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बुधवार, 1 अगस्त 2018

*विषय का अंग १५४(४५/४८)*

🌷🙏 🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
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ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै । 
दादू दिन दिन देखतां, अपने गुण मेलै ॥
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विषय का अंग १५४*
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जिन कसण्यों१ काया पड़ै, सो सब थोड़ी जानि ।
रज्जब रामा२ मिल मुये, उभय सुरति३ की हानि ॥४५॥
जिन कष्टों१ में शरीर पड़ता है, उन कष्टों को नारी२ संयोग से होने वाले कष्ट से कम ही जानों । नारी से मिलकर मरने से व्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों ही वृत्तियों३ की हानि होती है ।
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संकट स्वल्प१ शरीर लग, दुखी नहिं इहिं द्वंदि२ ।
रज्जब नर नारी मिले, सदा सुरति विष बंदि३ ॥४६॥
शरीर के अंत तक जितने दु:ख आते हैं वे सभी नर नारी के मिलन से बहुत कम१ हैं । द्वन्द्वों२ से भी नर ऐसा दु:खी नहीं होता, जैसा नर नारी मिलकर होता है । नारी मिलने पर तो वृत्ति सदा विषय विष की ही कैद३ में ही रहती है अर्थात विषयाकार ही रहती है ।
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माता सब बाबों बंधी, बाबा मात हुं मांहिं ।
जन रज्जब जग यूं जड्या, कोई छुटे नांहिं ॥४७॥
नारी सब नरों से बंधी है और नर सभी नारी प्रेम में बंधे है । इस प्रकार जगत् के जीव एक दूसरे के स्नेह में जटित हैं । कोई भी छूट नहीं सकता ।
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रज्जब जग जोड़े जड़े, चौरासी लख जंत ।
एका एकी एक सूं, सो कोई बिरला संत ॥४८॥
जगत् के सभी चोरासी लाख जीव जोड़े में जटिल हैं अर्थात जोड़े से ही रहते हैं । कोई बिरला संत ही अकेला रहता हुआ एक प्रभु मे अनुरक्त रहता है ।
(क्रमशः)

शनिवार, 27 दिसंबर 2014

#daduji 

तुलसी नामक व्यक्ति ने पू़छा- स्वामिन् ! भक्त अविनाशी ब्रह्म का स्वरूप कब होता है ? दादूजी ने कहा-
परिचय पीवे राम रस, सो अविनाशी अंग ।
काल मीच लागे नहीं, दादू सांई संग ॥ ३४१ ॥
उक्त उत्सव में एक डोंगसी नामक सज्जन भी आये थे । उन्होंने पू़छा- भगवन् ! आपने कहा कि ज्ञानी भक्त को काल नहीं खाता है सो उसमें क्या कारण है ? क्यों नहीं खाता है ? दादूजी ने कहा-
परिचय पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥ ३४४ ॥
फिर डोंगसी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं । फिर पूरा नामक व्यक्ति ने पू़छा- भगवन् ! इस संसार में रहते हुये साधक काम क्रोधादि दुर्गुणों से और इस संसार के कैसे छूटते हैं ? दादूजी ने कहा-
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कु़छ व्यापे नहीं, ते छूटे संसार ॥ ३४३ ॥
फिर पूरा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।

