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शनिवार, 29 मई 2021

*ज्ञानी और विज्ञानी । विचार कब तक ?*

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*आंगण एक कलाल के, मतवाला रस मांहि ।*
*दादू देख्या नैन भर, ताके दुविधा नांहि ॥*
*पीवत चेतन जब लगै, तब लग लेवै आइ ।*
*जब माता दादू प्रेम रस, तब काहे को जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*ज्ञानी और विज्ञानी । विचार कब तक ?*
पण्डितजी ने वेद और शास्त्रों का अध्ययन किया है । सदा ज्ञान की चर्चा में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर बैठे हुए उन्हें देख रहे हैं और कहानियों के रूप में अनेक प्रकार के उपदेश दे रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - वेदादि बहुत से शास्त्र हैं, परन्तु साधना किये बिना – तपस्या किये बिना - कोई ईश्वर को पा नहीं सकता । उनके दर्शन न तो षड्दर्शनों में होते है और न आगम, निगम और न तन्त्रसार में ही ।
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“शास्त्रों में जो कुछ लिखा है, उसे समझकर उसी के अनुसार काम करना चाहिए । किसी ने एक चिट्ठी खो दी थी । उसने चिट्ठी कहाँ रख दी यह उसे याद न रही । तब वह दिया लेकर खोजने लगा । दो तीन लोगों ने मिलकर खोजा, तब वह चिट्ठी मिली । उसमें लिखा था, पाँच सेर सन्देश और एक धोती भेजना । पढ़कर उसने फिर उस चिट्ठी को फेंक दिया । तब फिर चिट्ठी की कोई जरूरत न थी । पाँच सेर सन्देश और एक धोती के भेजने ही से मतलब था ।
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“पढ़ने की अपेक्षा सुनना अच्छा है, सुनने से देखना अच्छा है । श्रीगुरु-मुख से था साधु के मुख से सुनने पर धारणा अच्छी होती है, क्योंकि फिर शास्त्रों के असार-भाग के सोचने की आवश्यकता नहीं रहती । हनुमान ने कहा था, 'भाई, मैं तिथि और नक्षत्र यह सब कुछ नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करता रहता हूँ ।'
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“सुनने की अपेक्षा देखना और अच्छा है । देखने पर सब सन्देह मिट जाते हैं । शास्त्रों में तो बहुत सी बातें हैं, परन्तु यदि ईश्वर के दर्शन न हुए - उनके चरणकमलों में भक्ति न हुई - चित्त शुद्ध न हुआ तो सब वृथा है । पंचांग में लिखा है, वर्षा बीस बिस्वे की होगी, परन्तु पंचांग दबाने से कहीं एक बूँद भी पानी नहीं गिरता । एक बूंद गिरे, सो भी नहीं ।
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“शास्त्रादि लेकर विचार कब तक के लिए हैं ? - जब तक ईश्वर के दर्शन न हों । भौंरा कब तक गुँजार करता है ? - जब तक वह फूल पर बैठता नहीं । फूल पर बैठकर जब वह मधु पीने लगता है, तब फिर गुनगुनाता नहीं ।
"परन्तु एक बात है, ईश्वर के दर्शनों के बाद भी बातचीत हो सकती है; वह बात ईश्वर के ही आनन्द की बात होगी - जैसे मतवाले का 'जय देवी' बोलना, और भौंरा फूल पर बैठकर जैसे अर्धस्फुट शब्दों में गुंजार करता है ।
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"ज्ञानी ‘नेति नेति’ विचार करता है । इस तरह विचार करते हुए जहाँ उसे आनन्द की प्राप्ति होती है, वही ब्रह्म है ।
“ज्ञानी का स्वभाव कैसा है, जानते हो ? ज्ञानी कानून के अनुसार चलता है ।
"मुझे चानक ले गये थे । वहाँ मैने कई साधुओं को देखा । उनमें कोई कोई कपड़ा सी रहे थे । (सब हँसते हैं ।) मेरे जाने पर वह सब अलग रख दिया । फिर पैर पर पैर चढ़ाकर मुझसे बातचीत करने लगे । (सब हँसते हैं ।)
"परन्तु ईश्वर की बात बिना पूछे ज्ञानी उस सम्बन्ध में खुद कुछ नहीं बोलते । पहले वे पूछेंगे, इस समय कैसे हो ? - घरवाले अब कैसे हैं ?
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"परन्तु विज्ञानी का स्वभाव और ही । उसके स्वभाव में ढिलाई रहती है । कभी देखा, धोती कहीं, खुली हुई है । कभी बगल में दबी है - बच्चे की तरह ।
"ईश्वर हैं, यह जिसने जान लिया है, वह ज्ञानी है । लकड़ी में अवश्य ही आग है, यह जिसने जाना है, वह ज्ञानी है; परन्तु लकड़ी जलाकर भोजन पकाना, भरपेट खाना, यह जिसे आता है वह विज्ञानी है ।
"विज्ञानी के आठों पाश खुल जाते हैं । उनमें कामक्रोधादि का आकार मात्र रह जाता है ।"
(क्रमशः)

शुक्रवार, 28 मई 2021

*पण्डित शशधर को उपदेश*

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*तहँ दिन दिन अति आनन्द होइ,*
*प्रेम पिलावै आप सोइ ।*
*संगियन सेती रमूं रास,*
*तहँ पूजा अर्चा चरण पास ॥ *
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३६९)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ८५*
*पण्डित शशधर को उपदेश*
(१)
*काली ही ब्रह्म है । ब्रह्म और शक्ति अभेद*
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श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ अपने कमरे में जमीन पर बैठे हैं । पास ही शशधर पण्डित हैं । जमीन पर चटाई बिछी है, उस पर श्रीरामकृष्ण, पण्डित शशधर तथा कई भक्त बैठे हैं । कुछ लोग खाली जमीन पर ही बैठे हैं । सुरेन्द्र, बाबूराम, मास्टर, हरीश, लाटू, हाजरा, मणि मल्लिक आदि भक्त भी हैं । श्रीरामकृष्ण पण्डित पद्मलोचन की बात कह रहे हैं । पद्मलोचन बर्दवान महाराज के सभापण्डित थे । दिन का तीसरा पहर है, चार बजे का समय होगा ।
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आज सोमवार है, ३० जून, १८८४ । छः दिन हो गये, जिस दिन रथयात्रा थी, उस दिन कलकत्ते में पण्डित शशधर के साथ श्रीरामकृष्ण की बातचीत हुई थी । आज पण्डितजी खुद आये हैं । साथ में श्रीयुत भूधर चट्टोपाध्याय और उनके बड़े भाई हैं । कलकत्ते में इन्हीं के मकान पर पण्डित शशधरजी रहते हैं । पण्डितजी ज्ञानमार्गी हैं ।
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श्रीरामकृष्ण उन्हें समझा रहे हैं - "नित्यता जिनकी है, लीला भी उन्हीं की है - जो अखण्ड सच्चिदानन्द हैं, उन्होंने लीला के लिए अनेक रूपों को धारण किया है ।" भगवत्प्रसंग करते करते श्रीरामकृष्ण बेहोश होते जा रहे हैं । पण्डितजी से कह रहे हैं – “भैया, ब्रह्म सुमेरुवत् अटल और अचल हैं, परन्तु जिसमें न हिलने का भाव है उसमें हिलने का भाव भी है ।"
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श्रीरामकृष्ण प्रेम और आनन्द से मस्त हो गये हैं । सुन्दर कण्ठ से गाने लगे । एक के बाद दूसरा, इस तरह कई गाने गाये ।
(गीतों का भाव) –
(१) कौन जानता है कि काली कैसी है ? षड्दर्शन भी उनके दर्शन नहीं पाते....।
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(२) मेरी माँ किसी ऐसी-वैसी स्त्री की लड़की नहीं है । उसका नाम लेकर महेश्वर हलाहल पीकर भी बच गये । उसके कटाक्षमात्र से सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं । अनन्त ब्रह्माण्डों को वह अपने पेट में डाली हुई है । उसके चरणों की शरण लेकर देवता संकट से उद्धार पाते हैं । देवों के देव महादेव उसके पैरों के नीचे लोटते हैं ।
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(३) मेरी माँ में यह इतना ही गुण नहीं है कि वह शिव की सती है, नहीं, काल के काल भी उसे हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं । नग्न होकर वह शत्रुओं का संहार करती हैं । महाकाल के हृदय में उसका वास है । अच्छा मन ! कहो तो सही, भला वह कैसी है जो अपने पति के हृदय में भी पाद-प्रहार करती है ! रामप्रसाद कहते हैं ! माता की लीलाएँ समस्त बन्धनों से परे हैं । मन ! सावधानी के साथ प्रयत्न करते रहो, इससे तुम्हारी मति शुद्ध हो जायगी ।
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(४) यह मैं सुरापान नहीं कर रहा हूँ, काली का नाम लेकर मैं सुधापान करता हूँ । वह सुधा मुझे ऐसी मस्त देती है कि लोग मुझे मतवाला कहते हैं । गुरु के दिये हुए बीज को लेकर, उसमें प्रवृत्ति का मसाला डाल, ज्ञानरूपी कलवार जब शराब खींचता है, तब मेरा मतवाला मन उसका पान करता है । यन्त्रों से भरे हुए मूल मन्त्र का शोधन करके वह 'तारा तारा' कहा करता है । रामप्रसाद कहता है, ऐसी सुरा के पीने से चतुर्वर्गों की प्राप्ति होती है ।
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(५) श्यामा-धन क्या कभी सब को थोड़े ही मिलता है ? बड़ी आफत है - यह नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों में प्राणों को सौंप देना शिव के लिए भी असाध्य है, तो साधारण जनों की बात ही क्या !
श्रीरामकृष्ण का भावावेश घट रहा है । गाना बन्द हो गया । वे थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे । फिर अपनी छोटी खाट पर जाकर बैठे । पण्डितजी गाना सुनकर मुग्ध हो गये । बड़े ही विनयस्वर में श्रीरामकृष्ण से कहा - क्या और गाना न होगा ?
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श्रीरामकृष्ण कुछ देर बाद फिर गाने लगे –
(१) श्यामा के चरणरूपी आकाश में मेरे मन की पतंग उड़ रही थी । पाप की हवा के झोंके से वह चक्कर खाकर गिर गयी.....।
(२) अब मुझे एक अच्छा भाव मिल गया है । यह भाव मैंने एक अच्छे भावुक से सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, उसी देश का एक आदमी मुझे मिला है । मैं दिन और रात को कुछ नहीं समझता, सन्ध्या को तो मैंने बन्ध्या बना डाला है ।
(३) तुम्हारे अभय चरणों में मैने प्राणों को समर्पण कर दिया है । अब मैंने यम की चिन्ता नही रखी, न मुझे अब उसका कोई भय ही है । अपनी शिर-शिखा में मैंने काली-नाम के महामन्त्र की ग्रन्थि लगा ली है । भव की हाट में देह बेचकर मैं श्रीदुर्गा नाम खरीद लाया हूँ ।
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'श्रीदुर्गा-नाम खरीद लाया हूँ,’ इस वाक्य को सुनकर पण्डितजी की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । श्रीरामकृष्ण फिर गा रहे हैं –
(१) मैंने अपने ह्रदय में काली-नाम के कल्पतरू को रोपित कर लिया है । अब की बार जब यमराज आयेंगे, तब उन्हें हृदय खोलकर दिखाऊँगा, इसीलिए बैठा हुआ हूँ । देह के भीतर छः दुर्जन हैं, उन्हें मैंने घर से निकाल दिया है । रामप्रसाद कहते हैं, श्रीदुर्गा का नाम लेकर मैंने पहले ही से यात्रारम्भ कर दिया है ।
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(२) मन ! अपने में ही रहना, किसी दूसरे के घर न जाना । जो कुछ तू चाहेगा, वह तुझे बैठे ही बैठे मिल जायगा । तू अपने अन्तःपुर में ही उसकी तलाश कर ।
श्रीरामकृष्ण गाकर बतला रहे हैं कि मुक्ति की अपेक्षा भक्ति बड़ी है ।
(गाना) "मुझे मुक्ति देते हुए कष्ट नहीं होता, परन्तु भक्ति देते बड़ी तकलीफ होती है । जिसे मेरी भक्ति मिलती है, वह सेवा का अधिकारी हो जाता है । फिर उसे कौन पा सकता है ! वह त्रिलोकजयी हो जाता है । शुद्धा भक्ति एकमात्र वृन्दावन में है, गोपियों के सिवा किसी दूसरे को उसका ज्ञान नहीं । भक्ति ही के कारण, नन्द के यहाँ, उन्हें पिता मानकर, मैं उनकी बाधाओं को अपने सिर लेता हूँ ।"
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 मई 2021

