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शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

= २०० =

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
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*दादू आनन्द आत्मा, अविनाशी के साथ ।*
*प्राणनाथ हिरदै बसै, तो सकल पदार्थ हाथ ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
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उन जैसा दरिद्र कौन होगा ! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा, मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरूत है। इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया।
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अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले,उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सब कुछ है। राजा को विस्मय हुआ ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है।
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उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए। राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।
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कणाद ने कहा, "गरीब कौन है ? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं। एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।"
|| OSHO ||

= १९९ =

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*मंदिर माहिं सुरति समाई,*
*कोऊ है सो देहु दिखाई ॥*
*मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई,*
*दिवा समान कहाँ ज्योति छिपाई ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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#अल्बर्ट आइंस्टीन के संबंध में मैंने सुना है। भुलक्कड़ स्वभाव का आदमी था। अक्सर ऐसा हो जाता है, जो लोग जीवन की बड़ी गहन समस्याओं में उलझे होते हैं उन्हें छोटी-छोटी बातें भूल जाती हैं। जो आकाश चांदत्तारों में उलझते होते हैं उन्हें जमीन भूल जाती है। इतनी विराट समस्याएं जिनके सामने हों, उनके सामने कई दफे अड़चन हो जाती है।
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जैसे एक बार यह हुआ कि उसको लगा, अलबर्ट आइंस्टीन को, कि आ गई बीमारी जिसकी कि डाक्टर ने कहा था। डाक्टर ने उसको कहा था कि कभी न कभी डर है, तुम्हारी रीढ़ कमजोर है, तो यह हो सकता है कि बुढ़ापे में तुम्हें झुककर चलना पड़े, तुम कुबड़े हो जाओ। एक दिन उसे लगा, सुबह ही सुबह बाथरूम में से निकलने को ही था कि आ गया वह दिन। वहीं बैठ गया।
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घंटी बजाकर पत्नी को बुलाया, कहा डाक्टर को बुलाओ, लगता है मैं कुबड़ा हो गया। चलते ही नहीं बन रहा है मुझसे। सिर सीधा करते नहीं बन रहा है। रीढ़ झुक गई है। डाक्टर भागा गया। डाक्टर ने गौर से देखा और कहा कि कुछ नहीं है, आपने ऊपर का बटन नीचे लगा लिया है। अब उठना चाहते हो तो उठोगे कैसे ? आकाश की बातों में उलझा हुआ आदमी अक्सर इधर-उधर के बटन हो जाएं कोई आश्चर्य की बात नहीं।
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एक मित्र के घर अल्बर्ट आइंस्टीन गया था मित्र ने निमंत्रण दिया था। फिर गपशप चली। खाना चला, फिर गपशप चली, मित्र घबड़ाने लगा, रात देर होने लगी, ग्यारह बज गए बारह बज गए। आइंस्टीन सिर खुजलाए, जम्हाई ले, घड़ी देखे, मगर जो बात कहनी चाहिए कि अब मैं चलूं वह कहे ही नहीं। एक बज गया, मित्र भी घबड़ा गया कि यह क्या रात भर बैठे ही रहना पड़ेगा !
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अब अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे आदमी से कह भी नहीं सकते कि अब आप जाइए, इतना बड़ा मेहमान ! और देख भी रहा है कि जम्हाई आ रही है अल्बर्ट आइंस्टीन को, आंखें झुकी जा रही हैं, घड़ी भी देखता है; मगर बात जो कहनी चाहिए वह नहीं कहता। 
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आखिर मित्र ने कहा कि कुछ परोक्ष रूप से कहना चाहिए। तो उसने कहा कि मालूम होता है, आपको नींद आ रही है, जम्हाई ले रहे हैं, घड़ी देख रहे हैं, काफी नींद मालूम होती है आपको आ रही है। अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि आ तो रही है, मगर जब आप जाएं तो मैं सोऊं। मित्र ने कहा: आप कह क्या रहे हैं ? यह मेरा घर है !
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तो अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा। भले मानुष ! पहले से क्यों नहीं कहा ? चार घंटे से सिर के भीतर एक ही बात भनक रही है कि यह कब कमबख्त उठे और कहे कि अब हम चले ! इतनी दफे घड़ी देख रहा हूं, फिर भी तुम्हें समझ में नहीं आ रहा। मैं यही सोच रहा कि बात क्या है ! जम्हाई भी लेता हूं, आंख भी बंद कर लेता हूं, सुनता भी नहीं तुम्हारी बात कि तुम क्या कह रहे हो। और यह भी देख रहा हूं कि तुम भी जम्हाई ले रहे हो, घड़ी तुम भी देखते, जाते क्यों नहीं, कहते क्यों नहीं कि अब जाना चाहिए।
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आदमी करीब-करीब एक गहरे विस्मरण में जी रहा है, जहां उसे अपने घर की याद ही नहीं है; जहां उसे भूल ही गया कि मैं कौन हूं; जहां उसे भीतर जाने का मार्ग ही विस्मृत हो गया है। और इसलिए सारी अड़चन पैदा हो रही है। एक काम कर लो: भीतर उतरना सीख जाओ। और भीतर ज्योति जल ही रही है, जलानी नहीं है--बिन बाती बिन तेल ! वह दीया जल ही रहा है।
*ओशो, एक राम सारै सब काम*

