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शनिवार, 27 जुलाई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४४

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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४४)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
============
*४४४.*
*तेरी आरती ए, जुग जुग जै जै कार ॥टेक॥*
*जुग जुग आत्म राम, जुग जुग सेवा कीजिये ॥१॥*
*जुग जुग लंघे पार, जुग जुग जगपति को मिले ॥२॥*
*जुग जुग तारणहार, जुग जुग दरसन देखिये ॥३॥*
*जुग जुग मंगलचार, जुग जुग दादू गाइये ॥४॥*
*इति राग धनाश्री संपूर्ण ॥२७॥*
*॥ इति श्री दादूदयालजी महाराज की वाणी संपूर्ण समाप्त ॥*
.
हे निरंजन देव ! आपकी आरती स्तुति हरेक युग में भक्त लोग जय-जयकार-पूर्वक करते ही रहते हैं । प्रतियुग में जीवात्मा परमात्मा को भजता हुआ उसकी भक्ति करता रहता है और हरेक युग में उनकी आरती करने वाले संसार से पारंगत होते आ रहे हैं ।
.
हरेक युग में विश्व के अधिपति राम के साथ भक्त लोग मिलते ही रहते हैं । भगवान् भी अपने भक्तों को हर युग में तारते रहते हैं । अतः उसका हर युग में दर्शन करते रहना चाहिये और हर युग में भक्तों को चाहिये कि उनके यश को गाते रहें । अर्थात् भगवान् का हर समय स्तुति कीर्तन करते ही रहना चाहिये ।
.
भागवत में लिखा है कि –
भक्तजन आपके चरित्र का बार-बार श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं । वे ही अविलम्ब आपके उस चरण-कमल का दर्शन कर पाते हैं । जो जन्म-मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिये रोक देता है । हे परीक्षित् ! अब तुम्हारा मृत्यु का समय आ गया है, अब सावधान हो जावो ।
.
पूरी शक्ति से अन्तःकरण की वृत्तियों से भगवान् श्री कृष्ण को अपने हृदय में स्थित कर लो । ऐसा करने से अवश्य ही तुम्हें परम भक्ति प्राप्त होगी । जो लोग मृत्यु के निकट आ रहे हैं, उन्हें सब प्रकार से परमैश्वर्यशाली भगवान् का ही ध्यान करना चाहिये । हे प्रिय परीक्षित् ! सबके परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान् अपना ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं ।
.
इति राग धनाश्री का पं, आत्मारामस्वामीकृत भाषानुवाद समाप्त ॥२७॥
इति श्री दादूवाणी की भावार्थदीपिका संस्कृत-हिन्दी टीका समाप्त ॥

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४३

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४३)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४४३. पद*
*निराकार तेरी आरती,*
*बलि जाऊँ, अनन्त भवन के राइ ॥टेक॥*
*सुर नर सब सेवा करैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।*
*देव तुम्हारा भेव न जानैं, पार न पावै शेष ॥१॥*
*चन्द सूर आरती करैं, नमो निरंजन देव ।*
*धरणि पवन आकाश आराधैं, सबै तुम्हारी सेव ॥२॥*
*सकल भवन सेवा करैं, मुनियर सिद्ध समाधि ।*
*दीन लीन ह्वै रहे संतजन, अविगत के आराधि ॥३॥*
*जै जै जीवनि राम हमारी, भक्ति करैं ल्यौ लाइ ।*
*निराकार की आरती कीजै, दादू बलि बलि जाइ ॥४॥*
.
हे अनन्त भवनों के स्वामी राम ! हे निरंजन देव ! आपकी भक्ति करते हुए मैं आपको सर्वस्व न्यौछावर कर रहा हूं । देवता मनुष्य सब आपकी ही स्तुति करते हैं । ब्रहमा, विष्णु, महेश आपका ध्यान करते हुए भी आपके आदि अन्त को तथा आपके रहस्य को नहीं जान सके । दो हजार जीभ वाला शेष भी एक हजार मुख से स्तुति करता हुआ भी आपके नामों का अन्त नहीं जान सका ।
.
सूर्य चंद्रमण भी आपकी ही दिन रात स्तुति करते हैं । पृथिवी, वायु, आकाश भी आपकी ही आराधना करते हैं । हे निरंजन देव ! मैं आपको नमस्कार करता हूं । त्रिलोकी के प्राणी, मुनिवर, समाधिस्थ योगी भी आपकी ही सेवा करते हैं ।
.
इन्द्रियातीत ब्रह्म की दीन भाव से आराधना करते हुए संत आपके स्वरूप में लीन हो जाते हैं । हे जीवनधन राम ! आपकी जय हो, जय हो, मैं तो आपकी ही भक्ति करता हूँ । आपकी स्तुति करते हुए मैं आपके चरण कमलों में अपना सर्वस्व अर्पण कर रहा हूँ ।
.
श्रीमद्भागवत में – ब्रह्मा स्तुति करते हुए कह रहे हैं कि – हे प्रभो ! इस भूमि के किसी भी वन में विशेष करके गोकुल में, किसी भी योनि में, मेरा जन्म हो जाय । यह ही मेरे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी, क्योंकि यहां जन्म होने पर आपके किसी किसी प्रेमी के चरण की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी ।
आपके प्रेमी व्रजवासियों का संपूर्ण जीवन आप का ही जीवन है, आप ही उनके जीवन के सर्वस्व हैं, इसलिये उनके चरणों की धूलि मिलना मैं तो आपके ही चरणों की धूलि के समान मानता हूं । आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियां भी अनादि काल से ढूंढ रही है ।
जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का भली-भांति अनुभव करता रहता है तो प्रारब्ध के अनुसार सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मन से भोग लेता है ।
एवं जो प्रेम=पूर्ण हृदय गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों से समर्पित करता रहता है, इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही परम पद का अधिकारी हो जाता है जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का अधिकारी पुत्र हो जाता है ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४२

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४२)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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४४२.
*अविचल आरती देव तुम्हारी,*
*जुग जुग जीवन राम हमारी ॥टेक॥*
*मरण मीच जम काल न लागे,*
*आवागमन सकल भ्रम भागे ॥१॥*
*जोनी जीव जनम नहिं आवे,*
*निर्भय नाँहीं व अमर पद पावे ॥२॥*
*कलिविष कसमल बँधन कापे,*
*पार पहुँचे थिर कर थापे ॥३॥*
*अनेक उधारे तैं जन तारे,*
*दादू आरती नरक निवारे ॥४॥*
.
हे निरंजन देव ! आपकी अविचल आरती भक्तों के जीवन का सर्वस्य है । वे प्रतियुग में आपकी आराधना के लिये ही जीते रहते हैं । आपके भक्त जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ते । काल से भी नहीं डरते हैं । अन्य लोकों में भी नहीं जाते, किन्तु यहां ही मुक्त हो जाते हैं ।
.
उनका भ्रमजन्य भेद भी मिट जाता है, तथा चौरासी लाख योनियों में नहीं पड़ते । न बार बार संसार में आते हैं । आपके नाम का निर्भय होकर जप करते हुए अमर बन जाते हैं, अर्थात् स्व-स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त हो जाते हैं । आपकी आरती करने वाले भक्त के नाना प्रकार के विकार और पाप-बन्धन कट जाते हैं ।
.
साधक आपकी आरती करके संसार से पार हो जाता है । ऐसे फल को सुन कर ही साधक आपकी आरती के लिये उद्यत होता है । आपकी आरती करते हुए अनेक भक्त संसार से पार उतर गये । आपकी आरती-स्तुति प्राणियों को नरक में जाने से बचाती है ।
.
गीता में कहा है कि –
मेरे में चित्त लगाने वाले मेरे प्रसाद से अनेक संकटों को पार कर जाते हैं । भगवान् की प्रसन्नता होने पर भक्त के सब दुःखों का नाश हो जाता है ।
.
गरुड़पुराण में कहा है कि –
जिनके हृदय में मंगलमय भगवान् विराजते हैं उनके लिये लाभ और जय की प्राप्ति निश्चित ही है । उनकी पराजय किसी भी प्रकार से नहीं हो सकती है ।
.
निर्गुणमानसी पूजा में कहा है की –
विविध ब्रह्म-दृष्टि रूप मालाओं से अलंकृत है, जो पूर्ण आनन्दरूप दृष्टि है, वह ही उस ब्रह्म के लिये पुष्पांजलि है, ऐसा समझो । मुझ ईश्वर में अनन्त ब्रह्माण्ड भ्रमण कर रहे हैं, ऐसा कूटस्थ अचल रूप मैं हूं, ऐसा ध्यान ही प्रदक्षिणा है ।
(क्रमशः)

