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ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै ।
दादू दिन दिन देखतां, अपने गुण मेलै ॥
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*विषय का अंग १५४*
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जिन कसण्यों१ काया पड़ै, सो सब थोड़ी जानि ।
रज्जब रामा२ मिल मुये, उभय सुरति३ की हानि ॥४५॥
जिन कष्टों१ में शरीर पड़ता है, उन कष्टों को नारी२ संयोग से होने वाले कष्ट से कम ही जानों । नारी से मिलकर मरने से व्यवहारिक और पारमार्थिक दोनों ही वृत्तियों३ की हानि होती है ।
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संकट स्वल्प१ शरीर लग, दुखी नहिं इहिं द्वंदि२ ।
रज्जब नर नारी मिले, सदा सुरति विष बंदि३ ॥४६॥
शरीर के अंत तक जितने दु:ख आते हैं वे सभी नर नारी के मिलन से बहुत कम१ हैं । द्वन्द्वों२ से भी नर ऐसा दु:खी नहीं होता, जैसा नर नारी मिलकर होता है । नारी मिलने पर तो वृत्ति सदा विषय विष की ही कैद३ में ही रहती है अर्थात विषयाकार ही रहती है ।
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माता सब बाबों बंधी, बाबा मात हुं मांहिं ।
जन रज्जब जग यूं जड्या, कोई छुटे नांहिं ॥४७॥
नारी सब नरों से बंधी है और नर सभी नारी प्रेम में बंधे है । इस प्रकार जगत् के जीव एक दूसरे के स्नेह में जटित हैं । कोई भी छूट नहीं सकता ।
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रज्जब जग जोड़े जड़े, चौरासी लख जंत ।
एका एकी एक सूं, सो कोई बिरला संत ॥४८॥
जगत् के सभी चोरासी लाख जीव जोड़े में जटिल हैं अर्थात जोड़े से ही रहते हैं । कोई बिरला संत ही अकेला रहता हुआ एक प्रभु मे अनुरक्त रहता है ।
(क्रमशः)