शनिवार, 21 जनवरी 2023

= १९८ =

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*अन्तरगत औरै कछु, मुख रसना कुछ और ।*
*दादू करणी और कुछ, तिनको नांही ठौर ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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🌷मेरा पुस्तक प्रेम💗
मेरे पिता जी वर्ष में कम से कम तीन या चार बार बंबई जाया करते थे। और वे सभी बच्चों से पूछा करते थे, तुम अपने लिए क्या पसंद करोगे। और वे मुझसे भी पूछा करते यदि तुमको किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो में उसको लिखा सकता हूं और बंबई से ला सकता हूं।
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मैंने कहा कभी कुछ लाने के लिए नहीं कहां। एक बार मैंने कहा, मैं केवल यह चाहता हूं कि आप और अधिक मानवीय, पिता पन से कम भरे हुए, अधिक मैत्रीपूर्ण, कम अधिनायक वादी, अधिक लोकतांत्रिक, होकर वापस लौटिए। जब लौट कर आएं तो मेरे लिए अधिक स्वतंत्रता लेकर आइएगा।
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उन्होंने कहा : लेकिन बाजार में यह वस्तुएं उपलब्ध नहीं है।
मैंने कहा : मुझको पता है। ये बाजार में उपलब्ध नहीं है। लेकिन ये ही वे चीजें है जिनको मैं पसंद करूंगा: जरा सी और स्वतंत्रता, कुछ कम आदेश कुछ कम आज्ञाएं ओर थोड़ा सा सम्मान।
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कभी किसी बच्चे ने सम्मान नहीं मांगा था। तुम खिलौनों, मिठाईयों, कपड़ों,साईकिल और ऐसी ही वस्तुओं की मांग क्यों नहीं करते हो। वे तुमको मिल जाती। लेकिन ये वास्तविक चीजें नहीं है जो तुम्हारा जीवन आनंदित करने जा रही हों।
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मैंने उनसे घन केवल तभी मांगा जब मैं पुस्तकें खरीदना चाहता था। मैंने कभी किसी और वस्तु के लिए धन नहीं मांगा। और मैंने उनसे कहा: जब मैं पुस्तकों के लिए धन मांगु तो बेहतर है कि आप मुझको दे दें, उन्होंने कहा : क्या अभिप्राय है तुम्हारा ?
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मैंने कहा : मेरा अभिप्राय बस यह है कि यदि आप मुझको यह धन नहीं देते है तो मुझको इसे चुराना पड़ेगा। मैं चौर बनना तो नहीं चाहता लेकिन यदि आप मुझको बाध्य करते है तो कोई उपाय नहीं है। आप जानते है कि मेरे पास धन नहीं है। मुझको उन पुस्तकों की आवश्यकता है और मैं उन्हें खरीदने जा रहा हूं, यह आप जानते है।
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इसलिए यदि मुझको धन नहीं दिया गया जाएगा, तो मैं उसे ले लूगा और अपने मन में यह बात स्मरण कर लें कि वह आप थे जिसने मुझको चोरी करने के लिए बाध्य किया था।
उन्होंने कहा : चोरी करने की आवश्यकता नहीं है। तुमको जब कभी धन की आवश्यकता हो तुम बस आओ ओर उसे ले लो।
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मैंने कहा : आप आश्वस्त रहें कि यह केवल पुस्तकों के लिए है। लेकिन आश्वस्त होने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वे घर में मेरे बढ़ते हुए पुस्तकालय को देखते रहते थे।
धीरे-धीरे घर में मेरी पुस्तकों के अतिरिक्त किसी और वस्तु के लिए स्थान ही नहीं बचा।
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और मेरे पिता ने कहा : पहले हमारे घर में एक पुस्तकालय था, अब पुस्तकालय में हमारा घर है। और हम सभी को पुस्तकों को खयाल रखना पड़ता है। क्योंकि यदि तुम्हारी किसी पुस्तक के साथ कुछ गड़बड़ हो जाती है। तो तुम इतना शोर मचाते हो,तुम इतना उपद्रव कर डालते हो कि प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारी पुस्तकों से भयभीत है। और वे हर कहीं है; तुम उनसे टकराने से बच नहीं सकते हो। और यहां पर छोटे बच्चे है.....
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मैंने कहा : छोटे बच्चे मेरे लिए कोई समस्या नहीं है, समस्या है बड़े बच्चे। छोटे बच्चे--मैं उनका इतना सम्मान करता हूं कि वह मेरी पुस्तकों की रक्षा करते है।
यह मेरे घर में देखे जाने वाली विचित्र बात थी। मुझसे छोटे भाई ओर बहनें अभी जब मैं घर में नहीं होता था तो मेरी पुस्तकों को सुरक्षा करते थे। कोई मेरी पुस्तकें छू भी नहीं सकता था। और वे उनको साफ करते थे और उनको सही स्थान पर रख दिया करते थे।
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भले ही मैंने उनको कहीं रख दिया हो। इसलिए जब कभी मुझको किसी पुस्तक की आवश्यकता आती थी वे मुझे मिल जाती थी। और यह एक आसान मामला था क्योंकि मैं उनके प्रति इतना सम्मान पूर्ण था। और वे मेरे प्रति अपना सम्मान सिवाय इसके कि वे मेरी पुस्तकों के प्रति सम्मानपूर्ण हो जाएं, वे किसी और ढंग से व्यक्त कर भी नहीं सकते थे।
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मैंने कहा : वास्तविक समस्या बड़े बच्चे है--मेरे चाचा लोग मेरी चाचियां, मेरे पिता की बहनें मेरे पिता के जीजा लोग--ये लोग थे जो समस्या थे। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी पुस्तकों पर निशान लगाए, मेरी पुस्तकों में अंडरलाइन करे। और ये लोग यही किए चले जाते है। मुझको इस खयाल से ही धृणा थी कि कोई व्यक्ति मेरी पुस्तकों में अंडरलाइन करे।
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मेरे पिता के एक जीजाजी प्रोफेसर थे। इसलिए उनमें अंडरलाइन करने की आदत होनी ही थी। और उनको इतनी सारी सुंदर पुस्तकें मिल गई थी, इसलिए जब कभी वे आया करते वे मेरी पुस्तकों पर टिप्पणियां लिख देते थे। मुझको उन्हें बताना पड़ता था: यह न केवल असभ्यता पूर्ण है, गलत आचरण है बल्कि यह भी प्रदर्शित करता है कि आपके पास किस भांति का मन है।
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मैं पुस्तकालय से पुस्तक लाकर पढ़ना नहीं चाहता, मैं पुस्तकालयों से लाकर पुस्तकें नहीं पढ़ता हूं। बस इसी कारण से कि वे अंडरलाइन की हुई, चिह्नित की गई होती है। किसी और व्यक्ति ने किसी बात पर बल दिया हुआ है। मैं ऐसा नहीं चाहता हूं, क्योंकि आपके जाने बिना वह उस बात पर दिया हुआ बल आपने मन में प्रविष्टि हो जाता है। 
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यदि आप कोई पुस्तक पढ़ रहे है और कोई बात लाल रंग से अंडरलाइन है तो यह पंक्ति एक अलग प्रभाव छोड़ती है। आपने पूरा पृष्ठ लिया है लेकिन वह पंक्ति अलग प्रभाव डालती है। यह आपके मन पर एक भिन्न प्रकार की छाप छोड़ जाती है।
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मुझको किसी और द्वारा अंडरलाइन, चिन्हित पुस्तक पढ़ने से अरूचि है। मेरे लिए यह बस उसी प्रकार से है जैसे कोई वेश्या के पास जा रहा हो। एक वेश्या उस स्त्री के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जिसे अंडरलाइन और चिन्हित कर दिया गया हो उसके प्रत्येक स्थान पर विभिन्न लोगों द्वारा भिन्न -भिन्न भाषाओं में टिप्पणियां लिख दी जाती है। आप एक अनछुई स्त्री चाहेंगे, किसी और के द्वारा रेखांकित की हुई नहीं।
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मेरे लिए कोई पुस्तक मात्र एक पुस्तक नहीं है। यह एक प्रेम संबंध है। यदि आप किसी पुस्तक पर अंडरलाइन कर देते है तो आपको उसका मूल्य चुकाना पड़ेगा और उसे ले जाना होगा। फिर मैं उस पुस्तक को यहां पर रखना नहीं चाहता हूं। क्योंकि एक गंदी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। मैं वेश्या बन चुकी पुस्तक को रखना नहीं चाहता--इसको ले लें।
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वे बहुत क्रोधित हो गए, क्योंकि वे मेरी बात समझ न सके। मैंने कहा: आप मुझे नहीं समझते हैं क्योंकि आप मुझको नहीं जानते है। आप जरा मेरे पिता से बात करें।
और मेरे पिता ने उनसे कहा: यह आपका दोष है। आपने उसकी पुस्तक में रेखाएं क्यों खींच दीं। आपने उसकी पुस्तक में टिप्पणी क्यों लिख दी। इससे आपका कौन सा उद्देश्य पूरा हो गया--क्योंकि पुस्तक तो उसी के पुस्तकालय में रहेगी। पहली बात यह कि आपने उससे अनुमति कभी नहीं मांगी--कि आप उसकी पुस्तक पढ़ना चाहते थे।
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यदि यह उसकी चीज है तो यहां उसकी अनुमति के बीना कुछ नहीं होता। क्योंकि यदि आप उसकी चीज बिना अनुमति लिए ले लेते हैं, तो वह प्रत्येक व्यक्ति की वस्तुऐं बिना अनुमति के ले जाना आरंभ कर देता है। और इससे परेशानी निर्मित हो जाती है। अभी उस दिन मेरे एक मित्र ट्रेन पकड़ने जा रहे थे और वह उसका सूटकेस लेकर चला गया.....
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मेरे पिता के मित्र पगलाए जा रहे थे : मेरा सूटकेस कहां है?
मैंने कहा : मुझे पता है कि वह कहां है, लेकिन आपके सूटकेस के भीतर मेरी पुस्तकों में से एक पुस्तक है। मुझको आपने सूटकेस में कोई रुचि नहीं है। मैं तो बस अपनी पुस्तकों में से एक पुस्तक बचाने का प्रयास कर रहा हूं।
मैंने कहा: उसे खोलो-देखो, लेकिन वो हिचकिचा रहे थे। क्योंकि उन्होंने पुस्तक चुराई थी--और उनके सूटकेस में पुस्तक मिल गई। मैंने कहा: अब आप अर्थदंड जमा कीजिए, क्योंकि यह असभ्यता पूर्ण है। 
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आप यहां पर एक अतिथि थे; हमने आपका सम्मान किया, हमने आपकी सेवा की। हमने आपके लिए सब कुछ किया--आपने एक गरीब लड़के की पुस्तक चुरा ली जिसके पास कोई पैसा नहीं है। एक ऐसा लड़का जिसे अपने पिता को धमकाना पडा कि यदि आप मुझे पैसे नहीं देंगे तो मैं चोरी करने जा रहा हूं। और फिर पूछिएगा मत कि मैंने ऐसा क्यों किया है? क्योंकि तब जहां कहीं से मैं चुरा सका, मैं चोरी कर लुंगा।
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ये पुस्तकें सस्ती नहीं है-+और आपने बस इसको अपने सूटकेस में रख लिया। आप मेरी आंखों में धूल नहीं झोंक सकते। मैं जब अपने कमरे में प्रवेश करता हूं तो मैं जान लेता हूं कि मेरी सभी पुस्तकें वहां पर है या नहीं,कोई गायब तो नहीं है।
इसलिए मेरे पिता ने उन प्रोफेसर से कहा जिन्होंने मेरी पुस्तक में अंडरलाइन की थी, उसके साथ वैसा कभी मत कीजिएगा। यह पुस्तक ले जाइए और इसके स्थान पर इसकी नई प्रति लाकर रख दीजिएगा।ओशो

