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गुरुवार, 12 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(२०४-२०६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*कोटि यत्न कर कर मुये, यहु मन दह दिशि जाइ ।*
*राम नाम रोक्या रहै, नाहीं आन उपाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
रिण न उतार्या राम का, पिंड प्राण जिन दीन । 
रज्जब तिनहिं उधार दे, मन वच कर्म सो छीन ॥२०४॥ 
जिनने प्राणी को शरीर दिया है, उन राम का ऋण नहीं उतारा उतारा, अर्थात अपने को समर्पण नहीं किया और उलटा उन्हें उधार देता है अर्थात जो कुछ उनके निमित करता है वह पीछा लेने के लिये फलाशा रखकर करता है । हम मन, वचन, कर्म से यथार्थ ही कहते हैं, वह प्राणी संसार में ही क्षीण होगा । 
पंच पचीसों त्रिगुण मन, कीड़े काया माँहिं । 
रज्जब राखै साधु ये, ज्यों वह खुलावै नाँहि ॥२०५॥ 
पंच ज्ञानेन्द्रिय, पच्चीस प्रकृति, तीन गुण और मन ये शरीर में कीड़ों के समान हैं किन्तु संत इनको वैसे ही रखते हैं जैसे ये उनको न खा सके । 
शफरी१ शिशन सलिल सुमिरण मधि, 
वास कुबुद्धि वपु विलयन होय । 
सोई जात रज्जब जल जप सौं, 
मारि पकावै विरला कोय ॥२०६॥ 
जल में निवास करने पर भी मच्छी१ के शरीर की दुर्गध दूर नहीं होती किन्तु उसे मार कर जल में धोवे और पकावे तभी वह जाती है, वैसे ही शिश्नेन्द्रिय की चंचलता अर्थात काम-वासना रूप कुबुद्धि विषय स्मरण से नहीं जाती किन्तु नाम जप से मर कर उसे जलावे तभी वह जाती है । ऐसा साधक कोई विरला ही होता है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित उपदेश चेतावनी का अंग ८२ समाप्तः ॥सा. २६५२॥ 
(क्रमशः)

बुधवार, 11 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(२०१-२०३)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*प्राण कवल मुख राम कहि,*
*मन पवना मुख राम ।*
*दादू सुरति मुख राम कहि,*
*ब्रह्म शून्य निज ठाम ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
सत सुकृत सुमिरण करत, विलम्ब न कीजे वीर१ । 
गुरु२ गिरिवर गहरे३ तिरत, रज्जब गहिये धीर ॥२०१॥ 
हे भाई१ ! सत्यपालन, पुण्य कर्म और राम नाम का स्मरण करने में देर मत कर, सेतु बाँधने के समय राम नाम से बहुत२ से महान३ पर्वत तिर गये हैं और प्राणी तिरते ही हैं, यह समझ कर धैर्य ग्रहण करके निरंतर नाम-स्मरण करता रह । 
रज्जब महंत१ महीपति नर सु तरु, जड़ सेवक संसार । 
माली सम मुंह आगले, मूलहुं सींचण हार ॥२०२॥ 
जैसे वृक्ष की जड़ में पानी सींचने वाला माली पानी सींचता है । राजा की सेवा सामने रहने वाले करते हैं । सु नर अर्थात संत की सेवा भक्तजन करते हैं, वैसे ही संसार के प्राणियों को महान्१ प्रभु की भक्ति करना चाहिये तभी ठीक रहेगा वा जैसे माली जड़ का सेवक है, वैसे ही संत, राजा, नर सभी अपने मूल के सेवक हैं । 
सदगुरु सांई साधु शब्द, बंदनीक चार्यों ये हद१ । 
रज्जब समझे समझों मांही, इन ऊपर थापण को नाँहिं ॥२०३॥ 
सदगुरु, परमात्मा, संत और संतों के शब्द, ये चारों ही पूजनीयों में सीमा१ के हैं, अर्थात सबसे बड़े हैं समझे हुये साधक इस बात को हृदय में ही समझें, इनके ऊपर स्थापन करने योग्य कोई भी नहीं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१९७-२००)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*राम विमुख जुग जुग दुखी, लख चौरासी जीव ।*
*जामै मरै जग आवटै, राखणहारा पीव ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
मन मरकट माया चिरम, तृष्णा शीत न जाय । 
या परि वानर वृन्द१ मिल, सगा सगे को खाय ॥१९७॥ 
वन में वानर गुञ्जाओं की राशि संग्रह करके उसे अग्नि समझ कर, उसके चारों और बैठ जाते हैं, उससे उनका शीत नहीं जाता किन्तु समूह१ की गरमी से शीत कम लगता है, ये उससे शीत कम होना समझ लेते हैं, फिर कोई अन्य वानर आकर किसी वानर को हटाकर बीच में बैठना चाहता है तो एक दूसरे को काटने लगते हैं, वैसे ही मन माया का संग्रह करता है, उससे उसकी तृष्णा भी नहीं जाती किन्तु फिर भी सम्बन्धी सम्बन्धी से लड़ते हैं । 
मांड१ माधुरी२ को धवै३, खलक४ खलावर५ पिंड६ । 
राम विमुख बाई७ बलै८, रज्जब इहिं ब्रह्मण्ड ॥१९८॥ 
ब्रह्माण्ड१ प्राणी माया२ के लिये दौड़ते३ हैं, साँसारिक४ दुष्ट५ जीव शरीर६ को खिलाने ही बन रहे हैं । इसलिये इन ब्रह्माण्ड में जैसे वायु७ के रोग का रोग संतप्त होता है, वैसे ही राम से विमुख प्राणी चिन्ता में जलते८ रहते हैं । 
कारे१ केशों कृष्ण पख२, मैन३ रैन मधि चोर । 
रोम श्वेत रजनी सुकल४, तज तस्करता५ भोर६ ॥१९९॥ 
कृष्ण पक्ष२ की काली रात्रि में पृथ्वी पर चोर फिरते हैं, वैसे ही युवावस्था के काले१ केशों के समय काम३ हृदय में विचरता है, शुक्ल४ पक्ष की चाँदनी रात में तथा प्रात:काल६ चोर चोरी५ करना छोड़ देते हैं, वैसे ही वृद्धावस्था में रोम श्वेत हो गये हैं अब तो काम को छोड़ दे । 
रज्जब रजक१ बुढापने, हेरि२ दिखाया हेत३ । 
चीर चिहुर४ की श्यामता, धोय करी सब श्वेत ॥२००॥ 
जैसे धोबी१ वस्त्र को धोके कालापन निकालकर उसे श्वेत कर देता है, वैसे ही देख२ बुढापे ने प्रेम३ दिखाया है, केशों४ की कालिमा धोकर सबको श्वेत कर दिया है । 
(क्रमशः)