मंगलवार, 2 दिसंबर 2014

#daduji ~

आलण्यास प्रसंग ~
दादू जे तूं समझे तो कहूं, साँचा एक अलेख । 
डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावे भेख ॥ १० ॥
( भेष अंग १४ )
रज्जबजी के शिष्य आलण्यास के ठाकुर के आग्रह से रज्जबजी दादूजी को शिष्यों सहित आलण्यास लाये थे । वहां सत्संग चलने लगा । एक दिन आलण्यास के बोहिथ नामक व्यक्ति सुन्दर भेष धारण करके दादूजी के सम्मुख बैठे थे । उनको देखकर दादूजी ने उक्त साखी बोली थी ।
फिर कहा- 
दादू सच बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।
भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥ ४१ ॥
दादूजी के उक्त वचन सुनकर बोहिथ ने पू़छा- स्वामिन् ! फिर सच्चा साधन बतावे की कृपा करें जिसे मैं भी कर सकूं । तब दादूजी ने कहा-
दादू साँचा हरि का नाम है, सो ले हिरदै राखि ।
पाखंड प्रपंच दूर कर, सब साधों की साखि ॥ ४२ ॥
(भेष अंग १४)
रहैं नियारा सब करे, काहू लिप्त न होय ॥ 
आदि अंत भाने घड़े, ऐसा समर्थ सोय ॥ ३० ॥
बिन गुण व्यापे सब किया, समर्थ आपै आप ।
निराकार न्यारा रहै, दादू पुन्य न पाप ॥ ३३ ॥
( समर्थता अंग २१ )
आलण्यास में रामदास नामक व्यक्ति ने सत्संग समाप्ति पर दादूजी को कहा- संसार को ईश्वर रचते हैं, तब तो उनको इस रचना कार्य में समय-समय हर्ष-शोक भी होता ही होगा । तब दादूजी ने उसको उक्त दोनों साखियाँ सुनाकर समझाया था । फिर वह प्रसन्नता से दादूजी को प्रणाम करके घर चला गया ।
दादू सबहि दिशा सो सारिखा, सबहि दिशा मुख बैन । 
सबहि दिशा श्रवणहुँ सुने, सबहि दिशा कर नैन ॥ २१२ ॥
सबहि दिशा पग शीश है, सबहि दिशा मन चैन ।
सबहि दिशा सन्मुख रहे, सबहि दिशा अंग ऐन ॥ २१३ ॥
(परिचय अंग ४)
आलण्यास में सत्संग के अन्त में टीकम नामक व्यक्ति ने दादूजी से पू़छा - स्वामिन् ! ईश्‍वर कहां रहते है? तब दादूजी ने उक्त दोनों साखियों से उत्तर दिया था । फिर वह दादूजी का शिष्य हो गया था । ये सौ शिष्यों में हैं ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

#daduji

||दादूराम सत्यराम||
दादू अबिहड़ आप है, कबहूँ बिहड़े नांहि ।
घटै बधै नहीं एक रस, सब उपज खपै उस मांहि ॥ ९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! आप स्वयं सत्यस्वरूप परमात्मा, न बदलने वाला है । कभी भी उसके चैतन्य स्वरूप में परिवर्तन नहीं आता है । वह न तो कभी घटता है, न कभी बढ़ता है, उसका सदैव एकरस स्वरूप रहता है । नाम रूप सम्पूर्ण वस्तुएँ मायावी हैं उसी में उत्पन्न होती हैं और उसी में समय पाकर विलय हो जाती हैं । जैसे फेन, तरंग, बुदबुदे, लहर, जल से उत्पन्न होकर जल में ही विलय होते रहते हैं ॥ ९ ॥

अबिहड़ अंग बिहड़ै नहीं, अपलट पलट न जाइ ।
दादू अघट एक रस, सब में रह्या समाइ ॥ १० ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह चैतन्य ब्रह्मस्वरूप कूटस्थ, कभी पलटता नहीं है । और न उसमें आने - जाने रूप क्रिया ही है । और फिर ‘अघट’ कहिये वह बेसी कमती भाव को कभी प्राप्त नहीं होता । सबमें सूत्र आत्मारूप से समा रहा है, उसी में अपने मन को लगाइये ॥ १० ॥
हरि अबिहड़ अविनाशि है, सिरजे की प्रतिपाल । 
जगन्नाथ बिसरै नहीं, सुख दुख सब ही काल ॥
अपलट सो पलटै नहीं, अविहड़ बिहर न जाहिं । 
हरि हरिजन जगन्नाथ ये, उभै अडिग जग माहिं ॥

अन्त समय की साखी
जेते गुण व्यापैं जीव को, तेते तैं तजे रे मन ।
साहिब अपणे कारणैं,(भलो निबाह्यो प्रण) ॥ ११ ॥
इति अबिहड़ का अंग सम्पूर्ण ~ ३७ ॥ साखी ११ ॥

टीका ~ ब्रह्मऋषि जगत्गुरु दादूदयाल जी महाराज कहते हैं कि हे मन ! जितने गुणों के विकार, विषय - वासना, अनात्म - अहंकार आदि तैंने अपने स्वस्वरूप ब्रह्म प्राप्ति के लिये त्यागे । यह तैंने अपना प्रण इस मनुष्य देह में बहुत अच्छा निभाया । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करी तैंने, तुझे धन्यवाद है । यह साखी अन्त समय में, परम गुरुदेव महाराज ने उच्चारण की थी ॥ ११ ॥
इति अविहड़ का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ~ ३७ ॥ साखी ११ ॥

“अनन्त विभूषित श्री ब्रह्मऋषि जगद्गुरु श्री दादूदयाल जी महाराज की अनुभव वाणी”, पूवार्द्ध भाग की सजीवनी टीका दृष्टान्तों सहित रची -

द्वारा ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी ।

इति ~ ॐ शान्ति ! शान्ति ! शान्ति !