गुरुवार, 12 जनवरी 2023

= १९७ =

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*अपने अंग संग कर राखे,*
*निर्भय नाम निशान बजावा ।*
*अविगत नाथ अमर अविनाशी,*
*परम पुरुष निज सो पावा ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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"आखिर दुनिया कि सरकारें ओशो से डरती क्यों है ?"
क्या मनुष्य ओशो को समझने को तैयार है ?
टॉम रॉबिन्स एक प्रसिद्ध अमरिकी उपन्यासकार हैं जिनके कुछ उपन्यासों का हॉलिवुड में फिल्मांतरण भी किया गया है। 1987 में उन्होंने डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा ओशो पर लिखी पुस्तक, 'भगवान: दि मोस्ट गॉडलैस यैट दि मोस्ट गॉडली ऑफ मैन, की भूमिका लिखी थी। उसी भूमिका को उन्होंने अपनी पुस्तक 'वाइल्ड डँक्स फ्लाइंग बैकवर्ड' में एक टिप्पणी के साथ सम्मिलित किया है। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक से यह संपूर्ण आलेख:
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मैं ओशो का शिष्य नहीं हूं। मैं किसी भी गुरु का शिष्य नहीं हूं। बल्कि मैं तो मानता हूं कि पूर्वीय गुरु व्यवस्था पश्चिम में चेतना के विकास में उपयोगी नहीं है(जबकि इस बात को मानने वाला भी मैं पहला होउंगा कि जो 'उपयोगी' होता है वह सदा महत्वपूर्ण नहीं होता)। जिस प्रकार का व्यक्तिवादी होने का मैं दावा करता हूं उसके साथ गुरत्व का थोडा-सा भी मेल नहीं बैठता। लेकिन हां, यदि मुझे अपनी आत्मा किसीको सौंपनी ही हो तो मैं किसी राजनैतिक पार्टी या किसी मनोविश्लेषक की बजाय ओशो जैसे किसी को सौंपना चाहूंगा।
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तो, मैं कोई संन्यासी नहीं हूं। लेकिन जब कोई हरी बयार मेरे द्वार-दरवाजों को झकझोर जाए तो उसे पहचानने की क्षमता जरुर रखता हूं, और ओशो तो वह प्यारी-सी आंधी हैं जो इस ग्रह को अपनी चपेट में लेते हुए रबाइयों और पोपों की टोपियां उडा रही है, ब्यूरोक्रेट्स की मेजों पर पडे झूठ के पुलिंदो को तितर-बितर कर रही है, शक्तिशालियों की घुडसालों में अफरा-तफरी मचा रही है, रुग्ण नैतिकतावादियों की धोतियां खोल रही है, और आध्यात्मिक रुप से मरे हुओं को वापस जिंदा कर रही है।
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*ओशो नाम का यह तूफान कोई झूठ-मूठ के आश्वासन नहीं देता*। वे कोई सांप का तेल नहीं बेच रहे। वे न तो आपके दांतो को मजबूत करने के लिए कोई मंडला देते हैं और न ही आपको करोडपति बनाने के लिए कोई मंत्र देते हैं। अध्यात्म के बाजार में सब नियमों को उन्होंने ताक पर रख दिया है। उनके इस ताजातरीन रवैये ने उन्हें मनुष्य के इतिहास की सबसे मजबूत संगति में ला बैठाया है।
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जीसस के पास अपनी कहानियां थीं, बुध्द के पास अपने सूत्र थे, मौहम्मद के पास अरेबियन नाइट की कल्पनाएं थीं। ओशो के पास लोभ, भय, अज्ञान और अंधविश्वास से लिप्त मानव प्रजाति के देने के लिए कुछ अधिक मौजूं है : उनका ब्रह्मांडीय व्यंग।
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मेरे अनुसार, ओशो ने जो किया है वह है हमारे नकाबों को भेद डालना, हमारे भ्रमों को ध्वस्त कर देना, हमें हमारी अंधी लतों से निकालना, और सबसे महत्वपूर्ण तो हमें चेताना कि स्वयं को बहुत गंभीरता से लेकर कैसे हम स्वयंको ही सीमित कर लेते हैं। परम आनंद की ओर उनका मार्ग हमारे अहंकार को मजाक में उडाता हुआ जाता है।
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हां, बहुत से लोगों को यह मजाक समझ में नहीं बैठता। खासकर सत्ताधीशों के। मजाक तो उनके सिर के ऊपर से निकल जाता है, लेकिन कहीं गहरे में वे यह जरूर महसूस करते हैं कि ओशो के संदेश में उनके लिए कुछ खतरनाक है। नहीं तो एक आकेले ओशो को ऐसी प्रताडना के लिए वे क्यों चुनते जैसी उन्होंने किसी बनाना रिपब्लिक के तानाशाह या किसी माफिया डॉन को भी न दी होती? अगर रोनाल्ड रीगन का बस चलता तो वह इस कोमल से शाकाहारी को व्हाइट हाउस के दालान में सूली पर लटकाना देना पसंद करता।
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उनको जिस खतरे का अहसास होता है वह यह है कि ओशो के शब्दों में जो छिपा है, उसे यदि पूरी तरह से समझ लिया गया तो नर-नारीयां उनके नियंत्रण से मुक्त हो जाएंगे। राज्य, और अपराध में उनके भागीदार----संगठित धर्म--को स्वतंत्र और मुक्त मनुष्यों की संभावना से अधिक कुछ भी आतंकित नहीं करता। लेकिन स्वतंत्रता एक शक्तिशाली शराब जैसी है। इसे पीने वालों को इसके नशे के साथ समायोजन बिठाने में समय लगता है।
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कुछ लोग-जिनमें ओशो के कुछ संन्यासी भी होंगे---यह समायोजन कभी नहीं बिठा पाते। संसार भर में कितने ही लोग हैं जिन्होंने कई प्रकार की स्वतंत्रताओं की बात की है, लेकिन बार-बार हमने देखा है कि लोग अपनी स्वतंत्रता को संभाल नहीं पाते। 
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'ओशो का अनुसरण करने वाले कितने लोग स्वतंत्र हो पाते हैं, और कितने उस स्वतंत्रता को संभाल पाते हैं यह देखा जाना अभी बाकी है'। इतिहास को देखें और मनुष्य नाम के पशु की जडता को देखें तो लगता तो ऐसा है कि उसकी भ्रष्ट उदासीनता को तोडने के लिए एक करुणामय मनीषी की गैरपारंपरिक प्रज्ञा से भी अधिक शायद यह जरूरी हो कि यह मनुष्यता पूरी समाप्त हो और फिर से शुरू हो।
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खैर, वह हो कि न हो, लेकिन ओशो की प्रज्ञा हमें उपलब्ध है। उनकी अंतर्दृष्टि हमें उपलब्ध है और हम चाहें तो अपने मुखौटों के पार देख सकते हैं। इस अंतर्दृष्टि में ताकत है कि वह परिणाम की परवाह किए बगैर अभिव्यक्त हो सकती है। इस अंतर्दृष्टि में प्रेम भी है और नटखट शरारत भी। यह ओशो की जीवंतता है कि वे सारे भौतिक सुविधाओं को खुलकर जीते भी हैं और फिर उन्हीं में अटके रह जाने के खतरे से भी चेताते हैं। 'जोरबा दि बुध्दा की इस अंतर्दृष्टि को हम समझ लें, तो सब समझ गए।
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स्वभावत; जिन पत्रकारों ने ओशो पर शोध की है उनमें से अधिकांश उनके तरीकों, उनके संदेश और उनकी उलटबांसियों को समझ ही नहीं पाए। यहां तक कि उनके कई अनुयायी भी विबूचन में पड गए। खैर, यह कोई नयी बात नहीं है। जीसस, बुध्द और सुकरात भी केवल राजनैतिक-धार्मिक सत्ताओं द्वारा ही नहीं अपने कई शिष्यों द्वारा भी गलत समझे गए थे। यह शायद इस मार्ग का नियम ही है। इसीलिए तो झेन में कहते हैं, 'गुरु सदा सडक पर मार दिया जाता है।' शायद अकसर तो उनके ही द्वारा जो उसे प्रेम करने का दावा करते हैं।
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जब भी ओशो के किसी शिष्य ने कुछ आपत्तिजनक किया है तो मीडिया व जनता ने ओशो पर इलजाम लगाया है। वे यह नहीं समझ पाते कि ओशो उन्हें नियंत्रित नहीं करते, और न ही ऐसा उनका कोई इरादा रहा है। ऊपर से किसी द्वारा किसीको नियंत्रित करने का प्रयास उनके संदेश के विपरीत जाता है। जब भी ओशो के नाम पर कोई मूढता की गई है, उन्होनें अपना सिर झटककर केवल इतना कहा है, 'मुझे पता है वे थोडे बुद्धू हैं, पर उन्हें इससे गुजरना पडेगा।'
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इतनी स्वतंत्रता, इतनी सहिष्णुता को समझ पाना तो मानव अधिकारों की माला जपने वालों के लिए भी उतना ही मुश्किल है जितना कि किसी जडबुद्धि के लिए। लेकिन उस बाह्य व्यक्ति की भांति जो अभिभूत है कि किस प्रकार ओशो ने जीवन की गहनता को मस्ती दे दी है, मैं जानता हूं कि यदि हमें उस गंदगी से बाहर निकलना है जिसमें अपनी शक्ति की भूख और मालकियत की प्यास के चलते हम इस सुंदर ग्रह को ले आए हैं----तो हमें ओशो को समझना ही होगा। बस कामना करता हूं कि हम उन्हें अपनी अंधी परंपराओं के फिल्टर उतारकर सुनें।

डॉ. जॉर्ज मेरेडिथ द्वारा लिखीत 'भगवान: दि मोस्ट गॉडलेस येट दि मोस्ट गॉडली ऑफ मैन' की भूमिका,1987

= १९६ =

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*व्याकुल भई शरीर न समझै,*
*विषम बाण हरि मारे ।*
*दादू दर्शन बिन क्यों जीवै,*
*राम सनेही हमारे ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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छठवें नंबर के लिए मेरी पसंद एक अद्भुत आदमी की पुस्तक है। वे अपने आप को 'एम' नाम से पुकारते थे। मुझे उनका असली नाम मालूम है, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी को अपना असली नाम मालूम नहीं होने दिया। उनका नाम है महेंद्रनाथ। वे एक बंगाली थे, रामकृष्ण के शिष्य थे।
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महेंद्रनाथ अनेक वर्षों तक रामकृष्ण के चरणों में बैठे, और अपने सद्गुरु के आस-पास जो कुछ भी घटित हो रहा था, उसे लिखते रहे। पुस्तक का नाम है : 'दि गाॅस्पेल ऑफ़ रामकृष्ण'--जिसे 'एम' ने लिखा है। वे कभी भी अपने का खुलासा करना नहीं चाहते थें, वे अनाम बने रहना चाहते थे। यही एक सच्चे शिष्य का ढंग है। उन्होंने अपने आप को पूरी तरह से मिटा डाला था।
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तुम्हें जान कर हैरानी होगी कि जिस दिन रामकृष्ण की मृत्यु हुई, उसी दिन 'एम' की भी मृत्यु हो गई। अब उनके लिए अधिक जीने का कोई अर्थ नहीं रह गया था। मैं समझ सकता हूं... रामकृष्ण की मृत्यु के बाद 'एम' के लिए मरने की तुलना में जीना कहीं अधिक मुश्किल था। अपने सद्गुरु के बिना जीने के बजाय मृत्यु कहीं अधिक आनंददायी थी।
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सद्गुरु तो अनेक हो चुके हैं लेकिन 'एम' जैसा शिष्य कभी नहीं हुआ जिसने अपने सद्गुरु के बारे में इतना सही-सही लिखा हो। वे कहीं भी बीच में नहीं आते हैं। उन्होंने ज्यूं का त्यूं लिखा है--अपने और रामकृष्ण के संबंध में नहीं, बल्कि केवल रामकृष्ण के संबंध में।‌ सद्गुरु के सान्निध्य में उनका अस्तित्व ही नहीं रहता। 
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मैं इस व्यक्ति से और उनकी पुस्तक से, और खुद को मिटा देने के उनके अथक प्रयास से प्रेम करता हूं।‌ 'एम' जैसे शिष्य मिलना दुर्लभ है। रामकृष्ण इस मामले में जीजस से कहीं अधिक भाग्यशाली थे। मुझे उनका नाम मालूम है, क्योंकि मैंने बंगाल में यात्रा की है।‌ रामकृष्ण पिछली सदी के अंत तक जीवित थें, इसलिए मैं जान सका कि उनका नाम 'महेंद्रनाथ' है।

