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रविवार, 23 नवंबर 2014

= २०० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
पंच पदारथ मन रतन, पवना माणिक होइ । 
आतम हीरा सुरति सौं, मनसा मोती पोइ ॥ 
अजब अनूपम हार है, सांई सरीषा सोइ । 
दादू आतम राम गल, जहाँ न देखे कोइ ॥ 
दादू पंचों संगी संग ले, आये आकासा । 
आसन अमर अलेख का, निर्गुण नित वासा ॥ 
प्राण पवन मन मगन ह्वै, संगी सदा निवासा । 
परचा परम दयालु सौं, सहजैं सुख दासा ॥ 
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साभार : Osho Prem Sandesh ~ 
बहुत संपत्तियां खोजीं, किंतु अंत में उन्हें विपत्ति पाया। फिर, स्वयं में संपत्ति के लिए खोज की। जो पाया वही परमात्मा था। तब जाना कि परमात्मा को खो देना ही विपत्ति और उसे पा लेना ही संपत्ति है।
किसी व्यक्ति ने एक बादशाह की बहुत तारीफ की। उसकी स्तुति में सुंदर गीत गाए। वह उससे कुछ पाने का आकांक्षी था। बादशाह उसकी प्रशंसाओं से हंसता रहा और फिर उसने उसे बहुत सी अशर्फियां भेंट कीं। उस व्यक्ति ने जब अशर्फियों पर निगाह डाली, तो उसकी आंखें किसी अलौकिक चमक से भर गई और उसने आकाश की ओर देखा। उन अशर्फियों पर कुछ लिखा था। उसने अशर्फियां फेंक दीं और वह नाचने लगा। उसका हाल कुछ का कुछ हो गया। उन अशर्फियों को पढ़कर उसमें न मालूम कैसी क्रांति हो गई थी। 
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बहुत वर्षो बाद किसी ने उससे पूछा कि उन अशर्फियों पर क्या लिखा था ?वह बोला,उन पर लिखा था 'परमेश्वर काफी है'। सच ही परमेश्वर काफी है। जो जानते हैं, वे सब इस सत्य की गवाही देते हैं।
मैंने क्या देखा ? जिनके पास सब कुछ है, उन्हें दरिद्र देखा और ऐसे संपत्तिशाली भी देखें, जिनके पास कि कुछ भी नहीं है। फिर, इस सूत्र के दर्शन हुए कि जिन्हें सब पाना है, उन्हें सब छोड़ देना होगा। जो सब छोड़ने का साहस करते हैं, वे स्वयं प्रभु को पाने के अधिकारी हो जाते हैं। 
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

= १९९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
 ३७७. आशीर्वाद । षड़ताल 
धन्य तूँ धन्य धणी, 
तुम्ह सौं मेरी आइ बणी ॥टेक॥ 
धन्य धन्य धन्य तूँ तारे जगदीश, 
सुर नर मुनिजन सेवैं ईश । 
धन्य धन्य तूँ केवल राम, 
शेष सहस्र मुख ले हरि नाम ॥१॥ 
धन्य धन्य तूँ सिरजनहार, 
तेरा कोई न पावै पार । 
धन्य धन्य तूँ निरंजन देव, 
दादू तेरा लखै न भेव ॥२॥
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!! श्री भगवान् भाष्यकार चरणकमलेभ्यो नमो नमः !!
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“ धन्यता{कृत - कृत्यता} का बोध ” {४} : 
✿════════════════════✿ 
नारायण ! राजा भीमसेन वस्तुतः वेद की जगह हैं और उनका मन्त्री मतिसार मति अर्थात् युक्ति है । वेद और युक्ति, जिनको दोनों मिले हुए हों, वे कभी परास्त नहीं होते । इसलिये तो "भगवान् श्री मनु महाराज" ने नियम किये हैं "युक्तिहीन विचारेण धर्महानिःप्रजायते ।" जो युक्ति से रहित होकर वेद अर्थात् श्रुति का विचार करता हैं, वे धर्म का नुकसान करता है, फायदा नहीं करता । 
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बहुत बार लोग लोग हमें कहा करते हैं कि "महाराज ! क्या कारण है कि आज के जन - जीवन में धर्म का इतना प्रचार होने पर भी धर्म की हानि देखने में आती है ?" उसका कारण यही है कि युक्ति सहित होकर धर्म का विचार नहीं है । इसलिये वह नुक्सान देता है । श्रुतियों को समझने के लिए हमेशा युक्ति रूपी औजार का प्रयोग करना चाहिये नहीं तो गड़बड़ा जायेंगे । सामान्य आदमी की भी बात समझनी हो तो युक्ति लगानी पड़ती है । 
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माँ कई बार गुस्सा हो लड़के को कहती है "मर जा, राम मारिया !" इसका मतलब यह है नहीं कि वह जहर खा ले । मतलब युक्ति से है कि अमुक काम मत करो । लड़का कोई बुरा कर्म करने जाता है, शराब पीता है तो बाप कहता है कि "शराब पीनी है तो मेरे घर मत आना ।" मतलब यह नहीं कि दूसरा फ्लैट लेकर शराब पिया कर ! मतलब यह है कि शराब मत पिया कर । युक्ति होगी तब यह मतलब समझ में आयेगा । जहाँ राजा भीमसेन और उसका मन्त्री मतिसागर अर्थात् वेद और युक्ति दोनों साथ है वहाँ कभी हार नहीं होती । 
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नारायण ! हेमपुर प्रत्येक प्राणी का अपना शहर है । यह हेम अर्थात् स्वर्ण का नगर है । बड़ा ही सुन्दर नगर है । प्रत्येक मनुष्य के अन्दर आठ दरवाजे वाला{पुर्यष्टक} है जैसे दिल्ली चार दरवाजों वाली है। हेमपुर में रहने वाला राजा हेमरथ है, जो इसको चलाने वाला है लेकिन इसने चण्ड के हाथ में अधिकार दे रखा है । काम, क्रोध, लोभ चण्ड हैं, उनके हाथ में अधिकार दे रखा है । जो काम, क्रोध, लोभ कहेँ, वही इस राज्य में चलता है । 
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ये तीनों अत्यन्त दुष्ट प्रकृति के हैं इसलिये ये चण्ड हैं ओर इनके हाथ में राज्य देकर मनुष्य कहता है कि "आज मेरे मन की बात हो गई ।" उसे दुःख नहीं होता कि "मन की तो बात हो गई, मेरा क्या बनेगा !" काम, क्रोध से प्रयुक्त होकर चलना ही "प्रेय मार्ग" हो गया । इसीलिये "श्रेय मार्ग" से दूर हुआ है । इस चण्ड मन ने काम, क्रोध, लोभ से युक्त होकर चाण्डालिनी मातंगिनी से सम्बन्ध कर रखा है । मातंग हाथी को कहते हैं, हाथी कभी नहीं भूलता । इसी प्रकार हमारे अनुभवों की वासनायें ही मातंगी हैं । 
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लोग कहते है कि "मैं सिनेमा देखता हूँ लेकिन मेरे ऊपर कोई असर नहीं पड़ता ।" ऐसा कभी हो सकता है ! कोई कहे कि "मैं भासयन्त्र अर्थात् कैमरे से फोटो लेता रहता हूँ, कैमरे में फिल्म भी है, लेकिन फोटो नहीं आती", तो कभी नहीं हो सकता । जो चीज देखेंगे, वह कभी भूलने वाली नहीं है, वह अपनी वासना जरूर डालेगी । काम - क्रोध रूपी चण्डाकार मन ने वासना अर्थात् मातंगी से रिश्ता जोड़ रखा है । वासना में फँसा हुआ उसी के अनुसार चलता है । 
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किसी समय आत्मा कहता है कि मुझे इससे छूटना है तो पता लगता है कि जब देखो वासना के पीछे दौड़ता रहता है । अभी इसे वेद और युक्ति नहीं मिले । इसको चलाने वाले जीव अर्थात् हेमरथ को होश आता है तो मन - रूपी चण्ड को बाँधकर खौलते तेल में डाल देता है, अर्थात् इस मन को जबरदस्ती कष्ट देता है । 
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जितना हठ योग का अभ्यास है, यह सारा मन को बाँधकर तलने की तरह है । हम खायेंगे नहीं, हम अमुक काम नहीं करेंगे तो अन्दर - ही - अन्दर मन तड़पेगा । अब उस अपूर्ण कामना से भरे हुए मन को कामना पूर्ण करने का मौका तो मिला नहीं, इसलिये अब वह राक्षस बन जाता है । ताड़ना के द्वारा मन बजाय वश में होने के और भयंकर हो जाता है । रावण आदि के जीवन में देखें, उन्होंने मन पर बड़ा नियन्त्रण किया लेकिन हठयोग से किया, जिसका नतीजा यह है कि अपने सारे - के - सारे कुटुम्ब को मरवा दिया । 
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आज का मनोविज्ञान भी बार - बार यही कहता है कि "रिप्रैशन" अर्थात् विवेकहीन निग्रह बड़ा बुरा है । हठयोग के द्वारा इसे रोकने से सारी - की - सारी अधश्चेतना बनती जाती है । हठयोग के द्वारा यह उन्मूलित नहीं होता । संसार में अधिकतर मत - मतान्तर कहते हैं कि हठ से करो, लेकिन उसका कुछ फायदा नहीं होना है । अब इसका नतीजा यह हो गया है कि ईश्वर की सोने जैसी सृष्टि उजड़ी पड़ी है । न अपने अन्दर चैन और न आपसे - हमसे दूसरे को चैन मिलता है । 
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नीन्द लाने के लिये आज लोग गोलियाँ खाते हैं । कितनी सुन्दर परमेश्वर की सृष्टि है, वातानुकूल कमरे में मखमल के गद्दों पर सोया हुआ, रेफ्रिजेटर से ठण्डी - ठण्डी नींबू की शिकंजी आ रही है, और फिर कहता है "डॉक्टर साहब ! नीन्द नहीं आती ।" पूछते है क्या होगया, क्या एयरकण्डिशनर खराब हो गया ? कुछ नहीं, मन खराब हो गया था, सारे - के - सारे दुःख हैं । कारण यही है कि अधश्चेतना में मन को नियन्त्रित करके अन्दर दबाया गया है । सब कुछ हेमपुर में है लेकिन सुख और शान्ति नहीं । बाकी सब चीजें हैं, संसार की कोई चीज ऐसी नहीं जो न मिलती हो । 
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हमारे एक सज्जन मित्र कहते हैं कि संसार की कोई चीज ऐसी नहीं है जो पैसे से न मिले । हम कहते है बिना पैसे के सुख और शान्ति मिलती है । चाहे जितना पैसा दो लेकिन शान्ति नहीं मिलने वाली है। वह दबा हुआ मन रूपी राक्षर जिसे तल दिया गया है, वह मन इस आत्मा अर्थात् जीव के अंग - अंग को नोंच - नोंचकर खा रहा है । इसके अनन्त और आनन्द रूप को, अभय और अशोक रूप को खा रहा है । इसलिये यह बेचारा शोक वाला, भय वाला और परिच्छन्न बना हुआ है, और दुःखी बना हुआ है । प्रेय का सारा - का - सारा दबा हुआ मामलता इसे खा रहा है । 
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नारायण ! वहीं पर किसी काल में भीमसेन और मतिसागर, वेद और युक्ति का विचार सामने आ जाता है तब इस राक्षस बने हुए चण्ड को वेद कहता है कि "तेरी भी मुक्ति कराऊँगा । अरे मन, तू काम, क्रोध आदि के कारण बड़ा परेशान है । तू भी बड़े मज़े मे नहीं है, तेरी चलती जरूर है लेकिन सुख और शान्ति तेरे को भी नहीं है ।" जब यह समझता है तो उस राक्षस की भी मुक्ति करवा देता है, मन भी संतुष्ट हो जाता है । 
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जब परमात्मा की तरफ जाता है तो अधश्चेतना की कामना कहीं जाती नहीं, लेकिन अब इसे पता लग गया कि कामना किसकी करूँ । कहते है कामना ही करना चाहता है तो "आप्तकामः" आत्मा की कामना कर । बड़ा गुस्सा आता है । कोई बुरा नहीं, गुस्सा कर, लेकिन अनात्मा पर सारा क्रोध निकाल ले । लोभ कर, ना नहीं करते, शम, दम आदि सब का खुब लोभ कर कोई मना नहीं ! अब मन भी संतुष्ट हो जाता है । राक्षस की मुक्ति हो जाती है । शहर पुनः बस जाता है, जीवन्मुक्ति का आनन्द आने लगता है, उजड़े शहर में पुनः सुख और शान्ति छा जाती है । मन के गहनतम तत्त्वों से सुख - शान्ति आनी है । आत्म - तत्त्व खुलने पर सुख और शान्ति की प्राप्ति हो जाती है । इसी को श्री आचार्य शङ्कर ने धन्य कहा है । 
समाप्त । 
नारायण स्मृतिः 