सोमवार, 9 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१९३-९६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।*
*उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
कुल१ कुटुम्ब कैंवछ२ वनी, मर मरकट३ तहँ जाय । 
साधु शबद मानें नहीं, मरजी मूढ खुजाय ॥१९३॥ 
संपूर्ण१ कुटुम्ब कौंछ२ का वन है, मन रूप वानर३ वहां जाता है अर्थात कुटुम्ब में आसक्त होता है, संतों के वैराग्य पूर्ण नहीं मानता, अत: जैसे वानर कौंछवन में जाने पर खुजा खुजा कर मरता है, वैसे ही कुटुम्ब की आसक्ति से मन दुखी होगा ही । 
कुल१ कुटुम्ब कलियुग सही, कलि कलणे२ के ठांउ । 
रज्जब विरच्या३ यूं समझ, ताथें तहां न जांउ ॥१९४॥ 
संपुर्ण१ कुटुम्ब निश्चय ही कलियुग रूप है और कलियुग दलदल भूमि के स्थान के समान गिलने२ वाला है, ऐसा समझकर मैं कुटुम्ब से विरक्त३ हुआ हूँ, इसलिये वहाँ नहीं जाता । 
छाजन भोजन विषय रस, जीव लहै जग वास । 
रज्जब पाये पान मुर१, पृथ्वी वृक्ष पलास ॥१९५॥ 
पृथ्वी पर पलाश का वृक्ष तीन१ पत्ते प्राप्त करता है, वैसे ही संसार में रहने पर जीव को वस्त्र, भोजन और विषय-रस ये तीन मिलते हैं । 
उद्यम१ उभय२ न कीजिये, मन मूंसा सुन येह । 
बाति चुरावत करंड काटतों, कुशल सु नाँही देह ॥१९६॥ 
हे मन ! सुनले, ऐसा उद्योग१ मत कर जैसे चूहा दो२ उद्योग करता है - एक तो चूहा तेल के दीपक की बत्ती चुराकर छप्पर में जा घुसता है, जिससे अपने कुटुम्ब के सहित जल मरता है । दूसरा - चूहा सर्प के करंड को काटकर उसमें घुसता है तब उसे सर्प खा जाता है । उक्त प्रकार उद्योग करने से देह का कुशल नहीं होता । 
(क्रमशः)

रविवार, 8 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१८९-९२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*लोभ मोह मद माया फंध,*
*ज्यों जल मीन न चेतै अंध ॥*
*दादू यहु तन यों ही जाइ,*
*राम विमुख मर गये विलाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
वन कैंवछ१ काया कुमति, मरकट मन हिं सु भींच । 
रज्जब सो न उपाड़ ही, बैठे मूरख सींच ॥१८९॥ 
कौंछ१ के वन में वानर जाय तो उसको खुजाने का क्लेश ही है वा मृत्यु ही है, वैसे ही शरीर में कुमति है, उसमें मन जाता है तो उसकी भी हानि ही है । किन्तु फिर भी जैसे वह मूर्ख वानर कौंछ के वृक्ष से छू जाने पर जल फैंकता है, उसे उखाड़ता नहीं, वैसे ही वह मूर्ख नर कुमति को कुसंग में बैठकर सींचता है, सत्संग द्वारा उखाड़ता नहीं । 
मोह मूंज के जेवड़हु१, गांठ दई है घोलि२ । 
रज्जब छांटै प्रेम जल, निकस्या चाहै खोलि ॥१९०॥ 
जैसे कोई अपने को मूंज के रस्से१ से खूब खैंच२ कर गांठ देकर बाँध ले और उपर से जल छिड़कने, फिर उसे खोल कर निकलना चाहे तो कठिन है, वैसे ही जीव मोह बंधा है, मायिक संसार से ही प्रेम करता है और मुक्त भी होना चाहता है, तो इस स्थित में भी मुक्त कैसे हो सकता है ? 
कुल कुटुम्ब थूहर बिड़ा१, नख शिख कांटे वीर । 
शोणित२ सीर३ पर सत४ पड़ै, स्वारथ वहत समीर५ ॥१९१॥ 
हे भाई ! सब कुटुम्ब थूहर वृक्ष१ के समान है जैसे थूहर में नीचे से ऊपर तक कांटे होते है, वैसे ही सब-कुटुम्ब के लोगों में रागादि कांटे हैं । रक्त२ के साझे३ के बल४ का असर तो पड़ता है, प्राण-वायु५ अर्थात प्राण धारी जीव स्वार्थ की ओर ही जाता है । अत: यती को कुटुम्ब से दूर ही रहना चाहिये । 
जग थोथा थूहर बिड़ा, कुमति सु कांटा हुं पूर । 
बुद्धि वस्त्र फाटें निकट, रज्जब निकसहु दूर ॥१९२॥ 
जगत् खाली थूहर वृक्ष के समान है, कुबुद्धि रूप कांटों से भरा है, सुबुद्धि रूप वस्त्रों को फाड़ डालता है, अत: इससे दूर होकर ही निकलो अर्थात प्रभु के पास जाओ ।
(क्रमशः)

