फेसबुक संकलन(९) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
फेसबुक संकलन(९) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
संझ्या चलै उतावला, बटाऊ वन-खंड मांहि ।
बरियां नांहीं ढील की, दादू बेगि घर जांहि ॥ 
=============================

यह बिरियां तो फिरि नहिं, मन में देखू विचार। 
आया लाभहि कारनै, जनम जुआ मति हार ॥ 

यह मानव जन्म बार-बार नहीं मिलता। यह बात अच्छी तरह से सोच-परख लो। यह जन्म मोक्षरूपी लाभ को प्राप्त करने के लिए मिला है। इसी अपने सत्कर्मों से जरूर प्राप्त करो। सांसारिक मोह-मायारूपी जुए में पड़कर इस अनमोल अवसर को हार(गंवा) मत जाओ। 

संत कबीरदास !

सौजन्य -- १००८ कबीरवाणी ज्ञानामृत !

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सबको पाहुणा, दिवस चार संसार ।
औसर औसर सब चले, हम भी इहै विचार ॥ 
=============================


चले गये सो ना मिले, किसको पूंछू बात। 
मात पिता सुत बांधवा, झूठा सब संघात ॥ 

जो इस संसार से चले गए(मृत्यु हो गई) वो फिर नहीं मिलते। कोई भी यहां स्थायी रूप से नहीं आता, उसने तो जाना ही है। 
ऐसे में किसी से क्या बात की जाए ? माता-पिता, पुत्र-बंधु आदि सब रिश्ते यहां पर कुछ ही समय के लिए हैं जो झूठे, मिथ्या हैं। 

संत कबीरदास !

सौजन्य -- १००८ कबीरवाणी ज्ञानामृत !

= १९८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू खेल्या चाहै प्रेम रस, आलम अंगि लगाइ ।
दूजे को ठाहर नहीं, पुहुप न गंध समाइ ॥
नाहीं ह्वै करि नाम ले, कुछ न कहाई रे ।
साहिब जी की सेज पर, दादू जाई रे ॥

=========================
साभार ~ Manoj Puri Goswami ~
द्वैध में द्वन्द्व, एकत्व में मुक्ति~
मिथिला नरेश निमि दाह-ज्वर से पीड़ित थे। उन्हें भारी कष्ट था। भांति-भांति के उपचार किये जा रहे थे। रानियाँ अपने हाथों से बावना चंदन घिस-घिस कर लेप तैयार कर रही थीं।
जब मन किसी पीड़ा से संतप्त होता है तो व्यक्ति को कुछ भी नहीं सुहाता। एक दिन रानियाँ चंदन घिस रही थीं। इससे उनके हाथों के कंगन झंकृत हो रहे थे। उनकी ध्वनि बड़ी मधुर थी, किंतु राजा का कष्ट इतना बढ़ा हुआ था कि वह मधुर ध्वनि भी उन्हें अखर रही थी। उन्होंने पूछा, "यह कर्कश ध्वनि कहां से आ रही है?"
मंत्री ने जवाब दिया, "राजन, रानियाँ चंदन विलेपन कर रही हैं। हाथों के हिलने से कंगन आपस में टकरा रहे हैं।"
रानियों ने राजा की भावना समझकर कंगन उतार दिये। मात्र, एक-एक रहने दिया।
जब आवाज बंद हो गई तो थोड़ी देर बाद राजा ने शंकित होकर पूछा, "क्या चंदन विलेपन बंद कर दिया गया है?"
मंत्री ने कहा, "नहीं महाराज, आपकी इच्छानुसार रानियों ने अपने हाथों से कंगनों को उतार दिया है। सौभाग्य के चिन्ह के रुप में एक-एक कंगन रहने दिया है। राजन, आप चिन्ता मत कीजिये, लेपन बराबर किया जा रहा है।"
इतना सुनकर अचानक राजा को बोध हुआ, "ओह, मैं कितने अज्ञान में जी रहा हूं। जहाँ दो हैं, वहीं संघर्ष है, वहीं पीड़ा है। मैं इस द्वन्द्व में क्यों जीता रहा हूं? जीवन में यह अशांति और मन की यह भ्रांति, आत्मा के एकत्व की साधना से हटकर, पर में, दूसरे से लगाव-जुडाव के कारण ही है।"
राजा का ज्ञान-सूर्य उदित हो गया। उसने सोचा-दाह-ज्वर के उपशांत होते ही चेतना की एकत्व साधना के लिए मैं प्रयाण कर जाऊंगा।
इसके बाद अपनी भोग-शक्ति को योग-साधना में रुपान्तरित करने के लिए राजा, नये मार्ग पर चल पड़ा।

गुरुवार, 21 जनवरी 2016

= १९७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जब तैं हम निर्पख भये, सबै रिसाने लोक ।
सतगुरु के परसाद तैं, मेरे हर्ष न शोक ॥ 
निर्पख ह्वै कर पख गहै, नरक पड़ैगा सोइ ।
हम निर्पख लागे नाम सौं, कर्त्ता करै सो होइ ॥ 
===============================
साभार ~ Anand Nareliya ~

'समाज को मूर्ख लोगों की जरूरत होती है
दुख के लिए किसी प्रतिभा की आवश्यकता नहीं होती कोई भी इसे कर सकता है, सुख के लिए योग्यता, प्रतिभा, और सृजनात्मकता की आवश्यकता होती है| 

केवल सृजनात्मक व्यक्ति ही प्रसन्न होते हैं|

प्रसन्न होने के लिए बुद्धिमत्ता की जरूरत है, और लोगों को बुद्धिहीन होने को ही शिक्षित किया गया है| समाज हमारी बुद्धिमत्ता को खिलने नहीं देना चाहता| 

समाज को बुद्धिमत्ता की आवश्यकता ही नहीं है, वास्तव में उसे बुद्धिमत्ता से डर लगता है| समाज को मूर्ख लोगों की जरूरत होती है| क्यों? क्योंकि मूर्खों को नियंत्रित किया जा सकता है| और यह जरूरी नहीं कि बुद्धिमान व्यक्ति आज्ञाकारी हो, वे आज्ञा मान भी सकते हैं और नहीं भी मान सकते| पर बुद्धिहीन व्यक्ति आज्ञा का उलंघन नहीं करता| वह हमेशा से ही नियंत्रण में रहने को तैयार रहता है| बुद्धिहीन व्यक्ति को हमेशा ही किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो उस पर नियंत्रण रख सके, क्योंकि उसके पास स्वयं के जीवन ज़ीने की भी समझ नहीं होती| वह चाहता है कि कोई हो, जो उसे निर्देशित कर सके, वह हमेशा ही उस व्यक्ति की खोज में रहता है जो उस पर शासन कर सके| 

राजनैतिक व्यक्ति यह नहीं चाहते कि दुनिया में बुद्धिमत्ता हो, पुजारी भी दुनिया में बुद्धिमत्ता को पसंद नहीं करते| सेना के जनरल भी यह नहीं चाहते कि दुनिया में बुद्धिमत्ता हो| असल में कोई भी यह नहीं चाहता| लोग यही चाहते रहे हैं कि सब बुद्धिहीन रहें, ताकि हर व्यक्ति आज्ञाकारी, सेवक रह सके और कभी भी दायरे से बाहर न जाए, हमेशा ही भीड़ का हिस्सा बना रहे| और तभी ही चालाकी से इनका उपयोग किया जा सके और उन पर शासन और नियंत्रण किया जा सके| 

बुद्धिमान व्यक्ति विद्रोही होगा| बुद्धिमत्ता विद्रोह है| बुद्धिमान व्यक्ति स्वयं से ही निर्णय करेगा कि हां कहना है या नहीं कहना है| 

