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शनिवार, 10 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ १०४/१०६*

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*१६. सांच कौ अंग ~ १०४/१०६*
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कहि जगजीवन सकति सौं, सकती विरधी७ होइ ।
रांम भगति बिन आंन कृति, कारिज सरै न कोइ ॥१०४॥
{७. सकती विरधी=शक्तिवृद्धि(सामर्थ्य की वृद्धि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शक्ति से शक्ति की वृद्धि होती है राम भक्ति के बिना किया कोइ भी कार्य पूर्ण नहीं होता है ।
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मोहे खुरसीद चसक दे१, खलक ताल ऐ नूर ।
कहि जगजीवन मुनि जन, अल्लह लीन हजूर ॥१०५॥
(१. मोहे खुरसीद चसक दे=मुझ को पीने के लिये ईश्वरभक्ति प्याला दे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे ईश्वर मुझे वो प्याला दें जिससे मैं आपके सौन्दर्य का पान कर सकूं । जिसे पीकर मुनि जन अल्लाह में लीन हो जाते हैं
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निरपख* होइ बोलै सबद, पख की पंक लगाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, पिव क्यूं परसै ताहि* ॥१०६॥
(*-*, जो स्वयं को निष्पक्ष घोषित कर, सभा में आकर किसी के पक्ष की बात करता हुआ, अपने आचरण पर कीचड़ लगाता है, ऐसे पुरुष को भगवत्साक्षात्कार कैसे हो सकता है ! ॥१०६॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो स्वंय को निष्पक्ष बतलाते हैं और सभा में जाकर किसी विशेष पक्ष की बात कर स्वयं की ही कथणी करनी में भेद प्रकट करते हैं । ऐसे पुरुष को भगवद् साक्षात्कार कैसे हो सकता है ।
॥ इति सांच को अंग सम्पूर्ण ॥१६॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ १०१/१०३*

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*१६. सांच कौ अंग ~ १०१/१०३*
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कहि जगजीवन रांमजी, देह सहै दुख दंड ।
नांउ भजै निरद्वंद६ ह्वै, सात दीप नौ खंड ॥१०१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है राम जी इस देह को सब दुख दण्ड सहने पड़ते हैं सप्त द्वीप नौ खण्ड में जिसने नाम जपा है वह ही द्वन्द्व से दूर हो सुखी हुआ है ।
(६. निरद्वंद्व=किसी भी विघ्न बाधा के बिना)
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कहि* जगजीवन अगनि सौं, अगनि बिन बुझै न बीर ।
गार पखालै गार सों, लहै न हरि जल नीर* ॥१०२॥
(*-*, जैसे अग्नि से अग्नि नहीं बुझा करती, उसी प्रकार कीचड़ कीचड़ से नहीं धुला करता । कहने का तात्पर्य यह हैं कि सांसारिक पाप हरिभजन से ही धुल पाते हैं ॥१०२॥) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जैसे अग्नि से अग्नि नहीं बुझती कीचड़ से कीचड़ नहीं धुला करता इसी प्रकार संसारिक कर्मों से पाप नहीं धुलते वे तो हरिभजन से ही धुलते हैं ।
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रांम न परसै नांऊ बिन, जल बिन बुझै न प्यास ।
खुध्या न नांसै अंन बिन, सु कहि जगजीवनदास ॥१०३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर बिना स्मरण के छूते भी नहीं है जल बिना प्यास बुझती ही नही है अन्न के बिना भूख मिटती ही नहीं है । ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 8 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ९७/१००*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ९७/१००*
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जिनमैं जैसी कावृति१, सोइ करै क्रित ऊठि ।
कहि जगजीवन हरिभगत, समझै मन की मूंठि२ ॥९७॥
(१. कावृति=समझ) {२. मूंठि=पकड़(नियन्त्रण)}
संत जगजीवन जी कहते हैं जिसकी जैसी समझ होती है वह वैसा ही काम करता है संत कहते हैं कि परमात्मा के भक्त ही मन को निंयत्रण में रखना जानते हैं ।
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कहि जगजीवन मरि रहै, गहि पुरातन ग्यांन ।
हरि भजि जीवै रांम घरि, अंतरि गति धरि ध्यांन ॥९८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव पुरानी बातों में पड़कर मर रहे हैं और भक्त परमात्मा के घर में स्मरण व ध्यान कर जीवन जी रहे हैं ।
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रांम सहंसक्रिति प्राक्रिति३, अलह पारसी४ नांम ।
कहि जगजीवन अलख एक घर, जहां हरि उत्तम ठांम ॥९९॥
(३-३ सहंसकृति प्राकृति=संस्कृत, प्राकृत भाषाएँ) (४. पारसी=फ़ारसी भासा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर का नाम संस्कृत हो या प्राकृत भाषा अल्लाह हो या पारसी भाषा में हो ईश्वर तो उसी घर में रहते हैं जहां परमात्मा का नाम उत्तम तरीके से उचित स्थान पर लिया जाता है ।