ओशो; मेरी प्रिय पुस्तकें-- सत्र- सौलहवां

= १९५ =

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*दादू सतगुरु मारे शब्द सौं,*
*निरखि निरखि निज ठौर ।*
*राम अकेला रह गया, चित्त न आवै और ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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*स्वामी विवेकानंद जी की जयंती पर आप सभी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं*
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एक छोटी घटना और--जों अष्टावक्र के जीवन से संबंधित नहीं, रामकृष्ण और विवेकानंद के जीवन से संबंधित है, लेकिन अष्टावक्र से उसका जोड़ है-'फिर हम सूत्रों में प्रवेश करें।
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विवेकानंद रामकृष्ण के पास आये, तब उनका नाम ‘नरेंद्रनाथ’ था। ‘विवेकानंद’ तो बाद में रामकृष्ण ने उनको पुकारा। जब आये रामकृष्ण के पास तो अति विवादी थे, नास्तिक थे, तर्कवादी थे। हर चीज के लिए प्रमाण चाहते थे।
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कुछ चीजें हैं जिनके लिए कोई प्रमाण नहीं- 'मजबूरी है। परमात्मा के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है। प्रेम के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है। सौंदर्य के लिए कोई प्रमाण नहीं है; है और प्रमाण नहीं है।
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अगर वृक्षों के सौंदर्य को देखना हो तो कला की आंख चाहिए--और कोई प्रमाण नहीं है। अगर किसी के प्रेम को पहचानना हो तो प्रेमी का हृदय चाहिए--और कोई प्रमाण नहीं है। और परमात्मा तो इस जगत के सारे सौंदर्य और सारे प्रेम और सारे सत्य का इकट्ठा नाम है। उसके लिए तो ऐसा निर्विकार चित्त चाहिए, ऐसा साक्षी-भाव चाहिए, जहां कोई शब्द न रह जाये, कोई विचार न रह जाये, कोई तरंग न उठे। वहां कोई धूल न रह जाये मन की और चित्त का दर्पण परिपूर्ण शुद्ध हो ! प्रमाण कहां ? रामकृष्ण से विवेकानंद ने कहा : प्रमाण चाहिए। है परमात्मा तो प्रमाण दें।
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और विवेकानंद को देखा रामकृष्ण ने। बड़ी थी संभावनाएं इस युवक की। बड़ी थी यात्रा इसके भविष्य की। बहुत कुछ होने को पड़ा था इसके भीतर। बड़ा खजाना था, उससे यह अपरिचित है। रामकृष्ण ने देखा, इस युवक के पिछले जन्मों में झांका। यह बड़ी संपदा, बड़े पुण्य की संपदा ले कर आ रहा है। यह ऐसे ही तर्क में दबा न रह जाये। 
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कराह उठा होगा पीड़ा और करुणा से रामकृष्ण का हृदय। उन्होंने कहा, ‘छोड़, प्रमाण वगैरह बाद में सोच लेंगे। मैं जरा बूढ़ा हुआ, मुझे पढ़ने में अड़चन होती है। तू अभी जवान, तेरी आंख अभी तेज--यह किताब पड़ी है, इसे तू पढ़।’ वह थी अष्टावक्र--गीता। ‘जरा मुझे सुना दे।’
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कहते हैं, विवेकानंद को इसमें तो कुछ अड़चन न मालूम पड़ी, यह आदमी कुछ ऐसी तो कोई खास बात नहीं मांग रहा है ! दो-चार सूत्र पढ़े और एक घबड़ाहट, और रोआं-रोआं कंपने लगा ! और विवेकानंद ने कहा, मुझसे नहीं पढ़ा जाता। रामकृष्ण ने कहा : पढ़ भी ! इसमें हर्ज क्या है ? तेरा क्या बिगाड़ लेगी यह किताब ? तू जवान है अभी। तेरी आंख अभी ताजी हैं। और मैं बूढ़ा हुआ, मुझे पढ़ने में दिक्कत होती है। और यह किताब मुझे पढ़नी है तो तू पढ़ कर सुना दे।
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कहते हैं उस किताब को सुनाते-सुनाते ही विवेकानंद डूब गये। रामकृष्ण ने देखा इस व्यक्ति के भीतर बड़ी संभावना है, बड़ी शुद्ध संभावना है, जैसी एक बोधिसत्व की होती है जो कभी न कभी बुद्ध होना जिसका निर्णीत है, आज नहीं कल, भटके कितना ही, बुद्धत्व जिसके पास चला आ रहा है। क्यों अष्टावक्र की गीता रामकृष्ण ने कही कि तू पढ़ कर मुझे सुना दे ? 
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क्योंकि इससे ज्यादा शुद्धतम वक्तव्य और कोई नहीं। ये शब्द भी अगर तुम्हारे भीतर पहुंच जायें तो तुम्हारी सोयी हुई आत्मा को जगाने लगेंगे। ये शब्द तुम्हें तरंगायित करेंगे। ये शब्द तुम्हें आह्लादित करेंगे। ये शब्द तुम्हें झकझोरेंगे। इन शब्दों के साथ क्रांति घटित हो सकती है।
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अष्टावक्र की गीता को मैंने यूं ही नहीं चुना है। और जल्दी नहीं चुना--बहुत देर करके चुना है, सोच-विचार कर। दिन थे, जब मैं कृष्ण की गीता पर बोला, क्योंकि भीड़-भाड़ मेरे पास थी। भीड़-भाड़ के लिए अष्टावक्र-गीता का कोई अर्थ न था। बड़ी चेष्टा करके भीड़-भाड़ से छुटकारा पाया है। 
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अब तो थोड़े--से विवेकानंद यहां हैं। अब तो उनसे बात करनी है, जिनकी बड़ी संभावना है। उन थोड़े से लोगों के साथ मेहनत करनी है, जिनके साथ मेहनत का परिणाम हो सकता है। अब हीरे तराशने हैं, कंकड़-पत्थरों पर यह छैनी खराब नहीं करनी। इसलिए चुनी है अष्टावक्र की गीता। तुम तैयार हुए हो, इसलिए चुनी है।
ओशो, अष्टावक्र महागीता--भाग--1--(प्रवचन--1)

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

= १९४ =

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*दादू जब दिल मिली दयालु सौं,*
*तब अंतर कुछ नांहि ।*
*ज्यों पाला पाणी कों मिल्या,*
*त्यों हरिजन हरि मांहि ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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वह जो अननोन है, नोन के घेरे में कैसे पकड़ में आएगा। वह अज्ञात है, वह ज्ञात में कैसे पकड़ा जाएगा। इसलिए विचार करना जुगाली करने से ज्यादा नहीं है। कभी भैंस को दरवाजे पर बैठा हुआ जुगाली करते देखा हो। घास उसने खा लिया है, फिर उसी को निकाल-निकाल कर वह चबाती रहती है।
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जिसको हम विचार करना कहते हैं, वह जुगाली है। विचार हमने इकट्ठा कर लिए हैं किताबों से, शास्त्रों से, संप्रदायों से, गुरुओं से, काॅलेजों से, स्कूलों से, चारों तरफ विचारों की भीड़ है, वे हमने इकट्ठे कर लिए हैं, फिर हम उनकी जुगाली कर रहे हैं। हम उन्हीं को चबा रहे हैं बार-बार। लेकिन उससे अज्ञात कैसे हमारे हाथ में आ जाएगा ?
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अगर अननोन को जानने की आकांक्षा पैदा हो गई हो, अगर अज्ञात को पहचानने का खयाल आ गया हो, तो वह जो नोन है, उसे विदा कर देना होगा, उसे नमस्कार कर लेना होगा, उससे कहना होगा अलविदा। उससे कहना होगा, तुमसे क्या होगा, तुम जाओ और मुझे खाली छोड़ दो। शायद खालीपन में मैं उसे जान लूं जो मुझे पता नहीं है। लेकिन भरा हुआ मैं तो उसे कभी भी नहीं जान सकता हूं। 
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इसलिए विचारक कभी नहीं जान पाते हैं और जो जान लेते हैं, वे विचारक नहीं हैं। जिसको हम मिस्टिक कहें, जिसको हम संत कहें, वे विचारक नहीं हैं, वे वह आदमी हैं, जिसने कहा कि रहस्य है। अब जानेंगे कैसे, खोजेंगे कैसे, सोचेंगे कैसे, जिसने कहा रहस्य है, मिस्ट्री है, हम अपने को मिस्ट्री में खोए देते हैं। शायद खोने से मिल जाए, जान लें। छोटी सी कहानी से समझाने की कोशिश करूं।
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मैंने सुना है, समुद्र के किनारे मेला भरा हुआ था। बहुत लोग उस मेले में गए। दो नमक के पुतले भी गए हुए हैं। और मेले के किनारे, समुद्र के तट पर खड़े होकर लोग सोच रहे हैं समुद्र की गहराई कितनी है। लेकिन वे किनारे पर खड़े होकर सोच रहे हैं। अब समुद्र की गहराई को उस किनारे पर खड़े होकर सोचने से क्या मतलब ? 
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समुद्र कितना गहरा है, यह किनारे पर बैठ कर कैसे सोचा जा सकता है ! समुद्र में उतरना पड़ेगा। लेकिन विचार करने वाले हमेशा किनारों पर बैठे रहते हैं, वे कभी उतरते नहीं। उतरना और तरह की बात है, विचार करना और तरह की बात है। विचार करने के लिए किनारे पर बैठे होना ठीक है।
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नमक के पुतले भी आए हुए थे। उन्होंने कहाः लोग बहुत सोचते हैं, लेकिन कुछ पता नहीं चलता। कोई कितना बताता है, कोई कितना बताता है। और किनारे पर बैठे लोग विवाद करने लगे हैं और झगड़ा शुरू हो गया है। और किसी की बात न सही सिद्ध होती है, न गलत सिद्ध होता है, क्योंकि समुद्र में कोई गया नहीं है। 
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तो नमक के पुतले ने कहाः मैं कूद कर पता लगा आता हूं कि कितना गहरा है। नमक का पुतला कूद भी सकता है, क्योंकि सागर से उसकी आत्मीयता है। नमक का पुतला है, सागर से ही निकला है, जाने में डर भी क्या है। उस सागर में कूद सकता है। वह कूद गया। सारे लोग किनारे पर खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह निकल आए और बता दे। 
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वो जैसे-जैसे सागर में गहरे जाने लगा, वैसे-वैसे पिघलने लगा। वह नमक का पुतला था। वह सागर में पिघलने लगा, गहरा तो जाने लगा, लेकिन पिघलने लगा। वह गहरा पहुंच भी गया, उसने गहराई का पता भी लगा लिया, लेकिन जब तक पता लगाया, तब तक वह खुद समाप्त हो चुका था।
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उसे पता तो चल गया था कि सागर कितना गहरा है, लेकिन लौटने योग्य बचा नहीं कि लौट कर बाहर तट पर लोगों से कह सके कि इतना गहरा है। बहुत लोगों ने प्रतीक्षा की, सांझ होने लगी। उसके मित्र ने कहा कि पता नहीं, मित्र कहां खो गया है। मैं उसका पता लगा आता हूं। वह मित्र जो था नमक का पुतला, वह भी कूद गया। फिर रात घनी हो गई, वह भी नहीं लौटा। वह भी पहुंच गया मित्र के पास। लेकिन जब तक पहुंचा, तब तक खुद खो गया।
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फिर सुबह वह मेला उजड़ गया। फिर हर वर्ष वहां मेला भरता है और लोग पूछते हैं, उस आस-पास रहने वाले लोगों से, पुतले वापस तो नहीं लौटे ? समुद्र की कितनी गहराई है इसका पता लगाना है ? लेकिन वे खुद समुद्र की गहराई में जाने को राजी नहीं।
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*परमात्मा के किनारे बैठ कर कुछ भी पता नहीं चल सकता है। जाना पड़े और कठिनाई यह है कि जो जाता है, वह खो जाता है। जो जाता है, वह लौट कर कहने योग्य नहीं रह जाता। जो जाता है, वहां से मूक होकर लौटता है। जो जाता है वहां, सब खो जाता है उसका। उसकी आंखों से शायद हम पहचान लें। शायद उसके उठने चलने से पहचान लें। शायद उसके जीने से पहचान लें। लेकिन नहीं, हम शब्दों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पहचानते। हम हजारों साल तक शब्दों पर विचार करते रहते हैं।*
सत्य का दर्शन-(प्रवचन-05)

= १९३ =

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*दादू देखु दयालु को,*
*सकल रह्या भरपूर ।*
*रोम रोम में रमि रह्या,*
*तूँ जनि जानै दूर ॥*
*दादू देखु दयालु को,*
*बाहरि भीतरि सोइ ।*
*सब दिसि देखौं पीव को,*
*दूसर नाहीं कोइ ॥*
*दादू देखु दयालु को,*
*सनमुख सांई सार ।*
*जीधरि देखौं नैंन भरि,*
*तीधरि सिरजनहार ॥*
=================
साभार : @Subhash Jain
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भजन का क्या अर्थ है ?
बैठ कर मंजीरा बजा लिया, कि राम नाम की धुन कर ली, कि राम नाम का अखंड पाठ कर लिया ? नहीं इन ओपचारकिताओं से भजन नहीं होता ! भजन का अर्थ है; प्राण प्रभु के प्रेम में पड़े, एक धुन भीतर बजती रहे, अहर्निश; उठते बैठते एक स्मरण सतत बना रहे । एक धारा बहती रहे प्रभु की । जो देखो उसमें प्रभु दिखाई दे, जो करो उसमें प्रभु दिखाई पड़े ।
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सारा जगत परम पुनीत है, पावन है । क्योंकि परमात्मा से आपुर है !
हवाएं वृक्षों से गुजरे तो उसकी आवाज स्मरण रखना; कोयल पुकारने लगे दूर से तो उसने ही पुकारा है ! कोयल के रूप में, ऐसा अनुभव करना ! ऐसी प्रतीति की सघनता का नाम भजन है !!
ओशो

