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मंगलवार, 18 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३७*

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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मारू ९(गायन समय युद्ध)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३७ । पंजाबी त्रिताल
सखि सुन मैं दु:ख शोध लियो ।
महा नीठुर१ रंग रातो, सोई कंत२ कियो ॥टेक॥
जाके विरह बसी मन माहिं, सब जग त्यागि दियो ।
सो पुनि पिय परसे३ नहिं अजहुं, हारी देखि हियो ॥१॥
जग पति मिले न जगत सुहावै, फाटो दिल न सियो४ ।
द्वै दुख देखि भयो चित चक्रित५, विषहु न बाँटि पियो ॥२॥
कहये कहा कवन मति उपजी, मन मानो न बियो६ ।
जन रज्जब रुचि रूप न पावै, धृक धृक यह सु जियो७ ॥३॥२॥
✦ संत सखि ! मेरी बात सुन, मैंने तो महा निर्मोही१ अपने ही रंग ढंग में अनुरक्त रहने वाले को स्वामी२ बनाकर दु:ख ही खोज लिया है ।
✦ जिसके विरह से मेरी वृति सब जगत को त्याग कर मन में ही बसी रहती है बाहर नहीं जाती, फिर भी वह प्रियतम अब तक नहीं मिलता३ है । उनके यह व्यवहार को देख करके तो मेरा हृदय हार बैठा है अर्थात उत्साह रहित हो गया है ।
✦ न तो जगतपति प्रभु मिल रहे हैं और न जगत अच्छा लगता है, जगत से मन फट गया है, वह पुन: सीया४ नहीं जाता अर्थात जगत से नहीं मिलता । उक्त दोनों दु:खों को देखकर मन चकित५ हो रहा है । मैंने भूल की है, विष बाँट कर भी तो नहीं पीया, पी लेती तो इस दु:ख से तो मुक्त हो जाती ।
✦ किंतु क्या कहूं न जाने यह क्या बुद्धि उत्पन्न हुई है जो दूसरे६ से तो मन संतोष मानता ही नहीं है और जिस प्रभु स्वरूप में मेरी रुचि है वह मिलता नहीं है । अत: मेरे जीवन७ को बारंबार घिक्कार है ।
(क्रमशः)

रविवार, 16 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३६*

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*दादू जग ज्वाला जम रूप है, साहिब राखणहार ।*
*तुम बिच अन्तर जनि पड़ै, तातैं करूँ पुकार ॥*
(श्री दादूवाणी ~ बिनती का अंग)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मारू ९(गायन समय युद्ध)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३६ विरह व्यथा । त्रिताल
दु:ख अपार बिन दीदार१, लेखा कछु नांहीं ।
विकल२ बुद्धि नांहिं सुधि३, मृतक भई मांही ॥टेक॥
सुख विलास४ सकल नाश, आतम उर भागे ।
मध्य पीर नाहिं धीर, विरह बाण लागे ॥१॥
बहु वियोग परम शोक, डगमगाति डोलै ।
नांहिं चैन विरह बैन, व्याकुल भइ बोलै ॥२॥
तप्त पूरि नांहिं दूरि, मिलिये सुख दाई ।
रज्जब की जलन जाय, प्रकटो हरि आई ॥३॥१॥
१३६-१३८ में विरह दु:ख प्रकट कर रहे हैं -
✦ प्रभु के दर्शन१ बिना मुझे अपार दु:ख है, उसका कोई हिसाब नहीं है । बुद्धि व्याकुल२ रहती है, उसमें कुछ भी ज्ञान३ नहीं रहता, भीतर मृतक सी हो रही है ।
✦ भोग४ सुख सब नष्ट हो गये हैं अर्थात भोगों से सुख नहीं मिल रहा है । मुझ जीवात्मा का हृदय भागता है अर्थात चंचल रहता है भीतर पीड़ा ही बनी रहती है, धैर्य नहीं रहता । हृदय में विरह बाण लग रहे हैं ।
✦ अधिक वियोग रहने से महान शोक हो रहा है काया डगमगाती हुई फिरती है । अर्थात पैर कहीं का कहीं पड़ता है सुख नहीं है । वाणी व्याकुल होकर विरह सबन्धी ही वचन बोलती है ।
✦ दु:ख द्वारा पूर्ण रूप से तप रहा हूँ । यह ताप दूर नहीं हो रही है । सुख दाता हरे ! आप मेरे हृदय में प्रकट होकर मुझ से मिलिये । तभी मेरी जलन मिट सकेगी ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३५*

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*भावै विपति देहु दुख संकट,*
*भावै संपति सुख शरीर ।*
*भावै घर वन राव रंक कर,*
*भावै सागर तीर, माधव ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३५४)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३५ विनय । धुमाली ताल 
माधव करो क्यों न सहाय,
तुम बिन कोऊ और नाहीं, कहूं तासौं जाय ॥टेक॥
काम वैरी क्रोध वैरी, मोह वैरी मांहिं । 
पंच मारैं सो न हारैं, क्यों हरि आओ नांहिं ॥१॥
काय वैरी माया वैरी, प्रकृति१ भरपूर२ । 
दीन की फरियाद३ सुनिए, करो ये सब दूर ॥२॥
पिशुन४ सारे मैं न मारे, मोहि मारे जांहिं । 
बहुरि तुम कहा आय करी हो, जन५ रज्जब जब नाँहिं ॥३॥१६॥
कामादि से मुक्त होने के लिए प्रभु से प्रार्थना कर रहे हैं -
✦ माधव ! मेरी सहायता क्यों नहीं करते ? मेरा सहायक तो आपके बिना अन्य कोइ है ही नहीं, जो उसे जा कर सहायता करने के लिए कहूं । 
✦ मेरे हृदय में काम, क्रोध और मोह रूप वैरी घुसे हुए हैं तथा पंच ज्ञानेन्द्रीय भी मुझे मार रही हैं, वे मुझको मारने से थकती भी नहीं हैं फिर भी हरे ! आप क्यों नहीं आते ? 
✦ शरीर माया और दुर्स्वभाव१ पूरे२ शत्रु हैं । मुझ दीन की पुकार३ सुनकर इन सबको मेरे से दूर करें । 
✦ उक्त तथा अन्य भी दुष्ट४ गुणों को मैं नहीं मार सका हूँ, वे ही निरंतर मुझे मारते जा रहे हैं, जब मुझे मार देंगे मैं आपका दास५ जीवित नहीं रहूँगा, तब आकर क्या करेंगे ? अतः शीघ्र ही पधारें । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित केदार राग ८ समाप्तः । 
(क्रमशः) 