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शुभ सूचना ~ सद्गुरुदेव श्रीमद् दादूदयालजी महाराज की असीम, अहैतुकी अनुकम्पा से उनकी “श्री दादू अनुभव वाणी” का नित्य प्रकाशन फेसबुक पर श्री दादू प्राकट्य जयंती(चैत्रीय नवरात्र की अष्टमी) वि. सं. २०६८(ईस्वी 31/03/2012) से प्रारंभ हुआ | आज शारदीय नवरात्र, वि. सं. २०७१(ईस्वी 25/09/2014) को अत्यन्त सुखद एवं अद्भुत संयोग बना है कि आज ही “वाणी जी” के पूर्वार्ध(साखी भाग) का प्रकाशन यहाँ पूर्ण हो रहा है | अतैव आजसे ही “वाणी जी” के उत्तरार्ध(शब्द भाग) प्रारंभ करनेका आनंदोत्सव है |

गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज की विशेष कृपा से, महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी रचित टीका वाली “वाणी जी” का यह विद्युत् संस्करण हमें प्राप्त हुआ |

सभी संतों महापुरुषों को बारम्बार सत्यराम सहित सादर दण्डवत् ..... कृपा वृष्टि बनी रहे .....

बुधवार, 24 सितंबर 2014


||दादूराम सत्यराम||
दादू अबिहड़ आप है, साचा सिरजनहार ।
आदि अंत बिहड़ै नहीं, बिनसै सब आकार ॥ ७ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह सत्य स्वरूप परमात्मा अपरिवर्तनीय है और आदि से अन्त तक चैतन्य शक्ति एकरस रहती है, कभी उसका उत्पत्ति नाश नहीं होता । काल का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । अपने मन को उसी में लगा ॥ ७ ॥

दादू अबिहड़ आप है, अविचल रह्या समाइ ।
निहचल रमता राम है, जो दीसै सो जाइ ॥ ८ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ‘अबिहड़’ कहिए, आप स्वयं न बदलने वाला परमात्मा अविनाशी, अचल, कृपालु, सर्वव्यापक, एकरस, निर्गुण राम है । ‘जो दीसै सो जाइ’ - अर्थात् नामरूप आकार वाली सम्पूर्ण वस्तुएँ, काल पाकर नष्ट हो जाती हैं । इसलिये उस चैतन्य स्वरूप में अपने मन को लगाओ ॥ ८ ॥

मंगलवार, 23 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
दादू संगी सोई कीजिये, जे कबहूँ पलट न जाइ ।
आदि अंत बिहड़ै नही, ता सन यहु मन लाइ ॥ ५ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ऐसा साथी बनाइये, जिसका कभी परिवर्तन नहीं होता है । और काल द्वारा आदि से अन्त पर्यन्त, कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होता । ऐसे सच्चिदानन्द स्वरूप, अधिष्ठान चेतन से अपना मन लगाइये ॥ ५ ॥
हरि सा मिंत मंडाण में, नाहिंन कहुँ कबीर । 
जत बिसरै बिसरै नहीं, स्वारथ बिना सधीर ॥

दादू अबिहड़ आप है, अमर उपावनहार ।
अविनाशी आपै रहै, बिनसै सब संसार ॥ ६ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! आप सृष्टि रचयिता परमेश्वर अविनाशी, वह आप स्वयं न बदलने वाला है । और बाकी माया और माया का कार्य सम्पूर्ण संसार परिर्वतनशील है । उसी अमर पुरुष में अपने मन को लगाकर अमरभाव को प्राप्त होइये ॥ ६ ॥