सोमवार, 9 जनवरी 2023

= १९२ =

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*रहते सेती लाग रहु, तो अजरावर होइ ।*
*दादू देख विचार कर, जुदा न जीवै कोइ ॥*
=================
साभार : @Subhash Jain
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तीन फकीर एक बड़ी यात्रा पर थे, वे एक मरुस्थल से गुजरते थे, मरुस्थल लंबा था और उनकी आशा से ज्यादा लंबा निकला। उनका भोजन चुक गया, उनका पानी चुक गया। और अभी कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती थी कि कितनी यात्रा और शेष रह गई है। शायद वे भटक गए थे। एक सांझ जब वे रात को रुके, तो उनके पास केवल एक रोटी का टुकड़ा और एक छोटी सी बोतल पानी की बची थी।
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तीनों लोगों को उतना पानी पूरा नहीं हो सकता था, तीनों लोगों को उतनी रोटी से कोई मतलब हल नहीं होता था। तो उन तीनों ने सोचा, बजाय इसके कि हम तीनों इसे खाएं और तीनों समाप्त हो जाएं, यह उचित होगा कि एक इसे खा ले, शायद वह मंजिल तक पहुंच जाए। दिन, दो दिन की उसे ताकत मिल जाए। लेकिन कौन खाए इसे ? उन तीनों में विवाद हो गया कि कौन खाए इसे ? कोई निर्णय नहीं हो सका।
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तो उन तीनों ने यह सोचा कि हम सो जाएं; एक ने सुझाव दिया कि हम तीनों सो जाएं और रात जो भी सपने हमें दिखाई पड़ें सुबह हम अपने सपने बताएं, और जिसने श्रेष्ठतम सपना देखा होगा वह रोटी और पानी का सुबह अधिकारी हो जाएगा। वे तीनों सो गए।
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फिर सुबह दूसरे दिन उठे, उनमें से एक ने पहले अपना सपना बताया कि मैंने बहुत ही श्रेष्ठ सपना देखा, मैंने देखा सपने में परमात्मा खड़ा है और वह यह कह रहा है कि तेरा आज तक का जीवन अत्यंत पवित्र है, तेरा अतीत एक पवित्रता की कहानी है, तू ही रोटी और पानी के खाने का हकदार है।
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फिर दूसरे फकीर ने कहा कि मैंने भी सपना देखा और मैंने देखा कि अंतरिक्ष से कोई आवाज गूंजती है कि तू ही हकदार है रोटी और पानी का, क्योंकि तेरा भविष्य बहुत उज्जवल है। आने वाले दिनों में तेरे भीतर बड़ी संभावनाएं प्रकट होने को हैं, तुझसे जगत का, लोक का बहुत कल्याण होगा, इसलिए तू ही हकदार है रोटी और पानी का।
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फिर उन दोनों ने तीसरे मित्र से कहा कि तुमने क्या देखा ? उसने कहा: मुझे न तो कोई आवाज सुनाई पड़ी, न कोई परमात्मा दिखाई पड़ा, न कोई मुझसे बोला, मुझे तो मेरे भीतर से यह खबर आई कि तू उठ और जाकर रोटी और पानी खा ले। तो मैं तो खा भी चुका हूं। ये तीन फकीर हैं। इनमें एक अतीत की कथा को श्रेष्ठ समझ रहा है, दूसरा भविष्य के आने वाले दिनों को; लेकिन एक वर्तमान के क्षण को ही जी लिया है, जी चुका है।
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आनंद के अनुभव को वे लोग उपलब्ध नहीं होते जो पीछे लौट कर देखते रहते हैं, वे लोग भी नहीं जो आगे का सोचते रहते हैं, केवल वे ही लोग जो प्रतिक्षण जीते हैं, प्रतिक्षण। और जीवन में जो भी उपलब्ध है प्रतिक्षण उसे पी लेते हैं और स्वीकार कर लेते हैं। और इसे इस भांति स्वीकार कर लेते हैं कि जैसे इसके आगे कोई क्षण नहीं, जैसे इसके आगे कोई जीवन नहीं, जैसे यह अंतिम निपटारे का क्षण है। जो पीछे लौट-लौट कर देखते रहते हैं उनके वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है।
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जो आगे-आगे सपने देखते रहते हैं उनका भी वर्तमान का क्षण हाथ से छूट जाता है। और स्मरण रहे, कि वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त, वर्तमान के क्षण के अतिरिक्त किसी चीज का कोई अस्तित्व नहीं है। वर्तमान का क्षण ही है केवल, वही द्वार बन सकता है अनुभव का, आनंद का, प्रभु का। तीव्र जीवन चाहिए वर्तमान के क्षण पर केंद्रित। वर्तमान के क्षण पर घनीभूत तीव्र जीवन चाहिए। जितना तीव्र जीवन होगा उतने ही आनंद की झलकें मिलनी शुरू हो जाएंगी।
शून्य समाधि-३

= १९१ =

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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥*
=================
साभार : @Subhash Jain
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दादू ऐसे मॅंहगे मोल का,एक श्वांस जे जाय।
चौदह लोक समान सो,काहे रेत मिलाय ॥
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🌹🙏 जय जिनेन्द्र 🙏🌹
*कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं*
*जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा !*
*ओशो - जिन सूत्र--(भाग--1) प्रवचन--01*
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एक-एक सांस इतनी बहुमूल्य है, तुम्हें पता नहीं। इसलिए महावीर कहते हैं, सोच लो, कहां लगा रहे हो अपनी श्वासों को ! जो मिलेगा, वह पाने योग्य भी है ? कहीं ऐसा न हो कि गंवाने के बाद पता चले कि जो मूल्य दिया था, बहुत ज्यादा था, और जो पाया वह कुछ भी न था। असली हीरों के धोखे में नकली हीरे ले बैठे !
.
*कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं*
*जिंदगी तूने तो धोखे पे दिया है धोखा !*
*जिंदगी सिलसिला है: धोखे पर धोखा।*
"बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।' 
लगता है--लगता है, मूर्च्छा के कारण।
.
कभी किसी कुत्ते को देखा, सूखी हड्डी को चबाते ! चबाता है कितने रस से ! तुम बैठे चकित भी होओगे कि सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! सूखी हड्डी में कोई रस तो है नहीं। सूखी हड्डी में चबाता क्या होगा ! लेकिन होता यह है कि जब सूखी हड्डी को कुत्ता चबाता है तो उसके ही जबड़ों, जीभ से, तालू से लहू--सूखी हड्डी की टकराहट से लहू बहने लगता है। उसी लहू को वह चूसता है। सोचता है, हड्डी से रस आ रहा है। हड्डी से कहीं रस आया है ! अपना ही खून पीता है। अपने ही मुंह में घाव बनाता है। भ्रांति यह रखता है कि हड्डी से रस आता है। हड्डी से खून आ रहा है।
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जिन्होंने भी जागकर देखा है, थोड़ा अपना मुंह खोलकर देखा है, उन्होंने यही पाया है कि इंद्रिय-सुख सूखी हड्डियों जैसे हैं, उनसे कुछ आता नहीं। अगर कुछ आता भी मालूम पड़ता है तो वह हमारी ही जीवन की रसधार है। और वह घाव हम व्यर्थ ही पैदा कर रहे हैं। जो खून हमारा ही है, उसी को हम घाव पैदा कर-कर के वापिस ले रहे हैं।
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काम-भोग में जो सुख मिलता है, वह सुख तुम्हारा ही है जो तुम उसमें डालते हो। वह तुम्हारे काम-विषय से नहीं आता। स्त्री को प्रेम करने में, पुरुष को प्रेम करने में तुम्हें जो सुख की झलक मिलती है, वह न तो स्त्री से आती है न पुरुष से आती है, तुम्हीं डालते हो। वह तुम्हारा ही खून है, जो तुम व्यर्थ उछालते हो। पर भ्रांति होती है कि सुख मिल रहा है।
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कुत्ते को कोई कैसे समझाए ! कुत्ता मानेगा भी नहीं। कुत्ते को इतना होश नहीं। लेकिन तुम तो आदमी हो ! तुम तो थोड़े होश के मालिक हो सकते हो! तुम तो थोड़े जाग सकते हो !
"बहुत खोजने पर भी जैसे केले के पेड़ में कोई सार दिखाई नहीं देता, वैसे ही इंद्रिय-विषयों में भी कोई सुख दिखाई नहीं देता।'
"खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।'
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खुजली हो जाती है। जानते हो, खुजलाने से और दुख होगा, लहू बहेगा, घाव हो जाएंगे, खुजली बिगड़ेगी और, सुधरेगी न। सब जानते हुए, फिर भी खुजलाते हो। एक अदम्य वेग पकड़ लेता है खुजलाने का। जानते हुए, समझते हुए, अतीत के अनुभव से परिचित होते हुए, पहले भी ऐसा हुआ है, बहुत बार ऐसा हुआ है; फिर भी कोई तमस, कोई मोह-निद्रा, कोई अंधेरी रात, कोई मूर्च्छा मन को पकड़ लेती है, फिर भी तुम खुजलाए चले जाते हो !
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तुमने कभी खयाल किया, लोग जब खुजली को खुजलाते हैं तो बड़ी तेजी से खुजलाते हैं। क्योंकि वे डरते हैं। उन्हें भी पता है कि अगर धीरे-धीरे खुजलाया तो रुक जाएंगे। बड़े जल्दी खुजला लेते हैं, अपने को ही धोखा दे रहे हैं। मांस निकल आता है, लहू बह जाता है। पीड़ा होती है, जलन होती है। फिर वही अनुभव ! लेकिन दुबारा फिर खुजली होगी तो तुम भरोसा कर सकते हो कि तुम न खुजला ओगे ?
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कितनी बार तुमने क्रोध किया, कितनी बार क्रोध से तुम विषाद से भरे, कितनी बार तुम काम में गए, कितनी बार हताश वापिस आए, कितनी बार आकांक्षा की और हर बार आकांक्षा टूटी और बिखरी, कितनी बार स्वप्न संजोए--हाथ क्या लगा ? बस राख ही राख हाथ लगी। फिर भी, दुबारा जब आकांक्षा पकड़ेगी, दुबारा जब क्रोध आएगा, दुबारा जब काम का वेग उठेगा, तुम फिर भटकोगे।
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मनुष्य अनुभव से सीखता ही नहीं। जो सीख लेता है, वही जाग जाता है। मनुष्य अनुभव से निचोड़ता ही नहीं कुछ। तुम्हारे अनुभव ऐसे हैं जैसे फूलों का ढेर लगा हो, तुमने उनकी माला नहीं बनाई। तुमने फूलों को किसी एक धागे में नहीं पिरोया कि तुम्हारे सभी अनुभव एक धागे में संगृहीत हो जाते और तुम्हारे जीवन में एक जीवन-सूत्र उपलब्ध हो जाता, एक जीवन-दृष्टि आ जाती।
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अनुभव तुम्हें भी वही हुए हैं जो महावीर को। अनुभव में कोई भेद नहीं। तुमने भी दुख पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। तुमने भी सुख में धोखा पाया है, कुछ महावीर ने ही नहीं। फर्क कहां है?

