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मंगलवार, 2 अगस्त 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११७/११९*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११७/११९*
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रांम नांम भरि रांम हरि, नांद जगाया तास ।
हरिजन सकल समान हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥११७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम से भरपूर प्रभु ने राम स्वर का निनांद किया । और प्रभु ने जितने भी जीव भक्ति में रहे सबको अपना स्वरूप दिया ।
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पांच तत्त प्रवांण करि, आप दिखाये रांम ।
कहि जगजीवन साजि१ वपु, परगट कीन्हां नांम ॥११८॥
(१. साजि-व्यवस्थित रचना कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पांच तत्व को परवान कर उनमे ही प्रभु ने(देह) बनाकर अपना स्वरूप प्रकट कर उसे अपने नाम से सिरजा है ।
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धरणि नीर पावक रच्या, पवन रच्या आकास ।
रांम सकल अविगत अकल, सु कहि जगजीवनदास ॥११९ ॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने धरती, जल, अग्नि, वायु, और आकाश की रचना कर जिसमें अविगत प्रभु बिना कला के ही सब रच दिया ।
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इति सम्रथाई कौ अंग संपूर्ण ॥२४॥
(क्रमशः)

रविवार, 31 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११३/११६*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ११३/११६*
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सोषत मरन सरूप धरि, जहँ आया तहँ जाइ ।
अहार व्यौहार अनादि रस, ज्यूं भूखा त्यूं खाइ ॥११३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि वे प्रभु जीव को जब सोखते हैं तो उसका नाम मृत्यु होता है । और फिर जीव जहाँ से आता है वहां ही चला जाता है वह आहार व्यवहार व अन्य भोग सब अपनी इच्छा अनुसार करता है ।
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अदभुत चरित अगाध गति, कोइ न जांणै भेद ।
कहि जगजीवन रांमजी, कहँ बिरंचि४ कहाँ वेद ॥११४॥
(४. विरंचि = ब्रह्मा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के चरित्र अद्भुत है उसे कोइ नहीं जान सकता न ही उनकी लीला कोइ समझ सकता है, कि उसका क्या रहस्य है । जैसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा अद्भुत वेदों की रचना ये अद्भुत ही है ।
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कहां ए बाणी५ कहाँ विषनु, कहँ महेस कहँ सेस६ ।
कहि जगजीवन क्रिपा करि, कहिये रांम नरेस ॥११५॥
(५. बाणी = वेद या वागधिष्टात्री देवता, सरस्वती) (६. सेस = शेष नाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कहां तो मां सरस्वती वेद रुप में कहा सृष्टि पालक विष्णुजी कहा संहार कर्ता भोले शिव कहां सृष्टि का आधार शेष जी, हे राम प्रभु आप इन सबकी महिमा बतायें ।
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इस्थिति७ सहज अगाध गति, सोहं सबद प्रकास ।
ब्रह्मा वाणी विष्णु हर८, सकती९ सेस निवास ॥११६॥
(७. इस्थिति = स्थित) (८. हर = शंकर) {९. सकती = शक्ति(दुर्गा आदि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की लीला सहज है । और गति गहन है जिसमे सोहम नाद स्वर प्रकाशित है । ब्रह्मा जी वेद विष्णु जी शिव व शक्ति सबका उसमें निवास है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०९/११२*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०९/११२*
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कहि जगजीवन रांमजी, पूत पिता पै पाइ ।
ए आसंक्या जीव रहै, सम्रथ कहिये आइ ॥१०९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पुत्र सब कुछ पिता से ही प्राप्त करता है । फिर जीव इस विषय में संदेह क्यों करता है वह भी सब कुछ अपने परमेश्वर पिता से ही पाता है । आप आकर इसे भलीभांति समझावें प्रभु जी ।
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क्यों ए जन्मैं क्यों ए मरैं, क्यों ए आवैं जांहि ।
क्यों ए अहार व्यौहार हरि, क्यों ए भूखे खांहि ॥११०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव का आवागमन व आहार व्यवहार क्यों होता है आप समझाकर कहैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हम सौं कहिये मांहि ।
अनंत कोटि ब्रह्मांड मंहि, तुम समान कोइ नांहि ॥१११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु अनंत करोड़ ब्रह्मांड में आप जैसा कोइ नहीं है । यह बात हम अपनी अंतरगति से कहते हैं ।
