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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी पद ~ भाग २*
राग मारू ९(गायन समय युद्ध)
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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१३७ । पंजाबी त्रिताल
सखि सुन मैं दु:ख शोध लियो ।
महा नीठुर१ रंग रातो, सोई कंत२ कियो ॥टेक॥
जाके विरह बसी मन माहिं, सब जग त्यागि दियो ।
सो पुनि पिय परसे३ नहिं अजहुं, हारी देखि हियो ॥१॥
जग पति मिले न जगत सुहावै, फाटो दिल न सियो४ ।
द्वै दुख देखि भयो चित चक्रित५, विषहु न बाँटि पियो ॥२॥
कहये कहा कवन मति उपजी, मन मानो न बियो६ ।
जन रज्जब रुचि रूप न पावै, धृक धृक यह सु जियो७ ॥३॥२॥
✦ संत सखि ! मेरी बात सुन, मैंने तो महा निर्मोही१ अपने ही रंग ढंग में अनुरक्त रहने वाले को स्वामी२ बनाकर दु:ख ही खोज लिया है ।
✦ जिसके विरह से मेरी वृति सब जगत को त्याग कर मन में ही बसी रहती है बाहर नहीं जाती, फिर भी वह प्रियतम अब तक नहीं मिलता३ है । उनके यह व्यवहार को देख करके तो मेरा हृदय हार बैठा है अर्थात उत्साह रहित हो गया है ।
✦ न तो जगतपति प्रभु मिल रहे हैं और न जगत अच्छा लगता है, जगत से मन फट गया है, वह पुन: सीया४ नहीं जाता अर्थात जगत से नहीं मिलता । उक्त दोनों दु:खों को देखकर मन चकित५ हो रहा है । मैंने भूल की है, विष बाँट कर भी तो नहीं पीया, पी लेती तो इस दु:ख से तो मुक्त हो जाती ।
✦ किंतु क्या कहूं न जाने यह क्या बुद्धि उत्पन्न हुई है जो दूसरे६ से तो मन संतोष मानता ही नहीं है और जिस प्रभु स्वरूप में मेरी रुचि है वह मिलता नहीं है । अत: मेरे जीवन७ को बारंबार घिक्कार है ।
(क्रमशः)