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रविवार, 10 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=३२)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
*शास्त्र वेद पुरान पढै किनि*
*पुनि ब्याकरण पढै जे कोइ ।*
*संध्या करै गहै षट कर्म हि*
*गुन अरु काल बिचारै सोइ ॥* 
*रासि काम तबही बनि आवै*
*मन मैं सब तजि राखै दोइ ।* 
*सुन्दरदास कहै सुनि पंडित*
*राम नाम बिन मुक्त न होई ॥३२॥* 
*॥ इति विपर्यय शब्द कौ अंग ॥२२॥* 
*= ह० लि० १, २ टीका =*
शास्त्र मीमांसादि ६ । बेद ॠग्यजुरादि ४ । पुरान भागवतादि १८ । व्याकरण पाणिन्यादि ९ । इन सबन के जे कोई पढ़ै । 
संध्या नित्य नियम । षट्कर्म बर्णाश्रमां का भिन्न भिन्न कर्म है । तथा ब्राह्मणां का यजनअध्यापनादि । गुन सत्वादि गुण । कालाभूतादि । इन सबन को बिचारै नाम यथायोग्य शुभ कर्मन कों करै । 
सर्व शुभकर्म कर्यां यथायोग्य सर्व ही फल देवै हैं, परि साक्षात्कार कार्य तो तबही सिद्ध होवैगो सर्व तज अरु ररो ममो दोय अक्षय अखंड ह्रदय में धारैगो तब । रामनाम सर्व को सिद्धान्त शिरोमणि है जीवन्मुक्ति कल्याण सुख को कर्त्ता यही है, सो याही को निश्चै करि निरंतर अखंड धारणों सही ॥३२॥ 
राम नाम विन मुक्ति नहीं होइ । अत्र *प्रमाणम्* - 
१. तपन्तु तापै : प्रपतन्तु पर्वतादटन्तु तीर्थानि पठन्तु वागमान् । 
यजन्तु यागै र्विवदन्तु योगै र्हरिं विना नैव मृतिं तरन्ति ॥ इति *भागवत* ॥ 
२. आलोड्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः । 
इदमेव समुत्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः ॥ इति *भारते* व्यासः । 
३. किं त्तात वेदागम शास्त्र विस्तैस्तीथैंरनेकैरपि किं प्रयोजनम् । 
यद्यात्मनो वाच्छसि मोक्षकारणं गोविन्द गोविन्द इदं स्फुटं रट ॥ 
इति *बिष्णुरहस्ये* प्रहलादवाक्यम् । 
४. अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । 
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥८/१४॥ 
समोsहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योsस्ति न प्रियः । 
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥९/२९॥ 
इति *भगवद्गीतायां* श्रीकृष्ण वचनम् । 
॥ इति विपर्यय अंग की टीका सम्पन्न ॥२२॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
“अब इस अंग की समाप्ति में पूर्वोक्त ज्ञान विषे जो असमर्थ होय ताकूं परमेश्वर की उपासना - रूप साधन कर्तव्य है । ऐसे दिखावते हुये अपनी(दादूजी की) सम्प्रदाय के इष्ट जो राम हैं ताके स्मरणपूर्वक गोप्य अर्थ करि शिरोमणि सिद्धान्त कूं दिखावै हैं - सांख्य, योग, न्याय, वैशैषिकमीमांसा औ वेदांत - ये जो षष्टशास्त्र हैं रु कहिये अरु ॠग, यजु, साम औ अथर्वण - ये चारि जो वेद है । ब्रह्म, पद्म, वैष्णव, शैव्, भागवत, नारदीय, मार्कडेय, आग्नेय, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, लैंग, वाराह, स्कंध, बामन, कौर्म, मात्स्य, गारुड, औ ब्रह्माण्ड - ये जो अष्टादश पुरान हैं तिनकूं कोई पुरुष किन कहिये क्यूं न पढ़ै । पुनि पाणिनि आदिके जो नव व्याकरण हैं तिनकूं जे कोई पढै । 
प्रातः काल मध्यान्हकाल औ सायंकाल तीन समय संध्या गायत्री कूं करै । औ स्नान, जप, होम आदिक षटकर्महि गहै जो आचरै । सोइ देश, काल, कर्म आगम औ आहारादिक की सात्विकता राजसता औ तामसता म उपयोगी सत्वादि गुनन कूं अरु काल कहिये काल - करि उपलक्षित देशादिक कूं । अथवा शांत, घोर औ मूलवृत्तिरूप गुण औ कर्म में उपयोगी औ अनुपयोगी शुभाशुभ काल कूं जो बिचारै । 
यद्यपि यह पूर्वोक्त आचार भी श्रेष्ठ है औ परंपरा करि ज्ञान द्वारा मोक्ष का कारण है तथापि सो साक्षात् मोक्ष वा ज्ञान का साधन नहीं होने तें, तिस तें पूर्व कार्य होवै नहीं । औ रासी अतिशय करि श्रेष्ठ काम तबै बनि आवै कहिये सिद्ध होवै, जब मन में सब पूर्वोक्त साधन आग्रह तजि कहिये छोड़िके ‘राम’ इन दोइ अक्षरन कूं ह्रदय में राखै कहिये तदाकार होयके रहै । यह मोक्ष - साधन की प्राप्ति का निकट द्वार है । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि हे पंडित ! सर्व शास्त्र का सिद्धान्त यह है - राम नाम विनु मुक्ति न होइ । याका गोप्य अर्थ यह है - ब्रह्म औ आत्मा की एकता के जानने वाले योगी तदाकार वृत्ति करि जिस सत्य आनंद चिदात्मा विषै रमते हैं, सो चिद्रूप परब्रह्म राम कहिये है । तिस राम के नाम कहिये प्रसिद्धि अर्थ यह सो साक्षात्कार तिस बिना मुक्ति होवै नहीं । यातें राम के साक्षात्कार अर्थ कूं भजै’ ॥३२॥ इस २२ वें अंग की टीका को स्वयं सुन्दरदास जी के विशिष्ट वचन से समाप्त करते हैं - 
“सुंदर सब उलटी कही, समुझै संत सुजांन । 
और न जानैं बापुरे, भरै बहुत अज्ञांन”॥ 
॥ इति विपर्यय शब्द के अंग २२ की टीका सम्पन्न ॥२२२॥

