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बुधवार, 30 अप्रैल 2025

*अज्ञान-निशा-नाश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*जाग रे सब रैण बिहांणी,*
*जाइ जन्म अंजलि को पाणी ॥*
*घड़ी घड़ी घड़ियाल बजावै,*
*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै ॥*
*सूरज चंद कहैं समझाइ,*
*दिन दिन आयु घटती जाइ ॥*
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*अज्ञान-निशा-नाश ॥*
सोइ जागे रे सोइ जागे रे, राम नाम ल्यौ लागे रे ॥टेक॥
आप अलंबण नींद अयाणा, जागत सूता होइ सयाणा ।
तिहि बरियाँ गुर आया, जिनि सूता जीव जगाया ॥
थी तौ रैंणि घणैंरी, नींद गई तब मेरी ।
डरताँ पलक न लाऊँ, हूँ जाग्यौ और जगाऊँ ॥
सोवत सुपिना माँहिं, जागूँ तौ कछु नाहीं ।
सुरति की सुरति बिचारी, तब नेहा नींद निवारी ॥
एक सबद गुर दीया, तिहिं सोवत बैठा कीया ।
बषनां साध सभागा, जे अपनैं पहरै जागा ॥४४॥
“या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥
गीता २/६९॥
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जिनकी चित्तवृत्ति रामनाम में लग जाती है वही जागा हुआ कहा जाता है, वास्तव में वही विवेकवान कहा जाता है । अज्ञान निद्रा में आकंठ डूबे हुए अज्ञानी भी स्वात्मतत्त्व का आश्रय ले लेने पर विवेकी होकर ब्रह्मात्मैक्य रूपी ज्ञान सम्पन्न होकर स्वात्मस्थ हो जाते हैं । (अन्यों की स्थिति बताकर अब बषनांजी अपनी स्थिति बताते हैं)
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जब संसार के अनेकों लोग अज्ञान रूपी निशा में सोये हुए पड़े थे, तब सद्गुरु महाराज का अवतरण इस पृथिवी पर हुआ । उन्होंने अनेकों अज्ञानी जीवों को रामनाम स्मरण के मार्ग पर लगाकर वैराग्य-भक्ति-ज्ञान सम्पन्न बना दिया । उससमय मेरे में भी अपार अज्ञान था किन्तु गुरु महाराज के ज्ञानोपदेश से मेरी अज्ञता रूपी निशा का सर्वथा नाश हो गया ।
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परमात्म-चिंतन छूटकर पुनः संसार-चिंतन न होने लगे, इस डर से डरकर मैं तनिक देर के लिये भी नींद का आश्रय नहीं लेता; विषयों का चिंतन तो दूर अनासक्तभाव से भी उनका भोग नहीं करता । मैं स्वयं भी संसार तथा संसार के भोगविलासों से सर्वथा दूर रहकर परमात्म-चिंतनरत रहता हूँ, अन्यों को भी परमात्म-चिंतन की ओर लगाता हूँ ।
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अज्ञान रूपी निद्रा में सोने पर स्वप्ने रूपी संसार की सत्ता सत्यवत् प्रतीत होती है किन्तु जैसे ही गुरुज्ञान का आश्रय पाकर मैं रामनाम आश्रित होता हूँ वैसे ही सारा संसार ही नाशवान, क्षणिक तथा अप्रिय लगने लगता है । जब से मैंने चित्तवृत्ति की स्थिति का विचार किया है, जब से मन को नियंत्रित करने का प्रयत्न करना प्रारम्भ किया है तब से ही संसार के प्रति संस्कार रूप से विद्यमान राग रूपी निद्रा को त्याग दिया है ।
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गुरु महाराज ने रामनाम रूपी एक शब्द का स्मरण-मनन का उपदेश दिया । उसी ने मुझ सोते हुए को जाग्रत कर दिया । बषनां कहता है, वही साध = साधक सौभाग्यवान है जो अपने पहरे = अपने मनुष्य जन्म के अवसर पर चेतकर रामनाम स्मरण में लग गया ॥४४॥
“मोह निसा सब सोवनिहारा ।
देखिय सपन अनेक प्रकारा ॥
मानहूँ तबहि जीव जग जागा ।
जब सब विषय विलास बिरागा ॥”
मानस॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2025

*विचार, ब्रह्म-स्वरूप-विचार ॥*

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*रतन एक बहु पारिखू, सब मिल करैं विचार ।*
*गूंगे गहिले बावरे, दादू वार न पार ॥*
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*विचार, ब्रह्म-स्वरूप-विचार ॥*
हे हरि अपरंपार अगाधा, तेरा किनहूँ पार न लाधा ॥टेक॥
उनमान किसौ कोइ देखै, वो लिख्या न आवै लेखै ।
जाकै पवनि पार नहिं आवै, तौ हरि कौ पार को पावै ॥
सुरति कहाँ कौ लावै, है तैसा नजरि न आवै ।
जाकै नीर पार नहिं आभै, तौ राम पार को लाभै ॥
गगनि धरणि जिन थाप्या, सो मिण्याँ न जाई माप्या ।
जाकै कृतम पार नहिं आण्या, सो हरि जाइ क्यूँ जाण्या ॥
नाँव बडा हरि तेरा, यहु नान्हा सा मुँह मेरा ।
मुँह माँहै लिया न मावै, बषनां बिन ही दीठाँ गावै ॥४३॥
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हरि परमात्मा अपरम्पार और अगाध है । दिक्-देश-काल से अनवच्छिन्न है ।
“दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानंतचिन्मात्रमूर्त्तये । 
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥” 
भर्तृहरि वैराग्यशतक श्लोक १॥ 
इसीलिये उसका पार = सीमा किसी को भी प्राप्त नहीं हो सका है । उसके सदृश दूसरा और कोई नहीं है । वह स्वजातीय, विजातीय और स्वगत-तीनों ही भेदों से रहित होने के कारण स्वयं जैसा स्वयं ही है ।
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अतः किसी अन्य को देखकर कैसे सादृश्य के आधार पर उसके स्वरूप का अनुमान कीया जा सकता है । वह अरूप है । अतः उसको देखा जाना तो असंभव है ही, उसके गुणहीन होने से उसके रूप तथा गुणों के आधार पर उसका व्यक्त्तित्व भी लिखा जाना असंभव है । जिसके द्वारा निर्मित पवन की पार पाना ही असंभव है तो उस स्वयं हरि की पार कौन पा सकता है ।
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चित्त की वृत्ति किस अवलम्बन पर स्थिर की जाये क्योंकि जैसा वह है, वैसा वह दृष्टि में आता नहीं है । निराकार होने से वह दृष्टि-मुष्टि में आता नहीं है । अतः सुरति = वृत्ति को कैसे उसमें अटकाई जाये । जिसके द्वारा निर्मित जल तथा अग्नि का पार पाना असंभव है, उस स्वयं रामजी की अन्तिम सीमा को कैसे प्राप्त किया जा सकता है ।
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जिसने अनन्त रूप आकाश और पृथिवी को बनाया है उसको कैसे किसी मापक यंत्र के द्वारा मापा जा सकता है । जिन हरि की कृतियों का पार पाना ही असंभव है, उस अमाप हरि को कैसे जान सकता है ।
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बषनांजी, कहते हैं, हे हरि ! तेरा नाम बहुत बड़ा है अणोरणीयान् महतोमहीयान् और मेरा मुँह बहुत छोटा है । अतः तेरे बारे में मुँह से कुछ भी कहा नहीं जा सकता । इसीलिये मैं बषनां बिना तुझे देखे और जाने ही तेरे नाम का स्मरण करता हूँ ॥४३॥

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

परिचय ॥

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*दादू निर्गुणं नामं मई, हृदय भाव प्रवर्त्तितम् ।*
*भ्रमं कर्मं किल्विषं, माया मोहं कंपितम् ॥*
*कालं जालं सोचितं, भयानक यम किंकरम् ।*
*हर्षं मुदितं सदगुरुं, दादू अविगत दर्शनम् ॥*
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परिचय ॥
निर्गुण रामा गाऊंगा । तहाँ मन अपना लाऊंगा ॥टेक॥
निर्गुण का गुण गाऊंगा, तब पाथर को पघलाऊंगा ।
पघलाइ करौं जैसा पाणी, सो मति बिरले जाणी ॥
निर्गुण का गुण लीणा, तब अगनि मांहि घी थीणा ।
थीज्या पघलि न जाई, सो सहजैं रहयौ समाई ॥
निर्गुण का गुण लाधा, तब जलि बैसंदर दाधा ।
यहु बैसंदर नांहीं, वो अगम अगोचर मांहीं ॥
निर्गुण का गुण दाखूँ, आंधी मैं दीपक राखूँ ।
जिहिं की निर्मल जोति न डोलै, बषनां वै ही बाणी बोलै ॥४२॥
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मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का नाम स्मरण करूंगा । मैं अपनी चित्तवृत्तियों को सर्वतोभावेन उसी में लगा दूंगा ।
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जब मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा का स्मरण करूंगा तब सांसारिक विषय भोगों से कठोर हुए पत्थर रूपी हृदय को भी आर्द्र कर डालूंगा । उस हृदय को इतना अधिक आर्द्र करुंगा कि वह जल जैसा पतला, निर्मल और मृदु हो जायेगा । हृदय को सांसारिक विषयभोगों से सर्वथा उपराम करके भगवन्मय बनाने की बुद्धि = युक्ति को कोई कोई ने ही जानी है ।
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“मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्माम्वेत्ति तत्त्वतः ॥
तथा ‘विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्ज्य रसोप्यस्य परंदृष्ट्वा निवर्तते ॥
जब साधक निर्गुण-निराकार के गुण = स्वरूप में लीन हो जाता है तब ब्रह्म रूपी अग्नि में घी रूपी चित्तवृत्ति सर्वथा थीणा = अचल हो जाती है । एकबार चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है तब वह पुनः विषयभोगों की ओर उन्मुख होकर उनमें आसक्त नहीं होती । वह तो सहज स्वाभाविक रूप में निजानंदस्वरूप स्वात्मा में ही अचल रूपेण संस्थित रहती है ।
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जब साधक निर्गुण परमात्मा स्वरूप हो जाता है तब सहस्त्रारचक्र से स्त्रावित जल रूपी रामरसामृत मूलाधारचक्रस्थ सांसारिक विषयभोग-स्पृहा रूपी अग्नि को दग्ध कर देता है । जो अगम्य, अगोचर ब्रह्म का साक्षात्कार कर ब्रहमरूप हो गये हैं उनके लिये विषयभोगों की जननी माया और तज्जन्य संसार शांतस्वरूप = अप्रभावकारी हो जाते हैं । क्योंकि माया अनादि तो है किन्तु ज्ञानोपरांत इसका बाध हो जाता है, यह शांत हो जाती है ।
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बषनांजी अपने लिये कहते हैं, मैं निर्गुण-निराकार परमात्मा के नाम का स्मरण करता हूँ तथा संसार रूपी आंधी में भी अपनी वृत्ति रूपी दीपक की लौ को निश्चल रखता हूँ । जिसकी-जिस दीपक की, जिस साधक की चित्तवृत्ति रूपी दीपक की लौ अचल रहती है वही ब्रह्मसाक्षात्कार जन्य अनुभववाणी कहता है ।
‘ब्रह्म विद्ब्रह्मैव भवति ।’ मुण्डकोपनिषद् ।
‘ब्रह्म रूप अहि ब्रह्मवित, ताकी वाणी वेद ।
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छेद ।’ विचारसागर ३/१० ॥
‘जानत तुम्हहिं तुम्हहि होइ जाही ।’ मानस ।
‘ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित’ ॥गीता॥४२॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 21 मार्च 2025

