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गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

= २०० =

卐 सत्यराम सा 卐
सपना तब लग देखिये, जब लग चंचल होइ ।
जब निश्चल लागा नाम सौं, तब सपना नांही कोइ ॥
जागत जहँ जहँ मन रहै, सोवत तहँ तहँ जाइ ।
दादू जे जे मन बसै, सोइ सोइ देखै आइ ॥
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साभार : Ashok Kumar Jaiswal ~

कल नींद में एक अजीब सपना आया, देखा मरने के बाद स्वर्गलोक पहुँच गया हूँ जहाँ पर पता नहीं नहीं क्यों काफी चहल-पहल थी और बहुत से लोग सड़कों तथा मकानों के बरामदों में खड़े दिखाई पड़े....एक साधू से पूछा कि यह सब क्या हो रहा है और स्वर्गलोक में आज इतनी सरगर्मियाँ किसलिये, तो उसने बताया - आज हम सबके प्रिय भगवान जी का जन्मदिन है जो काफी धूमधाम से मनाया जायेगा, और इन सारे कार्यक्रमों के प्रायोजक हमेशा की भाँति कुबेर महाराज हैं....सुनकर मेरे मुँह से बस इतना ही निकला, ह्म्म्म्म्म्म........!!
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एकाध घंटा बीतते न बीतते स्वर्ग के भीतरी छोर से एक लम्बा जुलूस निकला जिसमें कई तरह की झाँकियाँ थी, एक हाथी पर बैठे सेठ गेंडामल, शेरवानी पहने हुए रत्नजड़ित सिँहासन पर लाला ठगतराम, वकील जगतराम, प्रियवर बन्धु भगतराम, बैरिस्टर कुटिल हलकानी, अल-मीरा दीवानी, ऐक्ट्रेस कल्पना रूमानी, निरुपा गाय, एलिजाबेथ हाय, दुखवन्त सिंह, लफडू-बखेड़ू-खदेड़ू और भीड़ू के अलावा कई एक नामवर महा-पुरुष और साधू-संत एवँ साध्वियों की टोली पूरी सजधज सहित अपनी-अपनी झाँकियों में जलवे बिखेरती हुई दृष्टिगोचर हुईं.... 
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लगभग आधी रात तक यह सिलसिला चला और अंतिम झाँकी भी निकल गई, सबके अंत में पीछे-पीछे एक कृशकाय वृद्ध अपनी टेढ़ी कमर लिये एक लाठी के सहारे आहिस्ता-आहिस्ता चलता नजर आया.... एक जिज्ञासा सी हुई और मैंने वापस लौटते एक व्यक्ति को रोककर पूछ कि भगवान जी के जन्मदिन के उत्सव में भगवान जी दिखाई नहीं पड़े, तो उसने उसी वृद्ध की तरफ इंगित करके कहा - वो रहे भगवान जी....!!
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मैं आगे और कुछ पूछ पाऊँ इसके पहले ही मेरी नींद खुल गई, बाद में एक मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि यह नर्कलोक का दृश्य था जहाँ शैतान ने आजकल स्वर्गलोक का बोर्ड लगा दिया है....!!
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जन्मदिन हमें याद दिलाता है कि हमारे जीवन से एक साल और कम हो गया है और एक हम हैं कि इस बात पर खुशी जाहिर करते हैं साथ ही दावतें भी आयोजित हुआ करती हैं, अपन फिजूलखर्ची और दावत तो आयोजित करने से रहे, शायद इसी आदत की वजह से कुछ अरसा पहले हमारे बारे में हाफ दाढ़ीवाले एक सड़ियल ने किसी से पूछा था -- इसकी औकात क्या है....??

खैर जो भी हो जीना और मरना तो लगा ही रहेगा, सिर्फ इतना भर ख्याल दिल में रहे कि रोते हुए आये और हँसते हुए जाना :~
जब तक जियो शान से और मान से जियो,
छोटी सी ज़िन्दगानी को व्यर्थ ना गँवाना !!
अपने लिये तो सभी जिया करते हैं यहाँपे,
खुदभी जीना औरोंके भी कुछ काम आना !!
ईमान से कमाना और मेहनत की खाना,
दौलत~ओ~ताक़त के नशे में ना इतराना !!
जब आये जग में रोते हुए तब लोग हँसे थे,
हँसते हुए कुछ ऐसे जाएँ कि रो दे जमाना !!

बुधवार, 30 सितंबर 2015

= १९९ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू कर्त्ता करै तो निमष मैं, कीड़ी कुंजर होइ ।
कुंजर तैं कीड़ी करै, मेट सकै नहिं कोइ ॥
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साभार : Nandita Kakkar Sisodia ~
Bhagvan ki khoj ~
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अकबर ने बीरबल के सामने अचानक एक दिन 3 प्रश्न उछाल दिये।
प्रश्न यह थे -
१) "भगवान कहाँ रहता है ?
२) वह कैसे मिलता है
३) वह करता क्या है ?''
बीरबल इन प्रश्नों को सुनकर सकपका गये और बोले - ''जहाँपनाह ! इन प्रश्नों के उत्तर मैं कल आपको दूँगा।" जब बीरबल घर पहुँचे तो वह बहुत उदास थे।
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उनके पुत्र ने जब उनसे पूछा तो उन्होंने बताया - ''बेटा ! आज बादशाह ने मुझसे एक साथ तीन प्रश्न :
🪷 'भगवान कहाँ रहता है ?
🪷 वह कैसे मिलता है ?
🪷 और वह करता क्या है ?' पूछे हैं।
मुझे उनके उत्तर सूझ नही रहे हैं और कल दरबार में इनका उत्तर देना है।''
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बीरबल के पुत्र ने कहा- ''पिता जी ! कल आप मुझे दरबार में अपने साथ ले चलना मैं बादशाह के प्रश्नों के उत्तर दूँगा।''
पुत्र की हठ के कारण बीरबल अगले दिन अपने पुत्र को साथ लेकर दरबार में पहुँचे। बीरबल को देख कर बादशाह अकबर ने कहा - ''बीरबल मेरे प्रश्नों के उत्तर दो।" बीरबल ने कहा - ''जहाँपनाह आपके प्रश्नों के उत्तर तो मेरा पुत्र भी दे सकता है।'' अकबर ने बीरबल के पुत्र से पहला प्रश्न पूछा - ''बताओ !"
"भगवान कहाँ रहता है ?'' 
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बीरबल के पुत्र ने एक गिलास शक्कर मिला हुआ दूध बादशाह से मँगवाया और कहा - जहाँपनाह दूध कैसा है ?
अकबर ने दूध चखा और कहा कि ये मीठा है।
परन्तु बादशाह सलामत या आपको इसमें शक्कर दिखाई दे रही है। बादशाह बोले नही। वह तो घुल गयी। जी हाँ, जहाँपनाह ! भगवान भी इसी प्रकार संसार की हर वस्तु में रहता है। जैसे शक्कर दूध में घुल गयी है परन्तु वह दिखाई नही दे रही है।
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बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब दूसरे प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ ! भगवान मिलता केैसे है ?'' बालक ने कहा - ''जहाँपनाह थोड़ा दही मँगवाइए।
''बादशाह ने दही मँगवाया तो बीरबल के पुत्र ने कहा - ''जहाँपनाह ! क्या आपको इसमं मक्खन दिखाई दे रहा है। बादशाह ने कहा- ''मक्खन तो दही में है पर इसको मथने पर ही दिखाई देगा।'' बालक ने कहा- ''जहाँपनाह ! मन्थन करने पर ही भगवान के दर्शन हो सकते हैं।''
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बादशाह ने सन्तुष्ट होकर अब अन्तिम प्रश्न का उत्तर पूछा - ''बताओ ! भगवान करता क्या है ?'' बीरबल के पुत्र ने कहा- ''महाराज ! इसके लिए आपको मुझे अपना गुरु स्वीकार करना पड़ेगा।''
अकबर बोले- ''ठीक है, आप गुरु और मैं आप का शिष्य।''
अब बालक ने कहा- ''जहाँपनाह गुरु तो ऊँचे आसन पर बैठता है और शिष्य नीचे।'' अकबर ने बालक के लिए सिंहासन खाली कर दिया और स्वयं नीचे बैठ गये। 
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अब बालक ने सिंहासन पर बैठ कर कहा - ''महाराज ! आपके अन्तिम प्रश्न का उत्तर तो यही है।''
अकबर बोले- ''क्या मतलब ? मैं कुछ समझा नहीं।''
बालक ने कहा- ''जहाँपनाह ! भगवान यही तो करता है।
"पल भर में राजा को रंक बना देता है और भिखारी को सम्राट बना देता है।"

