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रविवार, 10 जनवरी 2016

पद. ४४४

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/sq3orXTma6I
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४४४. दीपचन्दी ~
*तेरी आरती ए, जुग जुग जै जै कार ॥ टेक ॥* 
*जुग जुग आत्म राम, जुग जुग सेवा कीजिये ॥ १ ॥* 
*जुग जुग लंघे पार, जुग जुग जगपति को मिले ॥ २ ॥* 
*जुग जुग तारणहार, जुग जुग दरसन देखिये ॥ ३ ॥* 
*जुग जुग मंगलचार, जुग जुग दादू गाइये ॥ ४ ॥* 
(श्री प्राण उधारणहार)
इति राग धनाश्री सम्पूर्ण ॥ २८ ॥ पद ३० ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! उस निरंजन राम की आरती हम तो अन्तःकरण में ही, उनकी जय - जयकार ध्वनि सहित आराधना रूप आरती कर रहे हैं कि हे निरंजन देव राम आत्म - स्वरूप ! आपकी आरती आपके संत भक्त, निरन्तर हृदय में करते आ रहे हैं जुग - जुग में । हे प्रभु ! आप दीन दयालु भक्त वत्सल हैं । आप जीवात्मा के पास ही प्रतियुग में निजरूप होकर वास करते हैं । प्रतियुग में ही आपकी संत - भक्त भक्ति करते आ रहे हैं । हम भी आपके बारम्बार वारणै जाते हैं और आपकी आरती करते हैं । हे राम जी ! जुग - जुग में आपकी आरती करके ही प्राणी संसार - समुद्र से पार हुए हैं । और हे विश्‍वपति राम ! जुग - जुग में आपके भक्त आपकी आरती करके ही आपको मिले हैं । हे प्रभु ! आप जुग - जुग में अपने भक्तों को तारने के लिये तत्पर रहते हो । हे मुमुक्षुओं ! इस प्रकार निरंजन राम की आरती करके हम तो उनका हृदय में ही आत्म - रूप से साक्षात्कार रूप दर्शन कर रहे हैं । आप भी उस निरंजन आत्म - स्वरूप राम की निष्काम, निरन्तर आरती रूप भक्ति करके, जय - ध्वनि सहित अन्तर्मुख वृत्ति से ज्ञान - नेत्रों द्वारा दर्शन करिये । इस प्रकार ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि जो उपरोक्त प्रकार से निरंजन रूप राम की आरती करते हैं, उनके युग - युग में मंगलाचार होता रहता है । सम्पूर्ण दुःख, क्लेश नष्ट हो जाते हैं और इस प्रकार भक्तजन बारम्बार जय जयकार ध्वनि करते रहते हैं ।
अथवा हे संतों ! इस प्रकार ब्रह्म - वाणी की आरती करिये कि हे ब्रह्म - वाणी ! तेरी यही आरती है कि आपके संत भक्त जुग - जुग में आपकी जय - जयकार करते रहते हैं । हे ब्रह्म - वाणी ! आपके द्वारा ही जुग - जुग में जीवात्मा राम रूप होते हैं । हे गुरु वाणी ! जुग - जुग में ही आपकी आराधना रूप सेवा संतजन करते आये हैं और जुग - जुग में आपके द्वारा ही संतजन संसार - समुद्र से पार उतरे हैं । जुग - जुग में ही जगतपति परब्रह्म से आप संत भक्तों को मिलाती हो । हे गुरु - वाणी ! आपकी आरती करके ही जुग - जुग में आत्म - स्वरूप परब्रह्म का संतजन दर्शन करते हैं । इस प्रकार गुरु - वाणी की आरती गाने वाले संत भक्तों के हृदय में सदैव मंगलाचार बना रहता है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव महाराज कहते हैं कि हे संतों ! उपरोक्त प्रकार से ब्रह्म - वाणी की आरती गाकर अपना आत्म - कल्याण करो । बोलिये, “श्री दादू दयाल महाराज की जय । गुरु - वाणी की जय । दयाल - वाणी की जय । वक्ता श्रोताओं की जय ।”
इति राग धनाश्री टीका सहित सम्पूर्णः ॥ २८ ॥ पद ३० ॥ 
*अनन्त विभूषित श्री ब्रह्मऋषि जगद् गुरु श्री दादू दयाल महाराज की अनुभव, श्री दयाल वाणी के उत्तरार्ध भाग की दृष्टान्तों सहित सजीवनी टीका सम्पूर्ण ।*
*“दादू दीन दयाल की, वाणी सागर रूप ।* 
*पंडित भूरादास ने, टिप्पणी करी अनूप ॥”*
मिती आसोज, कृष्ण पक्ष ॥ तिथि चौदस ॥ सोमवार ॥ संवत २०२० को श्री दादू आश्रम में वाणी जी की टीका सम्पूर्ण की ॥ रेनवाल किशनगढ़ ॥ 
श्री दयाल वाणी को बांचै विचारै, 
उन प्रेमी संत भक्तों को मेरा सत्यराम ॥ इति ॥ 

ॐ शान्तिः! शान्तिः ! शान्तिः !

शनिवार, 9 जनवरी 2016

पद. ४४३

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी

साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/0zBvroqdUM8
४४३. भंगताल ~
*निराकार तेरी आरती,* 
*बलि जाऊँ, अनन्त भवन के राइ ॥ टेक ॥* 
*सुर नर सब सेवा करैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।*
*देव तुम्हारा भेव न जानैं, पार न पावै शेष ॥ १ ॥ 
*चन्द सूर आरती करैं, नमो निरंजन देव ।*
*धरणि पवन आकाश आराधैं, सबै तुम्हारी सेव ॥ २ ॥* 
*सकल भवन सेवा करैं, मुनियर सिद्ध समाधि ।*
*दीन लीन ह्वै रहे संतजन, अविगत के आराधि ॥ ३ ॥* 
*जै जै जीवनि राम हमारी, भक्ति करैं ल्यौ लाइ ।*
*निराकार की आरती कीजै, दादू बलि बलि जाइ ॥ ४ ॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हम तो निरंजन निराकार रूप राम की आरती इस प्रकार करते हैं कि हे निरंजन निराकार रूप राम ! अनन्त भुवनों के राजा, हम आपकी आरती करते हुए आपके बार - बार बलिहारी जाते हैं । हे नाथ ! आपकी सुर - देवता, नर - नारद आदि सभी आरती रूप सेवा करते हैं । ब्रह्मा - विष्णु - महेश भी आपकी आरती गाते हैं । परन्तु हे देव ! आपके स्वरूप का कोई भी भेद नहीं पाया है । शेष जी भी एक हजार मुख में, दो हजार जिह्वा द्वारा आपके नाम स्मरण द्वारा आपकी आरती करते हैं, किन्तु उन्होंने भी आपके स्वरूप का अन्त नहीं पाया है । चन्द्रमा - सूर्य आदि सभी आपकी सेवा रूप आरती करके बारम्बार नमस्कार कर रहे हैं । धरती, पवन, आकाश आदि सम्पूर्ण पँच महा भूत, आपकी आरती रूप सेवा में लग रहे हैं । सभी सम्पूर्ण भुवनों के निवासी, आपकी आरती रूप सेवा कर रहे हैं । मुनि लोग, सिद्ध लोग समाधि द्वारा आपकी आरती रूप सेवा में लग रहे हैं और सम्पूर्ण समाज के उत्तम भक्तजन आपकी आरती रूप सेवा कर रहे हैं । सम्पूर्ण संत भक्त दीन होकर आपकी आरती रूप सेवा में लीन हो रहे हैं । हे अव्यक्त ! उपरोक्त सभी आपकी आराधना रूप आरती कर रहे हैं । हे राम जी ! आप की जय हो, जय हो । आप ही हमारे जीवन रूप हो । हे नाथ ! हम तो अब आपकी आरती रूप भक्ति, आपकी दया में आपसे लय लगाकर कर रहे हैं । हे जिज्ञासुओं ! इस प्रकार निरंजन निराकार रूप राम की आरती रूप सेवा करके उनके ऊपर बार - बार बलिहारी जाइये ।
अथवा हे जिज्ञासुओं ! यह निरंजन निराकार रूप ब्रह्म - वाणी की आरती करिये कि हे ब्रह्मवाणी ! आपकी अनन्त भुवनों में निवास करने वाले सभी आरती रूप सेवा करते हैं । सुर भी, नर भी, ब्रह्मा - विष्णु - महेश भी, ब्रह्म - वाणी की सेवा में लग रहे हैं । हे ब्रह्म - वाणी रूप दिव्य स्वरूप देव ! आपका किसी ने अन्त नहीं पाया है । शेष जी भी ब्रह्म - वाणी के नामों को रट कर अन्त नहीं पा रहे हैं । चन्द्रमा - सूर्य भी हे ब्रह्म - वाणी आपकी आरती कर रहे हैं । धरती, पवन, आकाश, सम्पूर्ण, भूत, आप ब्रह्म - वाणी की आरती रूप सेवा कर रहे हैं । सम्पूर्ण भुवनों के निवासी सभी ब्रह्म - वाणी की सेवा में लगे हैं । मुनि लोग, सिद्ध लोग समाधि द्वारा ब्रह्म - वाणी की आरती रूप सेवा कर रहे हैं । सम्पूर्ण संत भक्त, ब्रह्म - वाणी के सामने दीन होकर आरती रूप सेवा में लीन हो रहे हैं । हे ब्रह्म - वाणी ! हे गुरु वाणी ! हे दयाल वाणी ! आपकी जय हो ! जय हो ! जय हो ! आप ही हमारी जीव रूप हैं । हे राम रूप ब्रह्म - वाणी ! आपके संत भक्त, आपमें लय लगाकर आपकी सेवा रूप आरती करते हैं । हे निराकार रूप ब्रह्म - वाणी ! हम आपकी आरती रूप सेवा करके आपके बार - बार बलिहारी जाते हैं

शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

पद. ४४२

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/ZrKpltiMkCI
४४२. उदीक्षण ताल ~
*अविचल आरती देव तुम्हारी, जुग जुग जीवन राम हमारी ॥ टेक ॥* 
*मरण मीच जम काल न लागे, आवागमन सकल भ्रम भागे ॥ १ ॥* 
*जोनी जीव जनम नहिं आवे, निर्भय नाँव अमर पद पावे ॥ २ ॥* 
*कलिविष कसमल बँधन कापे, पार पहुँचे थिर कर थापे ॥ ३ ॥* 
अनेक उधारे तैं जन तारे, दादू आरती नरक निवारे ॥ ४ ॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! उस निश्‍चल दिव्य स्वरूप निरंजन देव की आरती इस प्रकार करो कि हे देव ! आप अविचल हैं और अविचल स्वरूप ही आपकी आरती है । हे निरंजन राम ! यह आपकी आरती जुग - जुग में हमारे जीव की जीवन रूप है । इस प्रकार जो अविचल निरंजनदेव की आरती करते हैं, उनके मरण रूप मृत्यु और जम रूप काल कभी भी पास नहीं आते हैं । और फिर आवागमन रूप चक्र तथा सम्पूर्ण भय - भ्रम उनके अन्तःकरण से भाग जाते हैं । फिर वह जीव गर्भवास में नहीं आता और न चौरासी में जाकर जन्म लेता है । इस निरंजन राम की नाम - स्मरण रूप आरती करने वाले काल - कर्म के भय से निर्भय होकर अमर पद को प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार निरंजन देव की आरती करने से नाना प्रकार के विकार और कलिकाल के पाप रूपी बन्धन कट जाते हैं । ऐसे साधक पुरुष आपकी आरती करके संसार - सागर से पार होकर आपके स्वरूप को प्राप्त होते हैं । आरती करने का फल, उनको आप पारब्रह्म के स्वरूप में चिर - स्थिर करके सर्व कालबन्धन से मुक्त स्थापित कर देते हो । आपकी आरती करने वाले अनेक भक्तों का, अपने जन्म - मरण रूपी दु:खों से उद्धार करके उन्हें संसार समुद्र से पार किये हैं । यह आपकी आरती प्राणी के नरक आदि क्लेशों को निवारण कर देती है ।
अथवा हे संतों ! इस अविचल स्वरूप ब्रह्म - वाणी की जो आरती करते हैं और यह जानते हैं कि हे ब्रह्म - वाणी ! आप जुग - जुग में हमारी जीवन रूप हैं । उनके मरण रूप मृत्यु और जम रूप काल कभी नहीं लगता है और सम्पूर्ण भय - भ्रम भाग जाते हैं । वह जीव योनि में होकर कभी नहीं जन्मते हैं । गुरु वाणी का स्मरण करते हुए निर्भय होकर अमर पद को प्राप्त कर लेते हैं । कलि - काल के सम्पूर्ण विकार और पाप रूपी बन्धन सब कट जाते हैं । और ऐसे भक्तों का यह ब्रह्म - वाणी संसार - समुद्र से पार करके, ब्रह्म स्वरूप में स्थापन करती है । हे गुरु वाणी ! आपने अनेकों भक्तों को संसार - समुद्र से तार कर उद्धार किया है । हे संतों ! इस प्रकार जो वाणीजी की आरती करते हैं, उनको यह आरती नरक के दु:खों से मुक्त कर देती है

गुरुवार, 7 जनवरी 2016

पद. ४४१

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/Lr-3DqWBYIE
४४१. उदीक्षण ताल ~
*आरती जगजीवन तेरी, तेरे चरण कँवल पर वारी फेरी ॥ टेक ॥* 
*चित चाँवर हेत हरि ढ़ारे, दीपक ज्ञान हरि ज्योति विचारे ॥ १ ॥* 
*घंटा शब्द अनाहद बाजे, आनन्द आरती गगन गाजे ॥ २ ॥* 
*धूप ध्यान हरि सेती कीजे, पुहुप प्रीति हरि भाँवरि लीजे ॥ ३ ॥* 
*सेवा सार आत्मा पूजा, देव निरंजन और न दूजा ॥ ४ ॥* 
*भाव भक्ति सौं आरती कीजे, इहि विधि दादू जुग जुग जीजे ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! अपने हृदय में उस सम्पूर्ण जगत के जीवन रूप, जगजीवन राम की आरती करिये कि हे राम ! हम आपके तेज - पुंज रूप चरण कमलों पर अपने आपको वार फेर करते हैं । और हेत रूपी हाथ से शुद्ध चित्त रूप चँवर आपके उपर ढ़ुराते हैं । और हे हरि ! आपके सामने ज्ञान विचार रूपी दीपक जगाते हैं । अनहद शब्द रूप मानों घंटा बजा रहे हैं । आप आनन्द स्वरूप के विचार रूप ही मानो आरती की गर्जन हृदय में हो रही है । ध्यान रूपी धूप कर रहे हैं और अखंड प्रेम रूप पुष्प माला आप पर चढ़ा रहे हैं तथा श्रद्धा रूप से ही आपकी परिक्रमा कर रहे हैं । इस प्रकार यह जीवात्मा रूप उपासक, आपकी सेवा रूप पूजा करता है । हे निरंजनदेव ! आप ही हमारे उपास्य देव हैं । आपके अतिरिक्त दूसरा कोई देवी - देव हमारा उपास्य नहीं है । इस प्रकार हे संतों ! भाव भक्ति द्वारा, जो हृदय में निरंजन राम की आरती करता है, वह निरंजन ब्रह्म स्वरूप होकर युग - युग में जीवित रहता है ।
अथवा हे जगत की जीवन रूप ब्रह्म वाणी ! आपके ऊपर हम न्यौछावर जाते हैं । और आपके ऊपर शुद्ध चित्त रूपी चँवर ढ़ुरा रहे हैं । और विचारपूर्वक मानो ज्ञान के दीपक जगाकर, नाना प्रकार के गाजे बाजे सहित, आपकी आरती करते हैं । नाना प्रकार के सुगन्धि रूप पदार्थों की आपके सामने धूप धुकाते हैं । इस प्रकार जो वाणी जी की आरती करते हैं, उनके सदा ही आनन्द मंगल की मानो गर्जना होती रहती है । और नाना प्रकार के सुगन्धित पुष्प, माला आपके ऊपर चढ़ा रहे हैं । और ब्रह्म - वाणी रूप दयाल ! हम आपकी बारबार परिक्रमा करते हैं । मानो यही आपकी सार सेवा पूजा है । हे निरंजनरूप वाणी ! आप ही हमारे दिव्य उपास्य देव हैं । इस प्रकार भाव भक्ति द्वारा जो ब्रह्म वाणी की आरती करते हैं, वे ही पुरुष जुग - जुग में सजीवन भाव को प्राप्त हो जाते हैं

