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रविवार, 19 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९७

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९७)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
*२९७. हैरान । उत्सव ताल*
.
*हम तैं दूर रही गति तेरी ।*
*तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपुरी मति मेरी ॥टेक॥*
*मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं ।*
*सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुँचैं तांहीं ॥१॥*
*जोग न ध्यान ज्ञान गम नांही, समझ समझ सब हारे ।*
*उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे ॥२॥*
*खोज परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवे ।*
*दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावे ॥३॥*
*इति राग नट नारायण समाप्त ॥१८॥पद ७॥*
.
भा०दी०-हे प्रभो ! तव स्वरूपज्ञानं मनस इन्द्रियेभ्योऽपि परम् । यादृशं तव स्वरूपं तादृशं ज्ञानं तु भवानेव ज्ञातुं शक्नोति । नहि मदीय तुच्छबुद्ध्या त्वां ज्ञातुं प्रभवामि । भवान् मनसाऽप्यगम्यो बुझ्याप्यज्ञेयोऽतः कोऽपि त्वां मनो बुद्ध्या ज्ञातुं न शक्नोति । यत्र बुद्धिरपि कुण्ठिता भवति भवन्तं ज्ञातुं तत्र का वराकी- वाक्शक्तिः । सद्धिरपि भवान् ब्रह्माकारत्यैव ज्ञायते न तु फलव्याप्त्या । भवतां वास्तविकं स्वरूपं तु ज्ञानेन ध्यानेन योगेनाष्यशक्यं ज्ञातुम् । अतएव योगिनो ज्ञानिनो ध्यातार सर्वे व्यापकं त्वामन्विष्यन्ति तेऽप्यन्विष्यान्विष्य श्रान्ताः, यतोहि भवानग्राह्योऽस्ति, न हि त्वां ग्रहीतुं कोऽपि प्रभवति । परन्तु कश्चिदेव तव कृपया त्वां विजानाति । स एव महाभाग्यवानस्ति ।
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उक्तं हि कठोपनिषदि-
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
इति महामण्डलेश्वर श्रीमदात्मारामकृत भावार्थदीपिकायां नटनारायणराग: समाप्तः ॥
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हे प्रभो ! आपके स्वरूप का ज्ञान मन इन्द्रियों से भी परे है । जैसा आपका स्वरूप है वैसा तो आप ही अपने को जान सकते हैं । मेरी यह तुच्छ बुद्धि तो जान ही कैसे सकती है ? आप मन से भी अगम्य, दृष्टि से भी अदृश्य, बुद्धि से भी अज्ञेय हैं । अतः आपको कोई भी नहीं जान सकता ।
.
जहां पर आपको जानने में बुद्धि भी कुण्ठित हो जाती है तो यह विचारी वाणी तो कैसे जान सकती है ? सत्पुरुष भी आपको बुद्धि की वृत्ति द्वारा ही जान पाते हैं । फल व्याप्ति से तो कोई जान ही नहीं सकता । आपका वास्तविक स्वरूप तो ज्ञान, ध्यान, योग से भी नहीं जाना जा सकता है । इसलिये योगी, ध्यानी, ज्ञानी मध्य में ही बिना जाने हार मान लेते हैं और पार नहीं पा सके हैं ।
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जो प्राणी को रोक कर समाधिनिष्ठ हैं, वे भी आपके स्वरूप का अन्त नहीं जान सके और जो सर्वव्यापक आपको खोज रहे हैं वे भी खोज खोजकर थक गये । क्योंकि आपका स्वरूप तो अग्राह्य है, अतः आपको कोई भी नहीं जान पाता । परन्तु कोई भाग्यशाली जिन पर आपकी कृपा हो गई है, वे ही आपकी कृपा के द्वारा जान सकते हैं ।
.
कठ में लिखा है कि –
यह परब्रहम परमत्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत सुनने से प्राप्त हो सकता है । किन्तु जिसको परमात्मा स्वीकार कर लेते हैं, उसी के द्वारा आप जाने जाते हैं । जिसके हृदय में उसको जानने की उत्कट इच्छा तथा प्रेम होता है । ऐसे ही साधक पर भगवान् कृपा करते हैं और अपनी योगमाया को हटाकर उसके आगे सच्चिदानन्द रूप में प्रकट हो जाते हैं ।
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इति नटनारायण राग का पं. आत्मारामस्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१८॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९६

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९६)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
.
*२९६. मंगलाचरण (राज विद्याधर ताल)*
*नमो नमो हरि ! नमो नमो ।*
*ताहि गुसाँई नमो नमो, अकल निरंजन नमो नमो ।*
*सकल वियापी जिहिं जग कीन्हा, नारायण निज नमो नमो ॥टेक॥*
*जिन सिरजे जल शीश चरण कर, अविगत जीव दियो ।*
*श्रवण सँवारि नैन रसना मुख, ऐसो चित्र कियो ॥१॥*
*आप उपाइ किये जगजीवन, सुर नर शंकर साजे ।*
*पीर पैगम्बर सिद्ध अरु साधक, अपने नाम निवाजे ॥२॥*
*धरती अम्बर चंद सूर जिन, पाणी पवन किये ।*
*भानण घड़न पलक में केते, सकल सँवार लिये ॥३॥*
*आप अखंडित खंडित नाहीं, सब सम पूर रहे ।*
*दादू दीन ताहि नइ वंदित, अगम अगाध कहे ॥४॥*
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भा०दी०-हे हरे ! त्वां नमस्करोग्यहं पुन: पुन: । य: सर्वव्यापक: संकल्पमात्रेण सृष्टि रचयति तं प्रभुनारायणं नमस्करोमि । येनाऽऽनखाग्रात्शिरःपर्यन्तं करचरणाद्यङ्गोपाङ्गैः सुन्दरमिदं शरीरं वीर्य-जलबिन्दुमात्रेणाद्भुतं विरचितम् । स्वयं च जीवो भूत्वा प्राविशत् । सहायान्तरं विनैवाभिन्ननिमित्तोपादान कारणत्वेन ब्रह्म स्वयमेव जगद्रूपेण विवर्तितम् । 

उक्तं हि ब्रह्मसूत्रे भाष्ये
शङ्करस्वामिना- अस्य जगतो नामरूपाभ्यां व्याकृतस्यानेककर्तृत्वभौक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियितदेश-
कालनिमित्तक्रियाफलस्य मनसाऽप्यचिन्त्यरचनारूपस्य जमस्थितिभंगा: यतः सर्वज्ञात्सर्वशक्तेः कारणाद्भवति । तद् ब्रह्मज्ञेयम् । यथा नरशरीरं रचितं तथैव देवासुर-पशु-पक्षि-चराचर- जगत् तथा पृथिव्यादिपंचभूतानि महादेवादिदेवाः, पीरपैगम्बरादि सिद्धाः क्षणमात्रैणैव उत्पादिताः । भक्तेभ्यो भक्त्यर्थं स्वनाम-चिन्तनं दत्तम् । स च परमात्माऽखण्डः सर्वव्यापकश्च सर्वत्रास्ते । भक्तानां कार्य साधकः । सर्वभूतेषु समत्वेन स्थितोऽस्ति । स च वेदैरप्यगम्यो ऽगाधश्चास्ति, यस्मात्क्षणमात्रेणैवोत्पत्ति, स्थितिभङ्गा भवन्ति, तस्मै, परब्रह्मणे पुन: पुनर्नमस्करोमि ।

उक्तं हि सर्वोपनिषदत्सारसंग्रहे-
यस्मिन् सर्वे यतः सर्वे य: सर्वः सर्वतश्च यः ।
यश्चय सर्वमयो देवस्तस्मै सर्वात्मने नमः ॥
यतो वा इमानि भूतानि यश्च जायन्ते ॥
.
हे हरे ! आपको मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ । जो सर्वव्यापक होते हुए संकल्पमात्र से सृष्टि की रचना करते हैं । उस नारायण को नमस्कार करता हूँ, जिसने नख से लेकर शिखा पर्यन्त हाथ पैर मुख आदि अंग-उपांगों के द्वारा इस शरीर को सुन्दर बनाकर वीर्य के बिन्दु मात्र से पैदा का दिया और स्वयं जीव बनकर इस शरीर में प्रविष्ट हो गया और बिना किसी की सहायता के अकेले ने ही अभिन्न निमित्तोपादान कारण बनकर इस जगत् बना डाला ।
.
ब्रह्म सूत्र के भाष्य में शंकारचार्य जी ने लिखा है कि यह जगत् अनेक कर्ता भोक्ताओं से युक्त है तथा जिसमें देश काल निमित क्रिया फल आदि प्रतिनियत हैं, जिसकी रचना मन से भी नहीं जानी जा सकती है, ऐसे अचिन्त्य नामरूपात्मक जगत् की रचना जिस सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् कारण से होती है, उसी को ब्रह्म कहते हैं ।
.
जैसे नर शरीर सुन्दर बनाया वैसे ही देवता, पशु, पक्षी, चराचर जगत् तथा पृथ्वी आदि पंचभूत महादेव, पीर पैग़म्बर, सिद्ध आदि जगत् को भी क्षण मात्र में पैदा कर दिया । अपने भक्तों को भक्ति करने के लिये नाम चिन्तन प्रदान किया । स्वयं सर्वव्यापक अखण्ड रूप से सर्वत्र रहता है । भक्तों के कार्य को सिद्ध करने वाला सब प्राणियों में समरूप से विराजमान है, जिसके क्षणमात्र में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति भंग होते ही रहते हैं । जो अगम अगाध है, जिसको वेद भी नहीं जान सके । उस परब्रह्म परमात्मा को मेरा पुनःपुनः नमस्कार हो ।
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सर्वोपनिषद्संग्रह में –
जिसमें यह सारा संसार कल्पित है, जिससे यह पैदा होता है, जो सर्वत्र सर्वरूपमय सर्वदेवमय है, उस सर्वात्मा को मेरा नमस्कार हो, “यतो वा इमानि भूतानि” यह श्रुति भी उसी ब्रह्म में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को कह रही है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९५