= १९८ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
हिरदै राम सँभाल ले, मन राखै विश्वास ।
दादू समर्थ सांइयां, सब की पूरै आस ॥
दादू सांई सबन को, सेवक ह्वै सुख देइ ।
अया मूढ मति जीव की, तो भी नाम न लेइ ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya
~ @SEEMA ADLAKHA
एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।
वंशीधर ने नरसी जी से कहा - 'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। काम-काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'
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नरसी जी ने कहा - 'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'
इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले - 'जिन्दगी भर यही सब करते रहना। जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'
नरसी जी ने कहा -``नाराज क्यों होते हो भैया ? मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।'
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दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर-मंडली को मालूम हो गया। नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची। पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया। प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।
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अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी। अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया। अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।
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बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया। अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।
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मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है। और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है। ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर। तो आईये कथा मे आगे चलते हैं...
अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे। यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध "कृष्ण भगवान" नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

= १९७ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ ।
लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥
ज्यों रचिया त्यों होइगा, काहे को सिर लेह ।
साहिब ऊपरि राखिये, देख तमाशा येह ॥
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya ~
एक कौआ जंगल में रहता था और अपने जीवन से संतुष्ट था। एक दिन उसने एक हंस को देखा, “यह हंस कितना सफ़ेद है, कितना सुन्दर लगता है।” उसने मन ही मन सोचा। उसे लगा कि यह सुन्दर हंस दुनिया में सबसे सुखी पक्षी होगा, जबकि मैं तो कितना काला हूँ ! यह सब सोचकर वह काफी परेशान हो गया और उससे रहा नहीं गया, उसने अपने मनोभाव हंस को बताये ।
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हंस ने कहा – “वास्तिकता ऐसी है कि पहले मैं खुद को आसपास के सभी पक्षिओ में सुखी समझता था। लेकिन जब मैंने तोते को देखा तो पाया कि उसके दो रंग है तथा वह बहुत ही मीठा बोलता है। तब से मुझे लगा कि सभी पक्षिओ में तोता ही सुन्दर तथा सुखी है।”
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अब कौआ तोते के पास गया। तोते ने कहा - “मैं सुखी जिंदगी जी रहा था, लेकिन जब मैंने मोर को देखा तब मुझे लगा कि मुझ मे तो दो रंग ही, परन्तु मोर तो विविधरंगी है। मुझे तो वह ही सुखी लगता है।”
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फिर कौआ उड़कर प्राणी संग्रहालय गया। जहाँ कई लोग मोर देखने एकत्र हुए थे। जब सब लोग चले गए तो कौआ उसके पास जाकर बोला -“मित्र, तुम तो अति सुन्दर हो। कितने सारे लोग तुम्हे देखने के लिए इकट्ठे होते है ! प्रतिदिन तुम्हे देखने के लिए हजारो लोग आते है ! जब कि मुझे देखते ही लोग मुझे उड़ा देते है। मुझे लगता है कि अपने इस ग्रह पर तो तुम ही सभी पक्षिओ में सबसे सुखी हो।”
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मोर ने गहरी सांस लेते हुए कहा - “मैं हमेशा सोचता था कि ‘मैं इस पृथ्वी पर अतिसुन्दर हूँ, मैं ही अतिसुखी हूँ।’ परन्तु मेरे सौन्दर्य के कारण ही मैं यहाँ पिंजरे में बंद हूँ। मैंने सारे प्राणी में गौर से देखे तो मैं समझा कि ‘कौआ ही ऐसा पक्षी है जिसे पिंजरे में बंद नहीं किया जाता।’ मुझे तो लगता है कि काश मैं भी तुम्हारी तरह एक कौआ होता तो स्वतंत्रता से सभी जगह घूमता-उड़ता, सुखी रहता !”
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मित्रों, यही तो है हमारी समस्या। हम अनावश्यक ही दूसरों से अपनी तुलना किया करते हैं और दुखी-उदास बनते हैं। हम कभी हमें जो मिला होता है उसकी कद्र नहीं करते इसीके कारण दुःख के विषचक्र में फंसे रहते हैं। प्रत्येक दिन को भगवान की भेट समझ कर आनंद से जीना चाहिए।
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सुखी होना तो सब चाहते है लेकिन सुखी रहेने के लिए सुख की चाबी हाथ करनी होगी तथा दूसरों से तुलना करना छोड़ना होगा। क्योंकि तुलना करना दुःख को न्योता देने के सामान है। दुनिया में कोई परफेक्ट नहीं है हर एक में कुछ न कुछ कमी है अपनी कमी को अपनी खूबी में बदले और अपनी खूबी के लिए भगवान का धन्यवाद् दे।

= १९६ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
मैं ही मेरे पोट सिर, मरिये ताके भार ।
दादू गुरु प्रसाद सौं, सिर तैं धरी उतार ॥
मेरे आगे मैं खड़ा, ता तैं रह्या लुकाइ ।
दादू प्रकट पीव है, जे यहु आपा जाइ ॥
दादू जीवित मृतक होइ कर, मारग मांही आव ।
पहली शीश उतार कर, पीछे धरिये पांव ॥
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साभार : Osho Prem Sandesh ~

