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सोमवार, 15 जुलाई 2019

= २०० =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*घट घट के उनहार सब, प्राण परस ह्वै जाइ ।*
*दादू एक अनेक ह्वै, बरतें नाना भाइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

यत्वं पश्यसि तत्र एक? त्वं एव प्रतिभाससे।
'जिसको तू देखता है उसमें एक तू ही भासता है।’
फिर देखते हैं, पूर्णिमा की रात चांद निकला ! हजार—हजार प्रतिफलन बनते हैं। कहीं झील पर, कहीं सागर के खारे जल में, कहीं सरोवर में, कहीं नदी—नाले में, कहीं पानी—पोखर में, कहीं थाली में पानी भर कर रख दो तो उसमें भी प्रतिबिंब बनता है। पूर्णिमा का चांद एक, और प्रतिबिंब बनते हैं अनेक।
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लेकिन क्या ये कहेंगे, गंदे पानी में बना हुआ चांद का प्रतिबिंब और स्वच्छ पानी में बना चांद का प्रतिबिंब भिन्न—भिन्न हैं? क्या इसीलिए गंदे पानी में बने प्रतिबिंब को गंदा कहेंगे क्योंकि पानी गंदा है? क्या पानी की गंदगी से प्रतिबिंब भी गंदा हो सकता है? प्रतिबिंब तो गंदा नहीं हो सकता।
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रवींद्रनाथ ने एक स्मरण लिखा है। जब वे पहली—पहली बार पश्चिम से प्रसिद्ध हो कर लौटे, नोबल प्राइज ले कर लौटे, तो जगह—जगह उनके स्वागत हुए। लोगों ने बड़ा सम्मान किया। जब वे अपने घर आये तो उनके पड़ोस में एक आदमी था, वह उनको मिलने को आया। उस आदमी से वे पहले से ही कुछ बेचैन थे, कभी मिलने आया भी न था। 
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लेकिन उस आदमी की आंख ही बेचैन करती थी। उस आदमी की आंख में कुछ तलवार जैसी धार थी कि सीधे हृदय में उतर जाये। वह आया और गौर से उनकी आंख में आंख डाल कर देखने लगा। वे तो तिलमिला गये। और उसने उनके कंधे पकड़ लिये और जोर से हिलाकर कहा, तुझे सच में ही ईश्वर का अनुभव हुआ है? क्योंकि गीतांजलि, जिस पर उन्हें नोबल पुरस्कार मिला, प्रभु के गीत हैं, उपनिषद जैसे वचन हैं। उस आदमी ने उनको तिलमिला दिया।
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कहा, सच में ही तुझे ईश्वर का दर्शन हुआ है? क्रोध भी उन्हें आया। वह अपमानजनक भी लगा। लेकिन उस आदमी की आंखों की धार कुछ ऐसी थी कि झूठ भी न बोल सके और वह आदमी हंसने लगा और उसकी हंसी और भी गहरे तक घाव कर गई। और वह आदमी कहने लगा, तुझे मुझमें ईश्वर दिखाई पड़ता है कि नहीं, यह और मुश्किल बात थी। उसमें तो कतई नहीं दिखाई पड़ता था, और सब में दिखाई पड़ भी जाता। जो फूलमालायें ले कर आये थे, जिन्होंने स्वागत किया था, सम्मान में गीत गाये थे, नाटक खेले थे, नृत्य किये थे—उनमें शायद दिख भी जाता। वे बड़े प्रीतिकर दर्पण थे। यह आदमी ! वह आदमी खिलखिलाता, उन्हें छोड़कर लौट भी गया।
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रवींद्रनाथ ने लिखा है, उस रात मैं सो न सका। मुझे मेरे ही गाये गये गीत झूठे मालूम पड़ने लगे। रात सपने में भी उसकी आंख मुझे छेदती रही। वह मुझे घेरे रहा। दूसरे दिन सुबह जल्दी ही उठ आया। आकाश में बादल घिरे थे, रात वर्षा भी हुई थी। जगह—जगह सड़क के किनारे डबरे भर गये थे। मैं समुद्र की तरफ गया—मन बहलाने को। लौटता था, तब सूरज उगने लगा। विराट सागर पर उगते सूरज को देखा। 
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फिर राह पर जब घर वापिस आने लगा तो राह के किनारे गंदे डबरों में, जिनमें भैंसें लोट रही थीं, लोगों ने जिनके आस—पास मलमूत्र किया था, वहां भी सूरज के प्रतिबिंब को देखा। अचानक आंख खुल गई। मैं ठिठक कर खड़ा हो गया कि क्या इन गंदे डबरों में जो प्रतिबिंब बन रहा है सूरज का, वह गंदा हो गया? विराट सागर में जो बन रहा है, क्या विराट हो गया? क्षुद्र डबरे में जो बन रहा है, क्या क्षुद्र हो गया? प्रतिबिंब तो एक के हैं।

= १९९ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*खुशी तुम्हारी त्यों करो, हम तो मानी हार ।*
*भावै बन्दा बख्शिये, भावै गह कर मार ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

राजनीति से बच गये, यह तो शुभ हुआ, यह तो महाशुभ हुआ। इन सब से बच गये, क्योंकि हार गये। हार सौभाग्य है। उसे वरदान समझना। हारे को हरिनाम ! वह जो हारा, उसी के जीवन में हरिनाम का अर्थ प्रगट होता है। जीता, तो अकड़ जाता है। तो यह प्रभु की कृपा, सौभाग्य कि हार गये। निजपन के छोड़ते ही गंतव्य का आविर्भाव हो जायेगा। यह मैं —पन छोड़ दो। इस मैं —पन में अभी भी थोड़ी—सी धूमिल रेखा पुराने संस्कारों की रह गयी है।
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वह जो राजनीतिज्ञ होना चाहता था, वह जो लेखक, पत्रकार, प्रसिद्ध होना चाहता था, वह जो सुखी—संपन्न गृहस्थ होना चाहता था, उसकी थोड़ी—सी रेखा, थोड़ी—सी कालिख रह गयी है। इस निजपन को भी छोड़ दो। इसको भी हटा दो। वह सब हार गया, अब तक जो किया, लेकिन अभी भीतर थोड़ा—सा रस अस्मिता का बचा है, 'मैं' का बचा है। वह भी जाने दो। उसके जाते ही प्रकाश हो जायेगा। और तब पूछने की जरूरत न रहेगी कि गंतव्य क्या है? गंतव्य स्पष्ट होगा। आंख खुल जायेगी। गंतव्य कहीं बाहर थोड़े ही है ! गंतव्य कहीं जाने से थोड़े ही.......।
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सांख्य कहता है: आत्मा न तो जाती, न आती। तो गंतव्य कैसा? आत्मा वहीं है जहां होना चाहिए। ठीक उसी जगह बैठे हैं, जहां खजाना गड़ा है। स्वभाव में साम्राज्य है।
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बस यह थोड़ी—सी जो रेखा रह गयी है, वह भी स्वाभाविक है। इतने दिन तक उपद्रव में रहे तो वह उपद्रव थोड़ी—बहुत छाप तो छोड़ ही जाता है। उस छाप को भी पोंछ डालो। भूल ही जाओ अतीत को। यह अतीत की स्मृति भी जाने दो। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। अब तो समग्र भाव से यहां हो तो बस यहीं के हो रहो। न आगा न पीछा—यही क्षण सब कुछ हो जाये, तो इसी क्षण में परम शांति प्रगट, उस शांति में सब प्रगट हो जायेगा, सब स्पष्ट हो जायेगा।
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'मैं' के आसपास खड़ी हुई कोई भी मांग मत उठाओ। 'मैं' के पार कुछ मांगो। आज फिर एक बार जो अब तक जीया, जाना, पहचाना सब न्योछावर करो, लुटा दो ! भूलो, बिसरो; अतीत को जाने दो। जो नहीं हो गया, नहीं हो गया। राह खाली करो ताकि जो होने को है, वह हो। यह कूड़ा— कर्कट हटाओ।

रविवार, 14 जुलाई 2019

= १९८ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*राम रसिक वांछै नहीं, परम पदारथ चार ।*
*अठसिधि नव निधि का करै, राता सिरजनहार ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

परमात्मा की बड़ी कृपा है कि सपने कभी सफल नहीं हो पाते। सफल हो जायें तो मनुष्य परमात्मा से सदा के लिए वंचित रह जाएगा।परमात्मा की बड़ी अनुकंपा है कि इस जगत में वस्तुत: सफल नहीं हो पाते; सफलता का भ्रम ही होता है, असफलता ही हाथ लगती है ! हीरे—जवाहरात दूर से दिखाई पड़ते हैं, हाथ में आते— आते सब राख के ढेर हो जाते हैं। यह अनुकंपा है कि इस जगत में किसी को सफलता नहीं मिलती। इसी विफलता से, इसी पराजय से परमात्मा की खोज शुरू होती है। इसी गहन हार से, इसी पीड़ा से, इसी विकलता से सत्य की दिशा में आदमी कदम उठाता है।
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अगर सपने सच हो जायें तो फिर सत्य को कौन खोजे? सपने सपने ही रहते हैं, सच तो होते ही नहीं, सपने भी नहीं रह जाते, टूट कर बिखर जाते हैं, खंड—खंड हो जाते हैं। चारों तरफ टुकड़े पड़े रह जाते हैं। यह तो शुभ हुआ कि होना चाहते थे सफल गृहस्थ, न हो पाये। कौन हो पाता है? सफल गृहस्थ देखा? अगर सफल गृहस्थ देखा होता तो बुद्ध घर छोड़ कर न जाते। तो महावीर घर छोड़ कर न जाते। सफल गृहस्थ देखा कभी? आशाएं है।
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जब किन्हीं दो व्यक्तियों की शादी होती है,स्त्री—पुरुष की, तो पुरोहित कहता है कि सफल होओ ! मगर कोई कभी हुआ? यह तो शुभाकांक्षा है। यह तो पुरोहित भी नहीं हुआ सफल ! यह बड़े —बूढ़े देते हैं आशीर्वाद कि सफल होओ बेटा ! इनसे तो पूछो कि आप सफल हुए? कोई सफल हुआ संसार में? सिकंदर भी खाली हाथ जाता है ! अच्छा हुआ गृहस्थी में सफल न हो सके, अन्यथा घर मजबूत बन जाता; फिर मंदिर खोजते ही न।
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अच्छा हुआ कि प्रसिद्धि में सफल न हुए; लेखक—पत्रकार बन जाते तो अहंकार मजबूत हो जाता। अहंकार जितना मजबूत हो जाये उतना ही परमात्मा की तरफ जाना मुश्किल हो जाता है। पापी भी पहुंच जाये, अहंकारी नहीं पहुंचता है। पापी भी थोड़ा विनम्र होता है, कम से कम अपराध के कारण ही विनम्र हो —गया होता है कि मैं पापी हूं। लेकिन जिसने दो —चार किताबें लिख लीं, अखबार में नाम छप जाता है—लेखक हो गया, कवि हो गया, चित्रकार, मूर्तिकार—वह तो अकड़ कर खड़ा हो जाता है। कभी खयाल किया कि अक्सर लेखक, चित्रकार, कवि नास्तिक होते हैं—अक्सर ! पत्रकार अक्सर क्षुद्र बुद्धि के लोग होते हैं। उनके जीवन में कोई विराट कभी महत्वपूर्ण नहीं हो पाता। बड़ी अकड़.....!
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अच्छा हुआ, हारे ! हार में परमात्मा की जीत है। मिटने में ही उसके होने की गुंजाइश है। फिर राजनीतिज्ञ होना चाहते थे—वह तो बड़ी कृपा है उसकी कि न हो' पाये। क्योंकि सुना नहीं कि राजनीतिज्ञ कभी स्वर्ग पहुंचा हो। और राजनीति स्वर्ग की तरफ ले भी नहीं जा सकती। राजनीति का पूरा ढांचा नारकीय है। राजनीति की पूरी दाव—पेंच, चाल—कपट—सब नर्क का है।
नर्क का एक बड़े से बड़ा कष्ट यह है कि वहां सब राजनीतिज्ञ इकट्ठे मिल जायेंगे। 
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आग—वाग से मत डरना—वह तो सब पुरानी कहानी है। आग तो ठीक ही है। आग में तो कुछ हर्जा नहीं है बड़ा। लेकिन सब तरह के राजनीतिज्ञ वहां मिल जायेंगे। उनके दाव—पेंच में सताये जाओगे। नर्क का सबसे बड़ा खतरा यह है कि सब राजनीतिज्ञ वहां हैं। हालांकि जब भी कोई राजनीतिज्ञ मरता है, कहते हैं, स्वर्गीय हो गये। अभी तक सुना नहीं कि कोई राजनीतिज्ञ कभी स्वर्ग गया हो?