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९५)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९५. परमेश्‍वर महिमा ।*
*राज विद्याधर ताल*
*तुम बिन ऐसैं कौन करै !*
*गरीब निवाज गुसांई मेरो,माथै मुकुट धरै ॥टेक॥*
*नीच ऊँच ले करै गुसांई, टार्यो हूँ न टरै ।*
*हस्त कमल की छाया राखै, काहू तैं न डरै ॥१॥*
*जाकी छोत जगत को लागै, तापर तूँ हीं ढ़रै ।*
*अमर आप ले करे गुसांई, मार्यो हूँ न मरै ॥२॥*
*नामदेव कबीर जुलाहो, जन रैदास तिरै ।*
*दादू बेगि बार नहीं लागै, हरि सौं सबै सरै ॥३॥*
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भादी०-हे दीनदयालो ! पतितपावन परमेश्वर ! त्वां विना कोऽन्योऽस्ति यो दीनोद्धारको भवेत् । भवतां बिनाऽधमेषु जीवेषु कोऽन्यो द्रवेत अहं स्त्रीजातिर्वेश्या च पापपरायणा ब्राह्मणैरस्पृश्या निद्या चास्मि तथापि मम हस्ताभ्यां स्वशिरसि मुकुटं धारितं न च गृहानिर्जाता अहो स्वामिन् मादृशी सु अधमासु दयां विधाय भक्तानां मध्ये सर्वमान्या पूज्या कृता । किं वच्मि तव दयालुताया विषये यतो हि दयाकालेन जात्यादिकमपेक्षते । त्वत्कृपापात्रं भक्तो न यमादिभ्योऽपि विभेति । स च त्वत्कृपयाऽमरो (जीवन्मुक्तो) भवति । स चान्यैर्ध्नतोऽपि न हतो भवति । न च तव भक्ति जन्मजन्मान्तरे हातुं शक्नोति किन्तु सदा तव दासो भवति । यथा नामदेवकबीरेरैदासादयो भक्ताः शीघ्रं संसार-सागरं तीर्वा मुक्ता जाताः । यतो हरेः किं दुष्करं, पापिनोऽपि स तारयति । ये तव शरणागतास्तेषां सर्वाणि कार्याणि भगवत्कृपया स्वयमेव सेत्स्यन्ति ।
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वैष्णवमताब्जभास्करे-
सर्वे प्रपत्तेराधिकारिणः सदा शक्ता अशक्ता अपि नित्यरंगिणः ।
अपेक्ष्यते नात्र कुलं वलं च नो तत्राऽपि कालो नहि शुद्धता च ॥
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आलविन्दारस्तोत्रे-
दुरन्तस्थानादेरपरिहरणीयस्य महतो
निहीनाचारोऽयं नृपशुरशुभस्थ्यास्यपदमपि
दयासिन्धो बन्यो निरवधिक-वात्सल्य - जलधे
तव स्मारं स्मारं स्मारं गुणगणमितीच्छामि गतभीः॥
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मेरे स्वामी भगवान् दयालु ! दीनों के उद्धार करने वाले पतितपावन हैं और मेरे निःसीम प्रेम के पात्र हैं, मैं उनको नहीं छोड़ सकती हूँ । मैं जाति से स्त्री वेश्या पापपरायणा तथा ब्राह्मणों से अस्पृश्य निन्दनीय हूँ फिर भी आपने दया करके मेरे हाथों से अपने शिर पर मुकुट पहना और जरा सी भी ग्लानि नहीं की, किन्तु मुझे भक्तों के मध्य में सर्वमान्य पूजनीय बना दिया ।
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आपकी दयालुता के विषय में और क्या कहूं ? आपका कृपा-पात्र भक्त यम आदि से भी नहीं डरता । आपकी कृपा से वह अजर अमर(जीवन्मुक्त) हो जाता है । दूसरों के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता । क्योंकि आप उसके सदा रक्षक रहते हैं । आपका भक्त आपकी भक्ति को जन्मातरों में भी नहीं त्यागता । किन्तु सदा के लिये आपका दास बन जाता है ।
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जैसे नामदेव, कबीर, रैदास आदि भक्त शीघ्र ही संसार सागर को पार करके मुक्त हो गये । हे हरे ! आपके लिये क्या दुष्कर है, आप तो पापियों को भी तार देते हैं । जो आपकी शरण में आ जाते हैं उनके सारे कार्य आपकी दया से स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं ।
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वैष्णवमताब्जभाष्कर –
आपकी शरण में आने का सभी को अधिकार है, चाहे वह शक्त हो या अशक्त, किन्तु आपके प्रेम में रंगा हुआ होना चाहिये । कृपा करते समय भगवान् यह नहीं देखते कि इसका कुल कैसा है, इसमें क्या बल है, शुद्ध है या नहीं, कृपा का भी समय है या नहीं ?
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आलविन्दारस्तोत्र में –
हे दयासिन्धो, दीन-बन्धो ! मैं दुराचारी, नरपशु आदि अन्त रहित, अपरिहार्य महान् अशुभों का भंडार हूँ, तो भी हे अपार-वात्सल्य-सागर ! आपके गुण-गणों का स्मरण करके निर्भय हो जाऊं, ऐसी इच्छा करता हूँ ।
(क्रमशः)

रविवार, 12 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९४

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९४)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
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*२९४. राजमृगांक ताल(बसंत में) *
*नीके मोहन सौं प्रीति लाई ।*
*तन मन प्राण देत बजाई, रंग रस के बनाई ॥टेक॥*
*ये ही जीयरे वे ही पीवरे, छोड्यो न जाई, माई ।*
*बाण भेद के देत लगाई, देखत ही मुरझाई ॥१॥*
*निर्मल नेह पिया सौं लागो, रती न राखी काई ।*
*दादू रे तिल में तन जावे, संग न छाडूं, माई ॥२॥*
.
भादी०-नि:सीम प्रेमपात्रं मे भगवानेवास्ति । अतो हृदयं मे प्रेमरसेन प्लावितम् । मे शरीरं मनः प्राणाश्च भगवति प्रतिष्ठिताः सन्ति । भगवानेव मे प्रियतमः । अयं जीवात्माऽपि तस्मै वाऽस्ति अतस्तं त्यक्तुं नेच्छामि । यदा कदाचिदपि तस्य वियोगो भवति तदा मदीयं हृदय-कमलं मूर्छितं भवति । अधुना प्रियतमेन सह मम निर्मलं प्रेमजातम् । नहि मे मनसि तं प्रति कापट्यं फलाभिलाषोवाऽस्ति । निष्कामप्रेग्णैव भगवान् तुष्यति । अतो न कथमपि तं प्रभुं हातुं समर्थो भवामि । यतो हि शरीरमिदं तु क्षणभङ्गुरम् । कदापि मां परित्यज्य यास्यति ।
.
उक्तं हि भक्तिस्सायने-
मनःस्पृष्टं वस्तु प्रियमखिलसाधारणमपि
क्वचिच्चक्षुदृष्टं यदि तदस्ति सौख्याय भवति ।
प्रियेभ्योऽपि प्रेयानतुलपरमानन्दजनको
ध्रुवं दृष्टो याभिस्तदुचितमतापां यदभवन्॥
.
भगवान् के साथ मेरा निःसीम प्रेम हो गया है । अब तो मैं मेरे हृदय को प्रेम रस से रंजित करके घण्टाघोष के द्वारा तन, मन प्राण सभी प्रियवस्तु भगवान् को अर्पण कर दी है । क्योंकि भगवान् मुझे बहुत ही प्रिय लगते हैं । मैं उनको छोड नहीं सकती, जब कभी उनसे मेरा थोडा सा भी वियोग हो जाता है तो मेरा मन मुरझा सा जाता है ।
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मेरा प्रभु प्रेम के साथ निष्कपट फलेच्छ रहित है । क्योंकि भगवान् निष्कपट निष्काम भाव से प्रेम करने पर ही प्रसन्न होते हैं । अतः ऐसे प्रेमी भगवान् को मैं नहीं छोडूंगी क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, कभी भी मुझे छोड़कर जा सकता है ।
.
भक्तिरसायन में लिखा है कि –
मन को प्रिय लगने वाली वस्तु साधारण ही क्यों न हो वह एक बार आखों से देख ले तो वह अत्यन्त सुख को देने वाली होती है । भगवान् तो फिर प्रिय से भी अतिप्रिय हैं और परमानन्द को देने वाले हैं, अतः उनको कैसे त्याग सकता है ? जैसे गोपियों ने जैसे ही भगवान् को देखा वैसे ही वे सब निस्ताप हो गई ।
(क्रमशः)