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रांम बिना मुख मांहि थैं, दूजा सबद न काढ़ि ।
कहि जगजीवन हरि भगत, प्रांण लहै इही पाढ़ि५ ॥१००॥
(५. पाढि=पद्धति से)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम के बिना मुहं से कोइ शब्द न निकालो संत कहते हैं कि प्राणों के रहते तक यह ही अपनाते रहो ।
(क्रमशः)

बुधवार, 7 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ९३/९६*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ९३/९६*
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कह जगजीवन रांमजी, करामात४ क्रित खोट५ ।
सुमिरण तजि संसौ ग्रहै, तिन कूं लागै चोट६ ॥९३॥
(४. करामात=दिव्यशक्ति का चमत्कार) (५. खोट=न्यूनता) (६. चोट=आघात)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि चमत्कार निम्न्न श्रेणी का कृत्य है जीव स्मरण छोड़कर संशय में पड़ते हैं वे फिर दुखी होते हैं ।
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सांई की पूरण सत्ता, सपनों भ्यासै७ सत्ति ।
कहि जगजीवन रांमरत, उतपति कहिय अनीति ॥९४॥
{७. भ्यासै=मिथ्या आभास(प्रतीति)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा की पूर्ण सत्ता सपने में असत्य प्रतीत होती है संत कहते हैं कि जो जीव रामरत है वे प्रभु की उत्पत्ति नहीं मानते प्रभु तो हमें उत्पन्न करनेवाले कर्ता है ।
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दिल मंदिर मंहि राज है, हरि भजि रांम निवास ।
षुध्या त्रिखा निंदरा मिटै, सु कहि जगजीवनदास ॥९५॥
संतजगजीवन जी महाराज कहते हैं कि दिल के मन्दिर में प्रभु का राज है और हरिभजन में राम का वास है इससे भूख प्यास व निद्रा सभी मिट जाते है ऐसा संत कहते हैं ।
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इंद्री* मनजित पावबजित, ते जोगी तत सार ।
कहि जगजीवन देहजित, हरि भजि उतरै पार* ॥९६॥
{*-*, जो योगी(साधक) अपनी इन्द्रियों, मन तथा श्वास-प्रश्वास पर विजय पा चुके हैं, उनने आध्यात्मिकता का सार प् लिया है । ऐसे देहजयी(कायसिद्ध) योगी हरिभजन के माध्यम से भवसागर के पार पहुँच ही जाते हैं ॥९६॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो साधक अपनी मन इन्द्रियों पर विजय पा चुके हैं उन्होंने भक्ति का सार तत्व पा लिया है । वे योगी भजन से भव पार होते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 5 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ८९/९२*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ८९/९२*
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जे हरि दाबै१ सांच कूं, ते जुग झूंठा जांणि ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम सौं नहीं पिछांणि ॥८९॥
{१. दाबै=दबावै(छिपावै)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रभु सत्य छिपाते हैं तो यह युग ही असत्य प्रभु तो सदा सत्यरुप में ही जाने जाते हैं ।
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बारह मास चौबीस पख, अडतालीस आदितवार२ ।
फिर फिर आवै एहि हरि, रैणि दिवस एकतार३ ॥९०॥
(२. आदितवार=रविवार) {३. एकतार=निरन्तर(समय की गति से)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बारह मास के चौबीस पक्ष है ओर अड़तालीस रविवार है जबकि रविवार अंग्रेजी वर्ष में बावन कहे है । यह क्रम ही बार बार आता जाता है ।
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कहि जगजीवन हरि भगत, हरि भजि करै बिचार ।
रांम रांम रटि रांम गहि, सबद पिछांणै सार ॥९१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि भक्त हरि भजन का ही विचार करते हैं वे स्मरण कर प्रभु को प्राप्त कर नाम की शक्ति को पहचानते हैं ।
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साध सबद मंहि रांमजी, साध सबद मंहि साध ।
कहि जगजीवन सार सबद की, यहु गति अगम अगाध ॥९२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधु शब्द में राम ही होते हैं साधु शब्द में ही साधु निवसते हैं अर्थात वे साधुता का आचरण करते हैं संत कहते हैं कि शब्दों के अर्थ व सार तत्त्व की महिमा अद्भुत है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 3 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ८५/८८*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ८५/८८*
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तुचा४ बिलाणी तेज मंहि, असति५ बीलाणै सास ।
तब हरि आनंद ऊपज्या, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