रविवार, 9 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३४*

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*कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।*
*पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३४ ब्रह्म दर्शन प्रेरणा । चौताल
सखि सुंदर सहज रूप, देखि ले जगत भूप ।
प्राणिन में प्राण पति, त्रिकुटी के तीरा ॥टेक॥
बैठी क्यों नवल१ नारि, कही सो श्रवण धारि ।
निकट नाह२ निहारि, नैननतैं नीरा ॥१॥
विधि सौं विलोकि३ वाम४, सेय ले साजन५ राम ।
पूरण सकल काम, थापन६ सो थीरा७ ॥२॥
उठि तू आतुर धाय, पूजिले परम पाय ।
अंतरि अनन्य भाय, पीरन८ को पीरा९ ॥३॥
विमल ब्रह्म अंग१०, सर्वंगी सर्व संग ।
शोधिले आतम दंग११, हिरदै को हीरा ॥४॥
रज्जब भामिनी१२ भाग, आदि को अंकूर जाग ।
देहि जो सेज सुहाग, मीरन१३ को मीरा१४ ॥५॥१५॥
साधक रूप सखी को ब्रह्म को साक्षात्कारार्थ प्रेरणा कर रहे हैं -
✦ अरि साधक सखि ! सहज सुंदरस्वरूप जगतपति का साक्षात्कार ले, वे प्राणपति प्राणियों के बीच में त्रिकुटी के ध्यान रूप तीर पर मिलते हैं अर्थात आज्ञा चक्र में ध्यान करने से उनका दर्शन होता है ।
✦ अरि ! साधन मार्ग में नवीन१ साधक-सखि ! आलस्य में क्यों बैठी है ? जो तुझे कहा है, उसे श्रवणों द्वारा हृदय में धारण करके नेत्रों से वियोग व्यथा का अश्रु जल बहाते हुये उन प्रभु२ को समीप ही देख ।
✦ साधक-सुंदरी४ ! उक्त विधि से उन प्रियतम५ राम को देखकर३ उनकी सेवा करले । वे सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, स्थिर७ रूप से स्थापन६ करने वाले हैं ।
✦ तू उठकर शीघ्रता से साधन से साधन मार्ग में दौड़ कर अर्थात साधन करके उनके श्रेष्ठ चरणों की पूजा कर ले । अनन्य भाव द्वारा भीतर ही प्राप्त होते हैं, वे सिद्धों८ के भी सिद्ध९ हैं ।
✦ जो अविद्या मल से रहित, सर्व विश्व जिनका अंग है, जो सबके साथ रहते हैं, उन प्यारे१० ब्रह्म को विचार द्वारा खोज ले । वह आश्चर्य११ रूप ब्रह्म संतात्माओं के हृदय का हीरा है अर्थात संतों को अति प्रिय है ।
✦ साधक-सुन्दरी१२ ! तेरे भाग्य से ही तेरे हृदय में सबके आदि स्वरूप ब्रह्म के दर्शन की इच्छा रूप अंकुर उत्पन्न हुआ है, तो जो सरदारों१३ के सरदार१४ प्रभु हैं, वे तेरी हृदय शय्या पर पधार करके तुझे सुहाग सुख प्रदान करेंगे ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 6 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३३*

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*अन्तरयामी छिप रहे, हम क्यों जीवैं दूर ।*
*तुम बिन व्याकुल केशवा, नैन रहे जल पूर ॥*
*आप अपरछन ह्वै रहे, हम क्यों रैनि बिहाइ ।*
*दादू दर्शन कारणै, तलफ तलफ जीव जाइ ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ५)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३३ । त्रिताल
वेगि न मिलें आतमराम,
जात जन्म अमोल अदभुत, लेत हूं हरि नाम ॥टेक॥
भूख भंग अभंग चिंता, गिणत छाँह न धाम ।
मग१ अगम यहु भाम२ भूली, सम सु अरण्य३ ग्राम ॥१॥
विरह पीर सु नीर नैनों, महा विह्वल४ वाम५ ।
ठगी सी ठिक ठौर बिसरी, को करै गृह काम ॥२॥
दीन दुखित अनाथ अबला, गये इहिं विधि जाम६ ।
मांस गूद सु विरह विलस्यो, रहे अस्थि रु चाम ॥३॥
और कहत सु और आवत, नहीं मन मति धाम ।
रज्जब रही रोज हाँसी, ज्यों सती सल ठाम ॥४॥१४॥
✦ आत्म स्वरूप राम शीघ्र ही नहीं मिल रहे हैं । हरि नाम लेते हुये भी यह अदभुत अमूल्य जन्म व्यतीत हो रहा है ।
✦ प्रभु के दर्शन न होने से भूख नष्ट हो गई है और चिंता निरंतर बनी रहती है । छाया और घूप को भी न देख कर निरंतर प्रभु दर्शनार्थ प्रयत्नशील हैं । अगम प्रभु के साधन मार्ग१ को यह वियोगिनी नारी२ भूल गई है, अब इसके लिये वन३ और ग्राम समान हो गये हैं ।
✦ विरह व्यथा से नेत्रों में अश्रु जल आ रहा है और यह नारी५ अति महान व्याकुल४ है । यह ठगी हुई सी रहती है और अपने यथार्थ स्थान को भूल गई है, अब घर का काम कौन करे ?
✦ यह अबला अनाथ नारी दीन होकर दुखी है, इसकी जीवन रात्रि के चार अवस्था रूप चार पहर६ इस प्रकार दु:ख से ही व्यतीत हो गये हैं । मांस-मज्जा७ को विरह खा८-गया है । अब हड्डी और चमड़ा रहा है ।
✦ कहते कुछ अन्य हैं और मुख से कुछ अन्य ही निकल जाता है । मन बुद्धि ठिकाने नहीं है । जैसे चिता९ स्थान में सती को रोना और हँसना दोनों ही आने से रह जाते हैं, न तो वह हँसती है और न रोती है, वैसी ही हमारी स्थिति है । न तो रोया जाता है और न हंसा जाता है । रोने को लोग अच्छा न मानेंगे इससे दबाते हैं और दु:ख के कारण हँसी आती ही नहीं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३२*