शनिवार, 9 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=३१)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*नष्ट होंहि द्विज भ्रष्ट क्रिया करि*
*कष्ट किये नहिं पावै ठौर ।* 
*महिमा सकल गई तिनि केरी*
*रहत पगन तर सब सिर मौर ॥*
*जित जित फिरहिं नहीं कछु आदर*
*तिनकौं कोउन घालै कौर ।* 
*सुन्दरदास कहै समुझावै अैसी*
*कोऊ करौ मति और ॥३१॥*
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*= ह० लि० १,२ टीका =* 
अब आगे शुद्ध कथा अर्थ है अध्यात्मपक्ष में । अति उत्तम जीव सोई द्विज जो वो द्विज है सो कष्ट - क्रिया नाम वेदोक्त शुद्ध क्रिया आचरण धारण कर्यां बिना भ्रष्ट होय जाय ता शुद्ध क्रिया बिना अर्थात् मनमतै ही बहिर्मुख क्रिया कर्यां तैं ठौर नाम सुख नहीं पावै अर्थात् ता क्रिया बिन नीच जोनि को अधिकारी होय अर्थात् सुखी नहीं होय । 
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ता क्रिया बिना ताको सर्व प्रभाव गयो अरु ता प्रभाव बिना सर्वशिरोमणि है तो प्राणि सर्वाधीएन सर्व काम - क्रोधादि विकार सुख - दुःखां  कै अधीन रहै है । 
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सर्वत्र सर्वलोकां में सर्वजोनी में वा सर्व घरां में जहां तहां फिरै ता पाणि कोई स्थान में आदर नहीं पावै धर्म रहित पणां सों अरु तिनका कोई भी कछू मांग्यो दे नहीं कौर नाम ग्रास मात्र भी नहीं देवै ।
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ऐसी नाम अपणां धर्म को त्याग कोई भी मति करो शुभ - धर्म का त्याग मैं सर्व दुःख है धारण में सर्व सुख है ॥३१॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
जीव रूपी मानो द्विज कहिये जो ब्राह्मण है । सो अपने स्वरूप के विस्मरण - रूप भ्रष्ट क्रिया करि नष्ट होय । कहिये अपने सर्वाधिष्ठान - पाने कूं छोड़िके संसारी(जीव) भाव कूं प्राप्त होवै है । सो पीछे अनेक वहिरंग - साधनरूप कष्टकूं किये भी ठौर कहिये “मैं कर्त्ता भोक्ता संसारी हूँ” इस भावकूं छोडि के ब्रह्मस्वरूप करि स्थिति कूं पावै नहीं । 
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तिनकेरी कहिये जीवरूप ब्राह्मण की परमेश्वर - रूप करि ब्रह्मादिक की स्तुति औ पूजा की विषयता - रूप जो पूर्व महिमा थी सो सकल गई । काहेते ? वास्तव परमात्मा होने ते सब शिरमोर कहिये सर्व का शिरोमणि - रूप है । सो पगन तर रहत कहिये सर्वदेव आदिकन के पाद के तले दीन की न्यांई पूजक होइके स्थित भयो है । 
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जित तित कहिये चौरासी लक्ष योनि - रूप पराये(पंचभूतन) के ग्रहन में फिरे है । परन्तु कहूं भी स्वरुपस्थिति जन्य स्वतन्त्रतारूप कछु आदर मिलै नहीं । औ तिनकूं कोउ इष्टदेवादिक भी स्वकर्मरूप श्रम बिना कोर कहिये एक कवल भी घालै कहिये मांग्यौ न देवै । 
*सुन्दरदासजी कहिये* समुझावै हैं कि - ऐसी कहिये स्वरूप के विस्मरणरूप भ्रष्ट क्रिया और कोऊ पुरुष भी मति करौ । किंतु विचार आदि के जिस किसी प्रकार करि सदा स्वरूप में ही रत रहो ॥३१॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=३०)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*शुक कै बचन अमृत मय अैसैं*
*कोकिल धार रहै मन मांहि ।* 
*सारौ सुनै भागवत कबहौं*
*सारस तोऊ पांवै नांहि ॥* 
*हंस चुगै मुक्ताफल अर्थहिं*
*सुन्दर मांनसरोवर न्हांहि ।* 
*काक कवोश्वर विषई जेते*
*ते सब दौरि करंकहि जांहि ॥३३॥* 
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*= ह० लि० १, २ टीका =* 
या में विपर्यय अलंकार नहीं है या में हीरावेदि अलंकार के जो उनहीं अक्षरों में अर्थ भी सिद्ध होय अरु किसी का नाम भी सिद्ध होता जाय । इहां शुक जे है सूवा को भी कहैं और अर्थ इह जो शुक नाम शुकदेवजी ताका वचन भगवतरूपी बड़ा श्रेष्ठ अमृतरूपी है सो वै सिद्धान्तवचनां को कलि नाम संसार में कौन है ऐसा जो मन में धारन करै अर्थात् धारण करना अति कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है ।  
सारौ नाम सम्पूर्ण भागवत सुनैं इह भी अर्थ सारो पक्षी(मैना) को भी नाम है । सारस नाम सम्पूर्ण सिद्धान्त पावणों कठिन है अरु सारस पक्षी को भी नाम सिद्ध होवै है । 
हंस नाम हंसरूपी संत, हंस पक्षी को भी नाम है । अर्थ की प्राप्ति को जो सुख सोई मानसरोवर तामैं आनन्द की मगन रहै है । काकरूपी जो रस ग्रन्थ का कवि अरु काक पक्षी को भी नाम है । 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
यह विपर्यय आदि जो मेरी काव्य है । ताका तात्पर्य यद्यपि(विज्ञान) वेदांत - सिद्धान्त में है तातें वेदांतिन कूं तौ अति प्रिय लगैगो । तथापि और कवि(चतुर) यथार्थ अर्थ जानने में समर्थ नहीं होने से यथाबुद्धि या में प्रवृत्त होवैंगे । सो दिखावै हैं ।(इहां से तीन सवैये में विपर्यय नहीं है ।) 
कोई कवि तो शुक(पोपट) के न्यांई होवै है । जैसे शुक पक्षी जितना शब्द सीखै है उतना ही बोलै है । अधिक बोलि सकै नहीं । तैसे यह कवि पढ़े हुवे विषय का वर्णन करै । अधिक युक्ति करि कहि सकै नहीं । परन्तु जो श्रेष्ठ है, काहेते श्रद्धायुक्त जितना सीखै है उतना दृढ ग्रहण करिकै सोई कथन करै है । तामें संशय औ विपर्यय कछु नहीं होवै । ऐसे ताके वचन भी अमृतमय लगै हैं । इस कथन तें श्रद्धावान् पुरुष के स्वभाव का सूचन किया । 
कोई कवि तो कोकिला की न्याई होवै है । जैसे कोकिल पक्षी किसी अर्थवाला शब्द बोलै नहीं । औ किसी से सीखै भी नहीं । परन्तु ताका शब्द स्वभाविक ही ऐसा लगै है कि मानों सुनते ही रहिये । कदे तृप्ति होवै नहीं । तातैं यह कवि बिनाही पढ़ैतें स्वभाविक ऐसा विषय कथन करै है कि सो किसी से विरुद्ध होवै नहीं । यद्यपि युक्ति औ प्रमाणादि करि रहित होवै है । तथापि ईश्वरादिक विषय होने तै ताका कोई द्वेष वा निषेध करै नहीं । तातें सो भी प्रथम कवि की न्यांई श्रेष्ठ ही है । ऐसे मनमांहि धारी रहै । इस कथन तैं निष्पक्षपात स्वभाववाले पुरुष का सूचन किया । 
कोई कवि तौ सारो(एक जात के पक्षी) की न्यांई होवै है । जैसे सारे पक्षी कछु बोलै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ गायनादि नाद कूं सूनै है तिस नाद में मृगन की न्यांई तल्लीन होइ जावै है औ मधुरनाद सुनने के वास्तै ही विचरता रहै हैं । ताकूं ऐसा नाद कबहूक सुनने में आवै है । तिस नादजन्य रहस्य का विस्मरण कबहू होवै नहीं । तैसे यह कवि बहुत वक्ता तो होवै नहीं है परन्तु श्रेष्ठ भगवत् कथादिकन कूं सुनै है । तिस भगवत्कथा में तल्लीन होई जावै है । औ सो मधुर कथा सुनने के वास्तै ही विचरता रहै है । ताकू ऐसी भागवत(भगवत् - सम्बन्धी) कथा कबहूंक सुनने में आवैं । तिस कथा के रहस्य कूं कबहू भूलै नहीं । इस कथन तें रहस्याभिलाषी भाविक पुरुष के स्वभाव का सूचन किया । 
कोई कवि सारस पक्षी की न्यांई होवै है । जैसे सारस पक्षी जो है सो और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । परन्तु तिस कथन की वासना अन्तर में रहै नहीं । तैसे यह कवि और सब कवीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । परन्तु तिन विषयन की अन्तर में वासना रहै नहीं । अर्थात् ज्ञानी होवै है सो तौ कछु शंका भी तर्कादिक उपजावै नांहि । इस कथन तै ज्ञानी के स्वभाव का सूचन किया । 
कोई कवि तो हंस की न्यांई होवै है । जैसे हंस पक्षी जो है सो भी सारस की न्यांई और सब पक्षीन तें श्रेष्ठ औ चतुर है । याकी बानी अति मधुर होवै है । स्मरण - शक्ति भी उत्तम होवै है । ताकी चंचू में और एक ऐसा गुन होवै है कि जल में मिल्या हुवा दूध जल तें भिन्न करिके पान करि लेवै है । औ निरंतर मान सरोवर में बास करिके ता मांहि ते मुक्ताफलन कूं चुगै है । तैसे यह कवि जो है सो भी उक्त(सारस्वत) कवि की न्यांई श्रेष्ठ औ चतुर है । याका बोलन अति नम्र होवै है । श्रवण किया विषय विस्मरण होवै नहीं । ताकी बुद्धि में और एक ऐसा गुन होवै है कि सारासार विवेक करि सार वस्तु का ग्रहण करै औ असार का त्याग करै है । औ निरन्तर सतसंग में वास करिके सत - शास्त्र के सुंदर अर्थहि(कूं) धारण करै है । इस कथन ते मुमक्षु पुरुष के स्वभाव का सूचन किया है । 
कोई कवि तो काक ही न्यांई होवै है । जैसे काक पक्षी जो है सो ओर पक्षीन तें अधम होवै है । निरन्तर बकता ही रहै है । वाका स्वर अति कटुक होवै है सो सुनि के क्रोध उत्पन्न होवै है । काहू कूं भी अच्छा नहीं लगे है । ऐसे जेते होवैं सो सब दौरि करंकहि कहिये करंक नाम के वृक्ष के ऊपर जांहि के स्थित होवै हैं । तैसे यह जो कवि जो है सो और सब कविन तै अधम होवै है । यद्यपि अनेक विषयन करि निरंतर बकता ही रहै है तथापि सो सो श्रेष्ठ विषयन तें रहित होने तें विरस है । सो सुनिके उत्तम पुरुष कूं क्रोध उत्पन्न होवै है । कोई सत्पुरुष सराहे नहीं । सो यद्यपि बड़ा चपल औ चंचल बक्ता होने तैं विषयी पुरुषन कूं तो अति नीकै लागै है औ विषयी याकूं कवीश्वर कहै है । तथापि सो कवि नहीं है किन्तु कुकवि है । इस कथन तें विषयी, द्वेषी औ दोषदर्शी पुरुषन के स्वभाव का सूचन किया है । 
इस कथन का भाव यह है - यह विपर्यय आदिक जो मेरी काव्य है सो बांचिके सुनिकै वा पढिके अर्थग्रहण करने वाला कोई कवि(चतुर) निकलैगा । सब कविन तें याका अर्थ नहीं होवैगा । जैसे जो *शुक* की न्यांई कवि है सो श्रद्धावान होने तें जितना गुरुमुखद्वारा पढ़ैगा तितना ही ग्रहण करि लेवैगा । *कोकिला* की न्यांई जो कवि है सो तौ पक्षपातरहित होने तैं न अपेक्षा करेगा । *सारों* की न्यांई जो कवि है सो तौ रहस्याभिलाषी होने तैं यह सुनते ही यामें लीन होइ जायगा । *सारस* की न्याई जो कवि है सो ज्ञानी होने तैं सम्यक् प्रकार तें अंगीकार करिके अंतर में वासना - रहित रहैगा ।*हंस* की न्याई जो कवि है सो मुमुक्षु होने तैं विवेक बुद्धि करि सारासार विचार करैगा । औ जो *काक* की न्यांई कवि है सो विषयी औ द्वेषी होने तें शीघ्र ही दोष कूं ग्रहण करैगा ॥३०॥  
(क्रमशः)

