फेसबुक संकलन(१) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
फेसबुक संकलन(१) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 22 फ़रवरी 2014

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
गुरु ज्ञान ~ 
दादू नैन न देखे नैन को, अन्तर भी कुछ नाहिं । 
सतगुरु दर्पण कर दिया, अरस परस मिलि माहिं ॥ 
घट घट रात रतन है, दादू लखै न कोइ । 
सतगुरु सब्दौं पाइये, सहजैं ही गम होइ ॥ 
जब ही कर दीपक दिया, तब सब सूझन लाग । 
यों दादू गुरु ज्ञान थैं, राम कहत जन जाग ॥ 
----------------------------------- 
Save for the Compassionate Grace of Sants, O Mehi, to Know That Pathway… 

An English translation of a verse (verse No. 117) composed by Maharshi Mehi Paramhans Ji Maharaj taken from his book "Mehi Padavali" (Elixir Verses of Maharshi Mehi). 
- Translated by Pravesh K. Singh 

The Translated Verse: 
The Primordial Guru (God) lives in the innermost layer, 
but the mind remains clueless. | 
Seen is He though not (to eyes of flesh); 
in the mid of both eyes His light shines. ||1|| 
He sits ever beside us, ever within us, but is not manifest. | 
Why should He take so long to show up, seekers get restless? ||2|| 
Looking for Him too many are there, loitering hither & thither. | 
Unless the road is known to the innermost layer, none gets to Him ever. ||3|| 
Save for the compassionate grace of sants, O Mehi, to know this pathway…| 
Has never happened, nor will ever happen, isn’t happening anyway. ||4||

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू वाणी ब्रह्म की, अनभै घट प्रकाश । 
राम अकेला रह गया, शब्द निरंजन पास ॥ 
शब्दों माहिं राम धन, जे कोई लेइ विचार ।
दादू इस संसार में, कबहुं न आवे हार ॥ 
दादू राम रसायन भर धर्या, साधुन शब्द मंझार ।
कोई पारखि पीवै प्रीति सौं, समझै शब्द विचार ॥ 
शब्द सरोवर सुभर भर्या, हरि जल निर्मल नीर ।
दादू पीवै प्रीति सौं, तिन के अखिल शरीर ॥
शब्दों मांहिं राम-रस, साधों भर दीया । 
आदि अंत सब संत मिलि, यों दादू पीया ॥ 
----------------------------------- 
James Bean ~ Music in the Heavens 
(Reported by Western Mystics) 

His Sweet Voice Calling Out To Us 
"God so wishes us to return to Him that He keeps calling to us again and again to approach Him. It is due to His sweet holy Voice that our soul is lost in ecstasy and surrenders totally to His will". (Saint Teresa of Avila) 

Listen! Can You Hear It? 
"Open your ears, and I shall speak to you. Give Me yourself, so that I may also give you Myself." (The Book of the Odes, 9: 1-2) 

Angelic Music That Astonishes All Who Hear It 
"....with sweet voice, with sweet and incessant voice and various singing, which it is impossible to describe, and which astonishes every mind, so wonderful and marvellous is the singing of those angels, and I was delighted listening to it". (Book of Second Enoch) 

The Song of the Angels
"I think that no soul may truly feel the angel's song or heavenly Sound, unless it is in perfect love, though not all that are in perfect love have felt it, but only the soul that is so purified in the fire of love that all earthly savor is burned out of it, and all obstacles between the soul and the cleanness of angels are broken and put away from it. Then truly may he sing a new song, and truly may he hear a blessed heavenly Sound, and angel's song, without deceit or feigning. Our Lord knows the soul that, for abundance of burning love, is worthy to hear angel's song." (Walter Hilton, The Song of Angels) 

Hearing the Spirit
"I heard a noise like wind blowing in my ears and knew it for the Sound of the Holy Spirit which became like the voice of a dove. 

"When the Lord spoke to me I lost all sense of time. I did not know if he was with me five or six hours or only one. It was so holy and full of grace that I felt as if I had been in heaven." (Margery Kempe, The Mirror of Love)

= १९८ =


卐 सत्यराम सा 卐 
साभार : Path of Saints(Sant Marg) 
घर में जो मानुष मरे, बाहर देत जलाए, 
आते हैं फिर घर में, औघट घाट नहाय, 
औघट घाट नहाय, बाहर से मुर्दा लावें,
नून मिर्च घी डाल, उसे घर माहिं पकावें, 
कहे कबीरदास उसे फिर भोग लगावें, 
घर - घर करें बखान, पेट को कबर बनावें | 
संत कबीर जी कहते हैं कि घर में जो परिजन मर जाता है, उसे तो लोग तुरन्त शमशान ले जाकर फूँक आते हैं | फिर वापिस आकर खूब अच्छी तरह से मल - मल कर नहाते हैं | मगर विडम्बना देखो, नहाने के थोड़ी देर बाद, बाहर से (किसी मरे जानवर का) मुर्दा उठाकर घर में ले आते हैं | खूब नमक, मिर्च और घी डालकर उसे पकाते हैं | तड़का लगाते हैं और फिर उसका भोग लगाते हैं | बात इतने पर भी खत्म नहीं होती | आस - पड़ोस में, रिश्तेदार या मित्रों के बीच उस मुर्दे के स्वाद का गा - गाकर बखान भी करते हैं | मगर ये मूर्ख नहीं जानते, जाने - अनजाने ये अपने पेट को ही कब्र बना बैठे हैं ! 
-------------------------------
दादू मांस अहारी जे नरा, ते नर सिंह सियाल | 
बक १, मंजार २, सुनहाँ ३, सही, एता प्रत्यक्ष काल ||६|| 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह हम सत्य कहते हैं कि जो प्राणी मांस आहार करने वाले हैं, वे इस मनुष्य शरीर में ही सिंह, श्याल, बगुला १, मार्जार २( बिलाव), कुत्ता ३, रूप हैं और ऐसा समझो कि मानो काल ही जीवों का नाश करने के लिये यह शरीर धर कर प्रकट हो रहा है ||६|| 
जैसे आतम आपनी, कांटा तैं कसकात | 
‘जगन’ जीव में जोइये, ना कर काहू घात || 
दादू मुई मार मानुष घणे, ते प्रत्यक्ष जम काल | 
महर दया नहीं सिंह दिल, कूकर काग सियाल ||७|| 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मरे हुए तुल्य गरीब जीवों को, (बकरा, मुर्गे आदि) मारने वाले मनुष्य बहुत हैं, परन्तु वे नररूप में ही सिंह, श्याल (गीदड़) रूप हैं क्योंकि उनके दिल में ‘मिहिर’ कहिए रक्षा करना, दया नहीं है | जैसे ~ कुत्ते, काग, गीदड़, इनके दया नहीं है, वैसे ही वे जीव हिंसक हैं | दोनों में समानता ही है ||७|| 
(साँच का अंग ~ श्री दादूवाणी )