बुद्धिमान व्यक्ति परंपरावादी नहीं हों सकता, वह पुरानी चीजों की पूजा करता हुआ नहीं रह सकता; अतीत में कुछ भी पूजा योग्य नहीं है| बुद्धिमान व्यक्ति भविष्य का निर्माण करना चाहता है, और वर्तमान में जीना चाहता है| उसके वर्तमान में ज़ीने का ढंग, उसके भविष्य के निर्माण का ढंग है| 

बुद्धिमान व्यक्ति अतीत से चिपक कर उसकी लाश को ढोता नहीं रहता| 

वे कितनी ही सुदंर हों, कितनी ही कीमती, वह लाशों को ढोता नहीं| वह अतीत से पूरी तरह मुक्त हों चुका है; वह जा चुका है और वह हमेशा के लिए जा चुका| लेकिन बुद्धिहीन परंपरावादी होता है, वह पुजारी का अनुकरण करने को सदैव तैयार रहता है, वह किसी मूर्ख राजनीतिज्ञ का अनुसरण करने को तैयार रहता है, किसी भी आज्ञा को मानने को तैयार रहता है| कोई भी व्यक्ति जो सत्ता में हों, वह उसके पांवों में गिरने को हमेशा ही तैयार रहता है| बुद्धिमानी के बिना कोई प्रसन्नता नहीं हो सकती| व्यक्ति केवल तभी ही प्रसन्न हो सकता है, जब उसमें बुद्धिमत्ता हो, पूर्ण बुद्धिमत्ता| 

ध्यान तुम्हारे बुद्धिमत्ता को अभिव्यक्त करने का उपकरण है| तुम जितना ध्यान करते हो, उतने ही अधिक तुम बुद्धिमान बनते हो| 

लेकिन यह स्मरण रहे, बुद्धिमत्ता से मेरा मतलब बौद्धिकता से नहीं है| बौद्धिकता मूर्खता का ही अंग है| 

बुद्धिमत्ता बिल्कुल ही एक अलग आयाम है, इसका मस्तिष्क से कोई संबंध नहीं है| बुद्धिमत्ता एक ऐसी चीज है जो तुम्हारे अंतरतम से आती है| जिसकी धारा तुमसे बहती है, और इससे तुम्हारे अंदर बहुत कुछ बढ़ने लगता है| तुम प्रसन्न रहने लगते हो, तुम सृजनात्मक होने लगते हो, तुम विद्रोही होने लगते हो, तुम साहसी होने लगते हो, तुम असुरक्षा में रहना पसंद करने लगते हो, तुम अज्ञात में छलांग को तत्पर रहते हो| तुम ख़तरों में जीना शुरू कर देते हो, क्योंकि ज़ीने का केवल यही ढंग है| 

मूर्खों के लिए बड़े राजमार्ग होते हैं, जहां भीड़ चल रहीं है| और सदियों-सदियों वे उन पर चलते ही रहें हैं और कही नहीं पहुंचते, घेरे में ही घूमते रहते हैं| तब तुम्हें यह सोचने की सुविधा होती है कि तुम बहुत सारे लोगों के साथ हो, तुम अकेले नहीं हो| 

बुद्धिमत्ता तुम्हें अकेले होने का साहस देती है, और बुद्धिमत्ता तुम्हें सृजनात्मक होने की दृष्टि देती है| सृजनात्मक होने की महान प्रेरणा, प्रबल आकांक्षा पैदा होने लगती है| केवल तभी, उसके परिणामस्वरूप तुम प्रसन्न और आनंदित होते हो| 