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*दादू विरहनी कुरलै कुंज ज्यूं,*
*निशदिन तलफत जाइ ।*
*राम सनेही कारणै, रोवत रैन विहाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३२ । धीमा ताल
आज निशि न क्यों हूं घटत१, प्राण पियारे बाझ२ हो ।
दीर्ध३ रैन भई बिन दर्शन, आतम राम हिं रटत ॥टेक॥
राक्षस रैनि अधिक अरिहुन ते, तारे तीरनि तकि४ तकि जटत५ ।
चन्द्र हि चंद्र बाण ह्वै छूटत, मारतहु नेक६ न हटत ॥१॥
जामनि७ जुग प्रमाण अति बाढ़ी, कामिनि कंत बिना क्यों कटत८ ।
रज्जब रूदन करत करूणा मय, विकसि९ विकसि उर फटत ॥२॥१३॥
✦ प्राण प्रिय प्रभु के बिना२ आज रात्रि किसी प्रकार भी कम१ नहीं हो रही है । आत्मा स्वरूप राम का नाम रटते रटते उनके दर्शन बिना रात्रि बहुत बड़ी३ हो गयी है ।
✦ यह रात्रि रूप राक्षस शत्रुओं से भी अधिक है, देख४ देख कर तारे रूप तीर मार५ रहा है चन्द्रमा रूप चन्द्राकार बाण इस रात्रि द्वारा छोड़ा जा रहा है, यह मारते हुये किंचित६ मात्र भी नहीं हटती है ।
✦ यह रात्रि७ युग प्रमाण से भी अत्यधिक बढ गई है । प्रियतम प्रभु के बिना संत सुन्दरी से कैसे पूरी८ होगी ? ज्यों ज्यों विरह का विकास९ होता जा रहा है त्यों त्यों मेरा हृदय फटता जा रहा है । दयामय प्रभों ! मैं आपके दर्शनार्थ रो रहा हूं, दर्शन देने की दया शीघ्र ही कीजिये ।
(क्रमशः)

रविवार, 2 अप्रैल 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३१*

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*सारा सूरा नींद भर, सब कोई सोवै ।*
*दादू घायल दर्दवंद, जागै अरु रोवै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३१ विरह व्यथा । पंजाबी त्रिताल
नाह१ बिन निशि विघ्न की खानि,
विरहनी बहुत भांति दु:ख पाये, सकल सुखों की हानि ॥टेक॥
शशि नहिं शंक२ कलंकी जातैं, काहूं की नहिं कानि३ ।
विरह भोज४ में भामिनी बैठी, ध्यौं५ नावत६ है आनि ॥१॥
तारे तरुण७ तपत शिर ऊपर, शशि बंधू८ पहचान ।
देखो दुख दायक दश हूं दिशि, नौलख वैरी जान ॥२॥
महल मसान सेज ह्वै सिंहनि, मारत मीच समान ।
रज्जब राम बिना रजनी दुख, केतकि९ कहूं बखान ॥३॥१२॥
१३१-१३३ मे विरह व्यथा दिखा रहे है -
✦ प्रभु१ के बिना रात्रि विघ्नों की खानि बन रही है । विरहनी बहुत प्रकार से दु:ख पा रही है, सभी सुखों की हानि हो रही है।
✦ यह चन्द्रमा भी कलंकी होने से कुछ भी भय२ नहीं मानता, न किसी की लज्जा३ ही करता है । मेरे ऊपर अपनी किरणें डालकर मुझे व्यथित कर रहा है । यह नारी बैठी हुई विरह रूप भोजन४ में घृत५ लाकर डाल६ रही है अर्थात जैसे भोजन में घृत डालने से वह भारी हो जाता है वैसे ही पतियुक्त नारी को देखने से वियोग व्यथा बढती है और प्रभु प्राप्त संत को देखकर साधक की व्यथा बढती है ।
✦ ये नूतन७ तारे शिर पर तप रहे हैं और मुझे चन्द्रमा के भाई विष के समान मरने वाले जान पड़ते हैं । देखो ये नौ लाख तारे दशों दिशाओं में फैले हुये हैं और दु:ख दाता होने से मुझे वैरी ज्ञात हो रहे हैं ।
✦ महल श्मशान रूप दिख रहा है । शय्या सिंहनि सी होकर मृत्यु के समान मार रही है । राम के बिना जो रात्रि में दु:ख हो रहे हैं उनको व्याख्यान करके कितना९ कहूं, अर्थात बहुत हैं कहे नहीं जा सकते ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १३०*

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*दादू सिद्धि हमारे सांइयां, करामात करतार ।*
*ऋद्धि हमारे राम है, आगम अलख अपार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३० अनन्यता । त्रिताल
हमारे सब ही विधि करतार,
धर्म नेम१ अरु योग यज्ञ जप, साधन सांई सार ॥टेक॥
पूजा२ अर्चा नौधा नामहि, शोधि३ किया व्यवहार ।
तीर्थ वरत सु नाम तुम्हारा, और नहीं अधिकार ॥१॥
वेद पुराण भेष पख४ भूधर८, तुझ शिर भर५ भार ।
बुधि विवेक बल ज्ञान गुसांई, और नहीं आधार ॥२॥
सकल धर्म करतूत६ कमाई, सब तुम ऊपर वार७ ।
जन रज्जब के जीवन रामा, निशि दिन मंगल चार ॥३॥११॥
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अपनी अनन्यता दिखा रहे हैं -
✦ सभी प्रकार से हमारे आश्रय सृष्टि कर्त्ता प्रभु ही हैं । धर्म, नियम१, योग, जप, सार रूप साधन, ये सब हमारे तो प्रभु ही हैं ।
✦ हमारी प्रतिष्ठा२ भी प्रभु कृपा ही है । हमारी अर्चना भक्ति तथा नवधा भक्ति प्रभु का नाम ही है । यह वचन बोलना रूप व्यवहार हमने विचार३ करके ही किया है । हमारे तीर्थ व्रत भी आपका नाम ही है । आपके बिना हम अपनत्त्व का अधिकार अन्य पर नहीं रखते अर्थात हम आपके बिना अन्य किसी को भी अपना नहीं समझते ।
✦ हे पृथ्वी८ को धारण करने वाले प्रभु ! आप ही हमारे वेद पुराण और भेष आदि की पक्ष४ हैं । आपके शिर पर ही हमारा पूरा५ भार है । प्रभो ! हमारे बुद्धि, विवेक, बल, ज्ञान आप ही हैं । आपके बिना हमारा आधार और कोई नहीं है ।
✦ हम अपना संपूर्ण धर्म और कर्म६ रूप कमाई आप पर निछावर७ करते हैं । हे राम ! आप ही हमारे जीवन रूप हैं । आप की कृपा से ही हमारे रात्रि दिन मंगल का आचार व्यवहार होता रहता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 27 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२९*