*साधना ॥*

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*दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।*
*सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥*
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*साधना ॥*
तत बेली रे तत बेली रे ।
क्यारा पाँच पचीसौं क्यारी, जतन कियाँ ऊगैली रे ॥टेक॥
एक काँकरी कुई खणैंली, धुणी फूटी सेझै ह्वैली ।
तहाँ अरहट माल बहैली, तिहि धोरै नीर पिवैली ॥
तहाँ पाणति प्राण करैली, जाकै कोमल कूँपल ह्वैली ।
सो तरवर जाइ चढैली, गुरि सींची सदा बधैली ॥
चहुँ दिसि पसरि रहैली, फल लागाँ फूलैली ।
यौं बेली बिरधि करैली, राखी जतन रहैली ॥
तौ बाड़ी सुफल फलैली, गगन माँहि गरजैली ।
अमर नाम बषनां सो बेली, अविनासी फल देली ॥४१॥
परमात्म-नाम रूपी तत्त्व की वल्लरी = वेल पचीस प्रकृतियों सहित पाँच तत्वों से निर्मित शरीर में यत्न = साधना करने से निश्चय ही प्रस्फुटित = फलित होगी; परमात्मा का दर्शन होगा !
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एक काँकरी रूपी विवेक से हृदय में विद्यमान जन्म-जन्मान्तरों के बुरे संस्कारों को हटाकर शुद्ध हृदय रूपी कूप तैयार करना होगा । उसमें (हृदय में) परमात्मा के नामस्मरण संबंधी रूचि रूपी स्त्रोत फूट पड़ेंगे जिनमें होकर परमात्म-प्रेम रूपी जल का आगमन होगा । (सेझै = जल का झरना) उस परमात्मप्रेम में अरहट रूपी मन की माल रूपी वृत्ति बहने लगेगी फिर वह वल्लरी भाव रूपी धोरे में प्रवाहित हुए भगवत्प्रेम रूपी जल को पियेगी ।
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भाव रूपी धोरों के टूटने पर = साधना में विघ्न उपस्थित होने पर निश्चय रूपी प्राणवायु = प्राणी = जीव स्वयं पानी को पाणत = सही दिश में मोड़ेगा । फिर उस वेली में कोंपल रूपी वैधीभक्ति की उत्पत्ति होगी । वह वैधीभक्ति रूपी छोटी सी वल्लरी ही रागानुगाभक्ति के रूप में परिवर्तित होना रूप वृक्ष पर चढ़ जायेगी । फिर वह रागानुगाभक्ति ही गुरुमहाराज के उपदेशों से सिंचित होकर प्रेमाभक्ति के रूप में और बढ़ जायेगी, अगली सीढ़ी में पहुँच जायेगी ।
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वह वल्लरी वृक्ष पर चारों ओर पसर-फैल जायेगी । प्रेमाभक्ति पूरे शरीर, तन-मन में अपना साम्राज्य जमा लेगी । तत्पश्चात् उसमें परमात्मसाक्षात्कार रूपी फूल लगेंगे । वह परमात्मा का सानिध्य प्राप्ति रूपी फूलों से फूल जायेगी । इस प्रकार वेली = रामनाम की साधना वृद्धि को प्राप्त होगी । क्रमशः सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ेगी । यह वल्लरी बराबर यत्न करते रहने पर ही सुरक्षित रहेगी । परमात्मा का सानिध्य तब तक ही रहेगा जब तक हम उसकी भक्ति करते रहेंगे ।
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उक्त प्रकार की साधना करने से शरीर रूपी वाड़ी अच्छे फल रूपी मुक्ति से लद जायेगी और गगन में गर्जना करेगी = अनहदनाद सुनेगी । परमात्मा का अमर नाम ही ऊपर कही गई तत्त्व रूपी वल्लरी है ‘समुझत सरिस नाम अरु नामी । प्रीति परस्पर प्रभु अनुगामी ।’ और उसमें लगने वाला फूल ही अविनाशी परमात्म-प्राप्ति रूप मुक्ति है ॥४१॥
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टिपण्णी : इस पद का अर्थ मंगलदासजी महाराज ने ज्ञानमार्गी पद्धति पर किया है । पाठकों के लाभार्थ हम उसे यहाँ अविकल रूप में दे रहे हैं ।
“इस पद्य में एक प्रकार के आत्मज्ञान परक रूपक का वर्णन किया गया है । तत्त्व रूपी वेलि बहुत यत्न करने से लगेगी । वह यत्न कैसा कि पंच भूतात्मक, आठ प्रकृति (मूल प्रकृति, महान् अहंकार, पञ्च तन्मात्रा) षोडश विकार (पंच भूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पञ्चकर्मेन्द्रियाँ, उभयात्मक मन) और चैतन्य इन पच्चीस क्यार वाले शरीर में निम्नोक्त यत्न किया जाय तो लग सकती है । तत्त्व रूपी बेल के लगने की क्यारी तो ऊपर बतादी ।
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बेल में पानी चाहिये । उसके लिये कूवा, कूवे को खोदने वाला, पानी निकालने वाला, पानी पिलाने वाला; वह सब सामग्री यहाँ कैसी हो वह बतलाते हैं । सत्यासत्य विचार रूपी काँकरी से ज्ञान रूपी कूप खोदा जाय । उसमें निश्चय रूपी सेजा(जल का झरना) निकले ।
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उसमें वृत्ति रूप अरहट पानी निकाले । वृत्ति का तत्त्व की ओर प्रवाह वही धोरा (जल जाने की नाली) उस नाली से आत्म स्वरूप रूपी नीर बहे । प्राणवायु इस नीर को पिलावे । तब उस वेल में कूँपल नवीन अकुंर उत्पन्न हो ।
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गुरु उपदेश रूपी सिंचाई से वह बढ़ेगी = फूलेगी-फलेगी । वह वेलि व्यापक चैतन्य रूपी वृक्ष पर चढ़ेगी । इस प्रकार तत्त्व वेल को उपजाने तथा सुरक्षापूर्वक बढ़ाने पर उससे अविनाशी मुक्ति रूप फल प्राप्त होगा ।
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“अमर नाम बषनां सो वेली” “वह वल्लरी परमात्मा का अमर नाम ही है, के आधार पर हमने पद का अर्थ भक्ति-मार्गानुसार करना ही उचित समझा । वैसे संत भक्ति-मार्गानुयायी ही थे । उनका लक्ष्य परमात्मा से एकाकार होना रहा है । अतः उनके दर्शन में स्वतः ही ज्ञान मार्ग का प्रवेश हो गया है । श्रीकृष्ण गीता में इसकी पुष्टि करते है “ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥”
(क्रमशः)

सोमवार, 17 मार्च 2025

*भ्रमविध्वंश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
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*दादू जीव न जानै राम को, राम जीव के पास ।*
*गुरु के शब्दों बाहिरा, तातैं फिरै उदास ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
नेड़ौ ही रे राम ताकौ मारग भूला ।
ऊगवणी केइ आथवणी, यौं ही भ्रमि भ्रमि डूला ॥टेक॥
लोह पारस सदा लावै, पलट्यौ काँही रे ।
जो वो लोह कौ लोह रह्यौ, तौ यौ पारस नाँही रे ॥
आपणा उनहारि भूल्या, भूला अजपाजाप रे ।
सकती लोकाँ मारि कीयौ, सींदरी तैं साप रे ॥
तीनि गुण की ताप जदि की, जीव कौं लागी रे ।
म्रिगत्रिष्णा धाइ धाइ पीयौ, काँही प्यास न भागी रे ॥
मकड़ाणा खाटू बिचैं, जग खोदिवा धायौ ।
बषनां रे गुर ग्यान थैं, घन घरही मैं पायौ ॥४०॥
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हे जीव ! रामजी अत्यन्त ही निकट में प्राप्त है किन्तु तू उसके पाने के रास्ते को भ्रम के कारण भूल गया है । (जैसा पूर्व पद में लिखा गया है, रामजी शरीर में ही प्राप्त है किन्तु अज्ञान के कारण जीव उसको अनुभव नहीं कर पाता है । यही मार्ग को भूलना है ।) कोई पूर्व दिशा और कोई पश्चिम दिशा में परमात्मा का निवास बताते हैं और उसे ढूंढने को तत्तत दिशाओं में जाते हैं किन्तु उनको वहाँ कुछ भी नहीं मिलता है ।
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वे यौंही = व्यर्थ ही भ्रमों से भ्रमित हुए डोलते रहते हैं । लोहे को पारस के सानिध्य में सदैव पलटने के लिये रखते हैं किन्तु वह लोहा किंचित् अंश में भी न बदलकर लोहे का लोहा ही रह जाता है तो जानना चाहिये कि पारस असली पारस नहीं है ।
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जीव अज्ञानावरण के कारण अपने स्वयं का उन्हारि = वास्तविक स्वरूप भूल गया है । इतना ही नहीं वह श्वास-प्रतिश्वास स्वतः ही होने वाले अजपाजाप को करना भी भूल गया है । कुछ निरीह-निर्बल लोगों को मारकर अपने आपको ठीक वैसे ही शक्तिशाली मानने लगता है जैसे कोई रस्सी को मारकर सर्प को मारने का दंभ करे ।
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जब से जीव के तीनों गुणों की ताप लगी है तबही से वह विषय भोगों की ओर वैसे ही दौड़ता है जैसे मरुस्थल में जल के लिये मृग दौड़ता है किन्तु उसे कहीं भी जल रूपी पूर्णानंद की प्राप्ति नहीं होती है जबकि वह विषयभोगों को प्रभूत मात्रा में प्रभूत समय तक भोगता रहता है ।
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वस्तुतः ऐसे लोगों की स्थिति वैसी ही होती है जैसी मकराना और खाटू के बीच के रास्ते को धन के लिये खोदने वालों की होती है जिन्हें पूरा रास्ता खोदने पर एक कोड़ी भी नहीं मिलती किन्तु गुरु द्वारा बताये जाने पर घर में ही सारा धन मिल जाता है । परमात्मा इस शरीर में ही है । उसे गुरुपदिष्ट मार्ग का अनुसरण करके प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये ॥४०॥
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अन्तर्कथा ॥ कोई धनवान व्यक्ति मरने लगा तब उससे उसके पुत्रों ने पूछा कृपया हमें धन बतादें ताकि हम आपके मरने के उपरान्त उसे प्राप्त कर सकें । मरणासंन व्यक्ति ने धन ‘मकराना’ और ‘खाटू’ के बीच में बता दिया । पुत्रों ने मकराना और खाटू गाँव के बीच का सारा रास्ता खोद डाला किन्तु उन्हें एक भी फूटी कौड़ी नहीं मिली ।
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किसी समझदार व्यक्ति से चर्चा करने पर उसने पूरे घर का निरिक्षण किया और एक कमरे को खुदवा दिया । उसमें से धन निकल आया । क्योंकि उस कमरे में एक ओर खाटू तथा दूसरे ओर मकराने के पत्थर लगे हुए थे और बीच में धन था ।
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मरणासंन व्यक्ति ही संसार है । पुत्र ही जीव है । धन ही परमात्मा है । समझदार व्यक्ति ही गरू है । स्वामी रामचरणजी ने लिखा है ~
“जहाँ तहाँ भरिपूरि है, घटि घटि व्यापक सीव ।
रामचरण सतगुरु बिना, भेद न पावै जीव ॥
रामचरण बीजक बिना, जो घर में धन होय ।
यूँ पूरा गुरुदेव बिनि, तत नहिं पावै कोय ॥”
(क्रमशः)

