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मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

= २०० =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*जीव जन्म जाणै नहीं, पलक पलक में होइ ।*
*चौरासी लख भोगवै, दादू लखै न कोइ ॥*
*जब लग लालच जीव का, तब लग निर्भैय हुआ न जाइ ।*
*काया माया मन तजै, तब चौड़े रहै बजाइ ॥*
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साभार ~ Gems of Osho
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एक तो, जो हम नहीं जानते, वह नहीं है, ऐसा मानने की जल्दी नहीं कर लेनी चाहिए। अर्जुन जो नहीं जानता है, वह नहीं है, ऐसी निष्पत्ति निकाल लेनी बहुत बचकानी है। बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते हैं, फिर भी है। हमारे न जानने से नहीं नहीं हो जाता। परन्तु अर्जुन की जो भूल है, बड़ी प्राकृतिक भूल है। हम भी यही भूल करते हैं। मनुष्य की सहज भूलों में एक भूल है, जो नहीं जानते, हम मानते हैं, वह नहीं है। न जाने किस भ्रांति के कारण हम ऐसा सोचते हैं कि हमारा जानना ही सब कुछ है।
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यदि हमारा जानना ही सब कुछ है, यदि मैं आपसे पूछूं कि उन्नीस सौ इकसठ, एक जनवरी थी या नहीं? आप कहेंगे,थी; मैं था। परन्तु यदि मैं पूछूं कि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई याददाश्त बताइए, यदि थी ! तो क्या किया था सुबह उठकर? दोपहर क्या किया था? सांझ क्या बोले थे? रात नींद आई थी, नहीं आई थी? स्वप्न कौन-सा आया था? आप कहेंगे, कुछ भी याद नहीं है। यदि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई भी याद नहीं है, तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ थी, इसके कहने का अधिकार क्या है? आप कहेंगे, थी तो अवश्य, मैं था, परन्तु याद? याद नहीं है।
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याद दिलाई जा सकती है। क्योंकि एक गहरा नियम है मन का कि जो भी जाना जाता है, वह कभी भूलता नहीं। विस्मृति असंभव है। जिस बात को हम कहते हैं विस्मृति हो गई, उसका भी इतना ही अर्थ है कि हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम नहीं पकड़ पा रहे हैं, कहां रख गई वह याद, किस कोने-कातर में मन के समा गई। छोटा मन है, करोड़ों स्मृतियां हैं। मन को छांटना पड़ता है स्मृतियों को। छांट-छांटकर काम की बचा लेता है, बाकी को कचरे घर में डाल देता है। परन्तु कचराघर भी भीतर ही है।
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जैसे अपने घर में कोई नीचे, तहखाने में वस्तुओं को डाले, जो व्यर्थ हैं। परन्तु व्यर्थ नहीं है, कभी काम में आ सकती हैं, इसलिए इकट्ठी भी करते रहते है। हम भी अपने मन में सब इकट्ठा करते चले जाते हैं। इसलिए जो आपको एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ याद न आती हो, वह आपको सम्मोहित करके, बेहोश किया जाए, तो याद आ जाती है। आप एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ का ऐसे ही वर्णन कर देंगे, जैसे एक जनवरी उन्नीस सौ इकहत्तर का भी करना कठिन पड़ेगा। परन्तु कर देंगे। बेहोशी की, सम्मोहन की अवस्था में सब याद आ जाएगा, सब उठ आएगा।
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श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सरलता से कहते हैं कि जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। वे इतनी सहजता से कहते हैं कि उनका वचन बड़ा प्रामाणिक लगता है। श्री कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। हमारे और भी जन्म हुए हैं। मैं इसी जन्म की बात नहीं कर रहा हूं। परन्तु वे इतनी सरलता से कहते हैं, जरा भी झिझक नहीं।
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श्री कृष्ण जब कहते हैं कि अर्जुन, तुझे पता नहीं और मुझे पता है। और जब मैं कहता हूं कि सूर्य को मैंने कहा था, तो मैं किसी और जन्म की बात कर रहा हूं। यह इस जन्म की बात नहीं है।
एक और ध्यान देने की बात है, कि ज्ञान श्री कृष्ण के समय में इतना झिझकता हुआ नहीं था, जितना आज है। बहुत साहसी था। जो कहना है, कहता था। आज ज्ञान बहुत झिझकता हुआ है। जो भी कहना है, वह सीधा कहना कठिन है। क्या कारण होगा? कारण एक ही है। आज जिसे हम ज्ञान कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर उधार होता है, इसलिए झिझकता है।
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शरीर केंद्रित दृष्टि शरीर के बाहर की बातों को सुन नहीं पाती। अर्जुन भी शरीर केंद्रित है। उसकी सारी चिंतना, उसका सारा संताप शरीर केंद्रित है। वह कहता है, ये मेरे प्रियजन मर जाएंगे। श्री कृष्ण कहते हैं, ये कोई नहीं मरने वाले हैं। ये पहले भी थे और फिर भी रहेंगे। वही-वही प्रश्न लौट-लौटकर चला आता है। अभी श्री कृष्ण पहले समझाते हैं कि कोई ये मरेंगे नहीं। ये पहले भी थे, पीछे भी रहेंगे। तू इनकी चिंता मत कर। अर्जुन कुछ समझता नहीं है। अब वह फिर वही पूछता है, आप सूर्य के पहले कहां थे? आप तो अभी पैदा हुए हैं?
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वही शरीर से बंधी हुई दृष्टि, परन्तु श्री कृष्ण एक सीधा वक्तव्य देते हैं। दलील दे सकते थे। परन्तु जिनके पास अनुभव है, वे दलील हमेशा पीछे देते हैं, वक्तव्य पहले दे देते हैं। जिनके पास अनुभव नहीं है, वे दलील पहले देते हैं, वक्तव्य पीछे देते हैं। जिनके पास अनुभव है, वे दलील का उपयोग सिद्ध करने के लिए नहीं करते। वे दलील का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समझाने के लिए करते हैं।
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तो पहली तो बात यह समझ लें कि श्री कृष्ण ने बेझिझक कहा कि तू नहीं जानता और मैं जानता हूं। इतना बेझिझक अनुभव ही हो सकता है। परन्तु गुरु भी झिझकते हुए हो सकते हैं। और तब यदि शिष्य झिझकते हुए हो जाएं, तो बहुत कठिनाई क्या है? गुरु भी सोच-विचार करके उत्तर देते हों, तो फिर शिष्य भी उत्तर से वंचित रह जाएं, तो अस्चर्य क्या है?
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यह सोच-विचार नहीं है श्री कृष्ण की तरफ, यह सीधी प्रतीति है कि तू नहीं जानता। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक अंधे आदमी से कोई आंख वाला कहे कि सूरज है; मैं जानता हूं और तू नहीं जानता। यह इतनी ही सरल और सीधी बात उन्होंने कही है।

= १९९ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू दूजा कुछ नहीं, एक सत्य कर जान ।*
*दादू दूजा क्या करै, जिन एक लिया पहचान ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्मी पतिव्रता का अंग)*
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*जो मिले, उसमें संतुष्ट, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त उसमें संतोष मानता है, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है। चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक दिखाई देता है।*
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चित्त सदा ही असंतुष्ट है। चित्त का होना ही असंतोष है। यदि ऐसा कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि चित्त और असंतोष एक ही वस्तु के दो नाम हैं। ऐसा नहीं कि चित्त असंतुष्ट होता है, बल्कि ऐसा कि चित्त ही असंतोष है। क्योंकि जिस क्षण संतुष्टि आती है, उसी क्षण चित्त भी चला जाता है। असंतोष के साथ ही मन भी चला जाता है। जिनके भीतर असंतोष न रहा, उनके भीतर मन भी न रहा।
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*मन उसकी आकांक्षा में ही जीता है, जो नहीं मिला है। इसलिए मन के लिए आवश्यक है कि जो मिला है, उससे असंतुष्ट हो; और जो नहीं मिला है, उसमें संतोष की कामना में जीए। जो नहीं मिला है, उसमें संतोष खोजे; और जो मिल जाए, उसमें असंतोष खोजे। यह हमारी चित्त-दशा है।*
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*श्री कृष्ण उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, पुरुष को जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध नहीं बांधते।* इन दोनों की प्रक्रियाओं को समझ लेना चाहिए। जैसी हमारी स्थिति है, उसमें जो मिलता है, वही असंतोष लाता है। रहस्य क्या है? कारण क्या है? अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा गणित है।
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अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा गणित है। कौन-सा पुरुष संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित जीता है, जिसकी कोई इच्छा नहीं है। जो ऐसे जीता है, जैसे जीने के लिए कोई अपेक्षा की आवश्यकता नहीं है। फिर जो भी मिल जाता है, वही धन्यभाग। उसके लिए ही वह प्रभु को धन्यवाद दे पाता है।
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धन्यवाद का जो भाव है, वह उसी व्यक्ति में हो सकता है, जिसकी अपेक्षा कोई भी नहीं। जब अपेक्षा कोई भी नहीं, तो जो भी मिल जाता है, जो भी, उसमें भी वरदान खोजा जा सकता है। और जब अपेक्षा बहुत होती है, तो जो भी मिल जाता है, उसमें ही अभिशाप का आविष्कार हो जाता है; उसी में अभिशाप खोज लिया जाता है। खोज हम पर निर्भर है।
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और एक बार किसी व्यक्ति को यह रहस्य पता चल जाए, तो संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के दुख की कोई सीमा नहीं है; संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के नर्क का कोई अंत नहीं है; संतोष के स्वर्ग का भी कोई अंत नहीं है।
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श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मिल जाए, उसमें जो संतुष्ट है, जो मिल जाए, जो प्राप्त हो जाए, उसमें जो राजी है; आभार से भरा, अनुगृहीत, और द्वंद्व के पार। दूसरी बात वे कहते हैं, द्वंद्व के पार, द्वंद्वातीत, दो के बाहर। *सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते हैं किसी को; परन्तु जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं। सम्पूर्ण मनुष्य-जाति का अनुभव यह है।*
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द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर देखेंगे, तो विचार में आ जाएगा। हमारा मन प्रतिपल दोहरा है।
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जब कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत। *मन तो जीता है द्वंद्व में, सदा द्वंद्व में। मन तो जीता है सदा विकल्प में। सदा ही दो विकल्प खड़े रहते हैं। जो आप करते हैं, उसके विरोध भी आपका मन पूरे समय भीतर कहता रहता है। एक पैर भी आप उठाते हैं, तो मन का दूसरा हिस्सा कहता है, मत उठाओ। मन कभी भी सौ प्रतिशत, नहीं होता। एक हिस्सा निरंतर ही विरोध करता रहता है। जिस व्यक्ति का मन ऐसी अवस्था से भरा है, वह व्यक्ति द्वंद्व में घिरा है। वह सदा ही द्वंद्व में घिरा रहेगा। यह द्वंद्व यदि बहुत तीव्र हो जाए, तो वह व्यक्ति दो खंडों में टूट जाएगा।*