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२९)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*एक अहेरी वन मैं आयौ*
*खेलन लागौ भली सिकार ।*
*कर मैं धनुष कमरि मैं तरकस*
*सावज घेरे बारंबार ॥* 
*मार्यौ सिंह व्याघ्र पुनि मार्यौ*
*मारी बहुरि मृगनि की डार ।* 
*अैसें सकल मारि घर ल्यायौ*
*सुन्दर राजहिं कियौ जुहार ॥२९॥*
*= ह०लि० १,२ टीका =* 
अहेरी नाम संत सो संसाररूपी वन में आयो प्रगट हुवो सो वन में भली जो श्रेष्ठ शिकार खेलन लागौ सोई कहैं । 
कर नाम अंतःकरण तामें धनुष नाम ध्यान, कमर नाम आपकी कठिनता संजमता अति सूरवीरप्राणी तामें तरकस नाम घणी तर्क - वितर्क सों धारण कियो जो आपको निश्चो दृढभाव तामैं नाम - रटणा आदि बाँण परिपूर्ण हैं तिना करि सावज नाम शिकार खेलण जोग्य जो पशु तिनरुपी सर्व विकार तिनां को घेरन लाग्यो अर्थात् बाह्यवृत्ति मेटि सबको वश्य करने लाग्या । 
तिन में मुख्य सावज सिंह व्याघ्र नाम क्रोध - काम आदिक मार्या नाम जीति बस कीया और वह मृगन की डार नम सर्व इन्द्रियां का समूह सो मार्यो नाम इन्द्रियाँ की वृत्ति जीती । 
ऐसे सर्व कों मारिके नाम स्वबसि करिके घर नाम हदौ ल्यायो नाम सर्ववृत्ति अंतर्निष्ट करी । या प्रकार की शिकार खेलि सर्व कार्य सिद्ध करि आया तब राजा रामजी तिनको जुहार कियो नाम हाजिर हवा अर्थात् सर्व विकार जीत्या यातें परमात्म की प्राप्ति हुई ॥२९॥
.
*= पीताम्बरी टीका =* 
एक उत्तम संस्कार - युक्त अधिकारी पुरुष अहेरी(शिकारी) संसाररूप बन में आयो । कहिये कर्मवश तें नरदेह कूं प्राप्त भयो । सो बंधननिवृत्तिरूप भली(अच्छी) शिकार खेलन लाग्यो । 
ता शिकारी ने अन्तःकरण की वृत्तिरूप कर(हाथ) में गुरुमुख द्वारा श्रवण किये हुवे महावाक्य के अर्थरूप धनुष धारण करिके । औ हृदयरूप कमरि में अनेक युक्ति औ विचाररूप बाणयुक्त अन्तःकरणरूप तरकस(भाथा) बाँधिके । बारंबार श्रवणादि सहकारी - द्वारा । सावज(मारनेलायक जानवर) घेर कहिये रोके ।
ज्ञानरूप युद्धकरि मूला - अज्ञानरूप सिंह मार्यो । पुनि काम - क्रोधादि बहुरि मृगन की डार(पंक्ति) मारी कहिये बाधित कीनी । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि ऐसे सकल प्रपंचरूप शिकार कूं मारि(बाध करिके) घर लायो । कहिये पूर्व अज्ञानदशा में अधिष्ठान ब्रह्म तें भिन्न प्रपंच कूं मानतो थो । सो अब बाधितानुवृत्ति करि अधिष्ठान में कल्पित अनुभव करने लग्यो । औ ब्रह्मरूप राजहि(राजा कूं) जुहार कियो । कहिये अपनी आप करि जान्यो । तातें मुक्तिरूप मौज मिली ॥ 
.
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“बन में एक अहेरिये, दीन्हीं अग्नि लगाई ।
सुन्दर उलटे धनुष सर, सावज मारे आइ” ॥४१॥ 
“मारयौ सिंघ महाबली मारयौ व्याघ्र कराल । 
सुन्दर सबही घेरि करि, मारी मृग की डाल” ॥४२
(क्रमशः)

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२८)


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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पंथी मांहि पंथ चलि आयौ*
*सो वह पंथ लख्यौ नहिं जाइ ।* 
*वाही पंथ चल्यौ उठि पंथी*
*निर्भय देश पहुंच्यौ आइ ।* 
*तहां दुकाल परै नहिं कबहूं*
*सदा सुभिक्ष रह्यौ ठहराइ ।*
*सुन्दर दुखी न कोऊ दीसै*
*अक्षय मैं रहै समाइ ॥२८॥*
*= ह० लि० १, २ टीका =* 
पंथी संत मुमुक्षु तामं पंथ नाम परमात्मा की प्राप्ति की कर्त्ता भक्ति ज्ञान सो आपको सुत वा साधना करि वा मुमुक्षु संत कौ प्राप्त हुवौ । सो जो वा ज्ञान है सो अति सूक्ष्म स्वरूप है ताको लखणों समझणों अति कठिन है - सो गुरु संत शास्त्र उपदेश करि वा ज्ञान मार्ग को दृढ निश्चै धारिकै वो मुमुक्षु संतरूपी पंथी वाही ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग में चल्या, या प्रकार परमात्मा को प्राप्त हुवा । ता ब्रह्मदेश में दुकाल परे नहीं नाम किसी बात की ऊँणता रहै नहीं । तहां ब्रह्मदेश में सुभिक्ष नाम सदा ही सर्व प्रकार की पूर्णता रहे । “रसवर्ज रसोSप्यस्य पर दृष्ट्वा निवर्त्त्ते ॥” इति(भ. गी.अ.२, श्लोक ५९) । वा ब्रह्मदेश कों जो प्राप्त हुवा तिनां के किसी के भी किसी प्रकार को दुःख नहीं रहै है, वे सदा ही अक्षय नाम अविनाशी सुख में लीन रहै हैं ॥२८॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
मोक्षरूप प्रदेश के ज्ञानरूप मार्ग में गमन करने वाला जो मुमुक्षुजीव है ताकू इहां पंथी कहै हैं । ता मांहिं ज्ञानरूप पंथ(मार्ग) चलि आयो । अर्थात् गुरु शास्त्रादि अवांतर साधन द्वारा अंतःकरण की चरमावृत्ति करि प्रगट भयो । सो वह पंथ लख्यो नहिं जाइ । इहाँ यह रहस्य है - जैसे बिजली की गति, मन की गति औ पक्षी की गति विलक्षण पुरुष करि जानी जावै है । यातें लक्ष्य हैं । जल में छोटी मच्छरी होवै है ताकौं यद्यपि और कोई जानि सकै नहीं तातैं अलक्ष्य कहिये है । तथापि मच्छरी रूपधारी योगी करि जानी जावै है यातैं लक्ष्य है । योगी की गति यद्यपि औरन से जानी जावै नहीं तथापि सो अन्य योगी करि जानी जावै है । तातैं ज्ञानी की गति(पंथ) रूप ज्ञान लखने में आवै नहीं । 
उक्त मुमुक्षु जीवरूप जो पंथी है सो उठि कहिये अज्ञानरूप पूर्वस्थान से उठिके वाही ज्ञानरूप पंथ में चल्यो । अर्थात् ज्ञानी होय विचरने लग्यो । ऐसे बिचरते विचरते जब शेष कर्मन का क्षय हो गया तब विदेहमोक्षरूप जो निर्भय देश है तहां आइ पहूंच्यो, अर्थात् ब्रह्म तें अभिन्न भयो । तहां कबहूं जन्म - मरणादि दुःखरूप दुकाल परै नहिं । काहेतें कि सदा परमानन्दरूप सुभिक्ष(सुकाल) ठहराइ रह्यो है । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि तिस विदेह - मुक्तिरूप स्थिति में कोऊ दुखी दिसै । काहेतें कि जो जो पुरुष ज्ञानरूप मार्ग करि विदेह मुक्त भये हैं वे सर्व उपाधि रहित ब्रह्मरूप होय के स्थित हैं । सो ब्रह्मस्वरूप अक्षयसुखरूप होने तें तहाँ दुःख का लेश भी नहीं है, ता में समाइ रहै हैं ॥२८॥
.
*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“पंथी मांहे पंथ चलि, आयौ आकसमात ।
सुंदर वाही पंथ माहि, उठि चाल्यौ परभात” ॥३९॥
“चलत चलत पहुंच्यो तहां, जहां आपनौं भौंन ।
सुन्दर निश्चल व्है रह्यौ, फिरि आवै कहि कौंन” ॥४०॥
(क्रमशः)

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२७)

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https://www.facebook.com/DADUVANI 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*खसम परयो जोरू कै पीछे*
*कह्यौ न मानैं भौंडी रांड । 
*जित तित फिरै भटकती यौंही*
*तैं तौ किये जगत मैं भांड ॥*
*तौ हू भूख न भागी तेरी*
*तूं गिलि बैठी सारी मांड ।* 
*सुंदर कहै सीख सुनि मेरी*
*अब तूं घर घर फिरबौ छांड ॥२७॥*