शुक्रवार, 14 मार्च 2025

*परिचय ॥*

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*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
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*अनहद बाजे बाजिये, अमरापुरी निवास ।*
*जोति स्वरूपी जगमगै, कोइ निरखै निज दास ॥*
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*परिचय ॥*
म्हारै अनहद माँदलियौ बाजै रे ।
अनहद अनहद बाणी बोलै, मेघ तणी धुनि गाजै रे ॥टेक॥
नौ दस सात बहत्तरि कसणी, कारीगरि मढियौ रे ।
दीन्हौं भलौ भाव कौ भोइण, ऊचै सुरि चढियौ रे ॥
पवन ताल म्हारै बिरह रबाबी, इक ताली बावै रे ।
पाँच सहेलियाँ मिलि सर दीन्हौं, मधुरी धुनि गावै रे ॥
प्रेम प्रीति का घूँघर बांध्या, ठमकै पाँव धरै रे ।
इहिं औसर अबिनासी आगै, म्हारौ प्राणिड़ौ निरत करै रे ॥
गोपी ग्वाल बराबरि खेलै, तेज पुंज परकासै रे ।
आतम सौं परमातम हिलिमिलि, रूड़ौ बणियौ रासै रे ॥
ब्रह्मा बिष्न महेसर सुर नर, सकल रह्या बिरमोही रे ।
मधुर मधुर धुनि मुरली बाजै, हरि बोलो हरि बोलो होइ रे ॥
रंग रह्यौ रमिता स्यौं रमिताँ, आतमराम रिझायौ रे ।
बणियौं रास बिवाणैं बैठा, सुर नर कौतिग आयौ रे ॥
रामति रमताँ जो दत लाधौ, सो दत होतो आदी रे ।
बषनां ब्रह्म जीव सौं रामति, दादू के परसादी रे ॥३९॥
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माँदलियौ = गले में पहनने का एक छोटा सा गहना जिसे प्रायः जंतर भी कहा जाता है । प्रायः चांदी को गोलाकार बनाकर उसमें तांत्रिक विधि से तैयार किये गये किसी यंत्र को रखा जाता है । जंतर की सुंदरता को बढ़ाने ले लिये उसके ऊपरि भाग पर कुछ चम्पे, दाने लगा दिये जाते हैं जिससे इसमें आवाज भी होने लगते हैं ।
नौ = नवद्वार । दस = दस इंद्रियाँ । सात = सात धातु । बहत्तरि = ७२ कोठे । कसणी = के संयोग से । कारीगर = परमात्मा । मढियौ = बनाया ।
भलौ भाव = उत्तम भक्ति । भक्ति प्रायः तीन प्रकार की मानी गई है । वैधी = स्वधाभक्ति । रागानुगा-विधि-निषेध से रहित भगवन्नाम जप रूपा ‘रागानुगायां स्मरणस्य मुख्यता’ । भक्तिरसामृतसिंधु । उत्तमा-प्रेमाभक्ति, गोपीप्रेमात्मक भक्ति । यहाँ भलौ भाव कहकर उत्तमाभक्ति का निर्देश किया गया है किन्तु वैधी तथा रागानुगा के पश्चात् ही उत्तमाभक्ति उत्पन्न होती है । अतः इन दोनों का भी यहाँ अध्याहार कर लेना चाहिये ।
भोइण = भावना, बल । किसी पदार्थ को अग्नि से भावना देकर, अथवा अधिक घोटकर भावित किया जाता है । यहाँ भोइण बल के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है ।
चढ़ियौ = बोलने लगा । पवन = श्वास-प्रश्वास । रबाबी = रबाब बजाने वाला, एकतारा को रबाव कहते हैं । बावै = बजाता है । पाँच सहेलियाँ = पाँच इन्द्रियाँ । प्राणिड़ौ = आत्मा, जीव । गोपी = इन्द्रियाँ । ग्वाल-मन । रूड़ौ = सुन्दर, अद्भुत । रासै = रास । बिरमोही = विस्मृत । रंग = आनंद । रमिताँ = रास करते समय । बणियौं = शुरू होने पर । कौतिग = आश्चर्य । रामति = रास में रमताँ = रमते समय । दत = सम्पत्ति, भगवत् प्रेम ।
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मेरे गले में अनहदनाद रूपी मांदलिया बजता है । (अनहदनाद गले में न बजकर सहस्त्रारचक्र में बजता है । जब शब्द जिव्हा से सरककर कंठ में अपना निवास बनाता है तब “कंठाँ सब्द टगटगी लागी । नाड़ि नाड़ि मैं चलै गिलगिली । सुखधारा अति बहै सिलसिली ॥४६॥ मुख सूँ कछू न उचरै बैना । लग्या कपाट खुलै नहिं नैना ॥” ग्रंथ नामप्रताप स्वामी रामचरणजी की वाणी । ) वहाँ से आवाज निकालना प्रायः मुश्किल हो जाता है । निस्सीम, अविछिन्न ध्वनि होती है । मेघ की सी गर्जन-तर्जनमयी ध्वनि होती है ।
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परमात्मा ने नव द्वारों, दस इंद्रियों, सात धातुओं तथा बहत्तर कोठों के मेल से मनुष्य शरीर बनाया है । इसको उत्तमाभक्ति का बल प्रदान किया है जिसमें ही अनहदनाद ऊँचे स्वर में बज रहा है ।
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मेरे अनहदनाद के लिये श्वास-प्रश्वास की ताल को विरह रूपी रबाबी लगातार बजा रहा है । पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ मिलकर उस रबाबी के सुर में सुर मिलाकर मधुर ध्वनि में गाती है ।
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उन्होंने प्रेम-प्रीति के घूंघरे बांध रखे हैं और वे ठुमके मार-मार कर पाँवों को धरती पर रखती है । ऐसा बनाव बनने पर मेरा प्राण = जीव अविनाशी परब्रहम-परमात्मा के समक्ष आनंदमग्न होकर नृत्य करता है । इन्द्रियां, मन सभी हिलमिल खेलते हैं । तेजपुंज = परमप्रकाश रूप परमात्मा का वह प्रकाश होता रहता है । आत्मा और परमात्मा का हिल-मिलकर-कर खेलने का यह रास सर्वथा सुन्दर बन पड़ा है ।
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इस रास को देख-देखकर ब्रह्मा, विष्णु, महेश व अन्यान्य सुर, नरादि सभी विमोहित हो रहे हैं । इस रास स्थल में मुरली की मधुर-मधुर ध्वनि हो रही है तथा ‘हरि-बोलो, हरि-बोलो’ की आवाज निरन्तर सुनने में आ रही है । रमताराम से उक्त रास में रमने में आनंद की सर्जना हुई और मेरा निजात्मा आनंद में सरावोर हो गया ।
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जब रास का प्रारम्भ हुआ तब विमानों में बैठ बैठकर सुर नरादि इस अद्भुत रास को देखने के लिये आये । इस रास को रमते समय जो धन प्राप्त हुआ वस्तुतः वह धन कोई नया नहीं था । वह था तो पुराना ही किन्तु अनुभव उसका अब हुआ । अतः कहने में आ रहा है कि प्राप्त हुआ ।
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(शांकरवेदांतानुसार आत्मानंद सदा से सभी को सर्वकाल में प्राप्त है किन्तु अविद्या के आवरण के कारण उसका अनुभव नहीं होता है । जैसे ही अविद्यावरण का नाश होता है वैसे ही आत्मानंद का अनुभव होने लगता है । वस्तुतः प्राप्ति तो उसकी होती है जो हमारे पास नहीं होता है और हमें दूसरों से प्राप्त होता है । आत्मा तो हमें सर्वत्र सर्वकाल में प्राप्त है । बा, उसे हम पहचान नहीं पाते । जिस समय हम उसे पहचान जाते हैं उसका हमें बोध हो जाता है, बस, उसी समय आत्मानंद करतलगत हो जाता है । बषनांजी यहाँ यही बात कह रहे हैं । यह आनंद तो आदि = प्रारम्भ से ही था किन्तु इसका मुझे तब अनुभव नहीं हुआ था ।) बषनांजी कहते हैं, यह जीव और जीव और सीव का रास = रामति = एकाकार = गुरुमहाराज दादूजी की कृपा के फल से हुआ है ॥३९॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2025