एक साधक, भारत आकर उसको पता चला कि उस की कोई पुरानी मित्र, एक युवती यहां मेरी सन्यासिनी है, तो सोचा एक दिन के लिए उससे मिल जाए। उससे आठ वर्ष से मिला भी नहीं। तो उसे मिलने आ गया। उस युवती में अंतर देखे, जैसा वह जानता था, वैसी वह नहीं रही है। और जैसा उसने सोचा भी नहीं था, कभी उसके जीवन में घटेगा, उसकी उसे झलक मिली।
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वह रुका रहा तीन दिन के लिए। ध्यान करने लगा। फिर सात दिन के लिए रुक गया। फिर कल सन्यस्त हो गया; अब तो जैसे रुक ही गया। वह कल मुझे कहने लगा कि आया था मैं भारत की यात्रा पर और क्या हो गया ? यह तो मैंने सोचा ही न था। मैंने उससे कहा कि यही है भारत की यात्रा। तुझे भारत मिल गया।
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उसे अपने जन्मों का पिछले जन्मों का हिसाब भी तो पता नहीं है। कौन सी आकांक्षा उसे भारत ले आई है। कौन से अनजाने सूत्र उसे भारत ले आए। क्यों आ गया है ? कैसे संयोग बनते चले गए। और अब तो जीवन वही न होगा। अब वह कल कहने लगा, मेरी पत्नी का क्या होगा ? मेरे बच्चों का क्या होगा ? यह तो उसने कभी सोचा ही न होगा, कि मैं संन्यस्त हो जाऊंगा। इसका मुझे भी कभी सपना न था। और मैं कभी ध्यान करूंगा इसका भी मुझे खयाल न था। और अब जो हो गया है, इससे पीछे लौटने का उपाय नहीं है।
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जीवन, तुम जैसा सोचते हो, कि तुम्हारे जाने - जाने चल रहा है, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जाने - जाने तो बहुत थोड़ा सा हिस्सा चल रहा है, जहां टिमटिमाती रोशनी है। अधिक हिस्सा तो अचेतन के अंधकार में दबा है। तुम आ गए हो। अब तुम्हें खयाल भी नहीं है कि तुम मरने को आ गए हो, मिटने को आ गए हो। तुम शायद कुछ लेने को आए हो।
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शिष्य और गुरु का गणित अलग - अलग है। शिष्य कुछ लेने आता है। और गुरु उसे समझाता है देंगे, बैठो; और फिर छीन लेता है। शिष्य आता है सुखी होने, और गुरु जानता है, जो भी सुखी होने आया है, वह दुख से न बच सकेगा। इसलिए गुरु कहता है, देंगे सुख। समझाता सुख है, देता शांति है। शांति सुख से बड़ी अलग बात है।
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शांति का अर्थ है, जहां न दुख रह जाता है, न सुख। लेकिन वही महासुख है।
निश्चित ही, तुम्हें मैं चाहूं तो अभी मार डालूं लेकिन उससे तुम्हारा पुनर्जन्म न होगा। सिर्फ मैं अदालत के चक्कर में फंस जाऊंगा। तुम नाहक मुझे उलझा दोगे, तुम तो सुलझ न पाओगे।
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नहीं, धीरे - धीरे, क्रमश: आहिस्ता - आहिस्ता तुम्हें राजी करना पड़ेगा। जिस दिन तुम राजी हो जाओगे, उसी दिन घटना घट जाएगी। क्योंकि यह मृत्यु कोई शरीर की मृत्यु थोड़े ही है, यह मृत्यु तो तुम्हारे अहंकार की मृत्यु है।
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और इस जगत में सबसे बड़ी कुशलता चाहिए अहंकार को मार डालने के लिए, क्योंकि अहंकार बहुत कुशल है। वह सब तरह से बच जाता है। तुम उसे एक जगह से मारोगे, वह दूसरी जगह खड़ा हो जाएगा। तुम उसका एक सिर काटोगे, नया सिर पैदा हो जाएगा।
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रावण की हमने कथा लिखी है, कि उसके दस सिर हैं। एक काटो, प्रतिक्षण दूसरा पैदा होता चला जाता है। उसे मारना मुश्किल है। रावण की कथा अहंकार की कथा है। अहंकार को मारना बहुत मुश्किल है। तुम इधर काटते हो, वह उधर से खड़ा हो जाता है। इधर मारते हो, वहां बन जाता है। लेकिन वह अपने को बचाए जाता है। बड़ी सूक्ष्म उसकी गतिविधि है। उसे मारने के लिए बड़ा होश चाहिए। इतना होश, कि तुम्हारे भीतर के घर में कहीं भी कोई अंधेरा कोना न रह जाए, जहां वह खड़ा हो जाए और बच जाए।
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जिस दिन तुम्हारे भीतर का दीया पूरा जलता है, रोशन होते हो तुम, कहीं कोई अंधेरा नहीं होता, उसी दिन अहंकार मर पाता है। जिस दिन गुरु देखता है कि अब घटना घट गई, उस दिन वह कह देता है, छोड़ दो, फेंक दो, अब इस कचरे को मत ढोओ। और तब एक बूंद भी खून नहीं गिरता और तुम मर जाते हो।
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अगर एक बूंद खून भी गिर जाए तो गुरु, गुरु न था; सिक्खड़ ही रहा होगा। गुरु की गुरुता यही है कि एक बूंद खून न गिरे और तुम मर जाओ। जरा सी चोट न लगे और सब विसर्जित हो जाए। गंगा सागर में गिर जाए, कहीं शोरगुल न हो।
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तुमने कभी पक्षियों को पर तौलकर आकाश में उड़ते देखा? कहीं कुछ पता भी नहीं चलता। जरा सा पंख खुल जाते हैं और पक्षी आकाश में उड़ जाता है।
तुमने कभी चीलों को तिरते देखा आकाश में - कि पंख भी नहीं हिलते ?
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ठीक ऐसी ही जीवनदशा है, जहां जरा सा भी शोरगुल नहीं होता, एक बूंद खून भी नहीं गिरता, जरा सी चोट नहीं लगती और सब सुलझ जाता है - सब ! सारी गांठें खुल जाती हैं। तुम निर्ग्रंथ हो जाते हो।
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गुरु के पास जो मृत्यु घटित होती है, वह महाजीवन है। उसके लिए तैयार होना जरूरी है। तुम्हारा इतने कहने से कि तुम मरने को तैयार हो, काफी नहीं है। तुम्हें जीने के लिए तैयार होना जरूरी है।
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और मैं तुमसे जो आखिरी बात इस संबंध में कहना चाहूंगा, वह यह है कि दुनिया में बहुत लोग हैं, जो मरने को तैयार हैं। दुनिया में बहुत कम लोग हैं, जो जीने को तैयार हैं। अगर तुम्हें चाहिए हों मरने के लिए लोग, तो बहुत मिल जाते हैं। शहीद होने के लिए बहुत पागल तैयार हैं।
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हिंदू धर्म खतरे में है, बहुत से नासमझ मरने को तैयार हो जायेंगे। इस्लाम खतरे में है, बहुत से नासमझ कूद कर मर जाएंगे। भारत पर हमला हो जाए, पाकिस्तान से झगड़ा हो जाए, चीन से हो जाए, मरने को लोग तैयार हैं। मरना तो बिलकुल आसान मालूम पड़ता है। क्यों ?
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क्योंकि तुम्हारा जीवन इतने दुख से भरा है। इस दुख में तुम जी ही नहीं पा रहे हो। इसलिए तुम कोई भी बहाना खोज कर मरने के लिए तैयार हो जाते हो। जरा सी बात हो जाती है - दिवाला निकल गया; क्या हुआ है दिवाला निकल जाने में ? जो रकम के आंकड़े तुम्हारे नाम लिखे थे बैंक में, अब नहीं लिखे। जो कागज के टुकड़े तुम्हारी तिजोड़ी में थे, अब नहीं हैं। दिवाला निकल गया, जान खोने को तैयार हो ! कूद पड़े बड़े मकान से ! आग लगा ली !
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पत्नी मर गई, मरने को तैयार हो। जिसके जीने से कभी कोई रस न पाया था, उसके लिए मरने को तैयार हो ! बच्चा मर गया; जिस बच्चे के चेहरे को देखने की तुम्हें कभी फुरसत न मिली थी, उसके लिए मरने को तैयार हो !

सोमवार, 28 सितंबर 2015

= १९५ =

 
‪#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐 
अष्ट चक्र पवना फिरै, छहसौ सहस्र इक्कीस ।
जोग अमर जम को गिलै, दादू बिसवा बीस ॥
.......................................
साभार ~ www.pravakta.com
राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानीं राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है। यह महामंत्र - शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है।। राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महाऊर्जा का नाम है। वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं।
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कबीरदासजी ने कहा है - आत्मा और राम एक है - आतम राम अवर नहिं दूजा। राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपाजप कहा है। हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं। 
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इसका संकेत कबीरदाजी ने इस उक्ति में किया है- सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै। मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है। राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम है ।
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इसी तरह कहा गया है - रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है - राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।

= १९४ =

#‎daduji‬
卐 सत्यराम सा 卐
पाणी माहैं राखिये, कनक कलंक न जाहि ।
दादू गुरु के ज्ञान सों, ताइ अगनि में बाहि ॥ 
दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।
सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥ 
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साभार : Osho Prem Sandesh ~

प्रश्न :आपने कहा कि शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान। ध्यान देने का क्या अर्थ है?