*= ह० लि० १, २ टीका =* 
खसम जो मन सो जोरू नसा ताके पीछे परयो नाम सीख देणें लागौ खिजिकै रीस करिकैं, भोंडी नाम बुरी विषय विकारों करि मलीन । 
जहां तहां योंही नाम वृथा ही विषय विकार रूप संकल्पां में भाजती फिरै, तैं तो मनैं भी जगत मैं भांड कियो, याकौ यह अर्थ है जो सूक्ष्म वासनारूप जो संकल्प हैं सो मन में उदय होयकैं प्रगटैं सो मनही को वाको दूषण आवै । 
सारी मांड नाम सर्व पदार्थां को तृष्णाद्वारि ते गिलि बैठी नाम खाय बैठी, तेरी ओरुं भी भूख भागी नहीं नाम तृप्ति हुई नहीं अब तो तृष्णा दूरि कर । 
तासों मन कहै है हे मनसा अब तो तृष्णा को छांडिकर निश्चल होहु अरु घरिघरि फिरणों छांडि दे । घरि घरि नाम स्वर्ग मृत्यु पाताल लोकां में अथवा चौरासी जोनि जन्मां में अथवा संसारी जनां का घर घर में अथवा नवद्वारों का विषयविकारां में, इन स्थानों में, सर्वथा फिरनों छांडि दे, ज्यूं सर्व सुखको प्राप्त होय ॥२७॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
चिदाभास - सहित अन्तःकरण जो जीव है ताकूं यहाँ खसम कह्या है । सो बुद्धिरूप जोरू कै पीछै पर्यो । ता जोरू ने शुभाशुभ कर्मन के बलकरि अनंत चौरासीलक्ष येनि में भटकायो । औ तिन योनिजन्य अनंतयातना(पीड़ा) सहन कराई । ऐसे अगणित दुःखसहन करते हुवे कदाचित् काकतालीय न्यायवत् शुभाशुभ कर्मन करि मनुष्य शरीर की प्राप्ति हुई, तामें किसी उत्तम संस्कार के लिये सत्संगादिकन की प्राप्ति भई । तिस क्षण में बुद्धि की अवस्था, यत्किंचित् फिरि । तब ताकूं सो जिव कहने लगा कि तैंने मेरी बहुत दुर्दशा करी, अब मेरे तें ऐसा दुःख सहन नहीं होवै है । तातें अब तूं ज्ञान में प्रवृत्त होय के अन्तःकरण की वासना का त्याग करहु तातें मेरा जन्म मरण निवृत्त होवै । इत्यादिक वाक्यन करि विचारपूर्वक, आर्त्तजन अपनी बुद्धि कूं बहुत कहि समुझावै है । परन्तु वासना के बसि भई भौंडी(भ्रष्ट) रांड(रंडा) कह्यौ नहीं मानै हैं । अर्थात् निरन्तर सत्संग में प्रवृत्त होय के ज्ञानवान नहीं होवै है । काहेतें कि ज्ञान की प्रतिबंधक जो अशुभकर्मजन्य वासना है सो तिस शरीर में ज्ञान की प्राप्ति का असंभव होने तें बुद्धिकूं सत्संगादिकन में प्रवृत्ति करावने नहीं देवै है । 
औ जित तित कहिये जिस किस विषय में यूंही भटकती फिर है जैसे व्यभिचारिणी स्त्री कामातुर भई हुई स्पर्श विषय के अर्थ जहां तहां भटकती फिरै है ओ ताका ही निरंतर ध्यान लग्या रहै है । सों जौलौं पति ताके आधीन होवै तौंलौं सो कृत्य निर्भयता तें होवै है । परन्तु जब पति कूं तिस बात की कछु खबरि होवै है तथापि वासना के बल सो व्यसन शीघ्र छूटै नहीं है । सो देखिके ताका पति बहुत युक्तियों करि समुझावै है । परन्तु सो जब समुझे नहीं तब कोपायमान होयके कहै रांड तैं तौ मेरेकूं जगत् में भांड(फजीहत) कियो है । तैसे जीवरूप खसम भी अपनी बुद्धिरूप जोरूकूं व्यभिचारिनी देखिके क्रोधायमान होयके कहै है कि इस जगत में तैनें मेरे कूं ऐसा फजीहत कर्या है कि जानें मेरी परिपूर्णतारूप प्रतिष्ठा - अद्वैतरूप नाम औ अखंडानंदरूप धन आदिकन का अभाव की न्यांई होई गया है । 
ऐसी मेरी प्रभुतारूपी सारी मांड(बडाई) तूं गिल बैठी । तौहूं तेरी तृष्णारूप भूख न भागी(नाश नहीं भई) अर्थात् ब्रह्म तैं जीव किया तौभी तेरी तृप्ति भई नहीं है । अब क्या पत्थर की न्यांई जड़ करने कूं चाहती है ? ऐसे अति तीक्ष्ण वचन कहै है । *सुन्दरदासजी कहैं है* कि हे बुद्धि ! अब मेरी सीख(शिक्षा) सुनि के, कहिये इस मनुष्य जन्म विषै ज्ञान कूं पायके अब तूं अनेक विषयरूप या अनेक योनिरूप घर - घर में फिरबो छांड अर्थात् ज्ञानहुवे पीछे विषयवासना के अभाव हुवे जन्म मरण की निवृति होवै है । ऐसें कह्या ॥२७॥ 
*सुन्दरदासजी* ने इस पर कोई साखी नहीं कही है । 
(क्रमशः)

बुधवार, 6 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२६)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पानी जरै पुकारै निश दिन*
*ताकौं अग्नि बुझावै आइ ।* 
*हूं शीतल तूं तप्त भयौ क्यौं*
*बारंबार कहै समुझाइ ।* 
*मेरी लपट तोहि जौ लागै तौ*
*तूं भी शीतल ह्वै जाइ ।* 
*कबहूं जरनि फेरि नहिं उपजै*
*सुंदर सुख मैं रहे समाइ ॥२६॥*

*= ह० लि० १, २ टीका =* 
पानी नाम प्रेम सो अंतःकरण में अतिगति प्रकासै उदय होय प्रेम को जो अतिगति होणों वाही को नाम विरह था विरह की तरली में रात - दिन अखंड पुकारै नाम आतुर होयकरि, तब वा प्रेमरूपी पाणी के बेग कों अग्नि बुझावै जो वा प्रेम तरली में ज्ञानरूपी अग्नि प्रगट होय नाम स्वरूप प्राप्त करिकै वा विरह अग्नि को निवारै । .
वो ज्ञान प्रेम सों कहै - हूंतो शीतल अरु तू तपत क्यूं भयो, प्रेम तो सदा सुखरूप है तथापि लगनि में तपत रहै है तातैं बारंबार ज्ञान प्रेम कों समझावै सो कहै है । मेरी लपट तोहि लागै नाम जो ज्ञान उदय होय तो प्रेम भी शांतिरूप होय जाय, आदि में प्रेम अरु प्रेम तैं ज्ञान, ज्ञान के उदय से सर्व शांत शीतल होय जाय । फेर प्राप्ति के अनंतर जन्म - मरन - संसार सम्बन्धी कोई प्रकार की जरनि नाम ताप उपजै नहीं सदा ब्रह्मानन्द सुख में समाय रहै ॥२६॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
अंतःकरण जो है सो स्वभाव तें ही स्वच्छ है, यातें ताकूं यहाँ पानी कह्या है । सो अंतःकरण संसार के त्रिविध ताप तें जरै है, तातें निशदिन कहिये निरंतर “मैं दुःखी, कंगाल, संसारजीव हूँ” ऐसे पुकारै है । अर्थात् अंतर में निश्चय करि जहँ तहाँ कथन करै है । ताकूं कहिये तपायमान अंतःकरण जल कूं ज्ञानरूप अग्नि बुझावै आइ, कहिये तिन त्रिविध तापन कूं बांध करिके शांत करै है । 
औ सो ज्ञानरूप अग्नि पूर्वोक्त अंतःकरण जल कूं बारंबार समुझाइ के कहै कि मेरी उत्पत्ति तुझसेन हुई है, सो मैं तो शीतल शांत हूं, तूं क्यौ तप्त भयौ है ? भाव यह है - प्रथम जब मंद ज्ञान होवै है तब विचार उत्पन्न होवै है, सो ज्ञान तिस बिचार करि बहिर्मुखन कूं बोध करै है । 
यह जो संसार है सो मिथ्या है, औ ता में जो तीन ताप हैं सो भी मिथ्या हैं । औ सर्वत्र परिपूर्ण जो ब्रह्म है सो सत्य है, सोई मेरा रूप होने तें मेरे विषै संसार औ ताके तीन ताप जेवरी में सर्प, शुक्ति में रजत औ मरुस्थल में जल की न्यांई मिथ्या प्रतीत होवै है । ऐसी संशय विपरीत भावना - रहित मेरी दृढ़ता - रूप लपट, श्रवण - मनन निदिध्यासनादि करि जौ तोहि लागै तौं तू भी(अंतःकरण भी) पूर्वोक्त त्रिबिधतापजन्य बिक्षेप को नाश करि शीतल(शांत व्है जाइ । 
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि एक बेर जो ज्ञानाग्नि करि अन्तःकरण जलकी तपत निवृत्त भई कि फेरि सो जरनी(तपत) कबहूं नहिं उपजै, अर्थात् ज्ञान हुवे पीछे अपने निजस्वरूप आत्मा से विमुख होवै नहीं । काहेतें कि अन्तःकरण ब्रह्मसुख में समाइ रहै है ॥२६॥

*= सुन्दरदासजी की साषी =*
पानी फिरै पुकारतौ, उपजी जरनि अपार । 
पावक आयौ पूछने, सुंदर बाक़ी सार ॥३७॥ 
जौ तूं मेरी सीख लै, तौ तूं शीतल होइ । 
फिरि मोही सौं मिलि रहै, सुंदर दुक्ख न कोई ॥३८॥
(क्रमशः)