शनिवार, 22 नवंबर 2014

= १९८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू शब्द बाण गुरु साध के, दूर दिसन्तरि जाइ । 
जिहि लागे सो ऊबरे, सूते लिये जगाइ ॥ 
सतगुरु शब्द मुख सौं कह्या, क्या नेड़े क्या दूर । 
दादू सिष श्रवणहुँ सुण्या, सुमिरण लागा सूर ॥ 
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साभार : Tintin Cung
Param Sant Sahjo Bai 

Her marriage ceremony had just been over. Preparations were afoot to send her off to her in-laws' house. Her hair was being done. She was being meticulously dressed & decorated. Her friends were busy doing her make-up. It was then only, shall we say by the quirk of the fate that Charan Das Ji appeared on the scene. Looking at Sahjo Bai whose make-up was in progress, he remarked, 

"O Sahjo! This world is not your permanent abode. We would have to leave, it is dead sure, this world. Would you trade your head for such a fickle & ephemeral conjugal bliss?" 

No sooner than these words had been uttered, she put off all items of make-up and decoration, and gave up the very idea of going to her in-laws' place. Instead, she got herself married to a life of meditation and grew up, in due course of time, into a great devotee and sant herself. 

She could attain the Ultimate Perfection (Self Realisation) by meticulously and rigorously obeying the instructions of her Guru, and thus, she had gratefully experienced his infinite grace. 

It is with this deep sense of gratitude in her mind that she has expressed her heartfelt emotions towards her Guru in the following verses: 

"Oh Sahjo, I could leave God but my Guru I could never. For even God is not equal to my Guru. 

He was the one who brought me into this world its true, but it was my Guru who freed me from the cycle of birth and death 

He set the five thieves upon me, but it was my Guru who released me from their power. 

He entangled me in the web of my family, but it was my Guru who broke my chains of attachment. 

He bound with me this disease for the love of life, but it was my Guru who freed me and turned me into a yogi 

He confused me with Karma and Dharma, but it was my Guru who showed me my own soul 

He hid himself from me, but my Guru gave me a lamp and revealed him. 

Above all, it was He who bounded and enslaved me but it was my Guru who freed me from all illusion. 

I will leave my body, my mind, I would even leave God........... but my Guru I would never"

