नहीं पहुँच सका तो भी दान तो चाहता हूँ । स्त्री, पुत्र नहीं आये तो जैसे पंगु पशु को उसके ठाण पर ही पानी दिया जाता है, वैसे ही नहीं आने योग्यों को उनके घर पर भी पहुँचा दिया जाता है । 
आपके पिता तो घर बैठों को भी देते थे । पुत्र भी वही श्रेष्ठ होता है जो पिता के अनुसार चले और पिता के अनुसार नहीं चले तो हे वैरिसल ! जननी उस पुत्र को जन्म देकर बुरी ही कहलाती है । अतः आपको पिता के अनुसार ही करना चाहिये । सोई उक्त ८८ की साखी में कहा हैं । अपने स्वामी के अनुसार सेवक का व्यवहार होना चाहिये । ऐसा होता है वही सेवक साधु अर्थात श्रेष्ठ माना जाता है । दूसरा श्रेष्ठ नहीं माना जाता ।

दादू लीला राजा राम की ~ ७६/१५

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*साधू का अंग १५/७६*
*दादू लीला राजा राम की, खेलें सब ही संत ।*
*आपा पर एकै भया, छूटी सबै भरंत ॥७६॥*
प्रसंग कथा - 
टौंक पधारे महोच्छे, आप लगाया भोग ।
जब शिष पू़छा तब कही, या साखी यह जोग ॥१५॥
माधवकाणी और नरहरिदास जी के निमन्त्रण से दादूजी टोंक संत सम्मेलन में पधारे थे । दादूजी का आना सुनकर संत तथा भक्त लोग बहुत संख्या में आ गये थे । भोजन सामग्री कम जानकर माधवकाणी दादूजी के पास गये और बोले - इस समय आप ही मेरी लज्जा रखें । 
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दादूजी ने कहा - सबकी लज्जा परमेश्वर रखते हैं, आपकी लज्जा भी वे रखेंगे किन्तु आप यह तो बताओ आप पर इस समय क्या कष्ट है ? माधवकाणी ने कहा - समुदाय को देखते हुये भोजन सामग्री अति अल्प है और अब पंक्ति का समय होने वाला है । किसी भी प्रकार पंक्ति के समय तक इतनी सामग्री तैयार करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ । 
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माधवकाणी के उक्त वचन सुनकर दादूजी ने कहा - चिन्ता मत करो निरंजन देव पास ही हैं । आपने जो - जो सामग्री बनाई हैं, उनमें से सभी थोड़ी - थोड़ी एक थाल में रखकर शुद्ध श्वेत कपड़े से ढँककर यहां ले आओ । माधवकाणी ले आये । दादूजी ने प्रभु से प्रार्थना की कि - अपने भक्त माधव की लज्जा अवश्य रखें । फिर भोग लगाकर माधवजी को देकर कहा - यह जो - जो वस्तु जिसमें से लाये है उसी में मिला दें । प्रभु की कृपा से कमी नहीं आयेगी । 
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फिर वह भोजन सामग्री अटूट हो गई और सात दिन तक चली । इस चमत्कार को देखकर संत सम्मेलन में आये थे, उन सभी ने दादूजी के हाथ के प्रसाद लेना चाहा तब दादूजी ने एक क्षण में ही अनन्त शरीर धारण करके सब को प्रसाद दे दिया था । यह चमत्कार देखकर टीलाजी ने पू़छा - यह लीला कैसे हुई तब दादूजी ने उक्त ७६ की साखी सुनाई थी