श्री कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत, द्वंद्व के बाहर, द्वंद्व के पार, दो के बाहर होता है अर्जुन जो, वही केवल कर्म के बंधन से मुक्त होता है। लेकिन दो के बाहर कौन हो सकता है? मन तो नहीं हो सकता। मन तो जब भी रहेगा, दो के भीतर ही रहेगा। दो के बाहर केवल वही हो सकता हैं जो मन को भी जानता है। घृणा द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकती। प्रेम द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रेम और घृणा को जानने वाला ज्ञाता है, वह बाहर हो सकता है। श्री कृष्ण कहते हैं, जो द्वंद्व के पार हो जाता है अर्जुन, वह समस्त कर्मों के बंधन से छूट जाता है।
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*यह जो पृथकता का बोध है, यह जो साक्षी का भाव है, वह द्वंद्वातीत ले जाता है। जो मिल जाए, जो प्राप्त हो, उसमें तृप्त, चित्त के द्वंद्वों के पार जो व्यक्ति है, वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं पड़ता है, ऐसा श्री कृष्ण, अत्यंत ही वैज्ञानिक बात, अर्जुन से कहते हैं।*

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

= १९८ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सब जग सूता नींद भर, जागै नाहीं कोइ ।*
*आगे पीछे देखिये, प्रत्यक्ष परलै होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ काल का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
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जो नीतिशास्त्री हैं, नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी पता नहीं, जिनका चिंतन पाप और पुण्य से ऊपर कभी गया नहीं, वे कहेंगे, जितना पाप किया, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। एक-एक पाप को एक-एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब ऋण-धन बराबर होगा; तब हानि-लाभ बराबर होगा और व्यक्ति मुक्त होगा।
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जो नीतिशास्त्री हैं, जिन्हें आत्म-अनुभव का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का कुछ भी पता नहीं; जो केवल कर्म का लेखा-जोखा रखते हैं; वे कहेंगे, एक-एक पाप के लिए एक-एक पुण्य से साधना पड़ेगा। यदि अनंत पाप हैं, तो अनंत पुण्यों के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं।
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परन्तु तब मुक्ति असंभव है। दो कारणों से असंभव है। एक तो इसलिए असंभव है कि अनंत शृंखला है पाप की, अनंतपुण्यों की शृंखला करनी पड़ेगी। और इसलिए भी असंभव है कि कितने ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं।
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जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो जाएगा। कम से कम जीएंगे तो पुण्य करने के लिए, तब तो यह अनंत वर्तुल है, दुष्टचक्र है; इसके बाहर हम जा नहीं सकते। यदि पुण्य से पाप को काटने का प्रयास करे तो पुण्य करने में पाप हो जाएगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, तो फिर उस पुण्य करने में पाप हो जाएगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा। हर बार पुण्य से काटेंगे। पुण्य नए पाप करवा जाएगा। यह वर्तुल कभी अंत नहीं होगा।
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इसका अर्थ ही यह हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती। पाप है अंधेरे की तरह। एक गुफा में है अनंत वर्षों से, द्वार बंद हैं। अनंत वर्ष पुराना अंधेरा है। तो क्या हम दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा, इतने से काम नहीं चलता, हम अनंत वर्षों तक दीए जलाएं, तब मैं कटूंगा?
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नहीं; हमने दीया जलाया कि अनंत वर्षों पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं अनंत वर्ष पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता है कि अनंत वर्षों में बहुत सघन, हो गया हूं, इसलिए दीए की इतनी छोटी-सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती। अनंत वर्षों पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही बराबर के होते हैं। उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं; क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, आज आपने जलाई काड़ी, अंधेरा गया--अभी और यहीं।
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पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो केवल ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। ज्ञान कोई कृत्य नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े। ज्ञान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है। जला, कि सब अंधेरा गया।
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फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किए थे। क्योंकि जब मैं ही चला जाए, तो सब खाते-बही भी उसी के साथ चले जाते हैं। फिर मनुष्य अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाता है। क्या कभी आपने ऐसा प्रश्न नहीं उठाया, सुबह हम उठते हैं, रातभर सपना देखा, तो जरा-सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, इतने से हिलाने से रातभर का सपना टूट सकता है?
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नहीं, जरा-सा किसी ने हिलाया; पलक खुली; सपना गया। फिर हम यह नहीं कहते कि अब रातभर इतना सपना देखा, तो अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा, तब सपना मिटेगा। सपना टूट जाता है। पाप भी सपने की भांति है। ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है, वह है कि पाप स्वप्न की भांति है। फिर पुण्य भी स्वप्न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते हैं। सपने सपने से काटेंगे, तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा।
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*इसलिए श्री कृष्ण कहते कि कितना ही बड़ा पापी हो तू, सबसे बड़ा पापी हो तू, तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि ज्ञान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाती है। सुबह जैसे कोई जाग जाता, रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त। जागे हुए व्यक्ति को सपनों से कुछ लेना-देना नहीं रह जाता*

= १९७ =

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।*
*दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥*
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साभार ~ Soni Manoj