= १९७ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
ए ! प्रेम भक्ति बिन रह्यो न जाई, 
परगट दरसन देहु अघाई ॥टेक॥ 
तालाबेली तलफै माँही, 
तुम बिन राम जियरे जक नांही । 
निशिवासर मन रहै उदासा, 
मैं जन व्याकुल श्वासों श्वासा ॥१॥ 
एकमेक रस होइ न आवै, 
तातैं प्राण बहुत दुख पावै । 
अंग संग मिल यहु सुख दीजे, 
दादू राम रसायन पीजे ॥२॥ 
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साभार : Gyan-Sarovar(ज्ञान-सरोवर) ~ 
एक बार एक परमात्मा का खोजी उसे पाने की उसको अनुभव करने की चाह लिए निकला। ढूंढा बहुत बाहर लेकिन पा न सका, कभी मंदिर गया, कभी मस्जिद। शायद कोतुहलवश बाहर खोज रहा था। लेकिन उसे परमात्मा मिल न सका।
आखिरकार हार मान बैठा। फिर ग्रंथों को पढना आरंभ कर दिया पांडित् बनने लगा। अफ़सोस फिर भी न पा सका। लेकिन फिर एक सार पकड लिया। पूर्ण गुरु के बिना परमात्मा का अनुभव संभव नहीं। भीतर उठे इस कोतुहल को शांत करने के लिए महापुरुषों की जीवनी पढने लगा। तो जान गया कोई तो सच्चा महापुरुष इस जहां में होगा जो मुझे परमात्मा का दर्शन करवा दे।
खोज शुरू करता है। यहाँ कमाल देखो जो कभी परमात्मा का खोजी था वह गुरु खोजने निकल पड़ा। यही हुआ करता है। और सच में कोई पूर्ण महापुरुष यह जान गये थे, और वो उनसे ही जा मिला। और बोला क्या आप मुझे ईश्वर दर्शन करवा सकते हैं। मुझे ब्रह्मज्ञान प्रदान कर दीजिये। उन दिव्य महापुरुष को उसके मन की स्थिति को जानते देर न लगी।
उन्होंने कहा यहाँ तुम्हे कोई पूर्ण गुरु नहीं मिलेगा। जबकि वो स्वंम पूर्ण महापुरुष थे। बस उसकी परीक्षा ले रहे थे। उन्होंने कहा तुम खोज जारी रखो और जब तुम्हे कोई ऐसा दिव्य महापुरुष मिले जिसे देखते ही तुम्हारी आंखे नम हो जाये। जिनकी उपस्थिति तुम्हे भीतर तक जगा दे, जिनका दिव्य चेहरा तुम्हे उनका भक्त बना दे। वही तुम्हे ब्रह्मज्ञान देकर ईश्वर का अनुभव करवाएंगे, जाओ वो तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं, उन्हें ढूंढ लो। वो आगे बढ़ चला।
बहुत ढूंढा। कई शहर छान मारे। लेकिन ऐसा कोई नहीं मिला। आखिर एक बार समुद्र के किनारे आ पंहुचा। तड़प उठा। भीतर से आत्मा गुरु को पाने के लिए विव्हल हो उठी। आंसू बहने लगे। और पुकार इतनी तेज उठी कि अचानक वातावरण में दिव्य सुगंधी फ़ैल उठी। अत्यंत उर्जा मय वातावरण हो गया। और उसने एक पेड़ के पास नजर घुमाई।
देखा कि एक दिव्य महापुरुष पेड़ के नीचे बैठे हैं। इतना नूरानी चेहरा देख कर वह उनका मुरीद हो गया। उनकी क्रांतिकारी दिव्य उर्जा उसे अंदर तक जाग्रती फैला रही थी। कुछ याद आ गया। ये तो वही महापुरुष थे जो पहले उसे मिले थे। वो उनके चरणों को पकडकर रोने लगा। और उनके दर्शन करके उसे ऐसा लगा जेसे एक प्यासी नदी को सागर का संग मिल गया हो। उसने गुरु से पूछा आपको मैं कब से ढूंढ रहा था।
गुरु बोले हाँ, उस समय भी मैं तुझे मिला था लेकिन तूने मुझ मे गुरु ही नहीं देखा। गुरु को देखने के लिए साधरण आंखे नहीं, प्रेम भरी और प्यासी आँखे चाहिए। लेकिन उस समय तुझमें ईश्वर को पाने की वो प्यास वो सच्ची तड़प नही थी। उसी प्यास को जगाने के लिए हमने यह किया।
गुरु सामने मोजूद होता है। और हर किसी को गुरु मिलकर भी नहीं मिल पाता। प्यास होनी चाहिये। क्यों कि गुरु को देखने के लिए साधारण दृष्टि नहीं प्रेम भरी प्यास भरी तड़पती आंखे चाहिए।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

= १९६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
साहिबजी सत मेरा रे, 
लोग झखैं बहुतेरा रे ॥टेक॥ 
जीव जन्म जब पाया, 
मस्तक लेख लिखाया रे ॥१॥ 
घटै बधै कुछ नांही, 
कर्म लिख्या उस माहीं रे ॥२॥ 
विधाता विधि कीन्हा, 
सिरज सबन को दीन्हा रे ॥३॥ 
समरथ सिरजनहारा, 
सो तेरे निकट गँवारा रे ॥४॥ 
सकल लोक फिर आवै, 
तो दादू दीया पावै रे ॥५॥ 
----------------------------- 
Each Person comes into this world with a specific Destiny--he Has something to fulfill , some Message has to be Delivered , some work has to be completed. You are not here accidentally-- You Are Here Meaningfully. There is a Purpose behind You. The Whole Intends to Do something Through You.. - Humble Param

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

= १९५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू जे हम चिन्तवैं, सो कछु न होवै आइ । 
सोई कर्त्ता सत्य है, कुछ औरै कर जाइ ॥ 
एकौं लेइ बुलाइ कर, एकौं देइ पठाइ । 
दादू अद्भुत साहिबी, क्यों ही लखी न जाइ ॥ 
ज्यों राखै त्यों रहेंगे, अपने बल नांही । 
सबै तुम्हारे हाथ है, भाज कत जांही ॥ 
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My Lord! I'm Yours and only yours(नाथ मैँ थारो जी थारो!!) 
भक्त के लक्षण -४- 
४. भक्त में अभिमान नहीं होता, वह तो सारे जगत में अपने स्वामी को व्याप्त देखता है और अपने को उनका सेवक समझता है । सेवक के लिए अभिमान का स्थान कहाँ ? उसके द्वारा जो कुछ होता है सो सब उसके भगवान की शक्ति और प्रेरणा से होता है । ऐसा विनम्र भक्त सदा सावधानी से इस बात को देखता रहता है की कही मेरे किसी कार्यद्वारा या चेष्टाद्वारा मेरे विश्व्व्याप्त स्वामी का तिरिष्कार न हो जाये । मेरे द्वारा सदा-सर्वदा उनकी आज्ञा का पालन होता रहे, मैं सदा उनकी रूचि के अनुकूल चलता रहू । वह अपने को उस सूत्रधार के हाथ की कठपुतली समझता है । सूत्रधार जैसे नचाता है, पुतली वैसे ही नाचती है, वह इसमें अभिमान क्या करे ? अथवा यो समझिये की सारा संसार स्वामी का नाट्यमंच है, इसमें हम सभी लोग नट है, जिसको स्वामी ने जो स्वांग दिया है, उसी के अनुसार सांगोपांग खेल खेलना, अपना पार्ट करना अपना कर्तव्य है । जो आदमी मालिक की रूचि के अनुसार उसका काम नहीं करता वह नमकहराम है और जो मालिक की संपत्ति को अपनी मान लेता है वह बइमान है । 
नट पार्ट करता है, स्टेज पर किसी के साथ पुत्र का सा, किसी के साथ पिताका सा, किसी के साथ मित्र का सा यथायोग्य वर्ताव करता है, परन्तु वस्तुत: किसी भी वस्तु को अपनी पोशाक तक को अपनी नहीं सझता । इसी प्रकार भगवान का भक्त उनकी नाट्यशाला इस दुनिया में उनके संकेतानुसार उन्ही के दिए हुए स्वांग को लेकर आलस्यरहित हो उन्ही की शक्ति से कर्म किया करता है । इसमें वह अभिमान किस बात का करे ? वह मालिक का विधान किया हुआ है – बताया हुआ अभिनय करता है न की अपनी और से कुछ । पार्ट करने में चूकता नहीं, क्योकि इसमें मालिक का खेल बिगढ़ता है; और अपना कुछ मानता नहीं, क्योकि वह जानता है की सब मालिक का खेल है, मेरा कुछ भी नहीं । वह मालिक को ही सबका नियंत्रण करना वाला और सर्वर्त्र व्याप्त देखता है और अपने को उसका अनन्य सेवक समझता है । 
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत । 
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ॥ 
—श्रद्धेय हनुमानप्रसाद पोद्दार भाईजी, भगवच्चर्चा पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश, भारत 
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!! 

= १९४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू तलफि तलफि विरहनी मरै, करि करि बहुत बिलाप ।
विरह अग्नि में जल गई, पीव न पूछै बात ॥ 
दादू कहॉं जाऊँ ? कौण पै पुकारूँ ? पीव न पूछै बात ।
पीव बिन चैन न आवई, क्यों भरूँ दिन रात ? ॥ 
दादू विरह बियोग न सहि सकूँ, मोपै सह्या न जाइ ।
कोई कहो मेरे पीव को, दरस दिखावै आइ ॥
दादू विरह बियोग न सहि सकूँ, निसदिन सालै मोहि ।
कोई कहो मेरे पीव को, कब मुख देखूँ तोहि ॥ 
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साभार : Suresh Aggarwal ~
ॐ श्री गुरवे नमः, शुभ प्रभात दोस्तों, जय श्री कृष्णा !!
मेरी प्रार्थना : हे प्रभु पुरे जीवन भटक भटक कर, इतना भटकने के बाद बस इतना ही समझ पाया हूँ कि तुम मेरे भीतर ही विद्यमान हो, सभी संतो के कथन एक जैसे हैं, कि परमात्मा तुम्हारे भीतर है, वह जिस प्रकार तिलों मे तेल, दूध मे घृत(घी), चकमक पथर में आग, आदि विद्यमान है | 
उसी प्रकार तुम मेरी नस नस, हड्डियों, रोम रोम, में विदयमान हो. अभी तुम्हें जाना नहीं है, पर जानना चाहता हूँ, बाहर तो बहुत बहुत भटक चुका हूँ, अब सिर्फ तुमे जानने के लिए भीतर ही भटकूंगा, सिर्फ एक ही प्रार्थना है, कि हे नाथ, हे मेरे नाथ, एक क्षण के लिए भी आपको भूलू नहीं जी | 
यदि कोई अपने भीतर, डूबने कि कला सीख लेता है तो उससे धनवान व्यक्ति कोई नहीं है जी |

