श्री रज्जब वाणी(४) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
श्री रज्जब वाणी(४) लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(९०/९४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू होना था सो ह्वै रह्या, जे कुछ किया पीव ।*
*पल बधै न छिन घटै, ऐसी जानी जीव ॥*
============================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
षट् दर्शन अरु खलक१ सब, दीरघ२ स्वामी दास ।
जन रज्जब विश्वास बिन, जत३ सत माँहिं निराश ॥९०॥
जोगी, जंगमादि छ: प्रकार के भेषधारी, गुण कलादि में बड़े२, स्वामी, दास आदि सब संसार१ के प्राणी विश्वास बिना शील३ और सत्य में निराश ही रहते हैं ।
.
वैराग्यों की बरात ऊतरी, सेवक सतियों१ शीश ।
जैसे तरु फल पंखी पावहिं, विधि बानी२ जगदीश ॥९१॥
बरात आकर जिस स्थान में उतरती है, उसका पूरा ध्यान रखा जाता है, वैसे ही विरक्त संत सदगृहस्थ१ सेवकों के शिर पर होते हैं । जैसे वृक्ष से पक्षीयों को फल मिलता है, वैसे ही विरक्तों को सदगृहस्थों से भोजन मिलता है । जगदीश्वर ने विरक्तों के निर्वाह की विधि ऐसी ही बनाई२ है ।
.
बरात उतरी ठौर जिहिं, बरा१ तहां सौं लेह ।
बिन आज्ञा देसी न कोउ, दोष किसी मत देह ॥९२॥
जिस स्थान पर बरात उतरती है, वहां ही से भोजन१ लेती है वैसे ही जीव जिन प्रभु के आश्रय है उन प्रभु से ही उनको भोजनादि प्राप्त होते हैं, प्रभु की आज्ञा बिना कोई भी नहीं देगा, देने न देने का दोष किसी को भी नहीं देना चाहिये ।
.
हाथ सभी हरि हाथ में, कृपण कृपाल हु एक ।
दोष देय कहु कौन को, पाया परम विवेक ॥९३॥
चाहे कृपण हो वा कृपालु हो सभी के हाथ एक हरि के हाथ में हैं, ऐसा परम विवेक प्राप्त हो गया तब देने न देने का दोष किसको दिया जाय ।
.
जा दिन ज्यों राखे प्रभू, ता दिन त्यों रहिये ।
रज्जब दुख सुख आपणाँ, काहु नहिं कहिये ॥९४॥
प्रभु जिस दिन जैसे रक्खें उस दिन वैसा ही रहना चाहिये । अपना सुख दुख किसी को भी नहीं कहना चाहिये, प्रभु तो अन्तर्यामी होने से जानते ही हैं ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित विश्वास संतोष का अंग ११२ समाप्तः ॥सा. ३४९५॥
(क्रमशः)

रविवार, 19 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(८५/८९)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*समता के घर सहज में, दादू दुविध्या नांहि ।*
*सांई समर्थ सब किया, समझि देख मन मांहि ॥*
============================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
वस्तु न मिले विश्वास बिन, बहु विधि करो उपाय ।
रज्जब रती१ न पाइये, भावै२ दह३ दिशि जाय ॥८५॥
बहुत प्रकार के उपाय करने पर भी विश्वास के बिना ब्रह्म-वस्तु नहीं मिलती, चाहे२ दशों दिशाओं में जाय, तो भी विश्वास के बिना ब्रह्म का किंचित१ भी ज्ञान नहीं होता ।
.
जे हिरदै विश्वास ह्वै, तो हरि हिरदा माँहिं ।
जन रज्जब विश्वास बिन, बाहर भीतर नाँहिं ॥८६॥
यदि हृदय में हरि का विश्वास है तो हरि हृदय में ही स्थित है और विश्वास नहीं है तो बाहर-भीतर दोनों स्थानों में ही नहीं भासते ।
.
पेट भरै बहु पाप करि, पापी प्राणि अनेक ।
अशन१ वसन२ आरंभ३ बिन, आतम लहै सु एक ॥८७॥
अनेक पापी प्राणी बहुत से पाप करके पेट भरते हैं, कोई एक विश्वास युक्त जीवात्मा ही बिना किसी उद्योग३ के भोजन१-वस्त्र२ प्राप्त करता है ।
.
अविश्वास आरम्भ करि, मग१ मग लेहि अहार ।
अशन वशन विश्वास बिच, निष्कामी व्यवहार ॥८८॥
बिना विश्वास के कार्यारम्भ करके विविध उपाय रूप मार्ग१ में जाकर भी भोजन ही प्राप्त करते हैं और निष्कामी के भोजन-वस्त्रादि व्यवहार विश्वास में वृति रहने से ही हो जाता है ।
.