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२५)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*राजा फिरै विपत्ति कौ मार्यौ*
*घर घर टुकरा मांगै भीख ।*
*पाइ पयादौ निशि दिन डोलै*
*घोरा चालि सकै नहिं बीख ॥* 
*आक अरंड की लकरी चूंषै*
*छाडै बहुत रस ही भरे ईख ।* 
*सुंदर कोउ जगत मैं बिरलौ*
*या मूरख कौं लावै सीख ॥२५॥* 
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*= ह०लि० १,२ टीका =* 
राजा नाम जीव वा मन, सो विपत्ति नाम अनेक प्रकार की तृष्णारूप आपदा ताको मारयो फिरै नाम चंचल हुवो रहै, घर - घर नवद्वार तीनां का विषय सुख तिनां को टुकरो किंचित् मात्र जो अंश ताकी प्राप्ति होवै सोई टुकरो ताकों मांगतो डोलै, फिरै नवद्वारा में जहां तहां फिरै । 
पाय पयादों नाम आपकी आपकों संभाल नहीं रहै ऐसी तरह भोगां में अति आतुर चंचल होयके फिरै है । अरु वाको घोरा नाम शरीर जो शक्ति - हीन होय गयो तासों एक पगमात्र चल्यो जाय नहीं तो पण मन तो अति चंचल ही रहै ।
आक अरंड की लकरी लोक - परलोक में दुःखदायीरूप जो विषय विकार इन्द्रियां का भोग - क्रोध - मोहादिक तिनही को अंगीकार करै यों मन को स्वभाव है । अरु जो महा अमृतरूप या लोक परलोक में सुखदाई मिष्टरस भर्या ईख तुले भगवत भजन ध्यानादि तिन कों न लेवै ऐसो मलीन या मन को स्वभाव है । 
ऐसो मूरख जो यह मन महा अज्ञ मन को सीख देकरि शुद्ध करै ऐसा पुरुष जगत में बिरला है, ऐसे मनकों जीतनों अति कठिन है, जब भगवत् कृपा होय तब मन शुद्ध होय, तामें भगवत् कृपा के अर्थ भजन ध्यान अखंड करनों - यही उपाय है, अवर नहीं ॥२५॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
चेतन के प्रतिबिम्ब - युक्त जो मन है ताकों यहां राजा कहै हैं । सो आशा तृष्णा अभिलाषा औ कामानादि भेद करि भिन्न भिन्न इच्छारूप विपत्ति(दुःख) को मार्यो चौदह भुवनरूप भिन्न भिन्न ग्रहन में, अथवा दश इन्द्रिय रूप प्रतिग्रह में, अथवा राज्यादि पदवी - रूप घर - घर में फिरै कहिये भटकै है । औ परिच्छन्न विषय भोग - रूप टुकरा की भीष मांगै है । 
शुभ और अशुभ मनोभाव हैं सोई मानौं दो पाँव है तिनके अनुसार नाना प्रकार की वृत्तिरूप गति करि निशि(स्वप्न में) दिन(जाग्रत में) पाइ पियादे डोलै है अर्थात् स्थूल शरीररूप घोडा की सहायता नहीं मिलै है । काहेतै कि मनमें जो नानाप्रकार के संकल्पविकल्प रूप भाव उत्पन्न होवै हैं । सो यद्यपि पूर्व कर्मानुसार होवै हैं तथापि सो सर्व फल के देने वाले नहीं होवै है । मनोरथ मात्र होवै हैं । जैसे किसी भिक्षुक के मन में ऐसा भाव होवै है कि ‘नगरी का अधर्मी राजा मर जावै औ ताका राज्य मेरे कूं प्राप्त होवै तो मैं धर्मन्याय करू’ । यामें राजा के मरने की जो इच्छा है सो अशुभ है और धर्मन्याय की इच्छा है सोशुभ है, परन्तु सो दोन्यूं होने कूं अशक्य हैं । जो क्रिया का होना है सो फल रूप है । सुख दुःख के भोग कूं कर्म का फल कहै हैं । सो कर्मफलरूप भोग यद्यपि शरीर करि होवै है तथापि कर्मफल देने वाले मनोरथन तें सो भोग होवै हैं । फल रहित मनोरथन से भोरूप क्रिया होवै नहीं । औ मन में तो जाग्रत औ स्वप्न इन दोनूं अवस्था में अंतराय - रहित अनंत संकल्प - विकल्प होवै है सो सब शरीर की क्रिया के हेतु नहीं है । ऐसे ज्ञान बिना भटकत फिरता है । औ उक्त स्थूल शरीररूपी जो घोरा है सो निष्फल मनोरथन के बल करि क्रियारूप बेश(चाल) चालि नहीं सकै है । अर्थात् मन की न्याई शरीर की गति नहीं होवै है । 
पूर्वोक्त नाना मनोरथजन्य जो वासना है सो ... फलदायक नहीं होने तें रस - रहित हैं, तातें ही तिनकूं आक औ अरंड की लकरियां कही हैं । सो चूसै है कहिये मनोराज्य करै है । औ ईश्वर की उपासनादि आदि के साधनरूप बहुत रसभरे ईष(गंडा) कूं छांडै है कहिये त्यागै है । 
सुन्दरदासजी कहैं है कि इस जगत में ऐसा कोऊ बिरलो सत्पुरुष है जो या अज्ञानीरूप मूरष कों सीष(शिक्षा) लावै । अर्थ यह है - पूर्वोक्त अस्थिर मन वाले कूं बोध होना कठिन है, काहेतैं कि चंचलमनवाले कूं उपासनादिक्रम तैं साधन द्वारा ज्ञान होने का संभव है । ताकूं साधन बिना ज्ञान होवै नहीं । ऐसे जान के जो सत्पुरुष प्रथम साधन करावै औ पीछे बोध करै । ऐसा अद्भुत कृत्य ब्रह्मनिष्ठ औ श्रोत्रिय से होवै है और से होवै नहीं, सो मिलना कठिन है । तातें ऐसे अज्ञानी कूं बोध करने वाला बिरला कह्या है ॥२५॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
*सुन्दर राजा बिपति सौं, घर - घर मौंगे भीष ।* 
*पाय पयादौ उठि चलै, घोर भरै न बीष ॥३६॥*
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२४)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*पहराइत घर मुस्यौ साह कौ*
*रक्षा करनै लागौ चोर ।* 
*कोतवाल काठौ करि बांध्यौ*
*छूटै नहीं सांझ अरु भोर ।*
*राजा गांव छोडि करि भागौ*
*हूवौ सकल जगत मैं सोर ।* 
*परजा सुखी भई नगरी मैं*
*सुन्दर कोई जुलम न जोर ॥२४॥* 
*= ह०लि० १,२ टीका =* 
पहराइत जो आपका कार्य में सदा जागता तत्पर रहै आलसै नहीं ऐसा जो काम क्रोध इन्द्रिय वृत्यादि जिना नैं साह नाम ताको घर मुस्यौ सर्ब शुभ गुणां को नाश करि दियो । अर चोर जो परमेश्वरजी को नाम - “नारायणो नाम नरो नाराणां प्रसिद्ध चौरः कथित पृथिव्याम्” इति भारते करणें लागो शुभगुणां की । 
कोतवाल नाम अज्ञान काल में सर्व काम को कर्त्ता काठो करि पकड्यो निश्चल कर्यो, सो चोर(परमेश्वर) कोतवाल(मन) को निश्चल रहै ऐसे कियो विकारां मे वाकी प्रवृत्ति होय सकै नहीं । 
तब राजा नाम रजोगुण हो सो गांव नाम ह्रदो वा काया ताकों छोड़ि करि भाग्यो नाम निवृत्त हुवो । इतनी बात जब हुई जब बनी तब वा पुरुष को सम्पूर्ण संसार में सर हुवो नाम ता पुरुष को सर्व संसार में जस प्रवर्त्त हुवो । 
प्रजा नाम दैवी - संपदा का गुण, क्षमा दयाशील संतोष, ये सर्व ही वा हदा वा कायरूपी नगरी में सदा सुख सों बसै हैं, जुलम न जोर, किसी प्रकार की उपाधि नहीं, सदाकाल शांतवृत्ति आनन्द रहै हैं ॥२४॥ 
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*= पीताम्बरी टीका =* 
जीवरूप शाह कहिये साहूकार है । ता शाह के अंतःकरणरूप घर में पहराइत(पहरा करने वाली) जो प्रवृत्ति का परिवार काम - क्रोधादिक सिपाही हैं । वे आत्मा - धन की चोरी करने के वास्तै घुसै । काहेतैं ? जौलौं अज्ञानजन्य कामक्रोधादिक अन्तःकरण में रहै हैं तौंलौं वही चौकी करने वाले सिपाही आत्मवस्तु और किसी कूं लेने देवै नहीं है किन्तु आप तिस अंतःकरण रूप गृह में पैठिके वे आत्मधन अपने स्वाधीन करि ताकूं आवरणरूप पेटी में छिपाई देवै हैं । औ शीतालक्षमादिक जो निवृत्ति का परवार है सोई मानों चोर है । काहेते, वे आत्मवस्तु कूं उक्त चौकीवालों से ले करिके अपने स्वाधीन रखने कूं चाहते हैं । सो आत्मधनयुक्त अंतःकरणरूप गृह की रक्षा करने लागे, अर्थात् पुर्वोक्त दुर्गुण कूं अंतःकरण तै निकासि के आत्मा कूं अज्ञानकृत आवरणतैं रहित करने लागे ।
इस बात की जीवरूप साहूकार कूं खबर होते ही, सो अहंकार - रूप कोटवाल के पास फरियाद करने कूं गयो और कहने लाग्यो कि मेरे धन की रक्षा करने वाले जो क्राम - क्रोधादिक हैं वे सब मिलि के मेरे घर में चोरी करने लगे, औ जो शीलक्षमादिक इस धनकी चोरी करने वाले हैं सो रक्षा करने लगे । तिन दोनों पक्षन में अति कलह हुवा है सो कैसे निवृत्त होवैगा ? औ तिस कलह की शांति के वास्तै मेरे कूं क्या कर्तव्य है ? सो कृपा करिके कहिये । तब वो कोटवाल बोला कि - शील - क्षमादिक चोरन कूं निकासि देहु औ कामक्रोधादिक पहराइतन की रक्षा करहु । काहेतें, शील - क्षमादिकन के स्वाधीन जो आत्मधन होवैगा तो इस धन करि नाना प्रकार के विषयसुख तेरे से भोग्या नहीं जावैगा, औ यह धन कामोक्रोधादिकन के स्वाधीन रहैगा तो वे सुख विषयसुख भोगे जावैगे । यह बात सुनिके वो जीवरूप साहूकार किसी साधुरूप वकील कूं पूछने लग्यो कि अब मेरे कूं क्या कर्तव्य है ? तब वे साधु निष्पक्षपात बुद्धि करिके कहने लगे कि कामोक्रोधादिकन कूं अपने घरतें निकासि देहु औ शीलक्षमादिनकन का अंगीकार करहु, क्यूंकि वे तेरे शत्रु हैं और ये तेरे मित्र हैं । वे तेरी पूंजी का नाश करैंगे औ ये तेरी पूंजी की रक्षा करेंगे । औ अहंकाररूप कोटवाल है से कामोक्रोधादिकन का पक्ष करै है काहेतैं कि तिनकी उत्पत्ति अहंकार तें हुई है । तातें पक्षपात करने वाला जो कोटवाल है ताकूं ही शिक्षा करनी चाहिए । यह बात सुनते ही साहूकार क्रोधायमान होयके तिस मिथ्या अहंकार - रूप कोटवाल कूं सत्यतारूप काठौ करि बांध्यौ, कहिये काष्ट के बंधन में डाल दियो, औ ताके ऊपर सतसंगरूप पहरा करने वालों एसो मजबूत जमादार रख्यौ कि वो तहां से सांझ अरु भोर(संध्या औ प्रातःकाल) आदि किसी समय में छूटै नहिं । 
यह बात सुनि के देहादि संघात के अभिमान - रूप गाम(नगरी) कूं छोडिके मूलाज्ञानरूप राजा भाग्यो ताको सकल जगत में सोर हुवो । काहेतें कि वे अज्ञान फिर कतहूं देखने में आयो नहीं । ऐसे उक्त प्रकार करि चोरन की न्यांई धन चोरने कूं पहराइत घर में घुसे औ धन की चोरी करने वाले की रक्षा करने लगे । औ गाम का कोटवाल साहूकार के हाथ तें बंधन कूं पाया । सो बात सुनिके तहाँ का राजा गांव् छोडि के भाग गया । 
तब तिस नगरी मैं सब श्रेष्ठगुणरूप परजा सुखी भई । *सुन्दरदासजी कहैं है* कि न कोई जुलम हुवा । न किसी का किसी पर जोर चल्या ॥२४॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“पहराइत घरकौ मुसै, साह न जानै कोई । 
चोर आइ रक्षा करै, सुन्दर तब सुख होई” ॥३३॥ 
“कोतवाल कौं पकरि के, काठौ राख्यौ जूरि ।
राजा भाग्यो गांव् तजि, सुन्दर सुख भरपूरि” ॥३४॥ 
(क्रमशः)