बुधवार, 19 नवंबर 2014

= १९३ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू दुनियां सौं दिल बांध करि, बैठे दीन गँवाइ । 
नेकी नाम बिसार करि, करद कमाया खाइ ॥ 
फूटी नाव समंद में, सब डूबन लागे । 
अपना अपना जीव ले, सब कोई भागे ॥ 
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साभार : True Indian

लोमड़ी के राज में जंगल के सभी जानवर त्रस्त थे .............क्योंकि पड़ोसी जंगल के भेड़िये जब तब घुस आते और............ नन्हे जानवरों को खा जाते....... ऐसे में एक शक्तिशाली राजा की ज़रूरत थी जो उन्हें बचा सके .......... 
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जंगल में चारों तरफ़ चर्चा थी............ कि इस बार शेर को ही जिताएंगे ........और अपना राजा बनाएंगे......... हालांकि लोमड़ पार्टी इसका यह कह कर पुरज़ोर विरोध कर रही थी..... कि शेर तो हिंसक है, गुस्से वाला है.... अगर वोह राजा बन गया तो जंगल का विनाश हो जाएगा,.......... लेकिन सभी प्राणी ठान चुके थे ....कि इस बार शेर को ही शासन सौंपना है......!!! 
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अपना सिंहासन डोलता देख.......लोमड़ी ने वहाँ के तमाम ............सियारों को चुपके से डिनर पर बुलाया और कहा.......... कि इस बार मेरी हार निश्चित है .......लेकिन अगर शेर सिंहासन पर आ गया तो तुम भी मारे जाओगे..... और मैं भी...., इसलिए तुम तुरत फुरत...... एक दल बनाओ और पूरे जंगल में घूम घूम कर मेरा विरोध करो........., मुझे गालियां दो और मुझे जेल भेजने की घोषणाएं करो ..........…
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इससे फायदा यह होगा कि...... चुनाव दो तरफ़ा से तीन तरफ़ा हो जाएगा ......अर्थात जो लोग मुझसे नाराज़ हो कर शेर को वोट देने वाले हैं............., उनमें से बहुत सारे वोट तुम्हें इसलिए मिल जायेंगे...... क्योंकि तुम पर हिंसक होने का कोई ख़ास ठप्पा नहीं .........है....... लिहाज़ा जंगल के सभी .......धर्मनिरपेक्ष तुम्हारे साथ हो जायेंगे...!!! 
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आगे यह तय हुआ कि......... चुनाव में लोक दिखावे के लिए तो......... लोमड़दल और सियारदल इक दूजे का पुरज़ोर विरोध करेंगे ............परन्तु चुनाव परिणाम में अगर स्पष्ट बहुमत नहीं मिला......... तो हम इक दूजे के काम आयेंगे....... --जैसे भी हो, ......ये शेर नहीं आना चाहिए.....!!! 
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वही हुआ,........... सीटों के हिसाब से चुनाव परिणाम.......... शेर के पक्ष में होते हुए भी वह राजा नहीं बन सका .........और जिसे सबने नकार दिया था.......... उसी के समर्थन से सियारों ने अपनी सरकार बना ली......!!! 
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.....जंगल के सभी प्राणी अपने आप को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं....!!!

= १९२ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू हीरे को कंकर कहैं, मूरख लोग अजान । 
दादू हीरा हाथ ले, परखैं साधु सुजान ॥ 
दादू साचा लीजिये, झूठा दीजे डार । 
साचा सन्मुख राखिये, झूठा नेह निवार ॥ 
साचे को साचा कहै, झूठे को झूठा । 
दादू दुविधा को नहीं, ज्यों था त्यों दीठा ॥ 
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साभार : Ritesh Srivastava

याद रखो कि यदि तुम किसी के बिना मतलब भला-बुरा कहने पर स्वयं भी क्रोधित हो जाते हो तो इसका अर्थ है कि तुम अपने साफ़-सुथरे वस्त्रों की जगह उसके फेंके फटे-पुराने मैले कपड़ों को धारण कर रहे हो। 
“॥हरी ॐ॥” 
जापान के ओसाका शहर के निकट किसी गाँवों में एक जेन मास्टर रहते थे। उनकी ख्याति पूरे देश में फैली हुई थी और दूर-दूर से लोग उनसे मिलने और अपनी समस्याओं का समाधान कराने आते थे। 
एक दिन की बात है मास्टर अपने एक अनुयायी के साथ प्रातः काल सैर कर रहे थे कि अचानक ही एक व्यक्ति उनके पास आया और उन्हें भला-बुरा कहने लगा। उसने पहले मास्टर के लिए बहुत से अपशब्द कहे, पर बावजूद इसके मास्टर मुस्कुराते हुए चलते रहे। मास्टर को ऐसा करता देख वह व्यक्ति और भी क्रोधित हो गया और उनके पूर्वजों तक को अपमानित करने लगा। पर इसके बावजूद मास्टर मुस्कुराते हुए आगे बढ़ते रहे। मास्टर पर अपनी बातों का कोई असर ना होते हुए देख अंततः वह वयक्ति निराश हो गया और उनके रास्ते से हट गया। 
उस व्यक्ति के जाते ही अनुयायी ने आश्चर्य से पुछा, “मास्टर आपने भला उस दुष्ट की बातों का जवाब क्यों नहीं दिया, और तो और आप मुस्कुराते रहे, क्या आपको उसकी बातों से कोई कष्ट नहीं पहुंचा ?” 
जेन मास्टर कुछ नहीं बोले और उसे अपने पीछे आने का इशारा किया। 
कुछ देर चलने के बाद वे मास्टर के कक्ष तक पहुँच गए। 
मास्टर बोले, “तुम यहीं रुको मैं अंदर से अभी आया।” 
मास्टर कुछ देर बाद एक मैले कपड़े लेकर बाहर आये और उसे अनुयायी को थमाते हुए बोले, “लो अपने कपड़े उतारकर इन्हे धारण कर लो ?” 
कपड़ों से अजीब सी दुर्गन्ध आ रही थी और अनुयायी ने उन्हें हाथ में लेते ही दूर फेंक दिया। 
मास्टर बोले, “क्या हुआ तुम इन मैले कपड़ों को नहीं ग्रहण कर सकते ना ? ठीक इसी तरह मैं भी उस व्यक्ति द्वारा फेंके हुए अपशब्दों को नहीं ग्रहण कर सकता। 
इतना याद रखो कि यदि तुम किसी के बिना मतलब भला-बुरा कहने पर स्वयं भी क्रोधित हो जाते हो तो इसका अर्थ है कि तुम अपने साफ़-सुथरे वस्त्रों की जगह उसके फेंके फटे-पुराने मैले कपड़ों को धारण कर रहे हो।” ॥वन्दे मातरम् ॥

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

= १९१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू तो तूं पावै पीव को, जे जीवित मृतक होइ । 
आप गँवाये पीव मिलै, जानत हैं सब कोइ ॥ 
दादू तो तूं पावै पीव का, आपा कुछ न जान । 
आपा जिस तैं ऊपजै, सोई सहज पिछान ॥ 
दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ । 
मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥ 
--------------------------------------- 
साभार : नितिन सिंह ~ 
भारतीय इतनी आसानी से आत्महत्या नहीं करते, क्योंकि वो जानते हैं कि वो फिर पैदा हो जायेंगे, पश्चिम में आत्महत्या और आत्महत्या के तरीके खोज करते हैं ! 
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बहुत लोग आत्महत्या करते हैं, और मनस्विद कहते हैं कि बहुत कम लोग होते हैं जो ऐसा करने का नहीं सोचते हैं. दरअसल एक आदमी ने खोज कर के कुछ माहिती इकट्ठी की थी, और उसका कहना है कि - हर एक व्यक्ति अपने जीवन में कम से कम ४ बार आत्महत्या करने को सोचता है, पर ये पश्चिम की बात है, पूरब में, चूँकि लोग पुनर्जन्म के बारे में जानते हैं इसलिए कोई आत्महत्या नहीं करना चाहता है - फायदा क्या है ? तुम एक दरवाज़े से निकलते हो और किसी और दरवाजे से फिर अन्दर आ जाते हो, तुम इतनी आसानी से नहीं जा सकते. 
.
मौत आएगी, वो हमेशा आती है, तुम्हारे ना चाहते हुए भी वो आती है ! तुम्हे उसे जाकर मिलने की ज़रुरत नहीं है, वो अपने आप आ जाती है ! पर तुम अपने जीवन को बुरी तरह से miss करोगे. तुम क्रोध, या चिंता की वजह से suicide करना चाहते हो ! मैं तुम्हे असली आत्महत्या करना सिखाऊंगा, एक सन्यासी बन जाओ. तुम हमेशा के लिए जा सकते हो, इसी का मतलब है ''बुद्ध'' बनना - हमेशा के लिए चले जाना !

