"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन) ~ पद १/१४१" लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

= १४१ =

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४१. समर्थाई । राजमृगांक ताल
सिरजनहार तैं सब होइ ।
उत्पत्ति परलै करै आपै, दूसर नांहीं कोइ ॥टेक॥
आप होइ कुलाल करता, बूँद तैं सब लोइ ।
आप कर अगोचर बैठा, दुनी मन को मोहि ॥१॥
आप तैं उपाइ बाजी, निरखि देखै सोइ ।
बाजीगर को यहु भेद आवै, सहज सौंज समोइ ॥२॥
जे कुछ किया सु करै आपै, येह उपजै मोहि ।
दादू रे हरि नाम सेती, मैल कश्मल धोइ ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव ईश्‍वर समर्थाई दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! वह परमात्मा सर्व की उत्पत्ति करने वाले हैं, उनकी समर्थाई बड़ी भारी है । वह सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले हैं । वह अपनी समर्थाई से ही प्रलय आदि सब कुछ करते हैं ।
.
आप स्वयं कुलाल की भाँति कर्ता हो रहे हैं । पानी की बूँद से कहिए वीर्य आदि से सम्पूर्ण शरीरों की रचना करके उनमें छुप कर आप ही बैठे हैं और मन इन्द्रियों के अविषय हो रहे हैं । और दुनियाँ के मन को अपनी मायावी लीला से मोहित कर रखा है ।
.
आप स्वयं अपने आपसे जगत रूपी खेल को रचकर आप ही दृष्टा रूप बनकर देख रहे हैं । उसी ईश्‍वर रूप बाजीगर को, इस जगत रूप बाजी रचने का भेद मालूम है । सहज स्वभाव से ही स्त्री आदि शरीर रूप सौंज बनाकर प्राणीमात्र को मोहित कर लिया है ।
.
यह जो कुछ भी लिया है, सो आप परमेश्‍वर ने ही किया है । यही हमारे अन्दर उसका ज्ञान उत्पन्न हो रहा है । इस प्रकार तत्ववेत्ता कहते हैं कि हे मुमुक्षुओं ! निष्काम हरिनाम - स्मरण द्वारा अपने अन्तःकरण के मैल, पाप आदि को धोइये ।
(क्रमशः)

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

= १४० =

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राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४०.(गुजराती) अधीर उलाहन । त्रिताल ~
धरणीधर बाह्या धूतो रे, अंग परस नहिं आपे रे ।
कह्यो अमारो कांई न माने, मन भावे ते थापे रे ॥टेक॥
वाही वाही ने सर्वस लीधो, अबला कोइ न जाणे रे ।
अलगो रहे येणी परि तेड़े, आपनड़े घर आणे रे ॥१॥
रमी रमी रे राम रजावी, केन्हों अंत न दीधो रे ।
गोप्य गुह्य ते कोई न जाणै, एह्वो अचरज कीधो रे ॥२॥
माता बालक रुदन करंता, वाही वाही ने राखे रे ।
जेवो छे तेवो आपणपो, दादू ते नहिं दाखे रे ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें धैर्य रहित उपालंभ दिखा रहे हैं कि हे धरणी - धर परमेश्‍वर ! आपने मायावी गुणों द्वारा हमारे मन को अपनी तरफ से बहका दिया है । हे नाथ ! आपके स्वरूप का हमें स्पर्श नहीं हो रहा है । हमारा कहना आप क्यों नहीं मानते हो ? जो आपके मन में भाता है, उसी भक्त को आप अपने स्वरूप में रखते हो ।
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हे प्रभु ! आप - हमको मायावी गुणों में बहका - बहका कर हमारा अन्त ले लिया है । और हम विरहीजन आपके निर्बल भक्त हैं, आप हमें कुछ भी नहीं समझते हो । आप हमसे अलग रहकर अपने स्वरूप की ओर आने की इस प्रकार प्रेरणा करते हो कि दया करके अपने स्वरूप की ओर ले ही आते हो ।
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हे राम जी ! आप विरहीजन भक्तों के साथ खेल - खेलकर, उनको रिझाया है अथवा विरहीजन भक्तों ने आपके साथ विचार रूपी खेल - खेलकर आपको रिझा लिया है । परन्तु आपने किसी को अपने स्वरूप का अन्त नहीं दिया है । हे अति गुप्त से गुप्त, गहन से भी गहन ! आपके पूर्णतया मर्म को कोई भी नहीं जानते । ऐसा आपने कुछ अचरज रचा है ।
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परन्तु जो बालक रोता है, उसी को माता दूध पिलाती है और जाकर उसी की रक्षा करती है । जैसा है वैसा अच्छा बुरा उसको अपना जानकर अपनी समर्थाई से वह उसकी रक्षा करती है । इसी प्रकार हम विरहीजन भक्त आपके हैं । आप हमारी अच्छाई बुराई पर ध्यान न देकर अपना जानकर हमारी रक्षा करो ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