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जनम जुगल अंबु१ दार मधि२, पोखत वृधि३ संजोग ।
कहि जगजीवन नारि नर, ए भ्रम भूलै भोग ॥११२॥
(१. जुगल अंबु-रज एवं वीर्य का संयोग) (२. दारमधि-स्त्री के गर्भ में) (३. वृधि-वृद्धि)
संतजगजीवन जी कहते हैं स्त्री पुरुष के संयोग से स्त्री के गर्भ में भी वे समर्थ प्रभु पोषण करते हैं । और जीव भ्रम वश कहता है कि यह स्त्री पुरुष से पोषित है जबकि पोषण कर्ता प्रभु हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 27 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*
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जीव नहीं तहँ ब्रह्म है, सब मंहि सकल प्रकास ।
किरन प्रसंगै दोइ कहै, सु कहि जगजीवनदास ॥१०५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जहां नहीं है वहां भी ब्रह्म है वे सब में है । जैसे सूर्य व किरण दो है पर है तो सूर्य का अंश, इसी प्रसंग से कहकर समझाया है ।
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वस्तु एक आभास दोइ, निराभास निज नूर ।
कहि जगजीवन सहज थिति, सकल लोक भरपूर ॥१०६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वस्तु तो ब्रह्म सी एक ही है पर जीव होने से दो भासते हैं यह सहज स्थिति ही सकल लोक में व्याप्त है ।
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कोटि किरन परगट करै, कोटि गुपत हरि मांहि ।
कहि जगजीवन थान थिति७, को तिंहि बूझै नांहि ॥१०७॥
{७. थान थिति-स्थानस्थित(अचल), स्थित प्रज्ञ}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि करोड़ों किरणें प्रकट करते हैं व करोड़ों फिर भी गुप्त रहती हैं । जो स्थितप्रज्ञ हैं वे ही इस बात को जानते हैं सामान्य जन उनसे इस रहस्य को पूछते ही नहीं हैं ।
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जे बूझै तो कहै नहीं, कहै तो बूझै नांहि ।
कहि जगजीवन सबद थैं, अगम अगोचर मांहि ॥१०८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो जानते हैं वे कहते नहीं जो कहते हैं वे जानते नहीं हैं, कि परमात्मा तो स्मरण के शब्द में भी है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 25 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ १०५/१०८*
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कूंण हि जुगति समीप हरि, गरभ मांहि दस मास ।
प्राण पिंड परगट किये, सु कहि जगजीवनदास ॥१०१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सोचिये परमात्मा ने कैसे गर्भ में भी दस माह तक हमको सामिप्य दिया होगा । क्योंकि उनके बिना तो कुछ सम्भव ही नहीं । और कैसे प्राण पिण्ड बनाकर जीव को सिरजा है । वे कितने समर्थ हैं ।
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ए आसंक्या६ ऊपजी, तुझ से बूझै आइ ।
कहि जगजीवन क्रिपा करि, मिलि हरि कहिये ताहि ॥१०२॥
{६. असंक्या=आशंका(सन्देह)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन में एक संदेह है, हे प्रभु उसका निवारण भी आपसे ही पूछते हैं, हे प्रभु आप ही बताये कि आप कैसे मिलोगे ।
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अवनि अंबु अकास थनि, अनल पवन मंहि बास ।
रज बीरज करि घाट रच्या, सु कहि जगजीवनदास ॥१०३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि धरती जल आकाश, का आधार हो अग्नि वायु में निवसते हो । और आपने रज वीर्य से देह बना कर इन पांचो को इसमें रख कर इनका आकार बना दिया ।
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जीव ब्रह्म अंतर नहीं, ज्यूं रवि किरण प्रकास ।
नीर निरख धर धीर गहि, सु कहि जगजीवनदास ॥१०४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव व ब्रह्म एक है जैसे सूर्य व सूर्य से निकलने वाली किरण । वे भी जल को देखकर तप्त से शीतल हो जाते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 22 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९७/१००*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९७/१००*
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कहि जगजीवन रांमजी, सकल करै सब जांण ।
सेवक सरण सुखी रहै, हरि दरगह१ दीवान ॥९७॥
(१. दरगह -मन्दिर या मस्जिद के दरवाजे की देहली)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब कुछ जानते हैं व करते हैं । सेवक जन उनकी शरण में सुखी रहते हैं । व उनके दर पर ही उनके सब मनोरथ पूर्ण होते हैं ।