*संसार में किस प्रकार रहना चाहिए*

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*पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।*
*दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(७)
*संसार में किस प्रकार रहना चाहिए*
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श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ ईशान के घर लौटे । अभी सन्ध्या नहीं हुई । ईशान के नीचेवाले बैठकखाने में आकर बैठे । कोई कोई भक्त भी उपस्थित हैं । भागवती पण्डित, ईशान तथा उनके लड़के भी हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) – शशधर से मैंने कहा, पेड़ पर चढ़ने के पहले ही फल की आकांक्षा करने लगे ? - कुछ भजन साधन और करो, तब लोक-शिक्षा देना ।
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ईशान - सभी लोग सोचते हैं, मैं लोकशिक्षा दूँ । जुगनू सोचता है, संसार को प्रकाशित मैं कर रहा हूँ । इस पर किसी ने कहा भी था - 'ऐ जुगनू, क्या तुम भी संसार को प्रकाश दे सकते हो ? तुम तो अँधेरे को और भी प्रकट करते हो !'
श्रीरामकृष्ण - (जरा मुस्कराकर) - परन्तु निरे पण्डित ही नहीं हैं, कुछ विवेक और वैराग्य भी है ।
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भाटपाड़ा के भागवती पण्डित भी अब तक बैठे हुए हैं । उम्र ७०-७५ होगी । वे टकटकी लगाये रामकृष्ण को देख रहे हैं ।
भागवती पण्डित - (श्रीरामकृष्ण से) - आप महात्मा हैं ।
श्रीरामकृष्ण - यह बात आप नारद, शुकदेव, प्रह्लाद, इन सब के लिए कह सकते हैं । मैं तो आपके पुत्र के समान हूँ ।
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"परन्तु एक दृष्टि से कह सकते हैं । यह लिखा है कि भगवान से भक्त बड़ा है, क्योंकि भक्त भगवान को हृदय में लिये हुए घूमता है । भक्त के लिए भगवान ने कहा है, 'भक्त मुझे छोटा देखता है और अपने को बड़ा ।' यशोदा कृष्ण को बाँधने चली थीं । यशोदा को विश्वास था, मैं अगर कृष्ण की देख-रेख न करूँगी, तो और कौन करेगा ? कभी तो भगवान चुम्बक हैं और भक्त सुई - भगवान भक्त को खींच लेते हैं; और कभी भक्त चुम्बक और भगवान सुई, भक्त का इतना आकर्षण होता है कि उसके प्रेम को देख, मुग्ध होकर भगवान उसके पास खिंचे चले जाते हैं ।"
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर लौटनेवाले हैं । नीचे के बैठकखाने के दक्षिण ओर वाले बरामदे में आकर खड़े हुए हैं । ईशान आदि भक्तगण भी खड़े हैं । बातों ही बातों में श्रीरामकृष्ण ईशान को बहुत से उपदेश दे रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - संसार में रहकर जो उन्हें पुकारता है, वह वीर भक्त है । भगवान कहते हैं, जिसने संसार छोड़ दिया है, वह मुझे पुकारेगा ही, मेरी सेवा करेगा ही, उसकी इसमें बड़ाई क्या है ? वह अगर मुझे न पुकारे तो लोग उसे धिक्कारेंगे, पर जो संसार में रहकर भी मुझे पुकारता है, बीस मन का पत्थर हटाकर मुझे देखता है, वही धन्य है, वही बहादुर है, वही वीर है ।
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भागवती पण्डित - शास्त्रों में तो यही बात है - धर्मव्याध और पतिव्रता की कथा में तपस्वी ने सोचा था, मैंने कौए और बगुले को भस्म कर डाला है मेरा स्थान बड़ा ऊँचा है । वह पतिव्रता के घर गया था । पति पर उसकी इतनी भक्ति थी कि वह दिनरात उसी की सेवा किया करती थी । पति के घर आने पर पैर धोने के लिए उसे पानी देती, यहाँ तक कि अपने बालों से उसके पैर पोंछती थी । तपस्वी अतिथि होकर गये थे । भिक्षा मिलने में देर हो रही थी, इस पर चिल्लाकर कह उठे, तुम्हारा भला न होगा । पतिव्रता ने उसी समय भीतर से कहा, 'यह कौए और बगुले को भस्म करना थोड़े ही है । महाराज, जरा ठहरो, मैं स्वामी की सेवा कर लूँ, तब तुम्हारी भी पूजा करुँगी ।'
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“धर्मव्याघ के पास कोई ब्रह्मज्ञान के लिए गया था । व्याध पशुओं का मांस बेचता था, परन्तु पिता-माता को ईश्वर समझकर दिनरात उनकी सेवा करता था । जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान के लिए उसके पास गया था, वह तो उसे देखकर दंग रह गया - सोचने लगा, यह व्याध मांस बेचता है और संसारी मनुष्य है, यह भला मुझे क्या ब्रह्मज्ञान दे सकता है ? परन्तु वह व्याध पूर्ण ज्ञानी था ।"
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श्रीरामकृष्ण अब गाड़ी पर चढ़ेंगे । ईशान तथा अन्य भक्तगण पास ही खड़े हैं, उन्हें गाड़ी पर चढ़ा देने के लिए । श्रीरामकृष्ण फिर बातों में ईशान को उपदेश देने लगे –
“चींटी की तरह संसार में रहो । इस संसार में नित्य और अनित्य दोनों मिले हुए हैं । बालू के साथ शक्कर मिली हुई है । चींटी बनकर चीनी का भाग ले लेना ।
"जल और दूध एक साथ मिले हुए हैं । चिदानन्द-रस और विषय-रस हंस की तरह दूध का अंश लेकर जल का भाग छोड़ देना ।
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"पनडुब्बी चिड़िया की तरह रहो - परों में पानी लग जाय तो झाड़कर निकाल देना । इसी प्रकार 'पांकाल' मछली की तरह रहना । वह रहती है कीच में, परन्तु उसकी देह बिलकुल साफ रहती है ।
“गोलमाल में 'माल' है, 'गोल' निकालकर 'माल' ले लेना ।”
श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।
(क्रमशः)

बुधवार, 26 मई 2021

*रावण, तू पूर्ण चन्द्र है*

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*दादू काहे कोटि खर्चिये, जे पैके सीझै काम ।*
*शब्दों कारज सिध भया, तो श्रम न दीजै राम ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण - एक दिन काली-मन्दिर में कुछ सिक्ख सिपाही आये थे । काली माता के मन्दिर के सामने उनसे मेरी मुलाकात हुई । एक ने कहा - 'ईश्वर दयामय हैं ।' मैंने कहा - अच्छा ? सच कहते हो ? कैसे तुम्हें मालूम हुआ ?' उन लोगों ने कहा, - 'क्यों जनाब, ईश्वर हमें खिलाते हैं - हमारी इतनी देखभाल करते हैं ।' मैंने कहा - 'यह कैसे आश्चर्य की बात हैं ? ईश्वर सब के पिता है । अपने पुत्रों की देखभाल पिता नहीं करेगा तो और कौन करेगा ? क्या पड़ोसवाले उनकी खबर लेंगे ?’
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नरेन्द्र - तो फिर दयामय न कहें ?
श्रीरामकृष्ण - क्या मैं मना करता हूँ ? मेरे कहने का मतलब यह है कि ईश्वर अपने आदमी हैं, कोई दूसरे नहीं ।
पण्डितजी - बात अनमोल है ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - तेरा गाना मैं सुन रहा था, पर अच्छा न लगा । इसलिए चला आया । कहा, अभी उम्मेदवार है, गाना फीका जान पड़ने लगा । नरेन्द्र लज्जित हो गये । मुँह लाल हो गया । वे चुप हो रहे ।
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(६)
श्रीरामकृष्ण ने पीने के लिए पानी माँगा । उनके पास एक ग्लास पानी रखा गया था, परन्तु वह जल वे पी नहीं सके । एक ग्लास जल और लाने के लिए कहा । पीछे से मालूम पड़ा कि किसी घोर इन्द्रियलोलुप मनुष्य ने उस ग्लास को छू लिया था ।
पण्डितजी - (हाजरा से) - आप लोग इनके साथ दिनरात रहते हैं, आप लोग बड़े आनन्द में हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - आज मेरा बड़ा अच्छा दिन था । मैंने दूज का चाँद देखा ।(सब हँसते हैं ।) दूज का चाँद क्यों कहा, जानते हो ? सीता ने रावण से कहा था, रावण, तू पूर्ण चन्द्र है और मेरे राम दूज के चाँद हैं । रावण ने इसका अर्थ नहीं समझा, उसे बड़ा आनन्द हुआ था । सीता के इस कथन का अर्थ यह है कि रावण की सम्पदा जहाँ तक बढ़ने को थी, बढ़ चुकी थी । अब दिनोंदिन पूर्ण चन्द्र की तरह उसका ल्हास ही होगा । श्रीरामचन्द्र दूज के चाँद हैं, उनकी दिनोंदिन वृद्धि होगी !
श्रीरामकृष्ण उठे । अपने बन्धु और बान्धवों के साथ पण्डितजी ने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बिदा हुए ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 मई 2021