ज्ञान और ध्यान बड़े संयुक्त हैं। ज्ञान का अर्थ है, जानकारी और जानकारी से भरा हु आ चित्त। और ध्यान का अर्थ है, जानकारी से शून्य चित्त।
जैसे एक कमरे में फर्नीचर भरा है - यह ज्ञान की अवस्था। फिर फर्नीचर कमरे के बाहर निकाल दिया, कमरा बिलकुल खाली - यह ध्यान की अवस्था।
ध्यान उसी का अभाव है, ज्ञान जिसका भाव है। ज्ञान में जो कूड़ा करकट तुम इकट्ठा कर लेते हो - शब्द, सिद्धान्त, - शास्त्र; ध्यान में वे सब छोड़ देने होते हैं।
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शिक्षक देता है ज्ञान और गुरु देता है ध्यान; इसका अर्थ हुआ कि शिक्षक जो देता है, गुरु वह छीन लेता है। तो तुमने जो भी सीखा है जीवन के विद्यालय में, जो भी अनुभव, जो भी ज्ञान तुमने अर्जित किया है विश्यविद्यालयों में, अध्यापकों और शिक्षकों से, शास्त्रों सिद्धान्तों से, तुमने जो जो संगृहीत किया है, गुरु सब छीन लेगा। वह सब में माचिस लगा देगा। वह सबको जला देगा।
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वह तुम्हारे मन के पूरे फर्नीचर से तुम्हें खाली कर देना चाहता है। उस खालीपन में ही तुम्हें पहली बार अपने विस्तार का पता चलता है। उस खालीपन में ही तुम्हें पहली दफा शांति की किरण उतरती मालूम होती है। उस खालीपन में ही तुम्हें पता चलता है, कि अहंकार नहीं है, परमात्मा है। तुम नहीं हो, वह है। ‘ओम् तत् सत्’ का बोध उसी क्षण में होता है।
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तो ध्यान और ज्ञान की प्रक्रियाएं बिलकुल अलग हैं। ध्यान भूलने का नाम है, खाली होने का नाम है।
जैसे स्लेट पर बच्चे ने कुछ लिखा है और फिर पोंछ डाला है, ऐसे संसार ने जो जो तुम्हारे मन पर लिख दिया है, उसे पोंछ डालने का नाम ध्यान है।
ध्यान को केवल वे ही लोग उपलब्ध हो सकते हैं, जो ज्ञान से बहुत परेशान हो गए हों। अगर तुम अभी ज्ञान से परेशान नहीं हुए, तो तुम ध्यान को उपलब्ध न हो सकोगे। और जहां ध्यान की वर्षा हो रही होगी, वहा से भी तुम कुछ सीख कर लौट पाओगे।
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ऐसा हुआ, कि उन्नीस सौ पचास में एक किताब मेरे हाथ आई। एक जैन साध्वी ने योगशास्त्र पर एक किताब लिखी थी। जैनों में एक अदभुत योगी हुआ, हेमचंद्राचार्य। तो हेमचन्द्र के सूत्र पर उसने वह किताब आधारित की थी। हेमचंद्र के सूत्र बड़े अनूठे हैं। जैसे पतंजलि के सूत्र अनूठे हैं, ऐसे हेमचंद्र के हैं। पतंजलि की कोटि का आदमी है हेमचन्द्र।
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तो हेमचन्द्र के सूत्रों से संबंध जोड़कर उस महिला ने किताब लिखी। किताब उसने बड़ी बढ़िया लिखी थी। लेकिन मैं बड़ी उलझन में पड़ा, क्योंकि सब ठीक था, लेकिन कुछ कुछ गलत था; जो कि नहीं हो सकता। अगर उसने अनुभव से लिखा हो, ध्यान का उसे अनुभव हो, तो जो भूलें उसने कीं, वे नहीं हो सकतीं। परेशानी मेरी यह थी, कि जो भी उसने लिखा था, वह बहुत साफ सुथरा और ऐसा लगता था, जैसे किसी ने अनुभव से लिखा हो। लेकिन कुछ भूलें भी थीं, जो बताती थीं कि अनुभव वाला आदमी वे भूलें नहीं कर सकता।
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खैर ! बात आई गई हो गई। मैं उस किताब को भूल गया। कोई पद्रह साल बाद, उन्नीस सौ पैंसठ में मैं राजस्थान के दौरे पर था, एक गांव में वह साध्वी मुझसे मिलने आई। नाम मुझे कुछ पहचाना हुआ मालूम पड़ा, तो मैंने उससे पूछा कि क्या हेमचन्द्र के ऊपर योगशास्त्र तुम्हीं ने लिखा?
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उसने कहा, मैंने ही लिखा।
तो मैंने उससे पूछा, तुम मेरे पास किसलिए आई हो?
उसने कहा, ध्यान सीखने आई हू।
तुमने तो ध्यान और योग पर इतनी अच्छी किताब लिखी।
.
उसने कहा, वह बस, शास्त्र को पढ़कर लिखी है। जानकारी मुझे कुछ भी नहीं है। अपनी जानकारी नहीं है। खुद नहीं जाना है। और अब मैं उस किताब को लिखकर बड़ी मुश्किल में पड़ गई हू। लोग मेरे पास पूछने आते हैं। और मैं उनको बताती हू कि कैसे ध्यान करो। अब यह तो आपसे मैं निजी, एकांत में कह रही हूं मुझे ध्यान का अ, ब, स भी नहीं आता। आप मुझे सिखाएं।
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यह चल रहा है। बहुत जोर से चल रहा है। सदा से चलता रहा है एक अर्थों में।
अगर ध्यान की जानकारी से अभी तृप्ति न हो गई हो, तो जहां ध्यान की वर्षा हो रही है, वहा भी तुम ध्यान के संबंध में कुछ सीखकर लौट जाओगे, ध्यान न सीख पाओगे। क्योंकि ध्यान के संबंध में जानना, ध्यान जानना नहीं है। ध्यान जानना तो एक बड़ी क्रांति है। ध्यान जानने का तो अर्थ है, तुम्हारा आमूल रूपांतरण। वह तो एक अनुभव है। उस अनुभव में तो जानकारी बिलकुल जल जाती है। तुम ही बचते हो खालिस। सोना ही बचता है, कूड़ा करकट जल जाता है।
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गुरु देता है ध्यान, इसका अर्थ है कि गुरु छीन लेता है ज्ञान। और जहां तुम्हें ऐसा गुरु मिले, जो तुमसे ज्ञान छीनता हो, वहां हिम्मत करके रुक जाना। क्योंकि वहां से भागने का मन होगा। क्योंकि यहां हम तो कुछ लेने आए थे, उल्टा और गंवाने लगे।
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आदमी लेने के लिए घूम रहा है। कहीं से भी कुछ मिल जाए तो थोड़ा और अपनी सम्पति बढ़ा ले। अपनी तिजोड़ी में थोड़ी जानकारी और रख ले, थोड़ा और पंडित हो जाए। एक जर्मन खोजी रमण के पास आया और उसने कहा, कि मैं आपके चरणों में आया हू कुछ सीखने। आप मुझे सिखाएं। रमण ने कहा, तुम गलत जगह आ गए। अगर सीखना है, तो कहीं और जा ओ। अगर भूलना है, तो हम राजी हैं।
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रमण के वचन हैं, इफ यू हैव कम टु लर्न देन यू हैव कम टु दि रांग परसन। इफ यू आर रेडी टु अनलर्न देन आई एम रेडी टू हेल्प यू अनलर्न ! अगर अन सीखने को राजी हो अगर सीखने को आए हो कहीं और। खोजो कोई शिक्षक। अगर अन सीखना करने आए हो, सीख चुके बहुत, थक गए, अब इस कचरे से छुटकारा पाना है तो गुरु राजी है।
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ध्यान, जो तुमने जाना है अब तक, उसके भूल जाने का नाम है। अब यह बड़े मजे की बात है। जिस दिन तुमने जो जो जाना है, उसे तुम बिलकुल विस्मरण कर दोगे, उस दिन तुम्हें आत्म स्मरण आएगा। क्योंकि वह जो तुमने जाना है, उसी के कारण तुम्हें अपना पता नहीं चल पा रहा है। तुम्हारे और तुम्हारे जानने के बीच में तुम्हारी जानकारी की दीवाल खड़ी हो गई है।

रविवार, 27 सितंबर 2015

= १९३ =

卐 सत्यराम सा 卐
दादू सूतां पीछे सुरति निरति सूं, बालक ज्यूं पय पीवे ।
ऐसे अन्तर लगन नाम सूं, आतम जुग-जुग जीवे ॥
ज्यों रसिया रस पीवतां, आपा भूलै और ।
यों दादू रह गया एक रस, पीवत पीवत ठौर ॥
=================
साभार ~ www.bhaktibharat.com

''जौ मोहि राम लगते मीठे !
तौ नव रस, षट रस-रस, अनरस ह्वे जाते सब मीठे !!''
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दोस्तो... राम कथा, कृष्ण कथा तो हज़ारो-लाखों लोग नित्य सुनते रहते है... कथा स्रवण किसी भी रूप मे हो, कल्याण कारी ही होती है... लेकिन कथा में आपको ''रस'' मिल रहा है या नही, यही बात समझने की है...
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सुनना अलग बात है, रस लेना अलग बात है... कोयल का मधुर स्वर-संगीत सब को आकृष्ट कर लेता है पर क्या कौवे की कर्कश कांव-कांव कोई सुनने को लालयत रहता है नहीं ना पर ''रामायण'' मे एक कौवा (काक भूषुंड जी) ऐसा है जो ऐसी सरस कथा सुनाता है जिसे सुनकर श्रोता धन्य-धन्य कह उठते है... मधुर बचन तब बोलेउ काग़ा - कौवे ने मधुर वाणी से कथा सुनाई... दोस्तो.. कहने का मतलब यह है के कौवे के कंठ से भी निकली कथा जब मधुर सरस लगने लगे तो समझ लीजिए कि आप को कथा का रस मिलने लगा है... यही कथा रस है, भक्ति रस है...
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दोस्तो... माता पार्बती जी तो इस संदर्भ में बड़ी विचित्र बात कहती है -
''राम चरित जे सुनत अघाहीँ !
रस-विशेष जाना तिन्ह नाही !!''
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***आप रामकथा / कृष्ण कथा सुन कर यदि तृप्त हो गये तो समझ लीजिए अभी आप की रस पीपासा कमजोर है, उसमे प्रगाड़ता नही आई है... क्योके प्रभु की कथा का रस इतना ज़्यादा होता है के हर बार रस की प्यास बड़ती जाती है*** यही है सच्ची कथा का रस पान
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''वानी''
श्री राधे राधे...