ओशो, दि बुक ऑफ विज़डम

= १९६ =

卐 सत्यराम सा 卐
तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा, कहा रह्यो इहि लाग ।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, काहे न देखे जाग ॥ 
=================================
साभार ~ Manoj Puri Goswami ~
भादो की काली अंधियारी रात में घने काले बादल गरज गरज कर बरस रहे थे, चारों ओर अंधकार छाया था और अत्यंत तीव्र बारिश हो रही थी, बिजलियाँ रह रह कर कौंध रही थी। महाराज श्रेणिक और महारानी चेलना अपने झरोखे से वर्षा का आनंद ले रहे थे। तभी रात्रि के गहन अंधकार को चीरते हुए, दूर एक बिजली चमकी, राजा व रानी ने बिजली की रौशनी में देखा की एक वृद्ध व्यक्ति, बारिश में उफनती नदी के तट से लकड़ियाँ बीन रहा है।
उस वृद्ध का श्रम देख दोनों चिंतित हो गए। हमारे राज्य में ऐसा भी कोई दरिद्र है जो दिन भर के कठिन परिश्रम के उपरांत भी दो वक्त की रोटी का जुगाड नहीं कर पा रहा, तभी तो इतनी भीषण वर्षा में, अपने प्राणों की परवाह न करते हुए, ये वृद्ध लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है। सम्पन्न मगध राज्य में इतनी दरिद्रता? ऐसी बारिश व अंधेरे में तो जानवर भी बाहर नहीं निकलते और यहाँ तो आदमी को अपने पेट की आग बुझाने के लिए मौत से खेलना पड़ता हैै!! सोचकर राजा का हृदय दुखी हो गया, उन्हे उस वृद्ध पर दया आ गई। राजा श्रेणीक ने तुरंत अपने सेवकों को बुलाकर निर्देश दिया कि जाओ और नदी पर जो वृद्ध व्यक्ति लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा है, उसका पता लगाओ और प्रातःकाल उसे राज दरबार में उपस्थित करो। वृद्ध की दरिद्रता के बारे में सोच सोच कर राजा को रात भर नींद नहीं आई, तूफानी बारिश में ठंड से काँपता वह वृद्धकाय शरीर बार बार स्मृति को झंझोड़ रहा था।
प्रात: सेवकों ने एक व्यक्ति को महल में पेश करते हुए राजा से कहा, “महाराज यही वह व्यक्ति है जो कल रात नदी से बह आई लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था।” राजा ने उस व्यक्ति का अवलोकन किया। शरीर पर बेशकीमती रेश्मी वस्त्र, कानों में मणि जड़ित कुंडल तथा हाथों में हीरों की अंगूठियाँ देख, राजा को लगा कि सेवक गलती से किसी अन्य व्यक्ति को पकड़ लाए हैं। उसने सेवकों को क्रोध में कहा “ये किन्हें पकड़ कर लाए हो, तुम लोगों से कुछ भूल हुई है” सेवक बोले “नहीं महाराज! यही वो व्यक्ति है जो कल रात बारिश में नदी के किनारे पर लकड़ियाँ इक्कठी कर रहा था, हमसे कोई भूल नहीं हुई है” राजा ने आश्चर्यचकित होकर उस व्यक्ति से उसका परिचय पूछा।
वह व्यक्ति बोला “महाराज ! मैं आपके ही राज्य का एक व्यापारी हूँ, मुझे लोग "मम्मण सेठ" के नाम से जानते हैं।” राजा बोले “आप दिखने में तो समृद्ध व सुखी लगते हैं, फिर इतनी बारिश में नदी के किनारे जाकर अपने प्राणों को दांव पे लगाने की क्या ज़रूरत थी।” इस पर मम्मण सेठ बोला “महाराज! दिखने में तो मैं बड़ा ही सम्पन्न व सुखी हूँ पर मेरे मन की पीड़ा को बस मैं ही जनता हूं। मैं एक बहुत बड़े अभाव से ग्रस्त हूँ, जिसकी पूर्ती के लिए मैंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, ये सुन्दर वस्त्र एवं आभूषण तो मात्र, कहीं आने जाने के लिए रखे हैं, अन्यथा मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ लगाकर भी मेरी कमी पूरी नहीं हो रही है। इसी कारण में रात्री श्रम से नदी पर लकड़ियाँ इक्कठी करने में लगा रहता हूं। जब तक वह अभाव, वह कमी पूरी नहीं हो जाती, मुझे कठोर परिश्रम करते रहना होगा” राजा बोले, “ऐसी कौनसी कमी है आपको? मुझे बताइए, हो सकता है मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।”
सेठ बोला “महाराज मेरे पास एक परम सुन्दर बैल है, उसी की जोड़ी का दूसरा बैल मुझे चाहिए। इसीलिए ये कठोर परिश्रम कर रहा हूँ।” राजा बोले “अगर इतनी सी बड़ी बात है तो आप हमारी वृषभशाला में जाइये और जो भी बैल पसंद आए ले जाइये सेठ बोला “महाराज! आपकी इस कृपा के लिए धन्यवाद, किन्तु मेरे बैल की जोड़ी का एक भी बैल आपकी वृषभशाला में नहीं है।” यह सुनकर महाराज सोच में पड़ गए कि ऐसा कैसा बैल है जिसकी जोड़ का कोई बैल हमारी विशाल वृषभशाला में भी नहीं है। राजा बोले “ऐसा कैसा बैल है आपके पास, उसे लेकर आइये, हम उस अद्वितीय बैल को देखना चाहेंगे।” सेठ बोला “महाराज ! मेरा बैल यहाँ नहीं आ सकता, उसे देखने के लिए तो आपको मेरा घर ही पवित्र करना पड़ेगा”
राजा की उत्सुकता और बढ़ गई। उन्होंने अपने मंत्री अभयकुमार से मंत्रणा कर, अगले दिन ही सेठ के घर जाना निश्चित किया। जब रानी ने राजदरबार में घटा पूरा वृत्तांत सुना तो वह भी उत्सुक हुई और साथ चलने के लिए तत्पर हुई। अगले दिन महाराज श्रेणिक अपने मंत्री अभयकुमार तथा पत्नी चेलना के साथ सेठ के घर पहूँचे। मम्मण सेठ ने महाराज का यथायोग्य स्वागत किया। उत्सु्क राजा ने कहा “सेठ ! सीधे ही अपनी गौशाला में ले चलो, हमें केवल तुम्हारा बैल देखना है।” तब सेठ ने कहा कि उसका बैल गौशाला में नहीं बल्कि घर में है। राजा ने मन ही मन सोचा, कैसा मूर्ख है ये सेठ जो बैल को घर में रखता है।
सेठ तीनों को लेकर अपने मकान के तहखाने में गया, आगे बढ़कर जैसे ही एक कक्ष का पर्दा हटाया की चारों और रंग बिरंगा प्रकाश फ़ैल गया। सामने हीरे, मोती तथा रत्नों से जड़ित एक सोने के बैल की मूर्ति थी। जिसकी चमक चारों और आभा फैला रही थी। बैल की आँखों में अत्यंत दुर्लभ मणियाँ थीं। सिंग तथा पूँछ पर नीलम और पन्ने जड़े थे। राजा, रानी एवं मंत्री उस बैल को देखकर आवाक रह गए। उन्होंने ऐसा दुर्लभ बैल आजतक नहीं देखा था। राजा को चकित देखकर सेठ बोला “महाराज ! कई वर्षों पहले मैंने अपने व्यापार से कमाए धन को एक स्थान पर सुरक्षित रखने के लिए यह बैल बनवाया था, परन्तु उस समय मुझे भी नहीं मालूम था की यह इतना सुन्दर बन जाएगा। मैं दिन रात बस इसी के बारे में सोचता रहता। एक दिन मेरे मन से प्रेरणा हुई कि अगर ऐसा ही दूसरा बैल होता तो इसकी जोड़ी कितनी सुन्दर होती, दोनों साथ में खड़े होते तो इनका सौंदर्य तथा वैभव अद्भुत होता!! बस फिर क्या था, मैंने ऐसा ही एक और बैल बनाने की ठानी, परन्तु मेरे पास इतना धन अब शेष नहीं बचा था कि इस अजोड़ की जोड़ का एक और बैल बनाया जा सके। धन इक्कठा करने के लिए मैंने व्यापार में जोरदार परिश्रम करना प्रारम्भ किया, अपने सभी खर्चों को कम कर दिया, रुखी सुखी खाता, फटे पुराने कपड़े पहनता, किसी तरह के सुख-वैभव का नहीं उपभोग करता, परन्तु फिर भी उतना धन इक्कठा नहीं हो पाया। अपनी इस आकांक्षा को पूरण करने के लिए अब में दिन भर व्यापार करता हूँ तथा रात में नदी से लकड़ियाँ लाकर बेचता हूँ ताकि अधिक से अधिक धन इक्कठा हो पाए। यह कहते हुए, व्यापारी तीनों को एक दुसरे कक्ष में ले गया। कक्ष का पर्दा जैसे ही हटा, वहां भी पहले के समान एक हीरे, मोतियों से जड़ा सोने का सुन्दर बैल था।
उसे दिखा कर सेठ बोला “ महाराज ! ये उसकी जोड़ी का बैल है। ये लगभग पूरा बन चुका है, केवल दाहिने सिंग का कुछ हिस्सा बनाना बाकि है, बस उसी के लिए मैं रोज़ नदी पे जाता हूँ।” राजा, रानी तथा मंत्री आश्चर्य से चकित होकर उस सेठ की बातों को सुन रहे थे। अंत में राजा ने कहा, “सेठ ! आप सत्य कहते थे, ऐसा बैल तो मेरी वृषभशाला में हो ही नहीं सकता। इतना कहकर वे वापस अपने महल लौटने लगे। मन ही मन राजा को कभी सेठ के उन बैलों पर विस्मय होता, तो कभी सेठ की बैल बुद्धि पे तरस आता, जिसके कारण वो अपनी अपार धन सम्पदा का सुख भोगने तथा दान पुण्य करने के बजाय, बैल बनाने में लगा है। जो उसके लोभ को और बढाने के अतिरिक्त, किसी काम में नहीं आने वाला।
राजा ने रानी से कहा "देवी ! क्या आप लोभ में अंधे इस सेठ की गरीबी मिटा सकती है?" रानी बोली " लोभ तथा ममत्व में डूबे इस सेठ के एक क्या, अनंत जोड़ियाँ भी बन जाए, तब भी एक जोड़ी तो बाकि रह ही जाएगी। ऐसे व्यक्ति की कोई सहायता नहीं कर सकता। लोभ और तृष्णा का कहीं भी अंत नहीं है।

= १९५ =


卐 सत्यराम सा 卐
मन ही मांहीं ह्वै मरै, जीवै मन ही मांहि ।
साहिब साक्षीभूत है, दादू दूषण नांहि ॥ 
==========================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami ~

मिथिला में एक बड़े ही धर्मात्मा एवं ज्ञानी राजा थे। राजकाज के विभिन्न कार्य और राजमहल के भारी ठाट-बाट के उपरांत भी वे उसमें लिप्त नहीं थे। राजॠषि की यह ख्याति सुनकर एक साधु उनसे मिलने आया। राजा ने साधु का हृदय से स्वागत सम्मान किया और दरबार में आने का कारण पूछा।
साधु ने कहा, "राजन्! सुना है कि इतने बड़े महल में आमोद प्रमोद के साधनों के बीच रहते हुए भी आप इनके सुखोपभोग से अलिप्त रहते हैं, ऐसा कैसे कर पाते है? मैंने वर्षों हिमालय में तपस्या की, अनेक तीर्थों की यात्राएं कीं, फिर भी मन को इतना नहीं साध सका। जबकि संसार के श्रेष्ठतम सुख साधन व समृद्धि के सहज उपलब्ध रहते यह बात आपने कैसे साध ली?"
राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! आप असमय में आए हैं। यह मेरे काम का समय है। आपके सवाल का जवाब मैं थोड़ी देर बाद ही दे पाउँगा। तब तक आप इस राजमहल का भ्रमण क्यों नहीं कर लेते? आप इस दीये को लेकर पूरा महल देख आईए। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि दीया बुझने न पाए, अन्यथा आप रास्ता भटक जाएंगे।"
साधु दीया लेकर राजमहल को देखने चल दिए। कईं घन्टे बाद जब वे लौटे तो राजा ने मुस्करा कर पूछा, "कहिए, महात्मन् ! मेरा महल कैसा लगा?"
साधु बोला, "राजन्! मैं आपके महल के हर भाग में गया। सब कुछ देखा, किन्तु फिर भी वह अनदेखा रह गया।"
राजा ने पूछा, "क्यों?"
साधु ने कहा, "राजन्! मेरा सारा ध्यान इस दीये पर लगा रहा कि कहीं यह बुझ न जाय!"
राजा ने उत्तर दिया, "महात्माजी! इतना बड़ा राज चलाते हुए मेरे साथ भी यही होता है। मेरा सारा ध्यान अपनी आत्मा पर लगा रहता है। कहीं मेरे आत्मज्ञान की ज्योति मंद न हो जाय। किसी अनुचित कर्म की तमस मुझे घेर न ले, अन्यथा मैं मार्ग से भटक जाउंगा। चलते-फिरते, उठते-बैठते, कार्य करते यह बात स्मृति में रहती है। मेरा ध्यान चेतन रहता है कि सुखोपभोग के प्रलोभन में कहीं मै अपने आत्म को मलीन न कर दूँ। इसलिए साक्षी भाव से सारे कर्तव्य निभाते हुए भी संसार के मोहजाल से अलिप्त रह पाता हूँ।
साधु राजा के चरणों में नत मस्तक हो गया। आज उसे नया ज्ञान प्राप्त हुआ था, आत्मा की सतत जागृति, प्रतिपल स्मृति ही अलिप्त रहने में सहायक है।