*तीर्थयात्रा और श्रीरामकृष्ण*

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*गुरु पहली मन सौं कहै, पीछे नैन की सैन ।*
*दादू सिष समझै नहीं, कहि समझावै बैन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ गुरुदेव का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
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(५)
*तीर्थयात्रा और श्रीरामकृष्ण । आचार्यों की तीन श्रेणियाँ*

पण्डितजी - तीर्थाटन के लिए महाराज कहाँ तक गये हैं ?
श्रीरामकृष्ण - हाँ, कई स्थान देखे हैं ! (सहास्य) हाजरा बहुत दूर तक गया है और बहुत ऊँचे चढ़ गया था, हृषीकेश तक हो आया है । (सब का हँसना ।) मैं इतनी दूर नहीं जा सका, इतने ऊँचे नहीं चढ़ा ।
"गीध भी बहुत ऊँचे चढ़ जाता है । परन्तु उसकी दृष्टि मरघट पर ही रहती है । (सब हँसते हैं ।) मरघट का क्या अर्थ है जानते हो ? मरघट अर्थात् कामिनी कांचन ।
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"अगर यहाँ बैठकर भक्तिलाभ कर सको, तो तीर्थ जाने की क्या जरूरत है ? काशी जाकर मैंने देखा, वहाँ भी वही पेड़ है और वही इमली के पत्ते ।
"तीर्थ जाने पर भी अगर भक्ति न हुई तो तीर्थ जाने से फिर कुछ फल ही नहीं हुआ । और भक्ति ही सार है तथा एकमात्र उसी की आवश्यकता है । चीलें और गीध कैसे होते है, जानते हो ? बहुतसे आदमी ऐसे होते हैं जो लम्बी लम्बी बातें करते हैं । कहते हैं, शास्त्रों में जिन सब कर्मों की बातें लिखी हैं, उनमें से अधिकांश की हमने साधना की है । वे कहते तो यह हैं, पर उनका मन घोर विषय में पड़ा रहता है । रुपया-पैसा, मान-मर्यादा, देह-सुख, इन्हीं सब विषयों के फेर में वे पड़े रहते हैं ।"
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पण्डितजी - जी हाँ, तीर्थ जाना तो अपने पास की मणि को छोड़कर काँच के पीछे दौड़ना है ।
श्रीरामकृष्ण - और तुम यह समझ लेना कि चाहे लाख शिक्षा दो, पर उपयुक्त समय के आये बिना कोई फल न होगा । बिस्तरे पर सोते समय किसी लड़के ने अपनी माँ से कहा, 'माँ, मुझे टट्टी लगे तो जगा देना ।' उसकी माँ ने कहा, 'बेटा, टट्टी की हाजत तुम्हें खुद ही उठा देगी, इसके लिए तुम कोई चिन्ता न करो ।' (हास्य।) इसी प्रकार भगवान के लिए व्याकुलता ठीक समय आने पर ही होती है।
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"वैद्य तीन तरह के होते हैं ।
"जो वैद्य केवल नाड़ी देखकर दवा की व्यवस्था करके चला जाता है, रोगी से सिर्फ इतना ही कह जाता है कि दवा खाते रहना, वह अधम श्रेणी का वैद्य है ।
"उसी तरह कुछ आचार्य केवल उपदेश दे जाते हैं, परन्तु उस उपदेश से अनुयायी को अच्छा फल प्राप्त हुआ या बुरा इसका फिर पता नहीं लेते ।
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"दूसरी श्रेणी के वैद्य ऐसे होते हैं, जो दवा की व्यवस्था करके रोगी से दवा खाने के लिए कहते हैं । अगर रोगी नहीं खाना चाहता, तो उसे तरह तरह से समझाते हैं । ये मध्यम श्रेणी के वैद्य हुए । इसी तरह मध्यम श्रेणी के आचार्य भी हैं । वे उपदेश देते हैं और तरह तरह से आदमियों को समझाते भी हैं जिससे उपदेश के अनुसार वे चल सकें ।
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"अन्तिम श्रेणी के और उत्तम वैद्य वे हैं जो अगर मीठी बातों से रोगी नहीं मानता, तो बल का प्रयोग भी करते हैं । जरूरत होती है तो रोगी की छाती पर घुटना रखकर जबरन दवा पिला देते हैं । उसी प्रकार उत्तम श्रेणीवाले आचार्य भी हैं । ईश्वर के मार्ग पर लाने के लिए वे शिष्यों पर बल तक का प्रयोग करते हैं ।"
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पण्डितजी - महाराज, अगर उत्तम श्रेणी के आचार्य हों, तो क्यों फिर आपने ऐसा कहा कि समय के आये बिना ज्ञान नहीं होता ?
श्रीरामकृष्ण - सच है । परन्तु सोचो कि दवा अगर पेट में न जाय - अगर मुँह से ही निकल जाय, तो बेचारा वैद्य भी क्या कर सकता है ? उत्तम वैद्य भी कुछ नहीं कर सकता ।
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"पात्र देखकर उपदेश दिया जाता है । तुम लोग पात्र देखकर उपदेश नहीं देते । मेरे पास अगर कोई लड़का आता है तो मैं उससे पूछता हूँ तेरे कौन कौन हैं ! सोचो उसके बाप नहीं है, परन्तु बाप का ऋण है, तो वह कैसे ईश्वर की ओर मन लगा सकता है ? सुना ?"
पण्डितजी - जी हाँ, मैं सब सुन रहा हूँ ।
(क्रमशः)

रविवार, 23 मई 2021

*ईश्वर-लाभ के अनन्त मार्ग । भक्तियोग ही युगधर्म है*

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*गाइ गाइ रस लीन भये हैं, कछू न मांगैं संत जना ।*
*और अनेक देहु दत्त आगै, आन न भावै राम बिना ॥*
*इक टग ध्यान रहैं ल्यौ लागे, छाकि परे हरि रस पीवैं ।*
*दादू मगन रहैं रस माते, ऐसे हरि के जन जीवैं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. २७२)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)
*ईश्वर-लाभ के अनन्त मार्ग । भक्तियोग ही युगधर्म है*
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श्रीरामकृष्ण - देखो, अमृत-समुद्र में जाने के अनन्त मार्ग हैं । किसी तरह इस सागर में पड़े कि बस, हुआ । सोचो, अमृत का एक कुण्ड है । किसी तरह मुँह में उस अमृत के पड़ने से ही अमर होते हो, तो चाहे तुम खुद कूदकर उसमें गिरो या सीढ़ियों से धीरे-धीरे उतरकर कुछ पीयो, या कोई दूसरा धक्का मारकर तुम्हें कुण्ड में डाल दे, फल एक ही है । अमृत का कुछ स्वाद लेने से ही अमर हो जाओगे ।
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"मार्ग अनन्त हैं । ज्ञान, कर्म, भक्ति, चाहे जिस मार्ग से जाओ, आन्तरिक होने पर ईश्वर को अवश्य प्राप्त करोगे । संक्षेप में योग तीन प्रकार के हैं । ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग ।
"ज्ञानयोग में ज्ञानी ब्रह्म को जानना चाहता है । नेति-नेति विचार करता है । ब्रह्म सत्य और संसार मिथ्या है, यह विचार करता है । विचार की समाप्ति जहाँ है, वहाँ समाधि होती है, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है ।
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“कर्मयोग है, कर्म करके ईश्वर पर मन लगाये रहना । अनासक्त होकर प्राणायाम, ध्यान-धारणादि कर्मयोग है । संसारी अगर अनासक्त होकर ईश्वर को फल समर्पित कर दे, उन पर भक्ति रखकर संसार का कर्म करे तो वह भी कर्मयोग है । ईश्वर को फल का समर्पण करके पूजा, जप आदि कर्म करना, यह भी कर्मयोग है । ईश्वर-लाभ करना ही कर्मयोग का उद्देश्य है ।
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"भक्तियोग है ईश्वर के नाम-गुणों का कीर्तन करके उन पर पूरा मन लगाना । कलिकाल के लिए भक्तियोग का मार्ग सीधा है । युगधर्म भी यही है ।
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"कर्मयोग बड़ा कठिन है । पहले ही कहा जा चुका है कि समय कहाँ है ? शास्त्रों में जो सब कर्म करने के लिए कहा है, उसका समय कहाँ है ? कलिकाल में इधर आयु कम है । उस पर अनासक्त होकर फल की कामना न करके कर्म करना बड़ा कठिन है । ईश्वर को बिना पाये कोई अनासक्त नहीं हो सकता । तुम नहीं जानते, परन्तु कहीं न कहीं से आसक्ति आ ही जाती है ।
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“ज्ञानयोग भी इस युग के लिए बड़ा कठिन है । एक तो जीवों के प्राण अत्रगत हो रहे हैं, तिस पर आयु भी कम है; उधर देहबुद्धि किसी तरह जाती नहीं और देहबुद्धि के गये बिना ज्ञान होने का नहीं । ज्ञानी कहता है, मैं ही वह ब्रह्म हूँ । न मैं शरीर हूँ, न भूख हूँ, न तृष्णा हूँ, न रोग हूँ, न शोक हूँ; जन्म, मृत्यु, सुख, दुःख, इन सब से परे हूँ । यदि रोग, शोक, सुख, दुःख, इन सब का बोध रहा, तो तुम ज्ञानी फिर कैसे हो सकोगे ? इधर हाथ काँटों से छिद रहे हैं, घर घर खून बह रहा है, खूब पीड़ा होती है, फिर भी कहता है, 'कहाँ ? हाथ तो कटा ही नहीं ! मेरा क्या हुआ है ?"
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"इसीलिए इस युग में भक्तियोग है । इससे दूसरे मार्गों की अपेक्षा ईश्वर के पास पहुँचने में सुगमता है । ज्ञानयोग या कर्मयोग अथवा दूसरे मार्गों से भी लोग ईश्वर के पास पहुँच सकते हैं, परन्तु इन सब रास्तों से मंजिल पूरी करना बड़ा कठिन है ।
"इस युग के लिए भक्तियोग है । इसका यह अर्थ नहीं है कि भक्त एक जगह जायगा, ज्ञानी या कर्मी दूसरी जगह । इसका तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मज्ञान चाहते हैं, वे अगर भक्ति के मार्ग से चलें तो भी वही ज्ञान उन्हें होगा । भक्तवत्सल अगर चाहेंगे तो वह भी दे सकते हैं ।
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"भक्त ईश्वर का साकार-रूप देखना चाहता है, उनके साथ बातचीत करना चाहता है - वह बहुधा ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता । परन्तु ईश्वर इच्छामय हैं । उनकी अगर इच्छा हो तो वे भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी कर सकते हैं । भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी । अगर कोई एक बार कलकत्ता आ जाय, तो किले का मैदान, सोसायटी(Asiatic Society's Museum), सब उसे देखने को मिल जायेगा ।
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“पर बात तो यह है कि कलकत्ता किस तरह आया जाय ?
"संसार की माँ को पा जाने पर ज्ञान भी पाता है और भक्ति भी । भाव-समाधि के होने पर रूप-दर्शन होता है और निर्विकल्प समाधि के होने पर अखण्ड सच्चिदानन्द दर्शन । तब अहं, नाम और रूप नहीं रह जाते ।
"भक्त कहता है, 'माँ, सकाम कर्मों से मुझे बड़ा भय लगता है । उस कर्म में कामना है । उस कर्म के करने से फल भोगना ही पड़ेगा ।
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तिस पर अनासक्त कर्म करना बड़ा कठिन है । उधर सकाम कर्म करूँगा, तो तुम्हें भूल जाऊँगा । चलो, ऐसे कर्म से मुझे अत्यन्त घृणा है । जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक कर्म घटते जायँ । जितना रह जायगा, उतने को अनासक्त होकर कर सकूँ । उसके साथ तुम पर मेरी भक्ति भी बढ़ती जाय । और जब तक तुम्हें न पाऊँ तब तक किसी नये कर्म में न फँसू । जब तुम स्वयं कोई आज्ञा दोगी तब काम करूंगा, अन्यथा नहीं ।’"
(क्रमशः)