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*दक्षिण जात पश्छिम कैसे आवै,*
*नैन बिन भूल बाट कित पावै ॥*
*विष वन बेलि, अमृत फल चाहै,*
*खाइ हलाहल, अमर उमाहै ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद ३२५)
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२९ नाम बिना उद्धार नहीं। कहरवा
भजन बिन भूल पर्यो संसार,
पच्छिम काम जात पूरब दिश्शि, हिरदै नहीं विचार ॥टेक॥
बांछे अधर१ धरे२ सौं लागे, भूले मुग्ध३ गँवार४ ।
खाय हलाहल५ जीयो चाहै, मरत न लागे बार ॥१॥
बैठे शिला समुद्र तिरन को, सो सब बूडणहार ।
नाम बिना नाहीं निस्तारा, कबहु न पहुँचे पार ॥२॥
सुख के काज धसे६ दीरघ७ दु:ख, ताकी सुधि नहिं सार ॥
जन रज्जब यूं जगत विगूचे८, इस माया की लार ॥३॥१०॥
नाम चिन्तन बिना उद्धार नहीं होता यह कह रहे हैं -
✦ संसार के प्राणी नाम चिन्तन को छोड़ कर भ्रम में पड़ रहे हैं, हृदय में विचार न होने के कारण इनकी स्थिति ऐसी है कि - जैसे किसी मनुष्य का कार्य तो पच्छिम दिशा में हो और वह जाय पूर्व दिशा में,
✦ वैसे ही प्राणी चाहते तो ब्रह्म१ को हैं और लगे हुये हैं माया२ की सेवा में । इस प्रकार अज्ञानी४ मूर्ख३ भ्रम में पड़ रहे हैं । जो मनुष्य तीव्र५-विष खाकर जीना चाहता है, उसे मरते तो कुछ भी देर नहीं लगेगी ।
✦ वैसे ही जो नाम का चिंतन न करके मुक्त होना चाहता है, उसे संसार दु:ख में पड़ते हुये भी देर नहीं न लगेगी। समुद्र को तैरने के लिये जो शिला पर बैठ कर समुद्र में उतरते हैं, वे सब डूबने वाले ही हैं । जैसे नाव बिना समुद्र से पार कभी भी नहीं हो सकते, वैसे ही नाम चिंतन बिना उद्धार नहीं हो सकता ।
✦ सांसारिक प्राणी सुख प्राप्ति के लिये महान्७ दु:ख में घुसे६ हुये हैं और जो सुख का सार साधन प्रभु का नाम है, उसका कुछ भी ज्ञान नहीं है । इस प्रकार इस माया के पीछे पड़कर जगत् के प्राणी दु:खी८ हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२८*

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*मन निर्मल थिर होत है, राम नाम आनंद ।*
*दादू दर्शन पाइये, पूरण परमानन्द ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२८ नाम बिना नाम शूद्ध नहीं । त्रिताल
नाम बिना मन निर्मल नहि होय,
आन१ उपाय अनन्त अघ२ लागैं, बहुत भांति करि जोय३ ॥टेक॥
योग यज्ञ जप तप व्रत संयम, करते हं सब लोय४ ।
धर्म नेम५ दान पुनि६ पूजा, सीझ्या७ सुण्या न कोय ॥१॥
भेष पक्ष नहीं घर बाहर, ज्ञान अज्ञान समोय८ ।
ज्ञानी गुणी शूर कवि पंडित, ये बैठे सब रोय ॥२॥
भरम न भूल समझ सुन प्राणी, यहु साबुण नहिं सोय९ ।
जन रज्जब मन होय न निर्मल, जल पाषाण हिं धोय ॥३॥९॥
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हरि नाम बिना मन शुद्ध नहीं होता यह कह रहे हैं -
✦ हरि नाम चिंतन बिना अन्य उपाय से मन निर्मल नहीं होता । बहुत प्रकार से विचार करके देख३ तो ज्ञात होगा, चित शुद्धि से अन्य१ उपाय यज्ञ करना, धर्म शाला बनाना, आदि से अनन्त पाप२ लगते हैं ।
✦ इसी कारण योग, यज्ञ, प्रभु नाम से भिन्न मंत्र जप, तप, व्रत, आसनादि से शरीर का संयम, वर्णश्रामादि धर्म, नियम५, दान, पुण्य६, प्रतिमा पूजा आदि बाह्य साधनों को सभी लोग४ करते हैं किंतु इससे मुक्त हुआ कोई भी नहीं सुना जाता । ✦ भेष की पक्ष तथा घर और घर के बाहर रहने की पक्ष, शास्त्र ज्ञान और अज्ञान की पक्ष भी इसमे मिलाओ८, ये पक्ष मुक्त नहीं कर सकते । इसलिये शास्त्र ज्ञानी गुणी, शुर-वीर, कवि, पंडित ये सब अपने अपने गुण का अभिमान करके मुक्ति के लिये बैठे रो रहे हैं अर्थात मुक्त नहीं हो सके हैं ।
✦ प्राणी तू भी भ्रम की बात से प्रभु का नाम सुमिरण करना मत भूल, संतों से नाम की विशेषतायें सुन कर समझ यह भ्रम की बात वह९ साबुन नहीं है, जो तेरे मन को निर्मल कर सके और पत्थर पूजा से तथा जल से धोने से मन निर्मल नहीं होता है । हरि नाम चिंतन से ही मन निर्मल होता है । अत: नाम चिंतन करना चाहिये । 
(क्रमशः)