बुधवार, 20 जनवरी 2016

= १९४ =

卐 सत्यराम सा 卐
सगुरा निगुरा परखिये, साध कहैं सब कोइ ।
सगुरा साचा, निगुरा झूठा, साहिब के दर होइ ॥ 
सगुरा सत संयम रहै, सन्मुख सिरजनहार ।
निगुरा लोभी लालची, भूंचै विषय विकार ॥ 
==============================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami ~

एक विशाल नगर में हजारों भीख मांगने वाले थे। अभावों में भीख मांगकर आजिविका चलाना उनका पेशा था। उनमें कुछ अन्धे भी थे। उस नगर में एक ठग आया और भीखमंगो में सम्मलित हो गया। दो तीन दिन में ही उसने जान लिया कि उन भीखारियों में अंधे भीखारी अधिक समृद्ध थे। अन्धे होने के कारण दयालु लोग उन्हे कुछ विशेष ही दान देते थे। उनका धन देखकर ठग ललचाया। वह अंधो के पास पहुंच कर कहने लगा - “सूरदास महाराज ! धन्य भाग जो आप मुझे मिल गये। मै आप जैसे महात्मा की खोज में था ! गुरूवर, आप तो साक्षात भगवान हो। मैं आप की सेवा करना चाहता हूँ ! लीजिये भोजन ग्रहण कीजिए, मेरे सर पर कृपा का हाथ रखिए और मुझे आशिर्वाद दीजिये।
अन्धे को तो जैसे बिन मांगी मुराद मिल गई। वह प्रसन्न हुआ और भक्त पर आशिर्वाद की झडी लगा दी। नकली भक्त असली से भी अधिक मोहक होता है। वह सेवा करने लगा। अंधे सभी साथ रहते थे। वैसे भी उन्हे आंखो वाले भीखमंगो पर भरोसा नहीं था। थोडे ही दिनों में ठग ने अंधो का विश्वास जीत लिया। अनुकूल समय देखकर उस भक्त ने, अंध सभा को कहा - “महात्माओं मुझे आप सभी को तीर्थ-यात्रा करवाने की मनोकामना है। आपकी यह सेवा कर संतुष्ट होना चाहता हूँ। मेरा जन्म सफल हो जाएगा। सभी अंधे ऐसा श्रवणकुमार सा योग्य भक्त पा गद्गद थे। उन्हे तो मनवांछित की प्राप्ति हो रही थी। वे सब तैयार हो गये। सभी ने आपना अपना संचित धन साथ लिया और चल पडे। आगे आगे ठगराज और पिछे अंधो की कतार।
भक्त बोला - “महात्माओं, आगे भयंकर अट्वी है, जहाँ चोर डाकुओं का उपद्रव रहता है। आप अपने अपने धन को सम्हालें”। अंध-समूह घबराया ! हम तो अंधे है अपना अपना धन कैसे सुरक्षित रखें? अंधो ने निवेदन किया - “भक्त ! हमें तुम पर पूरा भरोसा है, तुम ही इस धन को अपने पास सुरक्षित रखो”, कहकर सभी ने नोटों के बंडल भक्त को थमा दिये। ठग ने इस गुरुवर्ग को आपस में ही लडा मारने की युक्ति सोच रखी थी। उसने सभी अंधो की झोलीयों में पत्थर रखवा दिये और कहा – “आप लोग मौन होकर चुपचाप चलते रहना, आपस में कोई बात न करना। कोई मीठी मीठी बातें करे तो उस पर विश्वास न करना और ये पत्थर मार-मार कर भगा देना। मै आपसे दूरी बनाकर नजर रखते हुए चलता रहूंगा”। इस प्रकार सभी का धन लेकर ठग चलते बना।
उधर से गुजर रहे एक राहगीर सज्जन ने, इस अंध-समूह को इधर उधर भटकते देख पूछा –“सूरदास जी आप लोग सीधे मार्ग न चल कर, उन्मार्ग - अटवी में क्यों भटक रहे हो”? बस इतना सुनते ही सज्जन पर पत्थर-वर्षा होने लगी. पत्थर के भी कहाँ आँखे होती है, एक दूसरे अंधो पर भी पत्थर बरसने लगे। अंधे आपस में ही लडकर समाप्त हो गये।
आपकी डाँवाडोल, अदृढ श्रद्धा को चुराने के लिए, सेवा, परोपकार और सरलता का स्वांग रचकर ठग, आपकी आस्था को लूटेने के लिए तैयार बैठे है। यथार्थ दर्शन चिंतन के अभाव में हमारा ज्ञान भी अंध है। अज्ञान का अंधापा हो तो अस्थिर आस्था जल्दी विचलित हो जाती है। एक बार आस्था लूट ली जाती है तो सन्मार्ग दिखाने वाला भी शत्रु लगता है. अज्ञानता के कारण ही अपने समृद्ध दर्शन की कीमत हम नहीं जान पाते। हमेशा डाँवाडोल श्रद्धा को सरल-जीवन, सरल धर्म के पालन का प्रलोभन देकर आसानी से ठगा जा सकता है। विचलित विचारी को गलत मार्ग पर डालना बड़ा आसान है। आस्था टूट जाने के भय में रहने वाले ढुल-मुल अंधश्रद्धालु को सरलता से आपस में लडाकर खत्म किया जा सकता है।
अस्थिर आस्थाओं की ठग़ी ने आज जोर पकड़ा हुआ है। निष्ठा पर ढुल-मुल नहीं सुदृढ बनें।