{४. तुचा=त्वचा=त्वचा(शरीर की)) । ५. असति=अस्थि(हड्डियाँ) ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि त्वचा तो तेज में व अस्थि सांसो में विलय होती है इस स्थिति में ही आनंद है ऐसा संत कहते हैं ।
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कहि जगजीवन धर्यादिक६, क्रित्तिम७ करै न चीति८ ।
रांम कहावै रांम की, यहु हरिमारग नीति ॥८६॥
६. धर्यादिक=धरा(पृथ्वी) आदि पाँच तत्त्व । ७. क्रित्तिम=कृत्रिम(विनाशवान्) । ८. चीति=मन में ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह पृथ्वी भी कभी विनाश की नहीं सोचती है सब सह कर भी सबका भला करती हैयह राम की होकर ही पूजी जाती है । हम इसे माँ कहते हैं ।यह ही प्रभु मार्ग की नीति है ।
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क्रित्तिम रूप सरीर हरि, कहौ क्यौं विसरै तांम ।
क्रिपा तुम्हारी तुम सरणि, नख सिख भरि हरि नांम ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह शरीर तो कृत्रिम है प्रभु आपकी महिमा कैसे भूल सकता है सब कुछ आपका है हम भी आपकी शरण है नख शिख सब हरिनाम का ही स्मरण करें ऐसी कृपा करें ।
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जे* घटि मांहै प्रव्रिति, सोइ प्रकासै जीव ।
कहि जगजीवन रांम रटि, सकति तजैं ते सीव* ॥८८॥
*-*, जिसके मन में जैसे विचार होंगे, उसके मुख से वैसी बातें निकलेंगी । अतः साधक को भगवान् का भजन करते हुए माया-मोह त्याग कर शिव (निरंजन) स्वरूप हो जाना चाहिये ॥८८॥
संतजगजीवन जी कह जीव के मन में जैसी प्रवृत्ति होतीं हैवह वैसा ही दिखता है अतः साधक को भगवान का भजन करते हुये माया मोहत्याग शिव स्वरूप होने का प्रयास करना चाहिए ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ८१/८४*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ८१/८४*
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घड़ी महूरत नांम ले, हरि हरि रांम पुकारि ।
कहि जगजीवन रोइ दे, हंसि मति चालै हारि ॥८१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम चाहे थोड़ा ही ले निरंतर हरि हरि कर उस राम को पुकारते रहे उसमें जीवन हार कर हंस मत रो दे ।
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कहि जगजीवन रांमजी, रोवै हंसै सरीर ।
हरि भजि हरि मंहि एक रस, रांम कहै जन थीर२ ॥८२॥
{२. थीर=स्थिर(=स्थितप्रज्ञ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रोना हंसना तो स्थूल शरीर की क्रियायें हैं सूक्ष्म शरीर से प्रभु का भजन कर जो प्रभुमय हो जाते हैं वे ही धैर्य धारण करने वाले स्थित प्रज्ञ कहलाते हैं ।
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उतपति बाजी हरि सकति, बरति रही सब ठांम ।
कहि जगजीवन सकति मंहि, निरसकति निरगुण नांम ॥८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव में उत्पत्ति की शक्ति प्रभु की है जो सभी स्थानों पर प्रकट है इस शक्ति में जो प्रदर्शन से परे है वह निर्गुण परमात्मा का स्मरण है ।
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साज३ सकल पैदा किया, सो हरि साहिब रांम ।
कहि जगजीवन करै करावै, अकल पुरुष सब ठांम ॥८४॥
(३. साज=जीवनोपयोगी या पूजोपयोगी साधन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने यह सब वैभव उत्पन्न किया है वे प्रभु सर्वत्र हैं वे ही कर्ता हैं जो निरंतर हैं सब स्थानों पर विद्यमान हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ७७/८०*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ७७/८०*
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रांम कहावै रांम कहि, रांमहि राखै चीति ।
कहि जगजीवन रांमरस, सो जन समझै नीति ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जन राम कहै औरों से भी संबोधन देकर कहलावे और सदा चित में यह ही रहे वे ही जन इस रामरस के आनंद को जान सकते हैं ।
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हांसी हरकत सुलभ है, दुरलभ रोज सरोद ।
कहि जगजीवन बिराजै, पूत पिता की गोद ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं स्तर बगैर हंसी मजाक तो आसानी से मिल सकता है किंतु पक्के राग इत्यादि थोड़े दुष्कर हैं । जो उन्हें साध लेता है वो परमात्मा की गोद या संरक्षण में वैसे ही विराजता है जैसै पिता की गोद में पुत्र अधिकार पूर्वक बैठता है ।
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जे रोवै तो रांम सौं, हंसै तो हरि सौं हेत ।
कहि जगजीवन मांहि मिलि, सुमिरन लागि सचेत ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव रोकर पुकारे तो राम जी को पुकार और प्रसन्न हो तो प्रभु अनुरागी हो । परमात्मा मन के अन्दर हो और सावचेत हो सुमरिन करें ।