सोमवार, 22 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
दादू संगी सोई कीजिये, जे थिर इहि संसार ।
ना वह खिरै, न हम खपैं, ऐसा लेहु विचार ॥ ३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! उस अविनाशी आत्म - स्वरूप परमात्मा को अपना संगी बनाइये, जो इस संसार में सदैव स्थिर रहता है । न तो वह कभी खिरता है और उसका संग करके, न हम मुक्त पुरुष, उसमें अभेद होकर नष्ट ही होते हैं । ऐसे अविनाशी स्वरूप का विचार करके, हे मुमुक्षुओ ! उसी के साथ अपनी वृत्ति को लगाओ ॥ ३ ॥

दादू संगी सोई कीजिये, सुख दुख का साथी ।
दादू जीवन - मरण का, सो सदा संगाती ॥ ४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह अविनाशी समर्थ परमेश्वर, सच्चा साथी है । उसी का संग कहिये शरणा लेना चाहिये । क्योंकि जन्म से मरण पर्यन्त, सुख - दुःख में वही इस जीव का साथ देता है और सदैव वह इसके साथ रहता है ॥ ४ ॥

‘जैमल’ जासौं प्रीति करि, जो जग अक्षै रु पास । 
ना वह मरै न बीछुरै, ना तुम होहु निरास ॥

मित्र मृग मूसा जिसे, काग कछू चहुँ यार । 
दुख सुख में बिहड़ै नहीं, त्यूं हरिजन हरि लार ॥
दृष्टान्त ~ कव्वा और मृग में गहरी मित्रता थी । सच्चे मित्र जानकर एक मूसा भी आकर उनका मित्र बन गया । चोथा कछुवा एक नदी के किनारे, इन तीनों से बोला ~ कि आप लोग भी, मुझे अपना मित्र बना लो । बना लिया । यह चारों आपस में सुख - दुःख में एक को एक साथ देते रहे । कभी भी मित्र से मित्र अलग नहीं हुए । इसी प्रकार हरिजन जो भक्त हैं, उनसे कभी भगवान भी अलग नहीं होते हैं । उनकी रक्षा करते है । यह दृष्टान्त पहले आ चुका है ।

रविवार, 21 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
अथ अबिहड़ का अंग ३७ -

“दादू अमर फल खाइ” - इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप बेली के अंग के तदनन्तर, अब अबिहड़ का अंग निरूपण करते हैं ।

मंगलाचरण -
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥ १ ॥
टीका ~ अब हरि, गुरु, संतों को नमो, नमस्कार, वन्दना प्रणाम आदि करके ‘अबिहड़’ कहिये, न बदलने वाले स्वरूप निरंजनदेव, अर्थात् उस एक अद्वैत अविनाशी ब्रह्मतत्व का विचार करने के लिए अज्ञान से पार होकर, नित्य संयोग को समझ कर, ब्रह्म में अभेद होते हैं ॥ १ ॥

दादू संगी सोई कीजिये, जे कलि अजरावर होइ ।
ना वह मरै, न बीछूटै, ना दुख व्यापै कोइ ॥ २ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उसी को अब साथी बनाइये, जो इस कलि संसार में, अजर अमर स्वरूप है, वह न तो मरता है और न बिछुड़ता है । न उसको किसी प्रकार का दुख व्याप्त होता है ॥ २ ॥
आदि मध्य अरु अंत लौं, हरि है सदा अभंग ।
कबीर उस कर्तार का, सेवक तजै न संग ॥



शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
अमृत बेली बाहिये, अमृत का फल होइ ।
अमृत का फल खाइ कर, मुवा न सुणिया कोइ ॥ १३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! अन्तर्मुख विवेक - बुद्धि रूप बेली को, निष्काम भक्ति में लगाइये, तो फिर उस बुद्धि रूप बेली के ज्ञानरूपी अमृत फल लगेगा । उसको भक्षण करने वाले उत्तम साधक, न तो कोई मरे हैं और न आगे मरेंगे । जीवन - मुक्त हो जावेंगे ॥ १३ ॥

दादू विष की बेली बाहिये, विष ही का फल होइ ।
विष ही का फल खाय कर, अमर नहिं कलि कोइ ॥ १४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! बहिर्मुख बुद्धि रूप बेली कुसंग में लगी हुई है तो विषय रूपी जल को पीने से चौरासी में जीव जाते हैं । फिर चौरासी के दुःखों को भोगते रहते हैं । ऐसे जीव कलियुग में कभी भी अमर नहीं होते ॥ १४ ॥