= १३९ =

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३९. विरह विनती । त्रिताल ~
मन वैरागी राम को, संगि रहै सुख होइ हो ॥टेक॥
हरि कारण मन जोगिया, क्योंहि मिलै मुझ सोइ ।
निरखण का मोहि चाव है, क्यों आप दिखावै मोहि हो ॥१॥
हिरदै में हरि आव तूँ, मुख देखूं मन धोहि ।
तन मन में तूँ ही बसै, दया न आवै तोहि हो ॥२॥
निरखण का मोहि चाव है, ये दुख मेरा खोइ ।
दादू तुम्हारा दास है, नैन देखन को रोइ हो ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहपूर्वक प्रार्थना कर रहे हैं कि हे संतों ! हमारा मन राम के दर्शनार्थ विषयों से वैरागी हो रहा है । जब हम विरहीजन राम के संग रहेंगे, तभी हमको सुख प्राप्त होगा । 
.
हरि के कारण हमारा मन भोगों का त्याग करके योगी बन रहा है और यह इच्छा करता है कि किस प्रकार अब हमें हरि के दर्शन होंगे । प्रभु दर्शन करने को हमारे अन्दर बहुत बड़ा उत्साह हो रहा है । हे प्रभु ! अब आप किस प्रकार अपने दर्शन हम विरहीजनों को दिखाओगे ? 
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हे हरि ! आप हमारे हृदय में पधारिये । हम अपने मन को शुद्ध करके आपका दर्शन करें । आप हमारे तन - मन में व्याप्त हो रहे हो । क्या हम विरहीजनों पर आपको दया नहीं आ रही है ? 
.
आपके दर्शन करने का हमें चाव उत्साह हो रहा है । यह आपकी अप्राप्ति रूपी दुःख हमारा दूर करिये । हम तो आपके विरहीजन दास हैं, आपके दर्शनों के लिये रो रहे हैं ।
(क्रमशः)

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

= १३८ =

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३८. प्रश्‍न उत्तर । दादरा ~
कोई जानै रे, मर्म माधइये केरो ?
कैसे रहे ? करे का ? सजनी प्राण मेरो ॥टेक॥
कौन विनोद करत री सजनी, कवननि संग बसेरो ?
संत साधु गम आये उनके, करत जु प्रेम घणेरो ॥१॥
कहाँ निवास ? वास कहँ ? सजनी गवन तेरो ।
घट घट मांहि रहै निरन्तर, ये दादू नेरो ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें प्रश्‍न करके अन्तिम चरण से उत्तर दे रहे हैं । हे संत रूप सजनी ! आप कोई उस माधव के स्वरूप का मर्म कहिए भेद जानते हो क्या ? हम उसके वियोग में कैसे रहें ? हमारा प्राण अब क्या करे ? 
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वह हृदय के भीतर क्या विनोद रूप खेल करते हैं ? और किस - किस के साथ उनका वास है ? क्या उनके प्रेमी मुक्तसंत और साधक, उनसे घृणा प्रेम करने वाले उनके ध्यान विचार में आए हैं ? 
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हे संत रूप सहलियों ! उनका निवास कहाँ है ? और आपकी वृत्ति किसमें लगी है ? और आपका गमन कहाँ और किसमें हो रहा है ? उपरोक्त प्रश्‍नों का उत्तर, हे संतरूप सहेली ! वह माया को अपनी आज्ञा में चलाने वाले माधव सभी के अन्तःकरण रूपी घट में निरन्तर, कहिये अन्तराय रहित, साक्षीरूप से सब जीवात्माओं के समीप ही रहते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

= १३७ =

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३७. उपदेश । त्रिताल ~
सजनी ! रजनी घटती जाइ ।
पल पल छीजै अवधि दिन आवै, 
अपनो लाल मनाइ ॥टेक॥
अति गति नींद कहा सुख सोवै, 
यहु अवसर चलि जाइ ।
यहु तन विछुरैं बहुरि कहँ पावै, 
पीछे ही पछिताइ ॥१॥
प्राण - पति जागे सुन्दरि क्यों सोवे, 
उठ आतुर गहि पाइ ।
कोमल वचन करुणा कर आगे, 
नख शिख रहु लपटाइ ॥२॥
सखी सुहाग सेज सुख पावै, 
प्रीतम प्रेम बढ़ाइ ।
दादू भाग बड़े पीव पावै, 
सकल शिरोमणि राइ ॥३॥
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टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें बुद्धि - वृत्ति रूप सखी को उपदेश कर रहें हैं कि हे हमारी बुद्धि वृत्ति रूप सहेली ! उम्र रूपी रात्रि पल - पल में घटती जा रही है । और अन्त समय का दिन नजदीक आ रहा है । अपने प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर को राजी कर ले ।
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मोह रूप निद्रा में बेहोश होकर क्या सुख से सोती है ? यह भजन करने का जवानी रूप अवसर तो बीता जा रहा है । यह मनुष्य देह हाथ से छूट जायेगा तो फिर ऐसा शरीर चौरासी में कहाँ मिलेगा ? चौरासी में जाकर, फिर पीछे पश्‍चात्ताप करना पड़ेगा ।
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प्राणों को सत्ता स्फुर्ति देने वाला परमेश्‍वर रूप पति तो जागता है, और तूँ बुद्धि रूप सुन्दरी क्यों सो रही है ? अब मोह रूप निद्रा से उठ और अति आतुर होकर परमेश्‍वर के चरणों की शरण ग्रहण कर और नख से शिखा पर्यन्त, सारे शरीर को शुभ कर्मों द्वारा परमेश्‍वर के लिपट कर रह । ऐसी बुद्धि रूपी सखी, हृदय रूपी सेज पर परमेश्‍वर के दर्शन रूप सुहाग को प्राप्त होती है । उन्हीं से प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर बढ़ाकर प्रेम करते हैं । ऐसी साधक संत आत्मा सुन्दरी का बड़ा भारी भाग्य उदय हुआ है, जो सर्व के शिरोमणि राजन् पतराजा, मुखप्रीति का विषय परमात्मा पीव को प्राप्त कर लिया है ।
आपदः क्षणमायान्ति क्षणमायान्ति सम्पदः ।
क्षणं जन्म क्षणं मृत्यु र्मुने ! किमिव न क्षणम् ॥ १३७ ॥
हे मुने ! यहाँ क्षण में आपत्तियाँ और क्षण के सम्पत्तियाँ आती हैं, क्षण में जन्म और क्षण में मृत्यु होती है । संसार में कौनसी वस्तु क्षणिक नहीं है ।
.
O maiden, the night is running out;*
Moment by moment it is waning,
And the terminal line is approaching.
Please your Beloved –
Why are you sleeping so soundly in comfort?
This opportunity is gliding by.
If you miss Him in this body,
where else will you find Him again?
You will repent later on.
Your Beloved is awake –
Why is the beautiful maiden asleep?
Hurry, wake up and clasp His feet.
Humbly approach Him
And embrace Him from head to foot.
Kindle love for the Beloved and enjoy its bliss,
O fortunate bride.
It is a great good fortune, says Dadu,
To obtain such a beloved, the Supreme Lord of all.
*The time for meeting the beloved.
(English translation from ~
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