*गुरूपकार*

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*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू मन भुजंग यहु विष भर्या,*
*निर्विष क्योंही न होइ ।*
*दादू मिल्या गुरु गारड़ी,*
*निर्विष कीया सोइ ॥*
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*गुरूपकार ~ साषी लापचारी की ॥१*
(इनका अर्थ “सुमिरण कौ अंग” की साषियों में देखें ।)
अमर जड़ी पानैं पड़ी, सो सूंघी सति जाणि ।
बषनां बिसहर सौं लड़ै, न्यौल जड़ी कै पाणि ॥१॥
जे डँक लागै सरप का, ताथैं लहरि न जाउँ ।
बिसपालाण बषनां कहै, नाराइण कौ नाउँ ॥२॥
पद
म्हारौ गारडू गुरदेव ।
राम नाम मंत्र जाकै अलख अभेव ॥टेक॥
भामिनी भुजंग लागै, तीनि डाढ़ाँ डंक लागै,
बिषै बिकराल जाकी, लहरि आवै ।
अमर वोषदि खुवाड़ै, अकाले मरताँ जिवाड़ै,
गाडूड़ौ ढौलावै बाबौ, अंम्रत पावै ॥
श्रप की सब कुली जाणै, बाँबी माँहतैं बाहरि आणैं,
नाद अनहद पूरि बाबौ, बेणि पणि बाबै ।
येक आखिर मंत्र दाखै, पिटारा मैं कीलि राखै,
दाढ पणि बांधै बाबौ, चौड़ै खिलावै ॥
तीनि आखर मंत्र मारै, चौथी टाकर बिष उतारै,
आतमा अचेत चेतै, आपौ संभालै ।
बिष रहै नहीं बाकी, अमीं बसै जीभ जाकी,
ब्रह्म बाणी बोलि बाबौ, सीचौ सौ रालै ॥
काँवरू करतारि पठायौ, सो हमारै भागि आयौ,
बिष कौ पालण बाबौ, अंम्रत पायौ ।
अमर जड़ी येक जाकै, सीस ऊपरि सदा राखै,
बषनां गुरदेव दादू, जगत सब ज्यायौ ॥३८॥
गारडू = सर्प का विष उतारने वाला । अलख = अलक्ष्य जिसे चर्मचक्षुओं से न देखा जा सके “न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुसा । दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य मे योगमेश्वरं ॥गीता ११/८॥” अभेव = जिसका भेद, रहस्य, तत्त्व जानना संभव न हो । वेद जिसके लिये नेति-नेति कहते हैं । “न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः । अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः ॥१०/२॥”
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भामिनी = स्त्री । भुजंग = सर्प = माया, अविद्या रूपी सर्पणी । तीनि डाढ़ा = तीन गुण सत्त्व, राजस तथा तमस । डंक = तीनों गुणों का प्रभाव, रंग । विषै = विष, विषयवासना । लहरि = खुमारी ।
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अमरवोषदिक = रामनाम-स्मरण, भक्ति । खुवाड़ै = खिलाते हैं । अकाले = असमय में । गाडूड़ौ ढोलावै = विषय भोगों को ढुला देते हैं, भोगना बंद कर देते हैं । बाबौ = संसारीजीव, साधक ।
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सर्प की कुली = जातियाँ, प्रकार; माया; अविद्या अष्टधा बताई गई है “भूमिरापोनलो वायुः खं मनोबुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥७/४॥” बांबी = बिल, संसार, विषयों के दलदल रूपी संसार में से । बेणि = पूंगी । बावै = बजाता है ।
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नाद = घोष । अनहद = निस्सीम घोष, जो किसी/किन्हीं उपकरणों के उत्पन्न न होता हो । वस्तुतः प्रश्न उठाया जाता है कि सामान्यजनों को तो नाद सुनाई देता नहीं है जबकि योगियों को सुनाई देता है । यह क्या बात है । इसपर इतना समझ लेना आवश्यक है कि कुंडलिनी जागृत हो जाती है तब वह सुषुम्ना नाड़ी में प्रविष्ट होकर सहस्त्रार तक जाती है । यह बिलकुल निर्वात होती है । जब इसका सम्बन्ध सहस्त्रारचक्र से हो जाता है तब इसमें “बाजै पवन प्रचंड” प्रचंड वायु बोलने लगती है । वह वायु कभी किंकणी, कभी नुपुर, कभी मृदुंग, कभी झालर कभी वेणु आदि अनेकों की ध्वनियों जैसी बजती है । यही अनहदनाद का बजना है । इसीलिये इसे बिना किसी साधनों के बजने वाला नाद कहा जाता है । ये नाद मस्तकस्थ सहस्त्रारचक्र में ही बजता हैं । अतः इन्हें निस्सीम भी कहा गया है । येक आखिर मंत्र दाखै = एक अक्षर का मंत्र सुनाकर । पिटारा = बाँस की सीकों से बना छोटा सा पिटारा जिसमें, कीलि = सर्प रूपी माया को बंद करके रखे । दाढ़ = * । चौड़े = खुले में । सपेरा, सर्प को बिन बजाकर अपने अधीन करके उसे एक जड़ी सुंघाता है, उसके दांतों को निकाल देता है, पिटारे में बन्द रखता है और चौराहें पर खुलेआम नचाता है ।

तीनि आखर = त्रिगुणात्मिका माया रूपी मंत्र को मारकर चौथे टाकर = चौथे मंत्र = रामनाम से विषय-वासना रूपी विष को उतार देते हैं । अचेत = अज्ञानी । चेतै = ज्ञानी हो जावे । आपौ = निजात्मा का बोध हो जाये ।
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काँवरू = कालबेलिया, सपेरा । गुरु विष कौ पालण = विष को रखने वाले सर्प को अमृत पिलाया । विषयों में रमने वाले जीव को रामनाम का अमृत पिलाया । अमरजड़ी = रामनाम रूपी जड़ी-बूँटी ।.
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मेरे गुरुदेव गारडू हैं जिनके पास माया और माया जन्य संसार के विषयभोग रूपी सर्पणी को मंत्रित करने के लिये अलक्ष्य और अभेद्य रामजी के नाम का मंत्र है । जिनको स्त्री रूपी सर्पणी = माया अपने तीन डाढ़ों रूपी तीनों गुणों से काट लेती है उन पर विषय-विकार रूपी विकराल विष का लहरि = खुमारी = नशा चढ़ा ही रहता है ।
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गुरुमहाराज ऐसे विषयासक्त जीवों को अमर औषधि रूपी रामनाम का रसास्वादन कराते है जिससे उनकी अकाल मृत्यु टल जाती है और वे विषयों को भोगना बंद कर देते हैं क्योंकि गुरुमहाराज उन्हें अमृत रूपी रामनाम का पान जो करा देते हैं ।
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गुरुमहाराज माया रूपी सर्पिणी का सारा रहस्य जानते हैं । उसको उसके प्रभाव सहित साधक के शरीर रूपी बिल में से निकाल फेंकते हैं और उपदेश रूपी वेणु = पूंगी बजाकर साधक को अनहदनाद सुनने का अधिकारी बना देते हैं ।
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इस माया रूपी सर्पिणी को वशीकृत करने के लिये एक अक्षर का मंत्र पढ़कर इसे पिटारे रूपी शरीर में ही बांध = जज्ब कर देते हैं । (मन, माया, अज्ञान समाप्त होना कहे जाते अवश्य हैं किन्तु इनकी व्यावहारिक सत्ता बनी रहती है । ये व्यष्टि विशेष के द्वारा नियंत्रित तो होते हैं, मरते नहीं है । इनकी गति संसार की ओर से हटकर प्रभु की ओर हो जाती है । यही इनका बांधकर रखना है ।) गुरुमहाराज इस माया रूपी सर्पणी की तीनों दाढ़ों रूपी तीनों गुणों को भी बांध डालते हैं ।(गुणों को साम्यावस्था में कर देना ही उन्हें बांध देना है ।
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जब तीनों गुणों की स्थिति विषम होती है तब ही वे कार्य करने में सक्षम होते हैं अन्यथा साम्यावस्था में तो वे निष्क्रिय ही पड़े रहते हैं । मात्र क्रिया राजस गुण के कारण ही होती है, सत्व तथा तामस तो स्वभावतः ही निष्क्रिय हैं ।) और फिर साधक को संसार में मुक्त रूप से वर्तने के स्वतंत्र कर देते हैं । (जनकादि राजा इसके उदाहरण हैं “कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः” गीता ३/२०) तीन अक्षर रूपी तीनों गुण को मार देते हैं । चौथे मंत्र रूपी रामनाम से माया रूपी सर्पणी का विष रूपी विषय भोगासक्ति को समाप्त कर देते हैं ।
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इससे अज्ञान में जीने वाले जीव ज्ञानवान होकर स्वस्वरुपस्थ हो जाते हैं ।(स्वयं को जानलेना ही आपा संभालना है ।) इस अवस्था में सांसारिक भोगविलासों को प्रति आसक्ति रूपी विष का लेश भी शेष नहीं रह जाता । उल्टे उसकी जिव्हा में रामनाम रूपी अमृत का वास हो जाता है जिससे साधक सिद्ध होकर ब्रह्मसाक्षात्कार की वाणी का उच्चारण करने लग जाता है । “ब्रह्म छकै बाणी बकै, दावी दबै स नाहिं । सिंध तरँग निपजै जिमी, बाणी उपजै ताहि” ॥)
.
परमात्मा ने कृपा करके गुरुदेव रूपी कालबेलिया को इस संसार में भेजा और वह हमारे सौभाग्य से हमारे पास स्वतः ही आ गया । हम विषयभोग रूपी विष को पालने वाले थे । किन्तु गुरुमहाराज ने हमें निर्विष करके रामनाम रूपी अमृत का पान कराया ।
.
उन गुरुमहाराज के पास रामनाम रूपी एक अमर जड़ी है जिसको वे बहुत आदर और सत्कार के साथ अपने मस्तक पर रखते हैं । बषनांजी कहते हैं गुरुदेव दादू ने अमर होने की इस एक औषधि से सबको मरने से बचाकर अमर कर दिया है ॥३८॥
(क्रमशः)

सोमवार, 24 फ़रवरी 2025

॥निश्चय॥

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*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*भरि भरि प्याला, प्रेम रस, अपणे हाथ पिलाइ ।*
*सतगुरु के सदिकै किया, दादू बलि बलि जाइ ॥*
==============
राग रामकली ॥२॥निश्चय॥
म्हारै गुरि कहियौ सोइ करिस्यूँ हो ।
खार समँद मैं मीठी बेरी, करि सूधै घड़िलै भरिस्यूँ हो ॥टेक॥
इहिं कूवै को को पणिहारी, को को लेज न टूटी हो ।
पाणी लगैं पहूँती नांहीं, ठाली ठिलिया फूटी हो ॥
आगैं जो पणिहारी होती, त्याँह नैं गुर भरि दीता हो ।
नीगुणगारी या पणिहारी, रह्यौ पणिहड़ौ रीतौ हो ॥
पाँच तिसाया कुवै खिंदाया, त्याँह की त्रिष्ना भागी हो ।
गुर कौ सब्द छेहड़ै बांध्यौ, लेज पहूँचण लागी हो ॥
अैसा पाणी और न जाणी, जिह पीया तिस भागै हो ।
बषनां नैं गुर दादू पायौ, पीवत मीठा लागै हो ॥३७॥
खार समँद = संसारासक्त शरीर । मीठी बेरी = मीठे जल का कुवा = साधु-सज्जन पुरुषों की संगति । सूधै घड़िलै = शुद्ध हृदय । भरस्यूँ = भजन-भक्ति से शुद्धहृदय को भरुंगा । पणिहारी = संसारी, भेषधारी । लेज = लय-रस्सी । पाणी = रामनाम-स्मरण, भक्ति । ठाली = भक्ति शून्य । ठिलिया = काया । फूटी = खाली रह गई । आगैं जो पणिहारी = साधु-संत, भक्त । पणिहड़ौ = शरीर । पाँच = पाच ज्ञानेन्द्रियाँ । कूवै = सत्संग । छेहड़ै = किनारे पर = हृदय में धारण कर लिया । लेज = लय = वृत्ति । पाणी = नाम, प्रेम । तिस = प्यासा = माया की चाहना ॥
.
मैं वही करुंगा, जिसको करने का मेरे गुरु ने मुझे उपदेश दिया है । मेरे गुरु के उपदेशानुसार मैं मेरे विषयभोगों में आकंठ आसक्त शरीर को आत्मबोध कराने वाली सत्संगति से शुद्ध करके हृदय में रामनाम-स्मरण रूपी भक्ति को स्थापित करुंगा ।
.
इस संसार में जन्मे किस-किस जीव की वृत्ति संसार के लुभावने भोगों को देख-देखकर उनमें आसक्त नहीं हुई है ? अर्थात् आसक्त हुई है और उनकी मनोवृत्ति परमात्मा की ओर से हटी है । उनकी चित्तवृत्ति रामनाम रूपी भक्ति की ओर उन्मुख हुई ही नहीं । परिणामस्वरूप भक्तिशून्यावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गई है ।
.
जो मुमुक्षु परमात्मा के आगै = सन्मुख हो जाते हैं “सम्मुख होहिं जीव मोहि जबही । जन्म कोटि अघ नासहिं तबही ॥” उन्हें गुरु महाराज वैराग्य, भक्ति और ज्ञान सम्पन्न बना देते हैं । जो जीव अवगुणग्राही हैं, अवगुणी हैं, गुरु की शरण का अवलंबन नहीं करते हैं उनका शरीर, अंतःकरण भक्तिशून्य ही रह जाता है ।
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पाँचों ज्ञानेन्द्रियों को संतों का उपदेश सुनने, मनन-चिंतन करने में लगा दीया जिससे संसारी सुखों को प्राप्त करने की तृष्णा उनकी समाप्त हो गई । गुरु महाराज द्वारा प्रदत्त भगवन्नाम रूपी शब्द को वृत्ति के साथ जोड़ दिया जिससे वृत्ति शब्दमय हो गई । शब्द ही परब्रहम है । “तस्य वाचक प्रणवः” ॥योगसूत्र॥ “अक्षराणामकारोऽस्मि” गीता ॥
.
ऐसा साधन भगवन्नाम के अतिरिक्त और दूसरा नहीं है जिसके करने से विनश्वर भोगों को भोगने की तृष्णा का अंत होता हो । बषनां को दादूजी जैसा गुरु मिला है जिनके उपदेश सुनने में, आचरण करने में और परिणाम देने में मीठे ही मीठे लगते हैं ॥३७॥
(क्रमशः)