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हरष हवा मंहि राखि चित, हंसि दे भावै रोइ ।
कहि जगजीवन रांम भगति बिन, बात न पूछै कोइ ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव प्रसन्न हो या निराश हो कर प्रभु को चित में रख । संत कहते हैं कि प्रभु की भक्ति के बिना कोइ भी कुछ नहीं पूछता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 30 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ७३/७६*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ७३/७६*
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सांच न समझै दोजगी८, तजै न लालच लोभ ।
कहि जगजीवन रांमजी, ते क्यूं पावैं सोभ९ ॥७३॥
{८. दोजगी=नारकीय जीव(पापी)} (९. सोभ=समाज में सम्मानित स्थान)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अधर्मी जन सत्य की कीमत नहीं जानते हैं वे कभी लालच लोभ नहीं छोड़ते हैं ऐसे जीव समाज में कैसे सम्मानित हो सकते हैं ।
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दमड़ी१० चमड़ी११ दूरि करि, चित्त मंहि राखै नांम ।
कहि जगजीवन चाह तजि, कम खाल(?) कहि रांम ॥७४॥
(१०. दमड़ी=धन-सम्पत्ति) (११. चमड़ी=रूपवती नारी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धन रूप सब छोड़कर मन में राम स्मरण रखें सारी आशा तृष्णा छोड़कर सिर्फ स्मरण ही करें ।
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कम खाल(?) क्यूं जानिये, चाह नहीं चित मांहि ।
कहि जगजीवन रांम रत, हरि तजि बोलै नांहि ॥७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव कृशकाय प्रभु वियोग में है और चित में कोइ तृष्णा न शेष रहे । वह राममय हो और ईश्वर के नाम के सिवाय कुछ भी न बोलै तब ही जीवन कल्याण है ।
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साह कंवर अंबरस ठग्यौ, गनिक ठगी हरि छागि ।
कहि जगजीवन रांमजी, बेश्रम१ नांही लाज ॥७६॥
१. बेश्रम=बेशर्म=निर्लज्ज ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सतवादी है उन्हें तो स्वाद ने छला है और हरि भक्तों को सौन्दर्य ने संत कहते हैं कि हे ईश्वर इन्हें शर्म ही नहीं आयी ये अपना जीवन यूं ही खो चले ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 29 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ६९/७२*

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कहि जगजीवन रांमजी, नाहर३ की गति मांहि ।
मन मैला तन ऊजला, बग वृति४ सोभै नांहि ॥६९॥
(३. नाहर=सिंह) {४. वगवृति=वकवृत्ति(वगुले के समान स्वभाव वाला)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु शेर दिल जीवों को मन मैला व देह ही धुली हो ऐसा नहीं करना चाहिए दोनों ही उज्जवल हो । चरित्रवान हो । उनका आचरण बगुले जैसा न हो जो सिद्ध पुरुष जैसा आचरण एक टांग पर खड़े हो कर आंख बंद करता है व मौका पाते ही मछली पकड़कर खा जाता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, सुपिनौं सांच समांन ।
सांचा साहिब को परसि, सांच कथैं गुरु ग्यांन ॥७०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वह स्वप्न ही सत्य है जिसमें गुरु महाराज के कहे ज्ञान से जीव परमात्मा को मिलता है ।
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उत्तम सुद्ध सरीर हरि, मध्यम मांही बांण५ ।
कहि जगजीवन रांम घरि, कोइ जन करै पिछांण ॥७१॥
(५. मांही बांण=आन्तरिक स्वभाव)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सर्वोत्तम तो शुद्ध देह जिसमें विकार न हो मध्यम जीव प्रवृत्ति है परमात्मा के ऐसे सजीव घर की पहचान कोइ विरला जन ही करता है ।
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प्रीति पसारा६ सों करै, नेक न न्यारा होइ ।
कहि जगजीवन रांम दरि७, बातन बूझै कोइ ॥७२॥
(७. राम दरि=भगवान् के द्वार पर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने सब और प्रेम का प्रसार किया हो और जो प्रभु से एक क्षण भी पृथक न हो ऐसे जन को भगवान के दर पर कोइ रोक टोक नहीं करता है ।
(क्रमशः)

रविवार, 27 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ६५/६८*

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तमै ताप त्रिष्णां जलै, गरम नरम दिल दांम ।
कहि जगजीवन अलह लहै, इसक दिखावै धांम१७ ॥६५॥
(१७. इसक दिखावै धांम=भगवत्प्रेम ही भगवान् से साक्षात्कार करा सकता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तुम्हारी सभी तृष्णायें समाप्त हो कठोर ह्रदय सदय हो तभी ईश्वर मिलेंगे और यह भगवद् प्रेम ही प्रभु से साक्षात्कार करवाता है ।
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पूजवान१ पूजै सकल, ताहि न पूजै कोइ ।