= १३६ =

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राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३६. हितोपदेश । त्रिताल ~
जागत को कदे न मूसै कोई ।
जागत जान जतन कर राखै, चोर न लागू होई ॥टेक॥
सोवत साह वस्तु नहिं पावे, चोर मूसै घर घेरा ।
आस पास पहरे को नाहीं, वस्ते कीन नबेरा ॥१॥
पीछे कहु क्या जागे होई, वस्तु हाथ तैं जाई ।
बीती रैन बहुरि नहिं आवै, तब क्या करि है भाई ॥२॥
पहले ही पहरे जे जागै, वस्तु कछू नहिं छीजे ।
दादू जुगति जान कर ऐसी, करना है सो कीजे ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें हित उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! जो विवेक विचार द्वारा जागते हैं, उनके कोई भी काम आदि चोर, चोरी नहीं कर पाते ।
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वे जागते हुए दैवी सम्पत्ति...........यत्न पूर्वक हृदय में रखते हैं । उनके काम आदि चोर चोरी नहीं कर सकते । और यदि जीव रूपी साह मोह रूपी निद्रा में सोया रह, तो सार वस्तु को चोर चुरा ले जाते हैं, शऱीर के घेरा लगाकर ।
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सद्गुरु उपदेश आदि पहरा, उन अज्ञानियो के अन्तःकरण में है नहीं । चोरों ने वस्तु को खत्म कर दी है । अन्तकाल के समय तो केवल पश्‍चात्ताप ही करता है । यह उम्र रूपी रात्रि विषयों में बीत गई । वह फिर वापिस नहीं हो सकती ।
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जो बाल्यावस्था में ही जागते हैं ध्रुव आदि की तरह उनके सद्विचार आदि वस्तु ज्यों की त्यों रहती है । सतशास्त्रों से और सतगुरुओं के बताये हुये साधन रूपी मार्ग पर चलकर मनुष्य जन्म के कर्त्तव्यों का पालन कर जीवन को सफल बना ।
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IMPORTANCE OF VIGILANCE
In this fleeting and fragile world, only one who is vigilant can escape destruction and fulfil the purpose of this human life.
None can steal from the wakeful one.
Knowing that he is awake and protecting
his goods carefully; no thief draws near.
The sleeping master of the house
cannot keep his goods.
Thieves surround his house and plunder it.
With no one on guard nearby,
the goods are stolen.
What will you do, tell me, by getting up
after the goods are gone?
The spent night does not return.
What then will you do, my friend?
When one keeps watch at all times,
no harm befalls his goods.
Knowing this, do what must be done, says Dadu.
(English translation from ~
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2015

= १३५ =

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
१३५. तर्क चेतावनी । प्रतिपाल ~
जात कत मद को मातो रे ।
तन धन जोबन देख गर्वानो, 
माया रातो रे ॥टेक॥
अपनो हि रूप नैन भर देखै, 
कामिनी को संग भावै रे ।
बारम्बार विषय रत मानैं, 
मरबो चित्त न आवै रे ॥१॥
मैं बड़ आगे और न आवे, 
करत केत अभिमाना रे ।
मेरी मेरी करि करि फूल्यो, 
माया मोह भुलानां रे ॥२॥
मैं मैं करत जन्म सब खोयो, 
काल सिरहाणे आयो रे ।
दादू देख मूढ़ नर प्राणी, 
हरि बिन जन्म गँवायो रे ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, तर्क - पूर्वक सावधान करते हैं कि हे भाई ! तूँ मायारूप मद में मतवाला होकर......
.
शरीर की जवानी और धन पाकर, स्त्री आदि........... की छाया को क्या निरख रहा है ? हे मूढ़ ! तुझे तो कामनी आदि का संग प्रिय लगता है, सतंसग प्रिय नहीं लगता । बारम्बार विषयों में रत्त हुआ, मरने के दिन को तूँ चित्त से भूल रहा हैं ।
.
और तूँ जानता है कि मेरे बराबर बड़ा और कौन है ? हे मूर्ख ! तूँ यह कितना अभिमान कर रहा है ? मैं हूँ, यह मेरी है, ऐसे कर करके परमेश्‍वर को भूल रहा है । माया और माया का कार्य, मोह की फांसियों में बंध रहा है ।
.
और ‘मैं हूँ, मैं हूँ” ऐसे करके इस मनुष्य जन्म को तैंने वृथा ही गमा दिया है । और तेरे सिरहाणे अब काल आ पहुँचा है । तत्ववेताओं के देखते - देखते ही, हे मूढ़ ! तूने विषयों में अन्धा होकर, हरि से विमुख रहकर, मनुष्य जन्म को वृथा ही गमा दिया है ।
.
Where are you going intoxicated with pride?
Engrossed in maya, are you proud
To see your body, wealth and youth?
You look at your own form intently
and delight in the company of the opposite sex;
Again and again you plunge lustfully into sensuality –
Are you not aware of death?
“I am the greatest; none is equal to me.”
How much pride you display!
You are deluded with the thought:
“This is mine, that is mine.”
Indeed, you are lost in the delusion of maya.
All of life is wasted in the conceit of I-ness.
And death has drawn close to your head.
See the plight of this human being, O Dadu.
He has ruined his life without God.
(English translation from ~
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