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४१

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४१)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
=============
४४१.
*आरती जगजीवन तेरी,*
*तेरे चरण कँवल पर वारी फेरी ॥टेक॥*
*चित चाँवर हेत हरि ढ़ारे,*
*दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारे ॥१॥*
*घंटा शब्द अनाहद बाजे,*
*आनन्द आरती गगन गाजे ॥२॥*
*धूप ध्यान हरि सेती कीजे,*
*पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजे ॥३॥*
*सेवा सार आत्मा पूजा,*
*देव निरंजन और न दूजा ॥४॥*
*भाव भक्ति सौं आरती कीजे,*
*इहि विधि दादू जुग जुग जीजे ॥४॥*
.
हे जग-जीवन प्रभो ! हम सब आपकी आरती कर रहे हैं और आपके चरण-कमलों में सर्वस्व अर्पण कर रहे हैं । आपके मस्तक पर आपका चिन्तनरूप सफेद चंवर ढुला रहे हैं । ज्ञान का दीपक जला रहे हूं । जिसमें विचाररूपी ज्योति सदा जलती रहती है । अनाहतनाद रूप ध्वनि घंटा बज रहा है ।
.
आपका ध्यान ही धूप है, सो वह अर्पण कर रहा हूं । मेरी श्रद्धा ही आपकी परिक्रमा है । प्रेम ही पुष्प है । वह आपको समर्पण कर रहा हूं । उपासक की सेवा ही पूजा है । निरंजनदेव ही उपास्य देव हैं और दूसरा देव उपास्य नहीं है । जो इस प्रकार मानसिकी पूजा करता है, वह ब्रह्म-वेत्ता प्रतियुग में जी रहा है । बाह्य पूजा की सामग्री से निराकार ब्रह्म की पूजा नहीं हो सकती, उसकी तो मानसी पूजा ही मानी गई है ।
.
वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि –
जो ब्रह्म निर्लेप है, उसको गन्ध से क्या प्रयोजन ? और निर्वासन है उसको धूप से क्या लेना देना है ? जो निर्विशेष है उसको वेश भूषा से क्या मतलब है ? जो निरंजन तथा सर्वसाक्षी है, उसको धूप-दीप से क्या प्रयोजन है ? और जो निजानन्द में तृप्त है, उसको नैवद्य से क्या लाभ है ?
(क्रमशः)

रविवार, 7 जुलाई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४४०

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४४०)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४४० आरती (त्रिताल)*
*इहि विधि आरती राम की कीजे,*
*आत्मा अंतर वारणा लीजे ॥टेक॥*
*तन मन चन्दन प्रेम की माला,*
*अनहद घंटा दीन दयाला ।*
*ज्ञान का दीपक पवन की बाती,*
*देव निरंजन पाँचों पाती ।*
*आनन्द मंगल भाव की सेवा,*
*मनसा मन्दिर आतम देवा ।*
*भक्ति निरन्तर मैं बलिहारी,*
*दादू न जानै सेव तुम्हारी ।*
परमात्मा की आरती करते हुए परम महर्षि श्री स्वामी दादूजी महाराज आध्यात्मिकी आरती का विधान बतला रहे हैं ।
.
इस विधि से परमात्मा की अपने हृदय में आरती करनी चाहिये कि शरीर और मन को नाना सुन्दर गुणों से चन्दन की तरह सुगन्धित करके भगवान् को अर्पण कर दो । प्रेममयी पुष्प-माला पहना दो । दीनदयालु परमात्मा के आगे अनाहतनाद ध्वनि की तरह “सोऽहं सोऽहं” की ध्वनि करते रहो ।
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ज्ञान का दीपक जलाओ । उसमें पञ्च प्राणों की वर्तिका बनाकर उनको जलाओ अर्थात् पञ्च-प्राणों को रोक कर ज्ञान संपादन करना ही वर्तिका जलाना है निरंजन निराकार ब्रह्म को तुलसी-पत्र के समर्पण की तरह पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को तुलसी-पत्र मान कर समर्पण कर दो । इस प्रकार आनन्दस्वरूप मंगला आरती करो ।
.
वहां पर भगवान् की सेवा भी भावमयी करनी चाहिये, बुद्धि ही मन्दिर है, क्योंकि भगवान् की प्राप्ति बुद्धि से ही होती है । हे प्रभो ! मैं आपकी सेवा पूजा करना नहीं जानता हूं, सो आप ही उसका प्रकार बतलाइये । मैं तो दिन-रात आपको ही बुद्धि-मन्दिर में बैठा हुआ आपकी ही भक्ति करता हुआ आपको सर्वस्व समर्पण आकर रहा हूं ।
.
स्तोत्ररत्नावली में कहा है कि –
हे दयानिधे ! पशुपते ! हे देव ! यह रत्न निर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलि विभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरी की गन्ध से युक्त चन्दन, जूही चम्पा और विल्व-पत्र से रचित पुष्पांजलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक पूजोपहार को आप ग्रहण कीजिये ।
.
वेदान्तसंदर्भ में निर्गुणपूजा के विषय में लिख रहे हैं कि –
इस अनेक वासना से युक्त प्रपञ्चकों में ही धारणा कर रहा हूं, ऐसा दूसरा कोई नहीं । जो आत्मा में अनुसंधान है, यह ही चन्दन अर्पण करना है । समस्त वासनाओं का त्याग ही धूप का अर्पण है और ज्योतिर्मय ब्रह्म का ज्ञान ही दीपक का प्रकाश करना है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 3 जुलाई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३९