शनिवार, 7 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१८५-८८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सोवत सुपिना होई, जागे थैं नहिं कोई ॥*
*मृगतृष्णा जल जैसा, चेत देख जग ऐसा ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३९)*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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रोम न टूटा नट्ट१ का, करि दिखालाये खण्ड । 
यूं मिथ्या रामति२ राम सत्य, ब्रह्म रचे ब्रह्माण्ड ॥१८५॥
नट१ अपने टुकड़े टुकड़े करके देता है किन्तु उसका एक रोम भी नहीं टूटता इसी प्रकार ब्रह्म ने ब्रह्माण्ड रचे हैं, राम की सृष्टि रूप क्रीड़ा२ मिथ्या है और राम सत्य है ।
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चतुर्खानि बाजी चिहर१, सकल पसारा झूठ ।
रज्जब ज्यों थी त्यों कही, रजू२ होहु भावे रूठ३ ॥१८६॥
जरायुज, अण्डज, स्वेदज, उदभिज, इन चार खानि रूप संसार बाजी की चहल१-पहल का विस्तार मिथ्या है, यह बात जैसे थी वैसी ही मैंने कही है, अब चाहे इससे कोई प्रसन्न२ हो वा रुष्ठ३ हो ।
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चावल किये धूलि के, पंख परेवा१ कीन्ह२ ।
झूठ दिखाया साच करि, विरले पुरुषाँ चीन्ह३ ॥१८७॥
जैसे बाजीगर धूलि के चावल और पंख का कबूतर१ बना२ कर मिथ्या होने पर भी सत्य - सा दिखा देता है, वैसे ही ईश्वर ने मिथ्या संसार रच कर सत्य-सा दिखा दिया है, इस बात को विरले ज्ञानी संत पुरुषों ने ही पहचाना३ है ।
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स्वप्ना को साचा नहीं, नहीं मृछन२ मधि नीर ।
शीतकोट१ कोट हु नहीं, त्यों वसुधा३ सब वीर ॥१८८॥
स्वप्न कोई सत्य नहीं होता, मृगतृष्णा२ में जल नहीं होता, गंधर्व१ नगर रूप किला नहीं होता, हे भाई! वैसे ही पृथ्वी३ पर स्थिर संसार सत्य नहीं है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१८१-८४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*बाजी भरम दिखावा, बाजीगर डहकावा ॥*
*दादू संगी तेरा, कोई नहीं किस केरा ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३९)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
कौल१ चूक२ जीव आदि का, भूला भोंदू३ वाच४ । 
रज्जब झूठा राम सौं, सो क्यों बोलै साच ॥१८१॥ 
जीव पहले का ही प्रतिज्ञा१ भूलने२ वाला है, गर्भ में प्रभु से कहा था कि " आपका भजन करूंगा मुझे गर्भ गुहा से बाहर निकालो" उस अपने वचन३ को भी मूर्ख४ भूल गया, जो राम से भी झूठा पड़ गया है, भजन नहीं करता, वह सत्य कैसे बोलेगा । 
जगपति जीव जुदे किये, तब के झूठे जाणि । 
अबहिं साच बोलहिं सु क्यों, पड़ी झूठ की वाणी ॥१८२॥ 
जगतपति प्रभु ने जब से जीवों को अपने से अलग कर दिया तब से इनको झूठा ही जानना चाहिये । अब तो ये सत्य कैसे बोल सकते हैं ? इनका तो झूठ बोलने का स्वभाव ही पड़ गया है । 
प्राण पिण्ड की सन्तति झूठी, तो सच कौण सौं होय । 
रज्जब मिथ्या माया मेला, जिनि१ रु पतीजे२ कोय ॥१८३॥ 
झुठे प्राणी के शरीर की सन्तान भी झूठी ही है, तब सत्य का व्यवहार किससे होगा ? यह मिथ्या माया का ही मेला लगा है, इसके सत्य होने का विश्वास२ कोई क्यों१ करे । 
साचे ने झूठी करी, सो साची क्यों होय । 
रज्जब देखो दिव्य दृष्टि, मनसा वाचा जोय ॥१८४॥ 
सत्य प्रभु ने माया को मिथ्या ही रचा है, तब यह सत्य कैसे होगी ? उसका मिथ्यात्व दिव्य दृष्टि से तथा मन से यथार्थ वचनों को विचार करके देखो । 
(क्रमशः)