*# दुख है, तो जानो, जागो, पहचानो #*
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दुखों से भागो मत । दुखों को जीयो । दुखों से होशपूर्वक गुजरो । और तुम पाओगे : हर दुख तुम्हें मजबूत कर गया । हर दुख तुम्हारी जडो़ं को बडा़ कर गया । हर दुख तुम्हें नया प्राण दे गया । हर दुख तुम्हें फौलाद बना गया ।
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दुख का कुछ कारण है । दुख व्यर्थ नहीं है । दुख की सार्थकता यही है कि दुख के बिना कोई आदमी आत्मवान नहीं हो पाता । पोच रह जाता है, पोचा रह जाता है ।
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इसलिए अक्सर जिनको सुख और सुविधा में ही रहने का मौका मिला है, उनमें तुम एक तरह की पोचता पाओगे । एक तरह का छिछलापन पाओगे । सुखी आदमी में, तथाकथित सुखी आदमी में गहराई नहीं होती । उसके भीतर कोई आत्मा नहीं होती ।
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इसलिए तुम अक्सर धनी घरों में मूढ़ व्यक्तियों को पैदा होते पाओगे । धनी घर के बच्चे बुध्दू रह जाते हैं । सब सुख - सुविधा है; करना क्या है ! सब वैसे ही मिला है; पाना क्या है ?
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संघर्ष नहीं, तो संकल्प नहीं । और संकल्प नहीं, तो आत्मा कहां ? और संकल्प नहीं, तो समर्पण कैसे होगा । जब कमाओगे संकल्प को, जब तुम्हारा मैं प्रगाढ़ होगा, तभी किसी दिन उसे झुकाने का मजा भी आएगा । नहीं तो क्या खाक मजा आएगा !
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जिसके पास अहंकार नहीं है, वह निरअहंकारी नहीं हो सकता । इस बात को खूब समझ लेना । जिसके पास गहन अहंकार है वही निरअहंकारी हो सकता है । निरअहंकारिता अहंकार की आखिरी पराकाष्ठा के बाद घटती है ।
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लेकिन दुख से आदमी डरता है । दुख से तुम्हारा परिचय है । तुम जानते हो दुखों को । दुखों से तुम्हारी खूब पहचान है । दुखों से ही पहचान है । सुख की तो सिर्फ आशा रही, सपना रहा है । दुखों से मिलना हुआ है । तो स्वाभाविक है कि तुम दुख से डरते हो ।
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सभी दुख से डरते हैं । और जब तक दुख से डरेंगे, तब तक दुखी रहेंगे । क्योंकि जिससे तुम डरोगे, उसे तुम समझ न पाओगे । और दुख मिटता है समझने से । दुख मिटता है जागने से । दुख मिटता है दुख को पहचान लेने से ।
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इसलिए तो दुनिया दुखी है कि लोग दुख से डरते हैं और पीठ किए रहते हैं; तो दुख का निदान नहीं हो पाता । दुख पर अंगुली रखकर नहीं देखते कि कहां है ! क्या है ! क्यों है ! दुख में उतरकर नहीं देखते कि कैसे पैदा हो रहा है ! किस कारण हो रहा है ! भय के कारण अपने ही दुख से भागे रहते हैं ।
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तुम कहीं भी भागो, दुख से कैसे भाग पाओगे । दुख तुम्हारे जीवन की शैली में है । तुम जहां जाओगे, वहीं पहुंच जाएगा । जिनसे तुम डरते हो, अगर उनसे भागोगे, तो यही होगा । दुख से डरे कि दुखी रहोगे । दुख से डरे कि नर्क में पहुंच जाओगे; नर्क बना लोगे । दुख से डरने की जरूरत नहीं है । दुख है, तो जानो, जागो, पहचानो ।
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जिन्होंने भी दुख के साथ दोस्ती बनायी और दुख को ठीक से आंख भरकर देखा, दुख का साक्षात्कार किया, वे अपूर्व संपदा के मालिक हो गये । कई बातें उनको समझ में आयीं ।
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एक बात तो यह समझ में आयी कि दुख बाहर से नहीं आता । दुख मैं पैदा करता हूं । और जब मैं पैदा करता हूं, तो अपने हाथ की बात हो गयी । न करना हो पैदा, तो न करो, करना हो, तो कुशलता से करो । जितना करना हो, उतना करो । मगर फिर रोने - पछताने का कोई सवाल न रहा ।
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जिन्होंने दुख को गौर से देखा, उन्हें यह बात समझ में आ गयी कि यह मेरे ही गलत जीने का परिणाम है । यह मेरा कर्म - फल है । जैसे एक आदमी दीवाल से निकलने की कोशिश करे । उसके सिर में टक्कर लगे । और लहूलुहान हो जाए । और कहे कि यह दीवाल मुझे बडा़ दुख दे रही है ।
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तुम दुख के कारण नहीं देखते । दुख के कारण, सदा तुम्हारे भीतर हैं । दुख बाहर से नहीं आता । और नर्क पाताल में नहीं है । नर्क तुम्हारे ही अचेतन मन में है । वही है पाताल । और स्वर्ग कहीं आकाश में नहीं है । तुम अपने अचेतन मन को साफ कर लो कूडे़ - करकट से, वहीं स्वर्ग निर्मित हो जाता है । स्वर्ग और नर्क तुम्हारी ही भाव - दशाएं हैं । और तुम ही निर्माता हो । तुम ही मालिक हो ।
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तो दुख को जो देखेगा, उसके हाथ में दुख को खोलने की कुंजी आ जाती है । और मजे की बात है कि दुख को जो देखेगा, सामना करेगा, वह दुख का अनुगृहीत होगा । क्योंकि हर दुख एक चुनौती भी है । और हर दुख तुम्हें निखारने का एक उपाय भी है । और हर दुख ऐसे है, जैसे आग । और तुम ऐसे हो, जैसे आग में गुजरे सोना । आग से गुजरकर ही सोना कुंदन बनता है ।
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ओशो ~ एस धम्मो सनंतनो १२
१२० प्रवचन अप्प दीपो भव !
से संकलन ।
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रविवार, 1 दिसंबर 2019

= १९६ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।*
*दादू मार्ग माहिं ले, तिन की बात अनेक ॥*
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साभार ~ @Nirmala Mishra

卐 || ॐ श्री परमात्मने नमः || 卐
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*अहिंसा।*
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हाँ, राम, कृष्ण, बुद्ध इत्यादि महापुरुषों ने समाज को आत्मिक पथ पर चलाने के लिए सुधार का जो प्रयास किया, वह भी एक अहिंसा थी। इस चिंतन- पथ में आंतरिक विकारों के साथ बाह्य विरोधी विचारधाराओं को नष्ट करना ही अहिंसा है। नास्तिकता को आस्तिकता में बदलना अहिंसा है। योगेश्वर श्रीकृष्ण के अनुसार- जो आत्मपथ पर नहीं चलता वह अपनी आत्मा का हत्यारा है, जो महापुरुष नहीं चलाता वह भी हत्यारा है और जो आत्मपथ पर चलने नहीं देते, वे तो सबसे बड़े हत्यारे हैं।
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समाज का एक वर्ग हमेशा से आत्मपथ का विरोध करता चला आ रहा है। वह कहता है कि ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है। स्त्री और पुरुष के संयोग से सृष्टि उत्पन्न है- इतना ही सत्य है। अतः खाओ- पियो और मौज करो- जो इस विचारधारावाले हैं, वे आत्मा की हत्या करनेवाले हैं। साथ ही जो रूढ़ियों के पुजारी है, वह भी आपको परमात्मा के स्वरूप से वंचित कर रहे हैं, परमात्मा से दूरी पैदा करनेवाले हैं। उन्हें न मारकर केवल उनका हृदय बदलना भी अहिंसा का एक बहुत बड़ा अंग है।
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परमदेव परमात्मा के देवत्व से दूरी पैदा करनेवाले आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को नष्ट करने के लिए महापुरुषों ने दोनों तरीके अपनाये। जहां तक हो सका ऐसे लोगों का हृदय- परिवर्तन किया और जो किसी भी प्रकार से सुधारने को तैयार नहीं थे, चिंतन- पथ में व्यवधान उपस्थित कर रहे थे उनका उन्होंने मुलोच्छेदन कर डाला।
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धर्मप्रचार के लिए शस्त्र के प्रयोग में राम की नकल(समानता) कुछ कबीलों ने की। ईसाइयों ने हृदय- परिवर्तन गौतम बुद्ध से सीखा; किंतु वे इसके बदले सीखा क्या रहे हैं ? मात्र कुरीतियां ! काले- गोरे का अंतर ! क्योंकि परमात्मा की प्राप्ति की विधि को क्रमबद्ध बताने का तथा समाज को उस पथ पर चलाने का मौका न तो अल्लाह के रसूल को ही मिला और न महात्मा ईशा को ही।
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हृदय- परिवर्तन प्रत्येक महापुरुष के क्षेत्र की वस्तु है; लेकिन तलवार के घाट उतारना, यह अवतार के अधिकार- क्षेत्र की बात है। अवतार भी महापुरुष ही है, आकाश से उतरा कोई विचित्र या काल्पनिक जीव- विशेष नहीं। मनुष्य शरीर से ही साधन करके उन्होंने यह स्थिति पाई है। वस्तुतः प्राप्तिकाल में सभी महापुरुषों को परमात्मा की एक- जैसी अनुभूति मिलती है; किंतु साथ ही समाज के संस्कारों के अनुरूप कुछ कार्यों की जिम्मेदारी भगवान उन्हें सौंप देते हैं, उन्हें विशेषाधिकार संपन्न कर देते हैं।
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जिस महापुरुष को जिस सीमा तक लोककल्याण करना रहता है उतनी भूमिका(रोल) निभाकर वह संसार के रंगमंच से तिरोहित हो जाता है। यह तो उन प्रभु का चयन है कि किससे कितना कार्य ले। प्राप्ति की स्थिति की दृष्टि से भी सभी महापुरुष समान है; किंतु समाज में उनकी भूमिका के अनुसार महापुरुषों के रहनि अलग-अलग प्रतीत होती है।
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अवतार चौबीस ही नहीं, अनंत हुए हैं। आपके अंदर भी अवतार संभव है- यदि आत्मानुभूति कर लें और वैसा समाज हो। समाज में उनके कार्यों का आकलन कर हम किसी को छोटा और किसी को बड़ा अवतार मान बैठते हैं; किंतु आंतरिक उपलब्धि की दृष्टि से सभी महापुरुष एक- जैसे हैं।
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जब आसुरी प्रवृत्तियां चरम सीमा पर पहुंच जाती है, समाज रूढ़िप्रधान हो जाता है, समझाने से भी नहीं समझता, समझना चाहता ही नहीं, उस समय विशेषाधिकारसंपन्न महापुरुष का उदय होता है जिसे पूर्व मनीषियों ने अवतार की संज्ञा दी है। भगवान राम और श्री कृष्ण ने समाज- सुधार के लिए दोनों उपायों का प्रयोग किया। उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को देख असभ्य वनवासी भी धार्मिक हो गए।

🌹🌻🍁🌼🙇‍♂🌼🍁🌻🌹

= १९५ =


🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू सब थे एक के, सो एक न जाना ।*
*जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥*
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साभार ~ Siyag Chetan
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अच्छाई-बुराई