= १३४ =

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टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३४. काल चेतावनी । पंचम ताल ~
बटाऊ ! चलना आज कि काल ।
समझि न देखे कहा सुख सोवे, 
रे मन राम संभाल ॥टेक॥
जैसे तरुवर वृक्ष बसेरा, 
पंखी बैठे आइ ।
ऐसैं यहु सब हाट पसारा, 
आप आपको जाइ ॥१॥
कोइ नहिं तेरा सजन संगाती, 
जनि खोवे मन मूल ।
यहु संसार देखि जनि भूलै, 
सब ही सैंबल फूल ॥२॥
तन नहिं तेरा धन नहिं तेरा, 
कहा रह्यो इहि लाग ।
दादू हरि बिन क्यों सुख सोवे, 
काहे न देखे जाग ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें काल से चेत करा रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! यह प्राणधारी तो बटाऊ के समान है, परन्तु अभी तक भी गुरु, शास्त्र के उपदेश को सुनकर परमेश्‍वर का विचार नहीं करता । हे प्राणी ! क्या अज्ञान रूप निद्रा में सो रहे हो ? अब तो अपने मन के द्वारा राम - नाम का स्मरण करो ।
.
जैसे सायंकाल को वृक्षों के ऊपर पक्षी आकर बैठते हैं और प्रातःकाल होते ही उड़ जाते हैं, उनमें कोई किसी का साथी नहीं होता । जैसे बणिया सवेरे हाट मांडकर बैठता है और शाम को सब पसारा समेट लेता है । ऐसे ही यह सब माया का पसारा है । इसको देखकर क्या राजी होता है ? ये तो अपने - अपने कर्मों द्वारा सब जाने वाले हैं ।
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इनमें कोई भी तेरे से स्नेह करने वाला तथा रक्षा करने वाला, अन्तकाल में नहीं है । हे मूर्ख मन ! इनमें लगकर तूँ अपने इस मूल मनुष्य देह को क्यों वृथा गँवा रहा है ? यह संसार तो सैंबल वृक्ष की भाँति है, इसको देखकर तूँ क्या राजी होता है ?
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न तो यह शरीर तेरा है और न यह धन ही तेरा है, इनमें क्या आसक्त हो रहा है ? हे मूर्ख ! हरि के स्मरण बिना, मोह रूप निद्रा में क्या सुख से सो रहा है ? अब अन्त समय नजदीक आ गया । मोह - निद्रा से मुक्त होकर परमेश्‍वर को क्यों नहीं देखता है ?
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बाप वृद्ध को पुत्र जो, धरे ठीकरे खान ।
पोते ले ले धर दिये, तोको देऊँगो आन ॥१३४॥
दृष्टान्त ~ एक पुरुष की स्त्री बड़ी कमब्रत थी । अपने ससुर को बड़ा दुख देती । खाने - पीने को भी समय पर ठीक - ठीक नहीं देती और कुम्हार के यहाँ से बहुत से ठीकरे लाकर रख लिये । अपने पति को बोली ~ “इसको खेत में रहने के लिए झोंपड़ी डाल दो । यहाँ घर में गन्दगी फैलाता है ।”
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वैसे ही किया । परन्तु उसका बेटा, बूढ़े का पोता, सत्संगी था । उसने अपनी मां को विचार द्वारा ठीक बनाई । यह ठीकरे में भोजन डालकर बेटे के हाथ खेत में भेजती । वह उसको भोजन कराता, जल भर देता, बिस्तर झाड़ देता और लेटा कर, ठीकरे को धोकर घर में टांड पर लाकर धर देता ।
.
एक रोज मां ने देखा, “बहुत ठीकरे रखे हैं ।” उसको बोली ~ ये क्यों लाकर रखता है ? लड़का बोला ~ “पिताजी और तूँ आगे बूढ़े होंगे, तब मेरे कौन ठीकरे लावेगा ? इन्हीं ठीकरों में तुम दोनों को भोजन दे दिया करूँगा ।” मां बाप दोनों बिगड़े । लड़का बोला ~ “अगर मेरे से सुख चाहते हो, तो पितामह को घर में लाओ और उसकी सब प्रकार सेवा करो । माता - पिता दोनों, पुत्र ने कहा, वैसे ही सेवा करके पूर्व पाप से मुक्त हो गये ।
.
O traveler, today or tomorrow you must depart.
Why do you not look thoughtfully?
Why are you sleeping in comfort?
Devote yourself to God, O mind.
Just as birds come to perch in a tree for the night,
So is all this marker spread out for a while –
All will then go their own way.
None is your kith or companion;
Lose not your source, O mind.
Don’t get lost by looking at worldly things;
They are all flowers of the silk-cotton tree.*
The body is not yours, wealth is not yours –
Why are you absorbed in them?
Why do you sleep in comfort without God?
Why not wake up and see? cautions Dadu.
*The silk-cotton (semal or salmali in Sanskrit) tree is a lofty and thorny tree with attractive red flowers. The parrot, captivated by the outer beauty of the flowers, wants to enjoy the fruit, but when it pecks at the fruit its beak gets stuck and it cannot disengage its bill from the tasteless cotton pods.