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२३)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बनिक एक बनिजी कौं आयौ,*
*परैं तावरा भारी भैठि ।* 
*भली बस्तु कछु लीनी दीनी,*
*खैंचि गठिरिया बांधी ऐंठि ।*
*सौदा कियो चल्यौ पुनि घर कौं,*
*लेखा कियौ बरीतर बैठि ।* 
*सुंदर साह खुसी अति हूवा,*
*बैल गया पूंजी मैं पैठि ॥२३॥*

*= ह० लि० १,२ टीका =* 
बनिक व्योपारीरूप जो जिव सो या संसाररूपी दिशान्तर में सुकृत भक्ति बनिजी को आयो तामें प्राचीन मलिन - कर्म का फलहाणि जो काम क्रोधादिक सोई तावड़ो नाम धुप तपै भारी भैठि नाम अतिगति(भैर भट) तपै अर्थात् कछू शुभ कारिज में अवसाण आवण दे नहीं । 
तथापि जिहिं प्रकार पुरुषार्थ करिकै भली बस्तु कछु लीनी दीनी लीनी नांव लिया भजन किया, दीनी भी शुभ उपदेश दीया । यों करि शुभगुण भक्तिरूप गठडिया पोट एंठि नाम काठी ह्रदा में करिकैं बांधी नाम सोंज को ठगाइ नहीं । 
सोदा नाम भजन ध्यान शुभ गुणां कों कियो घर परमेश्वरजी तामें चल्यो भक्तिभाव करिकै । बारी नाम वटवृक्ष सो अति विस्ताररूपा बुद्धि ताके नीचे बुद्धि में थिर होय करि लेखा नाम बिचार कियो भगवत् में चित्त लगायो । 
सुन्दरदासजी कहैं है कि तब साह जो जिव(या बात सों) बहुत खुसी हुआ कि बैल जो बपु शरीर सो पूंजी जो परमेश्वरजी तामें पैठि गयो नाम पायो गयो । अर्थ यह है जो परमेश्वरजी की प्राप्ति में जन्म मरण सर्व गया । इत्यर्थ: ॥२३॥
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*= पीताम्बरी टीका =* 
जीवरूपी ही मानों एक बनिक है सो इस संसाररूप प्रदेश में नाना प्रकार के कर्म - फलन के भोगरूप बनिजी कौं आयौ कहिये मनुष्य देह धारण कियो । तिस प्रदेश में त्रिविध तापरूप तावरा(धूप) परै था ताके बल तैं भारी भैठ कहिये अतिशय तपने लग्यो ।  
साधन सहित जो ज्ञानरूप वस्तु है सो भली कहिये अत्युतम है । सो सद्गुरु और सत्शास्त्रनरूप अन्य व्यापारिन तैं लीनी अर्थात् ज्ञान पाया । इहां कुछ शब्द का अर्थ ऐसे हैं - उक्त सद्गुरु औ सत्—शास्त्रनरूप अन्य व्यापारीन तें जो ज्ञानरूप वस्तु लीजिये हैं सो तिन द्वारा तत्वमस्यादि महावाक्यजन्य उपदेश करि अनुभव मात्र करिये है, कछु और वस्तु की न्यांई इस वस्तु का ग्रहण नहीं है । काहेतें कि आकारवाले पदार्थ का सम्यकता तें स्थूल शरीर करि ग्रहण होवै है । औ निराकार पदार्थ का तो सूक्ष्म शरीर करि तिसके अनुभव मात्र का ग्रहण होवै है । तातें सो कछु कहिये थोडा कह्या है । तैसे ही कछु वस्तु दीनी, से वस्तु यह है - तन मन औ धनरूपी मानों द्रव्य है । तिस द्रव्यरूप कछु वस्तु दीनी, से वस्तु सद्गुरु और सत्—शास्त्ररूप व्यापारीन कूं दीनी, अर्थात् तन मन औ धन का अर्पन किया । इहां ‘कछु’ शब्द का ऊपर की न्यांई ही अर्थ है । काहेते कि वास्तव करि तन मन औ धन अर्पन नहीं होवै है किन्तु यह मिथ्या वस्तु होने तें ताके अर्पन का व्यवहार होवै है । ताते कछु कह्या है । 
उक्त वस्तु लेके ताकी षट् प्रमाणरूपी रस्सी करि खैंचि गठरिया बांधी । कहिये अबाधित अर्थ कूं विषय करने वाला जो स्मृति से भिन्न ज्ञान(प्रमा) है ताका निश्चय किया । मूल में जो ‘ऐंठि’ शब्द है ताका अर्थ यह है --- ऐंठि कहिये अच्छी तरह से विचार करिये प्रमाज्ञान का अंगीकार किया है । औ मूल में जो ‘गठरिया’ शब्द है सो बहुबाचक है तातें तिस वस्तु की अनेक गठरियां कही चाहिये से कहैं हैं - प्रमा के कारण जो षट् — प्रमाण हैं सोई मानौं षट् बन्धन है । तिनमें एक प्रमाण रूप बन्धन करि एक - एक गठरी बाँधी गई । काहै तैं - *चार्वाक* जो है सो एक प्रत्यक्ष प्रमा करि प्रमाण सिद्ध करै हैं । *कणाद* औ *सुगतमत* के अनुसारी प्रत्यक्ष औ अनुमान इन दो प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे हैं । सांख्य - शास्त्र का कर्त्ता *कपिल* प्रत्यक्ष, अनुमान औ शब्द इन तीन प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । न्यायशास्त्र का कर्त्ता जो *गौतम* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द औ उपमान इन चारि प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । पूर्व - मीमांस का एक देषी जो “भट्ट” का शिष्य *प्रभाकर* है सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान औ अर्थापत्ति इन पांच प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करै है । औ जो पूर्वमीमांसक जो भट्ट हैं सो प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति औ अनुपलब्धि इन षट् प्रमाण करि प्रमा सिद्ध करे है । तैसे पूर्व मीमांसक भट्ट की न्यांई जो षट् - प्रमाण की सिद्धता है । सो *वेदांत शास्त्र* में भी अंगीकार करी है । ऐसे एक एक प्रमाण करि जो प्रमा की सिद्धता है सोई मानों भिन्न गठरियां हैं । 
उक्त ज्ञानरूप वस्तु का जीवरूप व्यापारी ने मोक्षरूप लाभ होने के वास्ते उक्त रीति में सौदा किया । तब पुनि कहिये फेरि अपने पूर्वस्थान रूप घर कूं चल्यो अर्थात् सच्चिदानन्द लक्षणवाला जो ब्रह्म स्वरूप है ताका श्रवण, मनन और निदिध्यासन करने लाग्यो । औ वारि कहिये जो ब्रह्मानन्दरूप पानी है ताके तर कहिये निमग्नत्वरूप तले मैं बैठ के लेखा कियो । सो लेख है - श्रवण, मनन औ निदिध्यासन करि जब परमानन्दरूप मोक्ष होवै है, तब वह ज्ञानी विचार करै है कि पूर्वोक्त वस्तु का जो मैंने लेन देनकिया, सो न तो लेन है न कुछ देन है । मैं जो तनमन, धनरूप वस्तु दीनी तामें कछु वस्तुता नहीं है । तैसै ही जो ज्ञानरूप वस्तु लीनी सो मेरे से कुछ अन्य नहीं थी । ताने विचार किये ते न कुछ दिया है न कछु लिया है । 
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि साह जो पूर्वोक्त जीवरूप बनिया है सो अति खुसी कहिये निरतिशय आनन्दवान हवा । काहे तें कि देहादिक भार उठाने वाला जो अहंकारमय बैल तह सो आत्मधनरूप पूंजी में पैठ गया । अर्थात् शरीरत्रय(स्थूल, सूक्ष्म और कारण) के अभिमानरूप अनर्थ की निवृत्ति भई ॥२३॥ सुन्दरदासजी ने इस पर कोई साखी नहीं कही ।
(क्रमशः)

सोमवार, 4 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२२)