= १९७ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जब देव निरंजन पूजिये, तब सब आया उस मांहि ।*
*डाल पान फल फूल सब, दादू न्यारे नांहि ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

यह जो भीतर: 'मैं' का बोध है, अभी धुंधला—धुंधला है। जब प्रगाढ़ हो कर प्रगट हो जायेगा तो यही 'मैं' का बोध परमात्म—बोध बन जाता है। इसी धुंधले —से बोध को, धुएं में घिरे बोध को प्रगाढ़ करने के लिए श्रद्धा में जाना जरूरी है।
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श्रद्धा का अर्थ फिर से जान लें—विश्वास नहीं; जो है, उसको भरी आंख से देखना, खुली आंख से देखना। परमात्मा भीतर मौजूद है। कहां भटकते हैं? कहां खोजते है? कहीं खोजना नहीं है। कहीं जाना नहीं है। सिर्फ भरी आंख, भीतर जो मौजूद ही है, उसे देखना है। देखते ही द्वार खुल जाते हैं मंदिर के। साक्षी अनुभव में आता है—श्रद्धा के भाव से।
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साक्षी का अर्थ है : मन को लुटाने की कला, मन को मिटाने की कला।
कभी देखा, बाहर भी जब सौंदर्य की प्रतीति होती है तो तभी, जब थोड़ी देर को मन विश्राम में होता है ! आकाश में निकला है पूर्णिमा का चांद, देखा और क्षण भर को उस सौंदर्य के आघात में, उस सौंदर्य के प्रभाव में, उस सौंदर्य की तरंगों में शांत हो गये! एक क्षण को सही, मन न रहा। 
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उसी क्षण एक अपूर्व सौंदर्य का, आनंद का उल्लास— भाव पैदा होता है। फूल को देखा, संगीत को सुना, या मित्र के पास हाथ में हाथ डाल कर बैठ गये—जहां भी सुख की थोड़ी झलक मिली हो, पक्का जान लेना, वह सुख की झलक इसीलिए मिलती है कि कहीं भी मन अगर ठिठक कर खड़ा हो गया, तो उसी क्षण साक्षी— भाव छा जाता है।
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वह इतना क्षणभंगुर होता है कि उसे पकड़ नहीं पाते—आया और गया।
ध्यान में उसी को गहराई से पकड़ने की चेष्टा करते हैं। वह जो सौंदर्य दे जाता है, प्रेम दे जाता है, सत्य की थोड़ी प्रतीतियां दे जाती हैं, जहां से थोड़े—से झरोखे खुलते हैं अनंत के प्रति—उसे ध्यान में और प्रगाढ़ हो कर पकड़ने की कोशिश करते हैं।
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और यही इस जगत में बड़े से बड़ा कृत्य है। ध्यान रहे कृत्य यह है नहीं। क्योंकि कर्ता इसमें नहीं है। लेकिन भाषा का उपयोग करना पड़ता है। यह जगत में सबसे बड़ा कृत्य है जो कि बिलकुल ही करने से नहीं होता—होने से होता है। माना कि बाग जो भी चाहे लगा सकता है, लेकिन वह फूल किसके उपवन में खिलता है? जिसके रंग तीनों लोकों की याद दिलाते हैं और जिसकी गंध पाने को देवता भी ललचाते हैं। वह है साक्षी का फूल।
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बगिया तो सभी लगा लेते हैं—कोई धन की, कोई पद की। बगिया तो सभी लगा लेते हैं। लेकिन वह फूल किसके बगीचे में खिलता है, जिसके लिए देवता भी ललचाते हैं? वह तो खिलता है, जब स्वयं खिलते हैं। वह निजत्व का फूल है—सहस्र—दल कमल, सहस्रार; भीतर छिपी हुई संभावना जब पूरी खिलती है, साक्षी में खिलती है। क्योंकि कोई बाधा नहीं रह जाती।
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जब तक कर्ता हैं, शक्ति बाहर नियोजित रहती है। विचारक हैं तो शक्ति मन में नियोजित रहती है। कर्ता हैं तो शरीर से बहती रहती है, विचारक हैं तो मन से बहती रहती है। ऐसे बूंद—बूंद रिक्त होते रहते हैं। कभी संग्रह नहीं कर पाते ऊर्जा को, बाल्टी में छेद हैं—सब बह जाता है।
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साक्षी का इतना ही अर्थ है कि न तो कर्ता रहे, न चिंतक रहे; थोड़ी देर को कर्ता, चिंता दोनों छोड़ दीं। कर्ता न रहे तो शरीर से अलग हो गये; चिंतक न रहे तो मन से अलग हो गये। इस शरीर और मन से अलग होते ही जीवन—ऊर्जा संगृहीत होने लगती है। गहन गहराई आती है। उस गहराई में जो जाना जाता, उसे ज्ञानी साक्षी कहते; भक्त परमात्मा कहते। वह शब्द का भेद है।

शनिवार, 13 जुलाई 2019

= १९६ =



🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*ब्रह्म शून्य तहँ ब्रह्म है, निरंजन निराकार ।*
*नूर तेज तहँ ज्योति है, दादू देखणहार ॥*
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साभार ~ Rashmi Achmare ‎

"कृष्ण को पूर्णावतार कहने के क्या-क्या कारण हैं? कुछ और नए कारण बताएं।"
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जो व्यक्ति भी शून्य हो जाता है, वह पूर्ण हो जाता है। शून्यता पूर्ण की भूमिका है। अगर ठीक से कहें तो शून्य ही एकमात्र पूर्ण है। इसलिए आप आधा शून्य नहीं खींच सकते। ज्यामेट्री में भी नहीं खींच सकते। आप अगर कहें कि मैंने आधा शून्य खींचा, तो वह शून्य नहीं रह जाएगा, आधा शून्य होता ही नहीं। 
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शून्य सदा पूर्ण ही होता है। पूरा ही होता है। अधूरे का कोई मतलब ही नहीं होता। शून्य के दो हिस्से कैसे करियेगा? और जिसके दो हिस्से हो जाएं उसको शून्य कैसे कहियेगा? शून्य कटता नहीं, बंटता नहीं, "इंडिविजिबल" है। विभाजन नहीं होता। जहां से विभाजन शुरू होता है, वहां से संख्या शुरू हो जाती है। इसलिए शून्य के बाद हमें एक से शुरू करना पड़ता है। एक, दो, तीन, यह फिर संख्या की दुनिया है। सब संख्याएं शून्य से निकलती और शून्य में खो जाती हैं। शून्य एक मात्र पूर्ण है।
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शून्य कौन हो सकता है? वही पूर्ण हो सकता है। कृष्ण को पूर्ण कहने का अर्थ है। क्योंकि यह आदमी बिलकुल शून्य है। शून्य वह हो सकता है जिसका कोई चुनाव नहीं। 
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जिसका चुनाव है, वह तो कुछ हो गया। उसने "समबडीनेस" स्वीकार कर ली। उसने कहा कि मैं चोर हूं, यह कुछ हो गया। शून्य कट गया। उसने कहा मैं साधु हूं, यह कट गया, शून्य कट गया। यह आदमी कुछ हो गया। इसने कुछ होने को स्वीकार कर लिया, "समबडीनेस' आ गई, "नथिंगनेस" खो गई। अगर कृष्ण से कोई जाकर पूछे कि तुम कौन हो, तो कृष्ण कोई सार्थक उत्तर नहीं दे सकते हैं। चुप ही रह सकते हैं। कोई भी उत्तर देंगे तो चुनाव शुरू हो जाएगा। वह कुछ हो जाएंगे। असल में जिसको सब कुछ होना है, उसे न-कुछ होने की तैयारी चाहिए।
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झेन फकीरों के बीच एक कोड है। वे कहते हैं: "वन हू लांग्स टु बी एवरीव्हेयर, मस्ट नॉट बी ऐनीव्हेयर"। जिसे सब कहीं होना हो, उसे कहीं नहीं होना चाहिए। या न-कहीं होना चाहिए। जो सब होना चाहता है, वह कुछ नहीं हो सकता। कैसे कुछ होगा? कुछ और सबका क्या मेल होगा? चुनाव नहीं। 
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"च्वाइसलेसनेस" शून्यता ला देती है। फिर आप जो हैं, हैं। लेकिन, कह नहीं सकते कौन हैं, क्या हैं? इसलिए अर्जुन उनसे पूछता है कि आप बताएं आप कौन हैं? तो उत्तर नहीं देते, अपने को ही बता देते हैं। उसमें वे सब हैं। पूर्ण का बहुत गहरा कारण तो उनका शून्य व्यक्तित्व है। 
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जो कुछ है, वह अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिंदगी ऐसी जगह उसको ले जाएगी जहां उसका कुछ होना बंधन हो जाएगा। अगर मैंने कुछ भी होने का तय किया, तो जिंदगी उन घड़ियों को भी लाएगी जब मेरा कुछ होना ही मेरे लिए मुश्किल पड़ जाएगा।
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कृष्ण के पूरे होने का दूसरा अर्थ है कि कृष्ण के जीवन में वह सब कुछ है जो कि एक ही जीवन में होना मुश्किल है। असंभव लगता है। सब कुछ है--विरोधी, ठीक विरोधी। कृष्ण से ज्यादा असंगत, "इनकंसिस्टेंट" व्यक्तित्व नहीं है। 
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जीसस के व्यक्तित्व में एक संगति है, महावीर के व्यक्तित्व में एक संगति है, बुद्ध के व्यक्तित्व में एक तर्क है, एक संगतिपूर्ण व्यवस्था है, एक "सिस्टम" है। बुद्ध का एक हिस्सा समझ लो, तो पूरे बुद्ध समझ में आ जाते हैं। रामकृष्ण ने कहा है कि एक साधु समझ लो तो सब साधु समझ में आ जाते हैं। 
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यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। रामकृष्ण ने कहा कि समुद्र की एक बूंद समझ लो तो पूरा समुद्र समझ में आ जाता है। यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। समुद्र एकरस है, एक बूंद चखो तो खारी है, दूसरी बूंद चखो तो खारी है--सब नमक ही है। लेकिन कृष्ण में शक्कर भी मिल सकती है; और पक्का नहीं है कि पड़ोस की बूंद में शक्कर हो। कृष्ण का व्यक्तित्व जो है, सब-रस है।
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कृष्ण की पूर्णता का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि कृष्ण के पास अपने जैसा कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह खाली अस्तित्व हैं, "एक्जिस्टेंस" हैं। अस्तित्व हैं, बस, खाली हैं, कहें कि दर्पण की तरह हैं। जो उनके सामने आ जाता है, वही उसमें दिखाई पड़ता है। "ही जस्ट मिरर्स"। जो भी दिखाई पड़ जाता है वही दिखाई पड़ता है। 
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जब आपको अपनी शक्ल उसमें दिखाई पड़ती है तो आप सोचते हैं, मेरे जैसे हैं। और आप हटे नहीं कि वह शक्ल गई नहीं, और कृष्ण फिर खाली हैं। और जो भी सामने आता है, वह अपने जैसा बता देता है। ये सभी खबर देते हैं कि कृष्ण मेरे जैसे हैं। गीता में जिसने भी झांका उसने कह दिया कि गीता मेरी जैसी है, इसलिए हजार टीकाएं हो गईं। 
💥🌹🙏💖ओशो💖🙏🌹💥
कृष्ण स्मृति--(प्रवचन--02)