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

= १९७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ । 
जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥ 
आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग । 
दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥ 
बार बार यह तन नहीं, नर नारायण देह । 
दादू बहुरि न पाइये, जन्म अमोलिक येह ॥ 
------------------------------------ 
साभार : Jaydayalji Goyandka - Sethji 
भर्तहरी जी ने भी कहा है की ‘जब तक यह शरीररुपी घर स्वस्थ्य है, वृद्धावस्था दूर है, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं हुई है और आयु का भी (विशेष) क्षय नहीं हुआ है, तभी तक विद्धवान पुरुष को अपने कल्याण के लिए महान प्रयत्न कर लेना चाहिये, नहीं तो घर में आग लग जाने पर कुआँ खोदने का प्रयत्न करने से क्या होगा ? (३|७५) 
अतएव-
काल भजन्ता आज भज, आज भजन्ता अब | 
पल में प्रलय होएगी, बहुरि भेजगा कब || 
हमारे लिए यही परम कर्तव्य है, जिसका सम्पादन आज तक कभी नहीं किया गया | यदि इस कर्तव्य का पालन पूर्व में किया जाता तो आज हम लोगों की यह दशा नहीं होती | दुनिया में ऐसी कोई भी योनी नहीं जो हम लोगो को न मिली हों | चींटी से लेकर देवराज इंद्र की योनी तक को हम लोग भोग चुके है; किन्तु साधन न होने के कारण हमलोग भटक रहे है और जब तक तत्पर होकर कल्याण के लिए साधन नहीं करेंगे तब तक भटकते ही रहेंगे | 
चेतावनी और सामयिक चेतावनी पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
एकै अक्षर पीव का, सोई सत्य करि जाण । 
राम नाम सतगुरु कह्या, दादू सो परवाण ॥ 
पहली श्रवण द्वितीय रसना, तृतीय हिरदै गाइ । 
चतुर्दशी चेतन भया, तब रोम रोम ल्यौ लाइ ॥ 
दादू नीका नांव है, तीन लोक तत सार । 
रात दिवस रटबो करो, रे मन इहै विचार ॥ 
दादू नीका नांव है, हरि हिरदै न बिसारि ।
मूरति मन मांहैं बसै, सांसैं सांस संभारि ॥ 
सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ । 
सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥ 
-------------------------------------- 
साभार : Bhakti Samvaad - भक्ति संवाद - Devotional Discussion 
संकट और विपत्ति सबके जीवन में आती हैं.. पर मुझे नामानुरागी भक्तों से कुछ कहना है... मेरी बात क्या, बाबा तुलसी की बात है जिसे जैसा सुमीत ने समझा वो आपके सामने रख रहा है... 
नामानुरागी भक्तों आप दो काम करो- एक की जीभ से ‘राम’ नाम जपो (राम नाम जपु राम नाम रटु राम नाम रमु जिहा) और मन से ‘हठ-योगी’ बन जाओ (राम नाम नव नेह मेह को मन हठी होहि पपीहा).. हठ करलो कि कुछ भी हो ‘राम’ नाम नहीं छोड़ना है और ‘राम’ नाम को ही एकमात्र साधन मानो जैसे पपीहा नदी, तालाब, सागर आदि सभी का पानी छोड़ स्वाति नक्षत्र में गिरने वाली बूंद की ही आशा करता है 
(सब साधन फल कूप सरित सर सागर सलिल निरासा, 
राम नाम रति स्वाति सुधा सुभ सीकर प्रेम पियासा ).. 
एक बात यहाँ देखो कि मन ‘का’ लगना नहीं है मन ‘को’ लगाना है... जीभ से नाम जपना है और मन को हठ करके लगाना है.. अब जो उस पपीहे के साथ होता है वो आपके साथ भी हो सकता है.. स्वाति नक्षत्र की बूंद मिलने से पहले खूब तूफ़ान आता है, बादल भयंकर गर्जना करते हैं, आकाश से ओले गिरते हैं (गरजि तरजि पाषण बरसि पवि).. ऐसे ही विपत्ति आती है और वो भी भयानक रूप में.. मगर हमें करना वो है जो पपीहा करता है ( अधिक अधिक अनुराग उमंग उर पर परमित पहिचाने ).. पपीहा इन सबसे बहुत खुश होता है कि अब वर्षा होने वाली है, अब पिया से मिलन होने वाला है, ये सब उसी की तो निशानी है.. ऐसे ही आप भी खुश हो जाओ कि नाम सिद्ध होने वाला है.. ये बिलकुल पक्की बात है.. 
अगर घोर विपदा है तो जबरदस्ती नाम जपो.. मन नहीं लग रहा है न लगे.. मन को लगाने से मतलब है कि जीभ से नाम नहीं छूटे.. मन नहीं लग रहा फिर भी नाम जपते रहो.. जो नाम जपता है वो बड़भागी है.. है है है.. दुर्भाग्य उसका हो नहीं सकता.. ‘राम नाम गति राम नाम मति राम नाम अनुरागी, ह्वै गए हैं जे होवेंगे त्रिभुवन गनियत बड़भागी’.. इसलिए अगर अपना हित चाहते हो तो अब आराम करना छोड़ दो और ‘नित नेम’ को निरन्तर कर दो.. नित-नेम मतलब रोज़ का नियम कि अमुक संख्या में रोज़ नाम जप करना है.. रोज़ को हर क्षण में बदल दो.. बिना समय गवाए हर क्षण नाम जाप करो (तुलसी हित अपनो अपनी दिसि निरुपधि नेम निबाहें)... 
~ डॉ. सुमीत

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

= १९५ =


卐 सत्यराम सा 卐
समदृष्टी शीतल सदा, अदभुत जाकी चाल । 
ऐसा सतगुरु कीजिये, पल में करे निहाल ॥ 
तौ करै निहालं, अद्भुत चालं, 
भया निरालं तजि जालं । 
सो पिवै पियालं, अधिक रसालं, 
ऐसा हालं यह ख्यालं ॥ 
पुनि बृद्ध न बालं, कर्म न कालं, 
भागै सालं चतुराशी । 
दादू गुरु आया, शब्द सुनाया, 
ब्रह्म बताया अविनाशी ॥ 
----------------------------- 
A SINGLE MOMENT is enough ! 