बुधवार, 8 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९३

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९३)* 
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
.
*२९३. राज मृगांक ताल*
*कब देखूं नैनहुँ रेख रति, प्राण मिलन को भई मति ।*
*हरि सौं खेलूं हरि गति, कब मिल हैं मोहि प्राणपति ॥टेक॥*
*बल कीती क्यों देखूंगी रे, मुझ मांही अति बात अनेरी ।*
सुन साहिब इक विनती मेरी, जनम-जनम हूँ दासी तेरी ॥१॥*
*कहै दादू सो सुनसी सांई, हौं अबला बल मुझ में नांही ।*
*करम करी घर मेरे आई, तो शोभा पीव तेरे तांई ॥२॥*
.
भा०दी०-भवदभिस्नेहयन्त्रिताशयस्य जीवात्मनो मे बुद्धिर्यदि दर्शनं कुर्यात्तर्हि शान्तिमिया । दित्याशाव्याकुलिता प्राणपतिं भगवन्तं द्रष्टुं सा त्वरते । कदा च तदात्मस्वरूपभूता तेन सहानन्दानुभवरूपां क्रीडां करिष्ये । अहो बलवदनिष्टानुबन्धिनो दुरितानि मे सन्ति । अतो न दृठात्तं द्रष्टुं शक्नोमि । हे प्रभो! मम वार्ता श्रृणु । अहं जन्मजन्मान्तरे भवतां दास्यस्मि । अतो दर्शनार्थं प्रार्थये मम स्वामित्वेन भवता मम प्रार्थना श्रोतव्या, इत्याशासेऽहम् । हे प्रियतम ! अबलाऽस्मि । नास्ति मे किमपि साधनबलम् । अत: स्वयं हि कृपां विधाय मम हृदयगृहे समागच्छतु । तदैव भवतां शोभा स्यात् ।
.
उक्तं हि भक्तिरसायने-
आम्नायाभ्यसने न किं फलमलं कृच्छ्राद्यनुष्ठानत:
किं योगेन जपेन वा सुतपसा त्यागेन यागेन च ।
एक: शुद्धतरो न चेद् व्रत मनोभावो हरौ सोऽस्ति चेत्
स्यातेनैव कृतार्थता किमपरैरत्र प्रमाणं हि ताः॥
.
भगवान् के प्रेम से जकड़े हुए जीवात्मा की बुद्धि को अणुमात्र भी प्रभु के दर्शन हो जायँ तो उसको शान्ति मिल सकती है । इस आशा से व्याकुल हुई प्राणों के स्वामी भगवान् को देखने के लिये बुद्धि जल्दी कर रही है । कब मैं भगवान् का रूप धारण करके उनके साथ आत्मानन्द की क्रीडा का खेल खेलूंगी ?
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मेरे तो बड़े बड़े बलवान् अनिष्टों को पैदा करने वाले पाप खड़े हैं तो फिर मैं उनसे हठ करके कैसे दर्शन पा सकूंगी ? हे प्रभो ! मेरी बात सुनिये, मैं जन्म जन्मान्तरों से आपकी दासी हूं, अतः आपसे दर्शनों की प्रार्थना कर रही हूं । आप मेरे स्वामी हैं । अब आप को मेरा प्रार्थना अवश्य सुननी चाहिये । मैं ऐसी आपसे आशा कर रही हूं । हे प्रियतम ! मैं अबला हूं । मेरे में कोई साधन का बल नहीं है । आप ही कृपा करके मेरे हृदय में पधारो । तब ही आपकी शोभा रहेगी ।
.
भक्तिरसायन में लिखा है कि –
यदि भक्त के हृदय में शुद्ध भाव नहीं है तो वेद पढने से क्या फल है, और कठिन कठिन साधनों के अनुष्ठान से भी क्या लाभ है ? योग, यज्ञ, जप, तप, इनके करने से भी कोई फल नहीं मिलता ।
.
यदि भगवान् के प्रति हृदय में शुद्ध भाव है, तब भी इन साधनों का कोई फल नहीं । केवल हृदय की शुद्ध भावना से ही भगवान् प्रसन्न हो जायंगे और दर्शन भी हो जायगा । इस विषय में गोपिकायें ही प्रमाण हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 5 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९२

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९२)*
*राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
.
*२९२. विरह । जय मंगल ताल*
*गोविन्द कबहुँ मिलै पीव मेरा ।*
*चरण-कमल क्योंहीं कर देखूं, राखूं नैनहुँ नेरा ॥टेक॥*
*निरखण का मोहि चाव घणेरा, कब मुख देखूं तेरा ।*
*प्राण मिलन को भई उदासी, मिल तूँ मीत सवेरा ॥१॥*
*व्याकुल तातैं भई तन देही, सिर पर जम का हेरा ।*
*दादू रे जन राम मिलन को, तपहि तन बहुतेरा ॥२॥*
.
भा०दी०-हे गोविन्द ! त्वं कदा प्राप्स्यसि ? कथं वा तव दर्शनं कृत्वा तव चरणकमलेनेत्रयोः यावें धारयिष्यामि । तव मुखारविन्दं दृष्टुं मम मनसि महोत्साहे वर्तते । हा हा नाथ ! नाहं वक्तुं समर्थोऽस्मि कदा तव दर्शनं स्यादिति । मम मनस्तु त्वदर्शनार्थं त्वरते । शिरसि स्थितो यमो मां प्रहरति, स्थूल-शरीरे स्थितोऽपि जीवात्मा त्वदर्थ व्याकुलोऽस्ति । हा हा ! तव भक्तस्य शरीरं मनश्च प्रभुं द्रुष्टुं संतप्ते स्त: । अतो हे मित्र ! शीघ्रं दर्शय ।
.
उक्तं हि श्रीमद्भागवते-
तं त्वद्य नूनं महतां गतिं गुरुं त्रैलोक्यकान्तं दृशिमन्महोत्सवम् ।
रूपं दधानं श्रिय ईप्सितास्पदं द्रक्ष्ये ममासन्नुषस: सुदर्शनाः ॥
.
हे गोविन्द ! आप कब मिलेंगे और कब आपका दर्शन करके चरण-कमलों को मेरे नेत्रों के पास रख सकूंगा ? आपके मुखारविन्द का दर्शन करने के लिये मेरे मन में बड़ा ही उत्साह हो रहा है । हे नाथ ! मैं तो यह निश्चित नहीं कह सकता कि आपके दर्शन मुझे कब होंगे ? मेरा मन तो आपके दर्शनों के लिये दुःखी हो रहा है ।
.
शिर पर खड़ा यम भी मुझे मार रहा है । इस स्थूल शरीर में रहने वाला जीवात्मा भी आपके दर्शनों के लिये व्याकुल हो रहा है । हा ! हा ! नाथ आपके भक्त का मन और शरीर प्रभु को देखने के लिये संतप्त हो रहे हैं । इसलिये हे मित्र ! जल्दी दर्शन देवो ।
.
भागवत में –
इसमें संदेह नहीं है कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूंगा । वे बड़े बड़े सन्तों और लोक पालों के एकमात्र आश्रय हैं । सबके परमगुरु हैं और उनका रूप सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोहित करने वाला है । जो नेत्र वाले हैं, उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा है ।
.
इसी से स्वयं लक्ष्मीजी के मन में भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये लालसा बनी ही रहती है । हां, तो मैं उन्हें अवश्य देखूंगा क्योंकि आज मेरा मंगल प्रभात है । आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे शकुन दिख रहे हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९१

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९१)*
*अथ राग नट नारायण १८*
*(गायन समय रात्रि ९ से १२)*
.
*२९१. हित उपदेश । गजाताल*
*ताको काहे न प्राण संभालै ।*
*कोटि अपराध कल्प के लागे,*
*मांहि महूरत टालै ॥टेक॥*
*अनेक जन्म के बन्धन बाढ़े, बिन पावक फँध जालै ।*
*ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूँ दुःख न सालै ॥*
*चिंतामणि जुगति सौं राखै, ज्यूं जननी सुत पालै ।*
*दादू देखु दया करै ऐसी, जन को जाल न रालै ॥*
.
भा०दी०-हे प्राणिन् ! य: प्रभुराकल्पं कृतानि दुरितानि क्षणेनैव क्षपयति, तस्य प्रभोः प्रियनामानि किमर्थं त्वं न भजसि? यस्य नामसंकीर्तनेन कर्मबन्धनानि क्षीयन्ते, अग्नि विनैव भवबन्धनं भस्मीभवति । हे मानव ! त्वं किमपि मनसि विचारय, यद्भगवन्नाम्नि सर्वशक्तयः समाहिताः सन्ति । नहि भगवद्भक्तं किमपि दुःखं व्यथयितुमर्हति । मातेव भगवान् स्वप्रियभक्तान् रक्षति पालयति च । हरिनामचिन्तामणि-तुल्यं सर्वाशां पूरयति । पश्यतुतराम्, नहि प्रभु भक्तान् यमोऽपि दण्डयितुं ।
उक्तं हि भागवते-
न तस्य कश्चिद् दयित: सुहृत्तमो न चाप्रियो द्वेष्य उपेक्ष्य एव वा ।
तथापि भक्तान् भजते यथा तथा सुरद्रुमो यद् वदुपाश्रितोऽर्थदः ॥
.
हे प्राणिन् ! जो प्रभु कल्पपर्यन्त किये हुए पापों को क्षण में ही नष्ट कर देता है, उस प्रभु के प्यारे नामों को किसलिये नहीं भजता ? उस भगवान् के नाम स्मरण मात्र से कर्म बन्धन कट जाते हैं । हे मानव ! तू जरा अपने मन में विचार तो कर, भगवान् के नामों में सारी शक्तियां निहित हैं ।
.
भगवान् के भक्त को कोई भी दुःख दुःखी नहीं कर सकता । अपने प्यारे भक्तों की भगवान् माता की तरह रक्षा तथा पालन करते हैं । हरिनाम चिन्तामणि के तुल्य है । संकल्प मात्र से ही क्षण भर में ही सब कुछ देने में समर्थ हैं । सब की आशाओं को पूर्ण करता है । जरा देख, प्रभु भक्तों को यमराज भी दण्ड नहीं दे सकता ।
.
भागवत में लिखा है कि –
न तो भगवान् का कोई प्रिय है एवं न अप्रिय, न कोई आत्मीय सुहृद् है, न कोई शत्रु है, न कोई उपेक्षा का पात्र है । फिर भी कल्प-वृक्ष जैसे अपने निकट आकर मांगने वाले को उनकी मुंहमांगी वस्तु देता है वैसे ही भगवान् श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार से भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 1 फ़रवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२९०