आश निराशी अशन१ का, सुन हु विवेक बोल२ ।
पड़ै पंचमुख३ पिंजरै, पन्नग४ पिटारे खोल ॥८९॥
सिंह३ को पिंजरे में ही भोजन१ डाला जाता है, सर्प४ को पिटारा खोल के दुध पिलाते हैं, वैसे ही विवेकियों के वचन२ सुनो, उनसे तुम भी भोजन की आशा से रहित यथा लाभ में सन्तुष्ट हो जाओगे ।
(क्रमशः)

शनिवार, 18 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(८१/८४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*जब अंतर उरझ्या एक सौं, तब थाके सकल उपाइ ।*
*दादू निश्चल थिर भया, तब चलि कहीं न जाइ ॥*
============================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
जन रज्जब जीव सब तज्या, जब मनसा धरी धोय ।
भूति भार भासै नहीं, करता करै सु होय ॥८१॥
जब बुद्धि के विकार धोकर उसे ब्रह्म के स्वरूप में स्थिर कर दिया, तब जीव ने सर्व त्याग कर दिया, ऐसा ही समझना चाहिये । सर्व त्याग के पश्चात उसके हृदय पर माया का बोझा नहीं दिखता और जीवन निर्वाह जैसे ईश्वर करता है वैसा ही होता है ।
.
रज्जब आशा मैल मन, निर्मल सदा निराश ।
आगे खुशी खुदाय की, यहु वेत्ता१ विश्वास ॥८२॥
आशा से मन मलिन रहता है, आशा रहित का मन सदा निर्मल रहता है, मन को निर्मल बनाने के पश्चात ईश्वर की जैसे इच्छा होती है उसी ढंग से वह अपना साक्षात्कार करता है । यही ज्ञानियों१ का विश्वास है ।
.
जे कोई धुरि उठाईले, धरती धोखा१ नाँहिं ।
जानै कित२ ले जायगा, मेरी मुझ ही माँहि ॥८३॥
यदि कोई धुलि उठाले तो पृथ्वी को उससे कोई भ्रम१ नहीं होता, वह जानती है कि इसे यह कहाँ२ ले जायगा ? जहाँ पटकेगा वहाँ मेरी मेरे में ही मिलेगी ।
.
रज्जब रिधि१ रज एक है, वसुधा२ में विश्वास ।
विभूति३ भूत को ले चलै, धर्या४ धरे५ के पास ॥८४॥
माया१ रज और विश्वास एक समान ही हैं, जैसे माया प्राणी को मायिक संसार में ले जाती है और रज के साथ उड़े हुये भूसा के कण को रज पृथ्वी२ पर ही ले जाती है, वैसे ही मायिक३ विश्वास प्राणी को माया४ के पास ले जाता है अर्थात सगुण५ के पास ले जाता है निर्गुण ब्रह्म का विश्वास निर्गुण ब्रह्म में मिलता है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(७७/८०)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।*
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥*
============================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
संतोष सदन१ तब पाइये, जब तृष्णा तन नाश ।
ब्रह्माण्ड पिंड सेती२ जुदा, जन रज्जब विश्वास ॥७७॥
जब सुक्ष्म शरीर में स्थित तृष्णा नष्ट हो जाती है तब संतोष रूप घर१ प्राप्त होता है । ईश्वर विश्वास प्राणी को ब्रह्माण्ड और शरीर से२ अलग कर देता है ।
.
संतोष सबूरी१ अगम घर, गुरु पीर२ हुं अस्थान ।
विश्वास तवक्कुल३ में रहे, निश्चै दुरुस्त४ ईमान५ ॥७८॥
संतोष व संयम१ अगम ब्रह्म रूप घर में पहुँचाने वाले हैं, गुरु और सिद्ध२ संतों में संतोषादि का निवास है वा गुरु और सिद्ध संत संतोषादि में रहते हैं । विश्वास और ईश्वर भरोसे३ में ही धर्म५ का ठीक४ निश्चय रहता है ।
.
बेदाना बंदे१ मिले, बीज रहित बिन चाहि२ ।
रज्जब फिर ऊगे नहीं, गये सु जन्म निभाहि ॥७९॥
बेदाना बीज रहित होने से फिर नहीं उगता, वैसे ही संत१ तृष्णा२ रहित होने से पुन: नहीं जन्मते । भूतकाल में संत इस प्रकार ही अपने जन्म के समय से निर्वाह करके ब्रह्म को प्राप्त हुये हैं ।
.
रज्जब ध्याये१ ध्यान हरि, भूत२ भूख३ भई भंग ।
भूरि४ भाग भै५ भै६ सुखी, उठै सु उन्नति अंग७ ॥८०॥
ध्यान द्वारा हरि की उपासना१ करने से प्राणियों की तृष्णा२ रूप भूख३ नष्ट होती रही है, हरि ध्यान से प्राणी विशाल४ भाग्य वाला होता५ है और सुखी होता६ है । उसके शरीर में उन्नति के लक्षण७ प्रकट होते हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(७३/७६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*पंच संतोषे एक सौं, मन मतिवाला मांहि ।*
*दादू भागी भूख सब, दूजा भावै नांहि ॥*
==========================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
रज्जब रहु विश्वास में, मन वच कर्म त्रय शुद्ध ।
ता ऊपर तोहि राम दे, सो माता के दुद्ध ॥७३॥
मन, वचन, और कर्म तीनों को शुद्ध रखकर हरि विश्वास पर अडिग रह, इस स्थित में जो भी रामजी तुझे देंगे वह तेरे लिये माता का दूध के समान हितकर होगा ।
.