It is not a question of being with a master for a long time; TIME DOES NOT ENTER INTO IT. It is not a question of quantity, of how long you have lived with the master. 

THE QUESTION IS HOW DEEP YOU HAVE LOVED THE MASTER, not how long you lived with the master -- how intensely, passionately you have become involved with the master... Not the length of time, but the depth of your feeling. 

Then a single moment of awareness, of heart wakefulness, a single moment of silence... and the transmission, THE TRANSMISSION BEYOND ALL SCRIPTURES... 
OSHO

= १९४ =

卐 सत्यराम सा 卐
कामधेनु घट घीव है, दिन दिन दुर्बल होइ ।
गौरू ज्ञान न ऊपजै, मथि नहिं खाया सोइ ॥ 
साचा समर्थ गुरु मिल्या, तिन तत्त दिया बताइ । 
दादू मोटा महाबली, घट घृत मथि कर खाइ ॥ 
मथि करि दीपक कीजिये, सब घट भया प्रकाश । 
दादू दीवा हाथि करि, गया निरंजन पास ॥ 
....................................... 
Language is a very small phenomenon, limited to humanity. The stars don’t speak nor the flowers, but they still express, they transmit their very being without any language. Zen is just a wildflower, spreading its fragrance to whomsoever it may concern. Those who have the sensitivity will understand it. 

Nothing is being said and everything is understood. Just drown yourself into thisness, the tremendous silence of the moment, and you will feel freedom from the mind. And that is the only freedom, the first and the last freedom, freedom from the mind. 

It is your own mind that is covering your being like a cage. Once the mind is left behind and you are just a watcher, far away... suddenly the doors of all the mysteries open. 

Zen does not talk about God, it gives you God; it does not talk about paradise, it pushes you into paradise...

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

= १९३ =


卐 सत्यराम सा 卐
साभार : Kripa Shankar B ~ 
.
सत्य का आलोक, असत्य और अन्धकार के बादलोँ से ढका ही दिखता है, नष्ट नहीँ होता| भगवान भुवन भास्कर जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में कहीं भी तिमिर का अवशेष नहीं रहता| 
.
अब समय आ गया है| असत्य, अन्धकार और अज्ञान की शक्तियों का पराभव सुनिश्चित है| अपने अंतर में उस ज्योतिर्मय ब्रह्म को आलोकित करो| सत्य विचार अमर है । सनातन वैदिक धर्म अमर है |
.
सत्यं वद(सत्य बोलो) ! 
धर्मं चर(धर्म मेँ विचरण करो) ! 
स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं ।
वेदाध्ययन और उसके प्रवचन प्रसार मेँ प्रमाद मत करो| !
.
तद्विष्णोः परमं पदम् । 
सदा पश्यन्ति सूरयः|| 
उस विष्णु के परम पद का दर्शन सदैव सूरवीर ही करते हैँ । 
.
नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः || 
बलहीन को कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती| 
.
अश्माभव:परशुर्भवःहिरण्यमस्तृतांभवः|
उस चट्टान की तरह बनो जो समुद्र की प्रचंड लहरों के आघात से भी विचलित नहीं होती| उस परशु की तरह बनो जिस पर कोई गिरे वह भी नष्ट हो, और जिस पर भी गिरे वह भी नष्ट हो जाए| तुम्हारे में हिरण्य यानि स्वर्ण की सी पवित्रता हो| 
.
ॐ|ॐ|ॐ|| 
---------------------------- 
शूर सती साधु निर्णय 
साचा सिर सौं खेलहै, यह साधुजन का काम । 
दादू मरणा आसँघै, सोई कहैगा राम ॥२॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे शूरवीर संत, आपा रूप अनात्म अहं भाव को त्यागकर, अन्तःकरण की वृत्ति को ब्रह्माकार बनाना ही साधक का काम है । इस प्रकार जो पुरुष जीवत - मृतक अवस्था को अंगीकार करे, वही जन राम का स्मरण करता है ॥२॥ 
सांई सींत न पाइये, बातों मिलै न कोइ । 
रज्जब सौदा राम से, सिर बिन कदे न होइ ॥
राम कहैं ते मर कहैं, जीवित कह्या न जाइ । 
दादू ऐसैं राम कहि, सती शूर सम भाइ ॥३॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वही राम का स्मरण करते हैं, जो जीते जी, आपा अभिमान से रहित हो गये हैं । जो आपा अभिमान में जीवित हैं, उनसे राम का स्मरण नहीं किया जाता । इस प्रकार राम का स्मरण करे कि जैसे सती मृतक पति के साथ अपने शरीर को हवन कर देती है और जिस प्रकार शूरवीर अपने मालिक के लिये, या देश के लिये, अपना सिर देने को भी उद्यत रहता है । ऐसे ही राम का सेवक, सर्वस्व राम के समर्पण करके राम का स्मरण करता है ॥३॥ 
(श्री दादूवाणी ~ शूरातन का अंग)