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https://www.facebook.com/DADUVANI 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बैल उलटि नाइक कौं लाद्यो,*
*बस्तु मांहिं भरि गौंनि अपार ।* 
*भली भांति कौ सौदा कियौ,*
*आइ दिसंतर या संसार ॥*
*नाइकनी पुनि हरखत डोलै,*
*मोहि मिल्यौ नीकौ भरतार ।* 
*पूंजी जाइ साह कौं सौंपी,*
*सुंदर सिरतैं उतर्या भार ॥२२॥* 
.
*= ह० लि० १,२ टीका =* 
बैल भारवाहक जो अज्ञान - अवस्था में अहंकर्तृत्वपणां को अभिमानी सर्वकर्मन को अधिकारी बणि रह्यो - सो जीव । तानैं नायक नाम जो अज्ञान - अवस्था में मुखिया बणि रह्यो जो मन ताकों लाद्यो नाम विवेक कों पायकरि कर्तृत्वादिक का सर्वभार मनहीं के उपरि नाख्यो । ‘मन उन्मेष जगत भयो बिन उन्मेष नसाइ’ इति । ऐसा निरभिमानी शुद्ध जीव तानैं बस्तु नाम परमेश्वर में भाव धारण कियो ता भावरूपी बस्तु में अपार गुण हैं शमदम संपत्ति ज्ञान वाही सों सर्व सिद्धि होवै है ।
. संसाररूपी दिशंतर देश नाम मनुष्य जन्म ताकें पायकरि भली भांति का सौदा नाम परमेश्वरजी में भावभक्ति धारणारूप अति श्रेष्ठ सौदा कियो ।
नायकनी मनसारूप अंतःकरण की वृत्ति सो हर्षायमान हुई शुभकार्यों में वर्तै है । मो कों निको नाम अतिश्रेष्ठ शुद्ध जो मन भर्त्तार मिल्यो नाम(मैंने) पायो ।
पूंजी नाम सर्व सोंज तन मन प्राण सो साह परमेश्वरजी ताकों सौंपी समर्पण करी । तब सर्वभाव जन्म मरण कर्मफल सुख दुःख शोक चिन्ता सर्व दूरि हुंवा सुखी भया, यों भार उतर्यौ ॥२२॥
*= पीताम्बरी टीका =* 
साभास अंतःकरण-विशिष्ट चेतनरूप जो जीव है सोई मानों बैल(बलीवर्द) है । काहेतें कि कर्तृव्य,भोक्तृत्व, राग, द्वेष इत्यादिक जो अंतःकरण के धर्म्म है तैसे ही प्राण, इन्द्रिय औ देह के जो धर्म्म हैं तिसरूप भार कूं अज्ञानकाल में उठाता था । यातें ताकूं बैल कह्या । तिसने उलटि के कहिये बिचारद्वारा निजस्वरूप कूं जानिके पूर्व अविवेक काल में तादात्म्य-अभ्यास करि जीव कू अपने वश करिके वर्तावनेहारा जो स्थूल सूक्ष्म संघात है सोई मानों नायक है । ताकूं लाद्यो कहिये अज्ञानकाल में अभ्यास करि अंतःकरण, प्राण औ इन्द्रियन के धर्म जो जीवने अपने मान लिये थे सो अज्ञानकाल में यथायोग्य संघात के जानि लिये । 
सर्व का अधिष्ठान जो ब्रह्म है सोई मानो वास्तु है, ता मांहि अपार(अगणित) गूण, भरि, कहिये अपने-अपने जाति, सम्बन्ध औ क्रिया आदिक धर्मरूप जो पदार्थ हैं सो जिनमें भरे हैं, औ जो अहंकारादि अनात्मरूप कपड़े की बनी है । सोई मानो थैलिया हैं, सो पूर्वोक्त ब्रह्मरूप वस्तु में साक्षी में स्वप्न के पदार्थ अध्यस्त हैं तैसे अध्यस्त जानै । या संसार ही मानो दिसंतर है । काहेतें कि यह जो संसाररूप देश है सो ब्रह्मरूप देश से भिन्न है तातें देशांतर कह्या है । यामें आयके भलीभांति कौ सौदा कियौ । सो सौदा यह है- जब ज्ञान की प्राप्ति होवै है तब सर्व अनर्थ की निवृत्ति औ परमानंद की प्राप्ति होवै है याकूं ही मुक्ति वा मोक्ष कहै हैं, सोई मानों एक व्यापार है । तिसके निमित्त तें सर्व अनात्मरूप धन का त्याग किया औ परमानंदरूप माल अपना कर लिया । 
दृढ निश्चय स्वरूप जो बुद्धि है सोई मानों नायकनी है सो पुनि हरषत डोलै कहिये फिरि आनन्द कूं प्राप्त भई, औ मुख से कहने लगी कि मोहिनी को(श्रेष्ठ) भरतार(पति) मिल्यो । इहां वेदांत-सिद्धान्तरूप पति कह्यो है सो निश्चय स्वरूप बुद्धि कूं प्राप्त भयो । मूल में जो पुनि शब्द है ताका अर्थ यह है- निश्चयस्वरूप बुद्धिरूप जो नायकनी है सो प्रथम जब द्वैत-सिद्धान्त के आधीन भई थी तब तिसी पतिकरि आनंदित होइ रही थी । ताकूं जब(अब) अद्वैत-सिद्धान्त रूप पति की प्राप्ति भई सब पूर्व पति का त्याग करिके फिरि आनन्दवान भई । 
तिस अद्वैत-सिद्धान्त-रूप साह(सांई = पति) कूं, तिसके पास जाइके अनंतवासना-रूप पूंजी सौंप दीनी । जातें जाका जीवन होवै सो ताकी पूंजी कहिये है । अनंत कर्मन की वासना बिना बुद्धि की स्थिति होवै नहीं तातें सो बुद्धि की पूंजी कहिये जीवन है सोही अद्वैत-सिद्धान्त-रूप ज्ञान की प्राप्ति भये तें बुद्धि सर्व वासना का त्याग करै है । काहेते । कि ज्ञान करि सर्व कर्मन का नाश होवै है । कर्मन का नाश भये ते तज्जन्य वासना का भी नाश होवै है । सोई मानों सोंपना है । पति कूं अपनी पूंजी देने का कारण दिखावै हैं - जौंलौं बुद्धि में अनन्त वासना भरी थी तौंलौं सो अपने चिदाभासरूप पर बड़ो बोझो थो । सो भार सिरतैं उतर्या । कहिये चिदाभासरूप जिव कूं अपने स्वरूप के ज्ञानद्वारा सर्व वासना तें मुक्त कियो । *ऐसे सुन्दरदासजी कहैं है* ॥२२॥
*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
नाइक लाद्यौ उलटि करि, बैल बिचारै आइ । 
गौन भरी लै बस्तु मैं, सुन्दर हरिपुर जाइ ॥३५॥ 
(क्रमशः)

रविवार, 3 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२१)