= १९५ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जोगिया बैरागी बाबा,*
*रहै अकेला उनमनि लागा ॥*
*आतम जोगी धीरज कंथा,*
*निश्चल आसण आगम पंथा ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. २३०)
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साभार ~ Nishi Dureja
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ग़रज़ कि होश में आना पड़ा मुहब्बत को
हमीं को देख लें दीवाने तेरे दूर न जाएं

हुस्न से कब तक परदा करते
इश्क से कब तक परदा होता

सत्रह साल की उम्र थी रमण की। परिवार में किसी की मृत्यु हो गयी। रमण ने मृत्यु को घटते देखा। अभी—अभी था यह आदमी, अभी—अभी नहीं हो गया !
कारौ पीरौ काहू द्वार जातौ हू न पेखिए।
और न देखा काला न पीला। न किसी को देखा आते न किसी को देखा जाते। सब वैसा ही का वैसा। नाक, मुंह, आंख, कान सब वैसे, हाथ—पैर सब वैसे। एक क्षण पहले यह था और एक क्षण बाद न रहा। हुआ क्या ! कौन चला गया ! कहां चला गया ! कहां से आया था !
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रमण को एक बात सूझी। बच्चों को अकसर बातें सूझ जाती हैं। घर के लोग तो रोने—धोने में लगे थे, वे बगल के कमरे में चले गए और जमीन पर लेट गए, जैसे वह मुर्दा आदमी लेटा था वैसे लेट गए। हाथ—पैर वैसे ही कर लिए ढीले, जैसे मुर्दे ने किए थे। आंखे बंद कर लीं। 
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एक प्रयोग किया मृत्यु का कि मैं देखूं कि मेरे भीतर क्या होता है; अगर मैं ऐसे ही मर जाऊं तो कोई आता—जाता है या नहीं; कोई बचता है कि नहीं भीतर? शरीर को शिथिल छोड़ दिया। सरल भाव का बच्चा रहा होगा—अति सरल भाव का, कि जल्दी ही लगा कि मौत घट रही है। हाथ—पैर सब सूख गए। 
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थोड़ी देर विचार घूमते रहे, फिर विचार भी समाप्त हो गए। थोड़ी देर बाहर की आवाजें और रोना—धोना सुनाई पड़ता रहा, फिर पता नहीं वे भी सब आवाजें कहीं दूर....... निकल गईं। कान जैसे बंद हो गए। थोड़ी देर श्वास चलती मालूम पड़ती रही, फिर उससे भी दूरी हो गई। मृत्यु जैसे घटी। 
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और जब घंटे—भर बाद रमण ने आंखें खोलीं तो वे दूसरे ही व्यक्ति थे। चमत्कार हो गया। देख ही लिया उन्होंने भीतर अपने कि "जो है", उसकी कोई मृत्यु नहीं। जाकर घर के लोगों को कहा : व्यर्थ रो रहे हो, धो रहे हो। कोई कहीं गया नहीं, कोई कहीं जाता नहीं।—
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और उसी दिन उन्होंने घर छोड़ दिया, चल पड़े जंगल की तरफ। अब इस संसार में कुछ अर्थ न रहा। सारे अर्थों का अर्थ तो भीतर मिल गया। संपदा तो मिल गई, अब क्या तलाश करनी है? इस संसार में तो हम संपदा की ही तलाश करते रहते हैं। जब मिल गयी संपदा, धनी हो गए, तो अब यहां क्या करना है? चल पड़े। और ऐसा रस लगा, यह मरने की कला में ऐसा रस लगा कि लोग कहते हैं कि जहां रमण बैठ जाते थे, दिनों बैठे रहते थे। आंख बंद कर ली, शरीर को मुर्दा कर लिया और बैठ हैं और पी रहे रस !
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मालूम नहीं तुझको अंदाज ही पीने के दिन बीत जाते। न भोजन की फिक्र है, न प्यास का पता है। लेकिन एक आभा प्रकट होने लगी, एक तेजोमंडल आविर्भूत होने लगा। चारों तरफ एक सुगंध फैलने लगी। लोग सेवा करने लगे। लोग भोजन ले आते, हाथ—पैर दबाते कि लौट आओ, भोजन कर लो। कोई पानी ले आता, कोई स्नान करवा देता; नहीं तो वे बैठे रहते बिना ही स्नान के। मक्खियों के झुंड के झुंड उन पर बैठे रहते और वे मस्त हैं, वे मदहोश हैं। 
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और लोग पूछते : तुम करते क्या हो? तो वे कहते कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं। करने की कोई जरूरत ही नहीं। फिर यही उनका जिंदगी—भर संदेश रहा जो भी उनके पास जाता, पूछता : हम क्या करें परमात्मा को पाने को? तो वे कहते= करने की कोई जरूरत नहीं, बस बैठ रहो। खाली बैठे रहो। खाली बैठे, बैठे, बैठे, बैठे एक दिन ऐसा सुर बंध जाएगा कि जो भीतर है उसकी प्रतीति होने लगेगी। बाहर से मन मुड़ जाएगा, भीतर का अनुभव होने लगेगा !

🌹जय हो🌹

शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

= १९४ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*ज्यों जाणों त्यों राखियो, तुम सिर डाली राइ ।*
*दूजा को देखूं नहीं, दादू अनत न जाइ ॥*
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साभार ~ Rameshwar Sah

विवेकानंद के पिता मरे। शाही दिल आदमी थे। बड़ा कर्ज छोड़कर गए। घर में तो कुछ भी न था, खाने को भी कुछ छोड़ नहीं गए थे। तो रामकृष्ण ने विवेकानंद को कहा कि तू परेशान मत हो। तू मां से क्यों नहीं कहता ? मंदिर में जा और कह दे, वे सब पूरा कर देंगी।
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वे द्वार पर बैठ गए, विवेकानंद को भीतर भेज दिया। घंटे भर बाद विवेकानंद लौटे, आंखों से आंसू बह रहे थे, बड़े अहोभाव में। रामकृष्ण ने कहा, 'कहा ?, विवेकानंद ने कहा, अरे ! मैं तो यह भूल ही गया ।
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फिर दूसरे दिन भेजा। फिर वही। फिर तिसरे दिन भेजा, विवेकानंद ने कहा, यह मुझसे न हो सकेगा। मैं जाता हूं और जब खड़ा होता हूं प्रतिमा के समक्ष तो मेरे सुख - दुख का कोई सवाल ही नहीं रह जाता। मैं ही नहीं रह जाता तो सुख - दुख का सवाल कहां ! पेट होगा भूखा, लेकिन मेरा शरीर से हीं संबंध टूट जाता है। और उस महिमा के सामने क्या छोटी-छोटी बातें करनी है। चार दिन की जिंदगी है, भूखे भी गुजार देंगे। यह शिकायत भी कोई परमात्मा से करने की है। आप मुझे, परमहंस देव, अब दोबारा न भेजें। क्षमा करें, मैं न जाऊंगा।
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रामकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा, यह तेरी परिक्षा थी। मैं देखना चाहता था कि मांगता है या नहीं। अगर मांगता तो तू मेरे लिए व्यर्थ होता, क्योंकि प्रार्थना फिर हो ही नहीं सकती, जहां मांग है। तूने नहीं मांगा। बार-बार मैंने तुझे भेजा और तू हारकर लौट आया - यह खबर है इस बात की कि तेरे भीतर प्रार्थना का खुलेगा आकाश। तेरे भीतर प्रार्थना का बीज टूटेगा, प्रार्थना का वृक्ष बनेगा। तेरे नीचे हजारों छायां में बैठेंगे।
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मांग रहे हैं लोग - मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारों में, शिवालयों में - प्रार्थना नहीं हो रही है। जिसे प्रार्थना करनी हो तो वह कहीं भी कर लेगा। जिसे प्रार्थना करने का ढंग आ गया, सलीका आ गया, वह जहां है वहीं कर लेगा।
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यह सारा संसार हीं उसका है, उसका हीं मंदिर है, उसकी ही मस्जिद है। तुम जहां बैठे हो, वह जगह भी उसी की है। उससे खाली तो कुछ भी नहीं है यह स्मरण आ जाए तो जब आंख बंद की, तभी मंदिर खुल गया, जब हाथ जोड़े तभी मंदिर खुल गया, जहां सिर झुकाया वहीं उसकी प्रतिमा स्थापित हो गई....... 
*ओशो* भक्ति सूत्र
संकलन - स्वामी जीवन संगीत ।

= १९३ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।*
*दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥*
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साभार ~ Rashmi Achmare 