= १९० =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
विष अमृत घट में बसै, विरला जानै कोइ । 
जिन विष खाया ते मुये, अमर अमी सौं होइ ॥ 
दादू सब ही मर रहे, जीवे नांही कोइ । 
सोई कहिये जीवता, जे कलि अजरावर होइ ॥ 
देह रहै संसार में, जीव राम के पास । 
दादू कुछ व्यापै नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥ 
काया की संगति तजै, बैठा हरि पद मांहि । 
दादू निर्भय ह्वै रहै, कोई गुण व्यापै नांहि ॥ 
दादू तज संसार सब, रहे निराला होइ । 
अविनाशी के आसरे, काल न लागे कोइ ॥ 
-------------------------------------------- 
साभार : नितिन सिंह ~ 
कर्मफल से मुक्ति नहीं मिलने की दशा में बार-बार शरीर ग्रहण करना पड़ता है। जब तक जीव अपने संग्रहीत कर्म फलों से रिक्त नहीं होता तब तक वह आत्म चिंतन की बात सोच भी नहीं सकता। पर कर्मफलों का बंधन कब खत्म होता है। ज्ञानी कहते हैं कि ऐसा तभी संभव है जब अहंकार खत्म हो जाए। 
जब मानव के अहंकार का भाव मिट जाता है तब वह तत्व दर्शन का अधिकारी बन जाता है। अन्यथा मनुष्य कितने भी प्रयत्न कर ले, वह तत्व का दर्शन नहीं कर सकता है। चाहे जितना दान, पुण्य, सेवा, तपस्या करे, वेदांत का महान विद्वान बन जाए तो भी तत्व का दर्शन अहंकार का त्याग किए बिना संभव नहीं है। दान, पुण्य, सेवा आदि जितने भी कर्म हैं वे सारे के सारे अहंकार को मिटाने में सहायक तो हैं लेकिन तत्वदर्शी बनाने के साधन नहीं हैं। 
जितने भी कर्म हैं वे सब गुणों से प्रेरित होकर किए जाते हैं। सत्वगुण की प्रधानता होने पर मानव ज्ञान की बातों में रुचि लेते हुए सत्य की खोज की तरफ बढ़ने की कोशिश करता है। रजोगुण की प्रधानता होने पर मानव के मन में संसार की विभिन्न प्रकार की भोग्य वस्तुओं का संग्रह करने की इच्छा बलवती होती जाती है और संग्रह किए गए पदार्थों को अपनी ही स्वार्थपूर्ति के लिए सुरक्षित बनाए रखने की प्रबल इच्छा से प्रवृत्त होकर वह कर्म करता है। तमोगुण की प्रधानता होने पर मानव प्रमाद में आ जाता है, वह आलसी हो जाता है। अज्ञान और मोह में फंस कर मानव अंधकार में पड़े हुए पशु जैसा जीवन व्यतीत करता है। 
सत्वगुण मानव को ऊपर की ओर उठाता है तो रजोगुण के मध्य में ही फंसाए रखता है और तमोगुण मानव को अधोमुखी बना देता है। इन तीन प्रकार की वृत्तियों द्वारा माया अपना जाल फैलाते हुए संसार की रचना करती है। इसलिए उपनिषद् के ऋषि ने कहा है कि उस अविनाशी आत्मा को जानने का यत्न प्रत्येक मानव को करना चाहिए। क्योंकि वह (अर्थात आत्मा) न तो कहीं जाता है और न कहीं से आता है। वह तो सर्वव्यापी है। सबका भरण पोषण करने वाला है। 
जब मानव इस आत्म तत्व को अपने पूर्व कर्मों के प्रभाव से देखने का यत्न करता है तो उसके भीतर धीरे-धीरे ज्ञान का प्रकाश फैलने लगता है और वह संसार के गोपनीय तत्व को जानने लगता है। इस प्रकार जब मानव उस तत्व की ओर अग्रसर होता है तो उसके अहंकार की फांस ढीली पड़ने लगती है। जैसे-जैसे अहं कम होता जाता है वैसे वैसे माया का अंधकार रूपी आवरण भी हल्का होता जाता है। तब उस आत्म तत्व के प्रकाश की झलक स्पष्ट होने लगती है। 
इसलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में समझाया था कि यह आत्म तत्व तो अजन्मा, नित्य, शाश्वत और सनातन है। केवल शरीर ही मरणधर्मा है। इसलिए तुम उस अविनाशी को जानने का यत्न करो जिसे जान लेने के बाद जानने लायक कुछ भी शेष नहीं रहता। पर इसके लिए अहंकार भाव छोड़ना पड़ेगा। तभी बुद्धि आत्म तत्व के इस रूप का साक्षात्कार कर सकेगी और सांसारिक प्रपंच से निर्लिप्त हो सकेगी। 
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कर्मफल से मुक्ति नहीं मिलने की दशा में बार-बार शरीर ग्रहण करना पड़ता है। जब तक जीव अपने संग्रहीत कर्म फलों से रिक्त नहीं होता तब तक वह आत्म चिंतन की बात सोच भी नहीं सकता। पर कर्मफलों का बंधन कब खत्म होता है। ज्ञानी कहते हैं कि ऐसा तभी संभव है जब अहंकार खत्म हो जाए। 
जब मानव के अहंकार का भाव मिट जाता है तब वह तत्व दर्शन का अधिकारी बन जाता है। अन्यथा मनुष्य कितने भी प्रयत्न कर ले, वह तत्व का दर्शन नहीं कर सकता है। चाहे जितना दान, पुण्य, सेवा, तपस्या करे, वेदांत का महान विद्वान बन जाए तो भी तत्व का दर्शन अहंकार का त्याग किए बिना संभव नहीं है। दान, पुण्य, सेवा आदि जितने भी कर्म हैं वे सारे के सारे अहंकार को मिटाने में सहायक तो हैं लेकिन तत्वदर्शी बनाने के साधन नहीं हैं। 
जितने भी कर्म हैं वे सब गुणों से प्रेरित होकर किए जाते हैं। सत्वगुण की प्रधानता होने पर मानव ज्ञान की बातों में रुचि लेते हुए सत्य की खोज की तरफ बढ़ने की कोशिश करता है। रजोगुण की प्रधानता होने पर मानव के मन में संसार की विभिन्न प्रकार की भोग्य वस्तुओं का संग्रह करने की इच्छा बलवती होती जाती है और संग्रह किए गए पदार्थों को अपनी ही स्वार्थपूर्ति के लिए सुरक्षित बनाए रखने की प्रबल इच्छा से प्रवृत्त होकर वह कर्म करता है। तमोगुण की प्रधानता होने पर मानव प्रमाद में आ जाता है, वह आलसी हो जाता है। अज्ञान और मोह में फंस कर मानव अंधकार में पड़े हुए पशु जैसा जीवन व्यतीत करता है। 
सत्वगुण मानव को ऊपर की ओर उठाता है तो रजोगुण के मध्य में ही फंसाए रखता है और तमोगुण मानव को अधोमुखी बना देता है। इन तीन प्रकार की वृत्तियों द्वारा माया अपना जाल फैलाते हुए संसार की रचना करती है। इसलिए उपनिषद् के ऋषि ने कहा है कि उस अविनाशी आत्मा को जानने का यत्न प्रत्येक मानव को करना चाहिए। क्योंकि वह (अर्थात आत्मा) न तो कहीं जाता है और न कहीं से आता है। वह तो सर्वव्यापी है। सबका भरण पोषण करने वाला है। 
जब मानव इस आत्म तत्व को अपने पूर्व कर्मों के प्रभाव से देखने का यत्न करता है तो उसके भीतर धीरे-धीरे ज्ञान का प्रकाश फैलने लगता है और वह संसार के गोपनीय तत्व को जानने लगता है। इस प्रकार जब मानव उस तत्व की ओर अग्रसर होता है तो उसके अहंकार की फांस ढीली पड़ने लगती है। जैसे-जैसे अहं कम होता जाता है वैसे वैसे माया का अंधकार रूपी आवरण भी हल्का होता जाता है। तब उस आत्म तत्व के प्रकाश की झलक स्पष्ट होने लगती है। 
इसलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रणभूमि में समझाया था कि यह आत्म तत्व तो अजन्मा, नित्य, शाश्वत और सनातन है। केवल शरीर ही मरणधर्मा है। इसलिए तुम उस अविनाशी को जानने का यत्न करो जिसे जान लेने के बाद जानने लायक कुछ भी शेष नहीं रहता। पर इसके लिए अहंकार भाव छोड़ना पड़ेगा। तभी बुद्धि आत्म तत्व के इस रूप का साक्षात्कार कर सकेगी और सांसारिक प्रपंच से निर्लिप्त हो सकेगी।