= १९३ =


卐 सत्यराम सा 卐
दादू तन तैं कहाँ डराइये, जे विनश जाइ पल बार ।
कायर हुआ न छूटिये, रे मन हो हुसियार ॥ 
=============================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami ~
मैं बेकार क्यों डरुं?
एक मछुआरा समुद्र के तट पर बैठकर मछलियां पकड़ता और अपनी जीविका अर्जित करता।
एक दिन उसके वणिक मित्र ने पूछा, "मित्र, तुम्हारे पिता हैं?"
मछुआरा बोला "नहीं, उन्हें समुद्र की एक बड़ी मछली निगल गई।"
वणिक ने पूछा, "और, तुम्हारा भाई?"
मछुआरे ने उत्तर दिया, "नौका डूब जाने के कारण वह समुद्र की गोद में समा गया।"
वणिक ने दादाजी और चाचाजी के सम्बन्ध में पूछा तो उन्हे भी समुद्र लील गया था।
वणिक ने कहा, "मित्र! यह समुद्र तुम्हारे परिवार के विनाश का कारण है, इस बात को जानते हुए तुम यहां बराबर आते हो! क्या तुम्हें मरने का डर नहीं है?"
मछुआरा बोला, "भाई, मौत का डर किसी को हो या न हो, पर वह तो आयगी ही। तुम्हारे घरवालों में से शायद इस समुद्र तक कोई नहीं आया होगा, फिर भी वे सब कैसे चले गये? मौत कब आती है और कैसे आती है, यह आज तक कोई भी नहीं समझ पाया। फिर मैं बेकार क्यों डरुं?"
वणिक के कानों में भगवान् महावीर की वाणी गूंजने लगी -
"नाणागमो मच्चुमुहस्स अत्थि।" मृत्यु का आगमन किसी भी द्वार से हो सकता है।
वज्र-निर्मित मकान में रहकर भी व्यक्ति मौत के वार से नहीं बच सकता, वह तो अवश्यंभावी है। इसलिए प्रतिक्षण सजग रहने वाला व्यक्ति ही मौत के भय से ऊपर उठ सकता है।

= १९२ =

#daduji 
卐 सत्यराम सा 卐
एक सेर का ठांवड़ा, क्योंही भर्या न जाइ ।
भूख न भागी जीव की, दादू केता खाइ ॥ 
दादू मार्यां बिन मानै नहीं, यहु मन हरि की आन ।
ज्ञान खडग गुरुदेव का, ता संग सदा सुजान ॥ 
==============================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami​ ~

किसी राजा के पास एक बकरा था. एक बार उसने एलान किया की जो कोई इस बकरे को जंगल में चराकर तृप्त करेगा मैं उसे आधा राज्य दे दूंगा.

किंतु बकरे का पेट पूरा भरा है या नहीं इसकी परीक्षा मैं खुद करूँगा………

इस एलान को सुनकर एक मनुष्य राजा के पास आकर कहने लगा कि बकरा चराना कोई बड़ी बात नहीं है. वह बकरे को लेकर जंगल में गया और सारे दिन उसे घास चराता रहा. शाम तक उसने बकरे को खूब घास खिलाई और फिर सोचा की सारे दिन इसने इतनी घास खाई है अब तो इसका पेट भर गया होगा तो अब इसको राजा के पास ले चलूँ. बकरे के साथ वह राजा के पास गया……….

राजा ने थोड़ी सी हरी घास बकरे के सामने रखी तो बकरा उसे खाने लगा. इस पर राजा ने उस मनुष्य से कहा कि तूने उसे पेट भर खिलाया ही नहीं वर्ना वह घास क्यों खाने लगता. बहुतों ने बकरे का पेट भरने का प्रयत्न किया किंतु ज्योंही दरबार में उसके सामने घास डाली जाती कि वह खाने लगता…….

एक सत्संगी ने सोचा इस एलान का कोई रहस्य है, तत्व है. मैं युक्ति से काम लूँगा. वह बकरे को चराने के लिए ले गया. जब भी बकरा घास खाने के लिए जाता तो वह उसे लकड़ी से मारता. सारे दिन में ऐसा कई बार हुआ. अंत में बकरे ने सोचा की यदि मैं घास खाने का प्रयत्न करूँगा तो मार खानी पड़ेगी. शाम को वह सत्संगी बकरे को लेकर राज दरबार में लौटा. बकरे को उसने बिलकुल घास नहीं खिलाई थी फिर भी राजा से कहा मैंने इसको भरपेट खिलाया है. अत: यह अब बिलकुल घास नहीं खायेगा. कर लीजिये परीक्षा……..

राजा ने घास डाली लेकिन उस बकरे ने उसे खाया तो क्या देखा और सूंघा तक नहीं. बकरे के मन में यह बात बैठ गयी थी की घास खाऊंगा तो मार पड़ेगी. अत: उसने घास नहीं खाई……..

यह बकरा हमारा मन ही है. बकरे को घास चराने ले जाने वाला जीवात्मा है. राजा परमात्मा है. मन को मारो, मन पर अंकुश रखो. मन सुधरेगा तो जीवन सुधरेगा. मन को विवेक रूपी लकड़ी से रोज पीटो.

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

= १९१ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू जिन्हें ज्यों कही, 
तिन्हे त्यों मानी, ज्ञान विचार न कीन्हा ।
खोटा खरा जीव परख न जानै, झूठ साच करि लीन्हा ॥ 
====================================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami
~सत्य का भ्रम~~
गलत बात को भी बार-बार सुनने से कैसे भ्रम उत्पन्न होते हैं, इस पर यह रोचक कथा मननीय है।
एक सरल स्वभाव के ग्रामीण ने बाजार से एक बकरी खरीदी। उसने सोचा था कि इस पर खर्च तो कुछ होगा नहीं; पर मेरे छोटे बच्चों को पीने के लिए दूध मिलने लगेगा। इसी सोच में खुशी-खुशी वह बकरी को कंधे पर लिये घर जा रहा था। 
रास्ते में उसे तीन ठग मिल गये। उन्होंने उसे मूर्ख बनाकर बकरी हड़पने की योजना बनायी और उसके गाँव के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े हो गये। जब पहले ठग को वह ग्रामीण मिला, तो ठग बोला - "भैया, इस कुतिया को क्यों पीठ पर उठाये ले जा रहे हो ?" ग्रामीण ने उसकी ओर उपेक्षा से देखकर कहा - "अपनी आँखों का इलाज करा लो। यह कुतिया नहीं, बकरी है। इसे मैंने आज ही बाजार से खरीदा है।" ठग हँसा और बोला - "मेरी आँखें तो ठीक हैं, पर गड़बड़ तुम्हारी आँखों में लगती है। खैर, मुझे क्या फर्क पड़ता है। तुम जानो और तुम्हारी कुतिया।"
ग्रामीण थोड़ी दूर और चला कि दूसरा ठग मिल गया। उसने भी यही बात कही - "क्यों भाई, कुतिया को कंधो पर लादकर क्यों अपनी हँसी करा रहे हो। इसे फेंक क्यों नहीं देते ?" अब ग्रामीण के मन में संदेह पैदा हो गया। उसने बकरी को कंधो से उतारा और उलट-पलटकर देखा। पर वह थी तो बकरी ही। इसलिए वह फिर अपने रास्ते पर चल पड़ा।
थोड़ी दूरी पर तीसरा ठग भी मिल गया। उसने बड़ी नम्रता से कहा - "भाई, आप शक्ल-सूरत और कपड़ों से तो भले आदमी लगते हैं; फिर कंधो पर कुतिया क्यों लिये जा रहे हैं ?" ग्रामीण को गुस्सा आ गया। वह बोला - "तुम्हारा दिमाग तो ठीक है, जो इस बकरी को कुतिया बता रहे हो ?" ठग बोला - "तुम मुझे चाहे जो कहो; पर गाँव में जाने पर लोग जब हँसेंगे और तुम्हारा दिमाग खराब बतायेंगे, तो मुझे दोष मत देना।"
जब एक के बाद एक तीन लोगों ने लगातार एक जैसी ही बात कही, तो ग्रामीण को भरोसा हो गया कि उसे किसी ने मूर्ख बनाकर यह कुतिया दे दी है। उसने बकरी को वहीं फेंक दिया। ठग तो इसी प्रतीक्षा में थे। उन्होंने बकरी को उठाया और चलते बने।
यह कथा बताती है कि गलत तथ्यों को बार-बार व बढ़ा चढ़ाकर सुनने में आने से भल-भले विद्वान भी भ्रम में पड़ जाते है।
निसंदेह अपनी कमियों का अवलोकन करना और उन्हें दूर करने के प्रयास करना विकास में सहायक है। किन्तु बार बार उन्ही कमियों की स्मृति में ही डूबे रहना, उन्हें विकराल स्वरूप में पेश करना,समझना और उसी में शोक संतप्त रहना, आशाविहिन अवसाद में जांना है। शोक कितना भी हृदय विदारक हो, आखिर उससे उबरने में ही जीवन की भलाई है। समस्याएं चिंताए कितनी भी दूभर हो, गांठ बांधने, बार बार याद करने से कुछ भी हासिल नहीं होना है। उलट कमियों का निरंतर चिंतन हमें नकारात्मकता के गर्त में गिराता है, सुधार व समाधान तो सकारात्मकता भरी सोच में है, बीती ताहि बिसार के आगे की सुध लेहि !!
भारतीय संस्कृति को आईना बहुत दिखाया जाता है। कुछ तो सूरत सीरत पहले से ही सुदर्शन नहीं थी, उपर से जो भी आया आईना दिखा गया। पहले पहल पाश्चात्य विद्वानों ने वो आईना दिखाया, हमें अपना ही प्रतिबिंब विकृत नजर आया। बाद में पता चला कि वह आईना ही बेडोल था, अच्छा खासा चहरा भी उसमें विकृत नजर आता था, उपर से बिंब के नाक-नक्स की व्याख्या ! कोढ़ में खाज की भाषा !! 
अब उन्ही की शिक्षा के प्रमाण-पत्र में उपहार स्वरूप वही 'बेडोल आईना' हमारे अपनों ने पाया है। अब हमारे स्वजन ही उसे लिए घुमते है, सच बताने को अधीर !! परिणाम स्वरूप उत्पन्न होती है कुतिया उठाए घुमने की हीनता ग्रंथी, बेईमान व्याख्या का ग्लानिबोध !! इस प्रकार सकारात्मक सम्भावनाएं क्षीण होती चली जाती है।