= १९२ =

卐 सत्यराम सा 卐 
जप तप करणी कर गये, स्वर्ग पहुँचे जाइ ।
दादू मन की वासना, नरक पड़े फिर आइ ॥
=================
साभार ~ Osho Prem Sandesh ~
शुभ प्रभात मित्रो
आप का दिन मंगलमय हो
**********************
वासनाओं का पथ गोल !
जीवन या तो वासना के पीछे चलता है अथवा विवेक के। वासना तृप्ति को आश्वासन देती है, लेकिन अतृप्ति में ले जाती है। इसलिए, उसके अनुसरण के लिए आंखों का बंद होना आवश्यक है। जो आंखें खोलकर चलता है, वह विवेक को उपलब्ध हो जाता है। और, विवेक की अग्नि में समस्त अतृप्ति वैसे ही वाष्पिभूत हो जाती है, जैसे सूर्य के उत्ताप से ओसकण।
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एक प्राणि-डाक्टर फेबरे ने किसी जाति विशेष के कीड़ों का उल्लेख किया है, जो कि सदा अपने नेता कीड़े का अनुगमन करते हैं। उसने एक बार इन कीड़ों के समूह को एक गोल थाली में रख दिया। उन्होंने चलना शुरू किया और फिर वे चलते गये- एक ही वृत्त में वे चक्कर काट रहे थे। मार्ग गोल था और इसलिए उसका कोई अंत नहीं था। 
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किंतु उन्हें इसका पता नहीं था और वे उस समय तक चलते ही रहे जब तक कि थक कर गिर नहीं गये। उनकी मृत्यु ही केवल उन्हें रोक सकी। इसके पूर्व वे नहीं जान सके कि जिस मार्ग पर वे हैं, वह मार्ग नहीं, चक्कर है। मार्ग कहीं पहुंचता है। और जो चक्कर है, वह केवल घूमता है, पहुंचता नहीं। मैं देखता हूं, तो यही स्थिति मनुष्य की भी पाता हूं। 
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वह भी चलता ही जाता है और नहीं विचार करता कि जिस मार्ग पर वह है, वह कहीं कोल्हू का चक्कर ही तो नहीं ? वासनाओं का पथ गोल है। हम फिर उन्हीं-उन्हीं वासनाओं पर वापस आ जाते हैं। इसलिए ही वासनाएं दुष्पूर हैं। उन पर चलकर कोई कभी कहीं पहुंच नहीं सकता है। उस मार्ग से परितृप्ति असंभव है। लेकिन, बहुत कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जो कि मृत्यु के पूर्व इस अज्ञान पूर्ण और व्यर्थ के भ्रमण से जाग पाते हैं।
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मैं जिन्हें वासनाओं के मार्ग पर देखता हूं, उनके लिये मेरे हृदय में आंसू भर आते हैं। क्योंकि, वे एक ऐसी राह पर हैं, जो कि कहीं पहुंचाती नहीं। उसमें वे पाएंगे कि उन्होंने स्वप्न मृगों के पीछे सारा जीवन खो दिया है। मुहम्मद ने कहा है - उस आदमी से बढ़कर रास्ते से भटका हुआ कौन है, जो कि वासनाओं के पीछे चलता है।
ओशो

शनिवार, 26 सितंबर 2015

= १९१ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
गुरु मन्त्र(गायत्री मन्त्र)
दादू अविचल मंत्र, अमर मंत्र, अखै मंत्र,
अभै मंत्र, राम मंत्र, निजसार ।
संजीवन मंत्र, सवीरज मंत्र, सुन्दर मंत्र,
शिरोमणि मंत्र, निर्मल मंत्र, निराकार ॥
अलख मंत्र, अकल मंत्र, अगाध मंत्र,
अपार मंत्र, अनन्त मंत्र राया ।
नूर मंत्र, तेज मंत्र, ज्योति मंत्र,
प्रकाश मंत्र, परम मंत्र, पाया ॥
उपदेश दीक्षा दादू गुरु राया ॥
दादू सब ही गुरु किए,
पशु पंखी बनराइ ।
तीन लोक गुण पंच सौं,
सबही मांहिं खुद आइ ॥
===============
_//\\_दादूजी के २४ गुरुमंत्र एवं भगवान दत्तात्रेय के २४ गुरु _//\\_
इन अनसुलझे रहस्यों को जान आप हो जायेंगे हैरान =
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भगवान दत्तात्रेय और उनके २४ गुरु ~
जीवन में गुरु की अपनी एक विशेष जगह है। कहते है बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त नहीं होता। सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपको किसी न किसी को गुरु बनाना पड़ता है चाहे फिर वो एकलव्य की तरह मिट्टी की मूरत ही क्यों ना हों। गुरु की इसी महता को प्रमाणित करते है भगवान दत्तात्रेय जो की स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे फिर भी उन्होंने अपने जीवन में 24 गुरु बनाए जिसमे कीट, पक्षी और जानवर तक शामिल है। उन्होंने जिससे भी कुछ सीखा उसे अपना गुरु माना।
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कौन हैं भगवान दत्तात्रेय ~
भगवान दत्तात्रेय ब्रह्माजी के मानस पुत्र ऋषि अत्रि के पुत्र हैं। इनकी माता का नाम अनुसूइया था। कई ग्रंथों यह बताया गया है कि ऋषि अत्रि और अनुसूइया के तीन पुत्र हुए। ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा, शिवजी के अंश से दुर्वासा ऋषि, भगवान विष्णु के अंश दत्तात्रेय का जन्म हुआ। कहीं-कहीं यह उल्लेख भी मिलता है कि भगवान दत्तात्रेय ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव के सम्मिलित अवतार हैं।
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भगवान दत्तात्रेय के २४ गुरु :
१ - पृथ्वी-
सहनशीलता व परोपकार की भावना सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।
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२ - पिंगला वेश्या-
पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। वह वेश्या सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।
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३ - कबूतर-
कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा स्नेह दु:ख ही वजह होता है।
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४ - सूर्य-
सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।
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५ - वायु-
जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोडऩा नहीं चाहिए।
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६ - हिरण-
हिरण उछल-कूद, संगीत, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।
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७ - समुद्र-
जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।
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८ - पतंगा-
जिस प्रकार पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।
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९ - हाथी-
हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अत: हाथी से सीखा जा सकता है कि संयासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।
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१० - आकाश-
दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।
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११ - जल-
दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।
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१२ - मधुमक्खी -
मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।
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१३ - मछली-
हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।
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१४ - कुरर पक्षी-
कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।
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१५ - चन्द्रमा-
आत्मा लाभ-हानि से परे है। वैसे ही जैसे घटने-बढऩे से भी चंद्रमा की चमक और शीतलता बदलती नहीं है, हमेशा एक-जैसे रहती है। आत्मा भी किसी भी प्रकार के लाभ-हानि से बदलती नहीं है।
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१६ - बालक-
छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।
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१७ - आग-
आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। जिस प्रकार आग अलग-अलग लकडिय़ों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है।
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१८ - कुमारी कन्या-
कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूडिय़ां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूडिय़ों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूडिय़ों आवाज बंद करने के लिए चूडिय़ां ही तोड़ दी। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। अत: हमें ही एक चूड़ी की भांति अकेले ही रहना चाहिए।
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१९ - शरकृत या तीर बनाने वाला-
अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, पर उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।
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२० - सांप-
दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संयासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह ज्ञान बांटते रहना चाहिए।
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२१ - मकड़ी-
मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान भी माय जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।
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२२ - भृंगी कीड़ा-
इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे मन वैसा ही हो जाता है।
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२३ - भौंरा -
भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।
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२४ - अजगर-
अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

= १९० =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
दादू आप चिणावै देहुरा, तिसका करहि जतन ।
प्रत्यक्ष परमेश्वर किया, सो भानै जीव रतन ॥
===================
साभार : Ramgopal Goyal ~
"चौदहवीं शताब्दी में आंध्र प्रदेश की शूद्र जाति में जन्मे संत "श्री वेमना जी" के मूर्ति पूजाके प्रति भाव"
कुछ लोग भी कैसे पशु हैं कि, पत्थरों को तो पूजते हैं, लेकिन अंतर के अंतर्यामी सच्चिदानंद भगवान की परवाह ही नहीं। एक निर्जीव पत्थर कैसे जीती जागती व नित्य ईश्वरीय शक्ति से बढ कर हो सकता है। उन्होंने न जाने कैसी कैसी भ्रांतियां पाल रखी हैं कि, भगवान निर्जीव मूर्तियों में तो बसते हैं, लेकिन मुझ चलते फिरते इंसान में नहीं।
.
एक पत्थर के टुकडे को किसी पहाड की चोटी से हाथ पैरों से लुढका कर पटकते हुए ले आते हैं, फिर छैनी से काटते हैं, हथौडे से पीटते हैं और उसके सामने काँपते हुए से मंत्र जपते हैं, और सालों जपते ही रहते हैं। वे मूर्ख जीवित बैल को तो मारते हैं, भूखा रखते हैं, लेकिन जब वह पत्थर में ढल जाता है, तो उसकी पूजा करने लगते हैं, मिठाईयाँ खिलाने लगते हैं। यह कितना बडा धोखा है। क्या ? उनने मान लिया है कि, भगवान घट - घट बासी नहीं है, वह केवल पत्थरों में ही रहता है।
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आज के सन्दर्भ में देखते हैं ~ गणेश पूजा का चतुर्दिश उत्सव, अपनी अपनी भावनानुसार श्री गणेश जी की प्रतिमा लाना, पूजा उत्सव प्रसाद आदि से आनन्द मानना और उन्हें विसर्जन करना !!! फिर चाहे हमारी पूजित प्रतिमा खंड खंड होकर कीचड में या नालों में रौंदी जाय ?? हमें तो कुछ दिनकी स्वार्थ लोलुप पूजा से अपनी मन्नत पूरी करनी है, अटके कार्य सिद्ध करने हैं, श्रद्धा और विश्वास की तो परिभाषा ही उलट गयी है ........
फल कारण सेवा करे, याचे त्रिभुवनराव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेले अपना दाव ॥