बुधवार, 22 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२७*

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*दादू राम अगाध है, अकल अगोचर एक ।*
*दादू राम विलम्बिए, साधू कहैं अनेक ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
१२७ । एक ताल
ऐसा तेरा नाम निधाना१, करे को वक्त्र२ बखाना । 
शिव विरंचि शुक आदि शेष मुख, ह्वै नहि सके प्रमान३ ॥टेक॥
नेति४ नेति कहि निगम५ पुकारता, उससे जाय न जाना । 
रज्जब कहा कहै इक रसना, सब जानत है हैरान६ ॥१॥८॥
✦ प्रभो ! आपका नाम ऐसा महान कोष१ है कि - उसका मुख२ से तो कौन कथन कर सकता है ? शंकर ब्रह्म शुकदेव आदि मुनि और हजार मुख वाले शेष जी से भी उसकी सीमा३ का निर्णय नहीं ले सकता । 
✦ वेद५ भी “यह नहीं४, यह नहीं” कहकर पुकारता है, उससे से भी नाम यथार्थ रूप से नहीं जाना जाता फिर एक जिह्वा वाला मैं तो कह भी क्या सकता हूँ, सभी नाम की महानता को जानकर आश्चर्य६ चकित है । 
(क्रमशः)

शनिवार, 18 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२६*

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*दादू राम नाम निज औषधि, काटै कोटि विकार ।*
*विषम व्याधि थैं ऊबरै, काया कंचन सार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२६ । दादरा
है हरि नाम नर नष्ट निकलंक१,
पतित पावन प्राणि परसत२, राव सुमिरों रंक ॥टेक॥
नाम चंदन लागि पलटत, वपु वनी वंश३ वंक ।
होत सकल सुगंधि, संगति, वास दुर्गंध ढंक९ ॥१॥
नाम पारस लाग लोहा, भेंटि मेटत अंक ।
साधु सोना होत देखत, बिकत महँगे-टंक४ ॥२॥
आराध५ औषधि जीव रोगी, राखि पछ६ नित फंक७ ।
रज्जब यूं रहत निशि दिन, होत निमन८ निशंक ॥३॥७॥
✦ हे नर ! नाम निष्कलंक१ साधन है, नाम स्मरण करने वाला प्राणी राजा हो या रंक हो पतित पावन प्रभु से जा मिलता२ है ।
✦ जैसे चंदन से वन के वृक्ष बदल जाते हैं, वैसे ही नाम जप से प्राणी का शरीर बदल जाता है । उसमें कुल का दोष रूप बांका पन नहीं रहता । जैसे वृक्षों की दुर्गंध चंदन की सुगंध से ढक९ जाती है और सुगंध हो जाती है ।
✦ वैसे ही नाम जप करने वालों की संगति से दोष दब कर दिव्य गुण आ जाते हैं, पारस से स्पर्श होने पर लोहा सोना हो जाता है और चार४-मासे भी महँगा बिकता है, वैसे ही नाम स्मरण साधन से मिलकर जीव देखते देखते ही कर्म के अंक मिटा कर साधु हो जाता है और प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है ।
✦ जैसे रोगी पथ्य६ रखकर औषधि खाता७ है तब निरोग हो जाता है, वैसे ही जीव नाम स्मरण रूप उपासना५ सदाचार से करता है, वह जन्मादि रोग से मुक्त हो जाता है । नाम स्मरण का साधक इस प्रकार रात्रि दिवस मौन८ रहकर स्मरण करता है और निशंक रहता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२५*

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*नाँव रे नाँव रे, नाँव रे नाँव रे,*
*सकल शिरोमणि नाँव रे, मै बलिहारी जाँव रे ॥टेक॥*
*दुस्तर तारै, पार उतारै, नरक निवारै नाँव रे ॥१॥*
*तारणहारा, भवजल पारा, निरमल सारा नाँव रे ॥२॥*
*नूर दिखावै, तेज मिलावै, ज्योति जगावै नाँव रे ॥३॥*
*सब कुछ दाता, अमृत राता, दादू माता नाँव रे ॥४॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२५ । धीमाताल
ऐसा तेरा नाम बहु गुणवंत,
सकल विधि प्रतिपाल प्राणन१, जप निवाजे२ जंत३ ॥टेक॥
शेष शंकर विषणु ब्रह्मा, ररंकार रटंत ।
सुरन सत सुमिरण बतायॊ, भाग्य प्रभूत४ करंत ॥१॥
हरि अराधसु हरत पापन, आतमा उधरंत ।
गिनूं केते ज्ञानि नाम हि, सृष्टि साधू संत ॥२॥
आदि अंत रु मध्य मानुष, नाम नाव चढंत ।
जाहि जल निधि उतरि आतम, नीच ऊंच अनंत ॥३॥
सकल विधि सुखराशि सुमिरण, अमित काज सरंत ।
रज्जबा क्या कहै महिमा, भजन बधि५ भगवंत ॥४॥६॥
✦ प्रभो ! आपका नाम ऐसा है - बहुत गुणों से युक्त है, सब प्रकार प्राणियों१ का रक्षक है । नाम जपने वाले जीव३ पर आप कृपा२ करते हैं ।
✦ शेष शंकर विष्णु और ब्रह्मा भी राम के बीज मंत्र 'राँ' का जाप करते हैं । देवताओं ने भी नाम स्मरण को सच्चा साधन बताया है । नाम जप प्राणी के भाग्य को विशाल४ बना देता है ।
✦ नाम जप द्वारा हरि की आराधना करने से पाप नष्ट होकर जीवात्मा का उद्धार होता है, इस सृष्टि मे बहुत से ज्ञानी साधु संत तथा कितनेक का नाम गिनाऊं ।
✦ सृष्टि के आदि, मध्य अंत तक मनुष्य संसार सागर को पार करने के लिये नाम रूप नौका पर ही चढे हैं । नाम नीच ऊंच अनन्त जीवात्मा संसार सागर से पार उतर जाते हैं ।
✦ नाम स्मरण सब प्रकार सुख की राशि है । नाम स्मरण से अनन्त कार्य सिद्ध होता है । मैं नाम की महिमा क्या कहूं, नाम का भजन तो भगवान से भी बढकर५ है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 11 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२४*