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३९)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३९. फरोदस्त ताल*
*राम की राती भई माती, लोक वेद विधि निषेध ।*
*भागे सब भ्रम भेद, अमृत रस पीवै ॥टेक॥*
*भागे सब काल झाल, छूटे सब जग जंजाल ।*
*विसरे सब हाल चाल, हरि की सुधि पाई ॥१॥*
*प्राण पवन जहाँ जाइ, अगम निगम मिले आइ ।*
*प्रेम मगन रहे समाइ, विलसै वपु नाँहीं ॥२॥*
*परम नूर परम तेज, परम पुंज परम सेज ।*
*परम ज्योति परम हेज, सुन्दरि सुख पावै ॥३॥*
*परम पुरुष परम रास, परम लाल सुख विलास ।*
*परम मंगल दादू दास, पीव सौं मिल खेलै ॥४॥*
मेरी बुद्धि राम की भक्ति में अनुरक्त होकर उन्मत्त हो रही है । इसलिये मैंने लोक-लज्जा-वेद विध्यात्मक तथा निषेधात्मक सारे सकाम भी त्याग दिये, क्योंकि वे सब कर्म अज्ञानमूलक हैं । अविद्या दशा में ही कर्म होता है । ज्ञान होने पर तो वे स्वतः ही निवृत्त हो जाते हैं ।
.
मेरा भ्रमजन्य भेद भी भाग गया, केवल अभेद चिन्तन रूप रस को ही पीता हूं । मेरा अन्तःकरण भी कामक्रोधादिक रूप काल की ज्वाला से मुक्त है, न कोई आसुरी गुण ही मेरे में है । कपट-व्यवहार, जो यम का जाल माना गया है, उससे भी मैं मुक्त हो चुका हूँ ।
.
जगद्व्यापार रूप जगत्-कथा को त्याग कर केवल हरि स्मरण ही करता हूं और जहां पर सहस्त्रार-चक्र में प्राण अवरुद्ध हो जाते हैं, कुम्भक प्राणायाम के समय में वहां उस समाधि में जाकर वेदों से भी अगम्य उस ब्रह्म-तत्त्व को प्राप्त कर लिया है ।
.
हठयोगदीपिका में –
कुण्डलिन के जागने पर योगी जब सब कर्मों को त्याग देता है तब स्वयं ही योगी को सहजावस्था प्राप्त हो जाती है । क्योंकि ध्यान-धारणा-प्रत्याहार-संप्रज्ञात-समाधि आदि के अभ्यास से योगी के कायिक मानसिक व्यापार तथा प्राण, इन्द्रियों के व्यापार सब छूट जाते हैं ।
.
शरीराध्यास के निवृत्त हो जाने से उपभोग बुद्धि से कोई भोग भी नहीं होता । उस ब्रह्म का रूप सर्वोत्कृष्ट है । उसके सोने के लिये भक्त का हृदय शय्या है तथा उसका प्रकाश भी अति श्रेष्ठ है । उसकी भक्ति से मेरी बुद्धि को भी सुख होता है । अतः मैं उस परम पुरुष पुरुषोत्तम के साथ रास करके परम आनन्दित हो रहा हूं और मेरे हृदय में परम प्रेम और मंगल हो रहा है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 25 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३८

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*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३८)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३८. फरोदस्त ताल*
*गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये ।*
*अक्षय अभय दान दीये, छाया नहीं माया ॥टेक॥*
*अगम गगन अगम तूर, अगम चन्द अगम सूर ।*
*काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया ॥१॥*
*आदि अंत नहीं कोइ, रात दिवस नहीं होइ ।*
*उदय अस्त नहीं दोइ, मन ही मन लाया ॥२॥*
*अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर ध्यान ।*
*अमर ब्रह्म अमर थान, सहज शून्य आया ॥३॥*
*अमर नूर अमर वास, अमर तेज सुख निवास ।*
*अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया ॥४॥*
गोविन्द भगवान् को प्राप्त करके मेरा मन बहुत प्रसन्न हो गया, अथवा मनोहर भगवान् को मैंने प्राप्त कर लिया, और उसको प्राप्त करके उनके साथ अभेद भाव को प्राप्त होकर अमर बन गया । उसी प्रभु ने मुझे अक्षय-आनंद अभय-पद दिया है ।
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वह प्रभु आभास रहित निर्मायिक है और हृदयाकाश तथा अनाहत ध्वनि से भी परे हैं । चंद सूर्य के प्रकाश से भी प्रकाशित नहीं होता, काल के भय से भी भयभीत नहीं होता, क्योंकि वह काल का भी महाकाल है । अविद्याप्रयुक्त जीव-भाव से भी रहित है, वह कर्तृत्व, भौक्तृत्व, धर्मों से अतीत माना गया है ।
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स्थूल-सूक्ष्मद्वय शरीर से अतीत तथा आदि अन्त से रहित है और घट-पट की तरह किसी भी ज्ञान का विषय नहीं बनता क्योंकि अवेध्य और नित्य ज्ञान स्वरूप होने से मेरा मन तो उसी ब्रह्म का चिन्तन करते हुए उसी में लीन रहता है । उस ब्रह्म के ज्ञान और ध्यान से जीव अमर हो जाता है ।
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वह देवताओं का भी आश्रय है । वह सर्व विकार शून्य ब्रह्म निर्विकल्प समाधि में सहजावस्था होने पर ज्ञान नेत्रों से साधक को प्राप्त होता है । वह प्रकाश रूप अमर है । उसका ध्यान-ज्ञान भी अमर है और वह सुखनिधान है तथा त्रिभुवन का राजा है । मैं उसका दास हूँ और उन्हीं के स्वरूप में वृत्ति द्वारा लीन रहता हूँ ।
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गीता में कहा है कि –
उस स्वयं प्रकाश परमात्मा को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है ।
मुण्डक में –
सूर्य, चन्द्र, तारे, विद्युत, अग्नि इनमें से उसे एक भी प्रकाशित नहीं कर सकते, कारण कि उसके प्रकाश से ही सबका प्रकाश होता है और तो क्या, संपूर्ण जगत् भी उसी से प्रकाशित हो रहा है ।
जो सर्वज्ञ होने से सबको सब और से जानने वाला कहलाता है । इस तरह उसकी जगत् में महिमा है और वह सबका प्रसिद्ध आत्मा परमेश्वर दिव्य आकाश रूप ब्रह्म लोक में स्व-स्वरूप से स्थित है ।
उस ब्रह्म में दिन-रात का काल भेद भी नहीं होता । अथवा अज्ञान-रूप रात्रि और इन्द्रिय-जन्य ज्ञान भी नहीं रहता क्योंकि वह इन्द्रियातीत है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 20 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३७

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३७)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३७. पद (दीपचन्दी)*
*राम तहाँ प्रगट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ,*
*परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर ॥टेक॥*
*चन्द सूर मध्य भाइ, तहाँ बसै राम राइ, गंग जमुन के तीर ।*
*त्रिवेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख निरख निज नीर ॥१॥*
*आत्मा उलटि जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ, सहज समाइ ।*
*अगम निगम अति, जहाँ बसै प्राणपति, परसि परसि निज आइ ॥२॥*
*कोमल कुसम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार ।*
*शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि-विलसि निज सार ॥३॥*
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यद्यपि श्रीराम व्यापक होने से सर्वत्र परिपूर्ण हैं । फिर भी जीवात्मा के अष्टदलकमल में निरावरण रूप से साधक की ध्यानावस्था में स्वयं प्रकाशमान होने से भगवान् श्रीराम का प्रकाश बादलों में बिजली के प्रकाश की तरह प्रकाश विशेष रूप से भासता है ।
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चन्द्र-रूपा-इड़ानाड़ी सूर्य-रूपा-पिंगला नाड़ी इन दोनों के मध्य में जो सुषुम्ना नाड़ी बहती है । अष्टदल-कमल के मध्य में इन तीनों का कुम्भक के समय में समागम होता है, वहां संगम रूप त्रिवेणी के निर्मल तट पर निर्मल ब्रह्म रूप जीव रहता है, उसको तू देख ।
.
वहां पर प्रकाश पुंज की तरह आत्मस्वरूप ब्रह्म रहता है, उस ब्रह्म में अपनी मनोवृत्ति को अन्तर्मुख बनाकर सहजस्वरूप ब्रह्म में उस वृत्ति को लीन करो । जो वेदों के द्वारा भी अगम्य अपने ही महिमा में स्थित प्राणों का स्वामी जो ब्रह्म है, उसका मनोवृत्ति के द्वारा बार बार चिन्तनरुपी स्पर्श प्राप्त करके साधक वहां पर चला जाता है ।
.
अष्टदलकमल के पुष्प के पत्ते पर जल में प्रतिबिम्बित ज्योति की तरह निराकार ब्रह्म सर्वत्र दिखता है । ब्रह्म स्वरूप शून्य सरोवर का जहां साक्षात्कार होता है, वहीं पर विश्व के सारभूत परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करते हुए हंस तज्जन्य ब्रह्मानन्द का अनुभव करते हुए निवास करते रहते हैं ।
.
हठयोगदीपिका में –
प्राणवायु जब सुषुम्ना में चलता है और मन, देश, काल, वस्तु के परिच्छेद से शून्य ब्रह्म में प्रविष्ट हो जाता है । उस समय चित्त वृत्ति के निरोध का ज्ञाता योगी प्रारब्ध सहित संपूर्ण कर्मों को नष्ट कर देता है । स्वरुपावस्थिति रूप सहजावस्था, जिसको तुर्यावस्था जीवन्मुक्ति भी कहते हैं, वहां पर वैराग्य से, बिना ही प्रयत्न के, स्वयमेव साधक में प्रकट हो जाती है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 17 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३६