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
दादू बहु गुणवंती बेलि है, ऊगी कालर मांहिं ।
सींचै खारे नीर सौं, तातैं निपजै नांहिं ॥ ११ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! बुद्धि रूपी बेली बहुत गुणवान है, परन्तु विषय - वासना रूप कालर भूमि में स्थिर हो रही है और इन्द्रियों के विषय रूपी खारे नीर को पीकर क्षीण होती जाती है । वह बुद्धि ब्रह्म अनुसरणी नहीं बनती, इसीलिये अमर फल से वंचित रहती है ॥ ११ ॥

बहु गुणवंती बेली है, मीठी धरती बाहि ।
मीठा पानी सींचिये, दादू अमर फल खाहि ॥ १२ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! मनुष्य की बुद्धिरूपी बेली बहुत गुणवान है । इसको सत्संग रूपी मीठी धरती में लगाइये और फिर निष्काम नाम - स्मरण रूपी मीठे जल से सींचिये । फिर उस बुद्धि रूप बेली का ज्ञान अमृत रूपी फल खाकर साधक जीवन मुक्त हो जाता है ॥ १२ ॥

बुधवार, 17 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
जे घट रोपै राम जी, सींचै अमी अघाइ ।
दादू लागै अमर फल, कबहूँ सूख न जाइ ॥ ९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो उत्तम साधक, इस घट रूप अन्तःकरण में निर्गुण ब्रह्मरूप राम को धारण करेअथवा इस शरीर को अद्वैत सत्संग में रोपे, और फिर अन्तःकरण में अद्वैत नाम - चिन्तन रूप ग्राहक बहावे । फिर इस प्रकार तृप्त होने से, जीवन मुक्ति रूप अखंड फल, इस मनुष्य शरीर में प्राप्त होता है । उसका मनुष्य - जन्म फिर व्यर्थ नहीं जाता ॥ ९ ॥

दादू अमर बेलि है आत्मा, खार समंदां मांहिं ।
सूखे खारे नीर सौं, अमर फल लागे नांहिं ॥ १० ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ‘अमर बेलि’ कहिए साधक की अन्तर्मुख वृत्ति, संसार में आसक्ति रखने वाली विषय - वासना रूपी खारे जल को पीकर आत्म - भावना की तरफ से सूख गई है । उस बुद्धिरूप बेलि के, ज्ञान अमृत रूप फल नहीं लगता है ॥ १० ॥

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
दादू सूखा रूंखड़ा, काहे न हरिया होइ ।
आपै सींचै अमीरस, सुफल फलिया सोइ ॥ ७ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह स्थूल शरीर रूपी वृक्ष, ज्ञान - भक्ति रूप जल प्राप्त किये बिना सूख रहे हैं । अब किस प्रकार हरे होवें ? यदि उत्तम भाग्य से सच्चे ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु मिलें और वे अपने सत्य उपदेश अमृत रूप जल से सींचें, तो फिर उन शरीर रूपी वृक्षों के ज्ञान अमृत रूप फल लगें ॥ ७ ॥

कदे न सूखै रूंखड़ा, जे अमृत सींच्या आप ।
दादू हरिया सो फलै, कछू न व्यापै ताप ॥ ८ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जो चतुर साधक, इस काया रूप वृक्ष को अर्थात् अन्तःकरण में, निष्काम नाम - चिन्तन रूप जल से सींचे, तो भाव - भक्ति रूप हरियाली वाला बना रहे और आत्म - परिचय रूपी ज्ञान - फल से फले । फिर उस फल को उत्तम साधक खाकर जन्म - मरण रूप संताप से मुक्त होवे ॥ ८ ॥

सोमवार, 15 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
जे साहिब सींचै नहीं, तो बेली कुम्हलाइ ।
दादू सींचै सांइयाँ, तो बेली बधती जाइ ॥ ५ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु जिज्ञासु की वृत्ति रूप बेली को अपने सत्य उपदेश रूपी जल से नहीं सींचें, तो साधक की वृत्तिरूप बेली मुरझाती है, अर्थात् उदास रहती है । और सतगुरु भक्ति - वैराग्य - ज्ञान रूपी जल से सींचते रहें, तो यह बेली साक्षी कूटस्थ रूप वृक्ष पर अपना विस्तार करती रहती है अर्थात् स्वरूपाकार बनी रहती है ॥ ५ ॥