(English translation from ~
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

= १३३ =

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राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३३. मन उपदेश । पंचम ताल ~
हां, हमारे जियरा ! राम गुण गाइ,
एही वचन विचारी मान ॥टेक॥
केती कहूँ मन कारणैं,
तूँ छाड़ि रे अभिमान ।
कह समझाऊँ बेर - बेर,
तुझ अजहुँ न आवै ज्ञान ॥१॥
ऐसा संग कहाँ पाइये,
गुण गावत आवै तान ।
चरणों सौं चित राखिये,
निसदिन हरि को ध्यान ॥२॥
वे भी लेखा देहिंगे,
आप कहावैं खान ।
जन दादू रे गुण गाइये,
पूरण है निर्वाण ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, इसमें मन के प्रति उपदेश करते हैं कि हे हमारे मन रूप जीव ! अब तो तूँ राम - नाम का स्मरण कर । इस हमारे वचन को तू विचार करके, धारण कर ।
.
हे मन ! तेरे कल्याण के लिये हम कितना कहें । अब तो तू इस अनात्म - अहंकार का त्याग कर । तेरे को पुनः पुनः कह - कह कर परमेश्‍वर प्राप्ति का मार्ग, समझाते हैं, परन्तु अभी तक तुझे यह ज्ञान प्रिय नहीं लगता है । विचार कर ।
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ऐसे मनुष्य देह का संग फिर तुझे कहाँ मिलेगा ? परमेश्‍वर का इसमें गुणगान करने से, प्रेमरूप आनन्द उत्पन्न होता है । हे मन ! अब तो तूँ रात - दिन ध्यान अपने आपका हरि चरणों में रख, क्योंकि..
.
जो अपने आप को खान सुलतान कहलाते हैं, वे भी परमेश्‍वर को लेखा - हिसाब देंगे । इसलिये हे मन ! काल - कर्म के बाण से रहित होना है तो उस परिपूर्ण व्यापक परमेश्‍वर के गुणानुवाद गा ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

= १३२ =

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
१३२. विनती । त्रिताल ~
ये मन माधो बरजि बरजि ।
अति गति विषिया सौं रत, 
उठत जु गरजि गरजि ॥टेक॥
विषय विलास अधिक अति आतुर, 
विलसत शंक न मानैं ।
खाइ हलाहल मगन माया में, 
विष अमृत कर जानैं ॥१॥
पंचन के संग बहत चहूँ दिशि, 
उलट न कबहूँ आवै ।
जहँ जहँ काल ये जाइ तहँ तहँ, 
मृग जल ज्यों मन धावै ॥२॥
साध कहैं गुरु ज्ञान न मानै, 
भाव भजन न तुम्हारा ।
दादू के तुम सजन सहाई, 
कछू न बसाइ हमारा ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु, मन निग्रह अर्थ विनती कर रहे हैं कि हे माधव ! इस हमारे मन को आप अपनी दया - दृष्टि से रोकिये । हमतो इसको बरज बरज कर थक रहे हैं, परन्तु इसकी गति तो विषया स्त्री आदि से रत्त होकर, पुनः पुनः उन्हीं पदार्थों के लिये, वासना रूप गर्जना कर करके चलता है ।
.
यह अति आतुरता से विषयों को भोगता है । उनके भोगने में शास्त्र की, गुरुओं की, उत्तम पुरुषों की, शंका नहीं मानता है अर्थात् लज्जा नहीं करता है और हलाहल विषयों को ही भोगता है । सदैव यह माया और माया के कार्यों में ही मग्न रहता हैं और विषयों को ही अमृत सुख जानता है ।
.
पांच ज्ञान इन्द्रियों के साथ, अन्तःकरण की चारों वृत्तियों के द्वारा, जागृत स्वप्न में बहता रहता है । अपने आपको उधर से उलट कर अन्तःकरण में आपके नाम में कभी भी नहीं लगता है । जहाँ जहाँ काल है, वहाँ वहाँ ही वह जाता है । जैसे मृग मरीचिका के जल के लिये दौड़ता रहता है, वैसे ही यह मन मायावी विषय - वासनाओं के लिये दौड़ता रहता है ।
.
हे परमेश्‍वर ! सच्चे संत और तत्ववेत्ता गुरुदेव ज्ञान देते हैं, परन्तु उनके ज्ञान को यह नहीं कबूल करता है । आपका भाव - भजन तो इसको भाता ही नहीं । हे परमेश्‍वर ! आप ही हमारे सज्जन और सहायक हो । इस मन पर तो हमारा कुछ भी वश नहीं चलता है ।
.
Restrain, O God, restrain this mind.
Roaring, again and again it rises;
It rushes with great speed and becomes
engrossed in sense objects.
Extremely restless, seeking sensual indulgence,
it takes great delight in sensuality and has no fear.
Mistaking poison for nectar, it rejoices
in illusion and consumes the poison.
In association with the five senses, it runs
in the four directions, and returns not within.
Where there is Kal, there does it go;
in pursuit of the mirage does it run.
Saints’ exhortations, the Guru’s instructions, it heeds not;
nor does it have any feeling or devotion for You.
You alone are Dadu’s friend and helper;
my strength is of no avail.
.
(English translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

= १३१ =

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राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
१३१. केवल विनती । त्रिताल ~
http://youtu.be/L1LlzqhvS0I
हमारे तुम ही हो रखपाल ।
तुम बिन और नहीं को मेरे, 
भव - दुख मेटणहार ॥टेक॥
वैरी पंच निमष नहिं न्यारे, 
रोक रहे जम काल ।
हा जगदीश ! दास दुख पावै, 
स्वामी करहु सँभाल ॥१॥
तुम्ह बिन राम दहैं ये द्वन्दर, 
दसौं दिशा सब साल ।
देखत दीन दुखी क्यों कीजे, 
तुम हो दीन - दयाल ॥२॥
निर्भय नाम हेत हरि दीजे, 
दर्शन पर्सन लाल ।
दादू दीन लीन कर लीजे, 
मेटहु सब जंजाल ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें केवल विनती कर रहे हैं कि हमारे तो हे परमेश्‍वर ! आप ही रक्षा और पालन करने वाले हो । और दूसरा आपके बिना हमारा संसार में जन्म - मरण रूप दुःख मेटने वाला कोई नहीं है ।
.
हे नाथ ! ये काम, क्रोध आदि या शब्द - स्पर्श रूप बैरी एक क्षण भी अन्तःकरण से अलग नहीं हो रहे हैं । ये ही हमारे यम रूप काल बनकर आपसे मिलने के मार्ग में रुकावट डाल रहे हैं । हे स्वामी ! हे जगदीश ! हम आपके दास इनसे दुःखी हो रहे हैं । आप ही हमारी रक्षा करो ।
.
आपके बिना हे राम ! यह राग - द्वेष आदि द्वन्द्व हमको दुखी कर रहे हैं । दशों - दिशाओं में, इनका ‘साल’ कहिये दुःख हमको व्याप रहा है । हे नाथ ! आप देखते हुए भी हम दीनों को इनसे दुःखी क्यों करते हो ?
.
आपके नाम - स्मरण में हमको प्रीति देकर इनसे निर्भय कीजिये । हे लाल ! हे प्यारे परमेश्‍वर ! इस प्रकार हमको आप अपना दर्शन देकर अपने में अभेद करिये । हे नाथ ! हमतो आपके दीन गरीब जन हैं । आप हमारे सम्पूर्ण मायिक जाल को निवारण करके अब अपने स्वरूप में लीन कर लीजिये ।
(क्रमशः)