त्रिभुवन तन तृष्णा परै, शून्य संतोष सुथान ।
रज्जब पहुँचे मीच मग, कोउ विश्वासी प्रान ॥७४॥
मायिक त्रिभुवन और शरीर से परे शून्य रूप ब्रह्म है, वैसे ही तृष्णा के परे संतोष रूप स्थान है । जो विश्वासी प्राणी संतोष रूप स्थान में रहता है, वही जीवित मृतक(जीवन्मुक्त) रूप अवस्था के मार्ग से ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
.
तृष्णा तिरै तरंगिनी, स्वारथ स्वाद समंद१ ।
सो पहुंचे संतोषपुर, जन रज्जब निर्द्वन्द्व ॥७५॥
जो तृष्णा रूपी नदी को और स्वार्थ पूर्ण इन्द्रिय स्वाद रूप समुद्र१ को तैरता है, वही संतोष रूप पुर में पहुंच कर निर्द्वन्द्व होता है ।
.
शक्ति१ समुद्रहु के परै, शून्य२ संतोष सु थान ।
मन वच कर्म तृष्णा रहित, सो पहुंचे कोई प्रान ॥७६॥
माया१ से परे ब्रह्म२ है और तृष्णा रूप समुद्र से परे संतोष रूप स्थान है । जो माया से रहित होता है, वह कोई विरला प्राणी ही ब्रह्म के पास पहुंचता है, वैसे ही जो तृष्णा से रहित होता है, वही संतोष रूप स्थान को प्राप्त होता है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(६९/७२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू अनवांछित टूका खात हैं, मर्महि लागा मन ।*
*नाम निरंजन लेत हैं, यों निर्मल साधु जन ॥*
==========================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
चीरी१ चिन्तन घट बंधी, लघु दीरघ भया लेख ।
तो रज्जब कहु दोष क्या, करणहार दिशि देख ॥६९॥
कर्म रूप पत्र१ शरीर के साथ बंधा है, उसका सुख-दुख भोग - चिन्तन रूप लेख तो ज्ञान-अज्ञान से छोटा-बड़ा हो जाता है अर्थात ज्ञान से दुख कम और सुख अधिक हो जाता है, वैसे ही अज्ञान से सुख छोटा दुख बड़ा हो जाता है किन्तु कर्म रूप पत्र तो बना ही रहता है । तब उसके विषय में क्या कहा जाय ? उसके बनाने वाले ईश्वर की ओर देखना चाहिये ।
.
रज्जब जब लग यहु मता, करै कहै मन चाहि ।
तब लग नहिं विश्वास गति, तीनों विधि यहु पाहि ॥७०॥
माया के लिये नाना कुकर्म करता है, मिथ्या बोलता है और मन में आशा करता है । जब तक प्राणी का यह सिद्धान्त है, तब तक विश्वास की चेष्टा नहीं है । उक्त तीनों ही तृष्णा के प्रकार हैं ।
.
जन रज्जब करिबे रह्या, कहिबे थकित निराश ।
तब तृष्णा तन मन गई, पूरा पुष्ट विश्वास ॥७१॥
जब माया के लिये अनर्थ करना रुक जाता है, मिथ्या बोलना बंद हो जाता है और मन मे से आशा भी हट जाती है, तब समझना चाहिये कि तन-मन से तृष्णा निकल गई है और हरि में विश्वास पूर्ण रूप से पुष्ट हो गया है ।
.
मन अबंछ मुहडे अजच१, पुनि काया कृत नाश ।
यूं पर कोटि कौड़ी होय, वह विश्वासी दास ॥७२॥
जिसके मन में माया की इच्छा नहीं है, मुख से माँगता-भी-नहीं१ है और शरीर से माया प्राप्ति के लिये कर्म भी नहीं करता है, इस प्रकार जिसकी दृष्टि में दूसरे के कोटि रुपये भी कौड़ी के समान हैं, वही विश्वासी भक्त है ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(६५/६८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*चंद सूर पावक पवन, पाणी का मत सार ।*
*धरती अंबर रात दिन, तरुवर फलैं अपार ॥*
========================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
लिखी१ लक्ष्मी पाइये, अरपी२ आयु सु होय ।
इज्जत गृह वैराग में, घटे बधे नहिं दोय ॥६५॥
प्रारब्ध१ अनुसार धन मिलता है और जो कर्मानुसार भगवान ने दी२ है वही आयु होती है । चाहे गृहस्थ हो वा विरक्त हो धन और आयु ये दोनों धटते बढते नहीं ।
.
रज्जब नर तरु शीश पर, माया मधु१ विधि होय ।
आवत जात अचिन्त में, दोष न दीजे कोय ॥६६॥
जैसे वृक्ष के शिर पर पुष्प में शहद१ आता है और मक्खी द्वारा चला जाता है, वृक्ष को उसकी कोई चिन्ता नहीं होती, वैसे ही यदि माया के चिन्तन से रहित नर के पास माया आवे और चली जावे तो उसे कोई प्रकार का दोष नहीं देना चाहिये ।
.
आवे अजाची बरतणी१ लेय, खाय सु पहिरै और हीं देय ।
यहु रज्जब संतोष स्वरूप, चल हि मुनीश्वर चाल अनूप ॥६७॥
मुनीश्वरों के पास माया बिना माँगी आती है तब वे उसे बर्तने१ के लिये ग्रहण करते हैं, आप खाते पहनते हैं और अन्यों को भी खिलाते - पहनाते हैं, यही संतोष का स्वरूप है, इस अनुपम चाल से ही मुनीश्वर चलते हैं ।
.