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सकल पसारा२ आप करि, रह्या अलहदा३ होइ ।
कहि जगजीवन धुर धणी, ताहि न चीन्हैं कोइ ॥९८॥
(२. पसारा-जगत्सृष्टि-विस्तार) (३. अलहदा-पृथक्)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सब कुछ रचकर पूरी सृष्टि की रचना कर प्रभु सबसे पृथक भी है । वे बिल्कुल आरम्भ से ही हैं ऐसी बात को कोइ नहीं जानता है ।
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धरणीधर सिर पर धणी, अविगत बंधै धार ।
कहि जगजीवन कसीस मरि, बजर तेग४ खग५ धार ॥९९॥
(४. तेग-दुधारी तलवार) {५. खग-खड्ग(साधारण तलवार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारे रक्षक हमारे प्रभु हैं वे सदा रक्षा करते रहते हैं । फिर हम चाहे कितनी ही तीखी चाहे दुधारी ही तलवार क्यों न हो कैसे मर सकते हैं चाहे कितना ही वज्र क्यों न हो क्योंकि हमारे रक्षक तो प्रभु हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, हम थैं अगम अगाध ।
तुम थैं सुगम सबल है, संगति आये साध ॥१००॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी हमारे लिये सब कठिन है और आपके लिये सब सरल है । यह जानकर ही साधुजन आपकी शरण में आये हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 20 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९३/९६*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ९३/९६*
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अबिगति अलख अगाध हरि, सहजै रच्या अकास ।
पवन अंबु अरु अवनि गुन, सु कहि जगजीवनदास ॥९३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन परमेंश्वर की लीला को कौन जान सकता है ? उन्होंने तो सहज ही इतना विस्तृत आकाश रच डाला है फिर वायु जल धरती सभी गुण देह में भी किये है । उनकी लीला अपरम्पार है ।
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आपणा अपणा किया परि, आप खुसी अबिगत ।
कहि जगजीवन कै कोई, हरिजन हरिरस रत ॥९४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा ने सब अपना जान कर किया जिसमें जीव को भी सम्मिलित किया कि यह भी मेरा है । और यह परमात्मा का आनंद रहा । और फिर कोइ विरला ही प्रभु का बंदा इस आनंद में रत रहा ।
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*सांई ! सकल जहांन की, खबर निरंजन तोहि ।
कहि जगजीवन रोम की, मालिम५ नांही मोहि* ॥९५॥
{५. मालिम-मालूम(=ज्ञात)}
*-*. हे स्वामिन् ! आप समस्त संसार की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सूचनाएँ प्रतिक्षण रखते हैं जब कि मैं इतना मूढ हूँ कि मुझे आपका एक नाम भी स्मरण नहीं रहता ॥९५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है पभु आप तो सारे संसार की हर छोटी बड़ी जानकारी रखते हो और हम तो इतने अज्ञानी है कि हमें तो कुछ ज्ञान नहीं है हम तो आपका नाम, भी स्मरण नहीं रखते हैं ।
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कहि जगजीवन घास मंहि, प्रगट किया हरि नाज ।
अनषड६ करै अगाध हरि, आंम अखै रस राज ॥९६॥
{६. अनखड़-अनक्षत्र(तत्काल, मुहूर्त के विना ही)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु जी ने घास में ही जीवनदायी अन्न उपजा दिया है वे बिना किसी मुहूर्त के ही तत्काल कैसे भी रस कर देते हैं यह ही रहस्य है उनकी सामर्थ्य कोइ नहीं जान सकता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 18 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८९/९२*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८९/९२*
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खलक३ मांहि रीता४ भरै, अबिगत रांम अगाध ।
कहि जगजीवन भरिया रीता, यहु गति समझै साध ॥८९॥
{३. खलक-दुनियाँ(जगत्)} {४. रीता-रिक्त(खाली)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में प्रभु स्वयं ही खाली को भरते हैं व भरे को खाली करते हैं । यह प्रभु की अपरम्पार लीला है । इसे साधुजन ही समझते हैं ।
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कहि जगजीवन सब करै, हेत पिछांणैं दास ।
आप बिठावै आप उठावै, आप जगावै सास ॥९०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब करते हैं । वे दास जनों का भला समझते हैं । अतः वे स्वयं ही उठाते हैं, बैठाते हैं, व आप ही श्वास जगाते हैं ।
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कहि जगजीवन सब करै, करत न जांणै कोइ ।