बुधवार, 6 जनवरी 2016

पद. ४४०

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/TYX4I3pHUF0
४४०. आरती । त्रिताल ~
इहि विधि आरती राम की कीजे, आत्मा अंतर वारणा लीजे ॥ टेक ॥ 
तन मन चन्दन प्रेम की माला, अनहद घंटा दीन दयाला ।
ज्ञान का दीपक पवन की बाती, देव निरंजन पाँचों पाती ।
आनन्द मंगल भाव की सेवा, मनसा मन्दिर आतम देवा ।
भक्ति निरन्तर मैं बलिहारी, दादू न जानै सेव तुम्हारी ।
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निरंजन राम की आरती की विधि बताते हुए आरती कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! उन निरंजन राम की आरती इस प्रकार करिये । अपने अन्तःकरण के भीतर ही उन आत्म - स्वरूप निरंजन राम पर न्यौछावर होना चाहिये । अपने तन और मन को चन्दन बनाकर राम के अर्पण करिये । और अखंड प्रेमरूपी पुष्पों की माला आत्मरूप राम को धारण कराइये । और अनहद घंटा रूपी ही मानो दीन दयालु के सामने बाजे बज रहे हैं । अन्तःकरण रूपी दीपक में श्‍वास रूपी बत्ती में ज्ञान - सम्पादन रूप ज्योति जलाइये । इस प्रकार आत्म - स्वरूप निरंजन राम पर पाँच ज्ञानेन्द्रियें रूप तुलसी - दल चढ़ाइये । इस प्रकार आनन्दपूर्वक मंगला आरती प्रभु की करिये और अखण्ड भावमय सेवा कीजिये । उन आत्म - स्वरूप निरंजन राम का शुद्ध मनसा रूपी ही मानो मन्दिर है । उसमें आत्म - स्वरूप निरंजन ही देव है । इस प्रकार निरंतर हृदय में निरंजन राम की आरती रूप भक्ति करिये अथवा हम उन निरंजन राम की आरती रूप भक्ति निरन्तर हृदय में करते हैं और बार - बार उन पर बलिहारी जाते हैं । 
ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे परमेश्‍वर ! जैसे आप अखंड परिपूर्ण हैं, ऐसी आपकी सेवा करना हम नहीं जानते अथवा हे संतों ! उपरोक्त प्रकार से आनन्द रूप निरंजन राम की आरती करिये और बारबार उन के ऊपर अपने आपको न्यौछावर करिये । तन मन को उन की सेवा में लगाइये । अखंड प्रेम रूप माला पहनाइये और नाना प्रकार के गाजे - बाजे सहित ज्ञान - भक्ति द्वारा, निरंजनदेव के पँच ज्ञानेन्द्रियाँ रूप तुलसीदल चढ़ाइये । इस प्रकार भाव - पूर्वक सदैव जो परब्रह्म की आरती करते हैं, उनके सदा ही आनन्द मंगल बना रहता है । और फिर प्रार्थना करें कि हे दयाल रूप ब्रह्म ! हम आपकी सेवा करना नहीं जानते हैं । जैसे आप हैं, ऐसी आपकी आराधना हमसे नहीं हो सकती है

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

पद. ४३९

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३९. फरोदस्त ताल ~ 
राम की राती भई माती, लोक वेद विधि निषेध । 
भागे सब भ्रम भेद, अमृत रस पीवै ॥ टेक ॥ 
भागे सब काल झाल, छूटे सब जग जंजाल । 
विसरे सब हाल चाल, हरि की सुधि पाई ॥ १ ॥ 
प्राण पवन जहाँ जाइ, अगम निगम मिले आइ । 
प्रेम मगन रहे समाइ, विलसै वपु नाँहीं ॥ २ ॥ 
परम नूर परम तेज, परम पुंज परम सेज । 
परम ज्योति परम हेज, सुन्दरि सुख पावै ॥ ३ ॥ 
परम पुरुष परम रास, परम लाल सुख विलास । 
परम मंगल दादू दास, पीव सौं मिल खेलै ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब तो हमारी सुरति राम की निष्काम अनन्य भक्ति में रत्त होकर मस्त हो रही है । अब लौकिक और वैदिक कर्म विधि - निषेध रूप और पाँचों प्रकार का भ्रम - भेद, ये सब हमारे अन्तःकरण से दूर हो गये हैं और अभेद चिन्तनरूप अमृत रस ही हम सदा पान कर रहे हैं तथा काल की ज्वालारूप काम - क्रोध आदिक सभी आसुरी गुण, अन्तःकरण से भाग गये हैं और यम का जाल रूप जगत् के सम्पूर्ण कपट रूप व्यवहार छूट गये हैं तथा सांसारिक प्राणियों के वृत्तान्त सभी हम भूल गये हैं । हरि की ही निष्काम अनन्य भक्ति प्राप्त कर ली है और प्राण - वायु जहाँ दशवें द्वार में जाकर स्थिर होता है, वहाँ हम शास्त्र - वेद से भी अगम ब्रह्म - स्वरूप में आकर मिले हैं । ब्रह्म - प्रेम में मग्न होके अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा उन्हीं में समा रहे हैं । अब हम शरीर अध्यास द्वारा मायिक विषयों का उपभोग नहीं करते । उस ब्रह्म का स्वरूप और प्रताप अति उत्तम है । उनसे अत्यन्त अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा प्रेम करके हमारी वृत्ति रूप सुन्दरी सुख पा रही है । उन परम प्रिय, परम पुरुष स्वामी के साथ मिलकर हम दास अभेद भावना रूप रास खेलते हुए परमानन्द का उपभोग कर रहे हैं । इस प्रकार हृदय में परम आनन्द हो रहा है । “धनाश्री आनन्द कीया मिल आरती गाई ।”