= १९० =


卐 सत्यराम सा 卐
माणस जल का बुदबुदा, पानी का पोटा । 
दादू काया कोट में, मैं वासी मोटा ॥
========================
साभार ~ Swami Amitanand via Manoj Puri Goswami ~

सुख दुःख तो मात्र बहाना है, सभी को अपना अहम् ही सहलाना है।

बचपन में एक चुटकला सुना था, लोग रेल यात्रा कर रहे थे। एक व्यक्ति खडा हुआ और खिडकी खोल दी, थोडी ही देर में दूसरा यात्री उठा और उसने खिडकी बंद कर दी। पहले को उसका यह बंद करना नागवार गुजरा और उठ कर खिडकी पुनः खोलदी। एक बंद करता दूसरा खोल देता। नाटक शुरु हो गया। यात्रियों का मनोरंजन हो रहा था, लेकिन अंततः सभी तंग आ गये। टी टी को बुलाया गया, टी टी ने पुछा- "महाशय ! यह क्या कर रहे हो? क्यों बार बार खोल-बंद कर रहे हो?" पहला यात्री बोला- क्यों न खोलूं, "मैं गर्मी से परेशान हूं, खिडकी खुली ही रहनी चाहिए।" टी टी ने दूसरे यात्री को कहा- "भाई आपको क्या आपत्ति है, अगर खिडकी खुली रहे।" इस दूसरे यात्री ने कहा मुझे ठंड लग रही है, मुझे ठंड सहन नहीं होती। टी टी बेचारा परेशान, एक को गर्मी लग रही है तो दूसरे को ठंड। टी टी यह सोचकर खिडकी के पास गया कि कोई बीच का रास्ता निकल आए। उसने देखा और मुस्करा दिया। खिडकी में शीशा था ही नहीं। वहाँ तो मात्र फ़्रेम थी, वह बोला- "कैसी गर्मी या कैसी ठंडी? यहां तो शीशा ही गायब है, आप दोनो तो मात्र फ़्रेम को ही उपर नीचे कर रहे हो।"
वस्तुतः दोनों यात्री न तो गर्मी और न ही ठंडी से परेशान थे। वे परेशान थे तो मात्र अपने अभिमान से। अपने अहं पोषण में लिप्त थे, गर्मी या ठंडी का अस्तित्व ही नहीं था।
अधिकांश कलह मात्र इसलिये होते है कि अहंकार को चोट पहुँचती है।और आदमी को सबसे ज्यादा आनंद दूसरे के अहंकार को चोट पहुँचाने में आता है्। साथ ही सबसे ज्यादा क्रोध अपने अहंकार पर चोट लगने से होता है। जो दूसरो के अहंकार को चोट पहुँचाने में सफ़ल होता है, वह मान लेता है उसने बहुत ही बड़ा गढ़ जीत लिया, वह यह मानकर चलता है कि दूसरों के स्वाभिमान की रेखा को काटपीट कर ही वह सम्मानित बन सकता है। किन्तु परिणाम अज्ञानता भरी शर्म से अधिक कुछ नहीं होता। अधिकांश लडाईयों के पिछे कारण एक छोटा सा अहम् ही होता है।

शुभ सवेरा __/\__

= १८९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सम कर देखिये, कुंजर कीट समान ।
दादू दुविधा दूर कर, तज आपा अभिमान ॥ 
आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।
दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥ 
=============================
------= आत्मा की शुद्धि =------

महाराजकुमार नेमि का राजकुमारी राजल के साथ विवाह हो रहा था। बारात पूर्ण वैभव से जा रही थी। जूनागढ़ राज्य की सीमा में बारात प्रविष्ट हुई और बारातियों का स्वागत होने लगा।
सहसा महाराजकुमार की दृष्टि बंधे हुए पशुओं की ओर गयी। पूछने पर मालूम हुआ कि ये सब बरात के भोज के लिये काटे जाएंगे। राजकुमार का हृदय विकल हो उठा। वह रथ से नीचे उतरे। उन्होंने विवाह का विचार छोड़ा और घोर तप करके अपनी आत्मा की शुद्धि की तथा ज्ञान प्राप्त किया। महाराजकुमार नेमि भगवान नेमिनाथ के रूप में जैनों द्वारा पूजित हैं। 

साभार -- संगीता मिश्र !




सोमवार, 18 जनवरी 2016

= १८८ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सतगुरु अंजन बाहिकर, नैन पटल सब खोले ।
बहरे कानों सुणने लागे, गूंगे मुख सौं बोले ॥ 
टीका ~ सतगुरु ने ज्ञानरूपी अंजन से कहिए, सुरमा से नेत्रों के मलस्वरूप माया के आवरण को हटा कर प्रभु के दर्शन योग्य दृष्टिवान् बनाया । कानों के बहिरापन को मिटा करके प्रभु की महिमा सुनने की कानों में रुचि पैदा की । जो मुख भजन में नहीं लगे थे, उनमें बल, तत्व, शक्ति, प्रभु की महिमा बखान करनेकी प्रवृत्ति उत्पन्न की ॥ 
(अंजन = ज्ञानोपदेश । नेत्र = बुद्धि की ज्ञान विज्ञान प्रवृत्ति । पटल = भ्रम संशय । बहरे = धन, विद्या, रूप, बल, पद, जाति ऐसे मद वाले । गूंगे = हरि स्मरण विहीन वाणी बोलने वाले ।)
अंखियाँ अंजन अंजिया, दृष्टि निर्मली होई । 
नमो नमो जगन्नाथ जन, गुरु बिन करै न कोई ॥ 
सतगुरु अंजन आंजिया, भरि ज्ञान सलाई । 
ज्यों का त्यों ही सूझिया, बखना कूँ भाई ॥ 
मूकंक रोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम् । 
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानंद माधवम् ॥ 
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानांजन शलाकया । 
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥ 
(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)

= १८७ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू छूटे जीवतां, मूवाँ छूटे नांहि ।
मूवाँ पीछे छूटिये, तो सब आये उस मांहि ॥ 
मूवाँ पीछे मुक्ति बतावैं, मूवाँ पीछे मेला ।
मूवाँ पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गहिला ॥ 
मूवाँ पीछे वैकुंठ वासा, मूवाँ स्वर्ग पठावैं ।
मूवाँ पीछे मुक्ति बतावैं, दादू जग बोरावैं ॥ 
============================