दुख जीवन का तथ्य है; लेकिन केवल दुख ही जीवन का तथ्य नहीं है, सुख भी जीवन का तथ्य है। और जितना बड़ा तथ्य दुख है, उससे छोटा तथ्य सुख नहीं है और जब हम दुख को ही तथ्य मानकर बैठ जाते हैं तो अतथ्य हो जाता है। "फिक्शन' हो जाता है, क्योंकि सुख कहां छोड़ दिया। 
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अगर जीवन में दुख ही होता तो बुद्ध को किसी को समझाने की जरूरत न पड़ती। और बुद्ध इतना समझाते हैं लोगों को, फिर भी कोई भाग तो जाता नहीं। हम भी दुख में रहते हैं, लेकिन फिर भी भाग नहीं जाते। दुख से भिन्न भी कुछ होना चाहिए जो अटका लेता है, जो रोक लेता है। 
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किसी को प्रेम करने में अगर सुख न हो, तो इतने दुख को झेलने को कौन राजी होगा। और कण भर सुख के लिए आदमी पहाड़ भर दुख झेल लेता है, तो मानना होगा कि कण भर सुख की तीव्रता पहाड़ भर दुख से ज्यादा होगी। सुख भी सत्य है।
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समस्त त्यागवादी सिर्फ दुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। समस्त भोगवादी सुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। भौतिकवादी सुख पर जोर देते हैं इसलिए वह असत्य हो जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, दुख है ही नहीं। वे कहते हैं, दुख है ही नहीं, सुख ही सत्य है। तब ध्यान रहे, आधे सत्य असत्य हो जाते हैं। 
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सत्य होगा तो पूरा ही होगा, आधा नहीं हो सकता। कोई कहे जन्म ही है, तो असत्य हो जाता है। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु है। कोई कहे, मृत्यु ही है, तो असत्य हो जाता है, क्योंकि मृत्यु के साथ जन्म है।
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जीवन दुख है, ऐसा अगर अकेला ही प्रचारित हो, तो यह अतथ्य हो जाता है। हां लेकिन, जीवन सुख-दुख है, ऐसा तथ्य है। और अगर इसे और गौर से देखें, तो हर सुख के साथ दुख जुड़ा है, हर दुख के साथ सुख जुड़ा है। अगर इसे और गहरे देखें तो पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि दुख कब सुख हो जाता है, सुख कब दुख हो जाता है। "ट्रांसफरेबल' है, "कन्वर्टिबल' भी है। एक दूसरे में बदलते भी चले जाते हैं। रोज यह होता है। 
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असल में "एम्फेसिस' का ही शायद फर्क है। जो चीज आज मुझे सुख मालूम पड़ती है, कल दुख मालूम पड़ने लगती है। जो कल मुझे सुख मालूम पड़ती थी, आज दुख मालूम पड़ने लगती है। अभी मैं आपको गले लगा लूं, सुख मालूम पड़ता है। फिर मिनट-दो मिनट न छोडूं, दुख शुरू हो जाता है। आधा घड़ी न छोडूं तो आसपास देखते हैं कि कोई पुलिसवाला उपलब्ध होगा कि नहीं होगा। 
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अब यह कैसे होगा छूटना? इसलिए जो जानते हैं, वे आपके छूटने के पहले छोड़ देते हैं। जो नहीं जानते, वे अपने सुख को दुख बना लेते हैं और कोई कठिनाई नहीं है। हाथ लिया हाथ में नहीं कि छोड़ना शुरू कर देना, अन्यथा बहुत जल्दी दुख शुरू हो जाएगा। हम सभी अपने सुख को दुख बना लेते हैं। सुख को हम छोड़ना नहीं चाहते, तो जोर से पकड़ते हैं, जोर से पकड़ते हैं तो दुख हो जाता है। फिर जिसको इतने जोर से पकड़ा फिर उसको छोड़ने में भी मुश्किल हो जाती है।
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दुख को हम एकदम छोड़ना चाहते हैं। छोड़ना चाहते हैं, इसलिए दुख गहरा हो जाता है। पकड़े रहें, दुख को भी तो थोड़ी देर में पाएंगे सुख हो गया। दुख का मतलब है कि शायद हम अपरिचित हैं, थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। सुख का भी मतलब है, शायद हम अपरिचित हैं, और थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। और परिचय सब बदल देगा।
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मैंने सुना है एक आदमी के बाबत, वह एक नए गांव में गया। किसी आदमी से उसने रुपये उधार मांगे। उस आदमी ने कहा, अजीब हैं आप भी ! मैं आपको बिलकुल नहीं जानता और आप रुपये मांगते हैं। उस आदमी ने कहा, मैं अजीब हूं कि तुम ! मैं अपना गांव इसलिए छोड़कर आया, क्योंकि वहां लोग कहते हैं, हम तुम्हें भली भांति जानते हैं, कैसे उधार दें? और तुम इस गांव में कहते हो कि जानते नहीं हैं, इसलिए न देंगे। तो जब भलीभांति जान लोगे तब दोगे? लेकिन पुराने गांव में सब लोग भलीभांति जानते थे। और वहां इसलिए नहीं देते थे। अब मैं कहां जाऊं? ऐसा भी कोई गांव है, जहां मुझे भी रुपये उधार मिल सकें?
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हम सब भी, हम जो तोड़कर देखते हैं उससे कठिनाई शुरू होती है। नहीं, ऐसा कोई गांव नहीं है। सब गांव एक जैसे हैं। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां सुख-ही-सुख है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां दुख-ही-दुख है। इसलिए स्वर्ग और नर्क सिर्फ कल्पनाएं हैं। वह हमारी इसी कल्पना की दौड़ है। एक जगह हमने दुख-ही-दुख इकट्ठा कर दिया है, एक जगह हमने सुख-ही-सुख इकट्ठा कर दिया है। नहीं, जिंदगी जहां भी है वहां सुख भी है, दुख भी है। नर्क में भी विश्राम के सुख होंगे और स्वर्ग में भी थक जाने से दुख होंगे।
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बर्ट्रंड रसल ने कहीं एक बात कही है कि मैं स्वर्ग न जाना चाहूंगा, क्योंकि जहां सुख-ही-सुख होगा, वहां सुख कैसे मालूम पड़ेगा? जहां कोई बीमार ही न पड़ता होगा, वहां स्वास्थ्य का पता चलेगा? नहीं पता चलेगा। और जहां भी चाहिए वह मिल जाता होगा, वहां मिलने का सुख होगा? मिलने का सुख न मिलने की लंबाई से आता है। 
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इसलिए तो जो चीज मिल जाती है, समाप्त हो जाती है। प्रतीक्षा में ही सब सुख होता है। जब तक नहीं मिलता, नहीं मिलता, सुख-ही-सुख होता है। मिला कि हाथ एकदम खाली हो जाते हैं। हम फिर पूछने लगते हैं, अब किस के लिए दुखी हों? अर्थात अब हम किसके लिए सुख मानें प्रतीक्षा में? अब हम किसकी प्रतीक्षा करें? अब हम क्या पाने की राह देखें, जिसमें सुख मिले?
🌹🙏💖ओशो 💖🙏🌹
कृष्ण--स्मृति--(प्रवचन--02)

गुरुवार, 11 जुलाई 2019

= १९२ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू तो पीव पाइये, कश्मल है सो जाइ ।*
*निर्मल मन कर आरसी, मूरति मांहि लखाइ ॥*
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साभार ~ @Pavan P K

एक ईरानी बादशाह के दरबार में एक चीनी चित्रकार ने निवेदन किया कि मैं चीन से आया हूं। बहुत बड़ी कला का धनी हूं। चित्र बना सकता हूं ऐसे, जैसे कि आपने कभी न देखे हों।
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सम्राट ने कहा, जरूर बनाओ। लेकिन हमारे दरबार में चित्रकारों की कमी नहीं है और बहुत अनूठे चित्र मैंने देखे हैं। उस चीनी चित्रकार ने कहा तो मैं प्रतियोगिता के लिए भी तैयार हूं। जो श्रेष्ठतम कलाकार था सम्राट के दरबार का, वह प्रतियोगिता के लिए चुना गया। और सम्राट ने कहाकि पूरी शक्ति लगाना है, यह साम्राज्य की प्रतिष्ठा का सवाल है। एक परदेशी तुम्हें हरा न जाए। छह महीने का उन्हें समय मिला था।
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ईरानी चित्रकार बड़ी मेहनत में लग गया। दस—बीस सहयोगियों को लेकर उसने एक भवन की पूरी दीवार को चित्रों से भर डाला। उसकी मेहनत की खबर दूर—दूर तक पहुंच गई।
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लोग दूर—दूर से उसकी मेहनत को देखने आने लगे। लेकिन उससे भी ज्यादा चमत्कार की बात तो यह थी कि वह चीनी चित्रकार ने कहा कि मुझे किसी उपकरण की जरूरत नहीं और न रंगों की कोई जरूरत है। सिर्फ मेरा इतना ही आग्रह है कि जब तक चित्र पूरा न बन जाए तब तक मेरी दीवार के सामने से पर्दा नहीं उठाया जा सके।
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वह रोज अपने पर्दे के पीछे चला जाता। सांझ को थका—मादा लौटता, माथे पर पसीने की बूंदें होतीं। लेकिन बड़ी कठिनाई और बड़ी हैरानी और बड़ी अचंभे की बात यह थी कि वह न तो तूलिका ले जाता, न रंग ले जाता पर्दे के पीछे। उसके हाथों में रंग के कोई निशान न होते। उसके कपड़ों पर रंग के कोई दाग न होते। उसके हाथ में कोई तूलिका न होती।
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सम्राट को शक होने लगा कि वह पागल तो नहीं है ! क्योंकि प्रतियोगिता होगी कैसे? लेकिन छह महीने प्रतीक्षा करनी जरूरी थी। शर्त पूरी करनी जरूरी थी। 
छह महीने बडी मुश्किल से कटे। दूर—दूर तक ईरानी चित्रकार के चित्रों की खबर पहुंवी। साथ ही यह खबर भी पहुंची कि एक पागल प्रतियोगी भी है, जो बिना किसी रंग के प्रतियोगिता कर रहा है।
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छह महीने लोग ऐसी आतुरता से प्रतीक्षा किए कि जिसका कोई हिसाब नहीं। वह छह महीने बाद पर्दा उठने को था। सम्राट गया। ईरानी चित्रकार के चित्र देखकर वह दंग हो गया। बहुत चित्र उसने जीवन में देखे थे। लेकिन नहीं, ऐसा श्रम शायद ही कभी किया गया हो !
फिर उसने चीनी चित्रकार से कहा। चीनी चित्रकार ने अपनी दीवार के सामने का पर्दा हटा दिया। सम्राट तो बहुत हैरान हो गया। ठीक वही चित्र ! जो ईरानी चित्रकार ने बनाया था, वही चित्र चीनी चित्रकार ने भी बनाया था। पर एक और खूबी थी कि वह चित्र दीवार के ऊपर नहीं, दीवार के भीतर बीस फीट अंदर दिखाई पड़ता था। सम्राट ने पूछा, तुमने किया क्या है ! क्या जादू है?
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उसने कहा, मैंने कुछ किया नहीं। मैं सिर्फ दर्पण बनाने में कुशल हूं। तो मैंने दीवार को दर्पण बनाया। वह छह महीने दीवार को घिस—घिसकर मैंने दर्पण बनाया। और जो चित्र आप देख रहे हैं दीवार में, वह तो ईरानी चित्रकार का ही है सामने की दीवार पर। मैंने सिर्फ दीवार दर्पण बनाई है।
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जीत गया वह प्रतियोगिता। क्योंकि दर्पण में झलककर वही ईरानी चित्र इतना गहरा हो उठा, जैसा वह खुद स्वयं में नहीं था। क्योंकि ईरानी चित्र तो दीवार के ऊपर था। दर्पण में जाकर वह भीतर गहरे हो गया। डेप्थ, थी डायमेंशनल हो गया। ईरानी चित्र तो टू डायमेंशन में था, दो आयाम में था। उसमें गहराई न थी। चीनी चित्रकार का चित्र तीन डायमेंशन में हो गया, उसमें गहराई भी थी।
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सम्राट ने कहा कि तुमने पहले क्यों न कहा कि तुम सिर्फ दर्पण बनाना जानते हो ! उस चीनी चित्रकार ने कहा कि मैं कोई चित्रकार नहीं हूं फकीर हूं। उसने कहा, और मजे की बात है। पहले तुमने यह न बताया कि तुम दर्पण बनाते हो, अब तुम बताते हो कि तुम फकीर हो ! तो फकीर को दर्पण बनाने से क्या प्रयोजन?
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उस चीनी चित्रकार ने कहा कि मैंने अपने को दर्पण बनाकर जो चित्र देखा जगत का, तब से मैं दर्पण ही बनाता हूं। जैसे इस दीवार को मैंने घिस—घिसकर दर्पण कर दिया है, ऐसे ही मैंने अपने को घिस—घिसकर भी दर्पण कर लिया है। और मैंने इस जगत की जो सुंदर प्रतिमा फिर अपने में देखी है, वैसी बाहर कहीं भी नहीं है।
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लेकिन जिस दिन मैं दर्पण बन गया, उस दिन मैंने सारे जगत को अपने में समाया हुआ देखा और जाना। सब भूत मेरे भीतर समा गए। जिस दिन हमारा हृदय दर्पण की तरह बनता है, उस दिन हम प्रभु को देख पाते हैं, और जिस दिन हम यह देख पाते हैं, उसी दिन सारा जगत भी दर्पण बन जाता है। फिर हम अपने को भी प्रतिपल सब जगह देख पाते हैं। लेकिन जगत को दर्पण नहीं बनाया जा सकता। बनाया तो जा सकता है दर्पण स्वयं को ही।
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इसलिए यात्री — साधना का यात्री — अपने को ही दर्पण बनाने से शुरू करता है। तीन बातें समझ लेनी चाहिए। एक, शायद दर्पण बनाना कहना ठीक नहीं है, दर्पण हम हैं, लेकिन धूल से दबे हुए हैं। सब धूल झाड़नी—पोंछनी और साफ कर देनी है।
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दर्पण पर धूल जम जाए तो धूल से भरा दर्पण दर्पण नहीं रह जाता। फिर वह किसी चीज को प्रतिफलित नहीं करता। उसका प्रतिफलन मर जाता है, धूल से दब जाए तो। हम भी धूल से दबे हुए दर्पण हैं। धूल भी हमारी अर्जित की हुई है।
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राह चलते जैसे धूल इकट्ठी हो जाए दर्पण पर, ऐसे ही जीवन चलते, राह चलते जीवन की, अनंत—अनंत जीवन में यात्रा करते, न मालूम कितने—कितने मार्गों पर, न मालूम कितने कर्मों और कर्ताओं के होने की वासना में, न मालूम कितनी धूल हम इकट्ठी कर लेते हैं।
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कर्म की धूल है, कर्ता की धूल है, अहंता की धूल है। विचारों की, वासनाओं की, वृत्तियों की धूल है। वह बड़ी गहरी धूल की पर्त हमारे ऊपर है। उसे हटा देने की बात है। वह हट जाए तो हम दर्पण हैं। और जो स्वयं दर्पण है उसके लिए सब दर्पण जैसा हो जाता है। क्यों?
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क्योंकि एक और गहरा सूत्र खयाल में ले लेना चाहिए कि जो हम हैं, वही हमें चारों तरफ दिखाई पड़ता है। हम वही देखते हैं, जो हम हैं, उससे अन्यथा कभी भी नहीं देखते। जो हमें बाहर दिखाई पड़ता है, वह हमारा ही प्रयोजन है, वह हमारा ही प्रक्षेपण है। वह हम ही हैं। वह हमारी ही शकल है।
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इसलिए अगर बाहर बुरा दिखाई पड़ता है, तो जानना कि कहीं भीतर बुरे का बीज है। बाहर अगर कुरूपता दिखाई पड़ती है, तो जानना कि कोई कुरूपता भीतर जड़ जमाकर बैठी है। बाहर अगर बेईमानी दिखाई पड़ती है, तो जानना कि बेईमान कहीं भीतर है। प्रोजेक्टर भीतर है, बाहर तो पर्दा है। उस पर हम प्रोजेक्ट करते चले जाते हैं। जो हमारे भीतर है, हम फैलाए चले जाते हैं।
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ईशावास्य उपनिषाद ~ प्रवचन-5
ओशो.....♡