सोमवार, 4 जनवरी 2016

पद. ४३८

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३८. फरोदस्त ताल ~
गोविन्द पाया मन भाया, अमर कीये संग लीये ।
अक्षय अभय दान दीये, छाया नहीं माया ॥ टेक ॥ 
अगम गगन अगम तूर, अगम चन्द अगम सूर ।
काल झाल रहे दूर, जीव नहीं काया ॥ १ ॥ 
आदि अंत नहीं कोइ, रात दिवस नहीं होइ ।
उदय अस्त नहीं दोइ, मन ही मन लाया ॥ २ ॥ 
अमर गुरु अमर ज्ञान, अमर पुरुष अमर ध्यान ।
अमर ब्रह्म अमर थान, सहज शून्य आया ॥ ३ ॥ 
अमर नूर अमर वास, अमर तेज सुख निवास ।
अमर ज्योति दादू दास, सकल भुवन राया ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब तो हमने हमारे मन को प्रिय लगने वाले गोविन्द को प्राप्त कर लिया है । वह गोविन्द हमको अभेद रूप से अपने संग लेकर हमको अमर किये हैं और फिर अक्षय पद, अभय पद का दान दिया है । उनके स्वरूप में माया और माया की छाया लौकिक सुख, इन दोनों का ही अभाव है । वे हृदय आकाश से और अनहद शब्द से भी आगे हैं तथा चन्द्रमा - सूर्य के प्रकाश से भी अगम्य हैं, किसी की भी उनके स्वरूप में गम नहीं पहुँचती है । काल की झल(ज्वाला) उनसे दूर ही रहती है तथा वे जीवत्व - भाव, कहिए कर्ता भोक्तापन से भी अलग हैं और न वे स्थूल शरीर रूप ही हैं । हे जिज्ञासु ! ऐसे समर्थ परमेश्‍वर के स्वरूप का आदि अंत किसी प्रकार भी नहीं ज्ञात होता है । न उनके स्वरूप में रात है और न दिन ही है अर्थात् उनके स्वरूप में अज्ञान रूप रात्रि और इन्द्रिय - ज्ञान रूपी दिन नहीं है । न उनके पास चन्द्र - सूर्य आदि का उदय अस्त ही होता है और न ज्ञान का उदय अस्त ही होता है । वे स्वयं नित्य ज्ञान - स्वरूप हैं । हमने अपने व्यष्टि मन को चिन्तन द्वारा उनके समष्टि मन में अभेद किया है । वे अमर स्वरूप गुरुदेव हैं । उनका ज्ञान भी अमर ही है । वे ही अमर पुरुष हैं और उनका ध्यान भी अमर करने वाला है । वे परब्रह्म ही अमर स्थान रूप हैं । वे सहज क हिए निर्विकार स्वरूप, सहजावस्था रूप समाधि में, ज्ञान रूप नेत्रों से दिखाई पड़ते हैं । उनका शुद्ध रूप ही अमर है । उसमें ब्रह्मवेत्ता अपनी सुरति के द्वारा वास करते हैं । उनका ब्रह्मतेज ही अमर है । वे ही ब्रह्मवेत्ताओं का निवास स्थान हैं । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि वे हमारे उपास्यदेव परब्रह्म, अमर ज्योतिरूप हैं और सम्पूर्ण भुवनों के राजपति राजा हैं । हम दासों का उस नित्य आनन्द स्वरूप में ही निवास है

रविवार, 3 जनवरी 2016

पद. ४३७

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३७. दीपचन्दी ~
राम तहाँ प्रगट रहे भरपूर, आत्मा कमल जहाँ,
परम पुरुष तहाँ, झिलमिल झिलमिल नूर ॥ टेक ॥ 
चन्द सूर मध्य भाइ, तहाँ बसै राम राइ, गंग जमुन के तीर ।
त्रिवेणी संगम जहाँ, निर्मल विमल तहाँ, निरख निरख निज नीर ॥ १ ॥ 
आत्मा उलटि जहाँ, तेज पुंज रहै तहाँ, सहज समाइ ।
अगम निगम अति, जहाँ बसै प्राणपति, परसि परसि निज आइ ॥ २ ॥ 
कोमल कुसम दल, निराकार ज्योति जल, वार न पार ।
शून्य सरोवर जहाँ, दादू हंसा रहै तहाँ, विलसि - विलसि निज सार ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! ऐसे तो राम सर्वत्र परिपूर्ण रूप से व्यापक हो रहे हैं, परन्तु शुद्ध हृदय में अहंग्रह ध्यान में प्रकट रूप से भास रहे हैं । आत्मा रूप कमल कहिए आत्मा के स्वरूप में ही परम पुरुष चैतन्य रूप परमेश्‍वर निवास करते हैं । उनका स्वरूप झिलमिल रूप दीख रहा है । हे साधक ! जहाँ इड़ा रूप चन्द्र सुर और पिंगला रूप सूर्य सुर हैं, इनके बीच में, सुषुम्ना नाड़ी चलती है । उस सुषुम्ना में चैतन्य रूप राम राजा प्रतीत हो रहे हैं अर्थात् इड़ा सुर गंगा रूप है, पिंगला सुर यमुना रूप है, सुषुम्ना रूप सरस्वती है । कुंभक के समय तीनों का संगम होता है । उस संगम रूप त्रिवेणी के ज्ञान - तट पर निज आत्म - स्वरूप माया - मल से रहित निर्मल नीर को पुनः पुनः विचार रूप नेत्रों से देख । वहाँ प्रकाश - समूह रूप आत्म - स्वरूप ब्रह्म स्थित है । तूँ अपनी वृत्ति को अन्तर्मुख लाकर उनके निर्द्वन्द्व स्वरूप में लय करिये । जो वेद - शास्त्रों से भी अगम्य हैं, वह अपनी स्वमहिमा में ही प्राणों को सत्ता स्फूर्ति देने वाले चैतन्य रूप ब्रह्म बसते हैं । उनका “अहं ब्रह्मास्मि” वृत्ति द्वारा ही चिन्तन रूप स्पर्श करके ही निज स्वरूप में आइये । ‘कोमल कुसम दल’, कहिए शुद्ध हृदय - कमल में, प्रतिबिम्बित चेतन रूप जल, वासना - विहीन हृदय - सरोवर में ही हंसा, कहिए साधक की वृत्ति उपभोग कर - करके विश्‍व के सार - स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करती है