अधर धर्या मांहि रांमजी, करता करै सु होइ ॥९१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु सब कुछ करते हैं पर वे कैसे करते हैं इस रहस्य को कोइ नहीं जानता है इस आधार रहित धरती को कैसे टिका रखा है और इस पर जो भी करते हैं वह ही होता है ।
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कहि* जगजीवन अंबु थैं,असम को करतार ।
असम अंबु छिन एक मैं, करत न लागै बार* ॥९२॥
{*-*. उस सिरजनहार में ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वह एक क्षण में पत्थर को जल (द्रव) एवं जल को पत्थर(कठिन) बना देता है ॥९२॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु एक क्षण में जल को पत्थर व पत्थर को जल कर देते हैं वे सर्व समर्थ हैं ।
(क्रमशः)

शनिवार, 16 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८५/८८*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८५/८८*
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पावक५ नीर६ समीप हरि, सहजै किया प्रकास ।
परमारथ कौं परगटै, सु कहि जगजीवनदास ॥८५॥
(५. पावक-अग्नि) (६. नीर-जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अग्नि, जल, को समीप रखकर प्रभु ने अपने स्वरूप से प्रकाश किया हे प्रभु आप सदा परोपकार के लिये दर्शन देते हैं ।
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बहिनी७ वारि८ अकास मंहि, एक समीप रहंत ।
कहि जगजीवन रांम गति, कोइ जन भेद लहंत ॥८६॥
(७. बहिनी-वह्रि=अग्नि) (८. वारि-जल)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अग्नि, जल, आकाश के समीप प्रभु आप रहते हैं उन प्रभु की लीलाओं को कोइ नहीं जान सकता है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, को हरि गाजै घोर ।
नीर१ अनल२ के पवन घर, कै अकास मिलि सोर ॥८७॥
(१. नीर-जल) (२. अनल-अग्नि)
संतजगजीवन जी प्रभु का विस्तृत स्वरूप करते हुये कह रहे है कि प्रभु आपका घोर गर्जन यह तो आपके द्वारा किये गये जल अग्नि और वायु आकाश के सम्पर्क में आने का स्वर है ।
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गाजै बरसै अनल चमकै, सब मंहि अबिगत रांम ।
कहि जगजीवन हरि मुक्ति, बिहरै बिहरै नांम ॥८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि गर्जना बरसना, बिजली का चमकना सब में प्रभु स्वयं हैं । संत कहते हैं कि नाम स्मरण से ही मुक्ति होगी चाहे भांति भांति के नामों से प्रभु को पुकारें ।
(क्रमशः)

बुधवार, 13 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८१/८४*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ८१/८४*
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जो यहु होइ तो यहु करै, करै सो करता रांम ।
कहि जगजीवन सत्ता हरि, अनंत लोक सब ठांम ॥८१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि कर्ता यह जीव हो तो यह कुछ करे । यह कुछ नहीं कर सकता क्योंकि कर्ता तो केवल राम है वे जो करेंगे वह ही होगा सत्ता उन्हीं के हाथ में है वे अनंत लोक व सब स्थानों के मालिक हैं ।
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अंबु स्त्रवै वीरज जमैं, अनंत उपावै रांम ।
कहि जगजीवन पोख दे, साध सुमिर तिहिं नांम ॥८२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं जल वीरज से प्रभु अनंत जीवों को जन्म देते हैं । वे उन्हें अपने पक्ष या कोख प्रदान करते हैं सभी साधुजन उनका ही स्मरण करते हैं ।
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एक धणीं४ सब मैं बसै, सकल करै सब जांण ।
तो जगजीवन दूसरा, तिंहि कोई भिदै न बांण ॥८३॥
{४. धणीं-स्वामी(परमेश्वर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक प्रभु ही है जो सब में निवास करते हैं । और सब को अपना जान कर सब करते हैं, उन परमेंश्वर को दूसरा कोइ किसी भी प्रकार से भेद नहीं सकता है वे अभेद हैं ।
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विष अम्रित जीवत म्रितक, सुख दुख एक समांन ।
कहि जगजीवनदास रत, रसानां हरी गुन ग्यांन ॥८४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि विष अमृत जीवित मृतक व सुख दुख जिनके लिये सब समान हैं वे प्रभु के दास सदा प्रभु के गुणानुवाद व महिमा ही गाते रहते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 11 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ७७/८०*

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कहि जगजीवन रांमजी, वपु क्यूं कीन्ह अगाध ।