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

= १३० =

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साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३०.(गुजराती) विनती । पंचमताल
तूँ ही तूँ तनि माहरे गुसांई, तूँ बिना तूँ केने कहूँ रे ।
तूँ त्यां तूँ ही थई रह्यो रे, शरण तुम्हारी जाय रहूँ रे ॥टेक॥
तन मन मांहि जोइये त्यां तूँ, तुज दीठां हौं सुख लहूँ रे ।
तूँ त्यां जेटली दूर रहूँ रे, तेम तेम त्यां हौं दुःख सहूँ रे ॥१॥
तुम बिन माहरो कोई नहीं रे, हौं तो ताहरा वैण बहूँ रे ।
दादू रे जण हरि गुण गाता, मैं मेलूँ माहरो मैं हूँ रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, इसमें विनय कर रहे हैं कि हे हमारे स्वामी परमेश्‍वर ! आपका ही स्मरणरूप हमारे अन्तःकरण में ध्वनि हो रही है । हे प्रभु ! आपके प्रकट हुए बिना मैं ‘तू’ किसको कहूँ, क्योंकि ‘तू’ तो अपने अत्यन्त स्नेही को ही कहा जाता है । आप ही जड़ चेतन सृष्टि में वृत्ति द्वारा भासित हो रहे हो । अब मैं आपकी ही शरण रूप स्थिति में जा रहा हूँ । 
.
अपने तन में, मन में, आपको ही व्याप्त देखता हूँ । आपका दर्शन करके ही, हम सुखी रहते हैं । आप वहाँ हो, इतना कहने में ही जो फर्क पड़ता है, त्यों - त्यों ही हमको दुख होता है । 
.
हे नाथ आपके बिना हमारा स्नेही कोई भी नहीं है । मैं तो आपको दिये हुए वचनों से भटक गया हूँ । अब हम विरहीजन आप हरि के गुणानवाद गाते हुए ही, अपने अनात्म अहंकार को त्यागकर आपको अपना लक्ष्य स्वरूप जानकर, आपमें ही रहेंगे ।
(क्रमशः)

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

= १२९ =

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राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२९.(गुजराती) । पंचम ताल ~
तूँ छे मारो राम गुसांई,
पालवे तारे बाँधी रे ।
तुज बिना हूँ आंतरे र - वल्यो,
कीधी कमाई लाधी रे ॥टेक॥
जीवूं जेटला हरि बिना रे,
देहड़ी दुःखे दाधी रे ।
एणे अवतारे कांई न जाण्यूं,
माथे टक्कर खाधी रे ॥१॥
छूटको मारो क्यारे थाशे,
शक्यों न राम अराधी रे ।
दादू ऊपर दया मया कर,
हूँ तारो अपराधी रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहीजनों का भाव दिखा रहे हैं कि हे परमेश्‍वर राम! आप ही हमारे पति हो । अब तो हम आपके पल्ले बंध गये हैं । अब तक हम आपके बिना अन्यत्र भटक रहे थे । यह मेरे पूर्व कर्मों का ही फल मुझे मिल रहा है ।
.
हे हरि ! अब हम आपके दर्शनों के बिना, जब तक जीते रहेंगे, तब तक हमारा शरीर, विरह रूप अग्नि से जलकर संतप्त रहेगा । इस मनुष्य जन्म में हम आपके दर्शन क्यों नहीं पाते हैं ? आपके वियोग में हमने बहुत सी साधक रूपी टक्करें खाई हैं ।
.
अब हमारा छुटकारा किस प्रकार होगा ? क्योंकि हम जानते हैं कि आपकी जैसी आराधना करनी चाहिये, वैसी हमने नहीं करी है । हे नाथ ! हम तो आपके अपराधी सेवक हैं । आप ही हम पर दया मया करो ।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

= १२८ =

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१२८. गुजराती भाषा । त्रिताल ~
वाहला हौं जाणूं जे रंग भर रमिये, 
मारो नाथ निमिष नहिं मेलूँ रे ।
अंतरजामी नाह न आवे, 
ते दिन आव्यो छैलो रे ॥टेक॥
वाहला सेज हमारी एकलड़ी रे, 
तहँ तुजने केम न पामों रे ।
आ दत्त अमारो पूरबलो रे, 
तेतो आव्यो सामों रे ॥१॥
वाहला मारा हृदया भीतर केम न आवै, 
मने चरण विलम्ब न दीजे रे ।
दादू तो अपराधी तारो, 
नाथ उधारी लीजे रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहीजनों का विलाप दिखा रहे हैं कि हे हमारे प्यारे परमेश्‍वर ! हम विरहीजन अपने अन्तःकरण में आपका प्रेम रूपी रंग भरकर आपसे खेलें, क्योंकि आप हमारे स्वामी हो । आपको हम अपने हृदय से एक क्षण भी अलग नहीं करना चाहते ।
.
हे अन्तर्यामी हमारे पति ! आप अभी तक आये नहीं और अन्त समय का दिन हमारा आ पहुँचा है । हे प्यारे ! हमारी हृदय रूपी सेज आपके बिना खाली है । इस पर हम आपको क्यों नहीं प्राप्त कर रहे हैं, आपके दर्शनों के बीच हमारे कोई पूर्व के कर्म प्रतिबन्धक हो रहे हैं,
.
हे प्यारे ! आप दया करके हमारे हृदय में अपने दर्शन क्यों नहीं देते हो ? यह उम्र रूपी रात्रि बीतती जा रही है । अब तो हमको, आपके चरणों का दर्शन करने दो । हम तो विरहीजन, आपके अपराधी सेवक हैं । हे स्वामी ! अब आप ही हमारा उद्धार करो ।
(क्रमशः)