शनिवार, 2 जनवरी 2016

पद. ४३६

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३६. परिचय उपदेश । पंजाबी त्रिताल ~ 
तिस घरि जाना वे, जहाँ वे अकल स्वरूप,
सोइ इब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥ टेक ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, बान बरन न पाइये ।
अखंड मंडल माँहि रहै, सोई प्रीतम गाइये ॥ 
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥ १ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मंडल माँहि साचा, नैन भर सो देखिये ॥ 
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,
सोई प्रकट होई, यह अचम्भा पेखिये ।
दयावंत दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥ २ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का, सोई जन जे पावही ।
दयावंत दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥ 
लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई, अगम बैन सुनावही ।
सब दुःख भागा रंग लागा, काहे न मंगल गावही ॥ ३ ॥ 
अकल स्वरूप पीव का, कर कैसे करि आणिये ।
निरन्तर निर्धार आपै, अन्तर सोई जाणिये ॥ 
जाणहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा, सुमिर सोई बखानिये ।
श्री रंग सेती रंग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर का साक्षात्कार रूपी उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अब उस सहजावस्था रूप घर में जाइये, जहाँ वे कला रूप अवयव से रहित, निरंजन स्वरूप ब्रह्म प्राप्त होते हैं । वे सब देवों के राजान् पति राजा हैं, उन्हीं का हृदय में ध्यान करिये । उस निराकार स्वरूप ब्रह्म में बाना = भेष, बरन = वर्ण, जाति, रंग, रूप आदि कुछ भी नहीं है । फिर वह अपनी स्वमहिमा रूप अखंड मंडल में रहते हैं अथवा तेरे हृदय रूप मंडल में चैतन्य रूप से निवास करते हैं । उसी प्रियतम स्वरूप परमेश्‍वर के नाम का गायन करते हुए अन्तःकरण से उस सार रूप ब्रह्म का आत्म - स्वरूप से ही साक्षात्कार करते हैं । इस प्रकार सहजावस्था रूप समाधि घर में जाकर इस जीवित अवस्था में ही परब्रह्म के साथ अभेदरूप सच्चा संग प्राप्त करिये । उस निरवयव स्वरूप प्रियतम ब्रह्म का उपरोक्त प्रकार से साक्षात्कार करिये अर्थात् वह सत्य - स्वरूप ब्रह्म, फिर निर्विकार हृदय - मंडल में ही प्रतीत होंगे । उनको तुम अपने ज्ञान नेत्रों से साक्षात्कार देखिये । फिर वहाँ यह आश्‍चर्य देखने में आवेगा कि जो निराकार हैं, वही ब्रह्म प्रगट हो रहे हैं । वह ऐसे दया रूप गुणों से युक्त दयालु हैं कि रंग - रूप रहित होने पर भी भक्तों पर दया करके अति विशेष ओंकार वर्ण से वा भक्तों की भावना द्वारा रंग रूप सहित भासने लगते हैं । वही जीव के प्राणाधार हैं । यद्यपि रंग रूप रहित ब्रह्म का जो भक्त होता है, वही उनको प्राप्त करता है । वे ऐसे परम दयालु हैं कि अपने भक्त को अनायास ही अपना स्वरूप साक्षात्कार कराते हैं । परन्तु ऐसा चतुष्टय - साधन - सम्पन्न जिज्ञासु ही देखता है । इस प्रकार जो देखता है, वही उनके संग हो जाता है और फिर उस अगम ब्रह्म सम्बन्धी ही वचन सुनाता है । फिर सुनाने वाले और सुनने वालों के सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो जाते हैं । फिर ब्रह्म का ही अभेद भावना रूपी रंग हृदय में आ लगता है । फिर वही ब्रह्म सम्बन्धी मंगलमय गीत गाता है । हे जिज्ञासुओं ! उस कला विभाग रहित परब्रह्म का दया रूपी हाथ, भक्ति - वैराग्य ज्ञान रूप साधनों द्वारा पकड़ना चाहिए । और फिर उस अविचल स्वरूप ब्रह्म का अपने आत्म - स्वरूप से अभेद करके उस अद्वैत निष्ठा को भीतर रखना चाहिए । इस प्रकार अन्तःकरण में विचार करके उसे जानिये । जब अन्तःकरण में विचार करके जानोगे, तब वह सम्पूर्ण विश्‍व के सार स्वरूप से ज्ञात होंगे । इस प्रकार उनका स्मरण करिये तथा उन्हीं का कथन करिये । इस प्रकार परब्रह्म स्वरूप, श्री रंग से जो तुम्हारा प्रेम लग जाय, तो तभी तुमको सुख मानना चाहिए । इस स्थिति से पहले, विरह भक्ति द्वारा, हरि का स्मरण करते रहना चाहिए ।



शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

पद. ४३५

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३५. त्रिताल ~
ए ! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई, परगट दरसन देहु अघाई ॥ टेक ॥ 
तालाबेली तलफै माँही, तुम बिन राम जियरे जक नांही ।
निशिवासर मन रहै उदासा, मैं जन व्याकुल श्‍वासों श्‍वासा ॥ १ ॥ 
एकमेक रस होइ न आवै, तातैं प्राण बहुत दुख पावै ।
अंग संग मिल यहु सुख दीजे, दादू राम रसायन पीजे ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव दर्शनार्थ परमेश्‍वर से विनती कर रहे हैं कि हे परमेश्‍वर ! आपकी निष्काम प्रेमाभक्ति के बिना हमसे अब इस शरीर में रहा नहीं जाता है । अब आप हमारे हृदय में प्रकट होकर दर्शन दीजिये, ताकि हम अतृप्त भाव से आपका दर्शन करें । हे राम जी ! आपके दर्शनों के बिना ताला = तलफ, और बेली = विलाप के सहित जीव तड़फ रहा है, जीव को शांति नहीं है । अब तो हमारा मन रात - दिन संसार की तरफ से उदास हो रहा है । हम आपके विरहीजन श्‍वास - उच्छ्वास पर व्याकुल हो रहे हैं, क्योंकि आपके अद्वैत स्वरूप का ओत - प्रोत भावना रूप रस नहीं प्राप्त हो रहा है । इसीलिये हमारे प्राण अति दुखी हो रहे हैं । हे नाथ ! आप हमारे शरीर में हृदय के भीतर हमको प्राप्त होकर दर्शनों का सुख प्राप्त कराइये । तब फिर हम जीव ब्रह्म की एकता रूप राम - रस का पान करेंगे ।

पद. ४३४

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३४. विनती । त्रिताल ~
गोविन्द के चरणों ही ल्यौ लाऊँ ।
जैसे चातक बन में बोलै, पीव पीव कर ध्याऊँ ॥ टेक ॥ 
सुरजन मेरी सुनहु वीनती, मैं बलि तेरे जाऊँ ।
विपति हमारी तोहि सुनाऊँ, दे दर्शन क्यों हि पाऊँ ॥ १ ॥ 
जात दुख, सुख उपजत तन को, तुम शरणागति आऊँ ।
दादू को दया कर दीजे, नाँव तुम्हारो गाऊँ ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, परमेश्‍वर के दर्शनार्थ विनती कर रहे हैं कि हे गोविन्द ! अब हमने तो केवल आपके चरणारविन्द में ही अपनी वृत्ति लगाई है । जैसे चातक पपैया वन में स्वांति बूँद के लिए पीव - पीव पुकारता रहता है, इसी प्रकार हम प्रियतम - प्रियतम कर - करके आपके दर्शनार्थ ध्यान लगा रहे हैं । हे सुन्दर संत भक्तों के स्वामी ! अब हमारी भी आप प्रार्थना सुनिये । हम आपके ऊपर बार - बार बलिहारी जाते हैं । हे प्रिय ! हम आपके विरह रूपी दर्द से अति दुखी है । आपको ही हम अपना दुख सुनाते हैं । अब आप कृपा करके दर्शन दीजिये । आपकी दया बिना हम आपका दर्शन कैसे पा सकते हैं ? अब आप ही कृपा करके बताइये कि आपके दर्शन कब होंगे ? जो आपकी शरण में आते हैं, उनके सम्पूर्ण दु:ख नष्ट होकर आपके दर्शन रूपी सुख को प्राप्त कर लेते हैं । हम भी आपकी शरण में आये हैं । अब हम पर दया करके आपके नाम का दान दीजिये, जिससे हम निष्काम नाम - स्मरण द्वारा आपका दर्शन प्राप्त कर सकें

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

पद. ४३३

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३३. हित उपदेश । चौताल ~
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे ।
एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे ॥ टेक ॥ 
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।
अन्तर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥ १ ॥ 
हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।
रसना निज नाम निरख, अन्तर गति वासै ॥ २ ॥ 
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव हितकर उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अपनी मनसा, मन, सुरति, पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँ, इन सबको गुरु के उपदेश रूपी शब्द में स्थिर करके, सहजावस्था द्वारा सदा अद्वैत ब्रह्म स्वरूप के अभेद रूप संग में रहकर, जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञानामृत का पान करिये । और अनात्म अहंकार को भूलकर सम्पूर्ण मायावी प्रपँच से रहित सबके मूल कारण ब्रह्म को उपास्य देव रूप से जो ग्रहण करते हैं तथा निर्मल प्रेम से वृत्ति अन्तर्मुख आत्मा में ही लगाये रहते हैं, उनके मन, इन्द्रियाँ अद्वैत ब्रह्म - चिन्तन में ही सन्तुष्ट रहते हैं । उन्हीं के शुद्ध हृदय में और शुद्ध बुद्धि में केवल पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश प्रगट रहता है और जिह्वा के ऊपर सदैव गुरु उपदेश निवास करता है । उपरोक्त साधना द्वारा आत्म - स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करके अन्तर्मुख वृत्ति से आत्मा में ही स्थिर रहते हैं । इस प्रकार आत्म - चिन्तन से पूर्ण ब्रह्म में ही वृत्ति का गमन होता रहता है । ऐसे साधक एकत्व भावना रूप प्रेमाभक्ति में मस्त रहते हैं । इस प्रकार चिन्तन करने वाले साधक का अनात्म अहंकार निवृत्त हो जाता है । वह फिर अद्वैत ब्रह्म से अरस - परस होकर ब्रह्मानन्द रूप रस में मस्त रहते हैं ।