कहि जगजीवन हरिजन पूजै, हरि समान जे होइ ॥६६॥
(१. पूजवान=पूजा करने वाला)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पुजारी तो सभी की पूजा करता है पर उसकी कोइ नहीं करता है संत कहते हैं कि जो परमात्मा के बंदो को पूजे वे उसी के समान हो जाते हैं ।
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जन२ को गाहक रांमजी, जन हरि कै हाथ बिकान ।
कहि जगजीवन अन्यत्र, बस्तु न दीनी जांन ॥६७॥
(२. जन=भक्तजन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरिभक्त जन के कद्रदान स्वयं प्रभु हैं वे उनके हाथ तो बिक जाते हैं एक प्रेम जैसी अन्य कोइ वस्तु नहीं दी जा सकती है ।
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कहि जगजीवन हरि भगत, बोलै सोई सांच ।
रांम नांम रसना ह्रिदै, आंन तजै सब कांच ॥६८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु भक्त सत्यवादी होते हैं उनकी जिह्ला और ह्रदय में प्रभु नाम रहता है अन्य विषयों को वे कांच के टुकड़े की भांति त्यागते हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 26 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ६१/६४*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ६१/६४*
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अल्लह दोस न दीजिये, काजी७ कजा८ कबूल९ ।
कहि जगजीवन कलमा१० वो, ज्यूं कलियन मैं फूल ॥६१॥
(७. काजी=न्यायधीश) (८. कजा=निर्णय) (९. कबूल=स्वीकार करना) (१०. कलमा=मुस्लिम धर्म का मूल मन्त्र)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अल्लाह को दोष न दें जो उनका निर्णय है वह स्वीकार करें । उनके द्वारा दिया मंत्र ऐसै है जैसे कलियों में फूल की सम्भावना ।
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पंच समेटि११ समेटि मन, सुरति समेटि समाइ ।
कहि जगजीवन देहुरे१२, राखौ भगति जगाइ ॥६२॥
(११. समेटि=संकुचित कर) (१२. देहुरे=देवमन्दिर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पांचों ज्ञान इन्द्रियों को समेटकर मन को समेटे फिर सुरति यानि ध्यान केन्द्रित करें इन सबको समेट कर फिर मन्दिर में पूजा को उद्यत होवें ।
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कहि जगजीवन सबद की, जीव न समझी गांस१३ ।
रांम बिमुख तिस रस रंज्या, रकत बध्या अर मास ॥६३॥
(१३. गांस=निरोधशक्ति)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव ने शब्द की शक्ति को नहीं जाना राम विमुख होकर जिस रस में मग्न हुये उससे तो रक्त और मांस की ही वृद्धि होती है ।
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जरैं१४ राजी दुनी सब, आसिक अल्लह१५ रब्बु१६ ।
कहि जगजीवन ऐ वही, आदि अंत मधि अंबु ॥६४॥
(१४. जरैं=धन-सम्पत्ति) (१५. आसिक अल्लह=भगवत्प्रेमी)
(१६. रब्बु=परमेश्वर, परमात्मा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सम्पत्ति के बढने या दुगने होने से मन बड़ा प्रसन्न होता है और जो भक्त है उन्हें अल्लाह की आशिकी यानि भक्ति में आनंद आता है । ये वे जो आदि से मध्य व अन्त तक एक जैसे जलवत रहते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 25 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ५७/६०*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ५७/६०*
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मसीति१२ मांहि मुल्ला ऐ, तिहिं चढि दीनी बांग१३ ।
कहि जगजीवन अलह तजि, मदपी१४ खाई भांग ॥५७॥
(१२. मसीति=मस्जिद) (१३. बांग=उच्च ध्वनि से प्रार्थना)
(१४. मदपी=मद्य पीने वाला, नशेबाज)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मस्जिद में मुल्ला ने अजान की बांग लगाई संत कहते हैं कि अल्लाह को याद करने के बजाय वो दिखाने के चक्कर में पड़ गया और उसकी स्थिति वैसी होगयी जैसे मद्य पान करने वाला भांग खा ले । नशा तो है ही ।
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भीतर खुदी खुदाइ तजि, खर१ ज्यूं मूये तांगि२ ।
कहि जगजीवन खसम के, एक न आई आगि३ ॥५८॥
(१. खर=गधा) (२. तांगि=आकाश की और पैर कर) {३. आगि=आगे (सम्मुख)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आत्मा ने अतंर से परमात्मा की कृपा या खुदाई का भरोसा छोड़ दिया और जैसै गधा टांगों को आसमान की और उंचा कर मालिक को प्रसन्न करने के उद्देश्य से लौटता है । किन्तु इस प्रकार जीवों के ये क्रियाकलाप प्रभु को एक भी अच्छा नहीं लगता है ।
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निष्प्रेही४ निरवांण पद, प्रेही५ प्रवरति आस ।
परम पुरुष भजि बिषै तजि, सु कहि जगजीवनदास ॥५९॥