= १८९ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
दादू कोई वांछै मुक्ति फल, कोइ अमरापुर वास ।
कोई वांछै परमगति, दादू राम मिलन की प्यास ॥
तुम हरि हिरदै हेत सौं, प्रगटहु परमानन्द ।
दादू देखै नैन भर, तब केता होइ आनन्द ॥
===================
साभार : Ramgopal Goyal ~
क्षुद्र कामना पूर्ति को, जब करते हम पाप।
तब तब हरि नाराज हों, अरु देते सन्ताप॥
इससे कोई भी नहीं, बचा है "रोटीराम"।
इस कारण करिए मती, पापयुक्त कोई काम॥
जितने भी हम देखते, दीन हीन परिवार।
रोगी निर्धन अनपढे, भूखे इस संसार॥
वे सब जीते जागते, इसके सत्य प्रमाण।
गीता में भी खुद कहे, यही वाक्य भगवान॥
(गीता ज्ञान 3 /37 )
श्लोक -
काम एष क्रोध एष रजोगुण समुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विध्दयेनमिह वैरिणम्॥
(भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, रजोगुण से उत्पन्न यह काम यानी कामना ही, सारे पापों का कारण है । यही काम जब कामना पूर्ण नहीं होतीं, तो क्रोध में परिणित हो जाता है। यह काम ही महापाप कराने बाला महापापी है। यही आगे जाकर मनुष्य का बैरी बन जाता है।)
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प्रातः स्मरणीय संत श्री रामसुख दास जी महाराज कहते थे कि जैसा मैं चाहूँ वैसा हो जाय, यह काम यानी कामना है। किसी भी क्रिया - वस्तु और व्यक्ति का अच्छा लगना अथवा उससे सुख पाने की कामना ही काम है। इस काम रूप एक दोष में अनन्त पाप भरे हुए हैं।
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इसलिए जब तक जीव में कामनाऐं भरी हुई हैं, तब तक वह सर्वदा निष्पाप व निर्दोष नहीं हो सकता। कामनाओं के अलावा पाप का अन्य कोई कारण नहीं है। यानी तात्पर्य यह निकला कि, जीव से न तो ईश्वर, न कलियुग, न भाग्य, न समय, न परिस्थिति पाप करवाते हैं, वल्कि कामनाऐं ही पाप करने को मजबूर कर देती हैं।

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

= १८८ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
सो घर सदा विचार का, तहाँ निरंजन वास ।
तहँ तूँ दादू खोजि ले, ब्रह्म जीव के पास ॥
जहँ तन मन का मूल है, उपजे ओंकार ।
अनहद सेझा शब्द का, आतम करै विचार ॥
=====================
साभार ~ successinindustrry.wordpress.com
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अहम् ब्रह्मास्मि का वास्तविक तात्पर्य क्या है ?
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अहम् = मैं, स्वयं का अभिमान, कोई व्यक्ति यह सोच ही नहीं सकता कि वह नहीं है। मैं नही हूँ - यह सोचने के लिए भी स्वयं के अभिमान की आवश्यकता होती है। या नहीं ? विचार करें ।
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ब्रह्म = सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्व-व्याप्त, वह शक्ति जिससे सब कुछ, यहाँ तक कि ईश्वर भी उत्पन्न होते हैं।
.
अस्मि = हूँ, होने का भाव, बने होने का संकल्प ।
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अहम् ब्रह्मास्मि का तात्पर्य यह निगमित होता है कि मानव-व्यक्ति स्वयं संप्रभु है। उसका व्यक्तित्व अत्यन्त महिमावान है - इसलिए हे मानवों ! अपने व्यक्तित्व को महत्त्व दो। आत्मनिर्भरता पर विश्वास करो। कोई ईश्वर, पंडित, मौलवी, पादरी और इस तरह के किसी व्यक्तियों को अनावश्यक महत्त्व न दो।
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तुम स्वयं शक्तिशाली हो - उठो, जागो और जो भी श्रेष्ठ प्रतीत हो रहा हो, उसे प्राप्त करने हेतु उद्यत हो जाओ । जो व्यक्ति अपने पर ही विश्वास नही करेगा - उससे दरिद्र और गरीब मनुष्य दूसरा कोई न होगा। यही है अहम् ब्रह्मास्मि का अन्यतम तात्पर्य ।

= १८७ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
अपनी अपनी जाति सौं, सब को बैसैं पांति ।
दादू सेवग राम का, ताके नहीं भरांति ॥
दादू पानी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात ।
बोलणहारा कौन है, कहो धौं कहाँ समात ॥
===================
साभार : Ramgopal Goyal ~
"राम भक्त शबरी भीलनी चरित्र"
⚌⚌⚌⚌⚌⚌⚌⚌⚌⚌
६१: आजा अंदर डर मती, साधक - साधु समाज।
मैं सबसे लड जाऊंगा, तेरी खातिर आज॥
हैरानी से देखने, लगे आश्रम लोग।
कहां ? मुनि कहाँ ? भीलनी, कैसा अजब प्रयोग॥
.
६२: किन्तु न कुछ, बोला कोई, सभी रहे चुपचाप।
शायद रीझे इसलिए, क्योंकि चाह इस जाप॥
एक तो नीची कौम की, दूजी औरत जात।
फिर भी रुचि है भक्ति में, तो यह ऊंची बात॥
.
६३: दीनी कुटिया एक बता, अरु कुछ सेवा काम।
दीक्षा में, मुनि दे दिया, नाम, प्रभु श्रीराम॥
मुनि चरणों में, धोक दे, प्रकट किया आभार।
तोडीं सभी परम्परा, खोले मुझको द्वार॥
.
६४: मैं तो कटी पतंग थी, मंजिल से अनजान।
डोर थाम ली आपने, किया परम अहसान॥
अब निश्चित मिल जाएगी, मुझको मेरी राह।
अब तो होकर ही रहें, पूरी सब मम चाह॥

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

= १८६ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
रोम रोम लै लाइ धुनि, ऐसे सदा अखंड ।
दादू अविनाशी मिले, तो जम को दीजे दंड ॥
जब यह मन भक्ति - परायण होकर ब्रह्म में लीन होता है और फिर रोम - रोम से ब्रह्म - ध्वनि होने लगे, उस अवस्था में यह जीव यम रूप काल से निर्भय हो जाता है। राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है -
रमते योगितो यास्मिन स रामः
अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है -
राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः....
अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है..........
===================
साभार ~ Ramgopal Goyal via
Radhika Mishra ~ राम आखिर क्या हैं ?...
राम जीवन का मंत्र है। राम मृत्यु का मंत्र नहीं है। राम गति का नाम है, राम थमने, ठहरने का नाम नहीं है। सतत वितानीं राम सृष्टि की निरंतरता का नाम है। राम, महाकाल के अधिष्ठाता, संहारक, महामृत्युंजयी शिवजी के आराध्य हैं। शिवजी काशी में मरते व्यक्ति को(मृत व्यक्ति को नहीं) राम नाम सुनाकर भवसागर से तार देते हैं। राम एक छोटा सा प्यारा शब्द है।
.
यह महामंत्र - शब्द ठहराव व बिखराव, भ्रम और भटकाव तथा मद व मोह के समापन का नाम है। सर्वदा कल्याणकारी शिव के हृदयाकाश में सदा विराजित राम भारतीय लोक जीवन के कण-कण में रमे हैं। श्रीराम हमारी आस्था और अस्मिता के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। भगवान विष्णु के अंशावतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम हिंदुओं के आराध्य ईश हैं। दरअसल, राम भारतीय लोक जीवन में सर्वत्र, सर्वदा एवं प्रवाहमान महा ऊर्जा का नाम है।
.
वास्तव में राम अनादि ब्रह्म ही हैं। अनेकानेक संतों ने निर्गुण राम को अपने आराध्य रूप में प्रतिष्ठित किया है। राम नाम के इस अत्यंत प्रभावी एवं विलक्षण दिव्य बीज मंत्र को सगुणोपासक मनुष्यों में प्रतिष्ठित करने के लिए दाशरथि राम का पृथ्वी पर अवतरण हुआ है। कबीरदासजी ने कहा है - आत्मा और राम एक है - आतम राम अवर नहिं दूजा।
.
राम नाम कबीर का बीज मंत्र है। रामनाम को उन्होंने अजपा जप कहा है। यह एक चिकित्सा विज्ञान आधारित सत्य है कि हम २4 घंटों में लगभग २१६०० श्वास भीतर लेते हैं और २१६०० उच्छावास बाहर फेंकते हैं।
दादूजी ने कहा है -
षट चक्र पवना फिरे, छः सहस्त्र एक बीस ।
योग अमर जम कूँ गीले, दादू बिसवा बीस ॥
इसका संकेत कबीरदासजी ने इस उक्ति में किया है -
सहस्र इक्कीस छह सै धागा, निहचल नाकै पोवै।
मनुष्य २१६०० धागे नाक के सूक्ष्म द्वार में पिरोता रहता है। अर्थात प्रत्येक श्वास - प्रश्वास में वह राम का स्मरण करता रहता है।
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राम शब्द का अर्थ है - रमंति इति रामः जो रोम-रोम में रहता है, जो समूचे ब्रह्मांड में रमण करता है वही राम हैं इसी तरह कहा गया है - रमते योगितो यास्मिन स रामः अर्थात् योगीजन जिसमें रमण करते हैं वही राम हैं। इसी तरह ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है -
राम शब्दो विश्ववचनों, मश्वापीश्वर वाचकः
अर्थात् ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ परमेश्वर वाचक है। चाहे निर्गुण ब्रह्म हो या दाशरथि राम हो, विशिष्ट तथ्य यह है कि राम शब्द एक महामंत्र है।