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३६)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
=============
*४३६. परिचय उपदेश । पंजाबी (त्रिताल स्मरण)*
*तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,*
*सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥टेक॥*
*अकल स्वरूप पीव का, बान बरन न पाइये ।*
*अखंड मंडल माँहि रहै, सोई प्रीतम गाइये ॥*
*गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, प्रकट पीव ते पाइये ।*
*सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥१॥*
*अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।*
*शून्य मंडल माँहि साचा, नैन भर सो देखिये ॥*
*देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,*
*सोई प्रकट होई, यह अचम्भा पेखिये ।*
*दयावंत दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥२॥*
*अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पावही ।*
*दयावंत दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥*
*लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई, अगम बैन सुनावही ।*
*सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गावही ॥३॥*
*अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आणिये ।*
*निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई जाणिये ॥*
*जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, सुमिर सोई बखानिये ।*
*श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥४॥*
.
हे साधक ! जहां पर निष्फल निरंजन ब्रह्म प्राप्त होता है, उस निर्विकल्प रूप समाधि घर में पहुँच । वहां पर उस देवाधिदेव ब्रह्म का ध्यान कर । उस निराकार प्रियतम ब्रह्म की कोई जाति, रूप, रंग, वेष आदि कुछ नहीं होता ।
.
वह अपने अखण्ड महिमामण्डल में विराजता है । उसी ब्रह्म का यशोगान करता हुआ अपने अन्तःकरण में उसका विचार कर, क्योंकि विचार करने वाले साधक को उसका प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और उस निर्विकल्प समाधि में ही उस साधक का अभेद रूप संग ब्रह्म से हो जाता है । अतः उस निरवयव प्रियतम ब्रह्म के साक्षात्कार के लिये यत्न करना चाहिये ।
.
वह साधक को सहस्त्रारचक्र-रूप शून्य मंडल में दीखता है । अतः तुम भी ज्ञान-नेत्रों द्वारा उसके दर्शनों के लिये यत्न करो । वहां पर अद्भुत आश्चर्य होता है कि निरंजन निराकार ब्रह्म स्वयं ही प्रकट हो जाते हैं । वह परमात्मा अति दयालु है, वह भक्तों की भावना के अनुसार अपनी माया से रूपरंग वाले से प्रतीत होने लगता हैं ।
.
जो जीवों के प्राणों के आधार भूत निरंजन निराकार रूप ब्रह्म है, उसके स्वरूप का दर्शन तो भक्त ही कर सकते हैं । क्योंकि वह प्रभु निरतिशय दयासागर अति ही दयालु हैं कि भक्तों को अनायास ही दर्शन दे देते हैं ।
.
अतः उस सर्वगुणसंपन्न ब्रह्म को भक्त ही देख सकता है और उसको देखकर भक्त उससे अभिन्न होता हुआ उसके संग को प्राप्त कर लेता है । उसके संग से भक्त अगम्यवाणी बोलने लगता और सब दुःखों को पार कर जाता है । ब्रह्म के अभेद भाव रूप रंग से रंगा हुआ उसका संगी हो जाता है । अतः उसीका गुणगान कर ।
.
निष्कलं ब्रह्म का कृपा रूपी हाथ किसी प्रकार से अपने शिर पर धारण कर । अविचल ब्रह्म के साथ अपनी आत्मा का अभेद निश्चय करके साधक को अद्वैत निष्ठा में ही रहना चाहिये । अन्तःकरण में विचार करके उस विचार द्वारा ही उस ब्रह्म को देखा जा सकता है, क्योंकि विश्व के सारभूत उस ब्रह्म के ज्ञान का अन्तःकरण ही उपाय माना गया है ।
.
अतः उसी का स्मरण करो, उसीका ध्यान करो । उसी का और कथन करो । इस तरह उपाय करने से साधक का उसमें प्रेम पैदा हो जाता है । तब ही साधक को सुखी समझना चाहिये । इस स्थिति पर पहुंचने से पहले तो साधक विरहपूर्वक हरिचिन्तन करता रहे ।
.
कठोपनिषद् में कहा है कि –
परमात्मा का परमतत्व शुद्ध मन से ही जाना जा सकता है । इस जगत् में एक मात्र परमात्मा ही परिपूर्ण है । सब कुछ उन्हीं का स्वरूप है, परमात्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है । जो भिन्नता देखता है, वह मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है ।
.
जैसे दूध में घृत छिपा हुआ है, वैसे ही ब्रह्म भी प्राणि मात्र में छिपे हुए हैं । जैसे घी को प्राप्त करने के लिये बिलौना पड़ता है, वैसे ही उस ब्रह्म को भी जो भूतों में स्थित है, मन रूपी मन्थन-दण्ड से बिलौना(विचार) चाहिये, क्योंकि बार बार मन्थन करने से ही वह मिलता है ।
.
जो योगमाया के पर्दे में छिपा हुआ सर्वव्यापी हृदय रूपी गुहा में स्थित है, अतएव संसार रूपी गहन वन में रहने वाले और कठिनाई से देखे जाने वाले परमात्मदेव को शुद्ध बुद्धि युक्त साधक अध्यात्म योग की प्राप्ति के द्वारा समझ कर हर्ष शोक को त्याग देता है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 13 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३५

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३५)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३५. त्रिताल*
*ए ! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई,*
*परगट दरसन देहु अघाई ॥टेक॥*
*तालाबेली तलफै माँही,*
*तुम बिन राम जियरे जक नांही ।*
*निशिवासर मन रहै उदासा,*
*मैं जन व्याकुल श्‍वासों श्‍वासा ॥१॥*
*एकमेक रस होइ न आवै,*
*तातैं प्राण बहुत दुख पावै ।*
*अंग संग मिल यहु सुख दीजे,*
*दादू राम रसायन पीजे ॥२॥*
.
मैं आपकी प्रेमा भक्ति के बिना जीवन नहीं धारण कर सकता हूँ । क्या आपकी भक्ति करने पर भी आपके दर्शनों के बिना, मुझे दुःखी रहना पड़ेगा ? अतः आपको मेरे हृदय में प्रकट होकर दर्शन देना चाहिये । जिससे मैं सुखी हो जाऊँ ।
.
मेरा मन विरह से व्याकुल हो रहा है । हे राम ! आप के बिना मेरे को शान्ति प्राप्त नहीं हो रही है, किन्तु दिन रात खिन्न रहता हूं । मैं आपका भक्त हूं, फिर भी मैं प्रतिश्वास व्याकुल हो रहा हूं । ब्रह्मानन्द रस के न मिलने के कारण मेरा मन व्यथित हो रहा है ।
.
आप मेरे अंगों का संग करके मेरे से अभिन्न होकर अभेद का जो आनन्द है, वह प्रदान करें । जिससे मैं आपसे अभिन्न होकर रामनाम रस का पान करता हुआ ब्रह्मानन्द में ऐसा डूब जाऊं, जैसे जल का बिन्दु समुद्र में डूब कर एक हो जाता है ।
.
महोपनिषद् में कहा है कि –
जिससे कल्पनारूप कलंक से रहित, परम शुद्ध मलविक्षेप से रहित, परमपावन परमात्मा मैं जिस प्रकार जल की बूंद समुद्र में मिल जाती है, उसी तरह वह वासना रहित बड़भागी महात्मा एकता को प्राप्त हो जाता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 11 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३४