{४. निस्प्रेही=निःस्पृह(इच्छारहित)} {५. प्रेही=स्पृही(इच्छावान्)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो संसार से उदासीन है वे तो निर्वाण या मोक्ष चाहते हैं व जिन्हें आशा है वे भांति भांति की कामनाएं करते हैं अतः सभी विषय छोड़कर भगवन्नाम भजो ।
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महजिद६ कुन सत बंदगी, नपसर ज्यंदगी रोस ।
कहि जगजीवन सुखन गत, तौ साहिब को क्या दोस ॥६०॥
{६. महजिद=मस्जिद(मुसलामानों का उपासनागृह)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मस्जिद में ही कौन सी सत्य की बंदगी होती है या पूजा होती है । संत कहते हैं निराश जीव ही जीवन में क्रोध करते हैं यदि हम सिर्फ सुख ही परमात्मा से मांगते रहे वो भी बिना भजन के तो वह कैसे सम्भव है ? हम इसमें फिर परमात्मा को दोष क्यों दे जबकि सुख के लिये भजन ही नहीं करा ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 24 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ५३/५६*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ५३/५६*
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दोजग४ की करतूति५ करि, अल्लह दर दिलगीर ।
कहि जगजीवन ज्वान६ जईफ७, खुरद कनौं सिन सीर ॥५३॥
{४. दोजग=दोजख(=नरक)} {५. करतूत=क्रिया(=पापकर्म)}
{६. ज्वान=जवान(युवक)} (७. जईफ=वृद्ध)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे कार्य तो नर्क योग्य हो और मन से अल्लाह या ईश्वर की कामना करें तो वह कैसे मिलेंगे । फिर चाहे जन युवा हो या वृद्ध प्रभु सबको भगा देते हैं अपनी शरण में नहीं रखते ।
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बुतखाना८ बीरान हसि, आतस९ अंदरि हूद१० ।
कहि जगजीवन भ्रमै अलह तजि,क्या ब्राह्मण क्या सूद११ ॥५४॥
(८. बुतखाना=मूर्तीपूजा का मन्दिर) (९. आतस=अग्नि)
(१०. हूद=हवन) {११. सूद्र=शूद्र(हिन्दुओं में चतुर्थ वर्ण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मंदिर वीरान होंगे व अतंर में दाह होगी संत कहते हैं कि ये सब भ्रम है जो हम ईश्वर या अल्लाह को छोड़कर व्यर्थ के कलापों में मग्न रहते हैं चाहै वो ब्राह्मण हो या शुद्र ।
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परमेसुर मोनै नहीं, आत्म आंन प्रकास ।
सत्य सबद मुख रांम कहि, सुकहि जगजीवनदास ॥५५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा मौन नहीं आत्मज्ञान रुपी प्रकाश है जो सत्य शब्द है राम वह ही मुख से कहो ।
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कहि जगजीवन सांच हरि, नख सिख रह्या समाइ ।
एक भर्या परि जे भरै, ते घर जाइन भाइ ॥५६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक सत्य परमात्मा का स्वरुप है जो हमारे नख शिख में समा रहा है उस एक के परिपूर्ण होने से ही सभी पूर्ण जहाँ होते हैं वहां ही प्रभु को पहुंचना अच्छा लगता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 23 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ४९/५२*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ४९/५२*
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कहि जगजीवन रांमजी, बर१ बोले घर मांहि ।
घर मांही की सुंणै, पर घरि डोलै नांहि ॥४९॥
१. वर=शुभ ।
संतजगजीवन जी कहते है कि मन रूपी घर में सब मंगल हो । मन की ही सुनें दूसरे की आशा न करें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, घर फूटा२ घर जाइ ।
हरि तजि भटकै आतमां, रांम बिमुख दुख पाइ ॥५०॥
२. फूटा=अनेकता(मतभेद) ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे राम जी जिसने मेरा तेरा का भेद मिटा दिया वह ही परमात्मा के घर जा सकता है । अन्यथा प्रभु को छोडकर आत्मा भटकती है व जीव राम विमुख हो दुख पाता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, जिनकै मांहि सांच ।
ते वैष्णों३ रवि ज्यूं तपैं, गहि कंचन तजि कांच ॥५१॥
३. वैष्णों=हरिभक्त ।
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जिनके ह्रदय में सत्य है वे हरिभक्त तो सूर्य जैसे तपते रहते हैं वे कंचन छोड़कर कांच की और आकर्षित नहीं होते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, अक्शर अक्शर नांम ।
कोंण सुणांवै कहै, क्यों जांणै सब ठांम ॥५२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु हर अक्षर आपके नाम का ही है इसे सर्वत्र कौन कहता है कौन सुनता है यह सब कोइ नहीं जानता ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 22 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ४५/४८*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ४५/४८*
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हरि भजि मनसा हाथ करि, करै न हरि की टहलि८ ।