सोमवार, 17 फ़रवरी 2025

*वियोगानन्तर संयोग*

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*प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आइ ।*
*दादू खेलै पीव सौं, यहु सुख कह्या न जाइ ॥*
==============
*वियोगानन्तर संयोग*
॥साषी लापचारी की॥१ (इसका अर्थ ‘भेष बिन साध कौ अंग’ में देखें ।)
अब मेरे नैंन सीतल भये ।
निरमल बदन निहारत हरि कौ, पाप पुरातन दूरि गये ॥टेक॥
महलि सहेली मंगल गावै, परफूलित अति कवल बिगास ।
अब ऊणारति रही न कोई, मन का मनोरथ पुरवन आस ॥
आनँद आज भयौ मन मेरे, आनँद की निधि नैंनौं जोइ ।
घरि आनँद बाहरि परि आनँद, आनँद आनँद चहुँ दिसि होइ ॥
मेरै रली बधाई मेरै, मेरै प्रीतम संगि सनेह ।
दरसन परि बषनौं बलिहारी, जाणिक दूधाँ बूठौ मेह ॥३६॥
.
लापचारी = इसका शाब्दिक सही अर्थ क्या है, हमारी जानकारी में नहीं है किन्तु गायक किसी पद को गाने के पूर्व पद की विषयवस्तु से साम्य रखने वाली कोई साखी, दोहा, श्लोक आदि बोला करते हैं । संभवतः पूर्वपीठिका, पुरोवाक्, प्रस्तावना ही लापचारी शब्द का प्रसंगतः अर्थ सही हो । पुरातन = संचितकर्मों का नाश हो गया । प्रारब्धकर्मों का नाश भोग से तथा संचितकर्मों का नाश भगवन्नामजप, भगवद्दर्शन से ठीक उसी प्रकार हो जाता है जैसे अग्नि की चिनगी पड़ने पर घास का नाश हो जाता है । ‘क्रीयमाण करिये नहीं, प्रारब्ध कर्म ले भोग । संचित ऊपर भजन करि, यौं छूटै भव रोग ।’ श्रीरामजन वीतराग वाणी ॥ कवल = कमल । ऊणारति = कमी । पुरवन = पूरी करने के लिये । बूठौ = वर्षा हुई ॥
.
परमप्रियतम के मिल जाने पर अब मेरा रोना-धोना बंद हो गया है जिससे मेरे नेत्र शीतल हो गये हैं । प्रियतम के निर्मल मुखकमल को देखते ही मेरे समस्त संचितकर्मों का नाश हो गया है ।
.
शरीर रूपी महल में निवास करने वाली सभी इन्द्रियाँ रूपी सखियाँ आनंदित हुई मंगलाचार करने लगी हैं और हृदय = अंतःकरण आनन्दमग्न हो गया है । अब कोई भी किसी भी प्रकार की कमी शेष नहीं रह गई है क्योंकि मन के मनोरथों को पूर्ण करने वाले परमप्रियतम का मुझे साक्षात्कार हो जो गया है ।
.
आनंद की निधि = परमावधि रूप प्रियतम को नेत्रों द्वारा निहारकर आज मेरा मन आनंद में निमग्न हो गया है मेरे मन में परम आनंद हुआ है । शरीरस्थ हृदय में आनंद है । शरीर के बाहर = व्यवहार पक्ष में परमानंद का अनुभव हो रहा है । चारों ओर आनंद ही आनंद है । चारों अन्तःकरणों में आनंद ही आनंद हो गया है । वस्तुतः जब तक अंतःकरण रहता है तब तक ही अनानंद की स्थिति रहती है । जैसे ही यह परमात्मामय होता है, वैसे ही अखण्डानंद की स्थिति का प्राकट्य हो जाता है ।
.
मुझे परमात्मा की प्राप्ति हो गयी है । मेरे बधाई = आनंद का संचार हो गया है । मेरे चित्त में प्रियतम के प्रति अनन्यप्रीति का संचार हो गया है । परमात्मा के दर्शन पर बषनां न्यौछावर होता है क्योंकि अब ऐसा लग रहा है मानों वर्षा जल की न होकर दूध की हो रही है ॥३६॥
(क्रमशः)

सोमवार, 10 फ़रवरी 2025

*विरह-वियोग ॥*

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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥*
==============
*विरह-वियोग ॥*
आसा रे अलूधी रमइयौ कब मिलै, मिलियाँ हूँ जाण न देस ।
आँचल गहि करि राखिस्यौं रे, नैनाँ म्हारा नीर भरेस ॥टेक॥
राम रहुकौ म्हारौ मनि बस्यौ, बीसार्यौ नहिं जाइ ।
जे कबहूँ दिन बीसरौं रे, तौ रैंणि खटूकै आइ ॥
जे सोऊँ तौ दोइ जणाँ रे, जे जागूँ तौ येक ।
सेज ढढोलुँ पिय ना लहूँ, म्हारै पड्यौ कलेजै छेक ॥
बार लगाईं बालमा रे, बिरहनि करै बिलाप ॥
कोइ यक आडौ ह्वै रह्यौ, म्हारौ पुर्व जनम कौ पाप ॥
बालपणा तैं बाटड़ी, बूढापा लग दीठ ।
कहि बषनां आवो हरी, म्हारा बलता बुझै अंगीठ ॥३५॥
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अलूधी = अटकी । आँचल = वस्त्र । रहुकौ = रहवास, निवास । खटूकै = खटकता है, स्मृति में आता है । ढढोलुँ = ढूंढूँ । छेक = छिद्र । बार = देरी । आडौ =प्रतिबंधक । बाटड़ी = आने की राह । दीठ = देखी है । बलताँ = जलती हुई । अंगीठ = हृदय रूपी अंगीठी विरह रूपी अग्नि से जलता हुआ रुक सके । बलता क्रिया के आधार पर अंगीठ = अंगों के लिये प्रयुक्त हुआ भी माना जा सकता है । तब इसका अर्थ होगा, विरहाग्नि में जलते मेरे अंग-अंह शीतल हो जायेंगे ।
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परम-प्रियतम रमैया मुझे कब मिलेगा, मेरे मन की वृत्ति बस इसी आशा = विचार में अटकी पड़ी है । मेरा दृढ़ निश्चय है कि मिलने पर मैं उसे पुनः जाने नहीं दूंगी । यदि वह जाने का आग्रह करेगा भी तो मैं नेत्रों में आँसुओं को भरकर रो-रो कर, बिसूर-बिसूर कर उसके हृदय को पिघलाकर तथा उसका आँचल दृढ़ता से पकड़कर उसे रख लूंगी अर्थात् जाने नहीं दूंगी ।
.
रामजी का निवास मेरे हृदय में होना ही चाहिये यह बात मेरे हृदय में अच्छी तरह बस गई है । इसे मैं विस्मृत करना चाहूँ तब भी विस्मृत नहीं कर सकती । कदाचित् लोकव्यवहार को पूरा करते समय दिन में मैं उसे भूल भी जाती हूँ तो रात्रि में वह स्वतः ही मेरी स्मृतिपटल पर प्रकट हो जाता है ।
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वस्तुतः जब मैं सोती हूँ तब मेरे रोम-रोम में उसकी ही स्मृति रहने से हम दो जने होते हैं किन्तु जब जागती हूँ तब बाह्यतः मैं अकेली ही रह जाती हूँ । प्रियतम को न पाकर मैं व्याकुल हुई सेज = पलंग पर उसको ढूंढती हूँ किन्तु वह वहाँ हो तो मिले । वह मिलता नहीं है । परिणामस्वरूप मेरा हृदय छलनी-छलनी हो जाता है ।
.
हे प्रियतम ! तूने आने में अत्यन्त विलम्ब कर दिया है । विरहनी तेरे न आने के कारण बिलाप कर रही है । ऐसे अनुभव होता है कि तेरे न आने में मेरे पूर्वजन्म के किसी या किन्हीं पापों ने आड़ लगा रखी है, वे प्रतिबन्धक बने हुए हैं ।
.
बषनां कहता है, निवेदन करता है, मैंने आपके आने की राह बाल्यावस्था से इस वृद्धावस्था तक देखी है । अतः हे हरि ! आओ और मुझे दर्शन देकर मेरे हृदय में जल रही विरह रूपी अग्नि की अंगीठी को शांत करो ॥३५॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2025