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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३४)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
=============
*४३४. विनती । त्रिताल*
*गोविन्द के चरणों ही ल्यौ लाऊँ ।*
*जैसे चातक बन में बोलै, पीव पीव कर ध्याऊँ ॥टेक॥*
*सुरजन मेरी सुनहु वीनती, मैं बलि तेरे जाऊँ ।*
*विपति हमारी तोहि सुनाऊँ, दे दर्शन क्यों हि पाऊँ ॥१॥*
*जात दुख, सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊँ ।*
*दादू को दया कर दीजे, नाँहीं व तुम्हारो गाऊँ ॥२॥*
.
मैं तो हमेशा गोविन्द भगवान् के चरणों का ही ध्यान करता हूं । जैसे चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र की जल बिन्दु के लिये पीव-पीव पुकारता रहता है वैसे ही मैं भी ‘हे प्रियतम ! हे प्रियतम !’ पुकारता हुआ उसीको रट रहा हूं ।
.
हे देवताओं के स्वामिन् ! मेरी भी एक विनय सुनिये, मैं आपके चरण-कमलों पर पड़ कर अपनी आपत्ति सुना रहा हूं । सो कृपा करके सुनिये कि आप मुझे दर्शन देवो और मैं किस उपाय से आपको पाऊं ? वह उपाय भी आप बतलाइये ।
.
जो भक्त आपकी शरण में आ जाता है वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है और इसी शरीर में सुखी हो जाता है । अतः मैं भी आपकी शरण में आया हूं और आपके नामों का स्मरण करता हूं, अतः आप दर्शन द्वारा मुझे सुखी कीजिये ।
.
श्रीमद्भागवत में कहा है कि –
अहो ! विधाता के इस ग्राह्य-पाश में पड़ने पर अत्यन्त आतुर हुए मुझ को जब ये मेरे साथी हाथी ही नहीं छुड़ा सके तो ये हथिनियां तो छुड़ा ही कैसे सकती है ? अब मैं परमाश्र उस श्रीहरि की शरण लेता हूं ।
(क्रमशः)

रविवार, 9 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३३

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३३)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३३. हित उपदेश । चौताल*
*मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे ।*
*एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे ॥टेक॥*
*सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।*
*अन्तर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥१॥*
*हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।*
*रसना निज नाम निरख, अन्तर गति वासै ॥२॥*
*आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।*
*मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥३॥*
.
मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ और पंच प्राणों को गुरु के बताये हुए उपदेश के द्वारा सहज समाधि में अद्वैत ब्रह्म में स्थित करके अभेद रूप से ब्रह्मानन्द-रस का पान करो ।
.
कठोउपनिषद् में कहा है कि –
जब मन के सहित पांचों ज्ञानेन्द्रियाँ और बुद्धि भी अच्छी प्रकार से स्थिर हो जाती है, किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करती तो उस स्थिति को सर्वोत्तम योग कहते हैं । चित्त बिलकुल शान्त हो जाय, इसी को परमानन्द की प्राप्ति कहते हैं । इसीको असंप्रज्ञात नामक समाधि कहते हैं । यह योगियों को परम प्रिय है ।
.
जो साधक अहंकार को त्यागकर मायिक प्रपञ्च से रहित ब्रह्म की उपासना करता है तो उसके मन की निर्मल ब्रह्मकारावृत्ति सदा हृदयस्थ आत्मा में प्रेम से लगी रहती है । उसका मन अद्वैत ब्रह्म के चिन्तन से ही संतुष्ट रहता है । उसके शुद्ध अन्तःकरण में परिपूर्ण ब्रह्म ही प्रकाशता है । रसना में रामनाम शोभित होता रहता है अर्थात् वह राम नाम जपता रहता है ।
.
पूर्वोक्त साधन से ब्रह्म का साक्षात्कार करके अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा वह साधक ब्रह्म में ही स्थित रहता है । सतत आत्मचिन्तन करने से वह ब्रह्म में ही लीन रहता है और प्रेमाभक्ति में डूबा हुआ आत्म-चिन्तन में ही निमग्न रहता है । इस तरह जो साधक अहंकार रहित हो आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है और अद्वैत ब्रह्म में निमग्न होकर ब्रह्मानन्द का पान करता हुआ उन्मत्त हो जाता है ।
.
विवेकचूड़ामणि में कहा है कि -
निर्विकल्प समाधि द्वारा निश्चय ही ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान होता है और अन्य किसी प्रकार के साधन से नहीं होता, क्योंकि अन्य अवस्थाओं में चित्तवृत्ति के चंचल रहने से उसमें अन्यान्य प्रतीतियों का भी मेल रहता है ।
.
अतः सदा संयतेन्द्रिय होकर शान्त मन से निरन्तर प्रत्यगात्मा ब्रह्म में चित्त को स्थिर करो और सच्चिदानन्द ब्रह्म के साथ अपना ऐक्य देखते हुए अनादि अविद्या से उत्पन्न अज्ञानान्धकार ध्वंस करो ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 7 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३२