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

दादू मैं दासी तिहिं दास की ~ ७५/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/७५*
*दादू मैं दासी तिहिं दास की, जिहिं संग खेलें पीव ।*
*बहुत भांति कर वारणे, तापर दीजे जीव ॥७५॥*
दृष्टांत - 
साधु एक चौपाड़ में, उतरा लोक समाज ।
मारन ऊठा असुर हो, मै नृसिंह तव काज ॥१३॥
हरियाणा प्रान्त के एक ग्राम की चौपाड़ - पंचायत भवन में एक संत आकर ठहरे थे । रात्रि के समय उसमें ग्राम के लोग आने लगे और जो आवे सोई संत को बैठे हुये हों वहां से उठा दे । वे दूसरी जगह जाकर बैठे वहां से भी उठा दें । ऐसे करते - करते एक ने संत से नाम पू़छा । उन्होंने बताया प्रहलाद है । तब वह बोला - तो फिर मैं तेरे लिये हिरण्यकशिपु हूँ । 
यह कहकर उनके चोट मारना चाहा तो उनमें से एक खड़ा होकर बोला - मैं हिरण्यकशिपु के लिये नृसिंह हूँ । तब हिरण्यकशिपु बनने वाला डर गया और संत की रक्षा हो गई । सोई उक्त ७५ की साखी में कहा है - जो प्रभु के भक्त हों उन पर अपना जीव भी निछावर करना चाहिये । जैसे उक्त संत के लिये नृसिंह बनने वाले ने किया था । 
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तापर दीजे जीव पर ही द्वितीय दृष्टांत - 
सालेरी तन मन तजा, हरि संतन के भाय ।
ता पुण्य भई मंदोदरी, लंकापति के जाय ॥१४॥
एक समय एक ॠषि आश्रम में किसी कारण से अनेक ॠषि एकत्र हुये थे । उनके लिये एक वृक्ष के नीचे खीर बनाई थी । बनाने वाला कड़ाही को छोड़कर किसी कार्यवश पास ही गया था । उसी समय में वृक्ष की शाखा से एक काला सर्प खीर की कड़ाही में जा पड़ा । खीर बनानेवाले को इसका पता नहीं लगा किन्तु उसी वृक्ष की दूसरी शाखा पर बैठी हुई एक सालेरी - गिलहरी देख रही थी । उसने सोचा - इस खीर को ये ॠषि खायेंगे तो सब मर जायेंगे । अतः इनकी रक्षा के निमित्त मेरा एक का मरना ही अच्छा है ।
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फिर जब पंक्ति बैठी तब वह गिलहरी जोर से बोलती हुई उस खीर की कड़ाही में जा पड़ी । तब सब ॠषियों ने कहा - अब यह खीर खाने योग्य नहीं रही है, इसे पृथ्वी पर डाल दो । उसे डालने लगे तो उसमें काला सर्प निकला तब ॠषि समझ गये कि इस गिलहरी ने हमारी रक्षा के लिये अपने प्राण दिये हैं । अतः सबने उसे शुभाशीर्वाद दिये । उसी पुण्य के प्रताप से वह गिलहरी दूसरे जन्म में रावण की पत्नी मंदोदरी बनी थी । सोई उक्त ७५ की साखी में कहा है कि ईश्वर भक्तों के लिये अपना जीव भी दे देना चाहिये । जैसे उक्त गिलहरी ने दिया । 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

दादू साधु जन सुखिया भये ~ ७१/१५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*साधू का अंग १५/७१*
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*दादू साधु जन सुखिया भये दुनिया को बहु द्वन्द्व ।*
*दुनी दुखी हम देखतां, साधुन सदा आनन्द ॥७१॥*
दृष्टांत - 
देख मात को हर्ष में, ता को पू़छा साध ।
तू सुखियारी डोकरी, मी कूं दुःख अगाध ॥१२॥
एक वृद्धा माता एक दूसरी बाई से हँस - हँसकर बातें कर रही थी । उसे देखकर एक संत ने सोचा - मुझे तो भगवत् विरह सम्बन्धी भारी दुःख है, किन्तु यह माता तो अति सुखी है । 
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फिर माता से पू़छा - माताजी आप तो परम सुखी हैं, दुःख तो आपको कु़छ भी नहीं है । यह सुनते ही वृद्ध माता रोने लगी और बोली - महाराज ! मुझे सुख कहां है ? मैं तो महान दुःखी हूँ । ऐसा कहकर अपने कुटुम्ब का दुःख सुनाने लगी । 
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तब संत ने सोचा - दुनिया को द्वन्द्वों द्वारा बहुत दुःख हैं । इससे तो संत ही सुखी हैं । सोई उक्त ७१ की साखी में कहा है - सांसारिक प्राणी द्वंन्द्वज दुःखों से अति दुःखी है, और संतों को वे दुःख न होने से संत सुखी हैं । संत को जो भगवत् वियोग जन्य दुःख होता है, वह भी परम सुख का हेतु होने से सुखी ही है ।
(क्रमशः)