बुधवार, 30 दिसंबर 2015

पद. ४३२

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३२. दीप चन्दी ~
डरिये रे डरिये, देख देख पग धरिये । 
तारे तरिये, मारे मरिये, तातैं गर्व न करिये रे, डरिये ॥ टेक ॥
देवै लेवै, समर्थ दाता, सब कुछ छाजै रे । 
तारै मारै, गर्व निवारै, बैठा गाजै रे ॥ १ ॥ 
राखैं रहिये, बाहैं बहिये, अनत न लहिये रे । 
भानै घड़ै, संवारै आपै, ऐसा कहिये रे ॥ २ ॥ 
निकट बुलावै, दूर पठावै, सब बन आवै रे । 
पाके काचे, काचे पाके, ज्यूं मन भावै रे ॥ ३ ॥ 
पावक पाणी, पाणी पावक, कर दिखलावै रे । 
लोहा कंचन, कंचन लोहा, कहि समझावै रे ॥ ४ ॥ 
शशिहर सूर, सूर तैं शशिहर, परगट खेलै रे । 
धरती अंबर, अंबर धरती, दादू मेलै रे ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर और भयानक कर्मों से डरने का निर्देश करते हैं कि हे मानव ! पाप कर्मों से और परमेश्‍वर से डरते रहना और पृथ्वी पर देख - देखकर अर्थात् विचार - विचार कर पैर रखना, निष्काम शुभ कर्मों में अपनी वृत्ति लगाना । जब परमेश्‍वर दया करके जिस जीव का उद्धार करते हैं, उसी का उद्धार होता है और वे मारें, तो जीव का मरण होता है । इसलिये गर्व रूप कर्मों का त्याग करके सदैव ईश्‍वर से डरते रहना चाहिये । वह परमेश्‍वर उदारवृत्ति हैं, परन्तु भक्तों को तारने और दुष्टों को मारने तथा गर्व नष्ट करने में समर्थ हैं । और फिर सदा हृदय में स्थिर रहकर सत् कर्मों की प्रेरणा रूप गर्जना करते रहते हैं । फिर सम्पूर्ण प्राणियों की भावना अनुसार फल देते हैं, क्योंकि वह समर्थ हैं जो भी करें, उनको सभी कुछ शोभा देता है । जब वह प्राणी को अपने स्वरूप में स्थिर रखें, तभी स्थिर रहता है और वह चलावें तो चलायमान हो जाता है । वह स्वयं समर्थ सबको कर्मानुसार उत्पन्न करते हैं और फिर नष्ट भी कर देते हैं । इस प्रकार संत अपनी वाणी द्वारा और सत् शास्त्र ऐसा ही कहते हैं । इसलिये उस समर्थ को ही उपास्यदेव अपनाओ और सब कल्पित देवी - देवों का त्याग क रिये । वह प्रभु ऐसे समर्थ हैं कि एक को समीप बुला लेते हैं और दूसरे को दूर भेज देते हैं, जैसे सनकादिकों को समीप बुला लिया और जय - विजय को दूर भेज दिया । उनसे सभी कुछ हो सकता है । और यदि उनके मन में भावे, तो वह कच्चे को पक्का और पक्के को कच्चा कर देते हैं, जैसे बनिये के लड़के कच्चे को पक्का कर दिया और तपस्वी पक्के को कच्चा कर दिया । क्षत्रिय - धर्म - युक्त महाराज अमरीष को अग्नि स्वभाव से जल रूप बना दिया और जल रूप दुर्वासा को अग्नि करके दिखा दिया । वह समर्थ लोहे रूप कुल वाले वाल्मीकि को कंचन रूप भक्त दिखा दिया और कंचन रूप ब्राह्मणों को भक्ति रहित लोहा रूप दिखाया पांडवों के राजसूय यज्ञ में । फिर सबको कहकर भक्ति और भक्त की महिमा समझाई । वह फिर सूर्य को चन्द्रमा और चन्द्रमा को सूर्य बना सकते हैं । वही सभी के अन्दर चैतन्य रूप से खेल रहे हैं । वह पृथ्वी को आकाश और आकाश को पृथ्वी रूप कर देते हैं अर्थात् आकाश की भाँति उदार वृत्ति वालों को पृथ्वी की तरह कठोर वृत्ति बना देते हैं और कठोर वृत्ति वालों को आकाश की भांति सबको अवकाश देने वाले उदार वृत्ति बना देते हैं । ऐसे वे हमारे समर्थ उपास्य देव हैं

मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

पद. ४३१

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३१. भयभीत भयानक । दीपचन्दी ~
डरिये रे डरिये, परमेश्‍वर तैं डरिये रे । 
लेखा लेवै, भर भर देवै, ताथैं बुरा न करिये रे, डरिये ॥ टेक ॥ 
सांचा लीजी, सांचा दीजी, सांचा सौदा कीजी रे । 
सांचा राखी, झूठा नाखी, विष ना पीजी रे ॥ १ ॥ 
निर्मल गहिये, निर्मल रहिये, निर्मल कहिये रे । 
निर्मल लीजी, निर्मल दीजी, अनत न बहिये रे ॥ २ ॥ 
साहि पठाया, बनिजन आया, जनि डहकावै रे । 
झूठ न भावै , फेरि पठावै, कीया पावै रे ॥ ३ ॥ 
पंथ दुहेला, जाइ अकेला, भार न लीजी रे । 
दादू मेला, होइ सुहेला, सो कुछ कीजी रे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव परमेश्‍वर और भयानक कर्मों से डरने का निर्देश करते हैं कि हे मानव ! उस समर्थ परमेश्‍वर से और पाप आदि कर्मों से डरते रहना, क्योंकि हम तुमको बारम्बार उपदेश करते हैं कि अपने हृदय में परमेश्‍वर का भय रख कर ही जीवन - यात्रा बिताइये अर्थात् वह प्रभु तुम्हारे मनुष्य - जन्म का हिसाब लेंगे और तुम्हारे कर्मों के अनुसार ही तुम्हारे भावी जन्म का विधान बनाकर आगे जन्म देंगे । इसलिये काया, मन, वचन से निषिद्ध कर्मों का त्याग करिये । सत्य - स्वरूप परमेश्‍वर को हृदय में देखते हुए लेन - देन आदि कर्म करिये और उस सत्य स्वरूप परमेश्‍वर का नाम स्मरण करते रहो । मिथ्या मायिक कार्य में आसक्ति छोड़कर विषय - वासनाओं का त्याग करिये और निर्मल, माया आदि मल रहित शुद्ध ब्रह्म को, अन्तर्मुख वृत्ति से ग्रहण करके उसी में स्थिर रहो तथा उत्तम साधक पुरुषों को शुद्ध ब्रह्म का उपदेश करिये । इस प्रकार निर्मल ब्रह्म को ही सत् शास्त्र, सतगुरु के उपदेश द्वारा ग्रहण करिये और उसी शुद्ध ब्रह्म का उपदेश दीजिए । अन्यत्र मार्ग पर नहीं चलना, क्योंकि परमात्मा रूपी साहूकार ने इस संसार में जीव को मनुष्य देह देकर भेजा हैतथा सत्कर्म और भजन रूप व्यापार करने का आदेश दिया है । इसलिये अब माया रूप संसार को देखकर विषय - वासनाओं में नहीं बहकाना, क्योंकि उस परमेश्‍वर को मिथ्या विषयों का व्यवसाय अच्छा नहीं लगता है अर्थात् तुम - विषय वासनाओं में ही अपने जीवन को बिताओगे, तो परमेश्‍वर फिर तुम्हें चौरासी में जन्म देंगे, क्योंकि फिर तुम अपने निषिद्ध कर्मों का फल वहाँ भोगोगे अर्थात् परमेश्‍वर की प्राप्ति का मार्ग तो अति कठिन है । अतः उसमें अकेले को ही जाना पड़ता है । इसलिये निषिद्ध और सकाम कर्मों के भार को नहीं उठाना । जो भी कर्म करो, वह निष्काम भाव से, ईश्‍वर अर्पण बुद्धि से करो । जिससे जीव आत्मा और ब्रह्म का अभेद रूप मिलन सुगम होवे, वही अद्वैत विचार करिये । 