क्यूं ए नाद निवास हरि, क्यूं ए सनमुख साध ॥७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की हे प्रभु क्यों यह देह बनायी और इसे इतना गहन क्यों बना दिया । और क्यों अनहद नाद में परमात्मा का निवास कर सन्मुख साधु जन को रखा जो सहज उपकारी है ।
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सहजैं घर सहजैं गगन, सहज अनल अंबु बाइ ।
कहि जगजीवन अलख गति, क्यूं ही लखी न जाइ ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा का घर सहज है । वहां गगन अग्नि जल वायु पृथ्वी सब सहज है तो फिर जीव उस अगाध प्रभु की सहज लीलाओं को क्यों नहीं समझता है ।
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करै अकरता ब्रह्मगति, सोइ सेवक सोइ दास ।
कहि जगजीवन बंदगी, सतगुरु मांनै तास२ ॥७९॥
(२. तास-उसको । इस साषी में ‘सतगुरु’ के लक्षण बताये हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जब बिना कर्ता भाव दिखाये वह सब ही करे जो प्रभु की लीला या गति है । तो वह जीवात्मा जो प्रभु के अनुकूल चले वह ही सच्चा सेवक व दास है । और प्रभु ऐसे दास की सेवा व बंदगी को ही गिनते हैं । मानते हैं ।
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कहि जगजीवन मैं किया, यों चित आंणै कोइ ।
तौ किया कराया बाद३ सब, रांम न मांनै सोइ ॥८०॥
(३. बाद-निरर्थक)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैने जो किया जो इस बात को ही जाने जिसमें कर्ता भाव हो किया हुआ सब व्यर्थ हो जाता है और प्रभु इसे नहीं मानते, प्रभु समर्पण हो जीव स्वयं कर्ता भाव न रखें ।
(क्रमशः)

शनिवार, 9 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ७३/७६*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ७३/७६*
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करि अकास, पवन किया, पावक किया प्रकास ।
अनबू किया, धरती करी, सु कहि जगजीवनदास७ ॥७३॥
{७. इस साषी में पांच तत्त्वों के नाम एवं उनके क्रम गिनाये हैं, जैसे-आकाश, पवन, पावक, अम्बु(जल) एवं धरती(पृथ्वी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा ने आकाश बनाया वायु बनायी, अग्नि तत्त्व रखा, जल व पृथ्वी ये सब बनाये हैं ।
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पंच तत्त करि तन किया, तन मंहि तत्त निवास ।
तत्त ही तत्त पिछांण हरी, सु कहि जगजीवनदास ॥७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पांच तत्वों से देह बनायी और देह में परम तत्व का निवास रखा और पंच तत्वों की देह ने ही परम तत्व को पहचान लिया । वे ही उपकारी हैं ।
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अलख अछारत अनल जल, अरस जमीं अरु बाइ ।
कहि जगजीवन बंदगी, सहज करै सत भाइ ॥७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु अदृश्य है अजर है यानि उनकी क्षरण अभी नहीं होता वे अक्षारणीय है । अग्नि, जल, आकाश, धरती और वायु ये सात भाई परस्पर मिल कर उन ब्रह्म की आराधना करते हैं ।
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कोइ जन बूझै बूझ हरी, बलती बलण१ बुझाइ ।
कहि जगजीवन अरस मैं, रांम रमै रस पाइ ॥७६॥
(१. बलती बलण-प्रज्वलित अग्नि)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कोइ विरला जन ही प्रभु की महिमा जान पाता है कि वे जलती बलती जीवात्मा की अग्नि बुझाते हैं । संत कहते हैं कि वे प्रभु अर्श में हैं और जो उनमें रमता है वह ही आनंद रस पाता है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६९/७२*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६९/७२*
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कहि जगजीवन रांमजी, एक तुम्हारी आस ।
यहु व्रत चित मैं बसि रहै, प्रेम भगति रस प्यास ॥६९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी जीवन में जो आशा है वह आपसे ही है । और यह व्रत या निश्चय मन में बसा रहे और आपके प्रेम व भक्ति की चाह सदा बनी रहै ।
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सेज४ बिराजै रांमजी, पहला५ दुख सब जाइ ।
कहि जगजीवन नूर मंहि, नख सिख रहै समाइ ॥७०॥
(४. सेज-ह्रदयकमल रूप आसन)    (५. पहला-पूर्व कृत कर्म का) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन के आसन पर प्रभु विराजते हों तो सब पूर्व जन्म के सुख दुख मिट जाते हैं । और उन के तेजोमय स्वरूप में सब समाया रहता है ।
सुमिरण सबका भला कूं६, कहा आप पर प्रांण ।
कहि जगजीवन एहि ए, हरिजन जांणै जांण ॥७१॥
(६. भला कूं-सब के हित के लिये)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु ने सबके हित के लिये स्मरण बताया है जिससे जीव के प्राण का उद्धार हो । और ये बात अन्तर्यामी प्रभु स्वंय जानते हैं ।