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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२४ नाम महिमा - पंजाबी त्रिताल
ह्वै हरि नाम सौं सब काज,
आदि अंत सु प्राण तारन, विषम१ जलधि२ जहाज ॥टेक॥
प्राण पोषण पंच शोषण, फेरि मंडण३ साज ।
गुन हूं गंजन पीर भंजन, देत अविचल राज ॥१॥
सृकुत जागैं कुकृत भागैं, सुन भजन की गाज ।
उरहु मंडन४ अघहु खंडन, देखते दुख भाज ॥२॥
धरे५ काढण अधर६ चाढण, जीव की सब लाज ।
नाम नीका७ धर्म टीका८, रज्जबा शिर ताज९ ॥३॥५॥
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१२४-१२७ में नाम महिमा कर रहे हैं -
✦ हरि नाम चिंतन से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं । नाम सृष्टि के आदि से अंत तक प्राणियों को तारने के लिये भयंकर१ संसार-सागर२ में जहाज रूप है ।
✦ प्राणियों को पोषण करने वाला है, पंच ज्ञानेन्द्रियों के विषय राग रूप रस को सुखाने वाला है । संसार भावना से बदल कर शरीर रूप साज को परमार्थ से सजाने३ वाला है । आसुर गुणों नष्ट करता है, संसार दु:ख को नाश करके ब्रह्म स्वरूप की प्राप्ति रूप अविचल राज पद देने वाला है ।
✦ नाम भजन की गर्जना सुनकर सुकर्म जग जाते हैं अर्थात होने लगते हैं । कुकर्म भाग जाते हैं । पापों को नष्ट करके हृदय को दैवी गुणों से सजाता४ है । देखते देखते प्राणी के दु:खों को भगा देता है ।
✦ मायिक५ संसार से निकालने वाला है, ब्रह्म६ रूप में स्थित करने वाला है । सब प्रकार से जीव रखने वाला है । ब्रह्म६ रूप स्थित करने वाला है । सब प्रकार से जीव की लज्जा रखने वाला है । नाम सब साधनों से श्रेष्ठ७ है, सर्व धर्मों का सरदार८ है और मेरे शिर का मुकुट९ ही है अर्थात शिरोधार्य है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 9 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२३*

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*दादू मन फकीर जग तैं रह्या, सतगुरु लीया लाइ ।*
*अहनिश लागा एक सौं, सहज शून्य रस खाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२३ गुरु ज्ञान । झूमरा
संत हु अगह गहे गुरु ज्ञान,
मनसा वाचा कबहु न छूटे, बैठाये निज स्थान ॥टेक॥
चंचल अचल भये बुधि गुरु की, मनहु१ मनोरथ भान२ ।
सु स्थिर सदा एक रस लागे, माते३ अमृत पान ॥१॥
बहते रहे४ मान सदगुरु की, समझ परी५ उर आन६ ।
पंच पचीस स्वाद सब छूटे, ले जाते जो तान ॥२॥
थाके अथक परे पंगुल हो, चंचलता दे दान ।
जन रज्जब जग में नहीं पसरे, गुरु वायक७ सुन कान ॥३॥४॥
.
साधक संतों के गुरु ज्ञान ग्रहण करने संबन्धी विचार प्रकट कर रहे हैं -
✦ जो इन्द्रियादि से ग्रहण नहीं किया जाता, उस ब्रह्म का ज्ञान साधक संत गुरुजनों से इस प्रकार ग्रहण करते हैं जो मन वचन से कभी भी अलग नहीं होता, निरंतर मन में ब्रह्म का ही मनन रहता है और ब्रह्म संबंधी ही वाणी बोलते हैं । इस अभ्यास के कारण ही ज्ञान उनको निज स्थान ब्रह्म में स्थिर रूप से स्थित करता है ।
✦ गुरु की ज्ञान रूप बुद्धि से मन१ के मनोरथ नष्ट२ करके चंचलता से अचल स्थिति में आ जाते हैं । ब्रह्म के स्वरूप में सम्यक स्थिर होकर सदा एक रस ब्रह्म में चिन्तन रूप अमृत पान में लग कर मस्त३ हो जाते हैं ।
✦ सदगुरु की शिक्षा मान कर उसे हृदय में लाते६ हैं, तब वह भलीभाँति समझ में आती५ है फिर संसार सरिता में बहने से रुक४ जाते हैं अर्थात जन्मादि संसार से मुक्त हो जाते हैं । जो पहले खैंचातान करके विषयों में ले जाते थे, उन पंच ज्ञानेन्द्रियों और पच्चीस प्रकृतियों के स्वाद और उग्र स्वभाव सब छूट जाते हैं ।
✦ जो विषयों में जाने से अथक थे अर्थात थकते नहीं थे, वे मन इन्द्रियां थक पंगु हो जाते हैं मानो चंचलता को तो उन्होंने दान कर दिया हो ऐसे निश्चल हो जाते हैं । इस प्रकार गुरु के वचनों७ को कानों से सुनकर साधक संतों के मन इन्द्रिय जगत में नहीं फैलते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 6 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२२*