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐
सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।
दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥१२॥ 
टीका ~ दयामूर्ति सतगुरु, दृढ़ मति (निश्चल बुद्धि) जिज्ञासु को विषयों की दासता रूप पशुता से बचाकर मनुष्य बनाते हैं और स्त्री, पुत्र, पौत्र आदि की कामना वाले मनुष्यों को ज्ञान उपदेश द्वारा सिद्ध बनाते हैं अर्थात् राम-नाम में एकाग्र बुद्धि करते हैं। तत्पश्चात् चमत्कार अहंकार की सिद्धाई से देव अर्थात् सगुण व निर्गुण ब्रह्म में एकाग्र करते हैं। जिससे वह असीम ऐश्वर्य अनुभव करने लगता है। किन्तु सिद्ध और देव पद भी मायिक ही हैं, अर्थात् मायावी हैं तो सतगुरु की अति सामर्थ्य क्या हुई ? इस शंका का समाधान करके कहते हैं कि "देव निरंजन होइ'' अर्थात् सर्व सामर्थ्यवान् सतगुरु जिज्ञासु को देव पद से उपदेश द्वारा निरंजन निराकार स्वरूप भी बना लेते हैं। अत: सतगुरु सर्वसमर्थ हैं ॥१२॥ 
सर्व सामर्थ्यवान सतगुरु पशु को भी कृपा करके राम - नाम उपदेश द्वारा मुक्त करते हैं, जैसे :- बनजारे के बैलों और गुठले के प्रदेश में गायों का उद्धार किया है और मनुष्यों को भी राम - नाम के उपदेश द्वारा संसार बन्धन से मुक्त किया है। जैसे :- रज्जब जी, बखना जी, सुन्दरदास जी आदि का प्रसंग है। सतगुरु ज्ञानोपदेश द्वारा सिद्धों को भी मुक्त करते हैं, जैसे आमेर में काबुल के घोड़ों को देखते हुए दो सिद्धों का प्रसंग है। 
दोई सिद्ध स्वामी पै आये, घोड़ा देख रु मन मुस्काये। 
स्वामी कहैं कहाँ चित्त दीन्हां, नीले कान सु आगे कीन्हा॥ 
द्रष्टान्त ~ दो सिद्ध उत्तराखंड से सुरति रूपी शरीर द्वारा, आमेर में दादू जी की गुफा में पहुँचे। दादू जी ध्यानावस्था में थे। वे दोनों सिद्ध सुरति से काबुल में दौड़ के घोड़े देखने लगे और यह विचार किया कि इस आनन्द को हम ही देखते हैं, दादू जी नहीं देख रहे हैं। तब दादू दयाल जी ने उन सिद्धों को उपदेश किया :- "मायिक पदार्थों में क्या दिल दिया ? और दिया भी तो ठीक से देखो। आगे कौन-सा घोड़ा है ?'' सिद्धों ने कहा- " दोनों बराबर हैं।'' दादू जी ने कहा- " नीले घोड़ें के कान आगे हैं।'' 
कृपालु सतगुरु राम-नाम के प्रभाव से सिद्धों को भी मुक्त करते हैं। जैसे करडाले में प्रेत का आख्यान आता है। मनुष्यों की चार श्रेणी मानी हैं - पामर, विषयी, जिज्ञासु और मुक्त। शास्त्रों में पहले पामर श्रेणी के मनुष्य को उपदेश का अधिकारी नहीं माना जाता है। तथापि श्री सतगुरु की अति कृपा से ज्ञानोपदेश द्वारा, तीनों श्रेणी के जिज्ञासुजों को मुक्त करते हैं, यही सतगुरु की अति सामर्थ्य है। 
भोज नृपति को देखि के, कन्या ढक्यो न सीस। 
नृप पूछी गुरु पै गयो, मनुष्य लक्षण बत्तीस॥ 
द्रष्टान्त ~ एक समय राजा भोज दौरा करके अपने नगर में वापिस लौट रहे थे। चार कन्याएँ कुए पर खड़ी थीं। राजा को देखकर तीन लड़कियों ने सिर ढक लिया। उनमें से एक ने नहीं ढका। बाकी तीन सहेलियों ने उसे भी सिर ढकने को कहा, क्योंकि राजा आ रहा है। उसने कहा - यह राजा नहीं, यह पशु है । राजा ने पूछा :- पुत्री, मैं पशु कैसे हूँ ? कन्या ने कहा मेरे गुरु बताएँगे, जो नाग पहाड़ पर रहते हैं। राजा वहाँ पर गया। गुफा के दरवाजे पर सिला लगी देखी। राजा ने आवाज लगाई - " दर्शन करने आया हूँ '' अन्दर से संत जी बोले :- " कौन हो ?'' " मैं राजा हूँ '' " फिर अन्दर आ जाओ।'' राजा ने कहा- '' सिला लगी है।'' संत जी बोले :- " तुम सत्य बोलो कौन हो ?'' फिर कहा " मैं राजा हूँ।'' संत जी बोले - " राजा तो एक राम हुआ है, उसके समान हो तो हाथ लगाओ, सिला स्वयं हट जाएगी।'' राजा ने हाथ लगाया परन्तु सिला नहीं हटी। संत जी ने कहा :- " सत्य बोलो।'' तब राजा बोला - " मैं क्षत्रिय हूँ।'' संत जी बोले :- " क्षत्रिय तो एक अर्जुन हुआ है। वैसा पराक्रम है तो हाथ लगाओ, सिला हट जायेगी।'' राजा बोला :- " सिला नहीं हटती।'' संत जी पुन: बोले :- " सत्य बोले, कौन हो ?'' राजा बोला- " मैं मनुष्य हूँ '' संत जी बोले, " इस समय मनुष्य तो एक राजा भोज है। आप वह हैं तो हाथ लगाओ सिला हट जाएगी।'' राजा ने हाथ लगाया, सिला एक दम हट गई। सन्तजी को नमस्कार किया और दर्शन करके राजा भोज उनके उपदेश से अपने में एक मानव का निश्चय करके कृत - कृत्य हो गया। 
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
अध्यात्म
योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं सहजैं आव ।
मुक्ता द्वारा महल का, इहै भक्ति का भाव ॥९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लय योग के द्वारा सुरति को लगाओ और सहजावस्था को प्राप्त होओ । इस प्रकार धीरे - धीरे अभ्यास द्वारा परमेश्वर की तरफ में लगाओ । यह मनुष्य देह मुक्तिरूपी महल का दरवाजा है । इस प्रकार परमेश्वर में भाव सहित प्रेमा भक्ति द्वारा लय लगाओ ॥९॥
सहज शून्य मन राखिये, इन दोनों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥१०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! योग में तो मन को निद्र्वन्द्व कहिए, निर्विकल्प स्वरूप बना कर स्वस्वरूप में स्थिर करिये, किन्तु परमेश्वर में लय रूप समाधि द्वारा स्थिरता करके भक्ति द्वारा भगवद् दर्शन रूप अमृत का पान करिए । वहाँ फिर किसी भी प्रकार के काल का भय नहीं रहता । तात्पर्य यह है कि तत्वबोध लक्ष्य तो योग का भी वही है, किन्तु भक्तिरूप लय का मार्ग सुगम है ॥१०॥
(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)