रज्जब माया छाया में सदा, लघु दीरघ व्यवहार ।
अचिग१ आश अस्थूल विधि, यहु साधू मत सार ॥६८॥
छाया में ही सदा छोटी बड़ी होने का व्यवहार होता है, छाया वाला स्थूल तो अडिग१ रहता है । वैसे ही माया में कम अधिक होने का व्यवहार होता है, संत आशा द्वारा डिगते नहीं अडिग ही रहते हैं यही संतों का सार सिद्धान्त है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 13 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(६१/६४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सहजैं सहजैं होइगा, जे कुछ रचिया राम ।*
*काहे को कलपै मरै, दुःखी होत बेकाम ॥*
========================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
जाने जीव बैठे सिदक१ घरि, साहिब के दरबार ।
तो रज्जब बाकी कहा, पीछे पले हजार ॥६१॥
यदि जीव सच्चे१ संतोष रूप घर में रहते हुये प्रभु के दरबार में उपस्थित हो तो बाकी क्या रह जाता है ? फिर तो उसके पीछे भी हजारों की पालना होती है ।
.
विश्वासी बैठ्या रहै, हरि भेजे सो खाय ।
रज्जब अजगर की दशा, चलि कतहूं नहिं जाय ॥६२॥
विश्वासी भक्त भजन में ही बैठा रहता है, जो भी हरि भेज देते हैं, उसे ही खाकर निर्वाह करता है, जैसे अजगर कहीं नहीं जाता है, वैसे ही वह भी भजन को छोङकर कहीं भी नहीं जाता ।
.
भावै कुंभहिं कूप भरि, भावै भरो समुद्र ।
जन रज्जब परवान परि, अधिकी चढै न बुंद ॥६३॥
घङे को चाहे कूप पर भरो और चाहे समुद्र में भरो, उसके माप से अधिक एक बिन्दु भी उसमें नहीं आयेगा । वैसे ही कहीं भी जाओ अपने प्रारब्ध के अनुसार ही मिलेगा, अधिक कुछ भी नहीं मिलेगा ।
.
अन विश्वासी आतमा, करै अनेक उपाय ।
रज्जब आवै हाथ सो, जो कुछ राम रजाय ॥६४॥
ईश्वर विश्वास रहित प्राणी अनेक उपाय करता है किन्तु जो राम की इच्छा होती है वही उसे मिलता है ।
(क्रमशः)

रविवार, 12 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(५७/६०)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*पूरक पूरा पास है, नाहीं दूर, गँवार ।*
*सब जानत हैं, बावरे ! देबे को हुसियार ॥*
========================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
माता पिता माया ब्रह्म, चौरासी प्रतिपाल ।
परि संतोषी सुत ऊपरे, दोन्यों सदा दयाल ॥५७॥
माया-ब्रह्म रूप मात-पिता चौरासी लाख योनियों के सभी जीवों को पालना करते हैं किन्तु संतोषी पुत्र के ऊपर दोनों सदा ही दयालु रहते हैं ।
.
आशा उलटि तृष्णा तजै, संतोषी हरि साथ ।
रज्जब सो विश्वास में, सर्वस्व आया हाथ ॥५८॥
सांसारिक आशा को बदलकर ब्रह्म साक्षात्कार की ही रक्खे, विषयों की तृष्णा को त्यागे ऐसे संतोषी के साथ हरि रहते हैं, जो हरि विश्वास में दृढ रहता है, उसके हाथ में सभी कुछ आ जाता है ।
.
जे बंदे१ बिच सिदक२ ह्वै, तो भेजें बिसियार३ ।
जन रज्जब राजिक४ मिलै, रिजक५ सबै तिहिं लार ॥५९॥
यदि मनुष्य१ में सच्चा२ संतोष हो तो भगवान उसके लिये योगक्षेम का साधन अत्यधिक३ भेज देते हैं और स्वयं प्रभु४ मिलते हैं तब जीविका५ तो सभी उसके साथ आ जाती है ।
.
सहज१ सबूरी२ साच लै, सुमिरै निर्मल अंग३ ।
सो रज्जब रामहिं मिले, सब संपति तिहिं संग ॥६०॥
जिसकी वृति में स्वाभाविक१ संतोष२ और सत्य है और जो निर्मल ब्रह्म स्वरूप३ का स्मरण करता है, वह राम को प्राप्त करता है और राम का साक्षात्कार के साथ ही सभी संपति भी मिल जाती है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(५३/५६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू स्वर्ग भुवन पाताल मधि, आदि अंत सब सृष्ट ।*
*सिरज सबन को देत है, सोई हमारा इष्ट ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
माँग्या अण माँग्या मिलै, जो जीव को जगपति कीन ।
बंदे बे परवाह यूं, भूल न भाखै दीन ॥५३॥
जगतपति प्रभु ने जीव के लिये जो रच दिया है, वह तो माँगे वा बिना माँगे भी मिलेगा ही, ऐसा समझ करके ही संतजन बेपरवाह रहते हैं, भूल से भी दीन वचन नहीं बोलते ।
चाकर अण चाकर लहैं, बरा१ विश्वंभर देय ।
पूरण पूरै२ सकल को, सो पलटा नाहिं लेय ॥५४॥
सेवा करने वाले और न करने वाले दोनों को ही विश्वंभर भगवान् जीविका१ देते हैं, वे पूर्ण ब्रह्म सभी का पोषण२ करते हैं, और बदले में कुछ भी नहीं लेते ।
.