गुरुवार, 5 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१७७-८०)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ काल का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
जन रज्जब स्वप्ना जगत, सूता देखै सत्त१ । 
जाग्यूं मिथ्या भूत२ सब, नींद सु न्यारी मत्त३ ॥१७७॥ 
जगत् स्वप्न है, जब तक मोह निन्द्रा में सूता है, तब तक इसे सत्य१ देखता है, ब्रह्म ज्ञान३ से मोह निन्द्रा अलग होकर जगने पर सब मिथ्या रूप२ ही भासेगा । 
रज्जब शीशे का सलिल, तैसा यहु संसार । 
स्वर्ग नरक फिरता रहै, युग युग बारंबार ॥१७८॥ 
जैसे दर्पण का पानी प्रतीति मात्र होता है, वैसे ही यह संसार है । जैसे दर्पण के पानी में आकृति ऊँची-नीची होती दीखती है, वैसे ही प्राणी प्रति युग में संसार के स्वर्ग नरकादि में फिरता है । 
ब्रह्म विछोह१ वियोग न उपजै, मींच न आवे याद । 
रज्जब रीता प्राण सो, जन्म गमाया बाद ॥१७९॥ 
ब्रह्म का वियोग१ अनुभव में आने पर भी वियोग-व्यथा नहीं उत्पन्न हो, मृत्यु याद न आवे तो वह प्राणी कल्याण का साधन से खाली ही रहा और मानव जन्म व्यर्थ ही खो दिया । 
मिथ्या तन मन वाणी प्राणी, रज्जब भजै न राम । 
सौंज१ शिरोमणी मिनखा देही, बाद२ गमी वे काम ॥१८०॥ 
हे प्राणी ! यह सुन्दर शरीर, मन और मधुर वाणी मिथ्या है, राम का भजन क्यों नहीं करता ? राम की प्राप्ति के लिये मनुष्य देह रूप सामग्री१ सर्व शिरोमणी मानी गई है, वह व्यर्थ२ बिना काम खोई जा रही है सावधान हो । 
(क्रमशः)

बुधवार, 4 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१७३-७६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*आपा पर सब दूर कर, राम नाम रस लाग ।*
*दादू अवसर जात है, जाग सकै तो जाग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ चितावणी का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
सुर नर देवी देवता, सूता स्वप्ने माँहिं । 
तो रज्जब रामति१ रचै२, सो जागै कोउ नाँहिं ॥१७३॥ 
देवता, नर, ग्राम देवी - देवता आदि सभी मोह निद्रा में सोये हुये स्वप्न देख रहे हैं । जो संसार भ्रमण१ वा क्रीड़ा१ में अनुरक्त२ है, उसमें कोई भी नहीं जाग सकता । 
गुदड़ी ज्यों गृह१ के मिले, तिन विछुरत क्या बेर । 
रज्जब संतति२ शक्ति३ की, हटवारे दिशि हेर४ ॥१७४॥ 
गुदड़ी के बाजार के समान घर१ वालों का मिलन है, जैसे वह बाजार सांयकाल बिखर जाता है, वैसे ही घरवालों को बिखेरते क्या देर लगेगी । हटवाड़े के बाजार की ओर देखो४, जैसे वहां की मायिक३ वस्तुयें इधर उधर हो जाती है वैसे ही संतान२ इधर उधर हो जाती है, सदा साथ नहीं रहती । 
रज्जब रज घर वास तन, शिशु रामति१ संसार । 
सो मंदिर२ रचि मेटतों, कहो कितीइक बार ॥१७५॥ 
जैसे रज कणों के बने हुये घर में अस्थायी निवास होता है, वैसे ही इस शरीर में अस्थायी निवास है । यह संसार बच्चों के बनाये हुये क्रीड़ा१ गृहों के समान है । उन खेलने के लिये बनाये हुये घरों२ को बनाते बिगाड़ते कहो, कितनीक देर लगती है ? वैसे ही तुम्हारे संसार को बिगाड़ते, कहो कितनीक देर लगती है ? वैसे ही तुम्हारे संसार को बिगड़ते क्या देर लगेगी ? 
जन रज्जब रजु सर्प जग, यूं जाणों संसार । 
तिनहीं न शंका विष चढै, औषधि परम विचार ॥१७६॥ 
रज्जब रज्जु सर्प के समान मिथ्या है, रस्सी के सर्प का विष नहीं चढता, वैसे ही संसार को मिथ्या जानते हैं, उन्हें संसार के विषय-विष चढने की शंका नहीं होती, उनके पास ब्रह्म विचार रूप परम औषधि होती है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 3 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१६९-७२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*जे नांही सो देखिये, सूता सपने माँहि ।*
*दादू झूठा ह्वै गया, जागे तो कुछ नांहि ॥*
*यहु सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ ।*
*दादू चिलका देखि कर, सत कर जाना सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
राम बिना सब झूठ है, मृग तृष्णा का रूप । 
रज्जब धावै नीर को, जहाँ जाय तहं धूप ॥१६९॥ 
राम को छोड़कर सब मृग तृष्णा के जल के समान मिथ्या है, जैसे मृग, मृगतृष्णा के जल को पान करने के लिये दौड़ते हैं किन्तु जहाँ जाते हैं, वहाँ ही सूर्य की धूप ही मिलती है जल नहीं । वैसे ही प्राणी सुख के लिये दौड़ता है किन्तु सुख न मिलकर दु:ख ही मिलता है । 
शीतकोट१ अरु भडलिका२, तीजे स्वप्ना सैन३ । 
रज्जब यूं संसार है, नहीं सुदीसै ऐन४ ॥१७०॥ 
गंधर्व नगर१, भोडल में चाँदी२ और तीसरा स्वप्न ये तीनों प्रत्यक्ष दीखते तो हैं किन्तु होते नहीं, वैसे ही संत ने संसार के विषय में संकेत४ किया है कि - संसार प्रत्यक्ष३ दीखता है किन्तु है नहीं । 
रज्जब बादल बुदबुदे, तीजे जल के झाग । 
चतुर्खानि चखि१ देखिये, है नाँहीं भ्रम भाग ॥१७१॥ 
बादल, बुदबुदे और जल के झाग ये तीनों अल्प समय ही दीखते हैं स्थायी नहीं हैं, वैसे ही जरायुज अंडज, स्वेदज, उदभिज, यह चार खानिरूप संसार भी अज्ञान काल में ही नेत्रों१ से भासता है, सत्य नहीं है, ज्ञान होते ही हमारा भ्रम दूर हो गया है । वैसे ही ज्ञान होने पर सबका भ्रम भाग जाता है । 
रज्जब स्वप्ना शक्ति१ सैन२, मन मिथ्या देखै सु मैन३ । 
जाग देखि दीसै सो नाँहीं, रे मन मूरख समझी माँहीं ॥१७२॥ 
अरे मूर्ख मन ! तू संत-शास्त्रों के संकेत२ को अपने भीतर समझ । यह मायिक१ सुख स्वप्न में दीखने वाले काम३-सुख के समान मिथ्या है । जैसे जगकर देखने पर स्वप्न - सुख सत्य नहीं दीखता, वैसे ही ब्रह्म-ज्ञान होने पर जाग्रत का मायिक सुख भी सत्य नहीं भासता । 
(क्रमशः)