हरि तरुवर तत आत्मा, बेली कर विस्तार ।
दादू लागै अमर फल, कोइ साधू सींचनहार ॥ ६ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! कूटस्थ साक्षीरूप हरि तो वृक्ष हैं और जिज्ञासु की आत्माकार वृत्ति बेली है । जैसे वृक्ष का सहारा लेकर बेली पनपती है, वैसे ही साधक की चैतन्य रूप बेली, कूटस्थ साक्षी का विचाररूपी आसरा लेकर स्वरूपाकार विस्तार को प्राप्त होती है । उस बेली के ज्ञान - रूपी अमृत फल लगता है, परन्तु इस बेली को कोई सच्चे काछ - वाछ निष्कलंक ब्रह्मनिष्ठ संत, अपने उपदेशों से सींचने वाले होते हैं ॥ ६ ॥

रविवार, 14 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
पसरै तीनों लोक में, लिप्त नहीं धोखे ।
सो फल लागै सहज में, सुन्दर सब लोके ॥ ३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! ब्रह्म अनुसारिणी वृत्ति रूप बेली, अर्थात् असत्य नाम रूप संसार में सत्य की कल्पना और सत्य में असत्य की कल्पना करके, वृत्ति धोखे में नहीं आवे । उस वृत्ति का प्रवाह, स्थूल - सूक्ष्म - कारण शरीर से आगे बढ़कर, कूटस्थ रूप वृक्ष पर ‘पसरै’ कहिए, स्थिर होवे और फिर पंचकोषमय शरीरों के अध्यास में, वृत्ति को आसक्त न होने देवे, तो फिर इस वृत्ति के जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञान - फल लगता है । यही फल तीन लोक और चौदह भवन में सबसे उत्तम है ॥ ३ ॥

दादू बेली आत्मा, सहज फूल फल होइ ।
सहज सहज सतगुरु कहै, बूझै बिरला कोइ ॥ ४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! अन्तःकरण की आत्माकार वृत्ति रूप बेली, सहज समाधि में स्थित होने पर इसके निष्काम भक्ति रूप फूल और ज्ञान रूपी फल लगता है । सत्य उपदेश के देने वाले ब्रह्मनिष्ठ सतगुरु सहज - सहज इस बेली को अपने अनुभव रूप उपदेश जल से सींचते हैं । उपरोक्त फल - फूल लगने वाली बेली को अपने प्रयत्न से ब्रह्माकार बनाते हैं । परन्तु इस सतगुरु के भेद को कोई उत्तम जिज्ञासु ही जानते हैं ॥ ४ ॥

शनिवार, 13 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
अथ बेली का अंग ३६ ~
‘‘सब जग बैठा जीति कर, काहू लिप्त न होइ’’ - इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप, साक्षीभूत अंग के तदनन्तर अब बेली का अंग निरूपण करते हैं ।
मंगलाचरण ~
दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।
वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥ १ ॥
टीका ~ अब हरि, गुरु संतों को नमो नमस्कार वन्दना करके बेली का स्वरूप प्रतिपादन करते हैं ॥ १ ॥

दादू अमृत रूपी नाम ले, आत्म तत्वहि पोषै ।
सहजैं सहज समाधि में, धरणी जल शोषै ॥ २ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! निर्वासनिक निष्काम भाव से आत्म - स्वरूप परमेश्वर का, अभेद निश्चय रूप नाम - स्मरण रूप अमृत, काल से छुड़ाने वाला, अन्तःकरण चतुष्टय की चारों अवस्थाओं(जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरिया) में, आत्माकार वृत्ति की दृढ़ता स्थिति में, आत्म - तत्व की भावना रूप बेली को पोषण करता रहे, और निर्द्वन्द्व सहज समाधि में स्थित होकर धरती रूप शरीर में, नाम - स्मरण रूप जल को पीता रहे ॥ २ ॥

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

#daduji

||दादूराम सत्यराम||
देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।
दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥ १७ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जिसने तीन लोक और चौदह भवन रचे हैं, वही समर्थ इनमें निवास करने वाले, जीवों को प्रारब्ध – कर्मानुसार, देते - लेते हैं । परन्तु अनन्य भक्त तो अन्तःकरण रूपी महल में, निष्काम स्मरण रूप सेवा में लगे हैं और संसार में सभी लोग, उन भक्तों की शोभा करते हैं ॥ १७ ॥