*सुमिरण ॥*

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*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*अति गति आतुर मिलन को,*
*जैसे जल बिन मीन ।*
*सो देखे दीदार को, दादू आतम लीन ॥*
=============
*सुमिरण ॥*
मन मेरे सुमरि सुमरि गुण गाइ ।
लख लोग कहौ लख बाताँ अैसी आई दाइ ॥टेक॥
केसरि का छापा अरु टीका, को इहिं मति भरमि भुलाइ ।
पवन की डोरी रसन कौ मनियौं, चित कै चाइ फिराइ ॥
जल मैं मीन जुगति तत पाखैं, ग्यान बिहूणौं न्हाइ ।
हरि कौ सुमिरण हिरदै नांही, तौं कियौ अबिरथौ जाइ ॥
जैसी चकोर चूँप ससि राखै, अैसी प्रीति बनाइ ।
बषनां कहै राम किन सुमिरौ, हरि चरणौं ल्यौ लाइ ॥३४॥
.
मेरे मन में इस प्रकार की दाइ = इच्छा जागृत हुई है की चाहे लाखों लोग लाखों प्रकार की बातें क्यों न कहें किन्तु उन पर विचार न करके परब्रह्म परमात्मा के गुणों को याद कर-करके स्मरण करूँ ।
.
मस्तक पर केशर-चंदन के तिलक और हाथादि अन्य अंगों पर छाप लगाने के भ्रम में ही किसी को भ्रमित नहीं होना चाहिये । परमात्मा के प्राप्त्यर्थ तो पवन = श्वास-प्रश्वास के धागे और जिव्हा के मणियों की माला बनानी चाहिये ।
.
फिर तो उस माला को चित्त में प्रबल चाह उत्पन्न करनी फेरनी चाहिये । हरि का स्मरण बिना ज्ञान का आश्रय लिये हृदय से न करने पर वह उसी प्रकार व्यर्थ चला जाता है जिस प्रकार जल में मछली का स्नान बिना नहाने की युक्ति और तत्त्व जानने के कारण चला जाता है ।
.
वस्तुतः भगवद्स्मरण में लगन ठीक उसी प्रकार लगानी चाहिये जिस प्रकार चकोर की एकान्ति की चूँप = चाह = स्पृहा चन्द्रमा को प्राप्त करने की रहती है । बषनां कहता हैं, रामजी के चरणों में लय लगाकर क्यों नहीं उसका स्मरण करते हो ॥३४॥
(क्रमशः)

बुधवार, 29 जनवरी 2025

*अविगत-ब्रह्म-विचार ॥*

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*बहुत प्रशंसा करि कहूँ, हौं प्रभु अति अज्ञान ।*
*पूजा विधि जाणत नहीं, शरण राख भगवान ॥*
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*अविगत-ब्रह्म-विचार ॥*
कौंण जाणैं को गति तेरी, हौं न जाणौं हो देवा ।
जिहिं पूजा परम गुर पाऊँ, करि नहिं जाणौं सेवा ॥टेक॥
भगती भली कि भजन भलेरा, तप तीरथ जिव जाणैंलौ ।
या मेरै पैं कही न जाई, किन बातैं मन मानैंलौ ॥
इहिं धोखै मोरा मन डरिया, कैसी कछणी काछैलौ ।
न जाणौं वो रंग सुरंगा, काहू कै रंगि राचैलौ ॥
अनेक अनेक चरित ये तेरे, बहुत भाँति बुरावैलौ ।
हरि हरि ही बषनां बलिहारी, तुम देख्याँ सच पावैलौ ॥३३॥
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हे देव ! आपकी गति का स्वरूप क्या है इसको कौन जान सकता है ? निश्चय ही मैं तो नहीं जानता ।
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मैं उस प्रकार की सेवा करना भी नहीं जानता जिस प्रकार की सेवा-पूजा करने से गुरुओं के भी परमगुरु स्वरूप आप स्वयं की प्राप्ति होती है ।
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इस बात का निर्णय करने में मैं सर्वथा असमर्थ हूँ कि परब्रहम परमात्मा की गति भक्ति अथवा भजन अथवा तपस्या अथवा तीर्थों के सेवन से जानी जा सकती है । साथ ही मैं इस बात को स्पष्ट करने में भी असमर्थ हूँ कि अंततः मेरा संसारासक्त मन इनमें से किस साधन से अचंचलत्त्व को प्राप्त होगा ।
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यह मेरा मन किस कछणी = वस्त्र = मार्ग पर काछैलौ = पहनेगा = चल पड़ेगा, इस धोखै = संशय के कारण भी मेरा मन डरा जाता है । मैं इस बात को भी नहीं जानता कि यह रंग-सुरंगा = नाना-विषय भोगों में आसक्त मन किस रंग में रंगेगा ।
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वस्तुतः हे देव ! तेरे तरह-तरह के अनेकों कारनामे = ऐश्वर्यमयी लीलाएँ मेरे चित्त को बहुत प्रकार से बौरावैलौ = भ्रांत कर रहे हैं । अतः हे हरि ! बस, आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं । मैं आप पर बलिहारी जाता हूँ और सच-सच कहता हूँ कि आपके दर्शन पाने पर ही मुझे सत्य की जानकारी होगी ॥३३॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

*भ्रमविध्वंश ॥*

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*माया का ठाकुर किया, माया की महामाइ ।*
*ऐसे देव अनंत कर, सब जग पूजन जाइ ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
दुनिया झाँवर झोलि अलूँझै, ताथैं साहिब राम न सूझै ॥टेक॥
बीझासणि कौ झालरि पहर्यौ, मूरिख राति जगाई ।
दोस बराज कछू नहिं कीनौं, बेचि काल मैं खाई ॥
तेल बाकुला भैरौं चाढै, बाकर को कान काटै ।
पूजा चढै सु भोपी लेगी, रहती कूकर चाटै ॥
सिर पर मेल्हि अगीठी बलती, देवी कै मँढि चाली ।
खानि पानि सब सौं मिलि बैठी, नरक कुंड मैं घाली ॥
दई देवता का जे सेवग, दिया नरिक ले गाढै ।
संकट चौथि सँकड़ा की राणी, तो जाणौं जे काढै ॥
कीया बरत अहोई आठै, देवी दावणि बाधा ।
ह्वैसी सहीं सील का बाहण, के गदही के गाधा ॥
भोपी हुई उबासी मारै, दोस दुनी कौं करती ।
पकड़ि नाक काट्यौ कुटणी कौ, सास न काढै डरती ॥
के गूगा का के गुसाँई का, के काँवड का ह्वैसी ।
बेस्वाँ के घरि बालक जायौ, पिता कवन सौं कहसी ॥
यक की नहीं घणाँ की हूई, दीसैं बहु भरतारी ।
बषनां कहै कौंण संगि बलसी, घणपुरिषाँ की नारी ॥३२॥
बषनांजी इस पद में नाना भ्रमों का वर्णन करते हैं जो सांसारिक लोगों के मनों में अपनी जड़ जमाकर बैठे हुए हैं । उन्होंने इन भ्रमों को “झाँवर झोलि” कहा है जिसका तात्पर्य अन्यतत्त्व में अन्यतत्त्व की प्रतीति है । रस्सी को रस्सी न जानकर सर्प जान लेना, शुक्ति को शुक्ति न जानकर रजत रूप में जानना इसके उदाहरण हैं । संसारी जन सांसारिक विषय-भोगों, जो शाश्वत नहीं है को चिर सुखद जान व मानकर उनके संपादन व भोग में ही अपने अमूल्य मनुष्य जन्म को खो देते हैं जबकि चिरशाश्वत व अखंडानंद स्वरूप परब्रह्म-परमात्मा की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं ॥
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दुनिया भ्रम में फँस जाती है । इसलिये उसे रामजी नहीं सूझते हैं । मूर्ख = भ्रमित लोग बीजासण देवी की आकृति चांदी में उकरवाकर उसका झालरा बनाकर गले में इस भावना से पहनते हैं कि देवी हमारी रक्षा करेगी तथा कुछ भी अनिष्ट नहीं होने देगी । इसके अतिरिक्त वे उसके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण भी करते हैं किन्तु अकाल पड़ जाने व भोजन के भी लाले पड़ जाने पर उस झालरे को बेचकर उदरपूर्ति की व्यवस्था कर लेते हैं । उस स्थिति में बीजासण देवी कुपित(नाराज) होकर कुछ भी दोष नहीं करती । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवी का झालरा पहनना, उसके निमित्त रात्रिजागरण करना व्यर्थ है क्योंकि इसके कारण न तो वह प्रसन्न होती है और न अप्रसन्न ही होती है ।
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भैरव के प्रसन्नार्थ संसारी लोग तैल तथा बाकला = भीगे हुए अन्न चढ़ाते हैं । बकरे की बलि कान काटकर करते हैं । (जो लोग निरामिष होते हैं वे देवी-भैरवादि के निमित्त बकरे को न काटकर उसके कान मात्र को काटकर देवी के चढ़ाते हैं तथा बकरे को स्वेच्छया विचरण करने को स्वतंत्र कर देते हैं ।) भैरव के सामने जो भेंट आदि चढ़ती है उसे तो भोपी = पुजारिन ले जाती है जबकि शेष बचे तैलादि को कुत्ते चाट जाते हैं । बताइये ! समर्पित उक्त सामग्री का कौनसा अंश भैरव को मिला । कुछ नहीं । वस्तुतः भोपे भोपियों ने अपनी उदरपूर्ति हेतु ही इस भ्रमजाल को फैला रखा है । न तो भैरव भेंटादि चढ़ाने से प्रसन्न होता है और न न चढ़ाने से अप्रसन्न ही होता है ।
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कुछ औरतें शिर पर जलती अंगीठी रखकर देवी के मन्दिर में जाती हैं । वहाँ माँसादि रांधती तथा सबके साथ मिल बैठकर-खाती-पीती हैं और जीवहिंसा के फलस्वरूप उत्पन्न पापों के प्रभाव से अंत में नरकों में जाने का रास्ता तैयार कर लेती हैं । देवी-देवताओं के सेवकों को मोक्ष न मिलकर अंत में भंयकर नरकों की कठिरतम यंत्रणाएँ ही मिलती हैं । “अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यांति मामपि ॥” गीता ७/२०-२३ तक ॥
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बषनांजी दृढ़तापूर्वक कहते हैं, यदि संकष्टचतुर्थी (माघ कृष्णा चतुर्थी की अधिष्ठातृ देवी संकड़ा की राणी (शंकर की पत्नी) अपने उक्त सेवकों को नरकों में न जाने देकर उनका उद्धार कर दे तो मैं जानूँ कि वास्तव में वह कुछ कर सकने में समर्थ है ।
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स्त्रियाँ अहोई अष्टमी = शीतला-अष्टमी का व्रत करती हैं । उसके मंदिर में जाकर मनोकामना पूर्ति हेतु दावणि = धागा बांधती है (अनेकों स्थानों पर मनोकामना पूर्ति हेतु धागा बांधने की परम्परा है । रामनिवासधाम शाहपुरा में भी वह रीति प्रचलित है) किन्तु ऐसे देवी के सेवक-सेविकाएँ शीतलादेवी के वाहन या तो गधे या गधी ही बनते हैं । उनको पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं मिलता ।
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कुछ स्त्रियाँ भैरव आदि की सेविकाएँ बनकर भोपी बन जाती हैं और अपने शरीर में भैरवादि की छाया आने का प्रचार कर नाना प्रकार के ढोंग करती है(उबासी लेती हैं ।) संसारियों द्वारा पूछे जाने पर भैरवादि का दोष बताती है । उनके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण, बलि, भोग आदि करने का उपाय बताती है किन्तु जब उसी कुटणि = ढोंगी भोपी की नाक काट ली जाती है तब डर के कारण उफ भी नहीं करती है । यदि जरासी भी ननुनच करे तो उसका प्रभाव भोली दुनिया पर से उठ जावे । इसकारण वह चुपचाप नाक कटने को सहन कर लेती है । कहने का आशय यह है की यदि उसमें भैरवादि की छाया यथार्थ में आती है तो नाक काटने वाले को वह दंड देने में समर्थ हो सके किन्तु ऐसा वह कर नहीं पाती जिससे सिद्ध होता है कि वह मात्र ढोंग करती है ।
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संसारी लोग मनोकामना पूर्ति हेतु गोगाजी चौहान के सेवक बन जाते हैं, याँ गुसाँइयों के अनुयायी बन जाते हैं अथवा काँवड़ = रामसा पीर के कामड़ बन जाते हैं किन्तु इनसे परमार्थ का साधन लेशमात्र भी नहीं सधता है । परब्रह्म परमात्मा के दरबार में इनकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसी वेश्या के घर में जन्मे बालक की होती है । क्योंकि वैश्या का एक पति नहीं होता है जिसको कि बालक पिता कह सके ।
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वैश्या एक की पत्नी न होकर अनेकों पुरुषों की स्त्री बनती है । अतः अनेकों पुरुषों की स्त्री वह वैश्या किसी के भी साथ सहगमन(जौहर) नहीं कर पाती क्योंकि आखिर वह किस-किस के साथ सहगमन करे । ऐसे ही अनेकों देवी-देवों को मनाने वाले भ्रमित चित्त वाले संसारी किस-किस देव के लोक में जाएँ । वे किसी में भी नहीं जा पाते और इस संसार में ही पुनरपि जननं पुनरपि मरणं के चक्र में पड़े रहते हैं ॥३२॥
(क्रमशः)