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२९०)*
*राग हुसेनी बंगाल ॥१७॥*
*(गायन समय पहर दिन चढ़े, चंद्रोदय ग्रन्थ के मतानुसार)*
.
*२९०. विनय (त्रिताल)*
*तूँ घर आव सुलक्षण पीव ।*
*हिक तिल मुख दिखलावहु तेरा, क्या तरसावै जीव ॥टेक॥*
*निशदिन तेरा पंथ निहारूं, तूँ घर मेरे आव ।*
*हिरदा भीतर हेत सौं रे वाल्हा, तेरा मुख दिखलाव ॥१॥*
*वारी फेरी बलि गई रे, शोभित सोइ कपोल ।*
*दादू ऊपरि दया करीनें, सुनाइ सुहावे बोल ॥२॥*
इति राग हुसेनी बंगालौ समाप्त ॥१७॥पद २॥
.
भा०दी०-शुभ लक्षणैः सुशोभित प्रियतम प्रभो ! मम हृदय-गुहागृहे पादार्पणं विधेहि । दर्शनं दास्यामीत्युक्त्वाऽदर्शनेन मदीयं मनः किमर्थं च दुःखी करोधि । व्यथिते न मनसा तव दर्शन-मार्ग पत्यामि कदा भगवान् दर्शनं दातुं पे गृहमागमिष्यसीति । दर्शनावसरं प्रती हे । हे परमात्मन् । मदीये स्वच्छे शुभे हदयगृहे समागत्य सुशोभनं सुन्दरकपोलं मुखं दर्शय । अहं शरीरादिक सर्वस्वं समर्पयामि । चरणारविन्दयोः प्रणिपत्य नमस्करोमि । तव प्रियं मधुरं वचनं श्रोतुमिच्छामि । तव वचनं मधुरं मनोहारि च । अतश्च श्रावय । हे सखे । त्वत्यदैकात्रय मां त्राहि त्राहि ।
उक्तं च दीनव-युस्तोत्रे
आकाररूपगुणयोग विवर्जितोऽपि भक्तानुकम्पन निमित्तग्रहीतपूर्ति ।
सर्वतोऽपि कृतशेष शरीरशप्यो दग्गोचरो भवतु मेऽद्य स दीनबन्धुः ॥
महामंडलेश्वर श्रीमदात्मारामस्वामिकृत भावार्थदीपिकायां हुसेनीबंगालराग: समाप्त: ॥१७॥
.
हे शुभ लक्षणों से सुशोभित मेरे प्यारे प्रभो ! मेरे हृदय गुहारूपी घर में पधारिये । “दर्शन दूंगा” इतना कहकर फिर भी दर्शन न देकर आप मेरे मन को लालायित क्यों कर रहे हैं? व्यथित मन से मैं आपके दर्शनों के लिये रास्ता देख रहा हूं कि भगवान् कब दर्शन देने के लिये पधार रहे हैं । आपके दर्शन देने के अवसर की प्रतीक्षा कर रहा हूं । हे परमात्मन् ! मेरे स्वच्छ पवित्र हृदय में आकर शोभायुक्त सुन्दर गाल वाले मुख-कमल का दर्शन दीजिये ।
.
अहो ! मैंने तन मन सब कुछ आपको समर्पित कर दिया है । चरणों में मस्तक झुका कर नमस्कार कर रहा हूं और आपके प्रिय मधुर वचनों को सुनना चाहता हूं । आपके वचन प्रिय तथा मन को हरण करने वाले हैं । अतः आप अपने वचन सुनाइये । हे मित्र ! मैं केवल तेरे चरणों का ही सहारा ले रहा हूँ । मेरी रक्षा करो और दर्शन देवो ।
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आलविन्दारस्तोत्र में –
भगवान् आकार रूप गुण से रहित होते हुए भी भक्तों के ऊपर दया करने के निमित्त अवतार धारण करते हैं और जो सर्वत्र विद्यमान रहते भी शेष नाग के शरीर की शय्या बनाये हुए हैं । वे दीनबन्धु भगवान् मेरे नेत्रों के समक्ष में प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देने की कृपा करें ।
इति राग बंगालौ राग का पं. आत्मारामस्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१७ ॥
(क्रमशः)

शनिवार, 28 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८९

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८९)*
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*अथ राग हुसेनी बंगाल ॥१७॥*
*(गायन समय पहर दिन चढ़े, चंद्रोदय ग्रन्थ के मतानुसार)*
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*२८९. (फारसी) अनन्यता । त्रिताल*
*है दाना है दाना, दिलदार मेरे कान्हा ।*
*तूँ ही मेरे जान जिगर, यार मेरे खाना ॥टेक॥*
*तूँ ही मेरे मादर पिदर, आलम बेगाना ।*
*साहिब शिरताज मेरे, तूँ ही सुलताना ॥१॥*
*दोस्त दिल तूँ ही मेरे, किसका खिल खाना ।*
*नूर चश्म जिंद मेरे, तूँ ही रहमाना ॥२॥*
*एकै असनाव मेरे, तूँ ही हम जाना ।*
*जानिबा अजीज मेरे, खूब खजाना ॥३॥*
*नेक नजर मेहर मीरां, बंदा मैं तेरा ।*
*दादू दरबार तेरे, खूब साहिब मेरा ॥४॥*
.
भा०दी०-हे सर्वसमर्थ परब्रह्म परमात्मन् ! त्वं बलवत्सु सर्वतोऽधिको बलवानसि । हे कृष्ण ! त्वमेव मे हृदयप्रिय: सुहृदस्ति । त्वमेव मे जीवनस्वरूपो हृदयास्थ: प्रियो जीवोऽसि । त्वमेव मे मित्रं सहायको निवासस्थानञ्चासि । त्वमेव मे माता पिता तथा परोजनोऽसि । त्वमेव मे स्वामी, सर्वशिरोमणिसम्राडसि ।
इदं मदीयं शरीरमपि त्वदीयम् । भवतां शुद्धं सच्चिदानन्दरूपमेव मे नेत्र-विषयोसि । हे दयालो परमेश्वर ! संसारेऽस्मिन् त्वमेव सर्वशोभास्पदोऽसि । त्वमेव मे पक्षकर्ता सहायकोऽसि । द्रविणमपि त्वमेव । हे सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ! ते दासस्तव द्वारि समुपस्थितोऽस्मि । कृपादृष्टिं प्रसारय ।
उक्तं मालविन्दार स्तोत्रे-
बंशी वदान्यो गुणवानृजुः शुचिर्मूदुर्दयालुर्मधुरःस्थिरसमः ।
कृतीकृतज्ञस्त्वमसि स्वभावतः समस्तकल्याणगुणामृतोदधिः ॥
.
हे सर्वसमर्थ परमात्मन् ! आप बलवानो में से सबसे अधिक बलवान् हो । हे कृष्ण ! आप मेरे हृदय के प्यारे मित्र हो । आप ही मेरे जीवनस्वरूप हृदयस्थ प्यारे जीव हो । आप ही मेरे मित्र सहायक और निवास स्थान हो । आप ही मेरे माता पिता या पराये जन हो । आप ही मेरे प्रिय सर्वशिरोमणि सम्राट् हैं । यह शरीर भी आपका है ।
.
आपका शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरूप मेरे नेत्रों का विषय बने । हे दयालु परमेश्वर ! संसार में आप ही शोभा के स्थान हैं । आप ही मेरा पक्ष लेने वाले सहायक हैं । धन भी मेरे लिये आप ही हैं । हे सर्वश्रेष्ठ परमात्मन् ! मैं आपका दास आपके द्वार पर उपस्थित हूं और दया की भीख मांग रहा हूं । कृपा वर्षा कीजिये ।
.
मालविन्दारस्तोत्र में –
वह परमात्मा वदान्य और दयालु अर्थात् अकारण करुणावरुणालय हैं । दान शौण्द्र बहुप्रद वरदराज भी हैं । भगवान् के ये गुण जीव मात्र पर अहैतुकी कृपा प्रकट करने पर ही चरितार्थ होते हैं । अतः वे सब पर अयाचित कृपा करते रहते हैं । अतः मेरे पर भी दया की वर्षा कीजिये ।
(क्रमशः)

बुधवार, 25 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८८

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८८)*
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*२८८. परिचय पराभक्ति (कोकिल ताल)*
*अखिल भाव अखिल भक्ति, अखिल नाम देवा ।*
*अखिल प्रेम अखिल प्रीति,अखिल सुरति सेवा ॥टेक॥*
*अखिल अंग अखिल संग, अखिल रंग रामा ।*
*अखिला रत अखिला मत, अखिला निज नामा ॥१॥*
*अखिल ज्ञान अखिल ध्यान, अखिल आनन्द कीजे ।*
*अखिला लय अखिला में, अखिला रस पीजे ॥२॥*
*अखिल मगन अखिल मुदित, अखिल गलित सांई ।*
*अखिल दर्श अखिल पर्श, दादू तुम मांहीं ॥३॥*
इति राग टोडी समाप्त ॥१६॥पद २०॥
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भावदी०-निर्गुणोपासनाया उत्कृष्टदशायां ज्ञातस्य परब्रह्मण: सर्वप्रकारेण श्रद्धान्वितेन साधकेन भक्ति: कार्या । सर्वथा तस्यैव नामचिन्तनं कर्तव्यम्, सः प्रभुः सर्वथा प्रेम पात्रमस्ति । सर्वस्वरूपे स्वकीयां मनोवृत्तिं विधाय सेवा कर्तव्या । सर्वाष्ववस्थासु स एव प्रेमपात्रमस्तीति मत्वा तस्य प्रेमभक्ति कुरु । सः सर्वरूपत्वेन सर्वशरीरेषु विद्यमान: सर्वसङ्गी भवति । तस्य रामादिनाम्ना चिन्तनं कुर्यात् । तस्यैव ध्यानं-ज्ञानं तस्यैव दर्शनमुत्तममस्ति । सर्वत आनन्द स्वरूपे ब्रह्मणि मनोवृत्ति निधाय सर्वरसरूपस्य दर्शनं कुर्यात् । तत्प्रेरिण गलित: प्रसन्न: सन् सर्वरूपे ब्रह्मणि लीनं भवेत् । सर्वस्मिन् जगति दर्शनस्पर्शन योग्य: परब्रह्म परमात्मा सर्वान्तःकरण एव स्थितोऽस्ति ।
महामण्डलेश्वर श्रीमदात्मारामस्वामिकृत भावार्थदीपिकायां टोडी: राग समाप्तः ॥१६॥
.
निर्गुण उपासना की उत्कृष्ट अवस्था में जाने हुए ब्रह्म की साधक को हर प्रकार से श्रद्धापूर्वक भक्ति करनी चाहिये । सदा उनके नामों का ही चिन्तन करना चाहिये । वह प्रभु ही प्रेम का पात्र है । सर्वरूप उस ब्रह्म में अपने मन की वृत्ति लगाकर सेवा करनी चाहिये ।
.
सभी अवस्थाओं में वह ही प्रेम पात्र है । ऐसा जान कर उससे प्रेम करो । वह परमात्मा सर्व शरीरों में सर्वरूप से विराजमान है तथा सबके संग रहता है । राम नाम से या सोऽम् आदि शब्दों से चिन्तन करना चाहिये । उसी का ज्ञान, ध्यान, दर्शन करना उत्तम है ।
.
सर्व प्रकार से आनन्द स्वरूप ब्रह्म में मन की वृत्ति को स्थिर करके सर्वरसरूप ब्रह्म का दर्शन करते रहना चाहिये । उसके प्रेम में गलित होकर, प्रसन्न हो होकर, अपने मन को उसमें लीन कर दो । सब में दर्शन स्पर्श करने योग्य वह परब्रह्म परमात्मा सबके अन्तःकरण में ही स्थित है ।
इति राग टोडी का पं. आत्मारामस्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥१६॥
(क्रमशः)