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*काल झाल में जग जलै, भाज न निकसै कोइ ।*
*दादू शरणैं साच के, अभय अमर पद होइ ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२२ पंजाबी । त्रिताल
मन यहु मान मुग्ध१ अचेत२,
समय शठ हठ छोड़ मूरख, कहत हूं करि हेत ॥टेक॥
देह झूठ सु परत३ पल में, लई४ कै५ जम लेत ।
काल कर करवाल६ काटे, देख ले शिर सेत ॥१॥
शीतकोट७ रु स्वप्न संपति, सु हु यहु संकेत ।
छिनक में सब छाड़ि जे हैं, मारि मूढ हि बेत ॥२॥
मात पितु सुत सखा बांधव, सकल कालर८ खेत ।
कर कृषि९ तू पर्यो रीतो, खोल देख हु नेत१० ॥३॥
त्याग तन धन गेह गाफिल, सीख सदगुरु देत ।
रज्जब जम जोर ले है, देसि११ मुहड़े१२ रेत ॥४॥३॥
✦ अरे असावधान२ ! मूर्ख१ मन ! यह शिक्षा मान और हे शठ ! विचार करके अपने मिथ्या हठ को छोड़ ।
✦ अरे मूर्ख ! मैं तेरे से प्रेम करके ही कहता हूँ । यह शरीर मिथ्या है और एक क्षण में ही पड़३ जाता है । इस देह को यम ने कई५ बार४ लिया है और लेगा अर्थात मारा है और मारेगा । काल हाथ में तलवार६ लेकर काटेगा, देखले शिर मे श्वेत बाल आ गये हैं, यह काल आने का संकेत है ।
✦ यह तेरी धन-संपति, गंधर्व७-नगर और स्वप्न की सम्पति के समान है । यह संकेत रूप चेतावनी भली भांति सुनले । मूर्ख ! तू एक क्षण भर में सब छोड़ जायेगा । यम दूत तेरे बेत मारते हुए तुझे ले जायेंगे ।
✦ माता पिता पुत्र सखा और बांधव ये सभी ऊषर८ भूमि के खेत के समान हैं, जैसे ऊषर खेत में खेती९ करने पर बीज भी नष्ट हो जाता है और बोने वाला खाली हाथ ही रहता है, वैसे ही तू भी अपने नेत्र१० खोलकर देख ले, परिवार के राग में फंसकर खाली ही रहेगा ।
✦ अरे असावधान ! सदगुरु शिक्षा देते हैं कि - शरीर धन और घर आदि के राग को त्याग, नहीं त्यागने से यमराज दूत तुझे बल पूर्वक पकड़ लेंगे और तेरे मुख१२ पर धूलि डालेंगे११ ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२१*

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*अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहि कलि माहिं ।*
*दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि मरि जाहिं ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२१ । त्रिताल
मनरे गहो गुरु मुख बंध१,
सकल विधि सब होत, कारज उनमनी२ ले संध३ ॥टेक॥
शब्द साधु शीश धर कर, रटण आतम रंध४ ।
ज्ञान मारग गमन कर तैं, अमर आतम कंध५ ॥१॥
मत महंत सु मान मन कर्म, पर६ हु गोरख धंध ।
एक आतमा लागि एक हि, दह९ दिशा ह्वै अंध ॥२॥
बोध बेध अबेध पंचनि, निकुल७ नाम सु नंध८ ।
मिले रज्जब ज्योति जीव हिं, जाय तन तरु गंध ॥३॥२॥
.
✦ अरे मन ! गुरु के मुख से हुये ज्ञान को ग्रहण करके वृति के विषयों से रोक१ और उसे सब प्रकार से समाधि२ में जोड़३, फिर तो तेरे सब कार्य अनायस ही हो जायेंगे ।
.
✦ संतों के शब्दों को शिर पर धारण करके अर्थात उन्हें श्रद्धापूर्वक मान करके उनके विचार रूप रटन द्वारा आत्मा को सिद्धावस्था४ में पहुचा । ज्ञान मार्ग से गमन करने पर ईश्वर का अंश५ आत्मा अमर हो जाता है ।
.
✦ महान संत रूप महंतों के सिद्धांत को मन वचन कर्म से मान और संसार रूप गोरख धंधे से परे६ हो । एक आत्म स्वरूप मे लगकर तथा दशों९ दिशाओं से अंधा हो कर एक अद्वैत ब्रह्म स्वरूप को ही देख । जो सर्व साधारण से नहीं बेधे जाते उन अबेध पंच स्वरूप को ही देख ।
.
✦ जो सर्व साधारण से नहीं बेधे जाते उन अबेध पंच ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान द्वारा विद्ध कर । कुल७-रहित ब्रह्म का नाम चिंतन करके ब्रह्मानन्द८ प्राप्त कर । जब जीव को ज्ञान ज्योति रूप ब्रह्म प्राप्त होगा तब जैसे चंदन की सुगन्ध की सुगंध से वृक्ष की प्रथम गंध चली जाती है और वह चंदन ही हो जाता है, वैसे ही ज्ञान ज्योति रूप ब्रह्म के मिलन से शरीर की जीवत्व भाव रूप गंध चली जाती है और ब्रह्म भावना आ जाती है।
(क्रमशः)

बुधवार, 1 मार्च 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ १२०*

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*सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग केदार ८(संध्या ६ से ९ रात्रि)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१२० मनोपदेश । त्रिताल
मनरे सीख सदगुरु की मानि,
ब्रह्म सुख दुख रूप माया, कही लाभ रु हानि ॥टेक॥
भजन अनन्त आनन्द, खलक खलहल१ खानि ।
सकल मत२ सब शोधि३ साधू, कही तो सौं छानि४ ॥१॥
अमर अधर५ धर्यादिक६ बिनशे, तोल तुल्य७ करि कानि ।
साँच झूठ विचार लीजे, महर ह्वै दीवानि८ ॥२॥
मुक्त प्राणी प्राणपति भज, शक्ति संकट जानि ।
वास वस्ती कीजिये मन, रचि न रज्जब रानि९ ॥३॥१॥
१२०-१२१ में मन को उपदेश कर रहै हैं -

✦ अरे मन ! सदगुरु की शिक्षा को मान, ब्रह्म सुख रूप है, माया दु:ख रूप है । ब्रह्म चिंतन से सुख प्राप्ति रूप लाभ होता है । और माया का चिंतन करने से दु:ख प्राप्ति रूप हानि होती है । यह तुझे कह दिया है ।

✦ अनन्त ब्रह्म का भजन कर तुझे अनंत आनंद मिलेगा । संसार उपद्रव१ की खान है । सम्पूर्ण सिद्धान्तों२ को खोज३ करके तथा सब संतों के विचारों को विचार४ करके यह बात तुझे कही है ।