सोमवार, 17 नवंबर 2014

= १८९ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
सब घट एकै आत्मा, जानै सो नीका ।
आपा पर में चीन्ह ले, दर्शन है पीव का ॥
---------------------------------------- 
साभार : Tintin Cung ~ 

Anecdote of Guru Nanak Dev Ji at the Kumbh Fair 
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Guru Nanak Dev Ji once went to the Kumbh Fair. Some people were cooking rich food and some Aghori Sadhus were cooking meat. Guru Nanak Dev Ji felt sad seeing this, and started cooking vegetables in a pot. 
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The Aghori Sadhus asked him what he was cooking? He replied, "Cow’s meat." 
The news spread like wildfire and all the sadhus collected together to ask him, "Why are you committing this terrible sin?" 
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Guru Sahib uttered this shabad (poem): "All have the same blood and the same flesh! Then why do you discriminate?" 
When the matter was starting to get out of hand, they noticed that Guru Sahib was cooking vegetables. 
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Guru Sahib sang: 
"There is no difference between a goat and a wolf." 
"Why do you discriminate and say eating goat’s meat is acceptable but eating cow’s meat is a sin. Meat is meat. God lives in everyone. Killing and eating any living being is tantamount to killing and eating God. When all the living beings of this world are the same, then why discriminate between a goat and a cow? All the living beings are a part of God, they are all His Forms." 
.
"It may be a goat or a sheep, both have the same blood; then what is the difference between a baby goat and a baby human being. If we can eat a goat’s baby, we can also eat a human baby." 
Guru Nanak Dev Ji says, "I have known this thing: that the same God lives in everyone." 
------------ 
Excerpt from : "Ghat Ramayan" The Words of Tulsi Sahib of Hathras; Spiritual Discourse by Param Sant Baba Kehar Singh Ji 

रविवार, 16 नवंबर 2014

= १८८ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
दादू "है" को भय घणां, नाहीं को कुछ नाहीं । 
दादू नाहीं होइ रहु, अपणे साहिब माहिं ॥ 
------------------------------------------ 
सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~ !! श्री भगवान् भाष्यकार चरणकमलेभ्यो नमो नमः !! 

✿═══════════════════✿ 
“धन्यता{कृत - कृत्यता} का बोध” {३} : 
✿═══════════════════✿ 
नारायण ! एक राजा था, नाम था उसका भीमसेन । उसका एक मन्त्री था जिसका नाम मतिसागर था। दोनों कहीं जा रहे थे । जब शिव की नगरी उज्जैन के पास से निकले तो देखते हैं कि एक बहुत बड़ा शहर है । दूर से देखा तो बड़े ही खुश हुए कि आज यहीं आराम करेंगे । 
लेकिन शहर में पहुँचे तो देखा कि शहर बिलकुल सूना पड़ा हुआ है । बड़ा आश्चर्य हुआ कि सारा शहर सूना कैसे पड़ा है ? थोड़ा आगे बढ़े तो एक बहुत भारी आलीशान महल था । उसके बगीचे में एक शेर एक आदमी को अपने पंजे में दबाकर धीरे - धीरे खा रहा था । 
भीमसेन जो राजा था उसने उस शेर को मारने और आदमी को बचाने के लिये झट से अपनी तलवार सम्भाली । वह शेर हँस पड़ा और बोला : "राजन् ! मैं कोई साधारण शेर नहीं हूँ जो मुझे आप तलवार से मार दोगे ! मैं तो राक्षस हूँ । इस शहर के सारे आदमीयों को मैंने खा लिया है । अब इस राजा को अंग - अंग करके खाना बाकी है । तू यहाँ से चला जा, यहाँ मत रह ।" 
राजा भीमसेन ने पूछा कि "बात क्या है, क्यों खा रहा है ?" शेर ने कहा : यह एक शहर है जिसका नाम हेमपुर है और जिसे मैं खा रहा हूँ, यह यहाँ का राजा है । इसका नाम हेमरथ है । इसके गुरु का नाम चण्ड था और वह नाम से ही चण्ड नहीं, व्यवहार से भी बड़ा क्रूर था । उसी पुरोहित गुरु के कहने के कारण राजा भी अपना सारा राज्य उसके अधिकार में देकर खुश था, क्योंकि क्रूर आदमी राज्य-व्यवस्था को बाहर से बड़ी सफलता से चलाता है । 
"बाहर से" इसलिये कि जैसे ही वह ऊपर का दबाव जाता है, वैसे ही फिर प्रजा में अत्यन्त अव्यवस्था आ जाती है क्योंकि दिल का सहयोग नहीं होता । जैसे जो पिता घर के अन्दर हमेशा लोगों के ऊपर दृढतर शासन करता है, वह जब या तो बुड्ढा हो जाता है या जब वह मर जाये तब उस घर के अन्दर सारे अनिष्ट कार्य होने लगते हैं, क्योंकि समझा कर नियंत्रण नहीं किया था, दबाव के कारण किया था । जैसे ही दबाव हटा, फिर वैसे-के-वैसे, या पहले से भी बुरे हो जाते हैं । 
लेकिन बहुत से लोग इस बात को नहीं समझते । केवल राज्य में ही नहीं, बहुत से लोग अपने मन को हठ से दबाते रहते हैं, समझाते कभी नहीं कि इस चीज में क्या बुराई है । नतीजा यह होता है कि जब कभी मौका मिलता है और दबाव हटता है तो फिर मन वैसे ही वैषयिक प्रवृत्ति करने लग जाता है । इसलिये विचारशील मन को कभी दबाते नहीं । भगवान् श्री वशिष्ठ कहते हैं "लालयेत् न तु ताडयेत्" मन को लाड़ लड़ाना चाहिये, डण्डा मार - मार कर मन वश में नहीं होता । 
नारायण ! चूँकी उसका पुरोहित बाहर से बड़ा कार्यकुशल था, इसलिये राजा कहता था कि इसी को राज्य चलाने दो, खुद मौज करता था । राजा स्वभाव से खोटा नहीं था लेकिन प्रमादी हो गया, सोचता था "अपने आराम से बैठो, राज्य तो वह चलाता ही है" । चण्ड अधिकाधिक दुष्कर्म करने लगा । अंत में उसने मातंगी नाम की चाण्डालिनी के साथ बुरा सम्बन्ध कर लिया । दुष्कर्म करने लगा । 
किसी ने आकर राजा से कहा कि "यह आपका पुरोहित बना हुआ है लेकिन चाण्डालिनी के साथ ऐसा दुष्कर्म करता है ।" राजा को रात्रि में ले गये, देखा तो राजा को बड़ा क्रोध आया कि "मैं तो इसका बड़ा विश्वास करता था। यह बड़ा ही नालायक निकला ।" दूसरे दिन राजा ने पुरोहित को बुलाकर कहा कि "मैंने तेरे भरोसे राज्य छोड़ा और तू ऐसा दुष्कर्म करता है !" राजा ने उसे जूट की रस्सी में बाँध दिया और खौलते तेल में डलवा दिया । वह था तो भयंकर पापी, उसे प्रायश्चित करने का मौका भी नहीं मिला, मौका मिलने पर भी करता या नहीं करता, क्या पता ? वह वहीं मर गया । 
नारायण ! मरकर वह राक्षस बना क्योंकि दुष्कर्मी था । उसका नाम सर्वगिल था अर्थात् सब चीजों को निगलने वाला । उसी ने इस सारे शहर को खत्म कर दिया । अब वही मैं शेर बनकर अपने इस अन्तिम भक्ष्य को खा रहा हूँ । बाकी सबको तो मैंने खत्म कर दिया है । राजा भीमसेन ने कहा कि "तू इतना पापी है तो तेरे से मेरे को कोई डर नहीं है ।" 
संसार में पापी से कभी नहीं डरना चाहिये । जिस दुश्मन पर दो तरफ से आक्रमण हो उस दुश्मन से डरना व्यर्थ है । जो पापी होता है एक तो अन्दर का मन धिक्कार देता रहता है, और दूसरी तरफ सारा समाज उसपर थू - थू करता रहता है । दो तरफ से आक्रान्त पापी कभी नहीं डरा सकेगा । जैसे चोर घर में आया हुआ हो और बुड्ढा आदमी को खाँसी की शिकायत हो, और वह खों - खों करे तो चोर डर जाता है, क्योंकि अन्दर से मन धिक्कार रहा है और बाहर से भी डर रहा है कि कोई देख लेगा । 
पापी के सामने थोड़ा सा जोरे से बोलें तो ठण्डा पड़ जाता है । जब कहते हैं कि "ब्लैक मार्केट करने वाले बड़े जबरे हैं" तो हम कहते हैं कि इनसे नहीं डरो, क्योंकि इनको मन से और समाज से दोनोँ से धिक्कार मिलता है । ये तो वैसे ही मरे हुए हैं , इसलिये इनसे न डरा जाये । इनको छुट्टी दोगे तो ये मन के धिक्कार और समाज के धिक्कार से खुद हटने लगेंगे । राजा भीमसेन ने कहा "मैं तेरे से नहीं डरता । यह मेरी जाति का राजा है, इसे मैं बचाऊँगा ।" उसने शेर को मार डाला । वह शेर ही राक्षस था । 
राक्षस को मारने पर उसके मन में आया कि अब यह सारा गाँव ठीक करना चाहिये । उसने तीन वर्ष तक वहाँ सारे सत्कार्य करवाये, वेदपाठ, यज्ञ, दान, तप आदि करवाये । धीरे - धीरे सारे शहर में फिर लोग बसने लग गये । शुभ स्थान पर सारे - के - सारे बसने आ जाते हैं । फिर से वह शहर बन गया । पुनः वह राजा वहाँ का राज्य करता रहा और भीमसेन अपने राज्य को वापिस चला गया । 
यह एक कथा है । इस कथानक के रहस्य पर आगे सत्संग करूँगा । 
सावशेष ..... 
नारायण स्मृतिः