शनिवार, 22 मई 2021

*ईश्वर के पादपद्मों में मग्न हो जाओ*

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*दादू पाणी मांहीं पैसि करि, देखै दृष्टि उघारि ।*
*जलाबिंब सब भरि रह्या, ऐसा ब्रह्म विचारि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
================
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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"सच है कि इस तरह का आदमी पण्डित नहीं होता; परन्तु इसलिए यह न सोच लेना कि उसके ज्ञान में कुछ कमी है । कहीं किताबें पढ़कर भी ज्ञान होता है ? जिसे आदेश मिला है उसके ज्ञान का अन्त नहीं है । वह ज्ञान ईश्वर के पास से आता है । वह कभी चुकता नहीं । उस देश में धान नापते समय एक आदमी नापता है और दूसरा राशि ठेलता जाता है ।
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उसी तरह जो आदेश पाता है, वह जितनी ही लोक-शिक्षा देता रहता है, माँ उसकी ज्ञान की राशि पूरी करती जाती है; उस ज्ञान का अन्त नहीं होता । मेरी अवस्था इसी प्रकार की है ।
"माँ यदि एक बार भी कृपा की दृष्टि फेर दें तो क्या फिर ज्ञान का अभाव रह सकता है ? इसीलिए पूछ रहा हूँ, तुम्हें कोई आदेश मिला है या नहीं ।"
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हाजरा – हाँ, आदेश अवश्य मिला होगा । क्यों महाशय ?
पण्डितजी - नहीं, आदेश तो विशेष कुछ नहीं मिला ।
गृहस्वामी - आदेश तो जरूर नहीं मिला, परन्तु कर्तव्य के विचार से लेक्चर देते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या होगा ?
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"एक(ब्राह्म) ने लेक्चर देते हुए कहा था, 'मैं पहले खूब शराब पीता था, ऐसा करता था, वैसा करता था ।' यह बात सुनकर लोग आपस में बतलाने लगे – ‘साला कहता क्या है, शराब पीता था !’ इस तरह कहने से उसे विपरीत फल मिला । इसीलिए अच्छा आदमी बिना हुए लेक्चर से कोई उपकार नहीं होता ।
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"बरीसाल निवासी किसी सरकारी अफसर ने कहा था, 'महाराज, आप प्रचार करना शुरू कर दीजिये, तो मैं भी कमर कसूँ ।' मैंने कहा, 'अजी, एक कहानी सुनो । उस देश में हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है । जितने आदमी थे, सब उसके किनारे पर दिशा-फरागत को जाते थे । सुबह को जो लोग तालाब पर जाते वे गाली-गलोज की बौछारों से उनके भूत उतार देते थे । परन्तु गालियों से कुछ फल न होता था । उसके दूसरे ही दिन सुबह फिर वही घटना होती; लोग फिर दिशा-फरागत को आते । कुछ दिनों बाद कम्पनी से एक चपरासी आया । वह तालाब के पास नोटिस चिपका गया । बस वहाँ टट्टी जाना बिलकुल बन्द हो गया !"
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"इसीलिए कहता हूँ, ऐरे-गैरे के लेक्चर से कुछ फल नहीं होता । चपरासी के रहने पर ही लोग बात सुनेंगे । ईश्वर का आदेश न रहा, तो लोक-शिक्षा नहीं होती । जो लोक-शिक्षा देगा, उसमें बड़ी शक्ति चाहिए । कलकत्ते में बहुत से हनुमानपुरी* हैं, उनके साथ तुम्हें लड़ना होगा । (*एक विख्यात पहलवान)
"ये लोग (श्रीरामकृष्ण के चारों ओर जो सब भक्त बैठे हुए थे) तो अभी पट्ठे हैं ।
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"चैतन्यदेव अवतार थे । वे जो कुछ कर गये, कहो भला उसका अब कितना बचा हुआ है ? और जिसने आदेश नहीं पाया, उसके लेक्चर से क्या उपकार होगा ?
"इसीलिए कहता हूँ, ईश्वर के पादपद्मों में मग्न हो जाओ ।"
यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गा रहे हैं –
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"ऐ मेरे मन, तू रूप के सागर में डूब जा । जब तू तलातल और पाताल खोजेगा, तभी तुझे प्रेम-रत्न-धन प्राप्त होगा ।
“इस समुद्र में डूबने से वह मरता नहीं, यह अमृत का समुद्र है ।
"मैंने नरेन्द्र से कहा था, 'ईश्वर रस के समुद्र हैं, तू इस समुद्र में डुबकी लगायेगा या नहीं, बोल ? अच्छा सोच, एक खप्पर में रस है, और तू मक्खी बन गया है । तो तू कहाँ बैठकर रस पीयेगा ? -- बोला' ...
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नरेन्द्र ने कहा, 'मैं खप्पर के किनारे बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा, क्योंकि अधिक बढ़ने से डूब जाऊँगा ।' तब मैंने कहा, 'भैया, यह सच्चिदानन्दसागर है, इसमें मृत्यु का भय नहीं है । यह सागर अमृत का सागर है । जिन्हें ज्ञान नहीं, वे ही ऐसा कहते हैं कि भक्ति और प्रेम की बढ़ाचढ़ी अच्छी नहीं । परन्तु ईश्वर-प्रेम की क्या कहीं बढ़ाचढ़ी होती है ?' इसीलिए तुमसे कहता हूँ, सच्चिदानन्द-सागर में मग्न हो जाओ ।
"ईश्वर-लाभ हो जाने पर फिर क्या चिन्ता है ? तब आदेश भी होगा और लोक-शिक्षा भी होगी ।”
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 मई 2021

*केवल पाण्डित्य व्यर्थ है । साधना तथा विवेक-वैराग्य*

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*यहु घट दीपक साध का, ब्रह्म ज्योति प्रकाश ।*
*दादू पंखी संतजन, तहाँ परैं निज दास ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
https://fb.watch/5B0PjiEWXx/
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
*केवल पाण्डित्य व्यर्थ है । साधना तथा विवेक-वैराग्य*
समाधि की बात कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण का भाव बदलने लगा । उनके श्रीमुख से स्वर्गीय ज्योति निकलने लगी । देखते देखते बाह्य-ज्ञान जाता रहा, शब्दरहित हो गये, आँखें स्थिर हो गयीं । वे इस समय परमात्मा के दर्शन कर रहे हैं । बड़ी देर बाद प्राकृत अवस्था आयी । बालक की तरह कह रहे हैं, मैं पानी पीऊँगा । समाधि के बाद जब पानी पीना चाहते थे, तब भक्तों को मालूम हो जाता था कि अब ये क्रमशः बाह्य भूमि पर आ रह हैं ।
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श्रीरामकृष्ण भावावेश में कहने लगे, 'माँ, उस दिन ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को तूने दिखलाया । इसके बाद मैने फिर कहा था, माँ, मैं एक दूसरे पण्डित को देखूँगा, इसीलिए मुझे यहाँ लायी ।'
फिर शशधर की ओर देखकर कहने लगे - "भैया, कुछ और बल बढ़ाओ, कुछ दिन और साधन-भजन करो । पेड़ पर अभी चढ़े नहीं और अभी से फल की आकांक्षा ! परन्तु लोगों के भले के लिए तुम यह सब कर रहे हो ।"
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इतना कहकर श्रीरामकृष्ण शशधर को सिर झुकाकर नमस्कार कर रहे हैं । फिर कहने लगे –
"जब पहले-पहल मैंने तुम्हारी बात सुनी, तो लोगों से पूछा, सिर्फ पण्डित है या कुछ विवेक-वैराग्य भी है ?
"जिस पण्डित के विवेक नहीं, वह पण्डित ही नहीं ।
"अगर आदेश मिला हो तो लोक-शिक्षा में दोष नहीं । आदेश पाने पर अगर कोई लोक-शिक्षा देता है, तो फिर उसे कोई पराजित नहीं कर सकता ।
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“सरस्वती के पास से अगर एक भी किरण आ जाय तो ऐसी शक्ति हो जाती है कि बड़े-बड़े पण्डित भी सिर झुका लेते हैं ।
"दिया जलाने पर, झुण्ड के झुण्ड कीड़े इकट्ठे हो जाते हैं, उन्हें बुलाना नहीं पड़ता । उसी तरह जिसे आदेश मिला है, उसे आदमियों को बुलाना नहीं पड़ता । अमुक समय में लेक्चर होगा, यह कहकर खबर नहीं भेजनी पड़ती; उसी में आकर्षण होता है और इतना कि आदमी आप खिचकर आ जाते हैं ।
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तब राजा, बाबू, सभी स्वयं ही दल बाँध-बाँधकर उसके पास आते हैं और कहते रहते हैं, 'आपको क्या चाहिए ? आम, सन्देश, रुपया, पैसा, दुशाले, यह सब ले आया हूँ, आप क्या लीजियेगा ?" मैं उन आदमियों से कहता हूँ, 'दूर करो, यह कुछ मुझे अच्छा नहीं लगता, मैं कुछ नहीं चाहता ।'
"चुम्बक-पत्थर क्या लोहे से कहेगा कि मेरे पास आओ ? कहना नहीं होता । लोहा आप ही चुम्बक-पत्थर के आकर्षण से आ जाता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 19 मई 2021