= १८५ =

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卐 सत्यराम 卐
*सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।*
*दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥*
*तन मन लै लागा रहै, राता सिरजनहार ।*
*दादू कुछ मांगैं नहीं, ते बिरला संसार ॥*
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साभार ~ @गौ हमारी माता है

*सन्मुख होइ जीव मोहि जबही*
*जनम कोटि अघ नासहिं तबही*
इसे मैंने कुछ ऐसे समझा कि प्रभु कृपा अनवरत बरस रही है परन्तु हम उनके सामने ही नहीं जाते इसीलिए हमारे पाप नष्ट नहीं होते परन्तु अगर कोई जीव उनके सन्मुख हो जाये तो उसके करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं। ठीक वैसे - जैसे हम सब जानते हैं कि सूर्य हमेशा रहता है, यह तो हमारी पृथ्वी घूमती है - *तो पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सामने होता है वहां दिन होता है, तब चाहे करोड़ों वर्षों का अन्धकार हो, प्रकाश के सम्मुख जाने से तुरंत समाप्त हो जाता है उसी प्रकार श्री हरि के सम्मुख जाने से करोड़ों जन्मों के पाप भस्म हो जाते हैं -*
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अब संशय यह उठता है कि हम तो रोज़ पूजा पाठ करते हैं, मंदिर जाते हैं, इत्यादि इत्यादि तो हमारे पाप तो विनष्ट नहीं हुए हम तो अभी भी दुखी हैं तो *मेरे प्यारे ! ज़रा ईमानदारी से बताना कि पूजा - पाठ, जप - तप क्या प्रभु के लिए किया था या मनोकामना सिद्धि के लिए - तो शरणागति तो पदार्थों की है प्रभु की नहीं जिस दिन प्रभु के पास, कान्हा के पास कान्हा के लिए जायेंगे जब यह भाव भाव होगा कि जो तुझे अच्छा लगे वही मुझे स्वीकार - उस दिन कोई क्लेश नहीं रहेगा - उस दिन सब अन्धकार दूर हो जायेगा। उस दिन वो प्यारा तुम्हें निज रूप दे देगा। हरि शरणम --*

सोमवार, 21 सितंबर 2015

= १८४ =

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卐 सत्यराम 卐
बच्चों के माता पिता, दूजा नाहीं कोइ ।
दादू निपजै भाव सूं, सतगुरु के घट होइ ॥
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साभार : Vipin Tyagi ~
जब बच्चा छोटा होता है, वह अपने घराने की बोली से अनजान होता है | माता बच्चे की आँखों में निहारती है और बच्चा माता की आँखों में देखती है | इस प्रकार बेज़बानी की ज़बान(मूक भाषा) द्वारा बच्चे को अपनी बोली को समझने और बोलने योग्य बना लेती है | माता बच्चे का हर प्रकार से ध्यान रखती है कि बच्चा कहीं आग में हाथ न ड़ाल ले, कहीं गड्ढे में न गिर जाये, कहीं कोई कीड़ा उसे न काट ले |
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वह उसको खिलाती-पिलाती है और स्वच्छ रखती है | बच्चे को ह्रदय से, ध्यानपूर्वक मति और बुद्धि देती है, यहाँ तक कि बच्चा सयाना और ज़वान हो जाता है | ठीक इसी प्रकार, शिष्य जब सतगुरु के घर में जन्म लेता है तब वह परमार्थ से बिलकुल अनजान होता है, उसकी सम्पूर्ण बुद्धि और मति एक प्रकार की मलिनता से ग्रस्त होती है और वह दुनियादारी में फँसा रहता है |
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मन-बुद्धि के फैलाव के कारण हैं, गुरु मन और इन्द्रियों के स्थिर रखने का साधन प्रदान करते हैं और अपने आंतरिक ध्यान द्वारा इनको एकाग्र करते है और बुद्धि को स्थिर करके इस मलिनता से शिष्य को निर्मल करते हैं | परमार्थ में मन और इन्द्रियों को वश में होना और बुद्धि का स्थिर होना आवश्यक है |
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साथ ही गुरु अपनी मेहर भरी दृष्टि द्वारा आन्तरिक स्थिरता प्रदान करके शिष्य को राम नाम की अनबोली और अनलिखित भाषा को समझने योग्य बना देते हैं | गुरु को शिष्य की बेहतरी और उन्नति का हमेशा ध्यान रहता है भले ही शिष्य इन बातों से बेखबर हो |
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वे यह यत्न करते हैं कि शिष्य सब प्रकार की मलिनताओं को दूर करके पवित्र और निर्मल रहे और उसके सारे अवगुण धुल जाएँ | गुरु अर्जुन साहिब फरमाते हैं:
सुखदाता गुरु सेवीऐ सभि अवगण कढै धोइ ॥२॥
सेवा मंगै सेवको लाईआं अपुनी सेव ॥ (SGGS 43)
पूर्ण गुरु शिष्य के सारे दुर्मति के मेल उतार देता है और सुमति प्रदान करके उसे सयाना बनाता है और उसके सब बंधन काट देता है | ऐसा गुरु धन्य है |
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When a child is young, he is unaware of the language of his heritage. Mother looks lovingly in the eyes of her child and child in return looks lovingly towards her. With this unspoken language of communication, mother makes him fit to understand the verbal communication of the land. Mother takes care of her child at every moment as he may put his hand in fire, fall in a pit, be bitten by some insect.
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She heartedly and attentively provides intellect and understanding to her child even when he grows mature and enters into youth age. In the same way when a disciple is reborn into the house of Satguru (Perfect Master) who initiates him in the mysteries of Holy Spirit (Ram Naam), he is unaware about the intricacies of spirituality and his intellect is shadowed by filth and dirt of this world.
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Mind-intellect is the reason of scattering of attention and Guru provides him the means to stop his mind from scattering and focus his mind and senses towards inner regions. He purifies the mind by focussing his intellect.
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He trains his disciple towards inner stability of mind by his Divine Grace and makes him understand the unwritten and unspoken language of Divine Word (Ram naam). Guru always keeps his mind in the welfare and progress of his disciple.
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He tries him to make pure and perfect free from any blemishes. Guru Arjun Dev says:
सुखदाता गुरु सेवीऐ सभि अवगण कढै धोइ ॥२॥
सेवा मंगै सेवको लाईआं अपुनी सेव ॥ (SGGS 43)
Serve the Guru, the Giver of Peace; He shall remove and wash off all your faults. Your servant begs to serve those who are enjoined to Your service.