रविवार, 5 जनवरी 2025

*खलजन वंदना ॥*

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*दादू निन्दक बुरा न कहिये,*
*पर उपकारी अस कहाँ लहिये ।*
*ज्यों ज्यों निन्दैं लोग विचारा,*
*त्यों त्यों छीजै रोग हमारा ॥*
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*खलजन वंदना ॥*
निंदक जिनि मरै रे, पीछै निंद्या करैगौ कौंण ।
ठर्यौ भर्यौ गलिबौ करै, ज्यूँ पाणी मैं लौंण ॥टेक॥
धोबी धोवै कापड़ा रे, निंदक धोवै मैल ।
भार हमारा ले चलै, ज्यूँ बणिजारा कौ बैल ॥
हम गुण गावैं गोबिंद का रे, निंदक औगुण गाइ ।
हमकौं पार उतारि करि, आप रसातलि जाइ ॥
हम कौं जाइ हरि सुमिरताँ रे, उस औगुण बारंबार ।
निंदक चलणी ह्वै रह्यौ, तुस का राखणहार ॥
निंदक कौं साबासि है रे, भरी हथाई मांहिं ।
परमेसर कौं भूलि गया, परि निंद्या भूला नांहिं ॥
निंदक कूँ आठौं पहर, निंद्या ही सौं काम ।
हरिजन के हिरदै बसै, बषनां केवल राम ॥३१॥
यहाँ परम्परा जीवित रहती है । बषनांजी कहते हैं, हम चाहते हैं, हमारी निन्दा करने वाला निंदक कभी भी न मरे । (व्यक्ति विशेष तो मरता ही है किन्तु उसकी परम्परा जीवित रहती है । यहाँ परम्परागत निंदक से ही तात्पर्य है) क्योंकि उसके मर जाने पर हमारी निंदा करके हमें सावधान कौन करेगा ? जिस प्रकार सुरक्षित पात्रों में भरा हुआ नमक भी पानी का संसर्ग होते ही गल जाता है उसी प्रकार निंदकों द्वारा सावधान न किये गये साधक भी बहुत जल्दी ही साधनमार्ग से पतित हो जाते हैं ।
.
धोबी कपड़ों को धोते हैं । निंदक पापों का नाश करते हैं । वस्तुतः निंदक साधक के पापों को ठीक उसी प्रकार साधक के शिर से हटाकर अपने ऊपर ले जाते हैं जिस प्रकार बणजारे के बैल सामानों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं ।
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हम तो(साधक तो) गोविन्द के गुणों का गायन करते हैं जबकि निंदक हमारे अवगुणों का कथन करते हैं । वस्तुतः ऐसा करके निंदक हमारा तो उद्धार कर देता हैं किन्तु स्वयं रसातल = नरकगामी होता है ।
.
हमारा सारा समय तो हरि का स्मरण करते हुए व्यतीत होता है जबकि निंदक का समय अवगुणों का बारंबार चिंतन करने में व्यतीत होता है । वस्तुतः निंदकों का आचरण उस चलनी के सदृश अवगुणग्राही है जो आटे को तो अपने में से निकाल देती है और तुसों को अपने भीतर में रख लेती है ।
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निंदक को भरी चौपाल में हमारी ओर से धन्यवाद है । वह परमेश्वर को तो भूल जाता है किन्तु निंदा करने को नहीं भूलता है ।
.
निंदकों को आठों प्रहर(चौबीसों घंटों) निंदा करने का ही काम रहता है जबकि भक्तों के हृदय में केवल मात्र रामजी ही बसते हैं ॥३१॥

शुक्रवार, 3 जनवरी 2025

*राम-रंग ॥*

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*हरि रंग कदे न ऊतरै, दिन दिन होइ सुरंगो रे ।*
*नित नवो निरवाण है, कदे न ह्वैला भंगो रे ॥*
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*राम-रंग ॥*
राम रँगै रँग लाया रे ।
सहजि रँग्या रँगि आया रे ॥टेक॥
ररैं ममैं की भाँति लगाईं ।
तिहि रँगि तौ रैंणी रँगि आई ॥
प्रेम प्रीति का बेगर दीया ।
हरि रँग माँहै मन रँगि लिया ॥
अैसौ रंग लगायौ कोई ।
सो रँग रह्यौ घुलावट होई ॥
खोल्यौ खुलै न धोयौ जाई ।
अबिनासी रँग लियौ लगाई ॥
चित चहुँ दिसि थैं निर्मल कीया ।
तब बषनां रामि बहुत रँग दीया ॥३०॥
.
मेरे द्वारा मुझ स्वयं को राम-नाम-साधना रूपी रंग में रंगा जाना वास्तव में रंग लाया । रंगने रूपी साधना में अधिक परिश्रम करने की आवश्यकता तो पड़ी ही नहीं, उसमें किसी तरह के कोई विघ्न भी नहीं आये । अतः मन रूपी कपड़ा सहज में ही रामनाम साधना रूपी रंग में रंग = संलग्न हो गया ज्सिका परिणाम भी श्रेष्ठतम आया । सर्वप्रथम रामनाम की रटन रूपी किस्म (डिजाइन, प्रारूप) तैयार की । फिर अहर्निश रामराम रटन रूपी साधना में रैंणी रूपी सुरति = वृत्ति भी रंग गई ।
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उस साधना रूपी रंग को पक्का करने के लिये उसमें भगवत्-प्रेम प्रीतिमय भक्ति रूपी बेगर = सहायक द्रव्यों की चाट (यथा फिटकरी वगैरह का सम्मिश्रण) दी । पश्चात् हरि की प्रेमाभक्ति में मन को सरोवर कर लिया । गुरुमहाराज ने मेरे मन में ऐसी रंग = रूचि उत्पन्न कर दी है कि वह दिन-प्रतिदिन घटने = हल्की होने के स्थान पर उल्टे अधिक चमकदार = परिपक्व ही होती है ।
.
मेरे मन पर मैंने अविनाशी रंग लगा लिया है जो हटाने पर हटता नहीं और धोने पर धुलता नहीं । चित्त को चारों ओर से हटाकर निर्मल = विषयवासना रूपी मलों से विनिर्मुक्त कर लिया है जिसके कारण रामजी ने कभी भी क्षय न होने वाला रंग रूपी अपना सानिध्य प्रदान किया है ॥३०॥
(क्रमशः)

सोमवार, 30 दिसंबर 2024

*सांसारिक ऐश्वर्यादि की नश्वरता ॥*

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*ऐसो राजा सोई आहि,*
*चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।*
*दादू ताकी सेवा करै,*
*जिन यहु रचिले अधर धरै ॥*
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*सांसारिक ऐश्वर्यादि की नश्वरता ॥*
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पिरथी परमेसर की सारी ।
कोइ राज अपनैं सिर ऊपरि, भार लेहु मति भारी ॥टेक॥
पिरथी कारणि कैरौं पांड़ौं, करते झूझ दिनाई ।
मेरी मेरी करि करि मूये, निहचै भई पराई ॥
जाकै गिरह पाइड़ै बांध्यै, कूवै मींच उसारी ।
ता रावण की ठौर न ठाहर गोबिन्द गरब प्रहारी ॥
केते राजा राज बईठे, केते छत्र धरैंगे ।
दिन द्वै चारि मुकाम भया है, फिरि भी कूच करैंगे ॥
अटल एक राजा अबिनासी, जाकी लोक अनंत दुहाई ।
दादू१ कह पिरथी है ताकी, नहीं तुम्हारी भाई ॥२९॥१
(१.दोनों हस्तलिखित प्रतियों में इस पद की छाप बषनां के स्थान पर दादू ही मिली है । मंगलदासजी की पुस्तक में छाप बखनां है)
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यह सारी पृथिवी परमेश्वर की है । इसका असली और एक छत्र स्वामी परमेश्वर है । किसी भी राजा को इसे अपनी निजी सम्पत्ति मानकर अपने शिर पर भारी भार नहीं लेना चाहिये ।
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वस्तुतः अपनी मानने के कारण अनेकों लोगों का दमन-नियंत्रण करना पड़ता है । दमन करने में प्रजाजनों को शारीरिक, मानसिक सभी प्रकार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है जिसका पाप राजा को लगता है और परलोक में उस पाप को भुगतना पड़ता है । इस पृथिवी के लिये ही कौरव तथा पांडव दिन-प्रतिदिन युद्ध किया करते थे । वे दोनों ही इसको मेरी-मेरी कहते-कहते ही मार गये किन्तु आगे जाकर निश्चय ही यह उनकी न रहकर पराई = दूसरों की हो गई ।
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जिसकी चारपाई के पाये से नौ ग्रह बंधे रहते थे, जिसने मृत्यु को कूवे = पाताल में भेज दिया था, उस रावण की ठौर = पृथिवी का आज नामोनिशान तक नहीं है । वस्तुतः गोविन्द गर्वप्रहारी है । वह उस व्यक्ति के गर्व को यथासमय समाप्त कर देता है जो उस परमात्मा की वस्तु को बिना उसके दिये अपनी मानता है । “तैर्दात्तानप्रदायैम्यो यो भुङ्क्तेस्तेन एव सः” ॥ गीता ३/१२ ॥
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कितने ही राजा राजसिंहासन पर आसीन हुए हैं । कितने ही आसीन होंगे । उन सभी का दो चार दिन = कुछ समय ही इस पृथिवी पर रहना हुआ है और जो आगामी समय में छत्रधारण करेंगे वे भी अंततः यहाँ से प्रस्थान करेंगे ही ।
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वास्तव में अटल = अविनाशी राजा एकमात्र रामजी है जिसका राज पृथिवी लोक में ही नहीं अनंत लोकों में है । हे राजा लोगों ! यह पृथिवी तुम्हारी नहीं है । यह तो परमेश्वर की है इसे अपनी मानकर व्यर्थ ही अपने ऊपर भार मत बढ़ाओ ॥२९॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