एक बार बुरी आत्माओं ने भगवान से शिकायत की कि उनके साथ इतना बुरा व्यवहार क्यों किया जाता है, जबकी अच्छी आत्माएँ इतने शानदार महल में रहती हैं और हम सब खंडहरों में, आखिर ये भेदभाव क्यों है, जबकि हम सब भी आप ही की संतान हैं।
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भगवान ने उन्हें समझाया- “मैंने तो सभी को एक जैसा ही बनाया पर तुम ही अपने कर्मो से बुरी आत्माएं बन गयीं। सो वैसा ही तुम्हारा घर भी हो गया।” भगवान के समझाने पर भी बुरी आत्माएँ भेदभाव किये जाने की शिकायत करतीं रहीं और उदास होकर बैठ गयी।
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इसपर भगवान ने कुछ देर सोचा और सभी अच्छी-बुरी आत्माओं को बुलाया और बोले- “बुरी आत्माओं के अनुरोध पर मैंने एक निर्णय लिया है, आज से तुम लोगों को रहने के लिए मैंने जो भी महल या खँडहर दिए थे वो सब नष्ट हो जायेंगे, और अच्छी और बुरी आत्माएं अपने अपने लिए दो अलग-अलग शहरों का निर्माण नए तरीके से स्वयं करेंगी।”
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तभी एक आत्मा बोली- “लेकिन इस निर्माण के लिए हमें ईंटें कहाँ से मिलेंगी ?”
भगवान बोले- “जब पृथ्वी पर कोई इंसान अच्छा या बुरा कर्म करेगा तो यहाँ पर उसके बदले में ईंटें तैयार हो जाएंगी। सभी ईंटें मजबूती में एक सामान होंगी, अब ये तुम लोगों को तय करना है कि तुम अच्छे कार्यों से बनने वाली ईंटें लोगे या बुरे कार्यों से बनने वाली ईंटें !”
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बुरी आत्माओं ने सोचा, पृथ्वी पर बुराई करने वाले अधिक लोग हैं इसलिए अगर उन्होंने बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें ले लीं तो एक विशाल शहर का निर्माण हो सकता है, और उन्होंने भगवान से बुरे कर्मों से बनने वाली ईंटें मांग ली।
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दोनों शहरों का निर्माण एक साथ शुरू हुआ, पर कुछ ही दिनों में बुरी आत्माओं का शहर वहाँ रूप लेने लगा, उन्हें लगातार ईंटों के ढेर के ढेर मिलते जा रहे थे और उससे उन्होंने एक शानदार महल बहुत जल्द बना भी लिया। वहीँ अच्छी आत्माओं का निर्माण धीरे-धीरे चल रहा था, काफी दिन बीत जाने पर भी उनके शहर का केवल एक ही हिस्सा बन पाया था।
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कुछ दिन और ऐसे ही बीते, फिर एक दिन अचानक एक अजीब सी घटना घटी। बुरी आत्माओं के शहर से ईंटें गायब होने लगीं… दीवारों से, छतों से, इमारतों की नीवों से,… हर जगह से ईंटें गायब होने लगीं और देखते ही देखते उनका पूरा शहर खंडहर का रूप लेने लगा।
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परेशान आत्माएं तुरंत भगवान के पास भागीं और पुछा- “हे प्रभु ! हमारे महल से अचानक ये ईंटें क्यों गायब होने लगीं …हमारा महल और शहर तो फिर से खंडहर बन गया?”
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भगवान मुस्कुराये और बोले- “ईंटें गायब होने लगीं !! अच्छा ! दरअसल जिन लोगों ने बुरे कर्म किए थे अब वे उनका परिणाम भुगतने लगे हैं यानी अपने बुरे कर्मों से उबरने लगीं हैं उनके बुरे कर्म और उनसे उपजी बुराइयाँ नष्ट होने लगे हैं। सो उनकी बुराइयों से बनी ईंटें भी नष्ट होने लगीं हैं। आखिर को जो आज बना है वह कल नष्ट भी होगा ही। अब किसकी आयु कितनी होगी ये अलग बात है।”
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इस तरह से बुरी आत्माओ ने अपना सिर पकड़ लिया और सिर झुका के वहा से चली गई ।
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मित्रों ! इस कहानी से हमें कई ज़रूरी बातें सीखने को मिलती है, जो हम बचपन से सुनते भी आ रहे हैं पर शायद उसे इतनी गंभीरता से नहीं लेते : बुराई और उससे होने वाला फायदा बढता तो बहुत तेजी से है। परंतु नष्ट भी उतनी ही तेजी से होता है।
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वहीँ सच्चाई और अच्छाई से चलने वाले धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं पर उनकी सफलता स्थायी होती है. अतः हमें हमेशा सच्चाई की बुनियाद पर अपने सफलता की इमारत खड़ी करनी चाहिए, झूठ और बुराई की बुनियाद पर तो बस खंडहर ही बनाये जा सकते हैं।

= १९४ =

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*दादू हरि भुरकी वाणी साधु की,*
*सो परियो मेरे शीश ।*
*छूटे माया मोह तैं, प्रेम भजन जगदीश ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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श्रीकृष्ण कहते हैं और हे अर्जुन, जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को प्राप्त नहीं होगा; जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ सच्चिदानंदमय ही देखेगा। श्री कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है।
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मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है? पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं अवश्य,रहूं अवश्य; मिट न जाऊं जिजीविषा।
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*जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई घर से मोह करता, तो वास्तव में घर से कोई मोह नहीं करता। घर का मोह, मात्र इतना ही की मैं रह सकूं ठीक से, मैं बच सकूं ठीक से, उसी मोह का विस्तार है। कोई धन से मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी जड़ उस "मैं" के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं। यदि और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है।*
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श्री कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा जब बहती, तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह अज्ञान है। अज्ञान को यदि हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और मोह को यदि ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है, व्यक्त अज्ञान। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक ठीक; और जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, मकान, धन, फैलता चला जाता है। और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। अनंत है उसका विस्तार। अनंत फैल सकता है। चन्द्रमा तारे मिल जाएं, तो तृप्त नहीं होगा। और आगे भी चन्द्रमा तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।
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क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे को फैलाता चला जाता है मनुष्य । मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, तो दुख बनता है।
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*इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का पिघलना बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए दुखी था।*

जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ व्यक्ति परेशान होगा ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही मेरी पीड़ा है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता। अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता। और एक बात कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता है, जब मोह नहीं होता। परन्तु हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं।
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*इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं। अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह केवल मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब दूसरा भी अपना ही दिखाई पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर सकते हैं, "जो नहीं रहे"। बड़ी उलटी बातें हैं।*
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*जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो बचे हैं, वे केवल मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही मार्ग है। प्रेम तो मिटने का मार्ग है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं कर सकता, जिसको अपने को बचाना है।
इसलिए देखें, जितना व्यक्ति जीवन को बचाने की चेष्टा में रत होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोरी बड़ी होती जाएगी, प्रेम रिक्त होता जाएगा। घर बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता जाएगा।*
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*दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम के समाचार भी नहीं मिलेंगे। क्यों? क्या हो गया? वास्तव में समृद्ध होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता।*
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*श्री कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हूं, इस घोषणा का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है।*
*परन्तु यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती।*
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*परम हर्षोन्माद का क्षण है वह। नाच उठता है फिर रोआं-रोआं; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। परन्तु गीत अनगाए, व्यक्ति के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे नहीं। नृत्य अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था संयोजन नहीं।*
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*श्री कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन के होने का। मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, सूर्य के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।*
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इसलिए श्री कृष्ण ने इस से पूर्व के श्लोक में में कहा हे अर्जुन, दंडवत करके, विनम्रता से, अपने को छोड़कर, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को मेरे साथ एक ही जान पाता है।