= १९१ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।*
*दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥*
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साभार ~ Rashmi Achmare 

मैं चाहता हूं, तुम परिपक्व हो जाओ; तुम जहां हो, वहीं परिपक्वता आ जाए। और परिपक्वता मूल चीज है, बाकी तो सब ठीक है। और जीवन में बड़े सवाल हैं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि तुम जहां से भी कच्चे हटा लिए जाओगे, तुम वहां से हट तो जाओगे शारीरिक दृष्टि से, मानसिक दृष्टि से कैसे हटोगे? और मन में जो तुम रस ले जाओगे, वह रस तुम्हारे साथ रहेगा। और तुम जहां भी रहोगे, वह रस अपने संसार को फिर खड़ा कर लेगा। बीज तुम्हारी वासना में है; तुम्हारी परिस्थिति में नहीं है, तुम्हारी मनःस्थिति में है।
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संन्यास आंतरिक क्रांति है। वह इस बात की उदघोषणा है कि मैं भीतर अपने को अब बदलूंगा। और मैं मानता हूं कि जितनी सुविधा बाजार में है बदलने की, उतनी हिमालय पर नहीं है। क्योंकि बाजार में प्रतिपल मौके हैं, जहां चुनौती है; और बाजार में प्रतिपल अवसर हैं, जहां गिरने की सुविधा है; और बाजार में प्रतिपल संघर्ष है, जहां तुम ज्यादा देर अपने को धोखा नहीं दे सकते। बाजार दर्पण है। हर आदमी जिससे तुम मिलते हो, तुम्हारे भीतर तुम्हारे किसी मन के कोने को रोशन कर देता है।
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इसे थोड़ा समझो। बहुत सी बातें तुम्हें अपने संबंध में कभी पता ही न चलेंगी, अगर तुम लोगों से न मिलो। समझो कि गाली देने वाला तुम्हें कभी मिले ही न, तो तुम्हें अपने भीतर के क्रोध का पता न चलेगा। कैसे पता चलेगा? गाली देने वाला तुम्हें कभी मिले ही न, अपमान करने वाला कभी मिले ही न, तो तुम यही समझोगे कि तुम अक्रोधी हो। गाली देने वाला मिले, तब तुम्हारे भीतर के क्रोध का तुम्हें पहली दफा संस्पर्श होगा।
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तो गाली देने वाले ने तुम्हारे आत्म-दर्शन में सहायता दी; उसने तुम्हारे एक पहलू को रोशन किया; तुम्हारा एक अंधेरा हिस्सा दबा पड़ा था, उसे जगाया; उसने तुम्हें बताया कि तुम्हारे भीतर क्रोध है; उसने तुम्हें स्वयं को समझने के लिए सुविधा दी।
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जंगल में भाग गए संन्यासी की सुविधाएं खो जाती हैं--न कोई गाली देता, न कोई सम्मान करता, न कोई धन का प्रलोभन देता--कोई कुछ मौका नहीं देता। वह अकेला पड़ा रह जाता है; आत्म-दर्शन कठिन हो जाता है। संसार में आत्म-दर्शन का उपाय है। नहीं तो परमात्मा ने जंगल ही जंगल बनाए होते और एक-एक आदमी को एक-एक जंगल दिया होता। परमात्मा तुमसे थोड़ा ज्यादा समझदार है, इतना तो मानोगे? 
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साधना संसार में है, जंगल में तो साधना का सवाल ही नहीं है। जंगल में तो तुम सड़ोगे, साधना क्या करोगे? साधना यहां है, जहां प्रतिपल कांटे हैं। और कांटों के बीच जिस दिन तुम चलना सीख लो, और कांटों के बीच तो चलो और कांटे चुभें न--बस उसी दिन तुम समझ लेना, अब तुम योग्य हुए जंगल जाने के। अब जाना हो तो चले जाओ। फिर मैं तुम्हें रोकता नहीं। लेकिन फिर तुम खुद ही कहोगे, अब जंगल जाने की जरूरत भी क्या है; यहीं भीड़ में जंगल हो गया है।
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अगर तुम्हारे भीतर प्रौढ़ता आ जाए, प्रज्ञा का जन्म हो। और कैसे होगा जन्म? संघर्षण से होता है; प्रतिपल जीवन की चुनौतियों को स्वीकार करने से होता है; हारने, गिरने, उठने से होता है। हजार बार गाली दी जाएगी, तुम क्रोधित होओगे। एक बार तो ऐसा क्षण पाओगे, जब गाली दी जाएगी और तुम क्रोधित न होओगे। 
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हजार बार के अनुभव से तुम्हें समझ में आ जाएगा, अपने को जलाना व्यर्थ है; गाली कोई दूसरा दे रहा है, दंड अपने को देना व्यर्थ है। एक दिन तो ऐसा आएगा कि कोई दूसरा गाली देगा और तुम्हारे भीतर क्रोध न होगा। उसी दिन तुम्हारे भीतर एक कांटा फूल बन गया; आदमी तुम दूसरे हो गए। उस दिन तुम्हें जो शांति मिलेगी, कोई जंगल नहीं दे सकता। जंगल की शांति मुर्दा है। अगर यहां गालियों के बीच तुम शांत हो गए, तो तुम्हारी शांति में एक जीवंतता होगी। जंगल की शांति मरघट जैसी है; सन्नाटा है, क्योंकि वहां कोई है ही नहीं। वह नकारात्मक है। संसार में अगर तुम शांत हो जाओ तो विधायक है। जंगल की शांति मरने जैसी है, संसार की शांति बड़ी जीवंत है।
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और मैं तुमसे कहता हूं, परमात्मा को पाना हो तो तुम भागना मत। भगोड़ों से परमात्मा का कभी कोई संबंध नहीं जुड़ता। कायरों से संबंध जुड़ भी कैसे सकता है? चुनौती स्वीकार करने वाला साहस चाहिए। माना कि साहस में गिरना भी होता है, चोट भी खानी होती है। लेकिन वही मार्ग है, वही एकमात्र मार्ग है, और कोई मार्ग नहीं है।
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तुमने कभी खयाल किया, बहुत सुविधा-संपन्न घरों के बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। हो नहीं सकते; चुनौती नहीं है। सारे बुद्धिमान बच्चे उन घरों से आते हैं, जहां बड़ा संघर्ष करना पड़ता है; जहां छोटी-छोटी बात को पाना मुश्किल है। करोड़पतियों के बच्चे अक्सर व्यर्थ होते हैं।
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हेनरी फोर्ड अपने लड़कों को सड़क पर जूता पालिश करने भिजवाता था; वह कहता था, अपने जेब का खर्च तुम खुद ही पैदा करो। दुनिया का सबसे बड़ा अरबपति ! पड़ोसियों ने भी उससे कहा कि यह ज्यादती है, यह तुम क्या करवा रहे हो?
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उसने कहा कि मैंने खुद जूते पालिश कर-कर के पैसा कमाया है। जो मेरे जमाने में धनपति थे, भीख मांग रहे हैं। मैं भिखमंगा था; मैं आज दुनिया का सबसे बड़ा करोड़पति हो गया हूं। मैं अपने बच्चों को भिखमंगा नहीं बनाना चाहता, इसलिए उन्हें जूते पर पालिश करने सड़क पर भेजता हूं।
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वह आदमी होशियार था। वह आदमी कुशल था। धनपतियों के बच्चे अक्सर मुर्दा हो जाते हैं, गोबर-गणेश हो जाते हैं। उनको खोदो तो गोबर ही गोबर पाओगे, गणेश कहीं भी न मिलेंगे; क्योंकि जीवन की चुनौती नहीं है, संघर्षण नहीं है।
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अगर बहुत सुरक्षा मिले और कोई संघर्ष न हो, तो रीढ़ टूट जाती है। रीढ़ बनती ही संघर्ष में है। जितना तुम संघर्ष लेते हो, उतनी ही रीढ़ पैदा होती है; उतने ही तुम मजबूत होते हो।
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संसार से भागने को मैं नहीं कहता, मैं संसार से जागने को कहता हूं। संन्यास भगोड़ापन नहीं है, संन्यास महान संघर्ष है जागरण का। और जहां चुनौती है, वहां से हट मत जाना। हां, जब तक चुनौती का काम ही पूरा न हो जाए, तब तक तो टिके ही रहना। और जल्दी ही काम पूरा हो सकता है। अगर भागने की वृत्ति न हो, तो जल्दी ही जागना हो सकता है; क्योंकि वही शक्ति जो भागने में लगती है, वही जागने में लग जाती है।
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मैं तुमसे उस शांति को नहीं कहता जो मरघट पर है, मैं तुमसे उस शांति को कहता हूं जो श्रम से अर्जित की जाती है; मर कर नहीं, जो महान रूप से जीवंत होकर उपलब्ध होती है--विधायक।