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पंच तत्त धरि ले उडे, सहज गगन मंहि बास ।
सुन्नि प्रकास सदा रहै, सु कहि जगजीवनदास ॥७२॥  
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीवात्मा पांचो तत्त्वों सहित ही जब सहज होता है तो वह आकाश की ऊंचाई तक पहुंच जाता है । उसके यश की सुवास सर्वत्र फैलती है । और शून्य जिसमें एक ब्रह्म तत्त्व ही है से प्रकाशित होता है । ऐसा संत कहते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 3 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६५/६८*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६५/६८*
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कुदरत१० अलख अगाध की, थकित भया जन देखि ।
कहि जगजीवन अंबु११ मंहि, क्यूं रस रूप विसेखि१२ ॥६५॥
(१०. कुदरत-सामर्थ्य या कारीगरी) (११. अंबु-जलबिन्दु)
{१२. विसेखि-विशेष(असाधारण)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन अलख अगाध प्रभु की सामर्थ्य देख कर जीव विस्मित है । उन्होंने एक बूंद से उत्पन्न इस जीव को रंग रुप से सजा कर कैसे असाधारण बना दिया है ।
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रांम दिलावै रांम दे, देकर ले सो रांम ।
कहि जगजीवन नांम भजि, प्रांण लहै ते ठांम ॥६६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम ही दिलवाते हैं, देकर लेते भी वे ही है । अतः है जीव उनकी शरण में जाने के लिये स्मरण कर ।
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अंतरजामी रांमजी, घट घट बोलै साखि ।
खी जगजीवन नांव ले, हरिजन हरी रस चाखि ॥६७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे प्रभु अन्तर्यामी है जिसकी साक्षी स्वरूप हर ह्रदय से जो आवाज आती है या वाणी उच्चारण होता हे यह प्रमाण है । अतः सच्चा आनंद रस लेना है तो उनका ही स्मरण करें ।
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रांम प्रमारथ१ परम गति, एक सुक्रित२ सब ठांम ।
कहि जगजीवन नांद सुण, निमष३ न भूलै नांम ॥६८॥
{१. प्रमारथ-परमार्थ(अन्तिम लक्ष्य)} {२. सुक्रित-सुकृत(=सत्कर्म)} (३. निमष- एक क्षण भी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम जी ने एक सबसे बड़ा परोपकार जीव पर जो किया है वह है कि जीव अनहद सुन कर एक क्षण भी उनको विस्मृत न करे यह.ही परम गति देता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 1 जुलाई 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६१/६४*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ६१/६४*
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धनि ए सांची साहिबी, क्यूं ही लखी न जाइ ।
जगजीवन भांनै५ घड़ै६, कहत न व्यापै ताहि ॥६१॥
(५. भांनै-नष्ट करै)   (६. घड़ै-उत्पन्न करे)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपकी मालिकियत ही सत्य है आप ही सच्चे मालिक हैं यह बात सबके समझ में क्यों नहीं आती है । कितना ही नष्ट कर स्वयं प्रभु बनाते रहते हैं फिर भी किसी में व्याप्त नहीं होते हैं ।
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कहि जगजीवन क्यूं कहै, त्यों त्यों आगै चाहि ।
अति गति अलख अगाध बिन, कोंण बुझावै ताहि ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु को कहना ही नहीं पड़ता की आगे जीव को क्या क्या चाहिये वे सारी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं । ये सब उन अलख अगाध जिनकी कोइ थाह ही नहीं पा सकता उन प्रभु के बिना इस लीला को कौन पूरी कर सकता है, वे ही सबको वांछित देने वाले समर्थ सिरजनहार हैं ।
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जगजीवन गिरिवर७ तिरे, अलख तुम्हारे नांम ।
पंच तत्त्व की कहा हरि, जे मन सुमिरै रांम ॥६३॥
(७. गिरिवर-पर्वत के सदृश पत्थर) 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी आपके नाम से तो पत्थर भी पानी में तैर जाते हैं ये पांच तत्त्व की देह का क्या भार है यदि यह भी राम नाम स्मरण करें तो अवश्य भव पार होगी ।
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जुगल प्रंसगै८ ऊपजै, खाख९ लपटि खप जाइ ।
रोजी रोज अगाध करि, जगजीवन जन पाइ ॥६४॥
(८.जुगल प्रंसगैं-स्त्री-पुरुष के रज एवं वीर्य के संयोग से) 
{९. खाख-राख(=भस्म)} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह जीव स्त्री पुरुष के संयोग से तो जन्मता है । व  मिट्टी में लिपट कर समाप्त हो जाता है वह जीव अनंत जीविका नित्य प्रभु से ही पाता है ।