= १८७ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
राम जपै रुचि साधु को, साधु जपै रुचि राम । 
दादू दोनों एक टग, यहु आरम्भ यहु काम ॥ 
--------------------------------------------- 
NP Pathak ~ साभार..... 
Swami ramshuk das ji maharaj 
सत्संग की आवश्यकता-४ 
================= 
‘मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । 
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ 
(गीता १०/९) 
‘मेरे में चित्त वाले, मेरे में प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन आपस में मेरे गुण, प्रभाव आदि को जानते हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरंतर संतुष्ट रहते हैं और मेरे में प्रेम करते हैं।’
एक भक्त हो गये हैं— जयदेव कवि। ‘गीत-गोविन्द’ उनका बनाया हुआ बहुत सुन्दर संस्कृत-ग्रन्थ है। भगवान जगन्नाथ स्वयं उनके ‘गीत-गोविन्द’ को सुनते थे। भक्तों की बात भगवान् ध्यान देकर सुनते हैं। एक मालिन थी, उसको ‘गीत-गोविन्द’ का एक पद(धर) याद हो गया। 
वह बैंगन तोडने जाती और पद गाती जाती थी। तो ठाकुरजी उसके पीछे-पीछे चलते और पद सुनते। पुजारी जी मंदिर में देखते हैं कि ठाकुरजी का वस्त्र फटा हुआ है। उन्होंने पूछा—‘प्रभो ! आपके यहाँ मन्दिर में रहते हुए, यह वस्त्र कैसे फट गया ? ठाकुरजी बोले—‘भाई ! बैंगन के कांटों में उलझकर फट गया।’ पुजारीने पूछा—‘बैंगन के खेत में आप क्यों गये थे ?’ ठाकुरजी ने बता दिया; मालिन ‘गीत-गोविन्द’ का धर गा रही थी, अतः सुनने चला गया। वह चलती तो मैं पीछे-पीछे डोलता था, जिससे कपड़ा फट गया। ऐसे स्वयं भगवान् भी सुनते हैं। 
क्या भगवान् के कोई रोग है, पाप है, जिसे दूर करनेके लिये वे सुनते हैं ? फिर भी वे सुनते हैं। भगवान् की कथा सुनने के अधिकारी भक्त हैं, ऐसे ही भक्त की कथा सुनने के अधिकारी— भगवान् होते हैं।

शनिवार, 15 नवंबर 2014

= १८६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
गुरु दादू 'रु कबीर की, काया भई कपूर। 
रज्जब अज्जब देखिया, सर्गुण निर्गुण नूर॥
-------------------------------------------
Mahaparinirvana: Dissolving into the Ocean
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"When Buddha died he was eighty-two years old. He called his disciples together - just as he used to when he talked to them every morning. They all gathered. Nobody was thinking at all about his death.

And then Buddha said, "This is my last sermon to you. Whatsoever I had to say to you I have said.

Forty-two years I have been telling you, saying to you... I have poured out my whole heart. Now, if somebody has any question left he can ask, because this is the last day of my life. Today I leave for the other shore. My boat has arrived."

They were shocked! They had come just to listen to the daily discourse. They were not thinking that he was going to die - and without making any fuss about death! It was just a simple phenomenon, a simple declaration that "My boat has come and I have to leave. If you have any question left you can ask me, because if you don't ask me today, I will never again be available. Then the question will remain with you. So please, be kind and don't be shy," he told his disciples.

They started crying. And Buddha said, "Stop all this nonsense! This is no time to waste on crying and weeping! Ask if you have something to ask, otherwise let me go. The time has come. I cannot linger any longer."

They said, 'We have nothing to ask. You have given more than we would have ever asked. You have answered all the questions that we have asked, that we could have asked. You have answered questions which for centuries will be fulfilling for all kinds of inquirers."

Then Buddha said, "So I can take leave of you. Good-bye."

And he closed his eyes, sat in a lotus posture, and started moving towards the other shore.

It is said: the first step was that he left his body, the second step was that he left his mind, the third step was that he left his heart, the fourth step was that he left his soul. He disappeared into the universal so peacefully, so silently, so joyously. The birds were chirping; it was early morning - the sun was still on the horizon. And ten thousand sannyasins were sitting and watching Buddha dying with such grace! 

They forgot completely that this was death. There was nothing of death as they had always conceived it. It was such an extraordinary experience.

So much meditative energy was released that many became enlightened that very day, that very moment. Those who were just on the verge were pushed into the unknown. Thousands, it is said, became enlightened through Buddha's beautiful death.

We don't call it death, we call it Mahaparinirvana, dissolving into the absolute - just like an ice cube melting, dissolving into the ocean. He lived in meditation, he died in meditation."
~ Osho - Book: Walking in Zen, Sitting in Zen

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

= १८५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
जहँ आत्म तहँ राम है, सकल रह्या भरपूर । 
अन्तर्गत ल्यौ लाइ रहु, दादू सेवक सूर ॥ 
दादू अन्तर्गत ल्यौ लाइ रहु, सदा सुरति सौं गाइ । 
यहु मन नाचै मगन ह्वै, भावै ताल बजाइ ॥ 
दादू पावै सुरति सौं, बाणी बाजै ताल । 
यहु मन नाचै प्रेम सौं, आगै दीन दयाल ॥ 
----------------------------------------- 

When judgment is difficult...be in HIS Shrine..... 
Meditate...meditate and meditate..... 
Every situation has come to unfold you..... 
The moment you get fragrance of material world in form od Dhyana...you feel its cosmic drama going on.... 
A man standing on cross road.. does not know where to go...making relation because of mundane desires.....when he sits for a while and thinks what's purpose of life....then eyes open..... 

Then first points come what's my responsibility...if you have given birth to children then first be an ideal father and mother.....parallel serve elders....serving will wipe all lust and greed.....otherwise greed..anger and desires will never end..... 
In the same manner a woman's husband deviates....now she has to be patient to fulfill responsibility by giving Samskar to children.... 

Every road takes us to HIM........but we want to be in material world and we want to patch up ...on the other hand Nature wants to unfold us realize our true self..... 

Meditate.....meditate...meditate..... 
Real joy is in your true self..... 

Om

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

= १८४ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
राम विमुख जग मर मर जाइ, 
जीवैं संत रहैं ल्यौ लाइ ॥टेक॥ 
लीन भये जे आतम रामा, 
सदा सजीवन कीये नामा ॥१॥ 
अमृत राम रसायन पीया, 
तातैं अमर कबीरा कीया ॥२॥ 
राम राम कह राम समाना, 
जन रैदास मिले भगवाना ॥३॥ 
आदि अंत केते कलि जागे, 
अमर भये अविनासी लागे ॥४॥ 
राम रसायन दादू माते, 
अविचल भये राम रंग राते ॥५॥ 
------------------------------ 
Rp Tripathi ~ **स्थाई आनंद का मंत्र ..?** 

एक बार प्रसिद्धि वैज्ञानिक आइंसटीन ने, अपने एक व्याख्यान के दौरान कहा कि, वह जितने भी प्रयोग करते थे उनमें, 95% ग़लत होते थे ..!! तो सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ, और एक पत्रकार ने, पूँछ ही लिया :-- तो फिर आप इतने महान वैज्ञानिक, कैसे बन गए ..? आइंसटीन ने, बड़ी सरलता से मुस्कराते हुए जबाब दिया, प्रत्येक पल, हमारे पास दो विकल्प मौंजूद हैं :-- 

1. प्रथम :--- दूसरों और स्वयं की गलतियों से सीख ले, उन्हें जीवन में ना दुहराना ..!! 