साधु सबूरी१ में रहै, निष्कामी रु निराश ।
तो रज्जब ता दास घर, सांई होय सु दास ॥५५॥
जो साधु निष्कामी, आशा रहित और संतोष१ निमग्न रहता है तब उस दास के घर पर प्रभु भी दास होकर रहते हैं अर्थात उसका योगक्षेम करते हैं ।
.
निश्चल में निश्चल रहै, निज जन नाम निवास ।
जो रज्जब माया ब्रह्म, होंहि दास घर दास ॥५६॥
प्रभु के निजी भक्तों का मन जब नाम चिन्तन में स्थिर रह कर निश्चल होता है तब निश्चल ब्रह्म में स्थिर रहता है, यह अवस्था आने पर माया और ब्रह्म दोनों ही उस भक्त के घर दास बने रहते हैं ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(४९/५२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू जल दल राम का, हम लेवैं परसाद ।*
*संसार का समझैं नहीं, अविगत भाव अगाध ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
जन रज्जब अज्जब कही, सुनहु सनेही दास ।
बिन परिचय परिचय भया, जब आया विश्वास ॥४९॥
हे प्रेमी भक्त ! सुन, हमने यह विश्वास की बात अदभुत कही है, जब प्राणी में ईश्वर विश्वास आ जाता है तब बिना परिचय भी ईश्वर से परिचय हो जाता है ।
.
धरे अधर का मूल है, नाम निरंजन पास ।
जन रज्जब विश्वास इस, करै कौन की आस ॥५०॥
सगुण और निर्गुण की प्राप्ति का मूल कारण निरंजन का नाम तेरे पास है, जिसे इस नाम का विश्वास है वह अन्य किसकी आशा करेगा ?
.
मनिख१ मनिख को सेवतों, सुख संपति इहिं मौन ।
जो रज्जब राम हिं भजे, तिनके टोटा२ कौन ॥५१॥
इस लोक में मनुष्य१ को मनुष्य की सेवा करने पर भी सुख संपति प्राप्त होती है फिर जो राम का भजन करते हैं, उनको तो कमी२ क्या रहती है ।
.
चिंता अणचिंता भरै, उदर को सु अविगत्त१ ।
तो रज्जब विश्वास गहि, शोधर२ साधू मत्त३ ॥५२॥
पेट भरने की चिंता करो या मत करो, परमात्मा१ तो पेट भर ही देते हैं, तब संतों के सिद्धान्त३ को खोज२ करके विश्वास को ही ग्रहण कर ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(४५/४८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सांई सबन को, सेवक ह्वै सुख देइ ।*
*अया मूढ मति जीव की, तो भी नाम न लेइ ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
मात पिता माया ब्रह्म, बालक बंदा१ कंध ।
मोह मिहरी२ में ये सदा, सू विश्वास निर्संध३ ॥४५॥
नारी१ के पेट में बच्चा होता है, तब भी उसका पोषण होता है और जन्मने पर माता पिता बालक को कंधे पर रखकर पालते हैं, वैसे ही ये प्राणी मोह में रहते हैं तो भी इनका पालन होता है और ज्ञान होने पर तो भक्त२ ब्रह्म में मिल ही जाता है, इस प्रकार विश्वास रूप साधन निर्दोष३ है ।
.
साधू सुखिया समय में, दुखी न होंहिं दुकाल ।
रज्जब जिनकी रामजी, सदा करै प्रतिपाल ॥४६॥
जिनकी रामजी सदा पालना करते हैं, वे संत सुकाल में सुखी रहते हैं और दुष्काल में दुखी नहीं होते ।
.
रज्जब रहे विश्वास में, बांदी१ तहां विभूति२ ।
सदा सुखी सुमिरण करहिं, सब विधि आई सूति३ ॥४७॥
जिनका मन ईश्वर विश्वास में रहता है उनके यहां माया१ दासी२ होकर रहती है, वे हरि स्मरण करते हुये सदा सुखी रहते हैं, माया उनके सब प्रकार अनुकूलता३ से ही आती है ।
.
राम काज निके करै, तिनके कारज सिद्ध ।
जन रज्जब विश्वास परि, बन आई सब विद्ध१ ॥४८॥
जिनके कार्य राम करते हैं उनके काम सिद्ध हो ही जाते हैं, राम विश्वास पर रहने सभी विधि१ ठीक बैठ जाती है ।
(क्रमशः)

बुधवार, 8 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(४१/४४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सिरजनहारा सबन का, ऐसा है समरत्थ ।*
*सोई सेवक ह्वै रह्या, जहँ सकल पसारैं हत्थ ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
नहीं तहाँ तै सब किया, रज्जब पिंड रु प्राण ।
सो अब भूलै क्यों तुझे, करि संतोष सुजाण ॥४१॥
प्रभु ने मिथ्या माया से शरीर प्राणादि सब संसार की रचना की है, वे तुझे कैसे भूल सकते हैं ? अत: हे बुद्धिमान, तुझे संतोष करना चाहिये ।
.