शनिवार, 21 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८७

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८७)*
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*२८७. परिचय । कोकिल ताल*
सुन्दर राम राया ।*
*परम ज्ञान परम ध्यान, परम प्राण आया ॥टेक॥*
*अकल सकल अति अनूप, छाया नहिं माया ।*
*निराकार निराधार, वार पार न पाया ॥१॥*
*गंभीर धीर निधि शरीर, निर्गुण निरकारा ।*
*अखिल अमर परम पुरुष, निर्मल निज सारा ॥२॥*
*परम नूर परम तेज, परम ज्योति प्रकाशा ।*
*परम पुंज परापरं, दादू निज दासा ॥३॥*
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भा०दी०-निर्गुणोपासनाया उत्कृष्टदशायां यादृशं ब्रह्म प्रतीयते तत्स्वरूपं दर्शयति । अतिसुन्दरं यस्य सत्तया जगच्चलति, सर्वसम्राइ परमप्राणस्वरूपं, य: सर्वेषु रमाणाद्राम:, कलातीत: सर्वमयोऽनुपमो निराकारो, मायातत्कार्यरहितो निराधारोऽस्ति । यस्याद्यन्तं नास्ति । अति गंभीरो धैर्यनिधिः परमपुरुषः सर्वभूतेष्वमरभावेन वास्तविकरूपेण स्थितोऽस्ति । यस्य तेजोमयस्य ज्ञानस्वरूपस्य प्रकाश: सर्वत्र प्रश्रितमस्ति । यश्च मायातीतेऽस्ति तस्यैव परमात्मनो दासोऽस्म्यहम् ।
.
उक्तं हि योगवासिष्ठे 
यत्संवेद्य विनिर्मुक्त संवेदनमनिर्मितम् ।
चेत्यमुक्तं चिदामासं तद्विद्धि परम् पदम्॥
सा परमाकाष्ठा सादृशां दृगनुत्तमा ।
सा परा महिम्नां च महिमा गुरुणां सा तथा गुरुः ॥
स आत्मा तच्च विज्ञानं स शून्यं ब्रह्म तत्परम् ।
तच्छ्रेव स शिव शान्तः सा विद्या सा परास्थितिः ॥
.
निर्गुण ब्रह्म की उपासना में जो उत्कृष्ट दशा है उसमें ब्रह्म की जो प्रतीति होती है उसका स्वरूप निर्देश कर रहे हैं । उस दशा में वह अति सुन्दर मालुम होता है । जो सत्तामात्र से सारे संसार को चलाने वाला सम्राट् है । सब में रमण करने के कारण उसको राम कहते हैं । 
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सोलह कलाओं से रहित सर्वमय अति अनुपम निराकार, माया और उसके कार्य से रहित निराधार है । जिसके आदि अन्त का पता नहीं चलता । वह आदि अन्त से रहित गम्भीर धैर्यनिधि परम पुरुष तथा सब भूतों में अपने वास्तविक अमर भाव से स्थित है । जिसका तेजोमय ज्ञान स्वरूप प्रकाश सब जगह फैला हुआ है । जो मायातीत हैं, मैं उसी परमात्मा का दास हूं ।
.
योगवासिष्ठ में –
वह सर्वव्यापी होने से सब में स्थित है एवं वास्तव में ज्ञान और ज्ञेय से रहित सच्चिदानन्द परम पद स्वरूप है । वह ही परम पद सब की पराकाष्ठा है । वही संपूर्ण दृष्टियों में सर्वोत्तम दृष्टि है । वह ही सारी महिमाओं की सर्वोत्तम महिमा है । तथा वह ही गुरुओं का भी गुरु है, वही सबका आत्मा है और वही विज्ञान है, वही शून्य स्वरूप है, वही परब्रहम है, वही कल्याण है वह ही परम शान्त शिव तथा विद्या(ज्ञान) है, वही परमस्थिति है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 19 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८६

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साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८६)*
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*२८६. विनती । वसंत ताल*
*आदि है आदि अनादि मेरा, संसार सागर भक्ति भेरा ।*
*आदि है अंत है, अंत है आदि है, बिड़द तेरा ॥टेक॥*
*काल है झाल है, झाल है काल है, राखिले राखिले प्राण घेरा ।*
*जीव का जन्म का, जन्म का जीव का, आपही आपले भांन झेरा ॥१॥*
*भ्रर्म का कर्म का, कर्म का मर्म का, आइबा जाइबा मेट फेरा ।*
*तार ले पार ले, पार ले तार ले, जीव सौं शिव है निकट नेरा ॥२॥*
*आत्मा राम है, राम है आत्मा, ज्योति है युक्ति सौं करो मेला ।*
*तेज है सेज है, सेज है तेज है, एक रस दादू खेल खेला ॥३॥*
.
भा०दी०-न आदिर्यस्य सोऽनादि कारणरहित: । न तस्य कार्य करणं च विद्यते इति श्रुतेः । आदि कारणम् । जगतोऽभिन्ननिमित्तोपादानत्वात् । यतो वा इमानि भूतानि जातानीतिश्रुतेः ।
भागवते स्थित्युद्भवप्रलयहेतुरहेतुरस्य यत्स्वप्नजागरणसुषुप्तिषु सदहिश्च- देहेन्द्रियासु हृदयानि चरन्ति येन संजीवितानि तदवेहि परं नरेन्द्र ॥
इति भागवतोक्तेः । यस्य अक्तिश्च नौरिब संसारतारिका । एतादृशः परमेश्वरो मामवतु । स्वयमाद्यन्तरहितं प्रशान्तं ब्रह्मकारणमिति श्रुतेः तथा च सृष्ट्यादौ तदेव मूलकारणमस्ति । सदेव सोम्येदमिदर्भग्र आसीदिति श्रुतेः । अन्ते च स एव परमेश्वर: शिष्यते सर्वाधिष्ठानभूतत्वात् । आसंसारादा प्रलयाद्वेदेषु शास्त्रेषु स एव गीयते, योऽयं कालस्तस्यापि महाकालोऽयं परमेश्वरः ।स कालजन्यकष्टेभ्यो दुःखेभ्यश्च मां रक्षतु । कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव प्रलीयते । अतो मम कर्तृत्वभोक्तृत्वरूपसंसारं शामाऽसिमा छिन्छ । स्वांशभूतं मां स्वस्वरूपलीनं कुरु । कर्मफलं दुष्कर्माणि च मे तथा प्रभवशात्संसारे राधमागधनचक शीधरपसारय । कामादिदोषान् निरस्य कामक्रोधादिवेगं नाशय । दिव्य-गुणादिभ्योऽपि थे घरी स्थिति संपादय । यो हि रामः स एव स्वात्मा यश्च स्वात्या, स एव राम इत्यभेद-युक्त्या में हदये जीवेश्वरयोरभेदज्ञानं जनयतु । बहौव तेज: ब्राह्मास्कारावृत्तिरपि ब्रह्याकारप्रविष्टत्वेन ब्रह्मरूपा इत्यभेदयुक्त्या जीवबाणोरभेदो मे मनसि सततं भवेत् एवं ब्रह्माकारवृत्या ब्रह्मानन्दरसानुभवं कुर्यामिति कृपां कुरु ।
उक्तं च वासिष्ठे-
यस्मिन् सर्वं यत: सर्व यः सर्व सर्वतश्च यः ।
यश्च सर्वपयो नित्यमात्मानं विद्धितं परम् ।
.
जिसका आदि नहीं होता वह अनादि कहलाता है । ब्रह्म अनादि है, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं । श्रुति में यह ही कहा है कि न उसका कोई कार्य है और न उसका कोई कारण है । ब्रह्म जगत् का अभिन्न निमित्तोपादान कारण है अतः वह आदि कहलाता है । क्योंकि “यतो वा इमानिभूता जायन्ते” इति श्रुति से ब्रह्म जगत् का कारण सिद्ध होता है ।
.
यद्यपि ब्रह्म आदि, अन्त, मध्य से रहित है ऐसा श्रुति कहती है फिर भी सृष्टि के आदि में वह ब्रह्म ही था । सदेव सोभ्येदभिदमग्न आसित्, इस श्रुति से उसको आदि कहते हैं । सबका अधिष्ठान होने से सबके अन्त में भी वह ही शेष रहता है, अतः वह अन्त भी कहलाता है । संसार के आरम्भ से प्रलय-पर्यन्त वेद और शास्त्रों में उसीका गुण गाया जाता है ।
.
भगवान् काल का भी काल है, वह महाकाल भगवान् मुझे कालजन्य कष्टों से बचावें । कर्म करके कर्मफल भोगने के कारण जीव कर्म का कर्ता और फल का भोक्ता कहलाता है । अतः मेरा कर्तृत्व भोक्तृत्व रूप संसार और बार-बार संसार में आवागमन इन सबको ज्ञान के द्वारा मिटा दो ।
.
यह जीव आपका ही अंश है, अतः अपने अंश को अंशी में मिला दो । काम क्रोधादि दोषों को मिटाकर तज्जन्य वेग से मेरी रक्षा करो, दैवी गुणों से भी परे जो निर्गुण स्थिति है उमें मुझे पहुँचा दो । राम ही आत्मा है और आत्मा ही राम है, ऐसी अभेद बोधक युक्तियों से मेरे हृदय में जीव ईश्वर का अभेद ज्ञान पैदा कर दो ।
.
ब्रह्म ही तेज है और उसकी जो ब्रह्माकारावृत्ति है वह भी ब्रह्मरूप ही है क्योंकि वृत्ति में ब्रह्म प्रविष्ट है । ऐसी अभेद बोधक युक्तियों से मेरे मन से अभेद ज्ञान को पैदा करें । ब्रह्माकार वृत्ति से सदा ब्रह्मानन्द रस का पान रूपी क्रीडा करता रहूं । ऐसी कृपा आप मेरे ऊपर कीजिये ।
.
योगवासिष्ठ में कहा है कि –
हे राम ! जिससे यह सारा संसार उत्पन्न होता है, जिससे संपूर्ण जगत् स्थित रहता है, जो संपूर्ण जगद्रूप है, जो सब ओर विद्यमान है और जो सर्वमय है, उसीको नित्य परमात्मा समझो ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 17 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८५