= १९० =

卐 सत्यराम सा 卐
मैं मेरे में हेरा, 
मध्य मांहिं पीव नेरा ॥टेक॥
जहॉं अगम अनूप अवासा,
तहँ महापुरुष का वासा ।
तहँ जानेगा जन कोई,
हरि मांहि समाना सोई ॥१॥
अखंड ज्योति जहँ जागै,
तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा,
हरि संग रहै नहिं दूरा ॥२॥
तिरवेणी तट तीरा,
तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा,
तब भरम गया भय भागा ॥३॥
दादू देख हरि पावा,
हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना,
निज निरखत हौं भगवाना ॥४॥
--------------------------------
साभार ~ Gauri Mahadev
बिन बाती बिन तेल(दीया जले सारी रात ) 

उस दीये को खोजो, जो बिना तेल के जलता है, बिना बाती के !
वह तुम्हारे भीतर है! 
उसे तुमने कभी भी खोया नहीं, एक क्षण को उसे खोया नहीं है !
अन्यथा तुम हो ही नहीं सकते थे !
तुम मुझे सुन रहे हो, कौन सुन रहा है ? 
वही दीया ! 
तुम रास्ते पर चलते हो, भले डगमगाते हो, कौन चल रहा है ?
वही दीया !
तुम भूल करते हो, लेकिन तुम्हे स्मरण भी आता है कि भूल की ! 
किसे स्मरण आता है? 
होश भीतर है ! 
कितना ही दबा हो, कितनी ही पर्तें उसके चारो तरफ धुंए की हों, 
लेकिन दीया भीतर है ! थोड़ी-सी धुंए की पर्तें काटनी है !
इसलिए धर्म एक प्रक्रिया है, एक उपचार है, एक चिकित्सा है ! 
धर्म कोई दर्शन नहीं, धर्म कोई शास्त्र नहीं
धर्म एक विज्ञान है-अंतशचक्षु की खोज !.....

यह सन्देश चारो तरफ लिखा है ! 
शास्त्र सब तरफ खुदे है ! द्वार-द्वार, गली-गली, कुचे-कुचे, पत्थर-पत्थर पर वेद है !
बस तुम्हे रुक कर देखने की जरुरत है !....

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2014

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मनसा वाचा कर्मणा, साहिब का विश्‍वास । 
सेवक सिरजनहार का, करे कौन की आस ? ८॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन - वचन - कर्म से, परमेश्‍वर का विश्‍वास धारण करके जो निष्काम भाव से नाम - स्मरण करते हैं, वे अनन्य परमेश्‍वर के भक्त, परमेश्‍वर को छोड़कर फिर किसी भी देवी - देव, राजा - महाराजा आदि की आशा नहीं करते ।
बिन परिचय परिचय भया, जब आया विश्‍वास ।
जन रज्जब अज्जब कही, सुनहु स्नेही दास ॥ 
लई मृग के सींग पर, रोटी जुत विश्‍वास । 
जब रोटी आई नहीं, त्याग दई तब आस ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत के पास एक पुरुष आकर बोला ~ महाराज ! आप कहॉं से खाते - पीते हो ? आपको कौन देता है खाने को ? संत ~ ‘‘हमें परमेश्‍वर देता है, उसका हमें विश्‍वास है ।’’ ‘‘तो क्या मुझे भी परमेश्‍वर दे देगा, मैं नहीं कमाई करूंगा तो ?’’ 
संत ~ ‘‘तुझे विश्‍वास होगा तो, जरूर देगा ।’’ ‘‘कहॉं विश्‍वास करूं ?’’ संत - ‘‘निर्जन स्थान में जाकर, उसका विश्‍वास धारण करके बैठ जा । नाम स्मरण करता रह ।’’ ‘‘यदि मैं यह चाहूँ कि मृग के सींग पर रोटी आवे, तो क्या उसी प्रकार आवेगी ?’’ ‘‘हॉं, वैसे ही आ जावेगी ।’’ 
तब जंगल में जाकर, बैठ गया और परमेश्‍वर के नाम का स्मरण करने लगा और निश्‍चय किया कि मृग के सींगों पर रोटी आएगी, तभी खाऊँगा । परमेश्‍वर तो श्रद्धा, विश्‍वास में ही है । तीन रोज हो गये । चौथे रोज मृग का रूप बनाया और दो - दो रोटी और सूखी सब्जी, दोनों सींगों पर धारण किये हुए, सामने लेकर खड़े हो गये । 
आवाज हुई कि हे बन्दे ! जैसा तेरा विश्‍वास था, उसी प्रकार तेरे लिए रोटी आयी है, आँख खोलकर देख । जब आँख खोलकर देखा, तो उठकर मृग के सींगों पर से रोटियॉं उतार ली और खाने लगा । बड़ा खुश हुआ । फिर राम - राम करने बैठ गया । तीन दिन तक इसी प्रकार रोटी आती रही और खाता रहा । चौथे रोज भगवान् ने सोचा कि जरा परीक्षा तो कर लें, विश्‍वास है कि नहीं ? 
जब रोटियॉं लेकर मृग नहीं आया, इधर - उधर देखने लगा । फिर तो खड़ा होकर जंगल में घूमने लगा । जिधर से मृग आता था, उधर देखने लगा । ऐसे ही सायंकाल हो गया । तब विश्‍वास छोड़ दिया और महात्मा के पास आ गया । पूर्वोक्त वृत्तान्त महात्मा को कह सुनाया । महात्मा बोले ~ अब कमाओ खाओ, अब नहीं लावेगा । 
(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)

मंगलवार, 11 फ़रवरी 2014

= १८८ =


卐 सत्यराम सा 卐
सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर । 
मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥ 
------------------------------------ 
The self is like a pearl. 
To find it you must dive deep down into silence, 
deeper and ever deeper until it is reached. 