💥🙏💖ओशो 💖🙏💥
भजगोविंदम मुढ़मते(आदि शंक्राचार्य) प्रवचन--06

बुधवार, 10 जुलाई 2019

= १९० =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*बाव भरी इस खाल का, झूठा गर्व गुमान ।*
*दादू विनशै देखतां, तिसका क्या अभिमान ॥* 
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ओशो...
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यह आदमी की कमजोरी क्या है? इस पर ही आज सुबह मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूं। और आदमी की जो कमजोरी है वही परमात्मा के मार्ग पर रुकावट है। और आदमी की जो कमजोरी है वही उसके जीवन में प्रकाश आने में बाधा है। और आदमी की जो कमजोरी है वही दीवाल है जो द्वार को नहीं खुलने देती और जीवन दुख और पीड़ा से भर जाता है, अंधकार से भर जाता है।
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क्या है आदमी की कमजोरी? यह क्या है ह्यूमन वीकनेस?
अहंकार आदमी की कमजोरी है। दंभ, ईगो आदमी की कमजोरी है। मैं कुछ हूं, यह आदमी की कमजोरी है। 
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और जब तक कोई इस कमजोरी से घिरा है, तब तक वह किन्हीं मंदिरों की तलाश करे और किन्हीं शास्त्रों को पढ़े और कैसी ही पूजाएं करे और कैसे ही त्याग और उपवास करे, संन्यासी हो जाए और जंगलों में चला जाए, कोई फर्क न पड़ेगा, बल्कि यह कमजोरी इतनी अदभुत है कि वे सब चीजें भी इसी कमजोरी को और मजबूत करने में कारण बन जाएंगी।
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एक आदमी के पास लाखों रुपये हों, वह उनका त्याग कर दे, तो हम कहेंगे, यह परमात्मा के रास्ते पर चला गया। लेकिन इतनी आसान बात नहीं है परमात्मा के रास्ते पर जाना। रुपयों से परमात्मा को खरीदना आसान नहीं है कि कोई रुपये छोड़ दे और परमात्मा को खरीद ले।
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बल्कि यह भी हो सकता है और यही होता है कि वह आदमी रुपये छोड़ कर भी उसी कमजोरी से भरा रह जाएगा जो कमजोरी रुपयों के होते हुए थी।
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एक संन्यासी ने मुझसे कहा, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक बार कहा, दो बार कहा, तीन बार कहा। मेहमान था मैं उनके आश्रम में। फिर चलते वक्त मैंने उनसे पूछा, यह लात आपने कब मारी थी? 
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उन्होंने कहा, कोई तीस वर्ष हुए। मैंने उनसे कहा, अगर बुरा न माने तो मैं निवेदन कर दूं, लात ठीक से लग नहीं पाई, अन्यथा तीस वर्षों के बाद भी उसकी याद कैसे हो सकती थी?
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लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे तब यह अहंकार रहा होगा कि मेरे पास लाखों रुपये हैं, मैं कुछ हूं, उस समबडी होने का खयाल रहा होगा। फिर लाखों रुपये छोड़ दिए, तब से यह खयाल है कि मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं, मैं कुछ हूं। मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं! 
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वह जो अहंकार लाखों रुपये के होने से भरता था वह अहंकार अब लाखों रुपये के छोड़ने से भी भर रहा है। कमजोरी वहीं की वहीं है। बात वहीं अटकी है उसमें कोई फर्क नहीं आया।
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धन वाले का अहंकार होता है, धन छोड़ने वाले का अहंकार होता है। अच्छे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है, सादे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है। बड़े मकान बनाने वाले का अहंकार होता है, झोपड़ियों में रहने वाले का अहंकार होता है। अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं। वह न मालूम किन-किन रूपों से अपनी तृप्ति कर लेता है। न मालूम किन-किन रूपों से यह खयाल पैदा हो जाता है मैं कुछ हूं।
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एक आदमी सारे वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाए उसका अहंकार होता है कि मैं कुछ हूं। तुम, तुम जो कपड़े पहने हुए हो तुम क्या हो, ना-कुछ, मैं हूं कुछ, जिसने सब वस्त्र भी छोड़ दिए और नग्न हो गया हूं।
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इसीलिए तो संन्यासियों के अहंकार को छूना गृहस्थियों के हाथ की बात नहीं। त्याग करने वाले का अहंकार इसलिए बड़ा हो जाता है कि भोग तो छीना जा सकता है त्याग छीना भी नहीं जा सकता। 
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मेरे पास कपड़े हैं और उनका अहंकार है, तो कपड़े तो छीने भी जा सकते हैं लेकिन अगर मैं नंगा खड़ा हो गया, तो मेरी नग्नता कैसे छीनी जा सकती है। वह संपत्ति ऐसी है जिसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता। 
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अगर मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो कल नष्ट भी हो सकते हैं, खो भी सकते हैं, चोरी भी जा सकते हैं, मेरा अहंकार टूट भी सकता है, लेकिन अगर मैंने लाखों रुपये छोड़ दिए, तो मैंने छोड़ दिए हैं लाखों रुपये, इससे छूटने का अब कोई उपाय नहीं है, इससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
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यह अहंकार, यह मैं कुछ हूं, सबसे बड़ी भ्रांति है जो मनुष्य को पकड़ लेती है। कोई कारण नहीं है इस भ्रांति के पकड़ लेने का। कोई बुनियाद नहीं है। यह अहंकार का भवन बिलकुल बेबुनियाद है, इसका कोई आधार नहीं है, इसकी कोई नींव नहीं है, यह मकान बिलकुल ताश के पत्तों का है। लेकिन जैसे ताश के पत्तों का महल बनाने में एक सुख मालूम होता है, वैसे ही इस अहंकार को खड़े होने में भी एक सुख मालूम होता है।
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क्यों मनुष्य अपने अहंकार को खड़ा करना चाहता है? कौन से कारण हैं उसके अहंकार को खड़ा करने के? पहला कारण तो यह है कि कोई भी मनुष्य यह नहीं जानता कि वह कौन है? यह बात इतनी घबड़ाने वाली है, यह अज्ञान इतना पीड़ा देने वाला है, इतनी एंज़ायटी पैदा करने वाला है कि मुझे पता भी नहीं कि मैं कौन हूं?
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इस अज्ञान को ढांकने के लिए मैं कोई उपाय कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं धनपति हूं, मैं त्यागी हूं, मैं ज्ञानी हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं। जरूरी है, यह इतनी घबड़ाने वाली बात है कि मैं अपने को नहीं जानता। यह इतनी ज्यादा ह्यूमिलिएटिंग है, यह इतनी ज्यादा अपमानजनक है कि मैं अपने को नहीं जानता। 
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तो मैं किसी भांति अपना एक रूप खड़ा कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, कौन कहता है कि मैं अपने को नहीं जानता? इस भांति एक सेल्फ डिसेप्शन, एक आत्मवंचना देकर हम अपनी तृप्ति खोज लेते हैं कि मैं कुछ हूं।
लेकिन क्या इस भांति हम अपने को जान पाते हैं? क्या आप जानते हैं कि आप कौन हैं? क्या आपको पता है कि क्या है वह जो आपके भीतर जीवंत है? वह जो लीविंग कांशसनेस है, वह जो चेतना है आपके भीतर, जो जीवन है वह क्या है?
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कुछ पता है उसका? झूठी बातें न दोहरा लें अपने मन में कि मैं आत्मा हूं। किताब में पढ़ लिया होगा इससे कुछ पता नहीं होता है। यह मत कह लें अपने मन में कि मैं ईश्वर का अंश हूं। पढ़ लिया होगा कहीं इससे काई फर्क नहीं पड़ता है।
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सचाई यह है कि पता नहीं भीतर क्या है? तथ्य यह है कि नहीं मालूम कौन भीतर बैठा है? और उस व्यक्ति को जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, क्या उसके जीवन में सत्य का कोई अवतरण हो सकता है? जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं वह भी अगर ईश्वर की खोज में निकल पड़े तो पागल है।
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अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-06

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*ऐसा अचरज देखिया, बिन बादल बरषै मेह ।*
*तहँ चित चातक ह्वै रह्या, दादू अधिक स्नेह ॥* 
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साभार ~ Raj Gupt ‎