= १९३ =

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*भाव भक्ति लै ऊपजै, सो ठाहर निज सार ।*
*तहँ दादू निधि पाइये, निरंतर निरधार ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजता है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस निजता से भटक जाना ही दुख है।
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श्री कृष्ण के इस श्लोक में दो बातें कही हैं। एक, स्वधर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी श्रेयस्कर है। परधर्म में सफल हो जाने की अपेक्षा स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है।
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*स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अंतःप्रकृति है, परन्तु है बीज की तरह बंद, अविकसित है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक विचलित है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, तब तक विचलित ही रहेगा। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ फूल। और कुछ हमारे पास चढाने को भी नहीं है।*
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जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक हम संताप, दुख, विचलित और तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति परधर्म को ओढ़ने का प्रयास करेगा, वह वैसी ही कठिनाई में पड़ जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने के प्रयास में पड़ जाए। गुलाब का फूल कमल होने के प्रयास में पड़ जाए, तो जैसा विचलन में गुलाब का फूल पड जाएगा। और विचलित पन दोहरी होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही होना चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। स्वभाव के प्रतिकूल होने के प्रयास भर हो सकता है, होना नहीं हो सकता।
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परधर्म को हम ओढ़ लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो स्वधर्म तब तक हमें पूरी तरह पता नहीं चलता, जब तक कि फूल खिल न जाए। गुलाब को भी पता नहीं चलता तब तक कि उसमें से क्या खिलेगा, जब तक गुलाब खिल न जाए। तो बड़ी कठिनाई है, स्वधर्म क्या है? मर जाते हैं और पता नहीं चलता, जीवन हाथ से निकल जाता है और पता नहीं चलता कि मैं क्या होने को पैदा हुआ था, परमात्मा ने किस उद्देश्य पर भेजा था? कौन सी यात्रा पर भेजा था। मुझे क्या होने को भेजा था, मैं किस बात का दूत होकर पृथ्वी पर आया था, इसका मृत्यु पर्यान्त तक पता नहीं चलता।
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न पता चलने में सबसे बड़ी जो बाधा है, वह यह है कि चारों तरफ से परधर्म के प्रलोभन विधमान हैं, जो कि पता नहीं चलने देते कि स्वधर्म क्या है। गुलाब तो खिला नहीं है, अभी उसे पता नहीं है, परन्तु बाजू में कोई कमल खिला है, कोई चमेली खिली है, कोई चंपा खिली है। वे खिले हुए हैं, उनकी सुगंध पकड़ जाती है, उनका रूप पकड़ जाता है, उनका आकर्षण, उनकी नकल पकड़ जाती है और मन होता है कि मैं भी यही हो जाऊं। बुद्ध पुरुष के पास से गुजरेंगे, तो मन होगा कि मैं भी आत्मवान हो जाऊं। खिला फूल है वहां।
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*स्वयं का कोई बोध हैं नहीं कि मैं क्या हो सकता हूं परन्तु आस-पास खिले हुए फूल दिखाई पड़ सकते हैं। और उनमें भटकाव है। क्योंकि श्री कृष्ण, इस पृथ्वी पर श्री कृष्ण के सिवाय और कोई दूसरा नहीं हो सकता है। उस दिन नहीं, आज भी नहीं, कल भी नहीं, कभी नहीं। परमात्मा पुनरुक्ति करता ही नहीं है, परमात्मा बहुत मौलिक सर्जक है। उसने अब तक पुनः एक व्यक्ति भी पैदा नहीं किया। हजारों साल बीत गए श्री कृष्ण को हुए, दूसरा कृष्ण पैदा नहीं हुआ। परन्तु लाखों लोगों ने प्रयास किया हैं की कृष्ण हो जाऊं, परन्तु कोई भी श्री कृष्ण नहीं हुआ।
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*इस पृथ्वी पर पुनरुक्ति नहीं है। पुनरुक्ति तो केवल वे ही करते हैं, जिनके सृजन की क्षमता सीमित होती है। परमात्मा की सृजन की क्षमता असीम है।* परधर्म लुभाता है, क्योंकि परधर्म खिला हुआ दिखाई पड़ता है। स्वधर्म का पता नहीं चलता, क्योंकि वह भविष्य में है। परधर्म अभी है, पड़ोस में खिला है, वह आकर्षित करता है कि मैं भी ऐसा हो जाऊं।
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श्री कृष्ण कह रहे हैं की हे अर्जुन, दूसरे के धर्म से सावधान होने की आवश्यकता है और स्वधर्म पर दृष्टि लगाने की आवश्यकता है। इस बात की खोज करने की आवश्यकता है कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की आवश्यकता है।
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*स्वधर्म का अर्थ है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना कठिन हैं, दो व्यक्ति तो खोजना बहुत ही कठिन है। सारी पृथ्वी को छान डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो कदाचित एक जैसे हों। मनुष्य बड़ी घटना है। कंकड़ों तक के संबंध में परमात्मा व्यक्तित्व देता है, तो मनुष्य के संबंध में तो देता ही है।*

शनिवार, 30 नवंबर 2019

= १९२ =

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*दादू सोई हमारा सांइयां, जे सबका पूरणहार ।*
*दादू जीवन मरण का, जाके हाथ विचार ॥*
*करणहार कर्त्ता पुरुष, हमको कैसी चिंत ।*
*सब काहू की करत है, सो दादू का दादू मिंत ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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श्री कृष्ण कहते हैं, तू सब कुछ मुझमें समर्पित करके, आशा और ममता से मुक्त होकर, विगतज्वर होकर, सब तरह के बुखारों से ऊपर उठकर, तू कर्म कर।
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इसमें दो तीन बातें समझने की हैं। एक, सब मुझमें समर्पित करके, यहां श्री कृष्ण जब भी कहें, जब भी कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यह श्री कृष्ण नाम के व्यक्ति के लिए कही गई बातें नहीं हैं। जब भी श्री कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, तो यहां वे मुझसे, मैं से समग्र परमात्मा का ही अर्थ लेते हैं।
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यहां व्यक्ति कृष्ण से कोई प्रयोजन नहीं है। वे व्यक्ति हैं भी नहीं। क्योंकि जिसने भी जान लिया कि मेरे पास कोई अहंकार नहीं है, वह व्यक्ति नहीं परमात्मा ही है। जिसने भी जान लिया, मैं बूंद नहीं सागर हूं वह परमात्मा ही है। यहां जब श्री कृष्ण कहते हैं, सब मुझमें समर्पित करके, सब कर्म भी, कर्म का फल भी, कर्म की प्रेरणा भी, कर्म का परिणाम भी सब, मुझमें समर्पित करके तू युद्ध में उतर। कठिन है बहुत। समर्पण से ज्यादा कठिन सम्भवतय और कुछ भी नहीं है। यह समर्पण, संभव हो सके, इसलिए वे दो बातें और कहते हैं।
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हम सब ज्वर से भरे हैं। बहुत तरह के ज्वर हैं। क्रोध का ज्वर है, काम का ज्वर है, लोभ का ज्वर है। इनको ज्वर क्यों कह रहे हैं, इनको ज्वर क्यों कहते हैं श्री कृष्ण? वास्तव में जिस वस्तु से भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाए, वे सभी ज्वर हैं। चिकित्सा शास्त्र के विचार से भी। क्रोध में भी शरीर का उत्ताप बढ़ जाता है। क्रोध में भी हमारा रक्तचाप बढ़ जाता है। क्रोध में हृदय तेजी से धड़कता है, श्वास जोर से चलती है, शरीर उत्तप्त होकर गर्म हो जाता है। कभी-कभी तो क्रोध में मृत्यु भी घटित होती है। यदि कोई व्यक्ति पूरी तरह क्रोधित हो जाए, तो जलकर राख हो जा सकता है, मर ही सकता है।
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पूरे तो हम नहीं मरते, क्योंकि पूरा हम कभी क्रोध नहीं करते, परन्तु थोड़ा तो मरते ही हैं, इंच-इंच मरते हैं। परन्तु जब भी हम क्रोध करते हैं, तभी उम्र क्षीण होती है, तत्सण क्षीण होती है। कुछ हमारे भीतर जल जाता है और सूख जाता है। जीवन की कोई लहर मर जाती और जीवन की कोई हरियाली सूख जाती है। क्रोध करें और देखें कि ज्वर है क्रोध। श्री कृष्ण यहां बड़ी ही वैज्ञानिक भाषा का उपयोग कर रहे हैं।
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*श्री कृष्ण जब कह रहे हैं कि ज्वर से मुक्त हुए बिना कोई समर्पण नहीं कर सकता। क्यों? विगतज्वर ही समर्पण कर सकता है, जिसके जीवन में कोई ज्वर नहीं रहा। अब यह बड़े आश्चर्य की बात है, यदि जीवन में ज्वर न रहे, तो अहंकार नहीं रहता, क्योंकि अहंकार के लिए ज्वर भोजन है। जितना जीवन में क्रोध हो, लोभ हो, काम हो, उतना ही अहंकार होता है। और अहंकार समर्पण में बाधा है। अहंकार ही एकमात्र बाधा है, जो समर्पण नहीं करने देती।*

श्री कृष्ण अवश्य इस क्षण में एक द्वार बन गए होंगे। नहीं तो अर्जुन भी प्रश्न उठाता, उठाता ही। अर्जुन छोटा प्रश्न उठाने वाला नहीं है। अर्जुन ने अनुभव किया होगा कि जो कह रहा है, वह मेरा सारथी नहीं है, जो कह रहा है, वह मेरा सखा नहीं है, जो कह रहा है, वह स्वयं परमात्मा है। ऐसी प्रतीति में यदि अर्जुन को कठिनाई लगी होगी, तो वह श्री कृष्ण के भगवान होने की नहीं, वह अपने समर्पण के सामर्थ्य न होने की कठिनाई लगी होगी। वही लगी है