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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८५)*
================
*२८५. समता । बसंत ताल*
*एकही एकै भया आनंद, एकही एकै भागे द्वन्द ॥टेक॥*
*एकही एकै एक समान, एकही एकै पद निर्वान ॥१॥*
*एकही एकै त्रिभुवन सार, एकही एकै अगम अपार ॥२॥*
*एकही एकै निर्भय होइ, एकही एकै काल न कोइ ॥३॥*
*एकही एकै घट प्रकास, एकही एकै निरंजन वास ॥४॥*
*एकही एकै आपहि आप, एकही एकै माइ न बाप ॥५॥*
*एकही एकै सहज स्वरूप, एकही एकै भये अनूप ॥६॥*
*एकही एकै अनत न जाइ, एकही एकै रह्या समाइ ॥७॥*
*एकही एकै भये लै लीन, एकही एकै दादू दीन ॥८॥*
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भादी०- -मया जीवब्रह्मणोरैक्यज्ञानेनात्मस्वरूपे ब्रह्मणि स्थितेन ब्रह्मानन्दोऽवाप्त: तेन निर्द्वन्द्वो जातः । सर्वे समाना एव भासन्ते, निर्वाणपदञ्च प्राप्तम् । त्रिभुवनसारस्यामराभयपदवाच्यस्य ब्रह्मण: परिचयोऽपि जातः । इदानीं कालातीतस्य निर्भयस्य ब्रह्मज्ञानसंपन्नस्य निरञ्जने ब्रह्मणि स्थितिर्जाता । तत्र मातृपितृभेदोऽपि न भासते । किन्तु सर्वं सममेव परमात्मरूपं भासते । अनुपम ब्रह्म, तत्र स्थितस्य मे नान्यत्र गन्तुमिच्छा जायते । इत्थं समभावेन ब्रह्मणि स्थितं मे मनो ब्रह्मरूपं जातम् ।

उक्तंञ्च मुण्डके-
यथा नद्यः स्पन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय ।
तथा विद्वान् नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।
.
जीव ब्रह्म ही एकता का ज्ञान होने से मैं आत्मस्वरूप ब्रह्म में स्थित होकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो गया । निर्द्वन्द्व होने से सब समान ही भासित होर हे हैं । अब मैं निर्वाण पद को प्राप्त हो गया हूँ । त्रिभुवन का सारभूत जो अमर, अभय, अपार, ब्रह्म पद का लक्ष्य है उसका मुझे परिचय हो गया । अब मैं निर्भय कालातीत हूं ।
.
अन्तःकरण ज्ञानसंपन्न है और निरंजन निराकार ब्रह्म में मेरी स्थिति हो गई, एकत्वदशा में मातृपितृता आदि का भेद भाव भी समाप्त हो जाता है । अनुपम ब्रह्म ही केवल भासता है । अब अपने स्वरूप में लीन होने के कारण मेरा आना-जाना भी कहीं नहीं होता । इस तरह जिसका मन समभाव के कारण ब्रह्म में लीन हो गया वह ब्रह्मरूप हो जाता है ।
.
जैसे मुण्डक में लिखा है कि –
जिस प्रकार बहती हुई नदियां नाम रूप को त्याग कर समुद्र में विलीन हो जाती है । वैसे ही विद्वान् ज्ञानी महात्मा नामरूप से मुक्त होकर उत्तम से उत्तम दिव्य परम पुरुष परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 16 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८४

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८४)*
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*२८४. नाम समता । उत्सव ताल*
*माधइयो-माधइयो मीठो री माइ,*
*माहवो-माहवो भेटियो आइ ॥टेक॥*
*कान्हइयो-कान्हइयो करता जाइ,*
*केशवो केशवो केशवो धाइ ॥१॥*
*भूधरो भूधरो भूधरो भाइ,*
*रमैयो रमैयो रह्यो समाइ ॥२॥*
*नरहरि नरहरि नरहरि राइ,*
*गोविन्दो गोविन्दो दादू गाइ ॥३॥*
.
भादी-अनन्तानन्त भगवन्नामानि तानि सर्वाणि समानार्थकानि भवन्ति । तत्र लीलाभेदेन गुणकर्मविशेषेण भेदरचौधाथिको न तु वास्तविकः । अत साधक किमपि नाम जपेत् । गोविन्द दामोदर, केशव, भूवर, माधव, नरहरि, गोपालादि शब्दानां जपस्य फलमपि समानमेव ।
.
भगवान् के अनन्त अनन्त नाम है । वे सब समान अर्थ को ही बतलाते हैं । अतः नाम में कोई भेद नहीं है, लीला गुण कर्म भेद से जो नामों में भेद भासित हो रहा है, वह तो उपाधिकृत होने से वास्तविक नहीं है । जैसे माधव, केशव, मोहन, कृष्ण, भूधर, राम, गोविन्द आदि शब्दों से एक ही भगवान् का बोध होता है । अतः साधक किसी भी नाम को जपे, कोई भी भेद नहीं है । फल भी जपने वालों को समान ही मिलता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 13 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८३

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८३)*
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*२८३. आत्म समता । उत्सव ताल*
*ऐसे बाबा राम रमीजे, आतम सौं अंतर नहीं कीजे ॥टेक॥*
*जैसे आतम आपा लेखै, जीव जंतु ऐसे कर पेखै ॥१॥*
*एक राम ऐसे कर जानै, आपा पर अंतर नहिं आनै ॥२॥*
*सब घट आतम एक विचारे, राम सनेही प्राण हमारे ॥३॥*
*दादू साची राम सगाई, ऐसा भाव हमारे भाई ॥४॥*
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भादी०-रामभक्तो रामं चिन्तयन् सर्वत्र सर्वं राममयं पश्यति न तु भिन्नम् । अविद्यात त्कार्यनिवृत्त्या सर्वत्र ब्रह्मसुखमनुभवति । किन्तु सर्वभूतेषु भोक्तृतया स्थितमात्मानं विभुं पश्यति अर्थात् आत्यवत्सर्वभूतानि पश्यति । सर्वभूतस्थितमेकमेव रामं सर्वेषु समानं मत्वा न कंचिद् द्वेष्टि न च कमपि निन्दति । किन्तु सर्वैः सह समानव्यवहारं करोति । स सर्वात्मैकत्वदर्शी सम्यक्दर्शी योगी वति । एतादृश: सम्यक्दर्शी योगी रामभक्तो मम प्रियोऽस्ति ।

उक्तं हि गीतायाम्-
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
आत्थ्यौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥

वासिष्ठेऽपि-
शीणाभ्यां सुख-दुःखाभ्यां हेयोपादेययो: क्षये ।
इप्सितानीप्लते कस्तो गलितेऽथ शुभाशुभे॥
आमूलान्मनसि क्षीणे संकल्पस्य कथा च का ।
तिलेष्विवातिदग्धेषु तैलस्य कलना कुतः ॥
.
राम का भक्त का चिन्तन करता हुआ सब जगह पर राम को ही देखता है । अविद्या और उसके कार्य की निवृत्ति हो जाने से सर्वत्र उसको सुखरूप ब्रह्म ही भासता है । सब भूतों में भोक्ता के रूप में स्थित एक व्यापक आत्मा को ही देखता है । सब प्राणियों को अपनी तरह से देखता है ।
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अर्थात् जैसे मुझे सुख अभीष्ट और दुःख अनिष्ट है उसी प्रकार सभी प्राणियों को भी सुख-दुःख, प्रतिकूल-अनुकूल, इष्ट, अनिष्ट रूप से देखते हैं । आत्मा की समता होने के कारण सबको समान ही देखता है । सब प्राणियों में एक राम को देखता हुआ न द्वेष, न निंदा करता किन्तु सबके साथ समान ही व्यवहार करता है । ऐसा सर्वात्मैकदर्शी सम्यक्दर्शी योगी कहलाता है । इस प्रकार राम को जानने वाला मुझे प्रिय है ।
.
गीता में कहा है कि –
सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को संपूर्ण भूतों में स्थित और संपूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखता है । हे अर्जुन ! जो योगी अपनी ही तरह संपूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख-दुःख को भी सम ही देखता है वह योगी श्रेष्ठ माना जाता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 10 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८२