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३२)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३२. दीपचन्दीताल*
*डरिये रे डरिये, देख देख पग धरिये ।*
*तारे तरिये, मारे मरिये, तातैं गर्व न करिये रे ॥टेक॥*
*देवै लेवै, समर्थ दाता, सब कुछ छाजै रे ।*
*तारै मारै, गर्व निवारै, बैठा गाजै रे ॥१॥*
*राखैं रहिये, बाहैं बहिये, अनत न लहिये रे ।*
*भानै घड़ै, संवारै आपै, ऐसा कहिये रे ॥२॥*
*निकट बुलावै, दूर पठावै, सब बन आवै रे ।*
*पाके काचे, काचे पाके, ज्यूं मन भावै रे ॥३॥*
*पावक पाणी, पाणी पावक, कर दिखलावै रे ।*
*लोहा कंचन, कंचन लोहा, कहि समझावै रे ॥४॥*
*शशिहर सूर, सूर तैं शशिहर, परगट खेलै रे ।*
*धरती अंबर, अंबर धरती, दादू मेलै रे ॥५॥*
.
प्रभु परमात्मा से सदा डरते रहना चाहिये, और विचार कर शुभ कर्म ही करने चाहिये । अशुभ कर्मों से सदा डरते रहो कि कहीं हम से बुरा कर्म न हो जाय । ईश्वर सब का उद्धार करने वाला है और वह जब मारना चाहे तो मरना पड़ता है । उसकी इच्छा के बिना हम मर भी नहीं सकते ।
.
अतः अभिमान को त्याग कर उससे डरते रहो । वह प्रभु मारने में, तारने में, गर्व हरण में सर्वसमर्थ है । प्राणियों की शुभ भावनाओं को वह ही ग्रहण करता है । कर्मानुसार सबको फल भी वही देता है । वह जो कुछ भी करते है, वह उसको शोभता है ।
.
सब प्राणियों को गति देने वाला तथा गति का अवरोधक भी वही है । सबका नाश तथा जीवन दान देने वाला भी वही है, वह ही सद्गति देता है । अतः उसी की ही उपासना करनी चाहिये । ऐसा संत कहते हैं । वह ही जीव को अपने से दूर भेजता है और वह ही निकट बुला लेता है ।
.
उसकी इच्छा से बूढा बालक बन जाता है और बालक को बूढा बना देता है । उसकी इच्छा से अग्नि जल बन जाता है और जल अग्नि बन जाता है । लोहा सोना और सोना लोहा, चन्द्रमा सूर्य और सूर्य चन्द्रमा बन जाता है । पृथ्वी आकाश और आकाश पृथ्वी बन जाती है, क्योंकि वह सर्वसमर्थशाली है ।
.
लिखा है कि – जिसकी इच्छा से समुद्र सूख का स्थल(जमीन) बन जाता है, स्थल समुद्र बन जाता है, धूल के कण पर्वत बन जाते हैं और पर्वत धूलि के समान तुच्छ बन जाता है । सुमेरु मिट्टी के कण बन जाते हैं और वज्र तृण के समान तुच्छ हो जाता है । अग्नि शीतल हो जाती है और बर्फ अग्नि तुल्य हो जाता है । ऐसी लीला करने का जिसको व्यसन हो गया है, उस परमात्मा को हमारा नमस्कार है ।
.
अनन्त और अचिन्त्य, महा शक्ति संपन्न ब्रह्म में परस्पर विरुद्ध धर्म वाले पदार्थों की रचना करना, यह कोई आश्चर्य नहीं समझना क्योंकि वह सामर्थ्यशाली है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 जून 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३१

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३१)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४३१. भैभीत भयानक । दीपचन्दी ताल*
*डरिये रे डरिये, परमेश्‍वर तैं डरिये रे ।*
*लेखा लेवै, भर भर देवै, ताथैं बुरा न करिये रे, डरिये ॥टेक॥*
*सांचा लीजी, सांचा दीजी, सांचा सौदा कीजी रे ।*
*सांचा राखी, झूठा नाखी, विष ना पीजी रे ॥१॥*
*निर्मल गहिये, निर्मल रहिये, निर्मल कहिये रे ।*
*निर्मल लीजी, निर्मल दीजी, अनत न बहिये रे ॥२॥*
*साहि पठाया, बनिजन आया, जनि डहकावै रे ।*
*झूठ न भावै , फेरि पठावै, कीया पावै रे ॥३॥*
*पंथ दुहेला, जाइ अकेला, भार न लीजी रे ।*
*दादू मेला, होइ सुहेला, सो कुछ कीजी रे ॥४॥*
.
सर्वदा परमेश्वर और पाप कर्मों से डरना चाहिये और हृदय में ईश्वर की धारणा करके अपने जीवन को पूरा करना चाहिये । भगवान् कर्मों का लेखा-जोखा देखकर आगे के जन्म का विधान करते हैं । प्राणियों को अपने कर्मानुसार ही जन्म मिलता है । इसलिये पाप-कर्मों से डरकर उनको त्याग दो, अच्छे कर्म ही करना चाहिये ।
.
लेन-देन का व्यवहार भी सत्य को हृदय में धारण करके ही करना चाहिये कि परमात्मा देख रहा है, मैं क्या कर रहा हूँ ? मिथ्या-चिन्तन को त्याग कर सत्य ब्रह्म का ही चिन्तन करो । विषय-विष का पान मत करो ।
.
शुद्ध ब्रह्म की उपासना करो, शुद्ध उपदेश करो और शुद्ध ब्रह्म का ही ध्यान करो । विषयवासनाओं में अपने मन की वृत्ति जाने मत दो, परमात्मा ने आपको जगत् में सत्य व्यवहार के लिये ही भेजा है । अतः विषयों में मन को मत लगाओ । प्रभु मिथ्याव्यवहार को सहन नहीं करते, मिथ्या व्यवहार करने वाला प्रभु से प्रेरित होकर नाना योनियों में जाकर विषयों में ही भ्रमता रहता है ।
.
प्रभुप्राप्ति का मार्ग तो बहुत कठिन है । वहां पर अकेला ही जाता है । अतः अशुभ कर्म और सकाम कर्मों का भार अपने शिर पर मत रक्खो । जो कुछ करना है, वह निष्काम भाव से ही करो । विचार भी ऐसा ही करो, जिससे जीव ब्रह्म की एकता हो जाय ।
.
उपनिषद् में लिखा है कि –
जिनका आचरण अच्छा है, वे अच्छी योनि पावेंगे जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य योनि । जो निषिद्ध आचरण वाले हैं, बुरी योनियों में जायेंगे जैसे कूकर, सूकर, चाण्डाल आदि योनियों में जायेंगे । अतः ईश्वर से डरते हुए अच्छे कर्म ही करने चाहिये ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 28 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४३०

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४३०)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
=============
*४३०. (गुजराती) काल चेतावनी । प्रतिताल*
*काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुवारो रे ।*
*देखतड़ां ते लूटिये, होसी हाहाकारो रे ॥टेक॥*
*नाइक नगर नें मेल्हसी, एकलड़ो ते जाये रे ।*
*संग न साथी कोइ न आसी, तहँ को जाणे किम थाये रे ॥१॥*
*सत जत साधो माहरा भाईड़ा, कांई सुकृत लीजे सारो रे ।*
*मारग विषम चालिबो, कांई लीजे प्राण अधारो रे ॥२॥*
*जिमि नीर निवाणा ठाहरे, तिमि साजी बांधो पालो रे ।*
*समर्थ सोई सेविये, तो काया न लागे कालो रे ॥३॥*
*दादू मन घर आणिये, तो निहचल थिर थाये रे ।*
*प्राणी नें पूरो मिलै, तो काया न मेल्ही जाये रे ॥४॥*
.
सारे विश्व को खाने वाला यह काल एक दिन इसको या नगरी को भी तोड़ डालेगा । नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रिय-द्वारों से यह शरीर प्रतिक्षण क्षीण हो रहा है । अतः यह काल तेरी आयु को भी लेकर चला जायगा । काया का मालिक जीव भी एक दिन इस नगरी को छोड़ कर अपने कर्मानुसार अकेले ही परलोक में चला जायगा ।
.
वहां पर इसकी क्या दशा होगी ? यह कौन जाने ? अतः सभी प्राणियों को ब्रह्मचर्यादि साधनपूर्वक सुकृत का साधन करना चाहिये । परलोक में जाने का मार्ग भी बहुत लंबा चौड़ा दुस्तर है । अतः रास्ते के लिये कोई अवश्य पुण्य-साधन-पाथेय के रूप में करना चाहिये ।
.
जैसे जल निम्न भूमि में एकत्रित होता है वैसे ही भक्ति भी साधन-संपन्न अन्तःकरण से होती है । जीवन-जल की रक्षा के लिये भजन ही बांध है । इस प्रकार हे जीव ! तू साधन संपन्न होकर हरि को भजेगा तो तेरे को काल का भय भी नहीं रहेगा ।
.
निश्चल मन ही ब्रह्म में स्थिर हो सकता है । अतः अपने मन को जीतने के लिये उपाय का विचार कर । जब साधक का मन पूर्ण ब्रह्म में स्थिर हो जाता है तो उस साधक के प्राण कहीं भी नहीं जाते, किन्तु यहां ही तत्त्वों में तत्त्व मिल जाते हैं । 
.
शरीर रहित उस आत्मा को प्रिय(सुख) अप्रिय(दुःख) नहीं स्पर्श कर सकते ।जैसे शुद्ध पानी में दूसरे शुद्ध पानी को मिला देने पर वह शुद्ध रूप ही हो जाता है, उसी प्रकार उस ब्रह्म को जानने वाला मुनि भी आत्मस्वरूप हो जाता है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 25 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२९