पूत पांगुला पेट में, आरंभ१ अशन२ न आश ।
पुष्टि पराये पगनि पर, विघ्न नहीं विश्वास ॥४२॥
माता के पेट में पुत्र पंगु के समान है, वह अपने उद्योग१ द्वारा भोजन२ की आशा नहीं करता, उसकी पुष्टि दूसरों के पैरो पर निर्भर है । वैसे ही ईश्वर विश्वासी का जीवन निर्विघ्न रहता है ।
.
असंख्य लोक आतम भरी, सबकी करै संभाल ।
गुण अवगुण देखै नहीं, कीये के प्रतिपाल ॥४३॥
असंख्य लोको में असंख्य ही जीवात्माएं परिपूर्ण है किन्तु प्रभु सभी की संभाल करते हैं । वे गुण अवगुण को न देखकर अपने उत्पन्न किये हुये के प्रतिपालक अवश्य हैं ।
.
जड़ वासण जड़ का घड़या, रीता रहै न सोय ।
कुंभ कुम्हार कमाऊ दोन्यों, सो पूरण किन होय ॥४४॥
मूर्ख कुम्हार का घड़ा हुआ मिट्टी का बर्तन जड़ होता है वही भी खाली नहीं रहता फिर जिस शरीर रूप कुंभ को बनाने वाला ईश्वर रूप कुम्हार और शरीर रूप कुंभ दोनों ही कमाने वाले हैं, वे कैसे नहीं भरेगा ?
(क्रमशः)

मंगलवार, 7 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(३७/४०)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सांई सबन को, सेवक ह्वै सुख देइ ।*
*अया मूढ मति जीव की, तो भी नाम न लेइ ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
ब्रह्म ब्योम दिशि देख हीं, साधू सारंग दोय ।
जन रज्जब विश्वास यहु, नजरि निवाण न कोय ॥३७॥
चातक पक्षी स्वाति बिन्दु के लिये आकाश की और देखता है, उसी के विश्वास पर रहता है पृथ्वी के कोई भी जलाशय की और उसकी दृष्टि नहीं जाती । वैसे ही संत विश्वास पूर्वक ब्रह्म की और देखते हैं, माया की और नहीं देखते ।
रोटी मोटी१ करि धरि, बाबै२ वसुधा३ माँहिं ।
रज्जब दीशै दशों दिशि, कहो कितियक खाँहिं ॥३८॥
प्रभु२ ने पृथ्वी३ में प्रारब्ध रूप विशाल१ रोटी बनाकर धर दी है प्रारब्ध के अनुसार दशों दिशाओं में ही प्राणी के सामने भोजन आता है, कहो वह कितनाक खायगा ? अर्थात वह तो अपनी प्रारब्ध जितना ही खा सकेगा, उससे खाद्य की समाप्ति नहीं हो सकती ।
.
करतार कमाऊ जिन्हों के, तिनको क्या परवाह ।
सदा सुखी आनन्द में, युग युग वे अरवाह१ ॥३९॥
जिनके ईश्वर ही कमाता है, उसकी क्या परवाह है, वे आत्माएँ१ तो आनन्द में निमग्न होकर प्रति युग में सुखी रहते हैं ।
.
करतार कमाऊ जिन घरहुं, तिनके कैसी हानि ।
यूं बैठे विश्वास में, सब कुछ दे सो आनि ॥४०॥
जिन भक्तों के घरों में ईश्वर ही कमाता है, उनको हानि कैसे हो सकती है? ऐसा समझकर ईश्वर विश्वास द्वारा स्थित है, उनको भगवान सभी कुछ ला देते हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(३३/३६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू चिन्ता राम को, समर्थ सब जाणै ।*
*दादू राम संभाल ले, चिंता जनि आणै ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
असमान१ जमीं३ अम्बर२ अर्पि, आभे५ भार अठार४ ।
बागे५ वे ब्रह्मण्ड को, पिंडहिं कहा विचार ॥३३॥
भगवान आकाश१ को बादल२ रूप वस्त्र देते हैं, पृथ्वी३ को अठारह४ भार वनस्पति रूप वस्त्र५ देते हैं, प्रभु जब सभी ब्रह्माण्ड को वस्त्र देते हैं, तब मनुष्य देह को देंगे या नहीं देंगे ? इसका विचार ही क्या करना ?
.
नौ निधि जाके नाम में, सब संतन की साखि१ ।
जन रज्जब सौं सुमरिये, कहा करै वित२ राखि ॥३४॥
जिस प्रभु के नाम में नव निधि है, उन प्रभु का स्मरण करना चाहिये, यही सब सन्तों की साक्षी१ है, केवल धन२ का संग्रह ही क्या करेगा ?
.
दह१ दिशि देवे को खड़ा, दीनानाथ दयाल ।
रज्जब यूं जाण्या कटे, वित बंधन के साल ॥३५॥
दीनानाथ दयालु परमात्मा अन्न-वस्त्रादि देने के लिये दशों१ दिशाओं में खड़े हैं, ऐसा जानने से ही धन में असक्ति रूप बंधन का दु:ख कटता है ।
.