~ Ramana Maharshi ~

= १८७ =


卐 सत्यराम सा 卐
कायर काम न आवही, यहु शूरे का खेत । 
तन मन सौंपै राम को, दादू शीश सहेत ॥ 
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भैय हुआ न जाइ । 
काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥ 
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धर्या रणजीत । 
साहिब अपना कर लिया, अन्तरगत की प्रीति ॥ 
--------------------------------- 
Those who desire to understand, 
who are looking to find that which is eternal, 
without beginning and end, 
will walk together with greater intensity, 
will be a danger to everything which is unessential, 
to unrealities, to shadows. 

They will concentrate. 
They will become the flame, 
because they understand. 

~ Jiddu Krishnamurti ~

सोमवार, 10 फ़रवरी 2014

= १८६ =



卐 सत्यराम सा 卐 
सूक्ष्म मार्ग 
दादू बिन पाइन का पंथ, क्यों करि पहुँचै प्राण । 
विकट घाट औघट खरे, मांहि शिखर असमान ॥ 
मन ताजी चेतन चढै, ल्यौ की करै लगाम । 
शब्द गुरु का ताजणां, कोइ पहुंचै साधु सुजाण ॥ 
--------------------------------- 
संत के प्रति भक्त कर्तव्य ~ 

वैसे संत तो दोष रहित होता है. पर आज जब नैतिकता, न्याय का स्तर सब तरफ गिरा है तो उससे निष्प्रभावित आज का संत भी नहीं रह गया है. अब कहें तो तुलनात्मक रूप से अधिक सच्चा और अधिक अच्छा होने के बाद भी कुछ दोष संत में रहे आते हैं. संत के दोष उत्तरोत्तर कम होने चाहिए . लेकिन भक्तों की अंध-भक्ति, अंध-श्रध्दा और अंध-विश्वास से संत में यह क्रिया कमजोर पड़ती है. 
.
पीछे आ रही भक्तों और श्रध्दालुओं की भीड़ संत में अहंकार भी बढा देता है. ऐसे में वास्तव में वह संत कम ही बचता है. किन्तु संत या गुरु पद की पूर्व अर्जित प्रतिष्ठा उसे संत पद पर ही आसीन रखती है. वह अहंकार में भूलता है, अपने आप को चमत्कारी मान बैठता है. उसे लगता है वह किसी भगवान तुल्य हो गया है. उसे यह भी भ्रम हो जाता है अब वह जो भी अच्छा बुरा करेगा उसके अनुयायी /भक्त उसे गुरु आशीर्वाद ही मान ग्रहण करेंगे. 
.
अच्छाई तो संत या गुरु से अपेक्षित ही होती है उसमें तो कितनी भी करे किसी को कोई शिकायत नहीं होती. किन्तु अहंकार और अपने विचार-भ्रम में वह कुछ बुरा किसी भक्त के साथ करता है. भक्त या तो उसमें भी खुश रहता है या अपने विभिन्न संकोचों के कारण या हिम्मत ना कर पाने के कारण चुप रहता है, या कहीं चर्चा करता है तो उसे अन्य अन्धविश्वासी भक्त या धर्म-भीरु परिजन चुप रह जाने को समझा देते हैं. 
.
संत तक विरोधी स्वर/हलचल पहुँचती नहीं, या हलचल पहुँचती भी है और कोई उग्र प्रतिक्रिया श्रध्दालुओं की ओर से नहीं आती तो उस की भ्रम -सोच और बलवती होती है. अब वह बुरा कर्म और आचरण दोहराने लगता है. नये - नये भक्त के साथ यह आजमाता जाता है. सारी अच्छाई जिसने संत पद दिलाया था प्रतिष्ठा दिलाई थी अपने अनुयायियों की बड़ी संख्या बना सका था रहते हुए. अहंकार, मतिभ्रम और अपनी लालसाओं पर नियंत्रण खोने के कारण कुछ बुराई से वह संतत्व से डिग जाता है. 
.
संत तो वह अच्छा बनना आरम्भ हुआ था. उसमें गुण भी साधारण मनुष्य से अधिक ही थे अन्यथा क्यों लाखों करोड़ों की संख्या में अनुयायी बनते ? क्यों ख्याति क्षेत्र इतना विस्तृत होता ? इस भले से मनुष्य की अच्छाई संत बनने के साथ और बढ़नी चाहिए थी. लेकिन वर्षों की सेवा और मेहनत पर पानी फिरता है. 
.
उस संत पद से पदच्युत हुए भले व्यक्ति(पूर्व में भला) की अच्छाई की हत्या हो जाती है. 
.
कौन होता है इस हत्या का दोषी ? निश्चित ही हमारी अंधभक्ति, अंधश्रध्दा और अन्धविश्वास. अगर हम अन्धानुशरण की अपनी कमी नहीं त्यागेंगे तो संत/गुरु बनने की क्षमता रखने वाले हमारे बीच के भव्य मनुष्य भी निर्दोष पद पर नहीं पहुँच सकेंगे. हमारी अंधश्रध्दा... आदि, हमारी पीढ़ी और आगामी सन्तति इस वरदान से वंचित होगी जिसके अंतर्गत समय समय पर हमारे समाज को मानवता पथ दिखलाने वाला सच्चा पथप्रदर्शक मिलता रहा है. ऐसा सच्चा पथप्रदर्शक संत/गुरु उनके जीवन उपरान्त भी शताब्दियों भगवान, देवता जैसा पूजा जाता रहा है. हमारे बीच अवतार और भगवान आते रहें संत और गुरु बनते रहें यह मानवता और समाज हित के लिए नितांत आवश्यक है. 
.
अतः संत और सच्चा गुरु बनने के मार्ग पर जो महामानव अग्रसर दिखता है उसके प्रति अनुयायी और भक्तों का यह कर्तव्य होता है कि वे उसका अन्धानुशरण ना करें. किसी भी समय संत अहंकार या भ्रम में ना आ जाए कि उसे कोई बुराई कर लेने की स्वतंत्रता मिल गयी है. 
.
यह भ्रम नहीं आएगा तो उस संत के अन्दर वैचारिक-शोधन की क्रिया निरंतर चलते रहेगी. उसके आचरण ,कर्म निरंतर निर्मल और निर्मल होते जायेंगे. उसके उपदेश वचन और लेखन जग कल्याणकारी सिध्द होंगे. जिसकी बुराई पर बढ़ते आज के समाज पर अंकुश लगाने की दृष्टि से नितांत आवश्यकता है. 
.
--राजेश जैन 
05-09-2013