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
*https://www.facebook.com/DADUVANI*
*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२९)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२९. पद उपदेश चेतावणी । प्रतिताल*
*जियरा ! राम भजन कर लीजे ।*
*साहिब लेखा माँगेगा रे, उत्तर कैसे दीजे ॥टेक॥*
*आगे जाइ पछतावन लागो, पल पल यहु तन छीजे ।*
*तातैं जिय समझाइ कहूँ रे, सुकृत अब तैं कीजे ॥१॥*
*राम जपत जम काल न लागे, संग रहै जन जीजे ।*
*दादू दास भजन कर लीजे, हरि जी की रास रमीजे ॥२॥*
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हे मन ! जब तक तेरा यह शरीर स्वस्थ है तब तक श्री राम को भज ले । वृद्धावस्था में भजन नहीं बनेगा । फिर तो तुझे अन्त में पश्चाताप ही करना पड़ेगा । जब तेरा हिसाब होगा, तब भजन किये बिना परमात्मा को क्या जवाब देगा ? क्योंकि तेरी गर्भ में रहते हुए प्रभु से भजन करने की प्रतिज्ञा की हुई है ।
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इसलिये हे मन ! मैं तेरे को उद्बोधन कर रहा हूँ कि अभी से ही भजन में लग जा अन्यथा तू आगे दुःखी होगा । राम नाम को जपने वाला तो कभी यमराज से भी नहीं डरता क्योंकि वह भजन द्वारा अद्वैत ब्रह्म में सदा लीन रहता है । तू भी भजन के द्वारा उस प्रभु को प्राप्त करले और उसी की शरण में जाकर वहां पर राम के आनन्द का अनुभव कर ।
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लिखा है कि पारमार्थिक अद्वैत और भजन के लिये द्वैत, वह इस तरह की जो भक्ति है वह तो सैकड़ों मुक्तियों से भी श्रेष्ठ है । क्योंकि ऐसी द्वैतभाव से की हुई भक्ति तो मुक्ति की देने वाली है । निराकरण रूप से प्रत्येक चैतन्याभिन्न परब्रह्म के साक्षात्कार के पहले द्वैत मोह के लिये ही है । परन्तु भक्ति के लिये जो भावित द्वैत बुद्धि है, वह तो अद्वैत से भी सुन्दर है, क्योंकि मोक्ष प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 21 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२८

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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२८)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२८. कर्ता कीरति । त्रिताल*
*काइमां कीर्ति करूंली रे, तूँ मोटो दातार ।*
*सब तैं सिरजीला साहिबजी, तूँ मोटो कर्तार ॥टेक॥*
*चौदह भुवन भानै घड़ै, घड़त न लागै बार ।*
*थापै उथपै तूँ धणी, धनि धनि सिरजनहार ॥१॥*
*धरती अंबर तैं धर्‍या, पाणी पवन अपार ।*
*चंद सूर दीपक रच्या, रैणि दिवस विस्तार ॥२॥*
*ब्रह्मा शंकर तैं किया, विष्णु दिया अवतार ।*
*सुर नर साधू सिरजिया, कर ले जीव विचार ॥३॥*
*आप निरंजन ह्वै रह्या, काइमां कौतिकहार ।*
*दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली हौं बलिहार ॥४॥*
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हे परमेश्वर ! मैं आपका क्या यशोगान करूं ? आप तो महान् दाता हैं तो भक्तों को अपने आप को भी प्रदान कर देते हैं । यह संसार आप का ही बनाया हुआ है । अतः आपको ही संसार कर्तृत्व शोभा देता है ।
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आप इस सृष्टि को संकल्प मात्र से रच देते हैं । क्षण में ही नष्ट कर देते हैं और दुबारा बनाने में आपको कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता । क्योंकि आप तो संकल्प से ही सृष्टि को बना देते हैं, ऐसा श्रुति कहती है । आप ही सबको धारण करने वाले तथा नष्ट करने वाले हैं ।
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हे सृष्टि को बनाने वाले परमेश्वर ! आपको धन्यवाद है, जो ऐसा कार्य करते हैं । पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज आदि तत्त्वों को आपने ही रचा है, जिन का कोई आदि अन्त ही नहीं दिखता । आपने ही सूर्य-चन्द्रमा, रात-दिन, ब्रह्मा, विष्णु, शिव इनको रचा है ।
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संसार की रक्षा के लिये विष्णु रूप से अवतार लेते हैं । देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी की सृष्टि भी आपकी ही बनाई हुई है । हे जीवात्मन् ! प्रभु के गुणों का विचार करके उसीकी भक्ति करके उसको प्राप्त कर । जो परमात्मा अपनी सत्ता मात्र से संसार की रचना रूप खेल खेलता हैं, स्वयं माया रहित, निर्गुण, सगुण होकर अव्यक्त, अचल रहता है ।
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तैत्तरीय में लिखा है कि –
जिससे यह सारे भूत पैदा होते हैं, पैदा होकर जिससे जीते हैं और प्रलय में उसी में लीन होकर रहते हैं, वह ही ब्रह्म कहलाता है ।
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मुण्डक में कहा है कि –
उसी परमेश्वर से प्राण, मन, इन्द्रियां, आकाश, वायु, तेज, जल और विश्व को धारण करने वाली पृथिवी पैदा होती है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 17 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२७

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२७)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२७. विनती त्रिताल*
*साजनियां ! नेह न तोरी रे,*
*जे हम तोरैं महा अपराधी, तो तूँ जोरी रे ॥टेक॥*
*प्रेम बिना रस फीका लागै, मीठा मधुर न होई ।*
*सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागै सोई ॥१॥*
*जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं हीं, तृषा बिना जल ऐसा ।*
*सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा ॥२॥*
*सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवै ।*
*दादू मेरा तब मन मानै, सेज सदा सुख सोवै ॥३॥*
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हे प्रभो ! आप सज्जन और मेरे प्यारे हैं । आपके साथ जो मेरा प्रेम हैं, उसको कभी तोड़ना नहीं । यदि कभी मैं भी मेरी तरफ से उस प्रेम को तोडूं तो मैं आपका महा अपराधी कहलाऊंगा । लेकिन सज्जनता के नाते आप उस स्नेह को नहीं तोड़ना, क्योंकि प्रेम के बिना सर्वशिरोमणि परमात्मा भी अच्छा नहीं लगता, जैसे बिना प्रेम के दिया हुआ मधुर शीतल जल भी स्वादु नहीं लगता ।
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अतः प्रेम में ही रस है । प्रेम से ही वस्तुयें अच्छी लगती हैं । प्रेम के बिना तो महारस भी विष की तरह लगता है । अद्वैत ब्रह्म भी प्रेम से ही अच्छा लगता हैं । मेरे को तो परमात्मा अच्छे लगते हैं और बहुत ही प्रिय हैं । यह मेरा प्रेम परमात्मा के साथ जो हैं, वहा नित्य नूतन होता रहता हैं ।
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किन्तु हे सुन्दरि ! मैं तो उस परमात्मा के प्रेम को सच्चा जब मानूंगा कि वह मेरी हृदय शय्या पर स्वयं आकर सदा के लिये उस पर अपना अधिकार करके सोयेगा । इस भजन में श्री दादूजी ने प्रेमाभक्ति का निरूपण किया है ।
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प्रबोधसुधाकर में लिखा है कि –
भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमलों की भक्ति किये बिना अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता । जैसे गंदा कपड़ा क्षार से शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार चित्त के मल को धोने के लिये भक्ति ही साधन हैं ।
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शिवानन्दलहरी में श्रीशंकराचार्य जी लिखा रहे हैं –
जैसे अंकोल वृक्ष के बीज मूलवृक्ष से तथा सुई चुम्बक से, पतिव्रता साध्वी नारी पति से, लता वृक्ष से, नदी सागर से जा मिलती हैं । उसी प्रकार चित्तवृत्तियां भगवान् के चरण-कमलों को प्राप्त कर सदा के लिये स्थिर हो जाती हैं, तब उसे प्रेमाभक्ति कहते हैं ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२६