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८२)*
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*२८२. भेष विडम्बना (ललित ताल)*
*हम पाया, हम पाया रे भाई,*
*भेष बनाय ऐसी मन आई ॥टेक॥*
*भीतर का यहु भेद न जानै,*
*कहै सुहागिनी क्यों मन मानै ॥१॥*
*अंतर पीव सौं परिचय नाँहीं हीं,*
*भई सुहागिनी लोगन मांहीं ॥२॥*
*सांई स्वप्नै कबहुँ न आवै,*
*कहबा ऐसे महल बुलावै ॥३॥*
*इन बातन मोहि अचरज आवै,*
*पटम किये कैसे पीव पावै ॥४॥*
*दादू सुहागिनी ऐसे कोई,*
*आपा मेट राम रत होई ॥५॥*
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भादी०-सद्रूपवेशधारिणां दाम्भिकानामाचरवन्त संसारमेवमुपदिशन्ति । यत् हे सांसारिका जना: ! अस्माभिस्तु प्रभुः प्राप्त इति मिथ्यैव स्वदम्भं प्रकटीकुर्वन्ति । न हि ते दाम्भिकाः स्वप्नेऽपि प्रभुं पश्यन्ति, कुतो जाग्रदवस्थायाम् ? विषयवासनासंवलितेनान्तःकरणे प्रभुरहस्यं कोऽपि न जानाति । येन स्वप्नेऽपि प्रभुर्न दृष्टः कुतस्तस्य सौभाग्यं संभवेत् ? लोके तु ते मिध्याप्रचारेण स्वात्मानं सौभाग्यवन्तं प्रचारयन्ति । नहोतादृशानां दाम्भिकानां विश्वास: कार्यः । न च तेषु प्रसीदति भगवान् ते त्वात्यानमपि वञ्चयन्ति । एतादृशं दाम्भिकानामाचरणं श्रुत्वा महदाश्चर्यं भवति । अहो तादृशपाखण्डेन कथं प्रभुः प्रसीदेत् । यो हि पाप-पाखण्डजन्याहंकारं परित्यज्य रामभक्तावनुरक्तो भवति स एव सौभाग्यवान् मन्तव्यः । तस्मै प्रभुः प्रसीदति । तस्मात्पापात्मकं पाखण्डं विहाय हरिभक्तिरेव समाश्रयणीया ।
उक्तं हि मनुस्मृतौ ::
न सीदनपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत् ।
अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन् विपर्ययम् ॥
अधर्मेनणैयते तावत्ततो भद्राणि पश्यति ।
ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु स नश्यति ॥
.
दाम्भिक पुरुष अपनी ख्याति प्राप्त करने के लिये सन्तों का वेश बना आकर संसारी लोगों को झूंठ ही कहता है कि हमने तो परमात्मा को जान लिया । उस दाम्भिक पुरुष ने तो स्वप्न में भी कभी-प्रभु का आलिंगन नहीं किया तो वह जागृत् में प्रभु को कैसे जान सकता है ? जिस स्त्री ने अपने पति का आलिंगन नहीं किया तो उसका सुहाग-सौभाग्य कैसे माना जा सकता है ?
.
वैसे ही दाम्भिक पुरुष अपने को मिथ्या ही सौभाग्यवान् कहता है । उसने प्रभु का आलिंगन किया ही नहीं । ऐसे दाम्भिक पुरुषों का मैं विश्वास नहीं करता । उन पर प्रभु की भी कृपा नहीं होती । किन्तु जो पाप, पाखण्ड, अहंकार आदि को त्याग कर प्रभु भक्ति में अनुरक्त रहता है वह ही सौभाग्यवान् है । उसी पर प्रभु प्रसन्न होते हैं । अतः साधक को पाप, पाखण्ड, अहंकार आदि को त्याग कर हरि-भक्ति करनी चाहिये ।
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मनुस्मृति में –
पापी अधर्मियों की शीघ्र ही दुर्गति होती है, ऐसा समझ कर मनुष्यों को चाहिये कि धर्म के पालन में दुःख होने पर भी अधर्म में अपने मन को न लगावें । अधर्मी पहले बढता है, फिर वह अधर्म को ही अच्छा मानता है, फिर अपने शत्रुओं को भी जीत लेता है । लेकिन अन्त में जड़ सहित नष्ट हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 7 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८१

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८१)*
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*२८१. साधु प्रति उपदेश (गुजराती) । ललित ताल*
*निर्पख रहणा, राम राम कहणा,*
*काम क्रोध में देह न दहणा ॥टेक॥*
*जेणें मारग संसार जाइला, तेणें प्राणी आप बहाइला ॥१॥*
*जे जे करणी जगत करीला, सो करणी संत दूर धरीला ॥२॥*
*जेणें पंथैं लोक राता, तेणैं पंथैं साधु न जाता ॥३॥*
*राम नाम दादू ऐसें कहिये, राम रमत रामहि मिल रहिये ॥४॥*
.
भा०दी०-साधकसाधूनुपदिशति श्री दादूदेव निष्पक्षभावेन सद्भिः प्रभुस्मरणं कर्तव्यम् । नहि तैर्द्वताऽद्वैतपक्षमवलम्ब्य विवाद: कार्य: । कामक्रोधादिदोषेभ्यो विदूरं भवितव्यम् । नहि सांसारिकाणां मार्गोऽनुसरणीयः । यतो विषयप्रधानेन यथा गच्छतां मानवानां पतनमेव दृश्यते । यान्यनु-चितानि शास्त्रनिषिद्धानि सांसारिकजनप्रियाणि कार्याणि तानि सर्वाणि साधकेभ्यो हेयानि । हि सन्तो भोगप्रधानमार्गमवलम्बन्ते किन्तु रामस्मग्णेन भगवदानन्दे निमग्न: सर्वत्र रामस्वरूपमेद पश्यन्ति । एतादृश्युपासना हि श्लाघीयसी भवति ।
उक्तं हि श्रीमद्भागवते
अहो अनन्तदासानां महत्वं दृष्टमद्य मे ।
कृतागसोऽपि यद् राजन् भङ्गलानि समीहसे ॥
दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् ।
यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः ॥
यन्नाम-श्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मल: ।
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते ॥
.
साधक सन्तों को उपदेश कर रहे हैं श्री दादू देवजी महाराज :- सत्पुरुषों को भगवान् का भजन निष्पक्ष भाव से ही करना चाहिये । द्वैत-अद्वैत आदि पक्षों का अवलम्बन करके वाद विवाद नहीं करना चाहिये । काम क्रोध की आग में अपने को नहीं जलाना चाहिये । संसार जिस रास्ते से चलता है, सन्त उस रास्ते से नहीं चलते, क्योंकि संसार का रास्ता विषयप्रधान होता है ।
.
संत यदि उस रास्ते चलेगा तो उसका पतन अवश्य होगा । जो कार्य अनुचित तथा शास्त्रनिषिद्ध व संसारी पुरुषों को प्रिय है, सन्त उस रास्ते का अनुसरण नहीं करते । सन्त भोगप्रधान मार्ग से नहीं चला करते । सन्त तो रामनाम करते हुए रामभक्ति में मस्त होकर भजन का आनन्द लूटते हुए भगवान् के स्वरूप में लीन हो जाते हैं ।
.
श्रीमद्भागवत में कहा है कि –
दुर्वासाजी अम्बरीष राजा से कह रहे हैं कि – धन्य है, आज मैंने भगवान् के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा । हे राजन् ! मैंने आपका अपराध किया फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं । जिन्होंने भक्तों के परमाराध्य श्री हरि को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है, उन साधु पुरुषों के लिये कौन सा कार्य कठिन है ?
.
जिन का हृदय उदार है वे महात्मा भला किस वस्तु का त्याग नहीं कर सकते ? जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है उन्हीं तीर्थ-पाद भगवान् के चरण-रज के जो दास हैं, उनके लिये कौन सा कार्य शेष रह जाता है ?
(क्रमशः)

गुरुवार, 5 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२८०

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२८०)*
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*२८०. (फारसी) त्रिताल*
*हुशियार हाकिम न्याव है, सांई के दीवान ।*
*कुल का हिसाब होगा, समझ मुसलमान ॥टेक॥*
*नीयत नेकी सालिकां, रास्ता ईमान ।*
*इखलास अंदर आपणे, रखणां सुबहान ॥१॥*
*हुक्म हाजिर होइ बाबा, मुसल्लम महरबान ।*
*अक्ल सेती आपमां, शोध लेहु सुजान ॥२॥*
*हक सौं हजूरी हूँणां, देखणां कर ज्ञान ।*
*दोस्त दाना दीन का, मनणां फरमान ॥३॥*
*गुस्सा हैवानी दूर कर, छाड़ दे अभिमान ।*
*दुई दरोगां नांहिं खुशियाँ, दादू लेहु पिछान ॥४॥*
.
भावदी०-हे न्यायकर्तस्त्वया सावधानेन भवितव्यम् । भगवद्-द्वारि तवाऽपि न्यायो भविष्यति । हे यवन ! सर्वेषां श्रेयसे चेष्टष्व । धर्म एव ते सहायकः । सर्वैः सह स्नेहं कुरु । परमात्मन: पवित्रामाज्ञां पालय । दीनेषु दयालुभव । हे बुद्धिमन् ! बुद्ध्या यथार्थमार्गमन्विष्य भक्त्या सत्य-स्वरूपं परमात्मानं परिचित्य ज्ञानेन तत्त्वस्वरूपं जानीहि । सर्वेषां सुहृदः परमात्मनस्तथा सताञ्चाज्ञां परिपालय ।
क्रोधं त्यज, पाशविक-बुद्धि विमुञ्च, गर्वं परिहर । भेदबुद्ध्या तवामनसि या प्रसन्नता, सा मिध्येति मत्वा तत्त्यागि कुरु । इदमेव कर्तव्यमिति ज्ञात्वा तत्परिपालय । अनेन पद्येन सांभरनगर-निवासिनं विलन्दखानं न्यायकारिणमुपदिदेश ।
.
हे न्याय करने वाले हाकिम ! सावधान रहना । भगवान् के द्वार पर तेरा भी हिसाब होगा । हे यवन, क्योंकि भगवान् के यहां सभी का फैसला होता है, अतः तेरा भी होगा । अतः सबका भला करना । धर्म ही तेरे साथ यात्रा में चलेगा । सबसे प्रेम करना । परमत्मा की पवित्र आज्ञा का पालन करना । दयालु रहना ।
.
हे बुद्धिमान् ! अपनी बुद्धि से यथार्थ मार्ग को खोज कर प्रभु भक्ति से परमात्मा को पहचान कर ज्ञान के द्वारा उसको प्राप्त करना । सबके मित्र परमात्मा तथा सन्तों की आज्ञा का पालन करना । पाशविक बुद्धि और क्रोध को छोड़ दे । अभिमान मत कर ।
.
भेदबुद्धि से जो तेरा मन प्रसन्न होता है वह प्रसन्नता तेरी मिथ्या है । ऐसा जानकर उस बुद्धि को त्याग दे । यह सब तेरा कर्तव्य है । ऐसा मानकर इन सब बातों का पालन करना । इस पद्य के द्वारा सांभर नगर में विलन्द खान हाकिम को उपदेश दिया था जो इस उपदेश से प्रभावित होकर भक्त बन गया था ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 3 जनवरी 2023