= १८५ =


卐 सत्यराम सा 卐 
दादू देखौं निज पीव को, दूसर देखौं नांहि ।
सबै दिसा सौं सोधि करि, पाया घट ही मांहि ॥७४॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब तो हम मुक्तजन, पीव को कहिए, साक्षी चैतन्य को अपना निज रूप करके ही ज्ञान - विचाररूपी नेत्रों से देखते हैं और अब "दूसर'' कहिए माया प्रपंच को सत्यरूप करके नहीं देखते हैं । जागृत - स्वप्न - सुषुप्ति तथा पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण इन सब दिशाओं में "सोधि'' कहिए तलाश करके उसको फिर महावाक्यों द्वारा हमने अपने अन्तःकरण में प्राप्त कर लिया है ॥७४॥
.
दादू देखौं निज पीव को, और न देखौं कोइ ।
पूरा देखौं पीव को, बाहिर भीतर सोइ ॥७५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब तो मुख - प्रीति का विषय जो पीव है, उसको ह्रदय में ही देखते हैं । उसके सिवाय अन्य मायावी कार्य और देवी - देवताओं को पीव करके अर्थात् ईश्वर करके नहीं जानते हैं । उस परमेश्वर को पूर्ण रूप से ह्रदय में देखते हैं, इस शरीर के बाहर और भीतर भी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में वही परिपूर्ण हो रहे हैं ॥७५॥
अन्तःपूर्ण बहिःपूर्ण मध्यपूर्णं तु संस्थितः ।
सर्वे पूर्णत्व आत्मेति समाधिः तस्य लक्षणम् ॥
शेर ~ नगर में, वन में, कुछ आलम निहारा है ।
जिधर देखौं उधर प्यारे, यही जलवा तिहारा है ॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
साभार : Bhadra Dhokai

सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी ~*~
हाथों हाथ तूं दुख खरीद के, सुख सारे ही खोता।
कर्ज़, फ़र्ज और मर्ज़ बहाने, जीवन बोझा ढोता।
ढोते ढोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

जन्म लेते ही इस धरती पर, तुने रूदन मचाया।
आंख अभी तो खुल ना पाई, भूख भूख चिल्लाया॥
खाते खाते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

बचपन खोया खेल कूद में, योवन पा गुर्राया।
धर्म-कर्म का मर्म न जाने, विषय-भोग मन भाया।
भोगों भोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥

शाम पडे रोज रे बंदे, पाप-पंक नहीँ धोता।
चिंता जब असह्य बने तो, चद्दर तान के सोता।
सोते सोते ही निकल गई सारी जिन्दगी॥

धीरे धीरे आया बुढापा, डगमग डोले काया।
सब के सब रोगों ने देखो, डेरा खूब जमाया।
रोगों रोगों में निकल गई सारी जिन्दगी॥
--------------------------------
(बाल्यावस्था)
पहले पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ आया इहि संसार वे ।
मायादा रस पीवण लग्गा, बिसार्या सिरजनहार वे ।
सिरजनहार बिसारा किया पसारा, मात पिता कुल नार वे ।
झूठी माया आप बँधाया, चेतै नहीं गँवार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ आया इहि संसार वे ॥१॥

(तरुण अवस्था)
दूजे पहरै रैणि दे, बणिजारिया, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ।
माया मोह फिरै मतवाला, राम न सक्या संभाल वे ।
राम न संभाले, रत्ता नाले, अंध न सूझै काल वे ।
हरि नहीं ध्याया, जन्म गँवाया, दह दिशि फूटा ताल वे ।
दह दिशि फूटा, नीर निखूटा, लेखा डेवण साल वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ रत्ता तरुणी नाल वे ॥२॥

(प्रौढ अवस्था)
तीजे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तैं बहुत उठाया भार वे ।
जो मन भाया, सो कर आया, ना कुछ किया विचार वे ।
विचार न कीया नाम न लीया, क्यों कर लंघै पार वे ।
पार न पावे, फिर पछितावे, डूबण लग्गा धार वे ।
डूबण लग्गा, भेरा भग्गा, हाथ न आया सार वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तैं बहुत उठाया भार वे ॥३॥

वृद्धावस्था जर्जरी भूत(वृद्धावस्था)
चौथे पहरे रैणि दे, बणिजारिया, तूँ पक्का हुआ पीर वे ।
जोबन गया, जरा वियापी, नांही सुधि शरीर वे ।
सुधि ना पाई, रैणि गँवाई, नैंनहुँ आया नीर वे ।
भव-जल भेरा डूबण लग्गा, कोई न बंधै धीर वे ।
कोई धीर न बंधे जम के फंधे, क्यों कर लंघे तीर वे ।
दादू दास कहै, बणिजारा, तूँ पक्का हुआ पीर वे ॥४॥

शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनंत । 
कीमत नहीं करतार की, ऐसा है भगवंत ॥ 
निरसंध नूर अपार है, तेज पुंज सब मांहि । 
दादू जोति अनंत है, आगो पीछो नांहि ॥ 
================== 
साभार : Kripa Shankar B ~ 
आध्यात्म जगत में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती| जिसे आप खजाना मानकर खुश होते हो, कुछ समय पश्चात पता लगता है कि वह कोई खजाना नहीं बल्कि कंकर पत्थर का ढेर मात्र था| 
आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अनंत हैं| जैसे जैसे आप आगे बढ़ते हो पीछे की अनुभूतियाँ महत्वहीन होती जाती हैं| यहाँ तो बस एक ही काम है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो और बढ़ते रहो| पीछे मुड़कर ही मत देखो| 
अन्य कुछ भी मत देखो, कहीं पर भी दृष्टी मत डालो; सिर्फ और सिर्फ आपका लक्ष्य ही आप के सामने निरंतर ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे| फिर चाहे कितना ही अन्धकार हो उसकी कृपा से आपका मार्ग दिखाई देता रहेगा|

