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*दादू होना था सो ह्वै रह्या, जे कुछ किया पीव ।*
*पल बधै न छिन घटै, ऐसी जानी जीव ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विश्वास संतोष का अंग ११२*
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षट् दर्शन अरु खलक१ सब, दीरघ२ स्वामी दास ।
जन रज्जब विश्वास बिन, जत३ सत माँहिं निराश ॥९०॥
जोगी, जंगमादि छ: प्रकार के भेषधारी, गुण कलादि में बड़े२, स्वामी, दास आदि सब संसार१ के प्राणी विश्वास बिना शील३ और सत्य में निराश ही रहते हैं ।
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वैराग्यों की बरात ऊतरी, सेवक सतियों१ शीश ।
जैसे तरु फल पंखी पावहिं, विधि बानी२ जगदीश ॥९१॥
बरात आकर जिस स्थान में उतरती है, उसका पूरा ध्यान रखा जाता है, वैसे ही विरक्त संत सदगृहस्थ१ सेवकों के शिर पर होते हैं । जैसे वृक्ष से पक्षीयों को फल मिलता है, वैसे ही विरक्तों को सदगृहस्थों से भोजन मिलता है । जगदीश्वर ने विरक्तों के निर्वाह की विधि ऐसी ही बनाई२ है ।
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बरात उतरी ठौर जिहिं, बरा१ तहां सौं लेह ।
बिन आज्ञा देसी न कोउ, दोष किसी मत देह ॥९२॥
जिस स्थान पर बरात उतरती है, वहां ही से भोजन१ लेती है वैसे ही जीव जिन प्रभु के आश्रय है उन प्रभु से ही उनको भोजनादि प्राप्त होते हैं, प्रभु की आज्ञा बिना कोई भी नहीं देगा, देने न देने का दोष किसी को भी नहीं देना चाहिये ।
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हाथ सभी हरि हाथ में, कृपण कृपाल हु एक ।
दोष देय कहु कौन को, पाया परम विवेक ॥९३॥
चाहे कृपण हो वा कृपालु हो सभी के हाथ एक हरि के हाथ में हैं, ऐसा परम विवेक प्राप्त हो गया तब देने न देने का दोष किसको दिया जाय ।
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जा दिन ज्यों राखे प्रभू, ता दिन त्यों रहिये ।
रज्जब दुख सुख आपणाँ, काहु नहिं कहिये ॥९४॥
प्रभु जिस दिन जैसे रक्खें उस दिन वैसा ही रहना चाहिये । अपना सुख दुख किसी को भी नहीं कहना चाहिये, प्रभु तो अन्तर्यामी होने से जानते ही हैं ।
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इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित विश्वास संतोष का अंग ११२ समाप्तः ॥सा. ३४९५॥
(क्रमशः)