सोमवार, 2 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१६५-६८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*साहिब है पर हम नहीं, सब जग आवै जाइ ।*
*दादू सपना देखिये, जागत गया बिलाइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
=============== 
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
मनुष्य देह दामिनि१ दमक, वेगावेगि२ सु जाय । 
रज्जब देखो हरि दरश, ढीला३ ढील४ न लाय ॥१६५॥ 
मनुष्य देह बिजली१ की चमक के समान शीघ्रातिशीघ्र२ जाने वाला है । अत: शीघ्र ही हरि - दर्शन करने का साधन कर, हे आलसी३ ! देर४ मत लगा । 
तन धन गृह गाफिल१ असत्य, ज्यों सु सलिल२ के झाग । 
दल३ बादल सब झूठ है, रज्जब परिहर४ राग ॥१६६॥ 
अरे असावधान१ ! शरीर धन घर ये सब जल३ के झागों के समान असत्य हैं और बादलों की घटा के समान भारी सेना४ भी मिथ्या है, इन सबका राग त्याग५ कर प्रभु से प्रेम कर । 
रज्जब मृग जल माँड१ सब, मानहु मिथ्या जग्ग२ । 
देखन को दरियाव है, तहां न पाणी नग्ग३ ॥१६७॥ 
यह ब्रह्माण्ड१ मय सब जगत्२ मृग तृष्णा के जल के समान मिथ्या है, देखने में तो मृग तृष्णा का दरियाव दीखता है किन्तु वहाँ की भूमि सर्वथा नंगी३ होती है, जल की बिन्दु भी नहीं होती, वैसे ही संसार दीखने मात्र का है । 
राम बिना सब झूठ है, ज्यों स्वपने सुख होय । 
रज्जब जागे चलि गया, कछू न देखे जोय ॥१६८॥ 
राम को छोड़कर जैसे स्वप्न मिथ्या होता है, वैसे ही सब मिथ्या है । देख स्वप्न का सुख जगने पर चला जाता है, कुछ भी नहीं रहता, वैसे ही ब्रह्म ज्ञान रूप जाग्रत आते ही, यह संसार राम रूप ही भासता है, राम से भिन्न कुछ भी नहीं भासता । 
(क्रमशः)