जगजीवन हरि चरण मंहि, प्रांणन पकड्या फैलि९ ॥४५॥
(८. टहलि=सेवा) {९. प्रांणन पकड्या फैलि=प्राणों ने पसर कर(दण्डवत् कर) हरिचरणों को पकड़ लिया है}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन आशा से हरिभजन व हाथों से प्रभु स्वरूप की सेवा व देह हरिचरणों में समर्पित हो ।
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कहि जगजीवन धरणि जल, अनल पवन इक नांम ।
सोधि अकास समाइ ले, रसानां हरि हरि रांम ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धरती, जल वायु अग्नि सभी में एक ही परमात्मा का नाम व्याप्त है ध्यान द्वारा शून्य में सिमट कर है जिह्ला राम स्मरण में ही रत रह ।
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रसानां हरि हरि रांमजी, उनमनि चढै अकास ।
कहि जगजीवन नांउ रत, प्रगट रमै पिव प्यास ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है जिह्ला स्मरण से ही जीव शून्य को प्राप्त हो उंचाई तक पहुंचता है । यह उदासीनता है जो जन इस प्रकार नाम में रत है उनकी पिपासा स्वयं प्रभु प्रकट होकर शांत करते हैं ।
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ऐ पग थाके ओ भये, उन ऐ लागौ दोइ ।
कहि जगजीवन उभै तजि, हरि पंथ दौड़ै कोइ ॥४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार में भाग भाग कर थक गये व निराश होगये, संत कहते हैं इनको दोनों को संसार के साधन व प्रयास को छोड़कर हरि मार्ग की और कोइ विरला ही दौड़ता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 21 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ४१/४४*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ४१/४४*
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हठ३ हरि कूं भावै नंहीं, सहज४ भला सब ठांम ।
कहि जगजीवन सूधि५ मंहि द्रवै दया करि रांम ॥४१॥
{३. हठ=बलपूर्वक) (४. सहज=साधारण रूप से)
{५. सूधि=सीधा(सरल) मार्ग}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा को हठ अच्छी नहीं लगती सहज रहने से सर्वत्र भला होता है । सहज व सीधा रहने पर ही प्रभु कृपा करते हैं ।
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हठ निग्रह कीजै तहां, भगति हाथ थैं जाइ ।
कहि जगजीवन सांच परि, रांम बिराजै आइ ॥४२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहां हठ व निग्रह या अवज्ञा है वहाँ भक्ति नहीं होती । प्रभु तो सत्य पर ही विराजते हैं ।
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कलि मांहि निबहै६ नहीं, कोटि करै जे कोइ ।
कहि जगजीवन रांम रटि, हरि भजि आनंद होइ ॥४३॥
(६. निबहै=निर्वाह हो सकता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस कलियुग में कोइ करोड़ों यत्न करले उसमें वो आनंद नहीं आयेगा जो राम स्मरण व भजन में है ।
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रांम ह्रिदै हठ नांम का, मठ मंहि मंगल७ गाइ७ ।
कहि जगजीवन हरि भगत, हरि तजि अनत न जाइ ॥४४॥
(७-७. मंगल गाइ=आनन्द मानता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हृदय में राम नाम का हठ व मन रुपी घर में आनंद हो ऐसे में भक्ति उस भगवद् स्वरूप को छोडकर अन्यत्र कहीं नहीं जाती है ।
(क्रमशः)

रविवार, 20 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ३७/४०*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ३७/४०*
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रांम नांम स्यूं भरि, भूख जनम की जाइ ।
कहि जगजीवन धर्या१० की, बिथा न व्यापै आइ ॥३७॥
(१०. धर्या=धरा{भौतिक})
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब जीव हर समय भरपूर राम नाम में ही रत रहता है तो तो उसकी जन्म जन्म की तृषा शांत हो जाती है फिर उसे संसार का कोइ दुख नहीं व्यापता ।
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तुम्ह रीझौ तेई भजन, तुम्ह(हरि) रीझौ ते ग्यांन ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम्ह रीझौ ते ध्यान ॥३८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जिस विधि से आप प्रसन्न हो वही भजन है वह ही ज्ञान है और वह ही ध्यान है ।
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कहि जगजीवन विश्व का, न्याव निबडैं१ बैसि ।
सूक्षिम होइ सरीर तजि, सकै न हरि मंहि पैसि ॥३९॥
(१. निबडैं=निर्णय करें)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे ईश्वर आप ही संसार के न्याय कर्ता हैं । जो जीव सूक्ष्म हो वे ही प्रभु तक पहुंच पायेंगे यहां सूक्ष्म से तात्पर्य है कि माया, मोह, क्रोध, आदि को हटाकर प्रभु समर्पण ।
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जे क्रित२ तुमको सुहावै, सो हरि हम पै नांहि ।