नानक के जीवन में उल्लेख है। एक रात वे पुकार रहे हैं परमात्मा को...पुकार रहे हैं परमात्मा को। आधी रात बीत गई और नानक की मां ने आकर उनको कहा कि अब बहुत हो गया, अब तुम सो भी जाओ, अब यह भजन कब तक चलेगा? 
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नानक ने कहा : मत कहो। मत रोको मुझे। सुनो ! बाहर बगीचे में आम की बाड़ी में पपीहा पुकार रहा है, पी कहां? पी कहां? नानक ने कहा : सुनो ! उससे मेरी होड़ बंधी है। जब तक वह चुप नहीं होगा, मैं भी चुप होने वाला नहीं हूं।
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उसी रात नानक के जीवन में क्रांति घटी। पपीहे से होड़ लगाओ। पपीहा नहीं थका, नानक ने कहा अपनी मां को, तो मैं क्यों थकूं? अभी पपीहे का गीत चल रहा है तो मेरा गीत क्यों रुके? मैं पपीहे से गया बीता नहीं हूं।
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और जो पपीहा बन गया--और पी कहां? पी कहां? पुकारा और पुकारा, और पुकारा, और सब पुकार पर दांव पर लगा दिया उसे पी निश्चित मिलते हैं। यही इस सूत्र की सूचना है। *झरि लागे महलिया*--जो चातक बन गया उसके शून्य महल में झर लग जाती है अमृत की। स्वाति बरसती है।
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*झरि लागे महलिया, गगन घइराय।*
नाद होता अनहद का और अमृत की वर्षा होती। जैसे बादल गरजते हैं ऐसे भीतर ओंकार का नाद गरजता है। एक ओंकार सतनाम। और जैसे वर्षा होती है और भूखी-प्यासी धरती तृप्त होती है ऐसे ही तुम्हारे भीतर अमृत बरसता है। और तुम्हारे भूखे-प्यासे प्राण, जन्मों-जन्मों की भूखी आत्मा तृप्त होती है।
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*झरि लागे महलिया, गगन घइराय।*
*खन गरजे खन बिजुली चमकै...*
कभी प्रकाश हो जाता है, कभी नाद हो जाता है।
*खन गरजे खन बिजुली चमकै, लहर उठे सोभा बरनि न जाए।*
और ऐसी मस्ती की लहर आती है कि उसकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता। नाद भी है, प्रकाश भी है। अमृत बरस रहा है।
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*...लहर उठे सोभा बरनि न जाए।*
ऐसी मस्ती, ऐसी मादकता की लहर आती है कि आदमी डूब ही जाता उसमें, तल्लीन हो जाता है। उसका वर्णन नहीं हो सकता।
*सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए ॥*
लेकिन वही नहा सकता है जिसने चातक जैसी साधना की हो। वही नहा सकता है जिसने, जस पनिहार धरे सिर गागर, ऐसा ध्यान संजोया हो। उसको ही साधु कहते हैं।
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साधु का अर्थ - जो सरल हो गया। साधु का अर्थ - जिसने अपने चित्त को, उसकी तरफ साध लिया। जो काम से विमुख हुआ, राम के सन्मुख हो गया। जिसने संसार की तरफ पीठ कर ली और परमात्मा की तरफ मुंह कर लिया चातक की तरह। पी कहां, पी कहां।
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*सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए ॥*
और तब साधु के जीवन में दो फूल खिलते हैं प्रेम के और आनंद के। आनंद होता है अपने लिए वह आंतरिक फूल है। उसके प्राण आनंद की सुगंध से भर जाते हैं। और उसी आनंद की सुगंध जब दूसरों के नासापुटों में पड़ती है तो उनको प्रेम का अनुभव होता है।
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इसको खयाल में ले लेना। साधु के यह दो लक्षण है, भीतर उसके परम आनंद। लेकिन उसके भीतर तो तुम जा न सकोगे। उसे तो वही जानेगा, या उस जैसे जो हैं, वे जानेंगे। लेकिन तुम्हें उसके पास एक बात दिखाई जरूर पड़ेगी, वह तुम्हें भी दिखाई पड़ जाएगी, वह प्रेम। उसके भीतर जो घटा है, उसकी थोड़ी-थोड़ी बूंदें तुम पर भी पड़ेंगी।
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तो जहां तुम्हें आनंद और प्रेम घटता हुआ अनुभव में आ जाए, समझना कि मंदिर करीब है। समझना कि तुम तीर्थ के करीब आ गए। और जहां न प्रेम हो और न आनंद हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ द्वेष हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ कठोरता हो, जहां प्रेम की जगह सिर्फ तुम्हारी निंदा हो, जहां प्रेम की जगह तुम्हें पापी ठहराने का प्रयास हो, जहां प्रेम की जगह तुम्हें नरक भेजने का आयोजन हो, और जहां भीतर आनंद की जगह सिर्फ एक अहंकार हो, वहां से बच जाना। वहां से भाग खड़े हो जाना। वहां से जितनी जल्दी दूर निकल जाओ उतना अच्छा है क्योंकि तुम असाधु के पास पहुंच गए हो।
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और तुम्हारे तथाकथित साधुओं में सौ में निन्यानबे असाधु हैं। क्योंकि न तो वहां आनंद है, न वहां प्रेम है।
*सुन्न महल से अमृत बरसे, प्रेम अनंद होए साध नहाए ॥*
*खुली किवरिया मिटो अंधियरिया, धन सतगुरु जिन दिया है लखाए।*
अब किवाड़ खुल गए हैं। पुकारते रहोगे तो खुल ही जाते हैं। यह आश्वासन पक्का। यह गवाही पक्की। इस गवाही के पीछे बुद्ध और महावीर, और कृष्ण और कबीर, और मोहम्मद और मंसूर--सबके हाथ हैं। बड़ी लंबी महिमाशाली पुरुषों की कतार है, जो कहते हैं यह आश्वासन पक्का है। यह निरपवाद होता है। तुम पुकारो भर। तुम पूरे प्राण से पुकारो भर।
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*खुली किवरिया मिटो अंधियरिया, धन सतगुरु जिन दिया है लखाए।*
और उसी घड़ी तुम अपने सदगुरु का धन्यवाद कर पाओगे। उसी घड़ी तुम जानोगे कि तुमने तो कुछ भी नहीं दिया था। तुमने समर्पण के नाम पर दिया क्या था? तुम्हारे पास देने को क्या था? जब तुमने गुरु के चरणों में जाकर सिर रखा था तो तुम्हारे सिर में सिवाय भुस के और था क्या? तुमने दिया क्या था? लेकिन जो तुम्हें मिल गया है उसका मूल्य नहीं चुकाया जा सकता।
🌹🌹🌹*जस पनिहारी धरे सिर गागर # 8*
🌹🙏🌹🌹🌹*ओशो*

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

= १८८ =

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*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥*
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*विलक्षण सन्त, विलक्षण वाणी - परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज*
(संकलन तथा सम्पादन - राजेन्द्र कुमार धवन)
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*भाग - ६*
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तात्पर्य है कि जिनका मन सुखभोग में तथा धनादि पदार्थों का सग्रह करने में ही लगा हुआ है, वे 'मेरे को परमात्मा का ही दर्शन करना है, परमात्मा को ही प्राप्त करना है' - ऐसा दृढ़ निश्चय भी नहीं कर सकते । उन पैसों के मोह में आकर आप झूठ, कपट, बेईमानी, छल, अभक्ष्य भक्षण, ब्लैक मार्किट, इन्कमटैक्स की चोरी, सेल्सटैक्स की चोरी आदि कितने-कितने अनर्थ करते हो । *यह मैं आप पर दोषारोपण करने के लिये नहीं कह रहा हूँ प्रत्युत आप निर्दोष हो जायें इस भाव से कहता हूँ । मैं सरलता से आपलोगों के सामने प्रार्थना करता हूँ, विनती करता हूँ । मैं गुरु बनकर उपदेश नहीं देता हूँ, प्रत्युत सलाह देता हूँ । आप मानेंगे तो बड़ी कृपा होगी ।*

एक विधिवाक्य होता है, एक निषेधवाक्य होता है । ऐसा करो, जप करो, ध्यान करो, दान करो, तीर्थ करो, व्रत करो - यह विधिवाक्य है । ऐसा मत करो - यह निषेधवाक्य है । *विधि-वाक्य नहीं मानेंगे तो हम उससे होने वाले लाभ से वंचित रह जायँगे । परन्तु निषेधवाक्य नहीं मानेंगे तो हमें दण्ड होगा । इसलिये माता, पिता, गुरु आदि जिस बातका निषेध करें, उसको नहीं करना चाहिये । इस विषय में मैंने अध्ययन किया है, एकान्त में बैठकर विचार किया है, खोज की है कि निषिद्ध कर्मों का सर्वथा त्याग कर दें तो कल्याण हो जायगा ।*

*साधन करते हुए भी अपनी अवस्था ऊँची नहीं दीखती - इसके मुख्य कारणों में एक मुख्य कारण यह भी है कि निषिद्ध आचरणों का त्याग नहीं करते ।* विहित और निषिद्ध दोनों आचरण करते हैं । ये दोनों आचरण किसके द्वारा नहीं होते? अर्थात् सब के द्वारा होते हैं ।

कसाई सें कसाई, डाकू सें डाकू भी विहित आचरण न करे - ऐसी बात नहीं है । कसाई के हृदय में भी दया होती है । वह अपने बाल बच्चों की हत्या नहीं करता, प्रत्युत उनका पालन करता है । तात्पर्य है कि दुर्गुण-दुराचारों का तो सर्वथा त्याग हो सकता है, पर सद्‌गुण-सदाचारों का सर्वथा त्याग हो ही नहीं सकता । *सद्‌गुण-सदाचारों से उतना लाभ नहीं होगा, जितना दुर्गुण-दुराचारों के त्यागसे होगा । पापों के, अपराध के, अन्याय के त्याग में बड़ा भारी बल है ।*

तन कर मन कर वचन कर, देत न काहू दुक्स ।
तुलसी पातक हरत है, देखत उसको मुक्ल ॥

*जो तन से, मन से, वचन से, धन से, विद्या से, बुद्धि से, अधिकार से, योग्यता से दूसरे को दुःख नहीं देता, वह इतना पवित्र हो जाता है कि उसका दर्शन करने से पाप दूर हो जाते हैं ।* यह बात जल्दी समझ में नहीं आती । बहुत से भाई बहनों ने समझ रखा है कि भजन-ध्यान करने से बड़ा लाभ होता है, और यह सच्ची बात है, मैं झूठ नहीं कहता हूँ । परन्तु पापों से, अन्याय से, दूसरों के मन के विरुद्ध आचरण करने से जो पाप लगता है, उससे छुटकारा नहीं होता । इसलिये ऐसा करने वाले ऊँची स्थिति का प्रत्यक्ष में अनुभव न कर सकते हैं, न करेंगे ।

= १८७ =


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*तुम को हमसे बहुत हैं, हमको तुमसे नांहि ।*
*दादू को जनि परिहरै, तूँ रहु नैंनहुँ मांहि ॥* 
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साभार ~ Soni Manoj