वैरागी वित क्या करै, जो विश्वासी होय ।
रज्जब मच्छी मसक सौं, जलहि न जोया१ कोय ॥३६॥
विशाल मच्छ को मशक के जल से अनुरक्त होता कोई नहीं देखता१ वैसे ही यदि ईश्वर विश्वासी विरक्त हो तो वह धन का क्या करेगा ?
(क्रमशः)

रविवार, 5 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(२९/३२)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
अनल अंड ज्यों ठौर बिन, नहीं पोष पंख पाव१ ।
जन रज्जब सो नीपजे, तो पूरण पूरा गाव२ ॥२९॥ 
अनल पक्षी के अंड के लिये न तो ठहरने का स्थान होता, न पोषण का प्रबन्ध, न पंख होते हैं किन्तु सन्तोष होने से अंत में पृथ्वी रूप स्थान, खाने को हाथी और उड़ने को पंख प्राप्त१ हो ही जाते हैं । तब निश्चय ही संपोष पूर्णता को प्राप्त कराने का पूरा साधन है । ऐसा ही संतोष का यशोगान२ करना चाहिये ।
.
कूंजी कूरम१ अनल के, अंडे देखी जोय ।
रज्जब राखै सो कहां, तो क्यों विश्वास न होय ॥३०॥ 
कूंजी, कूर्मी, अनल पक्षी के अंडों की और देखो, वे कहाँ रखे जाते हैं - कूंजी हिमालय पर्वत के बर्फ में अंडा रखती है । कच्छपी जल के तीर स्थल में अंडा रखती है । अनल पक्षी आकाश में ही रखता है, उक्त तीनों की ही भगवान रक्षा करते हैं, तब उन प्रभु पर विश्वास क्यों होगा ?
.
उदर दिया सो आहार देयगा, गला बनाया गाले१ काज ।
रज्जब चंचु चूणि२ को सिरजी, किये किये की सब को लाज ॥३१॥ 
जिस प्रभु ने पेट दिया है, वही भोजन देना, गला निगलने१ के लिये ही बनाया गया है । चूंच चुगने२ के लिये ही उत्पन्न की है, अपने उत्पन्न किये हुये की लज्जा सभी को करनी पड़ती है अर्थात उसका पालन करना ही पड़ता है ।
असंख्य लोक अंतक१ सहित, भोजन दे भगवान ।
ता पूरण सौं प्रीतिकर, शोच करै क्यों संत ॥३२॥
भगवान काल१ के सहित असंख्य लोकों को भोजन देते हैं, उन पूर्ण ब्रह्म से प्रेम करके भोजन संबंधी चिन्ता संत क्यों करेंगे ?
(क्रमशः)

शनिवार, 4 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(२५/२८)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू रोजी राम है, राजिक रिजक हमार ।*
*दादू उस प्रसाद सौं, पोष्या सब परिवार ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
रज्जब रोग न छाड ही, मूके१ मनिख२ मीच । 
तो ब३ रिजक४ कहँ जायेगा, समझी मनवा नीच ॥२५॥ 
जब मनुष्य२ को रोग नहीं छोड़ता और मृत्यु नहीं त्यागता१ तब प्राणी की जीविका४ अब३ कहाँ जायेगी ? हे नीच मन ! इसको भली प्रकार समझकर संतोष धारण कर । 
अन१ बाँछी२ ही आवसी, जरा विपति अरु मीच । 
त्यों माया मिलसी तुझे, मन मत कल्पे नीच ॥२६॥ 
वृद्धावस्था, विपत्ति और मृत्यु बिना१ इच्छा२ ही आती है, वैसे ही माया भी तुझे आ मिलेगी । अत: हे नीच मन ! कल्पना मत कर । 
ज्यों अहि१ कठिन करंड में, मूंसा पैसा२ काट । 
जन रज्जब भोजन बन्या, अरु निकस्या बहिं३ बाट ॥२७॥ 
संतोष सर्प१ करंड में बैठा रहता है तृष्णा युक्त चूहा करंड को काट कर उसमें घुसता२ है तब सर्प उसे३ खा जाता है और उसके काटे हुये मार्ग से निकल जाता है । वैसे ही संतोषी की तो मुक्ति होती है और तृष्णा मुक्त का नाश नाश होता है । 
सिरज्या आवहि स्वर्ग सौं, जल थल करै सुकाल । 
रज्जब रहै न बिन रच्या, खाया होय उखाल१ ॥२८॥ 
यदि अपने लिये उत्पन्न हुआ होगा तो जैसे समुद्र से जल आकर स्थल में सुकाल करता है, वैसे ही स्वर्ग से भी अपने पास आ जायेगा और जो अपने लिये नहीं रचा गया है, उसकी तो खाने पर भी वमन१ हो जाती है ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(२१/२४)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
असंख्य लोक प्रतिपाल हरि, सकल किए की चिन्त ।
तो रज्जब भूखा सु क्यों, जो सांई करि मिंत ॥२१॥ 
हरि असंख्य लोकों के पालक है, उन्हें उत्पन्न किये हुये सभी प्राणियों की चिन्ता है, तब जो प्रभु का भक्त है वह भूखा कैसे रहेगा ?
.