Fear, O friend, fear, fear the Supreme Lord. 
He takes account of your deeds and makes recompense 
in full; therefore, perform no evil deeds. 
Take the truth, give the truth, let truth 
be the hallmark of your dealings. 
Preserve the truth, reject falsehood, 
and no poison should you drink. 
Hold to the pure, stay in the pure, 
and speak what is pure. 
Take the pure, give the pure, 
and float not adrift elsewhere. 
What the Merchant sent, you have come to purchase; 
be not cheated in trade. 
He likes not untruth; He will send you again; 
you shall receive what you sow. 
On the difficult path, alone shall you go; take no load. 
Do some such work whereby the blissful union 
may be achieved, O Dadu.

सोमवार, 28 दिसंबर 2015

पद. ४३०

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३०.(गुजराती) काल चेतावनी । प्रति ताल ~
काल काया गढ़ भेलसी, छीजे दशों दुवारो रे । 
देखतड़ां ते लूटिये, होसी हाहाकारो रे ॥ टेक ॥ 
नाइक नगर नें मेल्हसी, एकलड़ो ते जाये रे । 
संग न साथी कोइ न आसी, तहँ को जाणे किम थाये रे ॥ १ ॥ 
सत जत साधो माहरा भाईड़ा, कांई सुकृत लीजे सारो रे । 
मारग विषम चालिबो, कांई लीजे प्राण अधारो रे ॥ २ ॥ 
जिमि नीर निवाणा ठाहरे, तिमि साजी बांधो पालो रे । 
समर्थ सोई सेविये, तो काया न लागे कालो रे ॥ ३ ॥ 
दादू मन घर आणिये, तो निहचल थिर थाये रे । 
प्राणी नें पूरो मिलै, तो काया न मेल्ही जाए रे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें काल से चेत कराते हैं कि हे हमारे जीव रूप मन ! समर्थ राम का भजन किये बिना तो, वह जबरदस्त काल, तेरे काया रूपी गढ़ को भेल देगा अर्थात् पँच ज्ञानेन्द्रियें और पँच कर्मेन्द्रियें तथा दस द्वार वाला मनुष्य शरीर क्षीण हो जाएगा और तेरे दसवें द्वार को काल फोड़ देगा । तत्ववेत्ता पुरुषों के देखते - देखते या तेरे देखते - देखते ही, इस काया रूप नगर में अन्त समय में हाहाकार मच जायेगा और इस काया के राजा मन रूप जीव को यमदूत नहीं छोड़ेंगे । उनके साथ अकेले को ही जाना पड़ेगा । तेरे संग के साथी उस समय कोई भी काम नहीं आवेंगे । फिर वहाँ पर न मालूम तेरे साथ क्या बर्ताव करेंगे ? इसलिये हे हमारे मन ! सत् - स्वरूप परमात्मा के नाम - स्मरण और जत = ब्रह्मचर्य आदि की साधना करो । कोई सार सुकृत कर्म रूपी धन साथ में लेओ । आगे बड़े कठिन मार्ग पर चलना पड़ेगा । कुछ प्राणों की रक्षा के लिए सार कमाई लीजिए । जैसे नीची भूमि में जल ठहरता है, वैसे ही तुम भी संयम आदि साधनों को अपना कर भजन रूपी बाँध बांधिये, तो यह मन रूपी जल या नाम स्मरण रूपी जल हृदय - प्रदेश में रुकेगा । तब उस समर्थ प्रभु की भक्ति करने से तुम्हारी काया, कहिए सूक्ष्म शरीर को काल पकड़ कर नहीं ले जाएगा और फिर स्थिर मन से ब्रह्म - स्वरूप में अभेद हो जाओगे अर्थात् प्राणधारी को पूर्ण ब्रह्म प्राप्त होवेगा । फिर वह अपने सूक्ष्म शरीर को संसार में छोड़कर नहीं जाता । किन्तु सभी व्यष्टि, सूक्ष्म सृष्टि, अपने अपने कारण अपँचीकृत भूतों में लय हो जाती है ।(पाठान्तर ‘सतजन’ की जगह ‘संत जन’ ।)

रविवार, 27 दिसंबर 2015

पद. ४२९

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/uROTgu0Ez64
४२९. उपदेश चेतावनी । प्रति ताल ~
जियरा ! राम भजन कर लीजे ।
साहिब लेखा माँगेगा रे, उत्तर कैसे दीजे ॥ टेक ॥ 
आगे जाइ पछतावन लागो, पल पल यहु तन छीजे ।
तातैं जिय समझाइ कहूँ रे, सुकृत अब तैं कीजे ॥ १ ॥ 
राम जपत जम काल न लागे, संग रहै जन जीजे ।
दादू दास भजन कर लीजे, हरि जी की रास रमीजे ॥ २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव उपदेश द्वारा चेत कराते हैं कि हे हमारे जीव रूप मन ! इस मनुष्य देह रूपी अवसर में राम का भजन कर ले, इसी में तेरा कल्याण है । वह साहिब सर्व शक्तिवान परमेश्‍वर ने तुझे इस संसार में मनुष्य देह देकर भेजा है सत् - कर्म करने के लिये । जब तूँ धर्मराज के दरबार में जायेगा, तो तेरे कर्त्तव्यों का लेखा हिसाब वहाँ लिया जाएगा । भजन और सत् - कर्म किए बिना वहाँ क्या जवाब देगा ? हे मन ! एक - एक पल में तेरे मनुष्य देह के श्‍वास और यह तन क्षीण होता जा रहा है । आगे वृद्धावस्था में या अन्त समय में पश्‍चात्ताप करना पड़ेगा । इसलिए हे जीव रूप मन ! हम तेरे को सत्शास्त्र और सतगुरु के उपदेशों द्वारा समझा कर कहते हैं कि तूँ अब सुकृत कहिए निष्काम - कर्म, परोपकार और जन समुदाय की सेवा कर ले । हे जीव रूप मन ! राम का भजन करने से काल रूप यम तेरा स्पर्श नहीं करेगा और राम के साथ रहकर, हे जन ! सजीवन भाव को प्राप्त होगा । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि उपरोक्त प्रकार से सुकृत और राम का भजन करके हरि स्वरूप राम से आनन्द अनुभव रूपी रास रमिये