*कलि में भक्तियोग*

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*पीवत चेतन जब लगै,*
*तब लग लेवै आइ ।*
*जब माता दादू प्रेम रस,*
*तब काहे को जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*कलि में भक्तियोग*
दोपहर चार बजे के करीब, श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर चढ़े । बड़े ही कोमलांग है, बड़ी सावधानी से देह की रक्षा होती है । इसीलिए रास्ता चलते तकलीफ होती है । गाड़ी न होने पर थोड़ी दूर भी चलते हैं, तो बड़ा कष्ट होता है । गाड़ी पर चढ़कर भावसमाधि में मग्न हो गये । उस समय नन्ही-नन्ही बूँदों की वर्षा हो रही थी । आकाश में बादल छाये हैं, रास्ते में कीचड़ है । भक्तगण गाड़ी के पीछे-पीछे पैदल चल रहे हैं । उन्होंने देखा, रथयात्रा का स्वागत लड़के ताड़ के पत्ते की बाँसुरी बजाकर कर रहे थे ।
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गाड़ी मकान के सामने पहुँची । द्वार पर घर के मालिक और उनके आत्मीयों ने आकर स्वागत किया । ऊपर जाने की सीढ़ी के बगल में बैठकखाना है । ऊपर पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने देखा, शशधर उनकी अभ्यर्थना के लिए आ रहे हैं । पण्डितजी को देखकर मालूम हुआ कि वे यौवन पार कर चुके हैं, प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हैं । रंग साफ गोरा है - गले में रुद्राक्ष की माला पड़ी है । उन्होंने बड़े विनय-भाव से श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । फिर साथ ही उन्हें घर ले गये ।
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श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए लोग उनकी बातचीत सुनने के लिए बड़े उत्सुक हो रहे हैं । नरेन्द्र, राखाल, राम, मास्टर और दूसरे भी बहुत से भक्त उपस्थित हैं । हाजरा भी श्रीरामकृष्ण के साथ दक्षिणेश्वर-कालीमन्दिर से आये हुए हैं ।
पण्डितजी के देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण को भावावेश होने लगा । कुछ देर बाद उसी अवस्था में हँसते हुए पण्डितजी की ओर देखकर कह रहे हैं - 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ।' फिर उनसे कहा, 'तुम कैसे लेक्चर देते हो ?"
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शशधर - महाराज, मैं शास्त्रों के उपदेश समझाने की चेष्टा करता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है । शास्त्रों में जिन सब कर्मों की बात है, उनके साधन के लिए अब समय कहाँ है ? आजकल के बुखार में दशमूल पाचन की व्यवस्था ठीक नहीं । दशमूल पाचन देने से इधर रोग ऐंठ जाता है । आजकल बस ‘फीवर-मिक्श्चर' ! कर्म करने के लिए अगर कहते हो, तो केवल सार की बात कह दिया करो । मैं आदमियों से कहता हूँ, तुम्हें 'आपोधन्यन्या' इतना यह सब न कहना होगा । गायत्री के जप से ही तुम्हारी बन जायगी । अगर कर्म की बात कहनी ही हो, तो ईशान की तरह के दो-एक कर्मियों से कह सकते हो ।
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"लाख लेक्चर दो, परन्तु विषयी मनुष्यों का कुछ कर न सकोगे । पत्थर की दीवार में क्या कभी कीला गाड़ सकते हो ? कीला खुद चाहे टूट जाय - मुड़ जाय, पर पत्थर का कुछ नहीं हो सकता । तलवार की चोट से घड़ियाल का क्या बिगड़ सकता है ? साधु का कमण्डल चारों धाम हो जाता है, पर ज्यों का त्यों कडुआ बना रहता है । तुम्हारे लेक्चर से विषयी आदमियों का विशेष कुछ होता नहीं, यह बात तुम खुद धीरे धीरे समझ जाओगे । बछड़ा एक साथ ही खड़ा नहीं हो जाता । कभी-कभी गिर जाता है और फिर उठने की कोशिश करता है । तब खड़ा होना और चलना भी सीखता है ।
.
“कौन भक्त है और कौन विषयी, यह बात तुम समझते नहीं, यह तुम्हारा दोष भी नहीं है । पहले जब आँधी आती है, तब कोई यह नहीं पहचान पाता, कौन आम है और कौन इमली ।
"ईश्वर-लाभ जब तक नहीं होता, तब तक कोई कर्मों को बिलकुल छोड़ नहीं सकता । सन्ध्या-वन्दनादि कर्म कितने दिनों के लिए हैं ? - जब तक ईश्वर के नाम पर अश्रु और पुलक न हो । 'हे राम' ऐसा एक बार कहते ही अगर आँखों में आँसू आ जायँ, देह पुलकित होने लगे, तो निश्चय समझना कि उसके कर्मों का अन्त हो गया । फिर उसे सन्ध्यादि कर्म न करने पड़ेंगे ।
.
"फल के होने पर ही फूल गिर जाता है; भक्ति फल हैं, कर्म फूल । गृहस्थ की बहू के लड़का होनेवाला हुआ, तो वह अधिक काम नहीं कर सकती । उसकी सास दिनोंदिन उसका काम घटाती जाती है । दसवें महीने के आने पर फिर उसे बिलकुल काम नहीं छूने देती । लड़का होने पर फिर वह उसी को लेकर रहती है, दूसरे काम नहीं करने पड़ते । सन्ध्या गायत्री में लीन हो जाती है, गायत्री प्रणव में, प्रणव समाधि में । जैसे घण्टे का शब्द - टं-ट-अ-म् । योगी नाद-भेद करके परब्रह्म में लीन होते हैं । समाधि में सन्ध्यादि कर्मों का लय हो जाता है । इसी तरह ज्ञानियों के कर्म छूट जाते हैं ।”
(क्रमशः)

सोमवार, 17 मई 2021

अनन्त खेल हैं उनके

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*दादू स्वाद लागि संसार सब, देखत परलै जाइ ।*
*इन्द्री स्वारथ साच तजि, सबै बंधाणै आइ ॥*
*विष सुख माँहैं रम रहे, माया हित चित लाइ ।*
*सोई संतजन ऊबरे, स्वाद छाड़ि गुण गाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
================
साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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जब काव्य का पाठ होता है, लोग उसे सुनते हैं, तब वेदान्त, सांख्य, न्याय, पातंजलि, ये सब रूखे जान पड़ते हैं । काव्य की अपेक्षा गीत मनोहर है । संगीत को सुनकर पाषाण-हृदयों का भी हृदय द्रवित हो जाता है । यद्यपि गीतों में इतना आकर्षण होता है, तथापि सुन्दरी स्त्री की तुलना में वह कम है । यदि एक सुन्दरी स्त्री यहाँ से निकल जाय तो न किसी का मन काव्य में लगेगा, न कोई गीत ही सुनेगा । सब के सब उसी स्त्री को देखने लगेंगे । और जब भूख लगती है, तब काव्य, गीत, नारी, कुछ भी अच्छा नहीं लगता अन्नचिन्ता चमत्कारा !
.
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - ये रसिक हैं ।
पखावज बँध गया, नरेन्द्र गा रहे हैं । गाना शुरू होने से कुछ पहले ही श्रीरामकृष्ण ऊपर के बैठकखाने में विश्राम करने के लिए चले गये । साथ मास्टर और श्रीश भी गये । यह बैठकखाना रास्ते के ऊपर है । मास्टर ने श्रीरामकृष्ण से श्रीश का परिचय कराया । कहा, ये पण्डित हैं और प्रकृति के बड़े शान्त हैं । बचपन से ही ये मेरे साथ पढ़ते थे । अब ये वकालत करते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - इस तरह के आदमी भी वकालत करें ।
मास्टर - भूलकर उस रास्ते में चले गये हैं ।
श्रीरामकृष्ण - मैने गणेश वकील को देखा है । वहाँ(दक्षिणेश्वर में) बाबुओं के साथ कभी-कभी जाता है । पन्ना(वकील) भी जाता है - सुन्दर तो नहीं है, पर गाता अच्छा है । मुझे मानता भी खूब है, बड़ा सरल है । (श्रीश से) आपने किसे सार-वस्तु सोचा ?
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श्रीश - ईश्वर हैं और वे ही सब कर रहे हैं । परन्तु उनके गुणों के सम्बन्ध में हमारी जो धारणा है, वह ठीक नहीं । आदमी उनके सम्बन्ध में क्या धारणा कर सकता है ? अनन्त खेल हैं उनके !
श्रीरामकृष्ण - बगीचे में कितने पेड़ हैं, पेड़ों में कितनी डालियाँ है, इन सब का हिसाब लगाने से तुम्हारा क्या काम ? तुम बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर चले जाओ । उनमें भक्ति और प्रेम करने के लिए आदमी मनुष्य जन्म पाता है । तुम आम खाकर चले जाओ ।
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“तुम शराब पीने के लिए आये, तो शराबवाले की दूकान में कितने मन शराब है, इन सब का हिसाब करने से क्या प्रयोजन ? तुम्हारे लिए तो एक गिलास ही काफी है । अनन्त लीलाओं के जानने से तुम्हें मतलब ?
"कोटि कोटि वर्ष तक उनके गुणों का विचार करने पर उनके गुणों का अल्पांश भी न समझ पाओगे ।"
.
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहकर फिर बातचीत करने लगे । भाटपाड़ा के एक ब्राह्मण भी बैठे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - संसार में कुछ नहीं । इनका(ईशान का) संसार अच्छा है, यही खैर है, नहीं तो अगर लड़के वेश्यागामी, गंजेड़ी, शराबी और उद्दण्ड होते, तो तकलीफ की हद हो जाती । सब का मन ईश्वर पर - विद्या का संसार - ऐसा अक्सर नहीं दीख पड़ता । ऐसे दो ही चार घर देखे । नहीं तो बस झगड़ा, 'तू-तू मैं मैं', हिंसा, और फिर रोग, शोक, दारिद्र । यही देखकर कहा - माँ, इसी समय मोड़ घुमा दो ।
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देख न, नरेन्द्र कैसी विपत्ति में पड़ गया, बाप मर गया, घरवाले खाने को नहीं पाते, नौकरी की इतनी चेष्टा हो रही है, फिर भी कोई प्रबन्ध नहीं होता । अब देखो क्या करें ? मास्टर ! पहले तुम यहाँ इतना आते थे, अब उतना क्यों नहीं आते ? जान पड़ता है, बीबी से प्रेम इस समय बढ़ा हुआ है ।
"अच्छा है, दोष क्या है ! चारों ओर कामिनी-कांचन है । इसीलिए कहता हूँ, माँ, अगर कभी शरीर ग्रहण करना पड़े तो संसारी न बना देना ।"
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भाटपाड़ा के ब्राह्मण - यह आपने कैसे कहा ? गृहस्थ धर्म की तो बड़ी प्रशंसा है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, परन्तु बड़ा कठिन है ।
श्रीरामकृष्ण दूसरी बात करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - हम लोगों ने कैसा अन्याय किया, वे लोग गा रहे है, नरेन्द्र गा रहा है, और हम लोग चले आये ।
(क्रमशः)