= १९१ =

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*पाणी पावक, पावक पाणी, जाणै नहीं अजाण ।*
*आदि रु अंत विचार कर, दादू जाण सुजाण ॥*
*सुख मांहि दुख बहुत हैं, दुख मांही सुख होइ ।*
*दादू देख विचार कर, आदि अंत फल दोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है(तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ ह्रै वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है। और हे अर्जुन ! हम अग्नि(सदृश) न पूर्ण होने वाले कामना रूपी ज्ञानियों के नित्य वैरी से मनुष्य का ज्ञान ढंका हुआ है।
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श्री कृष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इन श्लोकों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
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*पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि ज्ञान स्वभाव है, विधमान, अभी और यहीं। ज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है। ज्ञान कोई ऐसी बात नहीं है, जो आज हमारे पास नहीं है और कल हम पा लेंगे। क्योंकि अध्यात्म मानता है कि जो हमारे पास नहीं है, उसे हम कभी नहीं पा सकेंगे। अध्यात्म की समझ है कि जो हमारे पास है, हम केवल उसे ही पा सकते हैं। यह बड़ी उलटी बात दिखाई पड़ती है। जो हमारे पास है, उसे ही हम केवल पा सकते हैं; और जो हमारे पास नहीं है, हम उसे कभी भी नहीं पा सकते हैं। इसे ऐसा कहें कि जो हम हैं, अंततः वही हमें मिलता है, और जो हम नहीं हैं, हमारे अनंत प्रयास, दौड़ धूप हमें वहां नहीं पहुंचाते, वह नहीं उपलब्ध होता, जो हम नहीं हैं।*
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जैसे धुएं में आग ढंकी हो, तो आग को पाना नहीं होता, केवल धुआं अलग हो जाए, तो आग प्रकट हो जाती है। जैसे सूरज बदलियों से ढंका हो, तो सूरज को पाना नहीं होता; केवल बदलिया हट जाएं, तो सूरज प्रकट हो जाता है। जैसे बीज ढंका है, वृक्ष को पाना नहीं है। वृक्ष बीज में है ही, अप्रकट है, छिपा है, कल प्रकट हो जाएगा। ऐसे ही ज्ञान केवल अप्रकट है, कल प्रकट हो जाएगा। इसके दो अर्थ हैं। इसका एक अर्थ तो यह है कि ....
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*अज्ञानी भी उतने ही ज्ञान से भरा है, जितना परमज्ञानी। भेद अज्ञानी और ज्ञानी में यदि हम ठीक से समझें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ थोड़ा ज्यादा होता है, धुआं ज्यादा होता है। आग तो उतनी ही होती है, जितनी ज्ञानी के पास होती है; अज्ञानी के पास कुछ और अधिक भी होता है, धुआं भी होता है। सूरज तो उतना ही होता है जितना ज्ञानी के पास होता है, अज्ञानी के पास काली बदलिया भी होती हैं। यदि इस तरह सोचें, तो अज्ञानी के पास ज्ञानी से कुछ अधिक होता है। और जिस दिन ज्ञान उपलब्ध होता है, उस दिन यह जो अधिक है, यही खोता है, यही आवरण टूटकर गिर जाता है। और जो भीतर छिपा है, वह प्रकट हो जाता है।*
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तो पहली बात तो यह समझ लेनी आवश्यक है कि अज्ञानी से अज्ञानी मनुष्य के भीतर ज्ञान पूरी तरह विद्धमान है, अंधेरे से अंधेरे में भी, गहन अंधकार में भी परमात्मा पूरी तरह विद्धमान है। कोई कितना ही भटक गया हो, कितना ही भटक जाए, तो भी ज्ञान से नहीं भटक सकता, वह उसके भीतर विद्धमान है। हम कहीं भी चले जाएं और हम कैसे भी पापी हो जाएं और कितने भी अज्ञानी और कितना ही अंधेरा और जीवन कितने ही धुएं में घिर जाए, तो भी हमारे भीतर जो है, वह नहीं खोता है। उसके खोने का कोई उपाय नहीं है।
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अज्ञान को हम क्या समझें? अज्ञान से दो अर्थ हो सकते हैं। ज्ञान का अभाव हो सकता है अज्ञान से। श्री कृष्ण का यह अर्थ नहीं है। अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, यह भी बहुत आश्चर्य की बात है कि धुआं वहीं प्रकट हो सकता है, जहां अग्नि हो। धुआं वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां अग्नि न हो। अज्ञान भी वहीं प्रकट हो सकता है, जहां ज्ञान हो। अज्ञान भी वहां प्रकट नहीं हो सकता, जहां ज्ञान न हो।
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दूसरी आश्चर्य की बात यह है कि धुआं तो बिना अग्नि के कभी नहीं होता, परन्तु अग्नि कभी बिना धुएं के हो सकती है? वास्तव में धुएं का संबंध अग्नि से इतना ही है कि अग्नि बिना ईंधन के नहीं होती। और ईंधन यदि गीला है, तो धुआं होता है, और ईंधन यदि सूखा है, तो धुआं नहीं होता। परन्तु धुआं बिना आग के नहीं हो सकता, ईंधन कितना ही गीला हो। ईंधन यदि सूखा हो, तो आग बिना धुएं के हो सकती है, दमकता हुआ अंगारा बिलकुल बिना धुएं के होता है।
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अज्ञान के अस्तित्व के लिए पीछे ज्ञान आवश्यक है, इसलिए अज्ञान ज्ञान का अभाव नहीं है, अनुपस्थिति नहीं है। अज्ञान भी बताता है कि भीतर ज्ञान विद्धमान है। अन्यथा अज्ञान भी संभव नहीं है, अज्ञान भी नहीं हो सकता है। अज्ञान केवल आवरण की जानकारी देता है। और आवरण सदा उसकी भी जानकारी देता है, जो भीतर विद्धमान है। बीज केवल आवरण की जानकारी देता है, अंडे के ऊपर की खोल केवल आवरण की जानकारी देती है। साथ में यह भी जानकारी देती है कि भीतर वह भी विद्धमान है, जो आवरण नहीं है।
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*वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा आत्मा को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा अज्ञान को हम न समझ पाएंगे। वासना को समझना आवश्यक है, अन्यथा का ज्ञान प्रकट होना असंभव है। अब यदि हम ठीक से समझें, तो ज्ञान में अज्ञान बाधा नहीं बन रहा है, ठीक से समझें, तो ज्ञान में वासना बाधा बन रही है। क्योंकि वासना ही गीला ईंधन है, जिससे कि धुआं उठता है, वासना मुक्त व्यक्ति सूखे ईंधन की भांति है।*

शुक्रवार, 29 नवंबर 2019

= १९० =

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*प्रेम भक्ति दिन दिन बधै, सोई ज्ञान विचार ।*
*दादू आतम शोध कर, मथ कर काढ़या सार ॥*
*काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि ।*
*दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विचार का अंग)*
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साभार ~ satsangosho.blogspot.com