शब्दस्कन्ध ~ पद #२७९

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२७९)*
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*२७९. त्रिताल*
*काहे रे बक मूल गँवावै, राम के नाम भलें सचु पावै ॥टेक॥*
*वाद विवाद न कीजे लोई, वाद विवाद न हरि रस होई ।*
*मैं मैं तेरी मांनै नाँहीं हीं, मैं तैं मेट मिलै हरि मांहीं ॥१॥*
*हार जीत सौं हरि रस जाई, समझि देख मेरे मन भाई !*
*मूल न छाड़ी दादू बौरे, जनि भूलै तूँ बकबे औरे ॥२॥*
.
भा०दी०-हे मानव ! वाद-विवादाभ्यां श्वासप्रश्वासौ व्यर्थमेव गच्छतः सुखन्तु रामनाम-चिन्तनेनैव भवति । अतस्त्वं वादविवादौ त्यज । नहि वादे हरिरस उपलभ्यते । नहि तव ममेति भावेन हरिस्तुष्यति । भगवद्भक्ता तव ममेति भेदबुद्धि निरस्यैव भगवत्स्वरूपं प्राप्नुवन्ति । अतो हे विद्वान! त्वमपि स्वमनसि विचारय, जयपराजयभावेन शास्त्रार्थं कृत्वा केनाऽपि हरिरस: प्राप्त: किम्? प्रत्युत वादि-प्रतिवादिभ्यां प्रवर्तनीय वाग्व्यवहार उभयोर्मनसि कटुतैव जायते ।
तस्मात्तयोर्दूषितान्त:करणत्वेन हरि-प्रेमाऽपि नश्यति । हे विद्यागर्वोन्मत्त विद्वन् ! वादं मुञ्च, प्रभुं मा विस्मर । आत्मस्वरूपं परब्रह्मपरमात्मानं भज । पद्यमिदं सांभर नगरे वादविवादपटुतराय कस्मैचित् विदुषे प्रबोधायोक्तम् ।
.
हे मानव ! वाद-विवाद में जीव के श्वास-प्रश्वास व्यर्थ ही जाते हैं । सुख तो राम-नाम के चिन्तन में ही है । अतः वादविवाद करना छोड़ दे । वादविवाद से हरि रस की प्राप्ति नहीं होती और तेरा-मेरा भाव करने से भगवान् भी प्रसन्न नहीं होते । भगवान् के भक्तों ने तेरी मेरी इस भेद-बुद्धि को त्याग कर के ही भगवान् के स्वरूप को प्राप्त किया है ।
.
अतः हे पण्डित ! तुम भी अपने मन में विचार कर देखो कि जयपराजय की भावना से शास्त्रार्थ करके किसी ने भी क्या हरि-रस को प्राप्त किया है । प्रत्युत वादी-प्रतिवादी के द्वारा जो परस्पर में वाग्-व्यवहार होता है, उससे दोनों के मनों में जय-पराजय की भावना को लेकर कटुता पैदा हो जाती है । जिससे दोनों का अन्तःकरण दूषित हो जाता है । जिसके कारण हरि-रस भी नष्ट हो जाता है ।
.
हे विद्या के अभिमानी पंडित ! वादविवाद को छोड़ दो, प्रभु को मत भूलो, परब्रह्म परमात्मा का ध्यान करो । इस पद्य के द्वारा सांभर में एक शास्त्रार्थ में कुशल पंडित को उपदेश दिया था ।
(क्रमशः)

शनिवार, 31 दिसंबर 2022

शब्दस्कन्ध ~ पद #२७८

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.
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #२७८)*
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*२७८. ब्रह्मयोग ताल*
*जाइ रे तन जाइ रे ।*
*जन्म सुफल कर लेहु राम रमि, सुमिर सुमिर गुण गाइ रे ॥टेक॥*
*नर नारायण सकल शिरोमणि, जनम अमोलक आइ रे ।*
*सो तन जाइ जगत नहिं जानै, सकै तो ठाहर लाइ रे ॥१॥*
*जरा काल दिन जाइ गरासै, तासौं कुछ न बसाइ रे ।*
*छिन छिन छीजत जाइ मुग्ध नर, अंत काल दिन आइ रे ॥२॥*
*प्रेम भगति, साधु की संगति, नाम निरंतर गाइ रे ।*
*जे सिर भाग तो सौंज सुफल कर, दादू विलम्ब न लाइ रे ॥३॥*
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भादी• - अस्य शरीस्य श्वासोच्छवासौ विषयासक्तमना त्वं व्यर्थमेव हापयसि । पुनःपुनः खोज्यमानोऽपि न त्वं बुद्धो भवति । अतो भगवतो गुणगानेन तस्मिन्नेव रममाणोस्त्वं तव जन्म साफल्य कुरु । अमूल्योऽये नरदेहो नारायणप्राप्त्यर्थमेव त्वया प्राप्तः । तादृशोऽमूल्यनिधिस्तव विषयभोगेषु व्यर्थमेव क्षीयते नहि संसारिणो जानन्त्यमूल्योऽयं देह इति । अतएव प्रमाद्यन्ति । अतस्त्वं राधा-शक्ति-भजन कृत्वा स्वस्वरूपे ब्रह्मणि स्थिति प्राप्नुहि । तब वार्धक्यं तु सततं वर्धते नदी देश इव । कालोऽष्ययं निठुर आयुष्यं कृन्तति । न ते निवारयितुं शक्नोति कश्चित् अवश्य भावित्वात् ।
अवश्य भाविभावानां परिहारो न विद्यत इत्युक्तत्वात् । हे मूडनर ! क्षणे क्षणे शरीरमिदं क्षीयते इति त्वं किं न पश्यसि । सत्सङ्गतिद्वारा नित्यं भगवद्भजनेन भगवन्नामस्मरणेन च त्वं तव जन्म साकल्यं कुरुष्व । तदैव तव सौभाग्यमुदेष्यति । अन्यथा तु तव जन्मैव निष्कलं भवेत् । न हास्मिन् कायों विलम्बावसरः ।
उक्तं हि भागवते-
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानहते विड्भुजा ये ।
तपोदिव्यं पुत्र कायेन सत्वं शुद्ध येद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं ।
त्वनन्तम् यो दुर्लभतरं प्राप्य मानुषं द्विषते नरः ।
घर्मावमन्ता कामात्मा भवेत्स खलु वञ्चते॥
प्रियमाणैरभिध्येयो यो परमेश्वरः ।
आत्मभावं नयत्यङ्ग सर्वात्मा सर्वसंश्रयः ॥
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इस मानव शरीर के श्वास प्रश्वासों को विषयों में आसक्त मन के द्वारा व्यर्थ में ही गंवा दिये । बार बार सावधान करने पर भी तू नहीं जागा । अब भगवान् के गुणानुवाद करके उसी में रमता हुआ अपने जन्म को सफल बनाले । यह नरशरीर अमूल्य है ।
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नारायण की प्राप्ति का साधन है । ऐसी अमूल्य निधि को तू प्रमाद में खो रहा है । तुम यथाशक्ति भजन करके अपने स्वरूप ब्रह्म में लीन होने के लिये इस शरीर का उपयोग करो । तेरी वृद्धावस्था भी आ गई, काल भी समीप ही है ।
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इन दोनों का कोई निवारण भी नहीं कर सकता क्योंकि ये दोनों शरीर के अवश्य होने वाले धर्म हैं । सत्संगति द्वारा भगवान् का नाम स्मरण से तू अपने जन्म को सफल बना, तब ही तू भाग्यशाली माना जायगा । अन्यथा तो तेरा जन्म निष्फल ही है । अब इस कार्य में विलम्ब मत आकर ।
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श्रीभागवत में –
पुत्रो ! इस मृत्यु-लोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषय-भोग के लिये ही नहीं है । यह भोग तो विष्ठा-भोगी सूकर, कूकर आदि को भी मिलते ही हैं । इस शरीर से तो दिव्य तप ही करना चाहिये । जिससे तुम्हारा अन्तःकरण शुद्ध हो । इसीसे ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ।
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जो परम दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी काम-परायण होकर दूसरों से द्वेष करता है और धर्म की अवहेलना करता है, वह महान् लाभ से वंचित रह जाता है । जो लोग मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकार से भगवान् का ही ध्यान करना चाहिये । हे परीक्षित् ! सबके परम आश्रय सर्वात्मा भगवान् अपने ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं ।
(क्रमशः)