(क्रमशः) 

बुधवार, 29 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५७/६०*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५७/६०*
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जगजीवन पूछै हरि, सम्रथ साहिब तोही ।
ए सब रचना क्यूं रची ? कहि समझावौ मोहि ॥५७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी आपसे ही प्रश्न कर पूछते हैं आप ही बताइये कि आपने यह  सब क्यों रचा, समझाइये ।
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असम२ तिरे अविगत सकति, अरु जहँ अलख अगाध ।     
कहि जगजीवन रांम कहि, सौ सुख समझै साध ॥५८॥
{२. असम-अश्म(=पत्थर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक अदृश्य शक्ति है जिसके प्रभाव से पत्थर भी तैर जाते हैं । वे ही अलख अगाध प्रभु की लीला है जिसे साधुजन समझते हैं और प्रभु उन्हें समझाते हैं ।
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कहि जगजीवन अंबु३ पर, असम तिरै जिहि नांम ।
सौ हरि घट घट बिराजै, त्रिभुवनतारन४ रांम ॥५९॥
(३. अंबु-जल)   (४. त्रिभुवनतारन-जगत् के उद्धारकर्ता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस जल पर जिसके प्रभाव से पत्थर तैर जाते हैं उन प्रभु के नाम का प्रभाव ही जब इतना प्रभाव शाली है । वे ही प्रभु हर ह्रदय में विराजते हैं । वे ही तीनों लोकों के तारक प्रभु हैं ।
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कहि जगजीवन एक मन, एक प्राण तन एक । 
वारी फेरूं रांम पर, अैसे होहिं अनेक ॥६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि एक ही मन है एक प्राण है जो एक ही देह में बसते हैं । अगर ऐसै अनेक हों तो उन प्रभु जी पर वार दूं ।
(क्रमशः) 

रविवार, 26 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५३/५६*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ५३/५६*
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बलि जाउं ऊगै६ आंथवै७, सब महिं सुभ सुर सेद ।
कहि जगजीवन तेज सोइ, राज सेज क्रम वेद ॥५३॥
(६. ऊगै-उदय होता है) (७-आंथवै-अस्त होता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मैं बलिहारी हूं प्रभु के उस स्वरूप की जो उदित व अस्त होता है । सब में जो सुर साज है । संत कहते हैं कि प्रभु का तेजोमय स्वरूप ही जो वेदों में क्रमवार विराज रहा है ।
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अखंडित उपज्या नहीं, सदा एक रस रांम ।
कहि जगजीवन उपजै विनसैं, क्रित्तिम काया धांम ॥५४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सदा अखण्डित है वह जन्म नहीं लेता है सदा समान रहता है । जो जन्म मरण से बंधा है वह कृत्रिम देह है ।
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जे तुम करौ तो होइ सब, न करौ तो कछु नांहि ।
कहि जगजीवन रांमजी, सब जांणै मन मांहि ॥५५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी जो आप करते हो वह ही होता है । अगर आप न करो तो कुछ नहीं होगा । ये बात सब ही मन में जानते हैं कि कर्ता केवल परमात्मा ही है ।
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नहि कोई कलि मंहिं बड़ा, हरि सागर सा मींत ।
जगजीवन एकै सुरति, करै सबन की चींत१ ॥५६॥
(१. चींत-चिन्ता)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस कलियुग में प्रभु जी जैसा उदार कोइ मित्र नहीं है वे तो सागर जैसे विशाल ह्रदय है । एक ही ध्यान से वे सबकी चिंता करते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४९/५२*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४९/५२*
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बांदी औरत घर खाना, खलक४ पड़्या ता मांहि ।
कहि जगजीवन बिनु क्रिपा, कोई निकसै नांहि ॥४९॥
{४. खलक-दुनियां(संसार)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारा संसार सेवक, स्त्री भोजन, इन सब में ही उलझा है । बिना प्रभु की कृपा के इससे कोइ नहीं निकल सकता है ।
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महा प्रलै जल जीव कूं, गोखुर५ समंद समांन ।
कहि जगजीवन समंद सुर, रांम तहां गुर ग्यांन ॥५०॥
(५. गोखुर-गौ के खुर से मना गड्ढा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जब महाप्रलय में पड़ता है तो गौ के खुर का खड्डा भी समुद्र के समान हो जाता है । तब वहां उस सागर में जीव की छोटी सी जिह्वा उन अनंत अपार प्रभु की कृत कृत्यों की कीर्ति कैसे गा सकती है ?