✦ ब्रह्म५ तो अमर है और मायादिक६ सब नष्ट होंगे । तू अपने विचार तुला की कांण बराबर७ करके तोल अर्थात समता पूर्वक विचार करके देख, सत्य और मिथ्या को विचार द्वारा समझ कर सत्य को ही ग्रहण कर तभी सर्व प्रधान८ प्रभु की दया तुझ पर होगी । प्राण पति प्रभु का भजन करके प्राणी मुक्त होता है और माया का चिंतन करके दु:ख में पड़ता है । यह निश्चय जान ।

✦ अरे मन ! सदा बसने वाली ब्रह्म रूप वस्ती में ही निवास कर, मनोरथों का संसार मत बना, हृदय से मनोरथों का संसार मत बना, हृदय से मनोरथों को निकाल९ दे ।
(क्रमशः)

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११९*

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*कहा करूँ, मेरा वश नांही, और न मेरे अंग सुहाइ ।*
*पल इक दादू देखन पावै, तो जन्म जन्म की तृषा बुझाइ ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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११९ । मत्त ताल 
ब्रह्म बिन निशदिन विपति विहात१,
दर्शन दूर परस२ पिव नांहिं, नहिं संदेश३ सुनात ॥टेक॥
पीर प्रचंड४ खंड५ कर नाखत, वैरी विरह विख्यात । 
सांई सुरति करो सुन्दरि दिशि, सोच न सिंह शंकात ॥१॥
नख शिख शूल मूल मन बेधत, बरणत बने न बात । 
झीनी६ झाल७ लाल८ बिन लपटत, सो क्यों हूं न बुझात ॥२॥
सब सुख हीन दीन दीरघ दुख, विसरी पांच रु सात । 
रज्जब रही चित्र पुतरी ह्वै, मान हुं सतरंज मात ॥३॥२॥
✦ ब्रह्म साक्षात्कार के बिना रात्रि दिन दु:ख से ही जाते१ हैं । प्रियतम के दर्शनों से मैं दूर ही हूँ, उनका चरण स्पर्श२ मुझे नहीं मिल रहा है । न वे कुछ समाचार३ ही सुना रहे हैं । 
✦ मेरे हृदय में भयंकर४ पीड़ा हो रही है । यह प्रसिद्ध शत्रु विरह हृदय के टुकड़े५ टुकड़े कर देगा । प्रभो ! मुझ सुन्दरी की ओर वृत्ति कीजिये । यह चिन्ता रूप सिंह मेरे शरीर को खाने में कुछ भी शंका नहीं कर रहा है अर्थात चिंता से शरीर सूखता जा रहा है । 
✦ नख से शिखा तक शरीर में पीड़ा है । यह दु:ख का मूल कारण विरह मन को विद्ध कर रहा है । मेरा दु:ख इतना बढ गया है कि - उसकी वार्ता का वर्णन भी मुझ से नहीं होता । प्रियतम८ प्रभु के बिना विरहाग्नि की सूक्ष्म६ ज्वालायें७ मेरे चारों ओर लग रही हैं । वह प्रभु के दर्शन बिना किसी प्रकार भी अन्य उपाय से नहीं बुझती । 
✦ मैं सम्पूर्ण सुखों से रहित रह कर दीन हो रही हूं, मेरे को बड़ा दु:ख है, मैं सात और पांच १२ भूषण पहनना भूल गई हूं अर्थात दश इन्द्रिय और मन बुद्धि इन बारह कॊ सुधारना भी भूल गई हूं । मैं अब चित्र लिखित पुतली सी हो रही हूँ । शतरंज के शाह का मोहरा चारों ओर से घिर जाने की सी दशा मेरी हो रही है । मुझ इस दु:ख से मुक्त होने का उपाय प्रभु दर्शन के बिना अन्य कोई भी नहीं दिख रहा है । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित राग मल्हार ७ समाप्तः । 
(क्रमशः) 

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2023

*श्री रज्जबवाणी पद ~ ११८*

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*दादू तलफै पीड़ सौं, बिरही जन तेरा ।*
*ससकै सांई कारणै, मिलि साहिब मेरा ॥*
===================
*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मल्हार ७ (गायन समय वर्षा ऋतु)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
११८ विरह दु:ख । त्रिताल
राम बिना श्रावण सह्यो न जाय,
काली घटा काल ह्वै आई, दामिनी दग्धे माय१ ॥टेक॥
कनक अवास२ वास सब फीके, बिन पिय के सु प्रसंग ।
महा विपति बेहाल लाल३ बिन, लागो विरह भुवंग४ ॥१॥
सूनी सेज हेज५ कहुं कासौं, अबला धरै न धीर ।
दादुर६ मोर पपीहा बोले, ते मारत हैं तीर ॥२॥
सकल श्रृंगार भार ह्वै लागे, मन भाव कछु नांहि ।
रज्जब रंग कौन से कीजे, जे पिव नांहीं मांहि ॥३॥१॥
११८-११९ में अपना विरह दु:ख दिखा रहे हैं -
✦ राम के दर्शन बिना श्रावण मास सहा नहीं जा रहा है । हे माई१ ! यह काली घटा काल रूप होकर दु:ख देने में लगी हुई है, बिजली जला रही है ।
✦ प्रियतम राम के मिलन प्रसंग बिना सुवर्ण के महलों२ का निवास आदि सब भोग फीके लग रहे हैं । प्रियतम३ प्रभु के बिना मुझ पर महा विपत्ती आ रही है । मैं दु:ख से व्याकुल हूं, विरह-सर्प४ खाने के पीछे लग रहा है । मेरी हृदय शय्या आपके बिना शून्य है ।
✦ मैं प्रेम५ की बात किससे कहूँ । आपके बिना मैं अबला नारी धैर्य नहीं धारण कर सकती । मेंढक६ मोर और चातक पक्षी जो बोलते हैं, सो तो मानो मेरे बाण मार रहे हैं ऐसा खेद दे रहे हैं । जब प्रियतम हृदय में नहीं हैं तब प्रेम७ किससे किया जाय ।
✦ अत: संपूर्ण साधन रूप श्रृंगार भार रूप होकर दु:ख देने लगे हैं । मन को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है ।
(क्रमशः)