रविवार, 1 सितंबर 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१६१-६४)* =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*जाग रे सब रैण बिहांणी,* 
*जाइ जन्म अंजलि को पाणी ॥*
*घड़ी घड़ी घड़ियाल बजावै,* 
*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै ॥*
*सूरज चंद कहैं समझाइ,* 
*दिन दिन आयु घटती जाइ ॥*
*सरवर पाणी तरवर छाया,* 
*निशिदिन काल गिरासै काया ॥*
*हंस बटाऊ प्राण पयाना,* 
*दादू आतम राम न जाना ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ पद. १५६)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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सब जग आता देखिये, रहता कोई नाँहिं ।
जन रज्जब जगदीश भज, समझ देखि मन माँहिं ॥१६१॥
तू विचार करके मन में देख, संपूर्ण जगत् चलता हुआ देखा जाता है, स्थिर कोई भी नहीं है अत: जगदीश्वर का भजन कर ।
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जल तरंग के जीवने, गाफिल१ कहा४ गंवार२ ।
पीछे ही पछिताहुगे, रज्जब राम संभार३ ॥१६२॥
हे मूर्ख२ ! जल तरंग के समान क्षणिक जीवन में भी असावधान१ क्यों४ हो रहा है ? शीघ्र ही राम का भजन३ कर, नहीं तो पीछे पश्चाताप ही करना होगा ।
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प्राण१ पचन२ ह्वै पलक में, छिन माँहिं चलि जाय ।
रज्जब सू५ समयू३ समझ, बहिला४ बार न लाय ॥१६३॥
प्राणी१ पलक में व्यथित२ होता है, क्षण भर में चला जाता है, मनुष्य देह का समय३ बड़ा सुन्दर५ है, यह समझ कर हे वहिर्मुख५ ! वा हे बहिरा४ ! प्रभु में भजन करने में देर मत लगा ।
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पाणी पाणि१न ठाहरै, प्राण पिंड यूं जाणि ।
तो परमारथ पाय जल, बाज कही निज छाणि२ ॥१६४॥
हाथों१ की अंजली में जल नहीं ठहरता, वैसे ही प्राणी शरीर में नहीं ठहरता । अंजली में जल भरते रहें तो जल ठहरता रहेगा, वैसे ही परमार्थ - जल पिलाते रहने से ब्रह्मरूप होकर स्थिर रहेगा । मैने विचार२ करके यह निजी बात कही है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 31 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१५७-६०)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*दादू कहै-*
*उठ रे प्राणी जाग जीव, अपना सजन संभाल ।*
*गाफिल नींद न कीजिये, आइ पहुंता काल ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ काल का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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रोग रहित मिनखा जनम, हरिसिद्धि१ घर ठाट । 
ता पर राम न सुमरिये, तो रज्जब भूल निराट२ ॥१५७॥
मनुष्य शरीर रोग रहित है, घर में लक्ष्मी१ का ठाट है, इतना होने पर भी राम का स्मरण नहीं करता है तो बड़ी२ ही भूल करता है ।
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चित्राम१ सकल बाजी चिहर२, भोला देख न भूल ।
बिच बाजीगर सत्य है, सो पकड़ी मन मूल ॥१५८॥
ईश्वर रूप बाजीगर की संसार रूप बाजी की रौनक२ चित्र१ के समान है, हे भोले जीव ! इसे देखकर भुलावे में मत पड़, इसके बीच में ईश्वर रूप बाजीगर सत्य है, उसी अपने मूल कारण को पकड़ अर्थात उसका भजन कर । 
यह ठग बाजी ठग्ग की, ठग्या सकल संसार । 
तू रज्जब देखै हि जनि, जे न ठगावण हार ॥१५९॥ 
यह माया की ठगबाजी है, इसने सब संसार को ठगा है, यदि तू ठगाने वाला नहीं है तो इसकी और देख ही मत । 
रज्जब अज्जब काम यहु, हरि सुमरो हित१ लाय । 
उलझ न अलि२ अल३ आसिरै, जो दीसै सो जाय ॥१६०॥ 
हरि से प्रेम१ लगाकर हरि का भजन कर, यही अदभुत कार्य है । हे जीव रूप भ्रमर२, माया३ के आश्रय मत फँस, जो भी मायिक संसार दीखता है सो सब नष्ट हो जायगा । 
(क्रमशः)

शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१५३-५६)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*राम बिना किस काम का, नहीं कौड़ी का जीव ।*
*सांई सरीखा ह्वै गया, दादू परसै पीव ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
विभूति१ भूत२ बहु विधि बध्या, चकहु३ चक्कवै४ राज । 
भजन विमुख विद्या सभी, सो रज्जब किहिं काज ॥१५३॥ 
ऐश्वर्य१ के द्वारा प्राणी२ बहुत प्रकार से बढ़ता है तो पृथ्वी३ का चक्रवर्ती४ राजा हो जाता है किन्तु प्रभु के भजन बिना वह राज्य तथा सभी प्रकार की विद्यायें किस काम की हैं ? 
बुद्धि विद्या रु विभूति१ यहु, हय२ गय३ हेम४ अपार । 
जन रज्जब बे काम के, जे भजै न सिरजन हार ॥१५४॥ 
बुद्धि, विद्या, ऐश्वर्य१, अश्व२, हाथी३, सुवर्ण४ ये सब अपार हो तो भी व्यर्थ है यदि हरि भजन नहीं करे तो । 
रज्जब रिधि१ जीव को दई२, राम रहम३ कर राग४ ।
पटा लहै परि पीठ दे , मस्तक बड़े अभाग ॥१५५॥
राम ने दया३ और प्रेम४ करके जीव को संपति दी२ है, यह संपति१ का पटा प्रभु से लेकर प्रभु को पीठ देता है भजन नहीं करता तो समझो इसके मस्तक पर दुर्भाग्य ही आ बैठा है ।
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रज्जब उल्लू आदमी, रारि१ मयी रिधि२ जाण ।
प्रकट प्रभाकर पुण्य दिशि, जे पलक न खोलै प्राण३ ॥१५६॥
मनुष्य उल्लू है, संपत्ति२ उसके नेत्र१ है, ऐसा जानो ! सूर्य के उदय होने पर उल्लू सूर्य की और अपने नैत्र की पलक नहीं खोलता, वैसे ही कृपाण प्राणी३ पुण्य की ओर अपनी संपत्ति को नहीं लगाता । 
(क्रमशः)