= १८३ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
दादू कच्छब राखै दृष्टि में,
कुँजों के मन माहिं ।
सतगुरु राखै आपणां, दूजा कोई नाहिं ॥
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साभार : Vipin Tyagi ~
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गुरु और शिष्य का सम्बन्ध बहुत ही गूढ़ है जिसकी इस दुनिया के रिश्तों का मिसाल देना बड़ा ही मुश्किल है | फिर भी संतों-महात्माओं ने इसे समझाने का प्रयत्न किया है, ताकि हम कुछ उस रिश्ते के बारे में बोध हो सके | संसार के सारे रिश्ते स्वार्थ और गरज़ से बंधे हुए हैं, गुरु का रिश्ता शिष्य के साथ पवित्र है, निस्वार्थ है |
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इस सम्बन्ध की मिसाल हम माता और बच्चे के प्यार से दे सकते हैं | माता जब बच्चे को जन्म देती है तो वह उसके शरीर का एक टुकडा ही रहता है | उसकी कितनी सँभाल करती है उसे किसी भी इन्सान को बताने की ज़रुरत नहीं क्योंकि उसका अपनी माँ के साथ का रिश्ता इसकी अनुभूति दे देता है |
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माँ बच्चे के दुःख में दुखी और सुख में सुखी होती है | बच्चे को अपनी कोई सुधि नहीं होती, अपने भले-बुरे का ज्ञान नहीं होता, उसे मलिनता और सफ़ाई की पहचान नहीं होती | बच्चे को दुःख हो तो माता उसके दुःख के कारण बेचैन फिरती है, उसका दुःख दूर करने का यत्न करती है और रातें जाग कर बिताती है | जब बालक प्रसन्न होता है तो उसकी मुस्कराहट को देख कर माता का तन-मन खिल उठता है |
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बच्चा मल-मूत्र करके उसमें हाथ मारता है और कई बार मुहँ में भी ड़ाल लेता है | माता बच्चे से घृणा नहीं करती और अपने सुख की चिंता न करके बच्चे को साफ़-सुथरा रखती है, दूध पिलाती है, लोरियाँ गाकर सुलाती है | यदि बच्चा रात को पिशाब कर दे तो सर्दी की रात में भी वह बच्चे को उठाकर बिस्तरे के सूखे हिस्से में सुलाती है और स्वयं सारी रात भीगे हुए भाग में पडी रहती है |
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The relation between Guru(Perfect Master) and disciple is very unique and deep, and it is very difficult to give example of such relation from the worldly relations. Still saints try to explain about this valuable relation so that we may understand the depth of this relation. All relations of this world are based on need and are selfish in nature while relation of Guru with the seeker is very pious and free from selfishness.
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We can attempt to explain this esoteric concept by comparing it with love of mother with her child though they are not at par. When mother gives birth to her child, he remains just a part of her body. How much she cares for her child is not to be explained to any human being as almost everyone experiences the love with his mother.
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Mother becomes sad in the grief of her child and become happy on his happiness. Child remains unaware of himself, oblivious of the concept of good or bad for himself, unconscious of distinction between dirt and cleanliness. If a child suffers then his mother gets worried and wanders restlessly for his sufferings, tries to remove the effects of those sufferings and spends sleepless nights for her son. When child becomes happy then her heart blooms with happiness.
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The child often gets dirty in his own excreta and gets himself dirty after playing it. Mother does not hate him for his filthy acts but cleans him with all her efforts, gets him milk to drink, sings lullabies for his short naps. If the child wets his bad in the night then she arranges to keep him in dry portion of bed and sleeps happily in the wet portion of the bed.

रविवार, 20 सितंबर 2015

= १८२ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भय हुआ न जाइ ।
काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥
दादू चौड़े में आनन्द है, नाम धर्या रणजीत । 
साहिब अपना कर लिया, अन्तरगत की प्रीति ॥
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साभार : Osho Prem Sandesh ~
~ स्वप्न की उपेक्षा नहीं !
एक गांव गया था। किसी ने पूछा कि आप क्या सिखाते हैं ? मैंने कहा, ''मैं स्वप्न सिखाता हूं।'' जो मनुष्य सागर के दूसरे तट के स्वप्न नहीं देखता है, वह कभी इस तट से अपनी नौका को छोड़ने में समर्थ नहीं होगा। स्वप्न ही अनंत सागर में जाने का साहस देते हैं।
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कुछ युवक आये थे। मैंने उनसे कहा, ''आजीविका ही नहीं, जीवन के लिए भी सोचो। सामयिक ही नहीं, शाश्वत भी कुछ है। उसे जो नहीं देखता है, वह असार में ही जीवन को खो देता है।'' वे कहने लगे, ''ऐसी बातों के लिए पास में समय कहां है? फिर, ये सब-सत्य और शाश्वत की बातें स्वप्न ही तो मालूम होती हैं?''
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मैंने सुना और कहा, ''मित्रों, आज के स्वप्न ही कल के सत्य बन जाते हैं। स्वप्नों से डरो मत और स्वप्न कहकर कभी उनकी उपेक्षा मत करना। क्योंकि ऐसा कोई भी सत्य नहीं है, जिसका जन्म कभी न कभी स्वप्न की भांति न हुआ हो। स्वप्न के रूप में ही सत्य पैदा होता है। और वे लोग धन्य हैं, जो कि घाटियों में रहकर पर्वत शिखरों के स्वप्न देख पाते हैं, क्योंकि वे स्वप्न ही उन्हें आकांक्षा देंगे और वे स्वप्न ही उन्हें ऊंचाइयां छूने के संकल्प और शक्ति से भरेंगे। इस बात पर मनन करना है।
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किसी एकांत क्षण में रुक कर इस पर विमर्श करना। और यह भी देखना कि आज ही केवल हमारे हाथों में है- अभी के क्षण पर केवल हमारा अधिकार है। और समझना कि जीवन का प्रत्येक क्षण बहुत संभावनाओं से गर्भित है और यह कभी पुन: वापस नहीं लौटता है। यह कहना कि स्वप्नों के लिए हमारे पास कोई समय नहीं है, बहुत आत्मघातक है। क्योंकि इसके कारण तुम व्यर्थ ही अपने पैरों को अपने हाथों ही बांध लोगे।
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इस भाव से तुम्हारा चित्त एक सीमा में बंध जावेगा और तुम उस अद्भुत स्वतंत्रता को खो दोगे, जो कि स्वप्न देखने में अंतर्निहित होती है। और, यह भी तो सोचो कि तुम्हारे समय का कितना अधिक हिस्सा ऐसे प्रयासों में व्यय हो रहा है, जो कि बिलकुल ही व्यर्थ हैं और जिनसे कोई भी परिणाम आने को नहीं है ? क्षुद्रतम बातों पर लड़ने, अहंकार से उत्पन्न वाद-विवादों को करने, निंदाओं और आलोचनाओं में - कितना समय तुम नहीं खो रहे हो ? और, शक्ति और समय अपव्यय के ऐसे बहुत से मार्ग हैं।
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यह बहुमूल्य समय ही जीवन-शिक्षण-चिंतन, मनन और निदिध्यासन में परिणत किया जा सकता है। इससे ही वे फूल उगाये जा सकते हैं, जिनकी सुगंध अलौकिक होती है और उस संगीत को सुना जा सकता है, जो कि इस जगत का नहीं है।'' अपने स्वप्नों का निरीक्षण करो और उनका विश्लेषण करो। क्योंकि, कल तुम जो बनोगे और होओगे, उस सबकी भविष्यवाणी अवश्य ही उनमें छिपी होगी।
ओशो

= १८१ =

#daduji
卐 सत्यराम 卐
आपस को मारै नहीं, पर को मारन जाइ ।
दादू आपा मारे बिना, कैसे मिले खुदाइ ॥
दादू भीतर द्वन्दर भर रहे, तिनको मारैं नांहि ।
साहिब की अरवाह को, ताको मारन जांहि ॥
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साभार : Osho Prem Sandesh ~
*ईश्वर बाह्य सत्य नहीं !*
सत्य की खोज में स्वयं को बदलना होगा। वह खोज कम, आत्म-परिवर्तन ही ज्यादा है। जो उसके लिए पूर्णरूपेण तैयार हो जाता है, सत्य स्वयं उन्हें खोजता आ जाता है।
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मैंने सुना है कि फकीर इब्राहिम उनके जीवन में घटी एक घटना कहा करते थे। साधु होने के पूर्व वे बल्ख के राजा थे। एक बार जब वे आधी रात को अपने पलंग पर सोये हुए थे, तो उन्होंने सुना कि महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। वे हैरान हुए और उन्होंने जोर से पूछा कि ऊपर कौन है ? उत्तर आया कि कोई शत्रु नहीं। दुबारा उन्होंने पूछा कि वहां क्या कर रहे हो ? उत्तर आया कि ऊंट खो गया है, उसे खोजता हूं।
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इब्राहिम को बहुत आश्चर्य हुआ और अज्ञात व्यक्ति की मूर्खता पर हंसी भी आई। वे बोले, ''अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खो जाने और खोजने की बात तो बड़ी ही विचित्र है। मित्र, तुम्हारा मस्तिष्क तो ठीक है ?'' उत्तर में वह अज्ञात व्यक्ति भी बहुत हंसने लगा और बोला, ''हे निर्बोध, तू जिस चित्त दशा में ईश्वर को खोज रहा है, क्या वह अट्टालिका के छप्पर पर ऊंट खोजने से भी ज्यादा विचित्र नहीं है ?''
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रोज ऐसे लोगों को जानने का मुझे अवसर मिलता है, जो स्वयं को बदले बिना ईश्वर को पाना चाहते हैं। ऐसा होना बिलकुल ही असंभव है। ईश्वर कोई बाह्य सत्य नहीं है। वह तो स्वयं के ही परिष्कार की अंतिम चेतना-अवस्था है। उसे पाने का अर्थ स्वयं वही हो जाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
ओशो