*परब्रह्म-परमात्मा की सर्वसमर्थता ॥*

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*दादू समर्थ सब विधि सांइयाँ,*
*ताकी मैं बलि जाऊँ ।*
*अंतर एक जु सो बसै, औरां चित्त न लाऊँ ॥*
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*परब्रह्म-परमात्मा की सर्वसमर्थता ॥*
हूँ बारी रे गुर अपणा ऊपरि, जिन यहु चटा पढ़ाया ।
लिषणा चुखणा ठाँवाँ ठेका, घट ही माहिं बताया ॥टेक॥
लांबी लेखणि लांबा कागद, लांबा लिखणैंहारा ।
वोछा लेखा कदे न मांडै, साचा धनी हमारा ॥
दरिया दोति पार मसि नाहीं, सारूँ कौं लिखि देसी ।
असा बिणज ब्यौपार करीज्यौ, अंति वै लेखा लेसी ॥
तीनि लोक जाकै लिखि मेल्है, अणलिखिया कछु नाहीं ।
रज रज रती रती करि तिल तिल, सब है लेखै माहीं ॥
ना कछु घटै बधै कछु नाहीं, ताका लिखिया होई ।
अनत लोक परि लेखणि ताकी, बषनां साहिब सोई ॥२८॥
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बारी = न्यौछावर । चटा = विद्या, चटशाला = विद्यालय । चुखणा = पढ़ना, व्यवहार में बोला जाने वाला युग्म शब्द “लिखना-पढ़ना” । ठाँवाँ = यथार्थ । ठेका = स्थान, टिकने का स्थान । वोछा = अधूरा । दोति = दावात, स्याहीपात्र । असि = स्याही ।
.
भारत में एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है, भगवान् के यहाँ पोपा बाई का राज नहीं है । वहाँ छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सभी घटनाएँ दर्ज होती है और वह सभी पर सम्यक् विचार करके निर्णय करता है । वह इतना महान सामर्थ्यवान है कि उसके यहाँ तिलमात्र के बराबर भी घालमेल नहीं होता । इन्हीं विचारों को इस पद में व्यक्त किया गया है ।
.
मैं अपने गुरुमहाराज पर न्यौछावर होता हूँ जिन्होंने मुझे अग्रांकित विद्या पढ़ाई है = विवेक प्रदान किया है । उन्होंने लिखने-पढ़ने का यथार्थ स्थान घट = शरीर के भीतर ही हृदय को बताया है ।
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उस महान लिखने वाले परमात्मा के हाथ में लिखने के लिये लेखनी बहुत बड़ी है तो लिखने में काम आने वाला कागज भी बहुत बड़ा है । मेरा सच्चा स्वामी कभी भी आधा-अधूरा लेखा नहीं लिखता ।
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लिखने के उपकरणों में उसके पास समुद्र के समान अपरिमित परिमाणवाले दावात है और उसमें रखी जाने वाली स्याही भी अपरिमित है । जो लिखने योग्य सभी बातों को लिख लेने के लिये पूर्णतः पर्याप्त है ।
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हे अचेत = असावधान मानव ! तू ऐसा वाणिज्य-व्यापार = कार्य कर जिससे तुझे धर्मराज के सामने किसी प्रकार की कोई भी असुविधा न हो क्योंकि मरने पर धर्मराज समस्त लेखों को पढ़कर ही उनके अनुसार अच्छा-बुरा फल प्रदान करेगा ।
.
वह तीनों लीकों के जीवों के कार्यों को अपने यहाँ लिखकर रखता है । बिना लिखा कुछ भी नहीं रहता है । मिट्टी के कण के बराबर छोटे-छोटे कर्म भी तिलतिल = विगतवार उसके यहाँ रखे जाने वाले लेखों में दर्ज होता है ।
.
उसके द्वारा लिखे लेखों में से न कुछ घटता है और न कुछ बढ़ता है । लोक अनंत है फिर भी उसके यहाँ सभी के लेख लिखे जाते हैं । किसी को छोड़ा नहीं जाता । बषनांजी कहते हैं, जो इतना महान् सामर्थ्य वाला है, वही मेरा स्वामी है ॥२८॥
(क्रमशः)

सोमवार, 23 दिसंबर 2024

*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*

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*मन मतवाला मधु पीवै, पीवै बारम्बारो रे ।*
*हरि रस रातो राम के, सदा रहै इकतारो रे ॥*
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*परिचय, आत्मसाक्षात्कार ॥*
अवधू पीवै रे दरवारि दरीबै, मन मेरा मतिवाला ।
राम रसाइन तुक इक चाख्या, नख सिख निकसी झाला ॥टेक॥
‘बोरजड़ी’ बाढ़ी बसि कीया, कस्स कसौटी डाल्या ।
मीठा सबद गुरु मेरे का, गुड़ गोली मैं गाल्या ॥
अरध उरध बिचि भाठी चाढ़ी, ब्रह्म अगनि जागाणी ।
बलै बिकार सुषमना पोतै, प्रेम प्रीति का पाणी ॥
जतन जड़ी जब धार धरवरी, तहँ सुरति कचोली लाई ।
उनि भरि दीया मैं भरि पीया, सुधि बुधि रही न काई ॥
कोड़ि कोड़ि का गड़वा भरिया, ‘छिलती’ छाक छिकाऊ ।
घर के माचि बाहर के माचे, गिरि गिरि पड़ैं बटाऊ ॥
जब मन जाइ दरीबै बैठा, हरि रस की मतिवाली ।
बषनां हाथि बारुणी सोहै आरति करै कलाली ॥२७॥
पाठान्तर : बोरजड़ी = बोरझड़ी, छिलती = * (मंगलदासजी की संपादित पुस्तक में), अवधू = जो प्रकृति के समस्त विकारों का अवधूनन = त्याग कर चुका हो । योगियों को सम्बोधित करने के लिये प्रयुक्त शब्द । दरिबै = आंगन, खुला स्थान । टुक = थोड़ा सा । झाला = दीप्ती । बोरजड़ी = बेर की कंटीली झाड़ी, विषय भोगों का बीहड़ जंगल । बाढी = बढ़ गई है; बाढ़ना = काटता । कस्स डाल्या कसौटी = कसौटी पर कस डाला । गुड़ गोली में गाल्या = गुड़ रूपी बुद्धि में घुला-मिला दिया । अरध-उरध = मूलाधारचक्र-सहस्त्रारचक्र : भाठी = भठ्ठी । चाढ़ी = चेताई । जागाणी = जागृत की । बलै बिकार = विषय विकार जल गये । पोतै = सुषुम्ना नाड़ी में पहुँचता है । सुषुम्ना = सरस्वती का प्रतीक मानी गई है, गंगा ईड़ा तथा पिंगला = यमुना का प्रतीक मानी गई है । धरवरी = चूने लगी । कचोली = कटोरी । कोड़ि-कोड़ि = करोड़ों-करोड़ों । गडवा = लोटा । यहाँ शरीर के प्रत्येक रोम रोम को भरा, से तात्पर्य । छिलती = स्त्रवित होती हुई । छाक = भोजन । छिकाऊ = तृप्ति । माचि, माचे = तृप्त हुए । बटाऊ = राहगीर, असम्बद्ध । कलाली = बुद्धि ।
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हे अवधू ! मेरा मतवाला मन राम-रसायन को दरबारि – दरीबै = परमात्मा द्वारा निर्मित इस संसार में खुलेआम पीता है ।(संतों ने अपनी वाणियों में सूरातण = शूरवीरत्व का अंग लिखा है जिसमें प्रायः साधक को शूरवीर मानकर उसके शूरवीरत्व का वर्णन होता है । शूरवीर अपने शत्रुओं से खुले में, चौड़े में लड़ाई करता है । साधक कभी भी लुकछिपकर साधना नहीं कर पाता । उसे संसार को छोड़कर; संसार में रहते हुए ही साधना करनी पड़ती है । यही दरीबै में पीना है ।) जब मैंने इस रामरसायन का जरा सा ही अंश पिया तब पैर से लेकर शिर तक पूरे शरीर में एक विशिष्ट दीप्ती उत्पन्न हो गई ।
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परमात्मा में सर्वतोभावेन प्रीति हो गई । मन में विषयों के प्रति आसक्ति बढ़ी हुई थी किन्तु इस रामरसायन ने उस मन को भी उनसे हटाकर अपने में आसक्त कर लिया । “मन बस करण उपाय नाम बिन दूजा नाहीं ।” और उसको कसौटी पर कस डाला ।
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उसको उन आदर्शों पर चलने के लिये बाध्य किया जिनपर उसको चलना साधणामार्ग में परमावश्यक था । मैंने मेरे गुरुमहाराज के मीठे = हितकारी उपदेशों को गुड़ रूपी बुद्धि में गला दिया, एकमेक कर दिया । नीचे से लेकर ऊपर तक एक भट्टी का निर्माण किया जिसमें ब्रह्म = विरह रूपी अग्नि विषय-विकार रूपी ईंधन को जलाकर प्रज्ज्वलित की और सुषुम्ना नाड़ी में भगवद्-प्रेम-प्रीति = भगवद्भक्ति का जल पहुँचाया ।
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साधना रूपी जड़ी की जब धारा स्त्रावित होने लगी तब सुरति रूपी कटोरी में उसे सुरक्षित झेल लिया । गुरु महाराज की कृपा ने मेरे अंदर रामरसायन का उक्त विधि से भंडार भर दिया जिसको मैंने छक कर पिया ।
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अब मुझे संसार और संसार के समस्त भोग विलासों की तनिक भी सुध-बुध नहीं रही है । मैं पूर्णरूपेण रामरसायन पीने में निमग्न हो गया हूँ । मेरे रोम-रोम में रामरसायन = रामनाम समा गया है । इस स्त्रावित होते रामरसायन रूपी छाक = भोजन से मैं पुर्णतः छिकाऊ = तृप्त होता हूँ । इस रामरसायन से घर के = आतंरिक और बाहर के = बाह्य = सभी अंग-प्रत्यंग तो तृप्त हुए ही हैं, बाहर के बटाऊ लोग = राहगीर लोग = सत्संगी लोग भी मदमस्त होकर इसी में लोट-पोट = निमग्न हो गये हैं ।
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बषनांजी कहते हैं, जब साधक का भगवद्-रस-लीन-मन हाथ में रामरसायन रूपी वारुणी लेकर दरीबे में बैठा तब कलाली उस पर न्यौछावर होकर उसकी आरती करते लगी ॥
(क्रमशः)