कहि जगजीवन तुमहि न भावै, सो उपजै मन मांहि ॥४०॥
(२. क्रित=शुभ कर्म)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी जो कृत्य आपको अच्छे लगते हैं वे तो हम अज्ञान वश करते नहीं है । और जो आपको अच्छे नहीं लगते वे हमारे मन में उपजते हैं । तभी दूरी बनी रहती है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 18 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ ३३/३६*

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*१६. सांच कौ अंग ~ ३३/३६*
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उत्तर दक्खिण पूरब पच्छिम, साध नवैं सब ठांम ।
कहि जगजीवन सकल हरि, ह्रिदै बिराजै रांम ॥३३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उत्तर दक्षिण, पूर्व व पश्चिम साधु जन सभी दिशाओं में प्रणामं करते हैं उनके अनुसार प्रभु सर्वत्र व सकल में है ।
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क्रित्तिम सूरज की किरण३, माया मोह बिलास ।
ब्रह्म किरण४ वैराग हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥३४॥
(३. क्रित्तम सूरज की किरण=मृगमरीचिका) (४. ब्रह्म-किरण=ज्ञानप्रकाश)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि माया मोह ये सब सूर्य के प्रकाश से झिलमिल मरीचिका की भांति हैं और जब परमात्मा की कृपा से ब्रह्म किरण का स्पर्श होता है तो जीव स्वतः ही वैराग्य को प्राप्त हो परमात्मा की और बढने लगता है ।
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असम५ बिराजै असं पर, दुनियां आवै जाइ ।
कहि जगजीवन रांम रत, रांमहि मांहि समाइ ॥३५॥
{५. असम=आकाश(=शून्य)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा शून्य पर विराजमान है । और संसारिक जीव आ जा रहे हैं । जो राम में रत है वे राम में ही समाते हैं या राम जी उन्हें अपनी शरण में लेते हैं ।
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सिदक६ सबूरी७ सांच८ गहि, हरि सुख हासिल९ होइ ।
कहि जगजीवन नांउरत, रांम पिछांणै सोइ ॥३६॥
(६. सिदक=ह्रदय का निष्कपट भाव) {७. सबूरी=सब्र(=धैर्य)} (८- सांच=सत्य बोलना) (९. हासिल=प्राप्त)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सहजता संतोष सत्य अपनाने से प्रभु का सुख सानिध्य मिलता है जो प्रभु की महिमा जानते हैं वे स्मरण में मगन रहते हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 17 जून 2021

*१६. सांच कौ अंग ~ २९/३२*

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*१६. सांच कौ अंग ~ २९/३२*
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अकार* उऊ अलिफ़, अ उतपति अ आस ।
अ अनभै अ इलम सब, सु कहि जगजीवनदास ॥२९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं अकार से ही ओम होता है व अल्लाह भी होता है । अ से ही सब उत्पन्न है व अ ही आशा है अ से अनुभव है व अ से ज्ञान है ऐसा सब संत कहते हैं ।
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सुरहरि अकिष्र हरि भगत, सुर सुरता सुर साह ।
कहि जगजीवन संपति सुख, सुर समझन की चाह ॥३०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि भक्तों का आकर्षण सिर्फ परमात्मा है । वे ही ध्यान हैं वे ही आराध्य हैं । और सच्चे भक्त का सबसे बड़ा धन परमात्मा या परमात्मा के मार्ग को समझना है ।
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सुर वांणी सुर पिछांणी, सुर जांणी सब मांहि ।
कहि जगजीवन बिना सुर, वो हरि उपज्या नांहि* ॥३१॥
(*-* अ, आ, ई आदि वर्णों को 'स्वर' कहते हैं । कुछ साधक इन स्वरों के माध्यम से साधना करते हैं तथा कुछ साधक श्वास-प्रश्वास क्रिया को भी 'स्वर' मानते हुए इस माध्यम से भी साधना करते हैं । महात्मा जगजीवनदासजी ने २९ से ३१ साखी तक इन ही दोनों साधनाओं की ओर संकेत किया है ।)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ध्यान में सांसो का आना जाना भी स्मरण स्वर है । व मुख से उच्चारण करना भी स्मरण स्वर है अब साधक जन अपनी रुचि या अनूकूलता से ही साधना करते हैं ।
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पूरब दंडव्रत१ पच्छिम निवाज२ उत्तर दक्खिण नांहि ।
कहि जगजीवन दसों दिस, साध नवैं हरि मांहि ॥३२॥
(१. दण्डव्रत=पूर्व दिशा की ओर हिन्दुओं द्वारा 'दण्डवत्' की जाती है)
(२. निवाज-पश्चिम की ओर मुख कर मुसलमान 'नमाज' पढ़ते हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पूर्व दिशा में प्रभु को दण्डवत होता है । पश्चिम में नमाज अदा होती है उत्तर दक्षिण में कुछ नहीं किंतु साधो जन तो दसों दिशाओँ में प्रभु को मानकर प्रणामं करते हैँ ।
(क्रमशः)