= १८६ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू मृतक तब ही जानिये, जब गुण इंद्रिय नांहि ।
जब मन आपा मिट गया, तब ब्रह्म समाना मांहि ॥ 
दादू जीवित ही मर जाइये, मर माँही मिल जाइ ।
सांई का संग छाड़ कर, कौन सहै दुख आइ ॥ 
==============================
साभार ~ Sadguru Mahashunya ~
जीते जी मरना :
"जिसका अहंकार नष्ट हो गया वो जीते जी मर गया और मरना सदा अहंकार का ही होता है जो किसी भी वस्तु का नाम नही है, परन्तु केवल एक भ्रम है,एक ख्याल है, एक विचार मात्र है । जिसका ये भ्रम दूर हो गया है वो ही वास्तविक मे मरा है और फिर उसी का दूसरा जन्म होता है, वही ब्राह्मण है, जो द्विज हो गया, ब्राह्मण के घर में केवल पैदा होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता है।"
कबीर ने कहा है -
"मरू मरू सब जग कहे मरण न जाना कोई।
एक बार ऐसे मरो की फिर मरना ना होई ॥"
"जिस मरने से जग डरे मेरे मन आनन्द।
कब मरू कब पायहुँ पुरण परमानन्द॥"
"माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर । 
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये दास कबीर ॥" 
- सदगुरु महाशून्य

Die Alive :
"One can die alive only when his ego had destroyed and only ego dies, ego is not the name of any object, but an illusion, an idea, a thought only. One whose this illusion had gone had really died and taken a new birth and is now a Brahman which is twice-born called Dvij, just born in the home of Brahman is not a Brahman." 
Sadguru Mahashunya

रविवार, 17 जनवरी 2016

= १८५ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू संशय आरसी, देखत दूजा होइ ।
भ्रम गया दुविधा मिटी, तब दूसर नाहिं कोइ ॥ 
किस सौं बैरी ह्वै रह्या, दूजा कोई नांहि ।
जिसके अंग तैं ऊपजै, सोई है सब मांहि ॥ 
============================
साभार ~ Pannalal Ranga ~ ·
1.
सेठ याचक था और वह भिखारिन दाता थी।
अन्धी प्रतिदिन मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- ''बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।''
वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले सहृदय और श्रद्धालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएं देती और उनको सहृदयता को सराहती। स्त्रियां भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।
प्रात: से संध्या तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी याचना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते।
झोंपड़ी के समीप पहुंचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके मस्तक को चूमती। बच्चा कौन है? किसका है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था। पांच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या-समय लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप कराने का प्रयत्न कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, अत: किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से यह बच्चा अन्धी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।
अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक हांडी गाड़ रखी थी। संध्या-समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढांप देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ रहती। प्रात:काल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के द्वार पर जा खड़ी होती।

2.
काशी में सेठ बनारसीदास बहुत प्रसिध्द व्यक्ति हैं। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा हैं। धर्म में उनकी बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे तक सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न रहते। कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा-पूंजी इन्हीं सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किन्तु पता नहीं अब तक वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही। उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई चुरा न ले। एक दिन संध्या-समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची।
सेठजी बही-खाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होंने पूछा- ''क्या है बुढ़िया?''
अंधी ने हांडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा- ''सेठजी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिज कहां रखती फिरूंगी?''
सेठजी ने हांडी की ओर देखकर कहा- ''इसमें क्या है?''
अन्धी ने उत्तर दिया- ''भीख मांग-मांगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे संग्रह किये हैं, अपने पास रखते डरती हूं, कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।''
सेठजी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा- ''बही में जमा कर लो।'' फिर बुढ़िया से पूछा- ''तेरा नाम क्या है?''
अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीमजी ने नकदी गिनकर उसके नाम से जमा कर ली और वह सेठजी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।

3.
दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू की, झाड़-फूंक से भी काम लिया, टोने-टोटके की परीक्षा की, परन्तु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिध्द हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई। परन्तु फिर ध्यान आया कि संभवत: डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठजी की कोठी पर आ पहुंची। सेठजी उपस्थित थे।
अंधी ने कहा- ''सेठजी मेरी जमा-पूंजी में से दस-पांच रुपये मुझे मिल जायें तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊंगी।''
सेठजी ने कठोर स्वर में कहा- ''कैसी जमा पूंजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।''
अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया- ''दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी। दे दीजिए बड़ी दया होगी।''
सेठजी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा- ''मुनीमजी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?''
अंधी की जान-में-जान आई, आशा बंधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब सोचने लगी सम्भवत: उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम बता दिया। उलट-पलटकर देखा। फिर कहा- ''नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।''
अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा- ''सेठजी, परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन-भर आपके गुण गाऊंगी।''
परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठजी ने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया- ''जाती है या नौकर को बुलाऊं।''
अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठजी की ओर मुंह करके बोली- ''अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे।'' और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
यह अशीष न था बल्कि एक दुखी का शाप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता। एक दिन उसकी अवस्था चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठजी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। सेठजी से घृणा हो गई।
बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, गिरती-पड़ती, सेठजी के पास पहुंची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।
एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठा देखकर उसने सेठजी को सूचना दी, सेठजी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।
नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर वह टस-से-मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती।
सेठजी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गये। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जांघ पर एक लाल रंग का चिन्ह था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जांघ देखी। चिन्ह अवश्य था परन्तु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का है। तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया। शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिये।
अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी- ''मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?''
सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा- ''बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब मिला है, सो इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊंगा।''
अंधी ने एक जोर का ठहाका लगाया- ''तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी।''
सेठजी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रही फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।
दूसरे दिन प्रात:काल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने जादू का-सा प्रभाव दिखाया। मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आंख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जबान से निकला, ''मां।''
चहुं ओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। मां-मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठजी के हाथ-पांव फूल गये, चहुं ओर अंधेरा दिखाई पड़ने लगा।
''क्या करूं एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है, इसे कैसे बचाऊं?''
सहसा उनको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परन्तु वह वहां कहां? सेठजी ने फिटन तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुंचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधर बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भांति तप रहा था।
सेठजी ने कहा- ''बुढ़िया! तेरा बच्च मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे...नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।''
अन्धी ने उत्तर दिया- ''मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर मां-बेटे की तरह मिल जाएंगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहां मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी सुचारू रूप से सेवा-सुश्रूषा करूंगी।''
सेठजी रो दिये। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था। किन्तु इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रोकर कहा- ''ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा।''
ममता शब्द ने अन्धी को विकल कर दिया। उसने तुरन्त कहा- ''अच्छा चलो।''
सेठजी सहारा देकर उसे बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठजी और अन्धी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुंच जायें। कोठी आ गई, सेठजी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर जाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त नेत्र खोल दिये और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा- ''मां, तुम आ गईं।''
अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपने गोद में रख लिया। उसको बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया।
दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।
मोहन के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह सहमत न हुई, विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया, ''इसमें क्या है।''
सेठजी ने कहा-''इसमें तुम्हारे धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध'' अन्धी ने बात काट कर कहा- ''यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए संग्रह किये थे, उसी को दे देना।''
अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी। और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