अनुभव तो एक से हुए हैं। महावीर ने अनुभवों की माला बना ली। उन्होंने एक अनुभव को दूसरे अनुभव से जोड़ लिया। उन्होंने सारे अनुभवों के सार को पकड़ लिया। उन्होंने उस सार का एक धागा बना लिया। उस सूत्र को हाथ में पकड़कर वे पार हो गए। तुमने अभी धागा नहीं पिरोया। अनुभव का ढेर लगा है, माला बना लेना ही साधना है। उसी की तरफ ये इशारे हैं।
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"खुजली का रोगी जैसे खुजलाने पर दुख को भी सुख मानता है, वैसे ही मोहातुर मनुष्य काम-जन्य दुख को सुख मानता है।'
थोड़ा समझो। हमारी मान्यता से बड़ा फर्क पड़ता है। हमारी मान्यता से, हमारी व्याख्या से बहुत फर्क पड़ता है।
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तुमने कभी खयाल किया ? एक स्त्री को तुम आलिंगन कर लेते हो, सोचते हो, सुख मिला। सोचने का ही सुख है। ऐसा ही तो सपने में भी तुम सोच लेते हो, तब भी सुख मिल जाता है। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हीं होते हो। सपने में कोई स्त्री तो नहीं होती, तुम्हारी ही धारणा होती है। हो सकता है, अपनी ही दुलाई को छाती से चिपटाए पड़े हो, सपना देख रहे हो। जागकर हंसते हो कि कैसा पागलपन है !
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लेकिन सपने में भी उतना ही सुख मिल जाता है; शायद थोड़ा ज्यादा ही मिल जाता है, जितना कि जागने की स्त्री से मिलता है। क्योंकि जागते हुए स्त्री की मौजूदगी कुछ बाधा भी पैदा करती है। सपने में तो कोई भी नहीं, तुम अकेले ही हो, तुम्हारा ही सारा भावनाओं का खेल है।
.
सपने में तुम सुख ले लेते हो स्त्री को आलिंगन करने का, तो थोड़ा सोचो तो! सुख तुम्हारी ही धारणा का होगा। जागते में भी इतना सुख नहीं मिलता, क्योंकि जागते में एक जीवित स्त्री उस तरफ खड़ी है। जीवित स्त्री में पसीने की बदबू भी है। जीवित स्त्री में कांटे भी हैं। जैसे तुममें हैं, ऐसे उसमें हैं।
.
जीवित स्त्री की मौजूदगी थोड़ी बाधा भी डालती है। दूसरे व्यक्ति की मौजूदगी परतंत्र भी करती है। परतंत्रता की पीड़ा भी होती हैं। स्त्री हो सकता है, अभी राजी न हो कि आलिंगन करो, हाथ से हटा दे। लेकिन सपने में तो कोई तुम्हें हाथ से न हटा सकेगा।
🌹🌹🙏🏻🙏🏻🌹🌹

शनिवार, 7 जनवरी 2023

= १९० =

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*जात कत मद को मातो रे ।*
*तन धन जोबन देख गर्वानो,*
*माया रातो रे ॥टेक॥*
*मैं मैं करत जन्म सब खोयो,*
*काल सिरहाणे आयो रे ।*
*दादू देख मूढ़ नर प्राणी,*
*हरि बिन जन्म गँवायो रे ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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*अहंकार का भ्रम*
मेरे प्रिय आत्मन् !
कोई दो हजार वर्ष पहले यूनान में एक फकीर था, डायोजनीज। बड़ा अजीब फकीर था। आधी जिंदगी हाथ में एक लालटेन लिए दिन की दोपहरी में घूमा करता था! लोग उससे पूछते कि हाथ में लालटेन क्यों लिए हो, जब कि सूरज आकाश में प्रकाशित है और पृथ्वी रोशनी से भरी है। तो वह कहता कि हाथ में लालटेन लिए इसलिए घूमता हूं ताकि मैं किसी मनुष्य को खोज सकूं। लेकिन भरी दोपहरी में लालटेन लेकर घूमने से भी मुझे कोई मनुष्य नहीं मिला। फिर उसने नगर छोड़ दिया और एक छोटी सी गुफा में एक कुत्ते के साथ निवास करने लगा।
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एक रात उसका जीवन मैं पढ़ता था। वह किताब बंद करके मैं सो गया और मैंने एक सपना देखा। सपने में मैंने देखा कि डायोजनीज अपनी गुफा में बैठा है अपने कुत्ते के साथ, और मैं भी उसकी गुफा में मौजूद हूं। मैंने डायोजनीज से पूछा कि मैंने सुना है कि तुम आदमी को खोजते-खोजते थक गये और तुम्हें कोई आदमी नहीं मिला। जमीन पर जो इतने आदमी दिखायी पड़ते हैं, ये क्या हैं ?
.
वह डायोजनीज बोलाः वे केवल आदमी की शक्लें हैं, आदमी की आत्माएं नहीं। और मैं ऊब गया हूं। आदमी का साथ मैंने छोड़ दिया और अब मैं इस कुत्ते के साथ रहने लगा हूं ! मैंने उससे पूछा क्या कुत्ते का साथ आदमी के साथ से बेहतर हैं ? वह बोलाः हां, कुत्ते में मुझे कोई रोग नहीं दिखाई पड़े, जो आदमी में हैं। और जब कोई किसी आदमी को घृणा से कुत्ता कहने लगता है, तब मुझे क्रोध आ जाता है, क्योंकि कोई कुत्ता इतना बुरा नहीं है, जितना आदमी है।
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जब कोई कुत्ते से आदमी की तुलना कर देता है, तो मुझे कुत्ते का अपमान मालूम पड़ता है। कुत्ता बहुत अदभुत है और अच्छा है। न तो कुत्तों ने कभी युद्ध किए, न कुत्तों ने बड़ी हिंसा की। न तो कुत्तों ने कोई परिग्रह किया है, न कुत्ते आपस में विभाजित हैं, न उनके समाज और संगठन हैं। कुत्ते बड़े सीधे और सरल हैं। मैं तो बहुत हैरान होने लगा उसकी कुत्ते की प्रशंसा को सुन कर। और उस डायोजनीज ने कहा कि मैं तुमसे यह कहता हूं कि एक वक्त आएगा कि कोई आदमी आदमी का साथ करना पंसद नहीं करेगा।
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लोग कुत्ते पाल लेंगे और लोग कुत्तों के साथ ही घूमने जाया करेंगे।मैंने उससे पूछाः कुत्ते में ऐसी क्या खूबी है ? लेकिन डायोजनीज तो नहीं बोलाः उसका कुत्ता हंसने लगा। तो मैं और भी घबड़ा गया, क्योंकि हंसना और रोना आदमी के सिवाय और किसी पशु मे नहीं होता। सिर्फ आदमी हंसता है, और कोई जानवर नहीं हंसता। कुत्ते को हंसते देख कर मुझे बहुत परेशानी हुई और मैंने कुत्ते से पूछाः क्या तुम हंसते भी हो ?
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वह कुत्ता बोला कि आदमी के साथ रहते-रहते उसकी कुछ बीमारियां मैं भी सीख गया हूं। न केवल हंसता हूं, बल्कि मैं बातचीत करना भी सीख गया हूं, जो अकेले आदमी की बीमारी है, और किसी पशु की नहीं है। उसे बातचीत करते देख कर अचंभा हुआ और मैंने उससे पूछा कि क्या बात है कि डायोजनीज तुम्हें इतना पसंद करता है ? उसने जो मुझसे कहा था, वह मैं आपसे कहना चाहता हूं।
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उस कुत्ते ने मुझसे कहाः कुत्ता अकेला प्राणी है, जो आदमी की कमजोरी समझ गया। हम पूंछ हिला देते हैं और आदमी खुश हो जाता है, यह उसकी कमजोरी है। इसलिये डायोजनीज मुझसे खुश है, क्योंकि मैं पूंछ हिलाता हूं। और आदमी कुत्तों से खुश हो जायेगा, क्योंकि आदमी की कमजोरी है कोई, जो कि कुत्ते के पूंछ हिलाने से पूरी हो जाती है। मेरी तो नींद खुल गयी। उस कुत्ते की बातें सुन कर और मैं बहुत सोचता रहा कि यह आदमी की कमजोरी क्या है ? और इस आदमी की कमजोरी की खोज में मैं था कि मुझे एक और घटना स्मरण आई।
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एक फकीर था नसरुद्दीन। फकीर होने से पहले वह एक छोटे से गांव में एक छोटी सी होटल का मालिक था। एक दिन सुबह-सुबह देश का राजा जंगल में शिकार करने को निकला, भटक गया और उस होटल में आ गया। उसने नसरुद्दीन ने कहा कि अंडे मिल सकेंगे ? नसरुद्दीन ने कुछ अंडे उसे और उसके साथियों को दिये। खाने के बाद उस राजा ने पूछा कि कितने दाम हुए? नसरुद्दीन ने कहाः सौ रुपये। वह राजा हैरान हो गया। उसने कहाः चार-छह अंडों के दाम सौ रुपये ? दो-चार पैसे भी इनके दाम नहीं हैं ! क्या तुम्हारे इस हिस्से में अंडे इतने कम होते हैं ? आर एग्ज सो रेयर हियर ? क्या इतने कम अंडे यहां होते हैं ?
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नसरुद्दीन ने कहा कि नहीं महाराज, एग्ज आर नॉट रेयर हियर, बट किंग्ज आर। यहां अंडे तो नहीं होते कम, लेकिन राजा मुश्किल से कभी कोई आता है ! उसने सौ रुपये निकाले और दे दिए। नसरुद्दीन की पत्नी बहुत हैरान हुई। उसने कहाः हद कर दी, चार-छह अंडों के सौ रुपये तुमने ले लिए। क्या तरकीब हैं ? नसरुद्दीन ने कहाः मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं। उसकी औरत ने कहाः मैं समझी नहीं। यह आदमी की कमजोरी क्या बला है ? नसरुद्दीन ने कहाः मैं एक कहानी और कहता हूं, शायद तेरी समझ में आ जाए कि आदमी की कमजोरी क्या है।
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नसरुद्दीन ने कहाः एक बार ऐसा हुआ कि मैं एक बहुत बड़े सम्राट के दरबार में गया। मैंने एक बहुत सस्ती सी पगड़ी पहन रखी थी, लेकिन बहुत रंगीन थी, बहुत चमकदार थी। असल में सस्ती चीजें बहुत रंगीन और बहुत चमकदार होती ही हैं। मैं उस पगड़ी को पहन कर दरबार में गया, तो राजा ने मुझसे पूछा कि यह पगड़ी कितने की है ? मैंने कहाः एक हजार स्वर्ण-मुद्राओं की। वह राजा हंसने लगा और उसने कहाः क्या मजाक करते हो ? क्या इतनी मंहगी पगड़ी है यह ?
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और तभी वजीर राजा के पास झुका और उसके कान में कहाः इस आदमी से सावधान रहना। यह दो-चार रुपये की पगड़ी भी नहीं मालूम होती। एक हजार स्वर्ण-मुद्राएं कह रहा है ! कोई लुटेरा मालूम होता है। नसरुद्दीन ने कहाः मैं समझ गया कि वजीर क्या कह रहा है। क्योंकि जो लोग राजा को खुद लूटते रहते हैं, दूसरा कोई लूटने आये, तो वे लोग बाधा जरूर देते हैं। वजीर बाधा दे रहा होगा। लेकिन मैं भी कुछ कम होशियार न था।
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मैंने राजा से कहाः तो मैं जाऊं ? मैंने यह पगड़ी एक हजार स्वर्ण-मुद्राओं में खरीदी थी और जिस आदमी की खरीदी थी, उसने मुझसे कहा था, तू घबड़ा मत। इस जमीन पर एक ऐसा राजा भी है, जो इसे पांच हजार स्वर्ण-मुद्राओं में खरीद सकता है। मैं उसी राजा की खोज में निकला हूं, तो मैं लौट जाऊं ? तुम वह राजा नहीं मालूम होते ! यह दरबार वह दरबार नहीं है, जहां पांच हजार में खरीदी जा सके ? मैं जाऊं ? वह राजा बोलाः दस हजार स्वर्ण-मुद्राएं इसे दे दो और पगड़ी ले लो।
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वह पगड़ी ले ली गयी। वजीर किनारे मेरे पास आया और उसने कहाः तुम बड़े जादूगर मालूम होते हो। क्या कर दिया तुमने? दस रूपये की पगड़ी नहीं है, दस हजार रूपये में खरीद जी गयी ! तो मैंने उसके कान में कहाः तुम पगड़ियों के दाम जानते हो, तो मैं आदमी की कमजोरी जानता हूं।
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आदमी की कमजोरी क्या है ? अहंकार आदमी की कमजोरी है। और जो जितना ज्यादा अहंकार से भरा है, वह उतना ही कमजोर है। और हम सब अहंकार से भरे हैं। हम सब अहंकार से ठोस भरे हैं। हम इतने ज्यादा अहंकार से भरे हैं कि हम में परमात्मा के प्रवेश की कोई संभावना नहीं है।
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जो मनुष्य अहंकार से भरा है, वह सत्य को नहीं जान सकेगा। क्योंकि सत्य के लिये चाहिये खाली और शून्य मन। और जो अहंकार से भरा है, वह बिल्कुल भी खाली नहीं है जहां कि परमात्मा की किरणें प्रवेश पा सकें, जहां कि सत्य प्रवेश पा सके और स्थान पा सके। मनुष्य के अहंकार के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।