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*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२६)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२६. चौताल*
*विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी ।*
*भक्ति भाव बेग आइ, भीड़ भंजन स्वामी ॥टेक॥*
*अंत अधार संत सुधार, सुन्दर सुखदाई ।*
*काम क्रोध काल ग्रसत, प्रकटो हरि आई ॥१॥*
*पूरण प्रतिपाल कहिये, सुमिर्‍यां तैं आवै ।*
*भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावै ॥२॥*
*दीनदयालु होहु कृपालु, अंतरयामी कहिये ।*
*एक जीव अनेक लागे, कैसे दुख सहिये ॥३॥*
*पावन पीव चरण शरण, युग युग तैं तारे ।*
*अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे ॥४॥*
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दया करने में अतिप्रसिद्ध जो करुणामय भगवान् हैं, वे ही विषम संकटों में भक्तों के आश्रय बनते हैं । विपत्ति का नाश करने वाले भगवान् भक्तिभाव से युक्त अपने भक्त को संकटग्रस्त देखकर अपने आप दौड़े चले आते हैं । भक्तों के तो सब जगह पर भगवान् ही आधार माने गये हैं ।
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भगवान् ही अपने भक्तों के कार्यभार को वहन करते हुए उनको सुख देते रहते हैं । हे हरे ! कामक्रोध आदि शत्रुरूप काल मुझे दिनरात खा रहा हैं । अतः मेरे हृदय में प्रकट होकर दर्शन दीजिये । शास्त्र आपको भक्तरक्षक कहता हैं और आप भी भक्तों की प्रार्थना को सुन कर शीघ्र चले आते हैं, ऐसी प्रसिद्धि सब जगह पर आपकी हो रही हैं । भ्रम और नाना विधिकर्म और मोह आदि शत्रु मेरे को दुःख दे रहे हैं । सो आकर शीघ्र इनसे मुझे मुक्त कराइए ।
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लोग आपको दयालु अन्तर्यामी कहते हैं अतः मेरे ऊपर दया करो । अनेक कामक्रोध आदि प्रबल शत्रु पीड़ा दे रहे हैं । मैं अकेला हूँ, इन सब कष्टों को कैसे सहन कर सकूंगा । हे पावन परमात्मा मैं आपके शरणागत हूँ आप सदा ही शरणागतों की रक्षा करते रहते हैं । अतः हे अनाथ नाथ मेरा भी उद्धार करो ।
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स्तोत्ररत्नावली में कहा है कि –
जिसमें दोषरूपी हजारों सर्प हैं । क्रोधरूपी बड़वानल की ज्वालायें उठ रही हैं । जन्म जरा मरणरुप तरंगावली हैं । तथा मद और कामरूपी मगरमच्छ और भंवर हैं । ऐसे इस दुःखमय भवसागर में चिरकाल से पड़े हुए मुझको कृपा करके निकालिये । और दयामयरघुनन्दन ! आपको भजने वाले अपने भक्त को आपके चरण कमलों की दासता दीजिये ।
(क्रमशः)

शनिवार, 11 मई 2024

शब्दस्कन्ध ~ पद #४२५

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*भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरण वेदांताचार्य, श्रीदादू द्वारा बगड़, झुंझुनूं ।*
*साभार : महामण्डलेश्वर स्वामी अर्जुनदास जी महाराज, बगड़, झुंझुनूं ।*
*#हस्तलिखित०दादूवाणी सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #४२५)*
*राग धनाश्री ॥२७॥**(गायन समय दिन ३ से ६)*
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*४२५. करुणा विनती । त्रिताल*
*जनि छाड़ै राम जनि छाड़ै,*
*हमहिं विसार जनि छाड़े ।*
*जीव जात न लागै बार, जनि छाड़ै ॥टेक॥*
*माता क्यों बालक तजै, सुत अपराधी होइ ।*
*कबहुँ न छाड़े जीव तैं, जनि दुःख पावै सोइ ॥१॥*
*ठाकुर दीनदयाल है, सेवक सदा अचेत ।*
*गुण औगुण हरि ना गिणै, अंतर तासौं हेत ॥२॥*
*अपराधी सुत सेवका, तुम हो दीन दयाल ।*
*हमतैं औगुण होत हैं, तुम पूरण प्रतिपाल ॥३॥*
*जब मोहन प्राणहि चलै, तब देही किहि काम ।*
*तुम जानत दादू का कहै, अब जनि छाड़ै राम ॥४॥*
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हे राम ! मैं आपसे बार-बार प्रार्थना कर रहा हूँ कि मुझे भूलकर भी कभी आप न छोड़े । न जाने यह प्राण शरीर को छोड़कर कब चला जाय । क्या माता अपने दोषी पुत्र को कभी त्यागती हैं, नहीं उसकी माता उसको सुख हो ऐसा ही काम करती हैं वैसे ही आप मेरे स्वामी दीनों की रक्षा करने वाले हैं ।
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सेवक की रक्षा के लिये नित्य सावधान रहते हुए सेवक को सुख देने के लिया यत्न करते रहते हैं । हरि कभी भी भक्त के अवगुण या गुणों को नहीं देखते । वे तो मन के भावों को देखते हैं । भले ही मैं आपका अपराधी बालक भक्त हूँ । किन्तु आप दीनदयालु हैं ।
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अतः भगवान् अवगुणी भक्त के अवगुणों को न देखकर उसकी रक्षा ही करते हैं । आप तो जानते ही हैं, मैं आपको क्या कहूं, जब यह शरीर प्राणों के चले जाने से मृत हो जायेगा । तब यह किस काम का रहेगा ? अतः मैं तो यह ही विनय कर रहा हूँ कि आप मुझे न छोड़ें ।
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स्तोत्ररत्नावली में कहा है कि –
जिसका हृदयकमल सैकड़ों जन्मों के संचित पापों से युक्त हैं । तो पशुतुल्य पतित हो गया । उस अति मन्द बुद्धिवाले मुझ पर हे रणधीर रघुवीर ! कृपा कीजिये । आप ही मेरे माता-पिता, बहिन हैं । हे कृपालो आप ही मेरे रक्षक हैं । हे दयामय रघुनन्दन अपने भक्तों को चरणकमलों की दासता दीजिये ।
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आलस्यहीन मुनिवरों का समूह संसार के दुःखरूपी दावानल की जलन शान्त करने के लिये जिन भगवान् के चरणकमलों की आराधना करता हैं । वे समस्त जगत् के आधारभूत दीनबन्धु मेरे अपराधों को भूल कर मुझे दर्शन दें ।
(क्रमशः)