कर्ता साक्षीभूत ~
दादू जुवा खेले जाणराइ, ताको लखै न कोइ ।
सब जग बैठा जीत कर, काहू लिप्त न होइ ॥ १८ ॥
इति साक्षीभूत का अंग सम्पूर्णः ३५ ॥ साखी १८ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह जाणराइ अन्तर्यामी, घट - घट की जानने वाले परमात्मा, आप स्वयं सम्पूर्ण बाजी रचकर आप ही खिलाड़ी बन रहे हैं । किन्तु अज्ञानरूप आवरण होने से, साधारण प्राणी उसको देख नहीं सकते और वह आप स्वयं कूटस्थ चैतन्य, सबको जीत कर साक्षीरूप से स्थित हो रहे हैं । और किसी भी बन्धन से वे बँधे हुए नहीं हैं ॥ १८ ॥

इति साक्षीभूत का अंग टीका सहित सम्पूर्णः ३५ ॥ साखी १८ ॥

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
ना हम करैं करावैं आरती, ना हम पिवैं पिलावैं नीर ।
करै करावै सांइयाँ, दादू सकल शरीर ॥ १५ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! मुक्तजन अन्तर्मुखी संत कहते हैं कि न तो हम बहिरंग आरती करते हैं, और न कराते हैं, वैसे ही न हम पीते हैं, और न पिलाते हैं । कर्ता करने वाला, कराने वाला, हमारे तो केवल अधिष्ठान चैतन्य ही है । वह सब शरीरों में सूत्र आत्मा रूप से व्यापक हो रहा है । ऐसे मुक्त पुरुष व्यष्टि अहंकार से रहित होकर समष्टि चेतन में अभेद हो गये हैं ॥ १५ ॥

करै करावै सांइयाँ, जिन दिया औजूद ।
दादू बन्दा बीच में, शोभा को मौजूद ॥ १६ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! मुक्त पुरुषों का निश्चय रूप यह व्यवहार है कि जिस समर्थ ने यह औजूद, शरीर दिया है, वही इसमें कर्ता कराने वाला आप है । अपने अनन्य दासों के अन्तःकरण में स्थित होकर, उनको संसार में शोभा दिलाते हैं, परन्तु वह अनन्य दास, अपने को कर्ता नहीं मानते ॥ १६ ॥

बुधवार, 10 सितंबर 2014

#daduji

||दादूराम सत्यराम||
दादू केई उतारैं आरती, केई सेवा कर जांहि ।
केई आइ पूजा करैं, केई खिलावें खांहि ॥ १३ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कई सांसारिक जीव सकाम - कर्मी मन्दिरों में जाकर आरती उतारते हैं और कई जाकर सकाम सेवा करते हैं । कई वासनाओं को लेकर पूजा करते हैं । कई फल इच्छा से संतों को भोजन कराके, आप खाते हैं । परन्तु यह दिखावटी और सकाम सेवा - पूजा आदि, विशेष फल देने वाले नहीं हैं ॥ १३ ॥

केई सेवक ह्वै रहे, केई साधु संगति मांहि ।
केई आइ दर्शन करैं, हम तैं होता नांहि ॥ १४ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! कई सांसारिक प्राणी, अनेक प्रकार की वासना लेकर सेवक बन रहे हैं । वैसे ही कई साधुओं की संगति करते हैं । कितने ही आ - आकर दर्शन करते हैं, परन्तु निष्कामी अन्तर्मुखी संतजनों ने इन बहिरंग दिखावटी सब कर्मों का त्याग किया है ॥ १४ ॥

मंगलवार, 9 सितंबर 2014

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||दादूराम सत्यराम||
बुरा बला सिर जीव के, होवै इस ही मांहि ।
दादू कर्ता कर रह्या, सो सिर दीजै नांहि ॥ ११ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! इस शरीर के भीतर, चिदाभास युक्त अन्तःकरण में ही, शुभ – अशुभ, पाप - पुण्य उत्पन्न होते हैं । उनके अनुसार ही सृष्टिकर्ता ईश्वर फल देता है ॥ ११ ॥