*÷ प्रार्थना ÷*
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परमात्मा की भक्ति में परमात्मा केवल उसी को वरण करेगा, जो बेशर्त हो । परमात्मा के मंदिर में तीनों तरह के लोग पूजा करने जा रहे हैं । एक तो वे लोग हैं, जो परमात्मा के मंदिर में कर्त्तव्यवश पूजा करने जा रहे हैं । क्योंकि सदा जैसा होता आ रहा है ......
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मैंने सुना है कि एक सुबह - सुबह एक आदमी अभी दुकान के दरवाजे भी नहीं खुले थे, और अपने लड़के को बुला रहा था कि उठ गये या नहीं ?
तो लड़के ने कहा 'उठ गया हूं ।'
तो कहा, 'आटे में रद्दी आटा मिला दिया या नहीं ?
तो उसने कहा, 'मिला दिया पिताजी ।'
'और मिर्चों में लाल कंकड़ डाल दिये या नहीं ?'
उसने कहा, 'डाल दिये पिताजी ।'
'और गुड़ में गोबर मिलाया या नहीं ?'
उसने कहा, 'डाल दिया पिताजी । सब कर दिया, सब हो 
गया है जी ।' तो उसने कहा, 'चल फिर मंदिर हो आयें ।'
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यह मंदिर है ? यह जिंदगी है ? वहां गोबर गुड़ में मिलाया जा रहा है और जब सब काम निपट गया तो मंदिर हो आयें । वह एक कर्तव्य है । एक रविवारीय धर्म है, कि रविवार को सुबह चर्च हो आयें । वह एक सामाजिक उपचार है; एक शिष्टाचार है । एक नियम, जिसको पूरा करना उचित है । और जिसके लाभ हैं; जिसकी सामाजिक प्रतिष्ठा है, उपयोगिता है । एक तो वह भी मंदिर जा रहा है, लेकिन उसकी प्रार्थना कभी परमात्मा तक नहीं पहुंच पायेगी क्योंकि उसने कभी प्रार्थना की ही नहीं है ।
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एक वह भी वहां जा रहा है, जो संसार से परेशान हो गया है, जो दुखी हो गया है; जो जीवन का अनुभव नहीं ले पाया इतना समर्थ नहीं पाया अपने को, साहस नहीं जुटा पाया । जीवन से वंचित हो गया है, या वंचित रह गया है । वह भी आ रहा है थका-हारा, उस थके-हारे की प्रार्थना भी नहीं सुनी जा सकेगी । क्योंकि जो संसार को भी अनुभव करने में समर्थ नहीं है, वह सत्य को अनुभव करने में कैसे समर्थ हो पायेगा ? जो सपने में भी पूरा नहीं उतर सकता, वह सत्य में कैसे पूरा उतरेगा ? जो व्यर्थ को नहीं समझ पाता, वह सार्थक को नहीं समझ पायेगा । वह तो और बड़ी छलांग है ।
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ऐसा आदमी निरंतर ईश्वर से कहता है कि तू तो मुझे स्वीकार है, तेरा संसार स्वीकार नहीं । यह स्वीकृति अधूरी है, क्योंकि अगर ईश्वर मुझे स्वीकार है तो सब मुझे स्वीकार है; क्योंकि सभी उसका है ।
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स्वीकृति पूरी हो सकती है; तब उसका संसार भी स्वीकृत है । वह मुझे नर्क में भी डाल दे तो वह मुझे स्वीकृत है । नर्क में भी डाले जाने पर भक्त के हृदय से धन्यवाद ही निकलेगा कि धन्यवाद ! तूने मुझे नर्क दिया । स्वर्ग की आकांक्षा से ही धन्यवाद निकलता हो, तब हमारा चुनाव है । तब हम सुख में तो कहेंगे धन्यवाद और दुख में शिकायत करेंगे ।
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जिस हृदय में शिकायत उठती है, उसकी प्रार्थना नहीं सुनी जा सकती । उसकी प्रार्थना खुशामद है । उसकी प्रार्थना के पीछे शिकायत छिपी है । ना, वह भक्त नहीं है । उसकी श्रध्दा पूरी नहीं है । वैसे ही आदमी मंदिर में प्रार्थना कर रहा है । उसे वापिस जाना ही होगा । उसे संसार में भटकना होगा । अभी यात्रा अधूरी है । अभी उसे और-और जन्म लेने होंगे । उसे जानना ही होगा की अंगूर खट्टे हैं - अपने अनुभव से - या मीठे हैं । सिर्फ सांत्वना के लिए इस तरह की बातें काम नहीं करेंगी । उसे संसार के अनुभव से गुजरकर परिपक्व होना पडे़गा । जैसे पके फल वृक्षों से गिरते हैं, ऐसा ही पका अनुभव प्रार्थना बनता है; उसके पहले नहीं ।
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और तीसरा वह प्रेमी भी मंदिर आ रहा है, जिसका जीवन भी वहीं है, जिसकी मृत्यु भी वहीं है । मंदिर ही उसका घर है । वह बाहर भी जाता है, तो मंदिर से बाहर नहीं जा पाता । मंदिर उसके साथ ही चल रहा है । मंदिर उसके जीवन की धारा है; उसकी - श्वास का स्वर है । और कुछ भी हो, जीवन हो या मृत्यु हो, उसने मंदिर को चुना है । वह चुनाव पूरा है । वह छोडे़गा नहीं । वह चुनाव बेशर्त है ।
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मैंने सुना है, एक सूफी फकीर जुन्नैद को किसी ने कहा कि तू प्रार्थना किए ही चला जाता है, पहले यह पक्का तो कर ले कि परमात्मा है या नहीं ? क्योंकि बहुत लोग संदिग्ध हैं । जुन्नैद ने कहा, 'परमात्मा से क्या मतलब ! मुझे मतलब प्रार्थना से है ।' परमात्मा न भी हो यह पक्का भी हो जाये तो जुन्नैद की प्रार्थना चलेगी । 'मुझे मतलब प्रार्थना से है ।' और जुन्नैद ने कहा, 'मैं तुझसे कहता हूं, अगर मेरी प्रार्थना सही है तो परमात्मा को होना पडे़गा । मैं इसलिए प्रार्थना नहीं कर रहा हूं, कि परमात्मा है । मेरी प्रार्थना जिस दिन सच होगी, उस दिन परमात्मा होगा ।
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परमात्मा के कारण प्रार्थना नहीं चलती सच्चे भक्त की, प्रार्थना के कारण परमात्मा पैदा होता है । प्रेम, प्रेमपात्र को निर्मित करता है । प्रेम सृजनात्मक है । इस जगत में प्रेम से बड़ी कोई सृजनात्मक शक्ति नहीं है । इसलिए प्रेम मृत्यु को तो स्वीकार कर ही नहीं सकता; वह घटती ही नहीं । अगर तुम प्रेम करते हो किसी को, तो वह मरेगा नहीं; मर नहीं सकता । प्रेमी कभी नहीं मरता । प्रेमी मृत्यु को जानता ही नहीं । प्रेम अमृत है । और सूफी कहते हैं, प्रेम द्वार है । √
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• ओशो •
बिन बाती बिन तेल
प्रवचन 6 से संकलन ।
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सोमवार, 8 जुलाई 2019

= १८६ =

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*दादू होना था सो ह्वै रह्या, और न होवै आइ ।*
*लेना था सो ले रह्या, और न लिया जाइ ॥*
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साभार ~ @Punjabhai Bharadiya

मैंने सुना है, एक सम्राट ने रात सपना देखा कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा। लौटकर उसने देखा सपने में, एक काली छाया—भयंकर, वीभत्स, घबड़ाने वाली ! पूछा: तू कौन है? उस छाया ने कहा: मैं मृत्यु हूं, और तुम्हें सूचना देने आई हूं। कल सूरज के डूबते तैयार रहना, लेने आती हूं।
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आधी रात ही नींद खुल गई; ऐसे सपने में किसकी नींद न खुल जाएगी? घबड़ाकर सम्राट उठ आया। आधी रात थी, सपना शायद सपना ही हो; मगर कौन जाने, कभी—कभी सपने भी सच हो जाते हैं।
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इस दुनिया में बड़ा रहस्य है। यहां जो सच जैसा मालूम पड़ता है, अक्सर सपना सिद्ध होता है। और कभी—कभी ऐसा भी हो जाता है कि जो सपना जैसा मालूम होता है, सत्य सिद्ध हो जाता है। सपने और सत्य में यहां बहुत फर्क नहीं है, शायद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
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सम्राट डरा। रात ही, आधी रात ही ज्योतिषी बुलवा लिए, कहा कि सपने की खोजबीन करो। उस समय के जो फ्रायड होंगे, जुंग, एडलर—मनोवैज्ञानिक—सब बुला लिए। राजधानी में थे बड़े—बड़े मनोवैज्ञानिक और ज्योतिषी और विचारक, वे सब आ गए अपने—अपने शास्त्र लेकर; और उनमें बड़ा विवाद छिड़ गया कि इसका अर्थ क्या है। कोई कुछ अर्थ करे, कोई कुछ अर्थ करे; अपने—अपने अर्थ।
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सम्राट तो घबड़ाने लगा। वैसे ही बिगूचन में पड़ा था, इनके अर्थ सुनकर और इनका विवाद सुनकर और उलझ गया। शास्त्रों से अक्सर लोग सुलझते नहीं, उलझ जाते हैं। पंडितों की बातों को सुनकर लोगों का समाधान नहीं होता, और समाधान पास हो तो वह भी चला जाता है। तर्कजाल से समाधान हो भी नहीं सकता।
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उनमें बड़ा विवाद छिड़ गया। उनमें बड़ा अहंकार का उपद्रव मच गया। उनको प्रयोजन ही नहीं सम्राट से। सम्राट ने कई बार कहा कि भाई मेरे, नतीजे की कुछ बात करो, क्योंकि सूरज ऊगने लगा। और सूरज ऊगने लगा, तो सूरज के डूबने में देर कितनी लगेगी? मुझे कुछ कहो कि मैं करूं क्या? मगर वे तो विवाद में तल्लीन थे। वे तो अपने शास्त्रों से उद्धरण दे रहे थे। वे तो अपनी बात सिद्ध करने में लगे थे।
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आखिर, सम्राट का बूढ़ा नौकर था, उसने सम्राट के पास आकर कहा: यह विवाद कभी समाप्त नहीं होगा और सांझ जल्दी आ जाएगी। मैं जानता हूं कि पंडितों के विवाद कभी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते। सदियां बीत गईं, कोई निष्कर्ष नहीं है ! जैन—बौद्ध अभी भी विवाद करते हैं; हिंदू—जैन अभी भी विवाद करते हैं; ईसाई—हिंदू अभी भी विवाद करते हैं—विवाद जारी है। आस्तिक—नास्तिक विवाद कर रहे हैं—विवाद जारी है। हजारों साल बीत गए, एक भी तो नतीजा नहीं है। 
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तो क्या आप सोचते हैं सांझ होते होते नतीजा ये निकाल पाएंगे? इनको करने दो विवाद। मेरी मानो, यह महल—इस महल में अब क्षण—भर भी रुकना ठीक नहीं है, यहां से भाग चलें। भाग जाओ। तुम्हारे पास तेज घोड़ा है, ले लो; और जितनी दूर निकल सको इस महल से निकल जाओ। इस महल में जो सूचना मौत ने दी है, तो इस महल में अब रुकना ठीक नहीं। इनको विवाद करने दो; बचोगे तो बाद में इनका निष्कर्ष समझ लेना।
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बात सम्राट को भी समझ में आई, कुछ करना जरूरी है। और क्या किया जा सकता है? लिया उसने अपना तेज घोड़ा और भागा। पंडित विवाद करते रहे, सम्राट भागा। सांझ होतेऱ्होते काफी दूर निकल आया, सैकड़ों मील दूर निकल आया; ऐसा तेज उसके पास घोड़ा था। खुश था बहुत। 
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एक आमों के बगीचे में सांझ हुई, तो रुका। घोड़े को बांधा। न केवल महल छोड़ आया था, साम्राज्य भी अपना पीछे छोड़ आया था। यह दूसरे राज्य में प्रवेश कर गया था। घोड़े को बांधा, घोड़े को थपथपाया, धन्यवाद दिया, कहा कि तू मुझे ले आया इतने दूर ! दिन में तूने एक बार रुककर भी श्वास न ली। मैं तेरा अनुगृहीत हूं।
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जब वह यह कह ही रहा था और सूरज ढल रहा था, अचानक चौंका, वही हाथ जो रात सपने में देखा था, कंधे पर है। लौट कर देखा—मौत खड़ी है, खिलखिलाकर हंस रही है। सम्राट ने पूछा कि बात क्या है? मौत ने कहा कि धन्यवाद मुझे देने दें आपके घोड़े को, आप न दें। क्योंकि मैं बेचैन थी, इसलिए रात सपने में आई थी। 
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मरना तुम्हें इस अमराई में था, और इतना फासला और कुल चौबीस घंटे बचे ! तुम पहुंच पाओगे कि नहीं, चिंता मुझे थी। मौत तुम्हारी यहां घटनी थी। घोड़ा ले आया, ठीक वक्त पर ले आया, गजब का घोड़ा है ! तुम भागोगे कहां? कौन जाने तुम जहां भागकर जा रहे हो, वहीं मौत घटनी हो, उसी अमराई में ! मौत तो घटनी है। भागकर जाने का कोई उपाय नहीं है। मौत तुम्हें चारों घड़ी खोज रही है, चारों आयाम खोज रही है।

ओशो, कहै वाजिद पुकार(प्रव.-7)