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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*जीव जन्म जाणै नहीं, पलक पलक में होइ ।*
*चौरासी लख भोगवै, दादू लखै न कोइ ॥*
*जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भैय हुआ न जाइ ।*
*काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥*
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साभार ~ Gems of Osho
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एक तो, जो हम नहीं जानते, वह नहीं है, ऐसा मानने की जल्दी नहीं कर लेनी चाहिए। अर्जुन जो नहीं जानता है, वह नहीं है, ऐसी निष्पत्ति निकाल लेनी बहुत बचकानी है। बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते हैं, फिर भी है। हमारे न जानने से नहीं नहीं हो जाता। परन्तु अर्जुन की जो भूल है, बड़ी प्राकृतिक भूल है। हम भी यही भूल करते हैं। मनुष्य की सहज भूलों में एक भूल है, जो नहीं जानते, हम मानते हैं, वह नहीं है। न जाने किस भ्रांति के कारण हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा जानना ही सब कुछ है।
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यदि हमारा जानना ही सब कुछ है, यदि मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ इकसठ, एक जनवरी थी या नहीं? आप कहेंगे,थी; मैं था। परन्तु यदि मैं पूछूं कि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई याददाश्त बताइए, यदि थी ! तो क्या किया था सुबह उठकर? दोपहर क्या किया था? सांझ क्या बोले थे? रात नींद आई थी, नहीं आई थी? स्वप्न कौन-सा आया था? आप कहेंगे, कुछ भी याद नहीं है। यदि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई भी याद नहीं है, तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ थी, इसके कहने का अधिकार क्या है? आप कहेंगे, थी तो अवश्य, मैं था, परन्तु याद? याद नहीं है।
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याद दिलाई जा सकती है। क्योंकि एक गहरा नियम है मन का कि जो भी जाना जाता है, वह कभी भूलता नहीं। विस्मृति असंभव है। जिस बात को हम कहते हैं विस्मृति हो गई, उसका भी इतना ही अर्थ है कि हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम नहीं पकड़ पा रहे हैं, कहां रख गई वह याद, किस कोने-कातर में मन के समा गई। छोटा मन है, करोड़ों स्मृतियां हैं। मन को छांटना पड़ता है स्मृतियों को। छांट-छांटकर काम की बचा लेता है, बाकी को कचरे घर में डाल देता है। परन्तु कचराघर भी भीतर ही है।
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जैसे अपने घर में कोई नीचे, तहखाने में वस्तुओं को डाले, जो व्यर्थ हैं। परन्तु व्यर्थ नहीं है, कभी काम में आ सकती हैं, इसलिए इकट्ठी भी करते रहते है। हम भी अपने मन में सब इकट्ठा करते चले जाते हैं। इसलिए जो आपको एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ याद न आती हो, वह आपको सम्मोहित करके, बेहोश किया जाए, तो याद आ जाती है। आप एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ का ऐसे ही वर्णन कर देंगे, जैसे एक जनवरी उन्नीस सौ इकहत्तर का भी करना कठिन पड़ेगा। परन्तु कर देंगे। बेहोशी की, सम्मोहन की अवस्था में सब याद आ जाएगा, सब उठ आएगा।
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श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सरलता से कहते हैं कि जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सहजता से कहते हैं कि उनका वचन बड़ा प्रामाणिक लगता है। श्री कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। हमारे और भी जन्म हुए हैं। मैं इसी जन्म की बात नहीं कर रहा हूं। परन्तु वे इतनी सरलता से कहते हैं, जरा भी झिझक नहीं।
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श्री कृष्ण जब कहते हैं कि अर्जुन, तुझे पता नहीं और मुझे पता है। और जब मैं कहता हूं कि सूर्य को मैंने कहा था, तो मैं किसी और जन्म की बात कर रहा हूं। यह इस जन्म की बात नहीं है।
एक और ध्यान देने की बात है, कि ज्ञान श्री कृष्ण के समय में इतना झिझकता हुआ नहीं था, जितना आज है। बहुत साहसी था। जो कहना है, कहता था। आज ज्ञान बहुत झिझकता हुआ है। जो भी कहना है, वह सीधा कहना कठिन है। क्या कारण होगा? कारण एक ही है। आज जिसे हम ज्ञान कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर उधार होता है, इसलिए झिझकता है।
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शरीर केंद्रित दृष्टि शरीर के बाहर की बातों को सुन नहीं पाती। अर्जुन भी शरीर केंद्रित है। उसकी सारी चिंतना, उसका सारा संताप शरीर केंद्रित है। वह कहता है, ये मेरे प्रियजन मर जाएंगे। श्री कृष्ण कहते हैं, ये कोई नहीं मरने वाले हैं। ये पहले भी थे और फिर भी रहेंगे। वही-वही प्रश्न लौट-लौटकर चला आता है। अभी श्री कृष्ण पहले समझाते हैं कि कोई ये मरेंगे नहीं। ये पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे। तू इनकी चिंता मत कर। अर्जुन कुछ समझता नहीं है। अब वह फिर वही पूछता है, आप सूर्य के पहले कहां थे? आप तो अभी पैदा हुए हैं?
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वही शरीर से बंधी हुई दृष्टि, परन्तु श्री कृष्ण एक सीधा वक्तव्य देते हैं। दलील दे सकते थे। परन्तु जिनके पास अनुभव है, वे दलील हमेशा पीछे देते हैं, वक्तव्य पहले दे देते हैं। जिनके पास अनुभव नहीं है, वे दलील पहले देते हैं, वक्तव्य पीछे देते हैं। जिनके पास अनुभव है, वे दलील का उपयोग सिद्ध करने के लिए नहीं करते। वे दलील का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समझाने के लिए करते हैं।
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तो पहली तो बात यह समझ लें कि श्री कृष्ण ने बेझिझक कहा कि तू नहीं जानता और मैं जानता हूं। इतना बेझिझक अनुभव ही हो सकता है। परन्तु गुरु भी झिझकते हुए हो सकते हैं। और तब यदि शिष्य झिझकते हुए हो जाएं, तो बहुत कठिनाई क्या है? गुरु भी सोच-विचार करके उत्तर देते हों, तो फिर शिष्य भी उत्तर से वंचित रह जाएं, तो अस्चर्य क्या है?
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यह सोच-विचार नहीं है श्री कृष्ण की तरफ, यह सीधी प्रतीति है कि तू नहीं जानता। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक अंधे आदमी से कोई आंख वाला कहे कि सूरज है; मैं जानता हूं और तू नहीं जानता। यह इतनी ही सरल और सीधी बात उन्होंने कही है।