= १८९ =

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*परम गुरु सो प्राण हमारा,*
*सब सुख देवै सारा ।*
*दादू खेलै अनन्त अपारा,*
*अपारा सारा हमारा ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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गुरु के पास जो बैठेगा, वह गुरु की सत्ता से आच्छादित होता है !
"उपसीदन द्रष्टा भवति !
और पास बैठने से द्रष्टा बनता है ! उपसीदन शब्द से ही उपनिषद बना है ! उपसीदन यानी पास बैठना ! यह जान कर तुम हैरान होओगे कि उपसीदन शब्द से उपनिषद निर्मित हुआ है ! 
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उपनिषद का अर्थ है, गुरु के पास बैठ कर जो पाया; पास बैठ-बैठ कर जो मिला ! कभी बोलने से मिला ! कभी न बोलने से मिला; कभी कभी गुरु को देखने से मिला; कभी गुरु के पास आंख बंद करने से मिला ! कभी गुरु के उठने से मिला, कभी चलने से मिला, कहना कठिन है ! 
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मगर गुरु के पास होने पर अनेक-अनेक रुपों मिलता है ! अनेक-अनेक तरह से संग बैठता है ! तार छिड़ने लगते है वीणा के ! गुरु के पास यूं तल्लीन हो कर बैठ जाना, कि तुम मिट ही जाओ, उपासना है ! 
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और ऐसी उपासना में, ऐसे उपवास में जो सुन पड़ेगा, जो समझ आ जाएगा, जो किरण तुम्हारे प्राणों में उतर जाएगी, वही उपनिषद बन जाती है ! उपनिषद का अर्थ है, पास बैठ कर जो पाया ! और जो पास बैठेगा, उसे आंख मिलती है, वह द्रष्टा हो जाता है !
** ओशो **

बुधवार, 4 जनवरी 2023

= १८८ =

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*दादू सींचे मूल के, सब सींच्या विस्तार ।*
*दादू सींचे मूल बिन, बाद गई बेगार ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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माओत्से तुंग ने अपने बचपन की एक घटना लिखी है कि मेरी मां की झोपड़ी के पास एक बगिया थी। उसने जीवन भर उस बगिया को संभाला था। उसके फूल इतने बड़े और प्यारे होते थे कि दूर-दूर के गांव के लोग देखने आते थे। और बगिया के पास से गुजरता हुआ ऐसा कठोर आदमी कभी नहीं देखा गया जो दो क्षण ठहर न गया हो उन फूलों को देख कर मां बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ गई।
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माओ छोटा था, पर उसने अपनी मां को कहा कि फिक्र मत करो-घर में और बड़ा तो कोई था नहीं—उसने कहा, फिक्र मत करो, तुम चिंता मत करो पौधों की, मैं उनकी फिक्र कर लूंगा। पंद्रह दिन बाद मां उठी। माओ दिन भर बगीचे में मेहनत करता रहता, दिन-रात, सुबह से लेकर आधी रात तक मां निश्चित थी। लेकिन जिस दिन पंद्रह दिन बाद उठकर वह बगीचे में आई तो देखा बगिया कुम्हला गई है। फूल तो जा चुके कभी के पत्ते भी मुर्दा हो गए हैं, सारे वृक्ष उदास खड़े हैं।
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ऐसा ही लगा होगा उस बुढ़िया को जैसा कि आज अगर किसी के पास आंखें हो, तो सारी मनुष्य की बगिया को देखकर लगेगा - सब फूल गिर गए, सब पत्ते कुम्हला गए, सब वृक्ष उदास खड़े हैं। वह तो छाती पीटकर रोने लगी कि यह तूने क्या किया और तू सुबह से साझ तक करता क्या था ?
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माओ भी रोने लगा। उसने कहा कि मैंने बहुत कुछ किया जो मैं कर सकता था। एक-एक फूल की धूल झाड़ता था, एक-एक पते की धूल झाड़ता था। एक-एक फूल को चूमता था, एक-एक फूल पर पानी छिड़कता था। पता नहीं लेकिन क्या हुआ ! इतना श्रम और सारे कुम्हला गए हैं। सारे वृक्ष कुम्हला गये।
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उसकी मां रोने में भी हंसने लगी। उसने कहा, पागल ! शायद तुझे पता नहीं कि वृक्षों के प्राण पत्तों और फूलों में नहीं होते। वृक्षों के प्राण जड़ों में होते हैं, जो दिखाई नहीं पड़तीं। तू फूल और पत्तों को पानी देगा, तू फूल और पत्तों को चूमेगा और प्रेम करेगा, तो सब निरर्थक है। फूल-पत्ते की फिक्र ही मत कर। अगर अदृश्य जड़ें शक्तिशाली होती चली जाती हैं, तो फूल-पत्ते अपने से निकल आते हैं, उनकी चिंता नहीं करनी पड़ती है।
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लेकिन आदमियों ने जीवन को समझा है बाहर का सारा का सारा फूल-पत्ते का जो फैलाव है वह, और भीतर की जड़ें बिलकुल उपेक्षित हैं, निग्लेक्टेड हैं। आदमी के भीतर की जड़ें बिलकुल ही उपेक्षित पड़ी हैं। स्मरण भी नहीं कि भीतर भी मैं कुछ हूं। और जो भी है वह भीतर है। 
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सत्य भीतर है, शक्ति भीतर है, जीवन की सारी क्षमता भीतर है। वहां से वह प्रकट हो सकती है बाहर। बाहर प्रकटीकरण होता है, होना भीतर है। *बीइंग भीतर है, बिकमिंग बाहर होती है।*