गुरुवार, 29 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१४९-५२)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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मन उनमनी लागा रहै, माया मध्य न जाय । 
ब्रह्म अग्नि में जारै बीज हिं, बहुरि उगै नहिं आय ॥१४९॥
मन सहज समाधि में लगा रहे, माया में नहीं जाय, ब्रह्म ज्ञानाग्नि में अज्ञान रूप बीज को जला दे, जिससे पुन: नहीं उगे अर्थात जन्म लेकर संसार में न आवे । 
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रज्जब राखै मीच मन, हरि को भूलै नाँहिं । 
यहु दीक्षा उपदेश यहु, साधों के मत माँहिं ॥१५०॥
मृत्यु को मन में याद रक्खे, हरि का स्मरण न भूले, संतों के सिद्धान्त में यही गुरु दीक्षा है और यही संत - शास्त्रों का उपदेश है । 
राग करोहु रंकार१ से, अलिफ२ अराधो३ मन्न४ । 
रे रज्जब संसार में, और न ऐसा धन्न५ ॥१५१॥ 
राम मंत्र के बीज "राँ१" से प्रेम कर, संसार के आदि२ स्वरूप राम की मन४ से उपासना३ कर, हे प्राणी ! संसार में ऐसा धन५ अन्य कोई भी नहीं है । 
बहु विद्या रु विभूति१ बहु, बहु सुन्दर सुकुलीन । 
रज्जब चहुं२ में चूक३ यहु, सुमिरण सुकृत हीन ॥१५२॥ 
विद्या वाले विद्धान बहुत हैं, ऐश्वर्य१ वाले धनी बहुत हैं, सुन्दर बहुत हैं और सुकुलीन भी बहुत हैं, किन्तु हरि - स्मरण और पुण्य कर्म से हीन हैं वा हरि - स्मरण रूप सुकृत से हीन हैं तो वो उक्त चारों२ में ही भूल३ हैं । 
(क्रमशः)

बुधवार, 28 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१४५-४८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*आज्ञा मांहैं बैसै ऊठै, आज्ञा आवै जाइ ।*
*आज्ञा मांहैं लेवै देवै, आज्ञा पहरै खाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
गुरु गोविन्द रु साधु की, होय चरण रज रैन१ । 
मन वच कर्म कारज सरैं२, सुन रज्जब निज बैन ॥१४५॥ 
अरे ! हमारे निजी वचन सुन ! यदि प्राणी मन, वचन, कर्म से गुरु, गोविन्द और संतों की चरण रज का कण१ होकर रहे तो उसके सभी कार्य सिद्ध२ हो जाते हैं । 
रज्जब रज हो तो संत की, जा मुख निकसै राम । 
साधू सेती मिल रहो, तो सरसीं सब काम ॥१४६॥ 
जिसके मुख से निरंतर राम का नाम उच्चारण होता है, उस संत के चरणों की रज हो, संतों के विचारों से मिलकर रहोगे तो सभी कार्य सिद्ध हो जाँयेंगे । 
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रज्जब रहिये रजा में, साधु शब्द शिर धार । 
मन वच कर्म कारज सरैं, कदै न आवै हार ॥१४७॥
संतों की आज्ञा में रहो, उनके शब्दों को मन, वचन कर्म से स्वीकार करोगे तो तुम्हारे सभी कार्य सिद्ध हो जायेंगे, और कभी भी कार्य की अपूर्णता रूप हार का अवसर नहीं आयगा । 
दास दमामे१ देव२ के, वाणी बंब३ सु होय । 
रज्जब बाजै४ हरि हुकम, भूल पड़ो मत कोय ॥१४८॥
भक्त - संत ब्रह्म२ के नगाड़े १ हैं, उनकी वाणी ही नगाड़े की ध्वनि३ है, ये हरि की आज्ञा से ही बजते४ हैं अर्थात बोलते हैं । अत: इनके उपदेश को छोड़कर भूल से कोई भी कुमार्ग में मत पड़ो ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१४१-४४)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
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मनुष्य देह माया सहित, पाई पूरण भाग । 
तो रज्जब गुरु साधु की, सेवा दृढ़ करि लाग ॥१४१॥ 
पूर्ण भाग्यवश धन के सहित मनुष्य देह प्राप्त हुआ है तो सदगुरु और संतों की सेवा में दृढ़ प्रेम करने लग । 
सेवक कन१ सेवा शक्ति२, घर आये गुरु साध । 
सु समय सुकृत लेहु करि, जे है बुद्धि अगाध ॥१४२॥ 
गुरु और संत घर आवें तो गृहस्थ सेवक के पास१ धन२ रूप ही सेवा है अर्थात धन के द्वारा वह गुरु और संतों की सेवा करे । यदि तू अपार बुद्धिमान् है तो यह मनुष्य शरीर का समय सबसे अच्छा है, इसमें पुण्य कार्य कर ले । 
रज्जब दोस्त जीव के, सांई सदगुरु साध । 
यहु शिक्षा सुन सेय१ सो२, जे है बुद्धि अगाध ॥१४३॥ 
जीव के सच्चे मित्र परमात्मा, सदगुरु और संत हैं, यदि तू अगाध बुद्धि वाला है तो यह शिक्षा सुनकर उक्त तीनों२ की सेवा१ कर । 
हरि भज तौं१, तज तौं विषय, करतौं साधू सेव । 
रज्जब इहिं रह२ चालतौं, मानुष सौं ह्वै देव३ ॥१४४॥ 
तूं१ विषयों के राग को त्याग के संतों की सेवा करते हुये हरि-भजन कर, इस परमार्थ मार्ग२ में चलने से तू मनुष्य से ब्रह्म३ बन जायगा ।
(क्रमशः)