साहिब सब को रिजक१ दे, बंदे२ को तु विशेष ।
रज्जब रहु विश्वास बिच, करणहार दिशि देख ॥२२॥ 
परमात्मा सभी प्राणियों को जीविका१ देते हैं और भक्त२ को तो विशेष रूप से देते हैं, विश्वकर्ता की और देखकर उसी के विश्वास में रहना चाहिये ।
.
जरा विपति अरु मीचसी, मिलै अबांछी१ आय ।
तो रज्जब विश्वास गहि, रिजक२ कौन पे जाय ॥२३॥ 
वृद्धावस्था, विपति और मृत्यु जैसी स्थिति ये बिन-इच्छा१ ही आ मिलती है, तब तेरी जीविका२ किसके पास जायेगी ? अर्थात तेरे ही पास आयेगी । तब तुझे विश्वास ग्रहण करना ही चाहिये ।
.
रज्जब राग२ न रोग सौं, मींच१ मुहब्बत३ नाँहिं ।
यूं ही माया मुनि रहै, पै सिरजी आवै माँहिं ॥ २४॥ 
जैसे किसी का भी रोग और मृत्यु१ से प्रेम२ नहीं होता, वैसे ही माया से मुनिजन उदासीन रहते हैं, किन्तु उनके प्रारब्ध से उत्पन्न हुई है सो तो उनके जीवन में आ ही जाती है ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(१७/२०)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।*
*कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
.
रज्जब मोटे मच्छ अति, सौ योजन सु शरीर ।
तेउ पेट पूरण भरै, तो गह विश्वास मन वीर१ ॥१७॥
जिनके सौ सौ योजन शरीर है, ऐसे विशालकाय मच्छ है, उनके भी पेट प्रभु पूरण रूप से भरते हैं तब हे भाई१ ! मन उन प्रभु का विश्वास ग्रहण कर ।
.
भजन विमुख भोजन लहै, चौरासी लख जूणि१ ।
तो रज्जब सुमिरण सहित, तिनको कैसे ऊंणि२ ॥१८॥
चौरासी लाख योनियों१ के जीव हरि भजन से विमुख रहकर भी भोजन प्राप्त करते हैं ? तब जो प्रभु का स्मरण करते हैं, उनको क्या कमी२ रह सकती है ।
.
अशन१ अकाशि असंख्य को, पाताली पूरि प्रसाद ।
महि सु मुकता करि धरया, सु तुझे न करसी याद ॥१९॥
आकाश में रहने वाले असंख्य अनल पक्षियों को और पाताल मे रहने वाले सर्पादि को परिपूर्ण से प्रभु प्रसाद देते हैं, पृथ्वी के प्रणियों के लिये भी उसने बहुत सा भोजन१ तैयार करके धरा है वह तुझे याद न करेगा क्या ?
.
असंख्यक लोक ब्रह्माण्ड के, उदर उदधि१ नीवाण२ ।
रज्जब पूरै३ ठौर सब, तुझे न देई खाण४ ॥२०॥
ब्रह्माण्ड के असंख्यक लोको के भी समुद्रादि१ जलाशय२ रूप पेट है, वे प्रभु सब ठौर सभी को भोजन४ देते३ हैं, फिर तेरे को भोजन नहीं देंगे क्या ?
(क्रमशः)

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

= *विश्वास संतोष का अंग ११२(१३/१६)* =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर उर्ध्व मुख खीर ।*
*जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर ॥*
====================
*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
.
*विश्वास संतोष का अंग ११२*
बल बाहस१ नहिं बंदि२ में, विभै३ बिना वित४ नास । 
बुद्धि रहित वपु में सु वपु, तब तोहि दिया जु ग्रास५ ॥१३॥ 
गर्भ रूप कैद२ में भुजाओं१ का बल नहीं था, कोई प्रकार का ऐश्वर्य३ नहीं था, धन४ का तो नाश ही था, उस समय माता के शरीर में तेरा शरीर बुद्धि रहित था, तभी तुझे उस प्रभु ने भोजन५ दिया था । 
शैल१ शिला में देत है, आरम्भ२ बिना आहार । 
तो रज्जब विश्वास का, छोड़े मत व्यवहार ॥१४॥ 
भगवान बिना उद्योग२ भी शिला - कीट को पर्वत१ की शिला में भोजन देते हैं, तब प्रभु - विश्वास का व्यवहार नहीं छोड़ना चाहिये । 
अगम ठौर सु आहार दे, संकट सारे काज । 
जन रज्जब विश्वास इस, उस हि किये की लाज ॥१५॥ 
गर्भ रूप अगम स्थान में भी जो भोजन देते हैं, दु:ख में भी कार्य सिद्ध करते हैं, इस विश्वास को रखने से उस प्रभु को अपने रचित की लाज रखनी ही पड़ती है । 
आरंभ१ बिना आहार दे, गये२ अनलहिं गोविन्द । 
तो रज्जब रोवै पेट को, हरि अराध३ मति मंद ॥१६॥ 
भगवान ठाण पर बंधे हुये हाथी२ को और अनल पक्षी को बिना उद्योग१ ही भोजन देते है, तब हे मतिमंद ! पेट भरने की चिन्ता में क्यों रोता है ? हरि की उपासना३ कर ।
(क्रमशः)