रविवार, 16 मई 2021

*श्रीरामकृष्ण और शशधर पण्डित*

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*परम तेज प्रगट भया, तहाँ मन रह्या समाइ ।*
*दादू खेलै पीव सौं, नहीं आवै नहीं जाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
.
परिच्छेद ८४ ~ *कलि में भक्तियोग*
(१)
*श्रीरामकृष्ण और शशधर पण्डित*
आज रथयात्रा है; बुधवार, २५ जून १८८४ आषाढ़ की शुक्ला द्वितीया । आज सुबह श्रीरामकृष्ण ईशान के घर निमन्त्रित होकर आये है । ईशान का घर उनठनिया में है । यहाँ पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने सुना, शशधर पण्डितजी पास ही कालेज स्ट्रीट में चटर्जियों के यहाँ हैं । पण्डितजी को देखने की उनकी बड़ी इच्छा है । पिछले पहर पण्डितजी के यहाँ जाना निश्चित हुआ । दिन के दस बजे का समय होगा ।
.
श्रीरामकृष्ण ईशान के नीचेवाले बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हैं । ईशान के मुलाकाती भाटपाड़ा के दो-एक ब्राह्मण थे जिनमें एक भागवत के पण्डित भी थे । श्रीरामकृष्ण के साथ हाजरा तथा और भी दो एक भक्त आये हैं । श्रीश आदि ईशान के लड़के भी हैं । एक भक्त और आये हैं, ये शक्ति के उपासक हैं । मत्थे पर सिन्दूर का बुन्दा लगाये हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द में हैं । सिन्दूर का बुन्दा देखकर हँसते हुए कहा, इन पर तो मार्क लगा हुआ है !
.
कुछ देर बाद नरेन्द्र और मास्टर अपने अपने मकान से आये । दोनों ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उनके पास ही आसन ग्रहण किया । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा था, अमुक दिन मैं ईशान के घर जाऊँगा, तुम वहीं नरेन्द्र को साथ लेकर मिलना ।
.
श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से कहा, उस दिन मैं तुम्हारे यहाँ जा रहा था, तुम कहाँ रहते हो ?
मास्टर - जी, अब श्यामपुकुर तेलीपाड़ा में स्कूल के पास रहता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - आज स्कूल नहीं गये ?
मास्टर - जी, आज रथ की छुट्टी है ।
नरेन्द्र के पितृवियोग के बाद से घर में बड़ी तकलीफ है । वे ही अपने पिता के सब से बड़े लड़के हैं । उनके छोटे छोटे कई भाई और बहिनें हैं । पिता वकील थे, परन्तु कुछ छोड़कर नहीं जा सके । परिवार के भोजन-वस्त्र के लिए नरेन्द्र नौकरी तलाश रहे हैं ।
.
श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को किसी काम में लगा देने के लिए ईशान आदि भक्तों से कह रखा है । ईशान Controller General (कंट्रोलर जनरल) के आफिस में कर्मचारियों के एक अध्यक्ष थे । नरेन्द्र के घर की तकलीफ सुनकर श्रीरामकृष्ण सदा ही चिन्तित रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - मैंने ईशान से तेरे लिए कहा है । ईशान एक दिन वहाँ(दक्षिणेश्वर में) रहा था, तभी मैंने उससे तेरी बात कही थी । बहुतों के साथ उसका परिचय है ।
.
ईशान ने श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण देकर बुलाया है । इस उपलक्ष्य में अपने कई दूसरे मित्रों को भी न्योता भेजा है । गाना होगा; पखावज, तबला और तानपूरे का इन्तजाम किया जा रहा है । घर से एक आदमी थोड़ा सा मैदा दे गया । (पखावज में लगाने के लिए ।) ग्यारह बजे का समय होगा । ईशान की इच्छा है कि नरेन्द्र गावें ।
.
श्रीरामकृष्ण - (ईशान से) - इस समय मैदा ! तो अभी भोजन को बड़ी देर होगी ?
ईशान - (सहास्य) - जी नहीं, ऐसी कुछ देर नहीं है ।
भक्तों में कोई-कोई हँस रहे हैं, भागवत के पण्डित भी हँसकर एक संस्कृत श्लोक कह रहे हैं । श्लोक की आवृत्ति हो जाने पर पण्डितजी उसकी व्याख्या कर रहे हैं । कहते हैं, दर्शन आदि शास्त्रों से काव्य मनोहर है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 14 मई 2021

*साकार निराकार दोनों ही सत्य हैं*

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*दादू जामण मरणा सान कर, यहु पिंड उपाया ।*
*साँई दिया जीव को, ले जग में आया ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*साकार निराकार दोनों ही सत्य हैं*

"अच्छा, साकार और निराकार दोनों सत्य है - क्यों ? निराकार में मन अधिक देर तक नहीं रहता, इसीलिए भक्त साकार को लेकर रहते हैं ।
"कप्तान ठीक कहता है, चिड़िया ऊपर उड़ती हुई जब थक जाती है, तब फिर डाल पर आकर विश्राम करती है । निराकार के बाद साकार ।
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"तुम्हारे अड्डे में एक बार जाना होगा । भावावस्था में देखा - अधर का घर, सुरेन्द्र का घर, बलराम का घर - ये सब मेरे अड्डे हैं । "वे यहाँ आयें या न आयें, मुझे इसका हर्ष-दुःख नहीं ।"
मास्टर - जी, ऐसा क्यों होगा ? सुख का बोध होने से ही तो दुःख होता है । आप सुख और दुःख के अतीत हैं ।.

श्रीरामकृष्ण - हाँ, और मैं देख रहा हूँ, बाजीगर और उसका खेल बाजीगर ही नित्य है और उसका खेल अनित्य – स्वप्नवत् ।

"जब चण्डी सुनता था, तब यह बोध हुआ था । शुम्भ और निशुम्भ का जन्म हुआ, थोड़ी ही देर में सुना, उनका विनाश हो गया ।"
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मास्टर - जी, मैं कालना में गंगाधर के साथ जहाज पर जा रहा था । जहाज के धक्के से एक नाव उलट गयी, उस पर २०-२५ आदमी सवार थे । सब डूब गये । जहाज के पीछे उठनेवाली तरंगों के फेन की तरह सब लोग पानी के साथ मिल गये ।
"अच्छा, जो मनुष्य बाजीगरी देखता है, क्या उसमें दया होती है ? क्या उसे अपने उत्तरदायित्व का बोध रहता है, उत्तरदायित्व का बोध रहने पर ही तो मनुष्य में दया होगी न ?"
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श्रीरामकृष्ण - वह(ज्ञानी) सब देखता है - ईश्वर, माया, जीवजगत् । वह देखता है, माया(विद्या-माया और अविद्या माया), जीव और जगत् - ये हैं भी और नहीं भी हैं । जब तक अपना 'मैं' रहता है, तब तक वे भी रहते हैं । ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा उन्हें काट डालने पर फिर कुछ नहीं रह जाता । तब अपना 'मैं' भी बाजीगर का तमाशा हो जाता है ।
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मणि विचार कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "किस तरह, जानते हो ? जैसे पच्चीस दलवाले फूल को एक ही वार से काटना ।
"कर्तृत्व ! राम राम ! शुकदेव, शंकराचार्य, इन लोगों ने विद्या का 'मैं' रखा था । दया मनुष्य की नहीं, दया ईश्वर की है । विद्या के 'मैं' के भीतर ही दया है । विद्या का 'मैं' वे ही हुए हैं ।
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"तुम चाहे लाख बार यह अनुभव करो कि यह सब तमाशा है, पर हो तुम उन्हीं के 'अण्डर'(Under अधीन) । उनसे तुम बच नहीं सकते । तुम स्वाधीन नहीं हो । वे जैसा करायें, वैसा ही करना होगा । वह आद्याशक्ति जब ब्रह्मज्ञान देगी तब ब्रह्मज्ञान होगा - तभी तमाशा देखा जाता है, नहीं तो नहीं ।
“जब तक थोड़ासा भी 'मैं' है, तब तक उस आद्याशक्ति का ही इलाका है; उन्हीं के अण्डर हो - उन्हें छोड़कर जाने की गुंजाइश नहीं है ।
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"आद्याशक्ति की सहायता से ही अवतारलीला होती है । उन्हीं की शक्ति से अवतार, अवतार कहलाते हैं । तभी अवतार कार्य कर सकते हैं । सब माँ की शक्ति है ।
"कालीबाड़ी के पहलेवाले खजांची से जब कोई कुछ ज्यादा चाहता था, तब वह कहता था, दो तीन दिन बाद आना, मालिक से पूछ लूँ ।
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"कलि के अन्त में कल्कि-अवतार होगा । वे ब्राह्मण बालक के रूप में जन्म लेंगे । एकाएक उनके एक घोड़ा और तलवार आ जायेगी ...।”
अधर आरती देखकर आये; आसन ग्रहण किया । भुवनमोहिनी नाम की धाई कभी कभी श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए आया करती है । श्रीरामकृष्ण सब की चीजें नहीं ग्रहण कर सकते - विशेषकर डाक्टरों, कविराजों और धाइयों की नहीं ले सकते । घोर कष्ट देखकर भी वे लोग रुपया लेते हैं, इसीलिए श्रीरामकृष्ण उनकी चीजें नहीं ले सकते ।
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श्रीरामकृष्ण - (अधर से) - भुवनमोहिनी आयी थी । पच्चीस बम्बई आम और सन्देश-रसगुल्ले लायी थी । मुझसे कहा, एक आम आप भी लीजिये । मैंने कहा, नहीं पेट भरा हुआ है और सचमुच, देखो न, जरा सा सन्देश और कचौड़ी खायी, इतने ही से पेट कैसा हो गया ।
"केशव सेन की माँ बहिन आदि सब आयी थीं । इसलिए उनका दिल बहलाने के लिए मुझे कुछ नाचना पड़ा था और मैं क्या करूँ, उन्हें कितनी गहरी चोट पहुंची है !"
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 मई 2021