नमन

= १८४ =

卐 सत्यराम सा 卐
काया शून्य पंच का बासा, आत्म शून्य प्राण प्रकासा ।
परम शून्य ब्रह्म सौं मेला, आगे दादू आप अकेला ॥ 
===================================
------------------------ साखी ----------------------
खग खोजन कहं तुम परे, पीछे अगम अपार। 
बिनु परिचै कस जानिहो, कबीर झूठा है हंकार ॥ ५० ॥
सदगुरु कबीर साहेब कहते हैं कि तुम स्वर्ग-कल्पना रूपी पक्षी को खोजने में लगे हो,
जिसके बारे में पीछे अगम-अपार वाणियां कही गई हैं, परन्तु बिना सही परिचय, पते या पहचान के तुम उसे कैसे जान सकोगे ?
अर्थात् सत्य ज्ञान के बिना मात्र काल्पनिक बातों के आधार पर उसकी वास्तविकता को नहीं जाना जा सकता। ऐसे तुम्हारे स्वर्गलोक का अहंकार झूठा है।
इस साखी में प्रयुक्त 'खग' शब्द का अर्थ है --- आकाशरूप या आकाश में गति करने वाला पक्षी। 
अतः उस अनुसार 'खग' शब्द का अभिप्राय 'स्वर्ग-कल्पना रूपी पक्षी' माना है। बहुत योगी एवं साधक भक्तजन निज साधना-स्थिति में अपना ध्यान शून्य(आकाश) में लगाते हैं, 
अर्थात वे परम सत्य या परब्रह्म(परमात्मा) को आकाश में मानते एवं खोजते हैं। 
इस अनुसार 'खग' शब्द से अभिप्राय 'परमसत्य या परब्रह्म' मानकर इस साखी का अर्थ इस प्रकार लगाया जा सकता है ---
सदगुरु कहते हैं कि तुम उस परमसत्य या परब्रह्म को खोजने के चक्कर में पड़े हो, जिसके पीछे अगम-अपार वाणियां कही गई हैं या जिसके पीछे अगम-अपार दिव्य रहस्य है, परन्तु बिना उसके सही परिचय, ज्ञान अथवा साक्षात्कार के तुम उसे कैसे जान पाओगे ?
उसे अपनी बुद्धि से खोजने का तुम्हारा अहंकार झूठा है, क्योंकि वह बुद्धि से परे है।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- बीजक रमैनी !

= १८३ =

卐 सत्यराम सा 卐
पहली प्राण विचार कर, पीछे पग दीजे ।
आदि अंत गुण देख कर, दादू कुछ कीजे ॥ 
पहली प्राण विचार कर, पीछे चलिये साथ ।
आदि अंत गुण देखकर, दादू घाली हाथ ॥ 
============================
सहसा विदधीत न क्रियाम् ..........
-------------------------------
महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त में एक अति तेजस्वी और परम विद्वान् निर्धन ब्राह्मण के घर जन्मे संस्कृत के महान कवि भारवी रुग्ण होकर अपनी मृत्यु शैय्या पर थे । उनकी युवा पत्नि ने अत्यंत व्यथित होकर पूछा कि आप चले गए तो मुझ निराश्रया का क्या होगा ?
महाकवि ने विचलित हुए बिना ही ताड़पत्र पर एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसे बेच कर तुम्हें इतना धन मिल जाएगा कि अपना निर्वाह कर सकोगी । महाकवि भारवी इसके पश्चात स्वर्ग सिधार गए 
उनके गाँव के पास में ही एक हाट लगती थी जहाँ के एक अति समृद्ध वणिकपुत्र का नियम था कि जिस किसी व्यापारी की कोई वस्तु नहीं बिकती उसे वह मुंहमाँगे उचित मूल्य पर क्रय कर लेता था 
भारवी की पत्नि पूरे दिन बैठी रही पर उस ताड़पत्र का कोई क्रेता नहीं आया । सायंकाल जब हाट बंद होने लगी तब वह वणिकपुत्र वहाँ आया और पूछा कि हे माते, आप कौन हो और किस मूल्य पर यहाँ क्या विक्रय करने आई हो ?
भारवी की पत्नि ने अपना परिचय देकर वह ताड़पत्र दिखाया और उसका मूल्य दो सहस्त्र रजत मुद्राएँ माँगा । वणिकपुत्र ने सोचा कि इतने महान विद्वान् की विधवा पत्नि एक श्लोक लिखा ताड़पत्र बेच रही है तो अवश्य ही इसमें कोई रहस्य है । उसे इस अत्यधिक मँहगे सौदे से क्षोभ तो बहुत हुआ पर उसने वह ताड़पत्र दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में क्रय कर के उस पर लिखा श्लोक अपने शयनकक्ष की चाँदी की चौखट पर स्वर्णाक्षरों में खुदवा दिया ------
"सहसा विदधीत न क्रियाम् अविवेकः परमापदां पदम्
वृणते हि विमृष्यकारिणाम् गुणलुब्धा स्वयमेव सम्पदः "
कुछ दिनों पश्चात उस वणिकपुत्र को अपने व्यापार के क्रम में सिंहल द्वीप(श्रीलंका) जाना पडा । उस समय उसकी पत्नि के पाँव भारी थे । वह एक जलयान में भारत की मुख्य भूमि से सामान ले जाता था जिसे वहाँ बेचकर वहाँ का सामान यहाँ विक्रय करने ले आता था । यही उसका मुख्य व्यापार था । कुछ राजकर्मचारियों और अन्य ईर्ष्यालु व्यापारियों के षड्यंत्र के कारण वहाँ के शासक ने उसे दोषी मानकर चौदह वर्षों के लिए कारागृह में डाल दिया । चौदह वर्ष पश्चात वहाँ के राजा को उसकी निर्दोषता का पता चला तो राजा ने उसका पूरा धन लौटा दिया और उचित क्षतिभरण कर के बापस भेज दिया 
उस जमाने में आज की तरह के द्रुत संचार साधन नहीं होते थे । साढ़े चौदह वर्ष पश्चात एक दिन अर्धरात्रि में वह वणिकपुत्र अपने घर पहुंचा । घर के प्रहरी को संकेत से शांत रहने का आदेश देकर अपनी पत्नी को आश्चर्यचकित करने के उद्देश्य से घर में घुसा और अपने शयनकक्ष की खिड़की से दीपक के मंदे प्रकाश में झाँक कर देखा तो पाया कि उसकी पत्नि एक युवक के साथ सो रही है 
यह दृश्य देखकर वह अत्यंत क्रोधित हुआ और अपनी पत्नि और उस के साथ सोये युवक की ह्त्या करने के उद्देश्य से तलवार निकाली और शयन कक्ष के भीतर घुसा । शयनकक्ष की चौखट के द्वार पर स्वर्णाक्षरों से लिखी महाकवि भारवी की कविता उसे दिखाई दी जिसमें लिखे ---- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ---- शब्द उसके कानों में गूंजने लगे । वह ठिठक कर खड़ा हो गया । द्वार पर हुई आहट से उसकी पत्नि जाग गयी 
विरह की अग्नि में जल रही उसकी पत्नि अपने पति को सामने देखकर प्रसन्नता से पागल हो उठी और साथ में सटकर सोये युवक को चिल्लाकर जगाया ---- उठो पुत्र, उठो, उठकर चरण स्पर्श करो, तुम्हारे जन्म के पश्चात पहली बार तुम्हारे पिताजी घर आये हैं 
वणिकपुत्र को याद आया कि जब वह घर से गया था तब उसकी पत्नि गर्भवती थी । उसकी आँखों में आंसू भर आये और उसने अपनी पत्नि और पुत्र को गले लगा लिया । भारी गले वह अपनी पत्नि और पुत्र को बोला कि आज मैं अपनी पत्नि और पुत्र की ह्त्या करने वाला था पर महाकवि भारवी की जिस कविता को मैंने दो सहस्त्र रजत मुद्राओं में यानि चाँदी के दो हज़ार सिक्कों में खरीदा था, उसने मुझे इस महापाप से बचा लिया । मुझे इस सौदे का क्षोभ था पर लाखों स्वर्ण मुद्राएं तो क्या, मेरा सर्वस्व भी इसके बदले में अति अल्प था 
यही है महाकवि भारवी के मन्त्र की महानता 
आज भी इन शब्दों का उतना ही महत्व है --- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----- सहसा विदधीत न क्रियाम् ----