साधु साक्षीभूत ~
कर्ता ह्वै कर कुछ करै, उस मांहि बँधावै ।
दादू उसको पूछिये, उत्तर नहीं आवै ॥ १२ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यदि ‘कर्ता’ कहिए सबका कारण चैतन्य ही, आप सब शुभ - अशुभ करके, स्वयं चैतन्य रूप जीव, उस कर्ता रूप अहंकार में बँध जावे, तो कैसे ठीक है ? क्योंकि कर्ता तो सब शुभ - अशुभ कर्म रूप बन्धनों से अलग रहता है ॥ १२ ॥
कुंड खणायो खोद कर, जती घाट नहीं कीन्ह । 
गाय मरी बावस कहीं, हत्या मम क्यूं दीन्ह ॥
दृष्टान्त ~ एक नगर में जती जी बहुत पैसे वाले थे । उसी नगर में एक वेदान्ती संत भी आकर प्रवचन करने लगे । सभी लोग प्रवचन में जाते । एक रोज जती जी भी गये । जती जी को प्रवचन अच्छे लगे, फिर तो रोज ही जाने लगे । महात्मा जी को किसी ने कहा कि जती जी बहुत पैसे वाले हैं । महात्मा बोले ~ जती जी आपके पास पैसा है, इसका आप क्या करोगे ? कुछ जन - समुदाय की सेवा में खर्च कर दो । जती जी बोले ~ कहाँ लगाऊं ? महात्मा बोले ~ अमुक स्थान पर एक जलाशय कुण्ड बना दो । जती जी ने खूब पैसा लगाकर प्रेम से कुण्ड बनवा दिया, परन्तु उसके गऊ - घाट नहीं रखा । ग्रीष्म काल में एक गऊ प्यास से घबराई हुई कुण्ड के चारों तरफ घूमने लगी । जब रास्ता न मिला तो पानी देखकर, पानी पीने को सीढ़ियों से उतरती समय गिर गई और खत्म हो गई । वह गौ हत्या जतीजी के पास आई और बोली ~ आप मुझको धारण करो । जती जी बोले ~ तुम पानी के लिये गिरी हो, इन्द्र के पास जाओ, इन्द्र भोगेगा, इन्द्र ने पानी बरसाया है । जब इन्द्र के पास गई, इन्द्र बोले ~ चलो तुम कुण्ड पर, मैं आता हूँ । सायंकाल जती जी कुण्ड पर रोज जाया करते थे और कुण्ड को देखकर मन में राजी होते और सोचते कि मैंने कितना पैसा लगाया है । मेरे जैसा कुण्ड कौन बनाएगा ? जती कुण्ड पर बैठे थे । इन्द्र मनुष्य रूप में आये और कुण्ड के चारों मेर घूमने लगे और बोले ~ धन्य हो ! किस महात्मा ने इतना पैसा लगाकर यह कुण्ड बनाया है ? उसको तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी ? पुनः पुनः कहने लगे । तब जती जी बोले - अरे ! मैंने पैसा लगाया है और किसने लगाया है ? अभी तो मैं जिन्दा बैठा हूँ । इन्द्र बोले ~ यह गौ हत्या मेरे पास क्यों भेजी ? आप तो कर्ता हो रहे हो, तो गऊ - घाट क्यों नहीं बनाया ? जती जी चुप हो गये और गौ हत्या का पाप भोगना पड़ा । जब जीव कर्ता होकर कर्म करता है तो, उसके फल को भी भोगता है ।

सोमवार, 8 सितंबर 2014


||दादूराम सत्यराम||
दादू जानै बूझै जीव सब, गुण औगुण कीजे ।
जान बूझ पावक पड़ै, दई दोष न दीजे ॥ ९ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जीव गुण और अवगुण अर्थात् पाप और पुण्य को जानता है, भली प्रकार समझता है, जैसे कोई अग्नि में जान बूझकर पांव रखें, तो जलेगा ही । इसी प्रकार जीव, शुभ - अशुभ जैसे कर्म करेगा, उनका वैसा ही फल भोगेगा । इसमें ईश्वर को दोष नहीं देना चाहिये ॥ ९ ॥

मन ही मांहीं ह्वै मरै, जीवै मन ही मांहि ।
साहिब साक्षीभूत है, दादू दूषण नांहि ॥ १० ॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह जीव चेतन मन के द्वारा, वासना से निषिद्ध कर्मों में प्रवृत्त होकर जन्मता - मरता है । और अपने अधिष्ठान चेतन का विचार करके सदा सजीवन भाव को प्राप्त हो जाता है । और वह परमात्मा चैतन्य, साक्षी रूप से सम्पूर्ण भूतों में, स्थित हो रहा है । जीव के कर्म - फल का उसे कोई दोष नहीं लगता है ॥ १० ॥