*निष्काम भक्ति, अहेतुकी भक्ति*

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*दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।*
*कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥*
*तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।*
*दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
https://youtu.be/_OJzDNLwNCk
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण – पान-तम्बाकू के छोड़ने से क्या होगा ? कामिनी और कांचन का त्याग ही त्याग है ।
"भाव में मैंने देखा, यद्यपि वह नौकरी करता है, फिर भी उसे दोष स्पर्श नहीं कर सका । माँ के लिए नौकरी करता है, इसमें दोष नहीं है ।
“तुम जो काम करते हो, इसमें दोष नहीं है । यह अच्छा काम है ।
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“नौकरी करके जेल गया, बद्ध हुआ, बेड़ियाँ पहनी, फिर मुक्त हुआ । मुक्त होने के बाद क्या वह नाचने-कूदने लगता है? नहीं, वह फिर नौकरी करता है । इसी प्रकार तुम्हारी भी इच्छा स्वयं के लिए कोई धन-संचय करने की नहीं है - ठीक है - तुम्हें तो केवल अपने कुटुम्ब के निर्वाह के लिए ही चिन्ता है - नहीं तो सचमुच वे और कहाँ जायँ ?"
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मणि - यदि कोई उनकी जिम्मेदारी ले ले तो मैं निश्चिन्त हो जाऊँ ।
श्रीरामकृष्ण - ठीक है, परन्तु अभी यह भी करो और वह भी करो - अर्थात् संसार के कर्तव्य भी करो और आध्यात्मिक साधना भी ।
मणि - सब कुछ त्याग सकना बड़े भाग्य की बात है ।
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श्रीरामकृष्ण - ठीक है । परन्तु जैसे जिसके संस्कार । तुम्हारा कुछ कर्म अभी बाकी है । उतना हो जाने पर शान्ति होगी, तब तुम्हें वह छोड़ देगा । अस्पताल में नाम लिखाने पर फिर सहज ही नहीं छोड़ते । बिलकुल अच्छे हो जाने पर छोड़ते हैं ।
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"यहाँ जो भक्त आते हैं, उनके दो दजें हैं । जो एक दर्जे के हैं वे कहते हैं, 'हे ईश्वर, हमारा उद्धार करो ।' दूसरे दर्जेवाले अन्तरंग हैं, वे यह बात नहीं कहते । दो बातें जानने से ही उनकी बन जाती है। एक तो यह कि मैं(श्रीरामकृष्ण) कौन हूँ, दूसरी यह कि वे कौन हैं - मुझसे उनका क्या सम्बन्ध है ।
"तुम इस श्रेणी के हो । नहीं तो और कोई क्या इतना कर सकता था !
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"भवनाथ, बाबूराम का प्रकृतिभाव है । हरीश स्त्रियों का कपड़ा पहनकर सोता है । बाबूराम ने भी कहा है, मुझे वही भाव अच्छा लगता है । बस मिल गया । यही भाव भवनाथ का भी है । नरेन्द्र, राखाल, निरंजन, इन लोगों का पुरुष भाव है ।
"अच्छा, हाथ टूटने का क्या अर्थ है? पहले एक बार भावावस्था में दाँत टूट गया था । अबकी बार भावावस्था में हाथ टूट गया ।"
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मणि को चुपचाप बैठे देखकर श्रीरामकृष्ण आप ही आप कह रहे हैं –
"हाथ टूटा सब अहंकार निर्मूल करने के लिए । अब भीतर 'मैं' कहीं खोजने पर भी नहीं मिलता । खोजने को जब जाता हूँ तो देखता हूँ वे हैं । पूर्ण रूप से अहंकार नष्ट हुए बिना उन्हें कोई पा नहीं सकता ।
"चातक को देखो, मिट्टी में रहता है, पर कितने ऊँचे पर चढ़ता है ।
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"कभी-कभी देह काँपने लगती है कि कहीं विभूतियाँ न आ जायँ । इस समय अगर विभूतियों का आना हुआ तो यहाँ अस्पताल-दवाखाने खुल जायेंगे । लोग आकर कहेंगे, मेरी बीमारी अच्छी कर दो । क्या विभूतियाँ अच्छी होती हैं ?"
मास्टर - जी नहीं, आपने तो कहा है, आठ विभूतियों में से एक के भी रहने पर ईश्वर नहीं मिल सकते ।
श्रीरामकृष्ण - बिलकुल ठीक, जो हीनबुद्धि हैं वे ही विभूतियाँ चाहते हैं ।
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"जो आदमी बड़े आदमी के पास कुछ प्रार्थना कर बैठता है, उसकी फिर खातिरदारी नहीं होती, उसे फिर एक ही गाड़ी पर, बड़े आदमी के साथ चढ़ने का सौभाग्य नहीं होता; यदि उसे वह चढ़ाता भी है, तो पास बैठने नहीं देता । इसीलिए निष्काम भक्ति, अहेतुकी भक्ति सब से अच्छी होती है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 12 मई 2021

*निष्काम भक्ति*

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*मन चित मनसा पलक में, सांई दूर न होइ ।*
*निष्कामी निरखै सदा, दादू जीवन सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ८३ ~ निष्काम भक्ति*
*दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के संग में*
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ अपने कमरे में बैठे हुए हैं । शाम हो गयी है, श्रीरामकृष्ण जगन्माता का स्मरण कर रहे हैं । कमरे में राखाल, अधर, मास्टर तथा और भी दो-एक भक्त हैं ।
आज शुक्रवार है, जेष्ठ की कृष्णा द्वादशी, २० जून १८८४ । पाँच दिन बाद रथयात्रा होगी । कुछ देर बाद ठाकुरबाड़ी में आरती होने लगी । अधर आरती देखने चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - अच्छा, बाबूराम की क्या पढ़ने की इच्छा है ?
"बाबूराम से मैंने कहा, तू लोक-शिक्षण के लिए पढ़ । सीता का उद्धार हो जाने पर विभीषण को राज्य करना पसन्द न आया । राम ने कहा, मूर्खों को शिक्षा देने के लिए तुम राज्य करो । नहीं तो वे कहेंगे, विभीषण ने राम की सेवा की, परन्तु क्या पाया ? - राज्य देखकर उन्हें भी सन्तोष होगा ।
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"तुमसे कहता हूँ, उस दिन मैंने देखा, बाबूराम, भवनाथ और हरीश, ये प्रकृति भाववाले हैं ।
"बाबूराम को देखा कि वह देवीमूर्ति है । गले में माला, सखियाँ साथ हैं । उसने स्वप्न में कुछ पाया है, वह शुद्धसत्त्व है, थोड़े से यत्न से ही उसकी आध्यात्मिक जागृति हो जायेगी ।
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"बात यह है कि देह-रक्षा के लिए बड़ी असुविधा हो रही है । वह अगर आकर रहे तो अच्छा है । इन लड़कों का स्वभाव एक खास तरह का हो रहा है । नोटो(लाटू) ईश्वरी भाव में ही रहता है - वह तो शीघ्र ही ईश्वर में लीन हो जायेगा ।
"राखाल का स्वभाव ऐसा हो रहा है कि मुझे ही उसे पानी देना पड़ता है । (मेरी) सेवा वह विशेष नहीं कर सकता ।
"बाबूराम और निरंजन, इन्हें छोड़कर और लड़के कौन हैं ? अगर कोई आता है, तो मालूम होता है कि उपदेश लेकर चला जायेगा ।
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“परन्तु मैं, खींच-खाँचकर बाबूराम को भी नहीं लाना चाहता । घर में गुल-गपाड़ा मच सकता है । (सहास्य) मैं जब कहता हूँ, चला क्यों नहीं आता, तब बार बार कहता है, आप कुछ ऐसा ही कर दीजिये जिससे मैं आ सकूँ । राखाल को देखकर रोता है, कहता है, वह मजे में है ।
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"राखाल अब घर के बच्चे की तरह रहता है । जानता हूँ, अब वह आसक्ति में पड़ नहीं सकता । कहता है, 'वह सब फीका लगता है ।’ उसकी स्त्री यहाँ आयी थी । उम्र १४ साल की है । यहाँ होकर कोन्नगर गयी थी । उन लोगों ने उससे(राखाल से) कोन्नगर जाने को कहा, पर वह न गया । कहता है - आमोद-प्रमोद अब अच्छा नहीं लगता । अच्छा, निरंजन को तुम क्या समझते हो ?”
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मास्टर - जी, बड़े अच्छे चेहरे-मोहरे का है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, सिर्फ चेहरा-मोहरा नहीं । सरल है । सरल होने पर सहज ही ईश्वर को लोग पा जाते हैं । सरल होने पर उपदेश भी शीघ्र सफल हो जाता है । जोती हुई जमीन, कंकड़ का नाम नहीं, बीज पड़ते ही पेड़ उग जाता है । फल भी शीघ्र आ जाते हैं ।
“निरंजन विवाह न करेगा । तुम क्या कहते हो? कामिनी और कांचन, ये ही बाँधते हैं न ?"
मास्टर - जी हाँ ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 11 मई 2021

*ब्राह्म समाज और कामिनी-कांचन*

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*दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ ।*
*मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवत मृतक का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(८)
*ब्राह्म समाज और कामिनी-कांचन*
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प्रताप – महाराज, जो लोग आपके पास आते हैं, क्या क्रमशः उनकी उन्नति हो रही है ?
श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, संसार करने में दोष क्या है ? परन्तु संसार में दासी की तरह रहो ।
“दासी अपने मालिक के मकान को कहती है, 'हमारा मकान', परन्तु उसका अपना मकान कहीं किसी गाँव में होता है । मुख से तो वह मालिक के मकान को कहती है 'हमारा घर', परन्तु मन ही मन जानती है कि वह उसका घर नहीं, उसका घर एक दूसरे गाँव में है । और मालिक के लड़के को सेती है और कहती है, मेरा हरि बड़ा बदमाश हो गया, मेरे हरि को मिठाई पसन्द नहीं आती ! 'मेरा हरि' वह मुख ही से कहती है, मन ही मन जानती है, हरि मेरा लड़का नहीं, मालिक का लड़का है ।
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"इसीलिए तो, जो लोग आते हैं, उनसे कहता हूँ संसार में रहो, इसमें दोष नहीं; परन्तु मन ईश्वर पर रखो । समझना कि घर-द्वार, संसार-परिवार तुम्हारे नहीं हैं, ये सब ईश्वर के हैं । समझना कि तुम्हारा घर ईश्वर के यहाँ है । मैं उनसे यह भी कहता हूँ कि व्याकुल होकर उनकी भक्ति के लिए उनके पाद-पद्मों में प्रार्थना करो ।"
विलायत की बात फिर होने लगी । एक भक्त ने कहा, महाराज, आजकल विलायत के विद्वान लोग, सुना है, ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते ।
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प्रताप - मुँह से चाहे वे कुछ भी कहें, पर यह मुझे विश्वास नहीं होता कि उनमें कोई सच्चा नास्तिक है । इस संसार की घटनाओं के पीछे एक कोई महान् शक्ति है, यह बात बहुतों को माननी पड़ी है ।
श्रीरामकृष्ण - तो बस हो गया । शक्ति तो मानते हैं न ? तो नास्तिक फिर क्यों है ?
प्रताप - इसके अतिरिक्त यूरोप के पण्डित, Moral Government(सत्कर्मों का पुरस्कार और पाप का दण्ड इस संसार में होता है) - यह बात भी मानते हैं ।
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बड़ी देर तक बातचीत होने के बाद प्रताप चलने के लिए उठे ।
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - तुम्हें और क्या कहूँ ? केवल इतना कहता हूँ कि अब वाद-विवाद के बीच में न रहो ।
"एक बात और । कामिनी-कांचन ही मनुष्य को ईश्वर से विमुख करते हैं, उस ओर नहीं जाने देते । देखो न, अपनी स्त्री की सब लोग बड़ाई करते हैं । (सब हँसते है ।) चाहे वह अच्छी हो या खराब । अगर पूछो, क्यों जी, तुम्हारी स्त्री कैसी है, तो उसी समय जवाब मिलता है, जी बहुत अच्छी है ।"
प्रताप - तो मैं अब चलता हूँ ।
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प्रताप चले गये । श्रीरामकृष्ण की अमृतमयी, कामिनी और कांचन के त्याग की बात समाप्त नहीं हुई । सुरेन्द्र के बगीचे के पेड़ और उनकी पत्तियाँ दक्षिणी हवा के झोंकों में झूम रही थीं तथा मृदुल मर्मर शब्द सुना रही थीं । बातें उसी मर्मर शब्द के साथ मिल गयीं, भक्तों के हृदय में एक बार धक्का लगाकर अनन्त आकाश में विलीन हो गयीं ।
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कुछ देर बाद श्रीयुत मणिलाल मल्लिक ने श्रीरामकृष्ण से कहा, 'महाराज, अब दक्षिणेश्वर चलिये । आज वहाँ केशव सेन की माँ और उनके घर की स्त्रियाँ आपके दर्शनों के लिए आयेंगी । आपको वहाँ न पाकर सम्भव है, वे दुःखित हो वहाँ से लौट जायँ ।'
केशव को शरीर छोड़े कई महीने हो गये हैं । उनकी वृद्धा माता और घर की स्त्रियाँ, श्रीरामकृष्ण को बहुत दिनों से न देखने के कारण, आज दक्षिणेश्वर में उनके दर्शन करने जायेंगी ।
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श्रीरामकृष्ण - (मणि मल्लिक से) - ठहरो बाबू, एक तो मेरी आँख नहीं लगी, जल्दबाजी इतनी न कर सकूँगा । वे गयी हैं, तो क्या किया जाय ? वहाँ वे लोग बगीचे में टहलेंगी, आनन्द मनायेंगी ।
कुछ देर विश्राम करके श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर चले । जाते समय सुरेन्द्र की कल्याण-कामना करते हैं । सब कमरों में एक-एक बार जाते हैं और मृदु स्वर से नामोच्चार कर रहे हैं । कुछ अधूरा न रखेंगे, इसीलिए खड़े हुए कह रहे हैं - 'मैंने उस समय पूड़ी नहीं खायी, थोड़ी सी ले आओ ।'
बिलकुल जरा ही लेकर खा रहे हैं और कह रहे हैं - 'इसके बहुत से अर्थ हैं । पूड़ी नहीं खायी, यह याद आयेगा तो फिर आने की इच्छा होगी ।' (सब हँसते हैं ।)
मणि मल्लिक – (सहास्य) - अच्छा तो था, हम लोग भी आते । (भक्तमण्डली हँस रही है ।)
(क्रमशः)