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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*बिप्र रसोई करनै लागौ,*
*चौका भीतरी बैठौ आइ ।*
*लकरी महि चूल्हा दियौ,*
*रोटी ऊपर तवा चढाइ ॥* 
*षिचरी मंहिं हंडिया रांधी,*
*सालन आक धतूरा खाइ ।* 
*सुंदर जीमत अति सुख पायौ,*
* अबकै भोजन कियौ अघाइ ॥२१॥*
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*= ह० लि० १, २ टीका =* 
विप्र जो(वेदादि का ज्ञान प्राप्त) जीव सो परम शुद्ध हो सर्व कर्म काल को मारि अपने हित अपरस सों जब रसोई करनैं लागो नाम भाव - भक्ति करनैं को लाग्यो तब चोका जो शुद्ध निर्विकार किया अंतःकरण चतुष्टय तामें आइकै बैठ्यो नाम निश्चल हुवो । 
लकरी नाम लै तामें चूल्हा नाम चित्त दियौ नाम लगायो निश्चल कियो । रोटी जो रटणि ता ऊपर तामें तत्वज्ञान का तवा चढाया परमेश्वरजी सो रटणि लागि तब तत्वज्ञान प्राप्त हुवो । 
खिचरी जो भक्ति और ज्ञान की मिश्रता तामें हंडिया नाम काया सो रांधी नाम ता भक्ति - ज्ञान में लीनकरि शिद्ध करी । अरु ता खिचरी की साथी सालन नाम साग सो आक धूतरारूप, पचना जिनका अतिकठिन, जो काम - क्रोधादि सो सब खाया नाम सर्व जीतकरि निवृत्त किया । 
जीमत नाम इनको जीतितां अरु ज्ञानभक्ति की प्राप्ति होतां अति बड़ो सुख पायो नाम बहुत आनंद हुवो । अबकै या मनुष्यजन्म में आय अघाय नाम तृप्त होकरि भोजन किया नाम भक्तिज्ञान सों कार्य सिद्ध कियौ नाम भगवत् की प्राप्ति हुई ॥२१॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
जो शुद्ध अंतःकरण जिज्ञासु जीव है सोई मानौ विप्र(ब्राह्मण) है । सो मोक्ष - सम्पादनरूप रसोई करने लाग्यो । तब विवेकादी चारि साधनरूप चोका के भीतर आके बैठो । कहिये साधन - सम्पन्न भयो ।
नाना प्रकार के जो अनेक कर्म हैं सोई मानौ अनेक लकरिआं हैं । ता माहिं ब्रह्मोपदेशरूपी चूल्हा दियो । तिसने ज्ञानरूप अग्नि करि कर्मरूप लकरियां जलाय डाली । तब प्रारब्ध फल की भोग्यतारूप रोटी के ऊपर कर्मवशात् होने के निश्चयरूप तवा कूं चढाई दियो । अर्थात् जब ब्रह्मोपदेशजन्य ज्ञानतैं सब कर्मन का नाश होवै है तब तिस ज्ञानी का ऐसा निश्चय होवै है - “मैं अकर्त्ता हूँ अभोक्ता हूँ । जो शेष प्रारब्ध कर्म रहे हैं सो जौलौं भोगं का आयतन शरीर है तौलौं यथावत् भोग देहूं । ताकी  चिन्ता मेरे कूं कर्त्तव्य नहीं ।” 
वैराग्यरूप जल, बोधरूप चांवल और उपशमरूप मूंग - इन तीनूं की मीश्रतारूप खिचरी है । ता मांहि हंडिया कहिये भोगन विषे दीनता, सत्यता की भ्रांति औ प्रतीति आदि धर्मयुक्त समष्टि, व्यष्टि, स्थूल, सूक्ष्म प्रपंचरूप जो माया है सो रांधी कहिये बाधित करी । और अनेक रागद्वेषादि दुर्वासनारूप जो महा उग्र कटुक - आक औ धतूरा हैं टिमका सालन(शाक) बनाइ के खाइ कहिये जीति के ।
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि कार्य - सहित अज्ञान कि निवृतितरूप रसोई, वासना की निवृत्तिरूप शाक सहित जीमत कहिये अनुभव करिकै अति सुख पायो कहिये परमानन्द की प्राप्ति भई । ओ अबके कहिये इस मनुष्य - शरीर में ही ईश्वर, श्रुति, गुरु औ स्व - अंतःकरण इन सर्व की कृपा से ज्ञान पाइके अघाइ कहिये संसार के भोगन की तृष्णा करि रहिततारूप तृप्ति कूं पायके जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनंद का जो अनुभव है तद्रूप भोजन कियो । 
याका भाव यह है - पूर्व अज्ञानकाल में अनेक देह प्राप्त हुवे थे तिनमें विषयानंद का अनुभव तो बहुत किया है परन्तु स्वरूपानन्द का अनुभव कदै भी हुवा नहीं है । काहे तैं कि तिस काल में मूला अज्ञानरूप प्रतिबन्ध था । औ पश्चात् विदेह - मोक्ष में भी सर्वदुःखन की निवृत्ति पूरक निरावण, परिपूर्ण आनंदस्वरूप करि अवस्थित होवै है । परन्तु अस्तिव्यवहार की हेतु जो वृत्ति है ताका अभाव होने तैं जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्द का अनुभव नहीं होवै है । यातें ज्ञानयुक्त देह में ही जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्दरूप विद्यानन्द का अनुभव होने कूं शक्य है । तातें सुखेच्छु विद्वान् करि विषयानंद कूं त्यागि के ब्रह्म - बिचार द्वारा पूर्वोक्त आनन्द का अनुभव अवश्य कर्तव्य है । यद्यपि सुषप्त्यादि में भीई आनन्द तो है । तथापि सो निरावरण, परिपूर्ण औ सर्वत्तिक नहीं है, तातैं बिलक्षण सुख का हेतु नहीं है । 
जो निरावरण, परिपूर्ण औ स वृत्तिक होवै सो *विलक्षणआनन्द* कहिये है । इस लक्षण की यह पदकृति१ है{१. पदकृति - पदकृत्य(पद का अर्थ)} - सुषुप्ति में जो आनन्द है सो आवरण रहित है । औ विषय में जो आनन्द है सो निरावरण तो है तथापि विषय की प्राप्तिक्षण में जब अंतरमुख वृत्ति होवै है तब तामें स्वरूपानन्द का प्रतिबिंब पड़ै है यातें परिपूर्ण नहीं किन्तु एक देश वृत्ति होने तें परिच्छन्न है । तैसे ही पूर्णानंद तो अज्ञानी का स्वरूप भी है, तथापि सो निरावरण औ अभिमुख वृत्ति सहित नहीं । औ जो विदेहमुक्ति में निरावरण पूर्णानंद है सो वृत्तिक नहीं अवृत्तिक है । यातें निरावरण, परिपूर्ण औ सवृत्तिक आनन्दरूप *विलक्षणानन्द* का लक्षण किये से कहूं भी अतिव्याप्ति आदि दोष नहीं है ॥२१॥ 
*सुन्दरदासजी की साषी -* 
“विप्र रसोई करत है, चौके काढी कार । 
लकरी में चूल्हा दियौ, सुन्दर लगी न बार” ॥३१॥ 
(क्रमशः)

शनिवार, 2 जनवरी 2016

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=२०)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*घर घर फिरै कुमारी कन्या,*
*जनें जनें सौं करती संग ।* 
*वेस्या सु तौ भई पतिबरता,*
*एक पुरुष कै लागी अंग ॥*
*कलियुग माँहें सतयुग थाप्या,*
*पापी उदौ धर्म कौ भंग ।* 
*सुन्दर कहै सु अर्थ हि पावै,*
*जौ नीकै करि तजै अनंग ॥२०॥* 
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*= ह० लि० १,२ टीका =* 
कंवारी कन्या नाम(सतगुरु के) दृढ़ उपदेश बिना जिज्ञासी की कच्ची जो बुद्धि सो घर घर फिरै नाम अनेक संत शास्त्रां की सभा संगति तामें जणें जणें सों नाम अनेक मतमतांतरा सों लागती फिरै । 
वेस्या नाम पदार्थों में बिचरिति फिरै ऐसी जो व्यभिचारिणी बुद्धि तानैं पति जो आपको प्रेरक पालक स्वामी ऐसा जो परमेश्वरजी ताको व्रत धारण कर्यो नाम वृत्तिनिवारि निश्चल होय एक पुरुष परमात्मा सों ही लागी । 
कलियुग नाम मलीन कर्मों में लीन ऐसी जो काया  तानें सतयुगरूप ज्ञान - ध्यान - सत्यधर्म थाप्यो नाम थिर कियो । तामें पापी नाम इन्द्रियों को मारने वाला इन्द्रियजीत ताका उदै नाम वह सदा सुखी रहै । अरु धर्म नाम(साधारण) इन्द्रियों को पोषण ताको भंग नाम नाश(सो उसके हुए) सदा सुखी रहै । 
*सुन्दरदासजी कहैं है -* या का अर्थ कों सो पावै जो नीकै नाम मनसा वाचा कर्मणा भले प्रकार करि अनंग नाम काम कों तजै नाम त्यागै ॥२०॥

*= पीताम्बरी टीका =* 
आत्मजिज्ञासा वाली जो बुद्धि है सोई मानो कुमारी कन्या(कुमारिका) है । सो अनेक सत्पुरुषों अथवा ज्ञान के अष्टसाधनरूप अनेक जने जने सूं संग कहिये प्रीति करती घर घर फिरै है कहिये अनेक शास्त्रन में अथवा तीन शरीरन में तीन अवस्थाओं में और पंचकोशन में बिचार करने कूं प्रवर्ते है । 
जो ब्रह्माकार बुद्धि की वृत्ति है सोई मानौ वेस्या है । जैसे वेस्या व्यभिचारिनी होवै है यातैं एक पुरुष के आश्रय होवै नहीं । तैसे वृत्ति भी अस्थिर होवै हैं । तातैं एक विषय के आकार रहै नहीं । ऐसे  अज्ञानकाल में यद्यपि वृत्ति का चांचल्य देखिये है । तथापि ज्ञान हुये पीछे सो वृत्ति एकाग्र होवै है । जैसे वेस्या कूं भी किसी एक पुरुष के ऊपर प्यार होइ जावै तो और सब पुरुषन का आश्रय छोडिकै तिसी के साथ लगी रहै है । तैसे वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब विषयन में प्रवृत्त नहीं होवै किन्तु एक स्वरूप में ही स्थित होवै है । ऐसे वेस्या का औ वृत्ति का सादृश्य होने तैं वृत्ति कूं वेश्या कही है । फिर जैसे वेस्या किसी एक पुरुष के वश होवै है तब ताका पातिब्रत भी सिद्ध होवे है । तैसे ही वृत्ति भी जब ब्रह्माकार होवै है तब ताकी एकाग्रता भी सिद्ध होवै है । इस हेतु तें ही मूल में सो तो पातीबरता भई ओ एक पुरुष के अंग लागी - ऐसा कह्या है । 
रजोगुण औ तमोगुण की वृत्तिरूप मलिनधर्मवाला जो मन है सोई मानौं कलियुग है । काहेतें कि कलयुग में मलीनता की वृद्धि होवै है । तैसे ही मलीनता - युक्त मन होने तैं कलियुग का औ मन का सादृश कह्या है । ता मांही विवेक, वैराग्य, क्षमा, धैर्य उदारता आदि वृत्तिरूप श्रेष्ठधर्म - रूप ही मानौ सतयुग थाप्यो । काहेतें कि सतयुग में श्रेष्ठ धर्मन की वृद्धि होवै है तातें श्रेष्ठ धर्म - रूप ही सतयुग कह्या है । तामें पापी का उदय होवै है । कहे तै कि जो नाश करने वाला होवै है सो पापी कहिये है । सर्व अविद्या का औ ताके कार्य का नाश करने वाला ज्ञान है तातें ताकूं ही पापी कहै हैं । ता ज्ञानरूप पापी की पूर्वोक्त श्रेष्ठधर्मरूप सतयुग में बुद्धि होवै है । औ धर्म को भंग होवै है काहेतें कि जाते रक्षा होवै सो धर्म कहिये है । अविद्या औ ताका रक्षक अविवेक है । ताका तिस सतयुग में नाश होवे है । 
*सुन्दरदासजी कहते हैं* कि जो पुरुष नीके करि(अच्छी तरह से) अनंग(कामदेव) कूं भजै(नोट - पीताम्बरजी ने *तजै* की जगह *भजै* ऐसा पाठ विपर्यय के चमत्कार बढ़ाने को किया) सो याका अर्थ पावै । याका भाव यह है - जाका अंग नहीं ताकूं अनंग कहै है । ऐसे कामदेव की न्याई निरवयव जो ब्रह्म है ताकूं भजै कहिये जो निर्गुण उपासना करै सो अच्छी तरह से मोक्षरूप अर्थ कूं पावै ॥२०॥    
*= सुन्दरदासजी की साषी =* 
सुन्दर सबही सौं मिली, कन्या अषन कुमारि । 
वेस्या फिरि पतिब्रत लियौ, भई सुहागिन नारि ॥२९॥ 
कलियुग में सतजुग कियौ, सुंदर उलटी गंग ।
पापी भये सु ऊबरे, धर्मी हूये भंग ॥३०॥
(क्रमशः)