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एक जीभ हरि एक मुख, तुम क्रित अनंत अपार ।
कहि जगजीवन सकल लहावौ, सम्रथ सिरजनहार ॥५१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी जिह्वा और मुख तो एक है, और आपकी कीर्ति अनंत अपार है । आप ही वह सब कर सकते हो कि हम सब वह कह सकें ये सामर्थ्य प्रभु आपकी ही है ।
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केइ तारा केइ सूर ससि, केइ जल पवन अकास ।
रांम अखंडित जन लहै, सु कहि जगजीवनदास ॥५२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अनंत तारा कितने ही सूर्य चंद्र, कितने ही जल पवन सब में विराजते हुये भी वे राम प्रभु ब्रह्म स्वरूप हो अखण्डित है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 22 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४५/४८*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४५/४८*
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जगजीवन जल बूंद थैं, सकल पसारा कीन्ह ।
आप अलहदा१ होइ रह्या, ताही कूं तूं चीन्ह ॥४५॥
(१. अलहदा=पृथक्)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जल की एक बूंद से सब संसार रच कर आप पृथक है ऐसे प्रभु को हे जीव तू पहचान ।
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(जिन) सूरज सिरजे चंदरमा, सिरजे स्त्रिष्टि आकास ।
सो साहिब क्युं न सेविये, सु कहि जगजीवनदास ॥४६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसने सूरज चांद व सृष्टि की रचना की है आकाश भी बनाया है उन मालिक को क्यों नहीं आराधते वे ही हमारे आराध्य हैं ।
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प्रिथिवी सकल तुम हि थैं उपजी, तुम ही मांहि समाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, तुम गति लखी न जाइ ॥४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु यह सारी पृथ्वी तुमसे ही उत्पन्न है और तुम में ही समायी है । संत कहते हैं कि हे प्रभु आपके बिना आपकी गति या लीलाओं को कोइ नहीं जान सकता है ।
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उन ही हाथों होइ सब, तो ए कर२ कौने३ कांम ।
कहि जगजीवन तेज के, सकल फिरै सब ठांम ॥४८॥
(२. ए कर-इसका) (३. कोनै-क्या)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि उन प्रभु के ही हाथों से सब होता है तो फिर जीव का क्या काम है ? सभी उनके तेज स्वरूप के आधारित हैं जो सर्वत्र विराजता है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 20 जून 2022

*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४१/४४*

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*२४. सम्रथाई कौ अंग ~ ४१/४४*
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कहि जगजीवन रांमजी, उद बीरज अंकूर ।
प्रथम परम गुर कंवल कल४, प्रगट किया हरि नूर ॥४१॥
(४- कल-विभाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु बीज से ही अंकुर उदित होता है या प्रकट होता है । परमात्मा रुपी वैज्ञानिक ने गुरु होकर अपनी कला से ह्रदय कमल को विकसित किया है ।
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अंबु वीरज अवनी परस, अविगत अंस निवास ।
परम पुरिष रचना रची, सु कहि जगजीवनदास ॥४२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जल वीर्य, धरती इन पर स्पर्श जीव निवास करता है । यह सब रचना उन परम पुरुष परमेंश्वरं ने ही की है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, इडरज५ सतरज६ खांनि ।
जेरज७ जीव जगाइ हरि, नांऊ धर्या घर बांनि ॥४३॥
(५. इड रज- अण्डज) (६- सत रज-देवयोनि) {७. जेरज-ज़रा युज (=पुरुषयोनि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि परमात्मा ने अण्डज व देव योनि जो कि जीव उत्पत्ति के कारक हैं, में पुरुष योनि संयोग से जीव उत्पत्ति कर जैसा जिसका आवास रहा वैसा ही नाम रख दिया इसमें जाति कुल जैविक योनि सभी के लिये कहा गया है ।
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प्रीति करि सुमर्यां रांमजी, भगति करी सुख मांनि ।
अबिगत अलख अगाध हरि, ते जन लिया पिछांनि ॥४४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु स्मरण प्रेम कर करें और भक्ति करके सुख माने जो प्रेम से स्मरण व भक्ति कर सुख का अनुभव करता है प्रभु उसे अच्छे से पहचान जाते हैं ।
(क्रमशः)