हे पार्थ जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए सृष्टि चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है(अर्थात शास्त्र के अनुसार कर्मों को नहीं करता है), वह इंद्रियों के सुख को भोगने वाला पाप आयु पुरुष व्यर्थ ही जीता है। परंतु, जो मनुष्य आत्मा ही में प्रीति वाला और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
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क्योंकि, हम संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है और न किए जाने से भी कोई प्रयोजन नहीं है तथा उसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध नहीं है। तो भी उसके द्वारा केवल लोक हितार्थ कर्म किए जाते हैं।
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सष्टि के क्रम के अनुसार। श्रीकृष्ण पहली बात कह रहे हैं, सृष्टि के क्रम के अनुसार, इसे समझ लें, तो बाकी बात भी समझ में आ सकेगी। जीवन दो प्रकार से जीया जा सकता है। एक तो सृष्टि के क्रम के प्रतिकूल विरोध में, विद्रोह में। और एक सृष्टि के क्रम के अनुसार सहज, सरल, प्रवाह में। एक जीवन की धारा के प्रतिकूल तैरा जा सकता है और एक धारा में बहा जा सकता है। संक्षिप्त में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि दो तरह के लोग हैं। एक, जो जीवन में धारा से लड़ते हैं, उलटे तैरते हैं। और एक वे, जो धारा के साथ बहते हैं, धारा के साथ एक हो जाते हैं। सृष्टि क्रम के अनुसार दूसरी तरह का व्यक्ति जीता है, जीवन की धारा के साथ, जीवन से लड़ता हुआ नहीं, जीवन के साथ बहता हुआ। धार्मिक व्यक्ति का वही लक्षण है। अधार्मिक व्यक्ति का उसके प्रतिकूल लक्षण है।
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श्री कृष्ण कह रहे हैं की "जीवन के क्रम के अनुसार" का अर्थ है कि सारा जगत हमसे भिन्न नहीं है, हमसे अलग नहीं है। हम उसमें ही पैदा होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए जो व्यक्ति भी इस जगत की जीवन धारा से लड़ता है, वह रुग्ण हो जाता है। जो व्यक्ति भी परिपूर्ण स्वस्थ होना चाहता है, उसे जीवन के क्रम के साथ बिलकुल एक हो जाना चाहिए। इस जीवन के क्रम के आधार पर ही भारत ने जीवन की एक सहज धारणा विकसित की थी। वह मैं आपको कहना चाहूंगा।
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और शास्त्र सम्मत कर्म करने का अर्थ क्या है। श्री कृष्ण जब शास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वे ठीक वैसे ही करते हैं, जैसे आज हम विज्ञान शब्द का प्रयोग करते हैं। यदि आप एलोपैथिक चिकित्सक के पास जाते हैं, तो हम कहेंगे, आप विज्ञान सम्मत चिकित्सा करवा रहे हैं। और यदि आप किसी नीमहकीम से इलाज करवाने जाते हैं, तो हम कहेंगे, आप विज्ञान सम्मत चिकित्सा नहीं करवा रहे हैं। श्री कृष्ण जब भी कहते हैं शास्त्र सम्मत, तो श्री कृष्ण का अर्थ शास्त्र से यही है। शास्त्र का अर्थ भी गहरे में यही है। उस दिन तक जो भी जाना गया विज्ञान था, उसके द्वारा जो सम्मत कर्म हैं, उस कर्म की ओर वे इशारा कर रहे हैं।
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और जितना विज्ञान हम आज जानते हैं, वह एक अर्थ में अपूर्ण है, पूर्ण नहीं है, खंडित है। हम केवल पदार्थ के संबंध में विज्ञान को जानते हैं, जीवन के संबंध में हमारे पास अभी कोई विज्ञान नहीं है। श्री कृष्ण के सामने एक पूर्ण विज्ञान था। पदार्थ और जीवन को खंड खंड में बांटने वाला नहीं, अखंड इकाई में स्वीकार करने वाला। उस विज्ञान ने जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। जैसे व्यक्तियों को चार प्रकार में बांट दिया था, ऐसे एक एक व्यक्ति के जीवन को चार हिस्सों में बांट दिया था। वे हिस्से जीवन की धारा के साथ थे।
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पहले हिस्से को हम कहते थे, ब्रह्मचर्य पच्चीस वर्ष। यदि सौ : वर्ष मनुष्य की आयु स्वीकार करें, तो पच्चीस वर्ष का काल ब्रह्मचर्य आश्रम का था। दूसरे पच्चीस वर्ष गृहस्थ आश्रम के थे, तीसरे पच्चीस वर्ष वानप्रस्थ आश्रम के थे और चौथे पच्चीस वर्ष संन्यास आश्रम के थे। पहले पच्चीस वर्ष जीवन प्रभात के हैं, जब कि ऊर्जा जगती है, शरीर सशक्त होता है, इंद्रियां बलशाली होती हैं, बुद्धि तेजस्वी होती है, जीवन उगता है सुबह। इस पच्चीस वर्ष के जीवन को हमने ब्रह्मचर्य आश्रम कहा था।
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श्री कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, जो इस भांति शास्त्र-सम्मत जीवन की कर्म व्यवस्था में प्रवेश करता है, अनुकूल जीवन के बहता है, वह इंद्रियों के सुखों को तो उपलब्ध हो ही जाता है, अंततः आत्मा के आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है। और इस जीवन के क्रम में प्रवाहित होकर अंत में जरूर वह ऐसे स्थान पर पहुंच जाता है, जब करने और न करने में कोई भेद नहीं रहता।
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अर्जुन से वे यह कह रहे हैं कि अभी,अभी तू उस स्थान में नहीं है, जहां से तू संन्यस्त हो सके। अभी तू उस जगह नहीं है जीवन के क्रम में, जहां से तू मुक्त हो सके कर्म से। अभी तुझे करने और न करने में समानता नहीं हो सकती। अभी तू यदि न करने को चुनेगा, तो भी चुन।

= १८९ =

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*दादू मेरा वैरी मैं मुवा, मुझे न मारै कोइ ।*
*मैं ही मुझको मारता, मैं मरजीवा होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवित मृतक का अंग)*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com

*श्री कृष्ण कहते हैं, अपनी शक्ति को पहचानकर, और अपनी शक्ति परमात्मा की ही शक्ति है, और अपनी परम ऊर्जा को समझकर, और अपनी परम ऊर्जा परमात्मा की ही ऊर्जा है, इंद्रियों को वश में कर मन से, मन को वश में ला बुद्धि से और बुद्धि की बागडोर दे दे परमात्मा के हाथ में। और फिर इस दुर्जय काम के तू बाहर हो जाएगा, इस दुर्जय वासना के तू बाहर हो जाएगा।*
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जो जितना गहरा है, उतना ही परमसत्य है, और जो जितना गहरा है, उतना ही शक्तिवान है, और जो जितना गहरा है, उतना ही भरोसे योग्य है। जो जितना ऊपर है, उतना भरोसे योग्य नहीं है। लहरें भरोसे योग्य नहीं हैं, सागर की गहराई में भरोसा है। ऊपर जो है, वह केवल आवरण है, गहरे में जो है, वह आत्मा है। इसलिए तू ऊपर को गहरे पर मत आरोपित कर, गहरे को ही ऊपर को संचालित करने दे। और एक एक कदम श्री कृष्ण पीछे हटाने की बात करते हैं। कैसे?
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इंद्रियों को मन से। साधारणत: इंद्रियां अभ्यास के अनुसार चलती हैं, मन के अनुसार नहीं, क्योंकि मन के अनुसार हमने उन्हें कभी चलाया नहीं होता। इंद्रियां अभ्यास के अनुसार चलती हैं। इंद्रियों से हम इतने वशीभूत होकर जीते हैं कि इंद्रियां जब अड़चन में होती हैं, तभी मन की आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा मन को वे कहती हैं कि तुम आराम करो, तुमसे कोई लेना देना नहीं है, हम अपना काम कर लेंगे। पता ही नहीं चलता।
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हमने सारा काम अपनी इंद्रियों पर सौंप दिया है, अब वे हमें चलाती रहती हैं। मन को बीच में कब लाया जाएगा, जब हम मन को केवल सेवा के लिए न लाते हों, स्वामी के लिए लाते हों। बुद्धि को हम तभी बीच में लाते हैं। जब मन उलझ जाता है, उलझ जाता अर्थात यह कि हम जब कोई ऐसी वस्तु पाते हैं जो मन हल नहीं कर पाता, कोई संशय खड़ा हो जाता, मन के बाहर होता।
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यह जो बुद्धि है, इसको भी सब कुछ न सौंप दें, क्योंकि यह भी परम नहीं है। परम तो इसके पार है, जहां से यह बुद्धि भी आती है। तो यह भी हो सकता है, एक व्यक्ति बुद्धि से मन को वश में कर ले, मन से इंद्रियों को वश में कर ले, परन्तु बुद्धि के वश में हो जाए तो अहंकार से भर जाएगा। बुद्धि अहम् हो जाएगी। बुद्धि बहुत अहंकारी है। वह कहेगा, मैं जानता, सब मुझे पता है। मैंने मन को भी जीता, इंद्रियों को भी जीता, अब मैं बिलकुल ही अपना सम्राट हो गया हूं। तो यहां भी अटक जायेगा बुद्धि सोच सकती है, विचार सकती है। परन्तु जीवन का सत्य अगम है, बुद्धि की पकड़ के बाहर है। बुद्धि कितना ही सोचे, सोच-सोचकर कितना ही पाए फिर भी जीवन एक रहस्य है, और उसके द्वार बुद्धि से नहीं खुलते।
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हां, बुद्धि भी जब उलझती है, तब परमात्मा को याद करती है। परन्तु जब तक सुलझी रहती है, तब तक कभी याद नहीं करती। धंधा बिलकुल ठीक चल रहा है, दुकान ठीक चल रही है, पैसा ठीक आ रहा’ है, लाभ ठीक हो रहा है, गणित ठीक हल हो रहा है, विज्ञानं की खोज ठीक चल रही है, परमात्मा की कोई याद नहीं आती। जब दुख में पड़ती है बुद्धि, तब परमात्मा की याद आती है। जब उलझती है, जब लगता है, अपने से अब क्या होगा?
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जो हम कर सकते थे, वह हम कर चुके। जो हम कर सकते हैं, वह हम कर रहे हैं। परन्तु अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। तब एकदम हाथ जुड़ जाते हैं कि हे भगवान ! तू कहां है? परन्तु अभी तक कहां था भगवान? यह डाक्टर की बुद्धि थक गई, अपनी बुद्धि थक गई, अब भगवान है?
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नहीं, इतने से नहीं चलेगा। जब बुद्धि हारती है, तब समर्पण का कोई आनंद नहीं। हारे हुए समर्पण का कोई अर्थ है? जब बुद्धि जीतती है और जब सुख चरणों पर लोटता है और जब लगता है, सब सफल हो रहा है, सब ठीक हो रहा है, बिलकुल सब सही है, तब जो व्यक्ति परमात्मा को स्मरण करता है, उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा के वश में हो जाती है।
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*इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के हाथ में, बुद्धि को दे दें परम सत्ता के हाथ में।*

