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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१६. सांच कौ अंग ~ १०४/१०६*
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कहि जगजीवन सकति सौं, सकती विरधी७ होइ ।
रांम भगति बिन आंन कृति, कारिज सरै न कोइ ॥१०४॥
{७. सकती विरधी=शक्तिवृद्धि(सामर्थ्य की वृद्धि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शक्ति से शक्ति की वृद्धि होती है राम भक्ति के बिना किया कोइ भी कार्य पूर्ण नहीं होता है ।
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मोहे खुरसीद चसक दे१, खलक ताल ऐ नूर ।
कहि जगजीवन मुनि जन, अल्लह लीन हजूर ॥१०५॥
(१. मोहे खुरसीद चसक दे=मुझ को पीने के लिये ईश्वरभक्ति प्याला दे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे ईश्वर मुझे वो प्याला दें जिससे मैं आपके सौन्दर्य का पान कर सकूं । जिसे पीकर मुनि जन अल्लाह में लीन हो जाते हैं
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निरपख* होइ बोलै सबद, पख की पंक लगाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, पिव क्यूं परसै ताहि* ॥१०६॥
(*-*, जो स्वयं को निष्पक्ष घोषित कर, सभा में आकर किसी के पक्ष की बात करता हुआ, अपने आचरण पर कीचड़ लगाता है, ऐसे पुरुष को भगवत्साक्षात्कार कैसे हो सकता है ! ॥१०६॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो स्वंय को निष्पक्ष बतलाते हैं और सभा में जाकर किसी विशेष पक्ष की बात कर स्वयं की ही कथणी करनी में भेद प्रकट करते हैं । ऐसे पुरुष को भगवद् साक्षात्कार कैसे हो सकता है ।
॥ इति सांच को अंग सम्पूर्ण ॥१६॥
(क्रमशः)