सोमवार, 26 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१३७-४०)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।*
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
कपट करहु सौं डारिदे, नेकी निर्मल साहि१ । 
रज्जब दुविधा दूर कर, हाथ हरी को बाहि२ ॥१३७॥ 
कपट को हाथों से पटक दे, निर्मल भलाई का साहुकार१ बन, दुविधा को दूर करके वृत्ति रूप हाथ हरि की और बढ़ा२ । 
भांति भांति का गर्व तज, गुरु मुख होहु गरीब । 
रज्जब पावै पीर१ को, निर्मल नेक२ नसीब३ ॥१३८॥ 
जाति, गुण, धन, रूप आदि नाना भांति का गर्व त्याग दे, गरीब बनकर गुरुमुख हो । निर्मल और अच्छे२ भाग्य३ वाला ही सिद्ध१ गुरु को प्राप्त होता है । 
तन त्रिभुवन मन में भर्या, सो काढै सब छान१ । 
रज्जब राखै राम तहाँ, काम किया तिहिं प्रान२ ॥१३९॥ 
शरीर की आसक्ति और त्रिभुवन के भोगों का राग मन में भरा है, उस सबको विवेक द्वारा मन से अलग१ करके निकाले और मन को जहाँ राम का साक्षात्कार होता है वहाँ समाधि में रक्खे तो जानना चाहिये, उस प्राणी२ ने अपने करने योग्य कार्य किया है । 
भजने को भगवंत है, तजने को पर ताति१ । 
करणे को उपकार कछू, इहिं अवसर इहिं गाति२ ॥१४०॥ 
इस मनुष्य शरीर१ के इस समय में भजन करने योग्य भगवान हैं, त्यागने योग्य दूसरों की बुराई२ है, करने योग्य कुछ है तो परोपकार करना है, सो ये तीन काम अवश्य करने चाहिये । 
(क्रमशः)

रविवार, 25 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१३३-३६)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*तन मन पवना पंच गह, निरंजन ल्यौ लाइ ।*
*जहँ आत्म तहँ परमात्मा, दादू सहज समाइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ लै का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
रज्जब भजिये राम को, तजिये काम रु क्रोध । 
निर्मल को निर्मल मिलै, योही निज परमोध ॥१३३॥ 
राम का भजन करो और काम क्रोधादि विकारों को त्यागो, इस प्रकार जीवात्मा निर्मल होकर निर्मल ब्रह्म में मिल जायगा, यही निजी उपदेश है । 
औषधि अविगत१ नाम ले, पछ२ परिहरै३ विकार । 
रज्जब योगी युगति सौं, काटै रोग अपार ॥१३४॥ 
परमात्मा१ का नाम चिन्तन रूप औषधि सेवन करते हैं और विकारों का त्यागना३ रूप पथ्य२ पालन करते हैं, इस युक्ति से ही योगीजन जन्मादि रूप अपार रोग को नष्ट करते हैं । 
रज्जब भजिये राम को, तजिये यहु संसार । 
ऐसी विधि कारज सरै१, भेटै सिरजन हार ॥१३५॥ 
इस संसार के राग को छोड़कर राम का भजन करो, इस प्रकार भजन करने से परमात्मा मिलकर तुम्हारा मुक्ति रूप कार्य बन१ जायेगा । 
चित्ति१ चेतन२ ह्वै देखि मन, मिनखा जन्म न हार । 
जन रज्जब जगीदश भज, उलटा अनल विचार ॥१३६॥ 
हे मन ! चित्त में१ सावधान२ होकर देख, मनुष्य जन्म व्यर्थ मत खो, जगदीश्वर का भजन करके जैसे अनल पक्षी बदलकर आकाश को जाता है, वैसे ही संसार को पीठ देकर परब्रह्म के स्वरूप में जा । 
(क्रमशः)

शनिवार, 24 अगस्त 2019

= *उपदेश चेतावनी का अंग ८२(१२९-३२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷

🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷 
*सांसैं सांस संभालतां, इक दिन मिलि है आइ ।* 
*सुमिरण पैंडा सहज का, सतगुरु दिया बताइ ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Tapasvi Ram Gopal
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*उपदेश चेतावनी का अंग ८२*
रज्जब कुदरत१ देखि खुदाय की, खालिक२ कीजे याद । 
श्वास शब्द लागै अरथ, जन्म न जाई बाद३ ॥१२९॥ 
ईश्वर की शक्ति१ देखकर सृष्टिकर्त्ता ईश्वर२ का स्मरण कर, जिससे तेरे श्वास और शब्द भगवान के अर्थ लग जाय और तेरा जन्म व्यर्थ३ न जाकर सफल हो जाय । 
रज्जब अज्जब अकलि यहु, साहिब कीजे याद । 
सो साहिब हि विसार तों, विविध बुद्धि सो बाद ॥१३०॥ 
प्रभु के स्मरण करने की बुद्धि होने से ही यह मनुष्य अदभुत बुद्धि वाला कहलाता है, उसे प्रभु को भूलने पर तो विविध प्रकार की बुद्धि हो तो वह मनुष्य अपना जन्म व्यर्थ ही खोता है । 
माया तज ब्रह्माहिं भजे, येते को सब ज्ञान । 
रज्जब मूरख चतुर ह्वै, मन उनमनि लै सान ॥१३१॥ 
माया को त्यागकर ब्रह्म का भजन करे, इतने कर्म के लिये ही सब प्रकार के ज्ञान हैं । मन को लय योग द्वारा समाधि में ले जाकर प्रभु स्वरूप में मिलाने से मूर्ख भी परमार्थ में प्रवीण हो जाता है । 
मन वच कर्म त्रिशुद्ध ह्वै, माया तज भज राम । 
जन रज्जब संसार में, एता ही है काम ॥१३२॥ 
संसार में तेरे लिये इतना ही काम है कि माया को त्याग कर राम का भजन कर इससे तन, वचन और कर्म शुद्ध हो जायेंगे और तू शुद्ध ब्रह्म में मिल जायगा । 
(क्रमशः)