= १८७ =

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*मान सरोवर मांहिं जल, प्यासा पीवै आइ ।*
*दादू दोष न दीजिये, घर घर कहण न जाइ ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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#महाभारत में कथा है कि द्रोण ने सोचा था कि इन सारे पांडवों और कौरवों में युधिष्ठिर सबसे ज्यादा बुद्धिमान मालूम होता है। लेकिन थोड़े दिनों के अनुभव से लगा कि वह तो बिलकुल बुद्धू है। दूसरे बच्चे तो आगे जाने लगे, नया-नया पाठ रोज सीखने लगे और युधिष्ठिर पहले पाठ पर ही रुका रहा।
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आखिर द्रोण की सीमा-क्षमता भी समाप्त हो गई। द्रोण ने पूछा, तुम आगे बढ़ोगे कि पहले ही पाठ पर रुके रहोगे? लेकिन युधिष्ठिर ने कहा, जब तक पहला पाठ समझ में न आ जाए, तब तक दूसरे पाठ पर जाने से सार भी क्या है ?
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पहला पाठ था सत्य के संबंध में। दूसरे बच्चों ने याद कर लिया, पढ़ लिया, आगे बढ़ गए। लेकिन युधिष्ठिर ने कहा कि मैं जब तक सत्य बोलने ही न लगूं, तब तक दूसरे पाठ पर जाऊं कैसे ? और आप जल्दी मत करें। तब द्रोण को समझ में आया।
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खुद युधिष्ठिर की इस मनोदशा को देख कर द्रोण को पहली दफा समझ में आया कि सत्य के आगे और पाठ हो भी क्या सकता है ! तब उन्होंने कहा, तू जल्दी मत कर। तू पहला पाठ ही पूरा कर ले तो सब पाठ पूरे हो गए। फिर दूसरा पाठ और है कहां ?
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अगर सत्य बोलना ही आ गया, सत्य होना आ गया, तो फिर और पाठ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन पाठ अगर सिर्फ पढ़ने हों, तब एक बात है; पाठ अगर जीने हों, तो बिलकुल दूसरी बात है। अंत में महाभारत में कथा है कि जब सारे भाई स्वर्गारोहण के लिए गए, तो एक-एक गिरने लगा, पिघलने लगा, गलने लगा; स्वर्ग के मार्ग पर धीरे-धीरे एक-एक गिरने लगा, द्वार तक सिर्फ युधिष्ठिर पहुंचे और उनका कुत्ता पहुंचा।
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सत्य पहुंचा; और सत्य का जिसने गहरा सत्संग किया था, वह पहुंचा। वह कुत्ता था उनका। वह सदा उनके साथ रहा था। उसकी निष्ठा अपार थी। भाइयों की भी निष्ठा इतनी अपार न थी। भाई भी रास्ते में गल गए, कुत्ता न गला। उसकी श्रद्धा अनन्य थी। उसने कभी संदेह किया ही न था। उसने युधिष्ठिर के इशारे को ही अपना जीवन समझा था।
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युधिष्ठिर भी चकित हुए कि भाइयों का भी साथ छूट गया, वे भी गिर गए मार्ग पर, स्वर्ग के द्वार तक न आ सके--आ सका एक कुत्ता ! द्वार खुला, युधिष्ठिर का स्वागत हुआ, लेकिन द्वारपाल ने कहा, कृपया आप ही भीतर आ सकते हैं, कुत्ता न आ सकेगा। कुत्ता कभी इसके पहले स्वर्ग में प्रवेश भी नहीं पाया। आदमी ही मुश्किल से पाते हैं।
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तो युधिष्ठिर ने कहा, फिर मैं भीतर न आ सकूंगा; जिस कुत्ते ने मेरा इतने दूर तक साथ दिया, जहां मेरे भाई भी मेरे साथी न हो सके, संगी न हो सके; जिसकी श्रद्धा ऐसी अनन्य है; जो मेरे साथ इतने दूर आया, उसका साथ मैं न छोड़ सकूंगा; अन्यथा मैं कुत्ते से भी गया-बीता हुआ। जिसने मेरा साथ दिया, उसका साथ मैं दूंगा, द्वार तुम बंद कर लो।
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तब सारा स्वर्ग हंसने लगा; भीड़ इकट्ठी हो गई देवताओं की और उन्होंने कहा, आप भीतर आएं। और तब गौर से देखा युधिष्ठिर ने, तो कुत्ता न था, स्वयं विष्णु थे ! वह परीक्षा थी। वह परीक्षा थी, अगर युधिष्ठिर उस समय कुत्ते को भूल जाते और भीतर प्रवेश कर देते तो स्वर्ग चूक जाता। वह परीक्षा थी--प्रेम की, श्रद्धा की, अनन्य भाव की।
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एक ही पाठ युधिष्ठिर ने सीखा--सत्य। उतना काफी हुआ; उतना स्वर्ग तक ले जा सका। अर्जुन को सीखने में बड़ी देर लगी। पूरी गीता कृष्ण ने कही, तो भी संदेह उठते चले गए। युधिष्ठिर ने सिर्फ एक पाठ सीखा जीवन में, वह छोटा सा पाठ था सत्य का। गुरु तक को शक हुआ कि यह थोड़ा मंद बुद्धि मालूम होता है, पहले ही पाठ पर अटका है। लेकिन फिर समझ में आया कि पहले पाठ के आगे और पाठ कहां हैं !
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जिसने एक पाठ भी सीख लिया, उसने सब सीख लिया। तुम सीखने की ज्यादा दौड़ में मत पड़ना, उसमें तुम वंचित हो जाओगे। किंचित भी--किंचिदधीता--जरा सा भी बोध परमात्मा का आ गया, परमात्मा का गीत थोड़ा सा भी सुनाई पड़ गया, एक कड़ी भी कान में पड़ गई, एक शब्द भी हृदय तक उतर गया, तो वही बीज बन जाएगा--फूटेगा, वृक्ष बनेगा, तुम अनंत सुगंध से भर जाओगे। एक बीज में सब कुछ छिपा है।
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पंडित कोरे के कोरे रह जाते हैं--गीता कंठस्थ हो जाती है, गीत सुनाई नहीं पड़ता; शब्दों से मस्तिष्क भर जाता है, हृदय भीगता नहीं; दोहरा सकते हैं गीता को, आंख में एक आंसू नहीं उतरता; प्राण में कोई स्वर नहीं बजता; पैर में कोई थिरक नहीं आती; पत्थर की तरह, मुर्दे की भांति, यंत्र की भांति दोहरा देते हैं; भीतर सब अछूता ही रह जाता है; रेखा भी नहीं पड़ती, छाया भी नहीं पड़ती।
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ओशो
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भज गोविंदम मुढ़मते(आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--07

 

= १८६ =

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*सतगुरु की समझै नहीं, अपणै उपजै नांहि ।*
*तो दादू क्या कीजिए, बुरी बिथा मन मांहि ॥*
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साभार : @Subhash Jain
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*एक शिक्षक सिखाता है और एक सद्गुरू जीवन जीता है*
-तुम उसके जीवन से सीख सकते हो, जिस तरह से वह चलता है, जिस तरह से तुम्हारी ओर देखता है, जिस तरह से तुम्हें स्पर्श करता है, वह मार्ग ही होता है। तुम उसे मन में धारण कर सकते हो, तुम उसके घटित होने को स्वीकार कर सकते हो, तुम उपलब्ध बने रह सकते हो, तुम खुले हुए और सहन करने योग्य बन सकते हो।
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इस बारे में प्रत्यक्ष रूप से कहने का उसे कोई भी उपाय नहीं है, इसी कारण वे लोग जो बहुत विद्वान और बुद्धिमान हैं, वे उससे चूक जाते हैं- क्योंकि वे लोग सीखने का केवल एक ही रास्ता जानते हैं और वह है प्रत्यक्ष रूप से सीखना। वे पूँछते हैं-सत्य क्या है? और वे लोग एक उत्तर पाने की आशा रखते हैं।
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ऐसा ही तब घटित हुआ जब पोंटियस पाइलेट ने जीसस से पूँछा- ‘सत्य क्या है ?’- और जीसस मौन बने रहे-वे हिले-डुले भी नहीं, जैसे मानो प्रश्न पूंछा ही न गया हो, जैसे मानो पोंटियस पाइलेट वहाँ नहीं था और न वह उनके सामने वहाँ खड़ा हुआ उनसे कुछ पूँछ ही रहा था। जीसस वैसे ही समान बने रहे, जैसे कि वह प्रश्न उठाने से पूर्व थे, कुछ भी नहीं बदला। पोंटियस पाइलेट ने निश्चित रूप से यह सोचा होगा कि यह व्यक्ति थोड़ा-सा पागल है क्योंकि उसने प्रत्यक्ष प्रश्न करते हुए पूँछा था- ‘सत्य क्या है ?’ और यह व्यक्ति खामोश बना रहा, जैसे मानो उसने सुना ही न हो।
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पोंटियस पाइलेट एक वाइसरॉय था, भली-भाँति शिक्षित, सुसंस्कृत और एक विकसित बुद्धि का व्यक्ति था और जीसस एक अशिक्षित, अविकसित एक बढ़ई के पुत्र थे। यह ऐसे था, जैसे मानो दो विपरीत ध्रुव मिल रहे थे। पोंटियस पाइलेट सारा तत्वज्ञान जानता था, उसने सीखा था और वह सभी धर्मशास्त्रों को जानता था। यह व्यक्ति जीसस पूर्ण रूप से अशिक्षित था और वास्तव में वह कुछ भी नहीं जानता था- अथवा वह केवल ‘कुछ नहीं’ जानता था।
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पोंटियस पाइलेट के सामने पूर्ण रूप से खामोश खड़े हुए, उसने उत्तर दिया लेकिन वह उत्तर अप्रत्यक्ष था, उसने एक उँगुली ऊपर उठाई। सत्य की ओर उठी हुई वह उँगुली ही पूर्ण मौन था। लेकिन पोंटियस पाइलेट चूक गया। उसने सोचा, यह व्यक्ति पागल है। या तो यह बहरा है और सुन नहीं सकता, अथवा वह एक अज्ञानी है जो नहीं जानता है-और इसी कारण वह खामोश है। लेकिन मौन सत्य की ओर उठी हुई एक उँगुली हो सकती हैं, वह बात बुद्धिवादी पोंटियस पाइलेट के लिए अगम्य थी।
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वह चूक गया। वह एक महानतम अवसर था। हो सकता है कि वह तब भी ‘सत्य क्या है’ उसकी खोज में कहीं और भटक रहा हो। उस दिन सत्य उसके सामने खड़ा था। एक क्षण के लिए भी वह मौन हो सका होता? न पूँछते हुए यदि वह जीसस की उपस्थिति में ही बना रहा होता, केवल उन्हें देखते हुए, निरीक्षण करते हुए यदि वह प्रतीक्षा कर सका होता ? वह थोड़ा-सा जीसस को अपने हृदय में धारण कर सका होता ? यदि वह जीसस को अपने ऊपर कार्य करने की अनुमति दे सका होता ? वहाँ पूरा अवसर था-और जीसस ने उस ओर संकेत भी किया था। लेकिन पोंटियस पाइलेट चूक गया।
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जागे हुए लोगों की सिखावन से बुद्धि हमेशा चूक जाएगी, क्योंकि बुद्धि प्रत्यक्ष मार्ग में विश्वास करती है और तुम इस तरह प्रत्यक्ष रास्ते से सत्य पर चोट नहीं कर सकते। यह बहुत सूक्ष्म और नाजुक चीज़ हैं, जितना संभव हो सकता है यह उससे भी अधिक नाजुक है, तुम्हें बहुत सावधानी से गतिशील होना होगा और तुम्हें बहुत अप्रत्यक्ष तरीके से गतिशील होना होगा। तुम्हें उसका अनुभव करना होगा- वह कभी भी बुद्धि के द्वारा न आकर, हृदय के द्वारा आती है। शिक्षा, बुद्धि के द्वारा आती है और सिखावन हृदय के द्वारा घटित होती है..
और फूलों की बरसात हुई ~ प्रवचन 11
सद्गुरू ओशो