= १८२ =


卐 सत्यराम सा 卐
जब हम ऊजड़ चालते, तब कहते मारग मांहि ।
दादू पहुंचे पंथ चल, कहैं यहु मारग नांहि ॥१२॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब हम, कहिए अधिकारी पुरुष सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति के मार्ग का अनुसरण करते थे, तब अज्ञानी जन बोलते थे कि यह मार्ग पर चल रहा है और जब हम निवृत्ति मार्ग द्वारा ज्ञान - भक्ति के मार्ग में चलने लगे, तब संसारीजन कहते हैं कि यह कुमार्ग पर चलता है । इसने कुल का मार्ग छोड़ दिया है, पागल हो गया है ॥१२॥
पहली ऊजड़ चालते, करते सब सनमान ।
जब हम हिरदै हरि धरया, लोग कहैं अनजान ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ उपजन का अंग) 
--------------------- 
साभार : Pradeep Gupta ~

The reason........ 
One day you might see yourself walking alone on a new path. No one seems in sight. No one seems to have walked earlier. Don’t give up midway. You are on the right track. Go on. Reach your dreams. 
The reason why you don’t see anyone is because, the world is following you. 
(Dedicated to - Team, Power To Choose)

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

= १८१ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू दह दिश दीपक तेज के, बिन बाती बिन तेल ।
चहुँ दिसि सूरज देखिये, दादू अद्भुत खेल ॥८७॥ 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिन महापुरुषों ने ब्रह्म का अनुभव किया है, उनके "बाती" कहिए, आत्मबुद्धि रूप वृत्ति और प्रेम रूपी तेल के बिना ही समस्त शरीर में ब्रह्मतेज के दीपक प्रकाशमान हो रहे हैं । वह सर्वत्र शरीर में सूर्यरूप प्रतीत होते हैं । पूर्ण ब्रह्मभाव होने पर लय चिन्तनरूप समाधि भाव भी विलीन हो जाता है, और ब्रह्मनिष्ठ स्वयं प्रकाश रूप ही प्रकाशित होते हैं । ब्रह्मज्ञानियों की यही सर्वोच्च अवस्था है । ब्रह्मज्ञानी जीवनमुक्त होने से सम्पूर्ण सृष्टि का लय चिंतन द्वारा, ब्रह्म में अभेद कर दिया है ॥८७॥ 
ललाट मध्ये हृदयाम्बुजे वा 
यो ध्यायति ज्ञानमयीं प्रभां तु । 
शक्तिं यदा दीपवदुज्ज्वलन्तीं,  
पश्यन्ति ते ब्रह्म तदेकनिष्ठा ॥ 
"हम बासी उस देश के, पारब्रह्म का खेल । 
ज्योति जगावै अगम की, बिन बाती बिन तेल ॥"
छन्द - 
भूमि तो विलीन गंध, गंध तो विलीन आप, 
आप हू विलीन रस, रस तेज खात है ।
तेज रूप, रूप वायु, वायु हु सपरस लीन,
सपरस व्योम शब्द, तम ही बिलात है ॥
इन्द्री दस रज मन, देवता विलीन सत्व,
तीन गुण अहं महत्तत्व गलि जात है ।
महत्तत्व प्रकृति रु, प्रकृति पुरुष लीन,
सुन्दर पुरुष जाइ, ब्रह्म में समात है ॥
सूरज कोटि प्रकास है, रोम रोम की लार ।
दादू ज्योति जगदीश की, अंत न आवै पार ॥८८॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मज्ञानियों के हृदय में उस परमात्मा के एक - एक रोम के साथ, करोड़ों सूर्यों का सा प्रकाश प्रकाशित हो रहा है । उस जगदीश की स्वरूप ज्योति का न तो आदि है और न अन्त ही है । ऐसा जीवनमुक्त पुरुष अनुभव कर रहे हैं ॥८८॥
ज्यों रवि एक आकाश है, ऐसे सकल भरपूर ।
दादू तेज अनन्त है, अल्लह आली नूर ॥८९॥
टीका - ब्रह्मऋषि दादू दयाल जी महाराज उपदेश करते हैं कि हे जिज्ञासु ! जैसे आकाश में एक ही सूर्य है, वह समस्त आकाश को सूर्य मंडल करके, भरपूर करता है । वैसे ही परब्रह्म का स्वरूप, ब्रह्मनिष्ठ महापुरूषों के सम्पूर्ण शरीर को ब्रह्मतेज रूप से प्रकाशित करता है । ऐसा वह अनन्त तेजोमय है ॥८९॥
"अन्तज्र्योतिर्बहिज्र्योतिः प्रत्यग्ज्योतिः परात्परः ।
अन्तज्र्योतिः स्वयं ज्योतिरात्मज्योतिः शिवोऽस्महम् ॥
सूरज नहीं तहँ सूरज देख्या, चंद नहीं तहँ चन्दा ।
तारे नहीं तहँ झिलमिल देख्या, दादू अति आनन्दा ॥९०॥
टीका - हे जिज्ञासुओं ! स्वस्वरूप चैतन्य का अनुभव होने पर हृदय देश में, भौतिक सूर्य - चन्द्रमा - तारे आदि का प्रकाश नहीं होने पर भी, असंख्य सूर्य चन्द्रमा आदि के प्रकाश - पुन्ज जैसा ब्रह्म ज्योति का प्रकाश व्याप रहा है । उस आत्म - लोक में सूर्य प्रकाशित नहीं होता, चन्द्रमा एवं तारे भी नहीं चमकते और न वहाँ विद्युत ही चमचमाती है । फिर अग्नि की तो वहाँ बात ही क्या कहें ? ब्रह्मज्ञान सूर्य प्रकाशमान होते ही सब कुछ प्रकाशित होता है और उसके प्रकाश से ही यह सब कुछ अन्तर बाहर आनन्द भासता है ॥९०॥ 
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं 
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य 
भासा सर्वभिदं विभाति" ॥
(मुण्डकोपनिषद्)
कै लख चन्दा झिलमिलै, कै लख सूरज तेज । 
कै लख दीपक देखिये, पारब्रह्म की सेज ॥ 
इक सीतल इक तपत है, ज्योति जरत नहिं रूप । 
"जगन्नाथ" सुख सोम रवि, अविगति तेज अनूप ॥ 
चेतन सदा ही सांत है, ब्रह्मतेज निज सोइ । 
"जगन्नाथ" नहिं आन जू, आतम अनुभव होइ ॥
(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)