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

= १८८ =

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*दादू जब लग जीविये, सुमिरण संगति साध ।*
*दादू साधू राम बिन, दूजा सब अपराध ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न केवल कुतूहल होते हैं। जैसे छोटे बच्चे कुछ भी प्रश्न कुतूहल में पूछे हैं, कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी उत्तर की चिंता नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक कुतूहल आगे बढ़ गया होता है।
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*इसलिए श्रीकृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है।*
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दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो,। कुतूहल नहीं है; सच में ही जानना चाहता है एक व्यक्ति। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, ऐसा नहीं, चलते थे रास्ते से, पूछ लिया, ऐसा नहीं। सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। परन्तु आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, परन्तु जिससे जानना चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन सकती है।
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वह ठीक ऐसा ही है कि एक व्यक्ति बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; परन्तु झुकना नहीं चाहता है कि झुके और पानी भर ले; तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं को ही नदी तक झुकना पड़ता है। इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके।
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ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुकने में राज क्या है? झुकने का इतना आग्रह क्या है?
दंडवत यहाँ प्रतीकात्मक है। दंडवत का अर्थ यह नहीं है कि सच में ही कोई व्यक्ति सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले द्वार में ही ग्राहकता पैदा होती है।
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जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, अभी समय नहीं आया। *शिष्य होना होता हैं, शिष्य होने का अर्थ है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र होने को राजी है। क्योंकि विनम्रता में ही द्वार खुलता है। जब हम झुकते हैं, तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हुए व्यक्ति के द्वार बंद होते हैं।*
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इसलिए श्री कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है !
दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन प्रश्न नहीं पूछता है? जो व्यक्ति दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह, वह व्यक्ति है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मुझे तो स्वयं ही पता है। ऐसे ही पूछे रहे हैं कि यदि इनको भी पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का।
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इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से।
परन्तु प्रश्न पूछने वाले आते हैं; तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठें? प्रश्न क्या पूछना है, सम्भवतय प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।
उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते हैं, और हो जाना चाहते हैं।
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दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि बड़ी भ्रांतियां हैं। पैर छूना उस क्षण दंडवत बन जाता है, जिस क्षण हमे पता ही नहीं चलता कि हम पैर छू रहे हैं। पता ही तब चलता है, जब पैर छूने की घटना घट गई होती है, जब कहीं सिर रख जाता है किसी चरण पर। तब ध्यान रहे, जब ऐसी मनोदशा में सिर रख जाता है किसी चरण पर, तो प्रार्थना घटित हो जाती है, ध्यान घटित हो जाता है। तो ऐसे क्षण में वह विनम्रता घटित हो जाती है, जो शिष्यत्व है।
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*जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर पैर रखना चाहता है, तो मौन से, प्रेम से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त, यदि दूसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो आश्चर्य क्या है?
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*ध्यान रहे कि दंडवत प्रणाम हमारे भारत में एक बहुत वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। प्रत्येक व्यक्ति का शरीर विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह विद्युत-ऊर्जा कोणों से, से बहती है, हाथों की अंगुलियों से और पैर की अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है, समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो जाती है। उसके पैरों पर यदि सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़ जाता है। उसके हाथों से भी यह होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ सिर पर रखकर आशीष देने का रिवाज था।*
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यदि किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी आपके सिर पर हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर विद्युत-धारा बन जाती हैं और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे परिणाम हैं।
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परन्तु जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ हो जाते हैं। जीवन के बहुत-से सत्य व्यर्थ लोगों के हाथ में पड़कर घातक भी हो जाते हैं।
दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, उससे ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा श्री कृष्ण कहते हैं।

= १८७ =

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*समर्थ सो सेरी समझाइनैं, कर अणकर्ता होइ ।*
*घट घट व्यापक पूर सब, रहै निरंतर सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ समर्थता का अंग)*
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जैसे हम भोजन कर रहे हैं। भोजन करते हुए भी जाना जा सकता है कि हम भोजन नहीं कर रहे हैं। यदि साक्षी हों, तो हम देखेंगे कि शरीर को ही भूख लगी है, शरीर ही भोजन कर रहा है, मैं देख रहा हूं। कठिन नहीं है। थोड़े से जागकर देखने की बात है। घर के लोग थोड़े हैरान हुए। वे राम की भाषा से परिचित न थे। राम को मिल गए ! ऐसा खुद राम कह रहे हैं?
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*जब हम भोजन कर रहे हैं, तो राम भोजन कर रहे हैं; हम जरा खड़े होकर देखें। हम जरा पीछे खड़े हो जाएं और देखें कि राम भोजन कर रहे हैं। राम को भूख लगी, राम को नींद लगी, हम खड़े पीछे देख रहे हैं। यह पीछे खड़े होकर देखने की कला ही कर्म को अकर्म बना देती है। तब व्यक्ति करते हुए न करने जैसा हो जाता है।*
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और इससे भी जटिल बात दूसरी श्री कृष्ण कहते हैं कि तब न करते हुए भी कर्ता जैसा हो जाता है। वह और भी कठिन है बात समझनी। यह तो पहली बात समझ में आ सकती है कि यदि साक्षी-भाव हो, तो कर्म होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि मैं कर रहा हूं; देख रहा हूं कि हो रहा है। दूसरी बात और भी गहरी है कि न करते हुए भी कर रहा हूं। इसका क्या अर्थ हुआ?
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*वास्तव में जब कोई व्यक्ति पहली घटना को उपलब्ध हो जाता है कि करते हुए न करने को अनुभव करने लगता है, तब अनिवार्य रूप से दूसरी गहराई भी उपलब्ध हो जाती है कि वह न करते हुए भी अनुभव करता है कि कर रहा हूं। क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं साक्षी हूं, वह व्यक्ति अपने को स्वयं से तो तोड़ लेता है और सर्व से जोड़ देता है। जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि मैं नहीं कर रहा हूं, सब हो रहा है, मैं देख रहा हूं, उसका परमात्मा और उसके बीच तादात्म्य हो जाता है।*
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*फिर वह कुछ भी नहीं करता। हवाएं चल रही हैं, तो भी वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं। चन्द्रमा, तारे घूम रहे हैं, तो वह जानता है, मैं ही चला रहा हूं।*
*वह जो भीतर है, यदि जान ले कि मैं साक्षी हूं, तो परमात्मा के साथ एक हो जाता है। फिर जो भी हो रहा है, वही कर रहा है। फिर वह यदि खाली भी बैठा हुआ है, तो भी वही कर रहा है। हवाएं भी वही चला रहा है, वृक्ष भी वही उगा रहा है, फूल भी वही खिला रहा है। वह जो बैठा हुआ है वृक्ष के नीचे आंखें मूंदे हुए, वही चन्द्रमा, तारे और सूरज भी चला रहा है।* परन्तु वह दूसरी घटना है। पहले तो कर्म में अकर्म का अनुभव हो, तो फिर अकर्म में कर्म का अनुभव होता है।
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*और जो इस गहन प्रतीति को उपलब्ध हो जाता है, श्री कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान को, सत्य को, सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता है।* और साथ ही आपसे यह भी कह दूं कि जो व्यक्ति साक्षी बन जाता है, उसे निषिद्ध कर्म क्या है, यह पहले से तय नहीं करना पड़ता। जब भी आवश्यकता होती है, जैसे ही वह साक्षी होता है, दिखाई पड़ जाता है कि यह निषिद्ध है और यह निषिद्ध नहीं है। इसे सोचना नहीं पड़ता। उसकी अवस्था ठीक ऐसे हो जाती है।
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जैसे एक अंधेरा कमरा है, उसमे एक अंधा व्यक्ति है; उसे कमरे के बाहर जाना है, तो वह पूछता है, द्वार कहां है? स्वभावतः, अंधे व्यक्ति को दरवाजे का पता नहीं है। वह पूछता है, द्वार कहां है? यदि कोई बता दे, तो भी कुछ भेद नहीं पड़ता। अनुमान हो जाता है; फिर भी लकड़ी से टटोलता है कि द्वार कहां है? बता दिया, तो भी टटोलता है, तो भी सीधे दरवाजे पर थोड़े ही पहुंच जाता है। कौन टटोलने वाला सीधा पहुंच सकता है? कभी खिड़की को छूता है, कभी कुर्सी को छूता है। फिर टटोल-टटोलकर कहां द्वार है, पता लगाता है।
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परन्तु आंख वाला व्यक्ति? आंख वाला आदमी पूछता नहीं, दरवाजा कहां है? निकलना है; उठता है और निकल जाता है। यदि हमने कभी विचार किया हो, जब हम दरवाजे से निकलते हैं, पहले सोचते हैं, दरवाजा कहां है, फिर देखते हैं कि यह रहा दरवाजा। फिर सोचते हैं, इसी से निकल जाएं। फिर निकल जाते हैं। ऐसी कोई प्रक्रिया होती है? नहीं; हमे पता ही नहीं चलता कि द्वार कहां है और हम निकल जाते हैं। दिखता है, तो दरवाजे से निकल जाते हैं।
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*ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति की साक्षी-भावना गहरी हो जाती है, उसे दिखाई पड़ता है, निषिद्ध कर्म क्या है। दिखाई पड़ता है। टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, शास्त्र नहीं खोलने पड़ते। बस, दिखाई पड़ता है कि निषिद्ध कर्म क्या है। और जो निषिद्ध है, वह फिर नहीं किया जा सकता। और जो निषिद्ध नहीं है, वही किया जा सकता है। बस, वह निकल जाता है। आप उससे पूछेंगे, तो उसको पीछे पता चलेगा कि मैंने वह कर्म नहीं किया। उसे पता नहीं चलता कि मैंने नहीं किया, क्योंकि इतना पता चलना भी केवल अंधों के लिए है। साक्षी-भाव आंख बन जाता है।*