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

= १२७ =

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राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१२७. त्रिताल ~
पीव ! हौं कहा करूँ रे, 
पाइ परूं के प्राण हरूं रे,
अब हौं मरणे नांहि डरूं रे ॥टेक॥
गाल मरूं कै, जालि मरूं रे, 
कै हौं करवत शीश धरूं रे ॥१॥
खाइ मरूं कै घाइ मरूं रे, 
कै हौं कतहूँ जाइ मरूं रे ॥२॥
तलफ मरूं कै झूरी मरूं रे, 
कै हौं विरही रोइ मरूं रे ॥३॥
टेरि कह्या मैं मरण गह्या रे, 
दादू दुखिया दीन भया रे ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरह विलाप दिखा रहे है कि- हे प्रीतम प्यारे परमेश्‍वर ! हम आपके वियोग में अब क्या करें ? हम आपके चरणों में पड़ते हैं कि दर्शन दो या इस शरीर से हम प्राणों को त्याग कर दें । अब तो हम मरणे से कुछ भी भय नहीं करते हैं ।
.
क्या इस शरीर को बर्फ में गलाकर मरें या अग्नि में जला कर मरें या अपने मस्तक पर करवत धारण करें ।
.
अथवा कुछ खाकर मर जावें या इस शरीर पर शस्त्रों का आघात करके मरें । या कहीं पहाड़ जंगल में जाकर मर जावें ।
.
आपके लिये तलफ - तलफ, झूर - झूरकर हम मर रहे हैं । हम विरहीजन क्या आपके लिये अब रो रो कर मरेंगे ।
.
हम आपको पुकार कर कहते हैं कि आपके दर्शनों के लिये हमने मरणा मांड लिया है । क्योंकि हम विरहीजन अति दुःखी आपके आधीन हो रहे हैं ।
(क्रमशः)

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

= १२६ =

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१२६. विरह विलाप । झपताल ~
मरिये मीत विछोहे, जियरा जाइ अंदोहे ॥टेक॥
ज्यों जल विछुरे मीना, तलफ तलफ जिय दीन्हा,
यों हरि हम सौं कीन्हा ॥१॥
चातक मरै पियासा, निशदिन रहै उदासा,
जीवै किहि बेसासा ॥२॥
जल बिन कमल कुम्हलावै, प्यासा नीर न पावै,
क्यों कर तृषा बुझावै ॥३॥
मिल जनि बिछुरो कोई, बिछुरे बहु दुख होई,
क्यों कर जीवै जन सोई ॥४॥
मरणा मीत सुहेला, बिछुरन खरा दुहेला,
दादू पीव सौं मेला ॥५॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरह - विलाप का स्वरूप कहते हैं कि हे हमारे मित्र परमेश्‍वर ! आपके दर्शनों के वियोग से, अब तो हम विरहीजन मर रहे हैं । और हमारे जीव में यह आपकी अप्राप्तिरूप पश्‍चात्ताप ही साथ जायेगा ।
.
जैसे मछली जल के वियोग में अपने प्राण तड़फ कर त्याग देती है, वैसे ही हे हरि ! हम विरहीजन भी आपके दर्शनों के बिना तलफ कर जीव दे रहे हैं ।
.
जिस प्रकार पपैया स्वाति - नक्षत्र की बूँद के वियोग में रात - दिन उदास रहकर जल के बिना पुकारता है,
.
जैसे प्यासा कमल जल के बिना सूख जाता है, अपनी प्यास नीर के बिना किससे बुझावे ?
.
इसी प्रकार परमेश्‍वर से मिलकर कोई भी विरहीजन भक्त नहीं बिछुड़ते, क्योंकि परमेश्‍वर से बिछुड़ने से विरहीजनों को बहुत दुःख होता है । आपके विरहीजन भक्त आपके वियोग में कैसे जीवें ?
.
हे मित्र ! मरणा तो हमारे लिये ‘सुहेला’ कहिए सुख रूप है, परन्तु आपसे वियोग होना भारी दुःख है । इसलिये हम विरहीजनों से आप मिलाप करिये ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

= १२५ =

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१२५. विरह(गुजराती) । राज विद्याधर ताल ~
म्हारा रे वाहला ने काजे, 
हृदये जोवा ने हौं ध्यान धरूं ।
आकुल थाये प्राण मारा, 
कोने कही पर करूँ ॥टेक॥
संभार्यो आवे रे वाहला, 
वेहला एहों जोई ठरूं ।
साथीजी साथे थइ ने, 
पेली तीरे पार तरूं ॥१॥
पीव पाखे दिन दुहेला जाये, 
घड़ी बरसां सौं केम भरूं ।
दादू रे जन हरि गुण गाता, 
पूरण स्वामी ते वरूं ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विरहीजनों का भाव दिखा रहे हैं कि हे हमारे प्यारे ! आपको हृदय में देखने के लिये विरह सहित आपका ध्यान करते हैं । हमारे प्राण आपके दर्शनों के बिना व्याकुल हो रहे हैं । कहो न, आपके बिना किसके पास पुकार करें ?
.
आप तो स्मरण करते ही विरहीजन भक्तों के हृदय में आते हो । हमारे को भी इस समय आप दर्शन देओ । जिससे आपका दर्शन करके हमारा हृदय शीतल होवे । हे साथी जी ! साथ रहने वाले, आपके साथ रहकर हम संसार - समुद्र से पार तिरेंगे ।
.
हे पीव ! आपके बिना मेरी उम्र के दिन कठिनता से बीत रहे हैं । आपके बिना एक - एक घड़ी हम वर्षों के समान बिता रहे हैं । पूरा दिन कैसे काटें ? हे स्वामी ! हम आपके विरहीजन, आपका स्मरण करते हैं और आपको ही हमने अपना पति कहिये स्वामी वरण किया है ।
(क्रमशः)