शनिवार, 26 दिसंबर 2015

पद. ४२८

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४२८. कर्ता कीर्ति । त्रिताल ~
काइमां कीर्ति करूंली रे, तूँ मोटो दातार ।
सब तैं सिरजीला साहिबजी, तूँ मोटो कर्तार ॥ टेक ॥ 
चौदह भुवन भानै घड़ै, घड़त न लागै बार ।
थापै उथपै तूँ धणी, धनि धनि सिरजनहार ॥ १ ॥ 
धरती अंबर तैं धर्या, पाणी पवन अपार ।
चंद सूर दीपक रच्या, रैणि दिवस विस्तार ॥ २ ॥ 
ब्रह्मा शंकर तैं किया, विष्णु दिया अवतार ।
सुर नर साधू सिरजिया, कर ले जीव विचार ॥ ३ ॥ 
आप निरंजन ह्वै रह्या, काइमां कौतिकहार ।
दादू निर्गुण गुण कहै, जाऊँली हौं बलिहार ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव ईश्‍वर का यश गायन करते हैं कि हे सृष्टि - कर्ता, सर्व - शक्तिवान, सर्वज्ञ, अचल, परमेश्‍वर ! मैं आपकी कीर्ति का क्या वर्णन कर सकता हूँ ? हे साहिब ! आपने ही तीन लोक और चौदह भुवन में सम्पूर्ण सृष्टि रची है, ऐसे आप महान् कर्ता हैं । आप ऐसे समर्थ हैं कि एक क्षण में चौदह भुवन को नाश करके पुनः उत्पन्न कर देते हो । इनको बनाने के लिए आपको किंचित् भी समय नहीं लगता है । आप ही सबको स्थापित करने वाले और उखाड़ने वाले स्वामी हैं । हे सृष्टि - कर्ता परमेश्‍वर ! आपको धन्य है, धन्य है । आपने पृथ्वी और आकाश को बनाकर धारण किया है । हे अपार ! आपने ही पानी और पवन बनाया है । चन्द्रमा और सूर्य रूपी दो दीपक आपने रचे हैं । फिर रात्रि और दिन का विस्तार किया है । सृष्टि रचयिता ब्रह्मा, संहार - कर्त्ता शंकर, पालन - कर्ता विष्णु, इन सबको आपने ही रचे हैं समय - समय पर विष्णु अवतार आप ही देते रहते हैं । सुर - देवता, नर - नारद आदि और साधना करने वाले साधु, इन सबको आपने ही सिरजे हैं, अर्थात् उत्पन्न किये हैं । हे हमारे जीव ! तूँ भी ऐसे समर्थ परमेश्‍वर का विचारपूर्वक नाम स्मरण कर ले । हे जीव ! वह आप स्वयं समर्थ परमेश्‍वर, सबको रचकर निरंजन निराकार रूप हो रहे हैं । ऐसा वह आप कौतिकहार, सृष्टि - कर्ता परमेश्‍वर है । ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि वह निर्गुण स्वरूप हैं, फिर भी संत भक्तों की सेवार्थ सगुण रूप में अवतरित होता है, ‘यदा यदा हि धर्मस्य’, परन्तु सत् शास्त्र और सच्चे संत - भक्त उनके गुणों का वर्णन करते रहते हैं । हम उनकी बार - बार बलिहारी जाते हैं ।



शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पद. ४२७

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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https://youtu.be/diY6bGyF6wI
४२७. विनती त्रिताल ~
साजनियां ! नेह न तोरी रे,
जे हम तोरैं महा अपराधी, तो तूँ जोरी रे ॥ टेक ॥ 
प्रेम बिना रस फीका लागै, मीठा मधुर न होई ।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, कड़वा लागै सोई ॥ १ ॥ 
जब लग प्रीति प्रेम रस नाँहीं, तृषा बिना जल ऐसा ।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, होइ हलाहल जैसा ॥ २ ॥ 
सुन्दरि सांई खरा पियारा, नेह नवा नित होवै ।
दादू मेरा तब मन मानै, सेज सदा सुख सोवै ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अखंड प्रीति अर्थ विनती कर रहे हैं कि हे हमारे साजन परमेश्वर ! आप हमसे अपनी प्रीति नहीं तोड़ लेना और यदि हम अपराधी होने के कारण आपसे प्रीति तोड़ भी लें, तो भी कृपा करके जोड़ने की ही दया करना । जिस प्रकार प्रेम बिना मीठे मधुर पदार्थ भी फीके लगते हैं, इसी प्रकार हृदय में प्रेमा - भक्ति के बिना सर्व के शिरोमणि और सर्व से श्रेष्ठ परमेश्वर निष्काम नाम - स्मरण, सांसारिक प्राणियों को फीका लगता है अर्थात् कड़वा लगता है । जब तक हृदय में परमेश्वर में प्रीति उत्पन्न नहीं होवे, तब तक परमेश्वर की प्रेमाभक्ति का रस प्राप्त नहीं होता है । जैसे प्यास के बिना कोई भी प्रीतिपूर्वक जल को नहीं पीते, इसी प्रकार सब मायावी रसों से उत्तम, एक निष्काम प्रेमाभक्ति रूपी अमृत रस भी सांसारिक प्राणियों के लिये हलाहल विष की भांति प्रतीत होता है । परन्तु जिस सुन्दरी संत आत्मा के हृदय में सत्य - स्वरूप प्यारे परमेश्वर का स्नेह अर्थात् प्रीति नित्य नई बढ़ती है, वही संत आत्मा हृदय रूपी सेज पर अपने अधिष्ठान चैतन्य परमेश्वर से ओत - प्रोत होकर एकत्व रूप आनन्द का अनुभव करती है । ऐसे उत्तम साधक का मन एक परमेश्वर से ही ‘माने’ कहिए लगे, तभी उसको अच्छा लगता है

गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

पद. ४२६

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४२६. चौताल ~
विषम बार हरि अधार, करुणा बहु नामी । 
भक्ति भाव बेग आइ, भीड़ भंजन स्वामी ॥ टेक ॥ 
अंत अधार संत सुधार, सुन्दर सुखदाई । 
काम क्रोध काल ग्रसत,प्रकटो हरि आई ॥ १ ॥ 
पूरण प्रतिपाल कहिये, सुमिर्‍यां तैं आवै । 
भरम कर्म मोह लागे, काहे न छुड़ावै ॥ २ ॥ 
दीनदयालु होहु कृपालु, अंतरयामी कहिये । 
एक जीव अनेक लागे, कैसे दुख सहिये ॥ ३ ॥ 
पावन पीव चरण शरण,युग युग तैं तारे । 
अनाथ नाथ दादू के, हरि जी हमारे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव करुणा विनती कर रहे हैं कि हे हरि ! अब यह अन्त का कठिन समय आ रहा है । आप ही के नाम का एक हमारे आधार है । हे करूणा - सिन्धु दयालु बहुनामी ! आप भक्ति - भाव वाले भक्तों के पास जल्दी ही आ जाते हैं और उनके भीड़ कहिए दुःख का भंजन करने वाले आप ही हैं । अन्त में आप ही उनके आधार हैं । अपने संत भक्तों की बात को आप ही सुधारते हैं । हे सुन्दर ! आप ही सुखदायी, सुख देने वाले हो । हे हरि ! ये काम, क्रोध, लोभ, मोह, हमको खा रहे हैं । आप हृदय में प्रकट होकर इनसे हमको बचाइये । हे प्रभु ! आप सब प्रकार अपने भक्तों का प्रतिपालन करने वाले पूर्ण - काम हैं । जब आपके भक्त आपको पुकारते हैं, तब आप तत्काल ही आकर उनकी रक्षा करते हैं । हे स्वामी ! नाना प्रकार के भ्रम रूपी कर्म और मोह - ममता ने हमको घेर लिया है । हे प्रभु ! आप हमको इनसे क्यों नहीं छुड़ाते हो ! हे दीन - दयाल ! अब कृपा करें । आप अन्तर्यामी कहलाते हैं । 
हे प्रभु ! इस शरीर में हमारा तो यह एक जीव है और इसके अनेकों आसुरी सम्पदा रूप शत्रु लग रहे हैं । इन सबका दुःख हम कैसे सहन करें ? हे पवित्र स्वरूप मुख प्रीति का विषय पीव ! अब तो हम आपकी शरण में हैं । हे नाथ ! युग - युग में आप ने अपनी शऱण में आये संत - भक्तों का उद्धार किया है । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि हम तो अनाथ हैं । हे हरि ! आप ही हमको तारने वाले हमारे नाथ हो । 
प्रसंग - सांभर के हाकिम बिलन्दखान ने कुपित होकर दादूजी को कैद में डाल दिया था, तब उक्त पद से धरमात्मा से प्रार्थना की थी और कारागार से मुक्त हो गए थे