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*आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।*
*दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥*
*पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।*
*जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*ज्ञानी और विज्ञानी । विचार कब तक ?*
पण्डितजी ने वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया है । सदा ज्ञान की चर्चा में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर बैठे हुए उन्हें देख रहे हैं और कहानियों के रूप में अनेक प्रकार के उपदेश दे रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - वेदादि बहुत से शास्त्र हैं, परन्तु साधना किये बिना – तपस्या किये बिना - कोई ईश्वर को पा नहीं सकता । उनके दर्शन न तो षड्दर्शनों में होते है और न आगम, निगम और न तन्त्रसार में ही ।
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“शास्त्रों में जो कुछ लिखा है, उसे समझकर उसी के अनुसार काम करना चाहिए । किसी ने एक चिट्ठी खो दी थी । उसने चिट्ठी कहाँ रख दी यह उसे याद न रही । तब वह दिया लेकर खोजने लगा । दो तीन लोगों ने मिलकर खोजा, तब वह चिट्ठी मिली । उसमें लिखा था, पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेजना । पढ़कर उसने फिर उस चिट्ठी को फेंक दिया । तब फिर चिट्ठी की कोई जरूरत न थी । पाँच सेर सन्देश और एक धोती के भेजने ही से मतलब था ।
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“पढ़ने की अपेक्षा सुनना अच्छा है, सुनने से देखना अच्छा है । श्रीगुरु-मुख से था साधु के मुख से सुनने पर धारणा अच्छी होती है, क्योंकि फिर शास्त्रों के असार-भाग के सोचने की आवश्यकता नहीं रहती । हनुमान ने कहा था, 'भाई, मैं तिथि और नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करता रहता हूँ ।'
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“सुनने की अपेक्षा देखना और अच्छा है । देखने पर सब सन्देह मिट जाते हैं । शास्त्रों में तो बहुत सी बातें हैं, परन्तु यदि ईश्वर के दर्शन न हुए - उनके चरणकमलों में भक्ति न हुई - चित्त शुद्ध न हुआ तो सब वृथा है । पंचांग में लिखा है, वर्षा बीस बिस्वे की होगी, परन्तु पंचांग दबाने से कहीं एक बूँद भी पानी नहीं गिरता । एक बूंद गिरे, सो भी नहीं ।
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“शास्त्रादि लेकर विचार कब तक के लिए हैं ? - जब तक ईश्वर के दर्शन न हों । भौंरा कब तक गुँजार करता है ? - जब तक वह फूल पर बैठता नहीं । फूल पर बैठकर जब वह मधु पीने लगता है, तब फिर गुनगुनाता नहीं ।
"परन्तु एक बात है, ईश्वर के दर्शनों के बाद भी बातचीत हो सकती है; वह बात ईश्वर के ही आनन्द की बात होगी - जैसे मतवाले का 'जय देवी' बोलना, और भौंरा फूल पर बैठकर जैसे अर्धस्फुट शब्दों में गुंजार करता है ।
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"ज्ञानी ‘नेति नेति’ विचार करता है । इस तरह विचार करते हुए जहाँ उसे आनन्द की प्राप्ति होती है, वही ब्रह्म है ।
“ज्ञानी का स्वभाव कैसा है, जानते हो ? ज्ञानी कानून के अनुसार चलता है ।
"मुझे चानक ले गये थे । वहाँ मैने कई साधुओं को देखा । उनमें कोई कोई कपड़ा सी रहे थे । (सब हँसते हैं ।) मेरे जाने पर वह सब अलग रख दिया । फिर पैर पर पैर चढ़ाकर मुझसे बातचीत करने लगे । (सब हँसते हैं ।)
"परन्तु ईश्वर की बात बिना पूछे ज्ञानी उस सम्बन्ध में खुद कुछ नहीं बोलते । पहले वे पूछेंगे, इस समय कैसे हो ? - घरवाले अब कैसे हैं ?
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"परन्तु विज्ञानी का स्वभाव और ही । उसके स्वभाव में ढिलाई रहती है । कभी देखा, धोती कहीं, खुली हुई है । कभी बगल में दबी है - बच्चे की तरह ।
"ईश्वर हैं, यह जिसने जान लिया है, वह ज्ञानी है । लकड़ी में अवश्य ही आग है, यह जिसने जाना है, वह ज्ञानी है; परन्तु लकड़ी जलाकर भोजन पकाना, भरपेट खाना, यह जिसे आता है वह विज्ञानी है ।
"विज्ञानी के आठों पाश खुल जाते हैं । उनमें कामक्रोधादि का आकार मात्र रह जाता है ।"
(क्रमशः)