सोमवार, 10 मई 2021

*मैं और मेरा, इसे अज्ञान कहते हैं*

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*दादू ब्रह्म जीव हरि आत्मा, खेलैं गोपी कान्ह ।*
*सकल निरन्तर भर रह्या, साक्षीभूत सुजान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साक्षीभूत का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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यह कहकर श्रीरामकृष्ण अपने मधुर कण्ठ से गाने लगे –
“ऐ मन, रूप के समुद्र में तू डूब जा, तलातल और पाताल तक में जब खोज करेगा, तब वह प्रेम रत्न तेरे हाथ लगेगा ।”
(प्रताप से) "गाना सुना ? लेक्चर और झगड़ा यह सब तो बहुत हो चुका, अब डुबकी लगाओ । और इस समुद्र में डूबने से फिर मरने का भय न रह जायगा, यह तो अमृत का समुद्र है ! यह न सोचना कि इससे आदमी का दिमाग बिगड़ जाता है । यह न सोचना की ज्यादा ईश्वर ईश्वर करने से आदमी पागल हो जाता है ।
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मैंने नरेन्द्र से कहा था –
प्रताप - महाराज, नरेन्द्र कौन ?
श्रीरामकृष्ण - है एक लड़का । मैंने नरेन्द्र से कहा था, ईश्वर रस का समुद्र है । क्या तेरी इच्छा इस रस के समुद्र में डुबकी लगाने की नहीं होती ? अच्छा, सोच, एक नाँद में रस है और तू मख्खी हो गया है, तो कहाँ बैठकर रस पायेगा ? नरेन्द्र ने कहा, मैं नाँद के किनारे पर बैठकर रस पीऊँगा । मैंने पूछा, क्यों ? किनारे पर क्यों बैठेगा ?
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उसने कहा, ज्यादा बढ़ जाऊँगा तो डूब जाऊँगा और जान से भी हाथ धोना होगा । तब मैंने कहा, बेटा, सच्चिदानन्द-समुद्र में वह भय नहीं है । वह तो अमृत का समुद्र है, उसमें डुबकी लगाने से मृत्यु का भय नहीं है । आदमी अमर हो जाता है । ईश्वर के लिए पागल होने से आदमी का सिर बिगड़ नहीं जाता ।
(भक्तों से) “मैं और मेरा, इसे अज्ञान कहते हैं । रासमणि ने कालीमन्दिर की प्रतिष्ठा की है, यही बात लोग कहते हैं । कोई यह नहीं कहता कि ईश्वर ने किया है ।
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ब्राह्म समाज अमुक आदमी ने तैयार किया, यही लोग कहेंगे, कोई यह न कहेगा कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है । मैंने किया, यह अज्ञान है । हे ईश्वर तुम कर्ता हो, मैं अकर्ता, तुम यन्त्री हो, मैं यन्त्र; यह ज्ञान है । हे ईश्वर, मेरा कुछ भी नहीं है - न यह मन्दिर मेरा है, न यह कालीबाड़ी न यह समाज, ये सब तुम्हारी चीजें हैं । यह स्वी, पुत्र, परिवार, कुछ भी मेरा नहीं । सब तुम्हारी चीज़े हैं; इसी का नाम ज्ञान है ।
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"मेरी वस्तु, मेरी वस्तु कहकर, उन सब चीजों को प्यार करना ही माया है । सब को प्यार करने का नाम दया है । मैं केवल ब्राह्म समाज के आदमियों को प्यार करता हूँ या अपने परिवार के मनुष्यों को, यह माया है । केवल देश के आदमियों को प्यार करता हूँ, यह माया है । सब देशों के मनुष्यों को प्यार करना, सब धर्मों के लोगों को प्यार करना, यह दया से होता है, भक्ति से होता है ।
"माया से आदमी बँध जाता है, ईश्वर से विमुख हो जाता है । दया से ईश्वर की प्राप्ति होती है । शुकदेव, नारद, इनमें दया थी ।"
(क्रमशः)

रविवार, 9 मई 2021

*'मैं कर्ता, मेरा घर' अज्ञान । जीवन का उद्देश्य 'डुबकी लगाना'*

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*पंडित, राम मिलै सो कीजे ।*
*पढ़ पढ़ वेद पुराण बखानैं, सोई तत्त्व कह दीजे ॥*
*आतम रोगी विषम बियाधी, सोई कर औषधि सारा ।*
*परसत प्राणी होइ परम सुख, छूटै सब संसारा ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. १९३)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(७)
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - देखो, तुम्हारे ब्राह्मसमाज का लेक्चर सुनकर आदमी का भाव आसानी से ताड़ लिया जाता है । मुझे एक हरिसभा में ले गये थे । आचार्य थे एक पण्डित, नाम समाध्यायी था । कहा, ईश्वर नीरस हैं, हमें अपने प्रेम और भक्ति से उन्हें सरस कर लेना चाहिए । यह बात सुनकर मैं तो दंग रह गया । तब एक कहानी याद आ गयी ।
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एक लड़के ने कहा था, मेरे मामा के यहाँ बहुत से घोड़े हैं - गोशाले भर । अब सोचो, अगर गोशाला है, तो वहाँ गौओं का रहना ही सम्भव है, घोड़ों का नहीं । इस तरह की असम्बद्ध बातें सुनकर आदमी क्या सोचता है? यही कि घोड़े-सोड़े कहीं कुछ नहीं हैं ! (सब हँसते है ।)
एक भक्त - घोड़े तो हैं ही नहीं, गौएँ भी नहीं हैं ! (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण - देखो न, जो रस-स्वरूप हैं, उन्हें कहता है 'नीरस'; इससे यही समझ में आता है कि ईश्वर क्या चीज हैं, उसने कभी अनुभव भी नहीं किया ।
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*'मैं कर्ता, मेरा घर' अज्ञान । जीवन का उद्देश्य 'डुबकी लगाना'*
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श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - देखो, तुमसे कहता हूँ । तुम पढ़ेलिखे बुद्धिमान और गम्भीर हो । केशव और तुम मानो गौरांग और नित्यानन्दः दोनों भाई थे । लेक्चर देना, तर्क झाड़ना, वादविवाद यह सब तो खूब हुआ । क्या तुम्हें ये सब अब भी अच्छे लगते हैं ? अब सब मन समेटकर ईश्वर पर लगाओ । अपने को अब ईश्वर में उत्सर्ग कर दो ।
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प्रताप – जी हाँ, इसमें क्या सन्देह है; यही करना चाहिए, परन्तु यह सब जो मैं कर रहा हूँ, उनके (केशव के) नाम की रक्षा के लिए ही कर रहा हूँ ।
श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - तुमने कहा तो है कि उनके नाम की रक्षा के लिए सब कुछ कर रहे हो; परन्तु कुछ दिन बाद यह भाव भी न रह जायगा । एक कहानी सुनो ।
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किसी आदमी का घर पहाड़ पर था, घर क्या, कुटिया थी । बड़ी मेहनत करके उसने बनाया था । कुछ दिन बाद एक बहुत बड़ा तूफान आया । कुटिया हिलने लगी । तब उसे बचाने के लिए उस आदमी को बड़ी चिन्ता हुई । उसने कहा, हे पवन देव, देखो महाराज, घर न तोड़ियेगा । पवन देव क्यों सुनने लगे ? कुटिया चरचराने लगी । तब उस आदमी ने एक उपाय सोच निकाला ।
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उसे याद आ गया कि हनुमानजी पवन के लड़के हैं । बस, घबराया हुआ वह कहने लगा - दोहाई है, घर न तोड़ियेगा, दोहाई है, हनुमानजी का घर है । कितनी ही बार उसने कहा, 'हनुमानजी का घर है', 'हनुमानजी का घर है’, पर इससे कोई लाभ न हुआ । तब कहने लगा, 'महाराज, लक्ष्मणजी का घर है - लक्ष्मणजी का ।'
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इससे भी कुछ हल न हुआ । तब कहा, 'सुनो, यह श्रीरामचन्द्रजी का घर है, देखो महाराज, इसे अब न तोड़िये । दोहाई है, जय रामजी की ।’ इससे भी कुछ न हुआ । घर चरचराता हुआ टूटने लगा । तब जान बचाने की फिक्र हुई । वह घर से निकल आया । निकलते समय कहा – ‘धत्तेरे घर की !’
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(प्रताप से) “केशव के नाम की रक्षा तुम्हें न करनी होगी । जो कुछ हुआ है, समझना, उन्हीं की इच्छा से हुआ है । उनकी इच्छा से हुआ और उन्हीं की इच्छा से जा रहा है; तुम क्या कर सकते हो? तुम्हारा इस समय कर्तव्य है कि ईश्वर पर सब मन लगाओ - उनके प्रेम के समुद्र में कूद पड़ो ।"
(क्रमशः)