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

= १२४ =

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१२४. (गुजराती) विरह विनती । राज मृगांक ताल ~
कब मिलसी पीव गृह छाती, 
हौं औराँ संग मिलाती ॥टेक॥
तिसज लागी तिसही केरी, 
जन्म जन्म नो साथी ।
मीत हमारा आव पियारा, 
ताहरा रंग नी राती ॥१॥
पीव बिना मने नींद न आवे, 
गुण ताहरा ले गाती ।
दादू ऊपर दया मया करि, 
ताहरे वारणे जाती ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु इसमें विरहपूर्वक विनती कर रहे हैं कि हे हमारे प्रीतम परमेश्‍वर ! इस शरीर के हृदय रूपी घर में, कब हमसे छाती से छाती मिलाकर, मिलोगे ? हम विरहीजन, जब तक आपका दर्शन नहीं पाते, तब तक अपनी छाती ‘कहिये’ सुरति, दुःखों से मिला रहे हैं ।
.
हमें तो आपके दर्शनों की ही प्यास लग रही है । क्योंकि आप हमारे जन्म - जन्मान्तरों के साथी हो । हे हमारे मित्र ! आप हमारे हृदय में आओ । हम आपके वारी जाते हैं । हम तो आपके रंग में रंगी हुई हैं ।
.
हे प्रीतम ! आपके बिना हम सुख की नींद नहीं सोते । हृदय में आपके गुणों को याद करके, आपका स्मरण करते रहते हैं । अब हम विरहीजनों पर आप दया - मया करो । हम आपके ऊपर बलिहारी जाते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

= १२३ =

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१२३.(गुजराती भाषा) । राज मृगांक ताल ~
पीव घर आवे रे, वेदन मारी जाणी रे ।
विरह संताप कौण पर कीजे,
कहूँ छूं दुख नी कहाणी रे ॥टेक॥
अंतरजामी नाथ मारा,
तुज बिण हूँ सीदाणी रे ।
मंदिर मारे केम न आवे,
रजनी जाइ बिहाणी रे ॥१॥
तारी बाट हूँ जोइ थाकी,
नैण निखूट्या पाणी रे ।
दादू तुज बिण दीन दुखी रे,
तूँ साथी रह्यो छे ताणी रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्‍वर से विनती कर रहे हैं कि हे परमेश्‍वर ! आप हमारे विरह के दर्द को जानकर, हमारे हृदय रूपी घर में दर्शन दीजिये । हम विरहीजन, इस विरह के संताप की पुकार किसके पास जाकर करें ।
.
हम अपनी दुःख भरी कथा आपको ही सुना रहे हैं । हे अन्तस् की जानने वाले हमारे स्वामी ! आपके बिना हम मुरझा रहे हैं । हमारे हृदयरूपी मन्दिर में आप क्यों नहीं प्रगट होते हो ? यह हमारी उम्र रूपी रात्रि आपके बिना वृथा ही जा रही है ।
.
आपका रास्ता देख कर थक रहे हैं और हमारे नेत्रों का पानी भी सूख गया है, रुदन करते - करते । हे नाथ ! हम विरहीजन आपके बिना दुःखी हो रहे हैं । आप हमारे साथ रहकर भी हमसे ‘ताणी’ कहिये ‘अलग’ क्यों हो रहे हो ?
(क्रमशः)

शनिवार, 31 जनवरी 2015

= १२२ =

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१२२. विनती । मल्लिका मोद ताल ~
पीवजी सेती नेह नवेला, 
अति मीठा मोहि भावे रे ।
निशदिन देखौं बाट तुम्हारी, 
कब मेरे घर आवे रे ॥टेक॥
आइ बनी है साहिब सेती, 
तिस बिन तिल क्यों जावे रे ।
दासी कों दर्शन हरि दीजे, 
अब क्यौं आप छिपावे रे ॥१॥
तिल तिल देखूं साहिब मेरा, 
त्यों त्यों आनन्द अंग न मावे रे ।
दादू ऊपर दया मया करि, 
कब नैनहुँ नैन मिलावे रे ॥२ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्‍वर के दर्शनार्थ विनती कर रहे हैं कि हे परमेश्‍वर! आपसे हमारा प्रेम नित्य नया बढ़ रहा है । आपके दर्शन हमको अति प्रिय लगते हैं । रात - दिन आपके दर्शनों की बाट देख रहे हैं । हमारे हृदयरूपी घर में आप कब प्रकट होंगे ?
.
आपसे ही हमारी सब बात बनेगी । आपके बिना अब तो एक पल भी उम्र का बीतना कठिन हो रहा है । हम विरहीजन दासों को, हे हरि ! आकर दर्शन दीजिये । अब आप अपने स्वरूप को हमसे क्यों छिपा रखा है ?
.
हे हमारे साहिब ! क्षण - क्षण में आपका दर्शन करें, तब हमारे हृदय में आपके दर्शनों का आनन्दमय सुख समा नहीं सकता । अब हम विरहीजनों पर दया करके आप अपने नेत्र हमारे नेत्रों से मिलाइये, अर्थात् आमने सामने करिये ।
(क्रमशः)