2. द्वितीय :--- कुछ सीखने की चाह ही ना रखना, और बार बार, जाने या अनजाने, जीवन में वही गलतियाँ, बार बार दुहरातें रहना ..!! 

बस में अपने आपको, ईस्वर-प्रदत्त, स्वतंत्र-इक्छा-शक्ति(Freedom of choice) की सहायता से स्वयं को, प्रथम श्रेणी में रखता हूँ ..!! 

परन्तु मित्रों, जैंसा हम सब जानते हैं, आज आइंसटीन के शोध को भी, उसी तरह, सुधारा जा रहा है, जैंसा उन्होंने, दूसरे वैज्ञानिकों की खोजो के साथ किया ...!! और यह सिलसिला अनंत समय तक चलता रहेगा, जब तक वैज्ञानिक, आत्म-ज्ञानी ना बन जाएँ ..!! 

इस विषय को, और अधिक स्पष्टता से दर्शित करने के लिए, सर्कश के एक जोकर का मनोकल्पित परन्तु पूर्णतः सारगर्भित, कथन याद करते हैं :--- 

एक बार एक सर्कस के दौरान, एक जोकर ने, इतना अच्छा चुटकुला सुनाया कि वह् चुटकुला -- 100% दर्शकों को पसंद आया, और 100% लोगों ने तालियाँ बजाईं ..!! अब उसी शो में, कुछ समय बाद, उसी जोकर ने, फिर वही चुटकुला सुनाया, तो कम लोगों ने पसंद किया ..!! परन्तु फिर कुछ समय बाद, जब उस जोकर ने, उसी चुटकुले को तीसरी बार सुनाने की कोशिश की तो, 100% लोगों ने उसे, सुनने से भी, मना कर दिया ..!! 

तो मित्रों, उस जोकर ने, एक बहुत ही सुंदर बात कही :----- 

उसने कहा --- जब आप किसी एक अच्छी बात को सुनकर, बार-बार, प्रसन्न नहीं होना चाहते, तो बार बार किसी दुखद घटना को, मन ही मन बार बार याद कर, या बार बार दूसरों को सुनाकर, क्यों स्वयं, और दूसरों को, दुखी करते रहते हो ..? 

जब किसी भी देश की सरकार का क़ानून भी, किसी एक गुनाह के लिए, सिर्फ़ एक बार ही सजा देता है, और कोई एक बार सजा काट ले, तो उसे, उसी गुनाह के लिए, दुबारा सजा नहीं मिलती, और जब तुम एक बार, दुखद घटना के उदय होने पर, मातम मचा चुके हो, तो क्यों बार बार, उसी घटना को याद कर, दुखी हो, स्वयं और अपने चाहने वालों आँसूँ बहाते हो ..? 

और बार बार ही कुछ याद करना चाहते हो तो, बार बार याद करने वाली, कोई वस्तु है, तो वह् बस एक --- "राम का नाम" ..!! फिर तो -- उलटा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भये ब्रम्ह समाना ..!! अर्थात, एक डाकू भी, ब्रम्ह-ज्ञानी और संत बन सकता है ..!! 

प्रयोग तो करो, स्वयं जान जाओगे ..!! और फिर तुम्हें, आनंद खोजने के लिए, दर दर ठोकरें नहीं खानी पड़ेंगी, क्योंकि, महावीर हनुमान की तरह, परमानंद(राम-सीता), सदैव तुम्हारे हृदय में, विराजमान होंगे ...!! 

मित्रों, यदि हम थोड़ी सी भी, गहराई से चिंतन करेंगे तो -- हमें भी इस निम्न-लिखित, परम्-कल्याणकारी कथन से सहमत होने में बिलम्ब नहीं लगेगा :---

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् | 
धर्मो हि तेषाम् अधिकोविशेषो धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: || 
Eating (or things needed for survival), sleep, fear from somebody and sex life (for reproduction), these habits are common between human beings and animals. 
(in this respect we cant differentiate between man and animal). 
It is "dharma" which is additional important quality of man, without which he is same as an animal ....!! 

****ॐ कृष्णम वंदे जगत् गुरुम**** 

= १८३ =

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卐 सत्यराम सा 卐
राम नाम तत काहे न बोलै, 
रे मन मूढ़ अनत जनि डोलै ॥टेक॥ 
भूला भरमत जन्म गमावै, 
यहु रस रसना काहै न गावै ॥१॥ 
क्या झक औरै परत जंजालै, 
वाणी विमल हरि काहे न सँभालै ॥२॥ 
राम विसार जन्म जनि खोवै, 
जपले जीवन साफल होवै ॥३॥ 
सार सुधा सदा रस पीजे, 
दादू तन धर लाहा लीजे ॥४॥ 
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साभार : Shree Ram Sharnam ~ 
जिसके रखवाले हैं राम; उसके कौन बिगाड़े काम ! 
लगभग ४०० वर्ष पूर्व तमिलनाडू में त्यागराज नामक राम भक्त हुए है !वह उत्तम कवि भी थे; प्रभु राम के स्वयं-रचित भजन गाया करते एवं सदैव राम नाम में डूबे रहते थे !
एकदा उन्हें दूसरे नगर में जाना था; रास्ते में एक घना जंगल पड़ता था !जंगल में से गुजरते समय उन्हें लूटने के लिये दो लुटेरे उनके पीछे लग गये ! पर त्यागराज अपनी ही धुन में भजन गुनगुनाते हुए जा रहे थे ! पांच घंटों के उपरांत जब वह दूसरे नगर के निकट पहुंचे तो उस समय दोनों चोर उनके पैरों में गिर पड़े ।
त्यागराज चकित हुए, पूछा - अरे भाई आप मेरे पैर क्यों छू रहे हो ? उन्होंने कहा - हम चोर हैं, आपके पास जो कुछ भी है उसे हम लूटना चाहते थे परंतु आपके निकट आपके अंगरक्षक होने से हम आपको कुछ नहीं कर पाये !उन्होंने हमें पहचान लिया; वे हमे पकडने वाले थे परंतु हमने उनसे क्षमा मांगी और उनके पैर छूने लगे !
तब उन्होंने कहा - हमे नमस्कार करने की अपेक्षा त्यागराज को नमस्कार करो तो ही हम आपको छोडेंगे इसलिये हम आपके पैर छू रहे हैं ! त्यागराज ने पूछा - कौन से दो अंगरक्षक; मैंने तो किसी को भी साथ में नहीं लिया था ! यह कह कर त्यागराज इधर-उधर देखने लगे पर वहां कोई भी नहीं था ! चोरों को भी आश्चर्य हुआ; दोनों अंगरक्षक अदृश्य हो गये थे ! त्यागराज ने उनसे पूछा - वह अंगरक्षक दिखने में कैसे थे ? चोरों ने कहा - दोनों के कंधों पर धनुष्य-बाण थे; मस्तक पर मुकुट था और दोनों युवा थे !
त्यागराज की अंतरात्मा को समझते तनिक भी देर न लगी कि चोरों को दिखाई दिये अंगरक्षक स्वयं प्रभु श्री राम और लक्ष्मण ही थे ! त्यागराज ने चोरों से कहा - आप परम भाग्यशाली हो; मैं रामभक्त हूँ पर मुझे अभी तक उनके दर्शन नहीं हुए ! आप चोर हो और रामभक्त भी नहीं हो तब भी आपको प्रभु राम के दर्शन हुए; यदि मैं चोर होता तो अच्छा होता ! यह कहकर तो राम भक्त त्यागराज के नेत्रो से आसुओं की अविरल धारा बह निकली ! तुरंत भगवान श्री रामचन्द्र ने लक्ष्मण सहित भक्त त्यागराज को दर्शन दे कर कृतार्थ कर दिया ! 
जय श्री राम

बुधवार, 12 नवंबर 2014

= १८२ =

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卐 सत्यराम सा 卐 
मन मृगा मारै सदा, ताका मीठा मांस । 
दादू खाइबे को हिल्या, तातैं आन उदास ॥ 
दादू देह जतन कर राखिये, मन राख्या नहीं जाइ । 
उत्तम मध्यम वासना, भला बुरा सब खाइ ॥ 
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आनंद ~ 
अधार्मिक होना और दुखी होना, एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। इसलिए कोई कभी कल्पना न करे कि अधार्मिक होते हुए भी कोई व्यक्ति कभी आनंदित हो सकता है। यह असंभव है। जैसे शरीर की बीमारियां हैं, और शरीर से बीमार आदमी कैसे आनंदित हो सकता है ? शरीर तो स्वस्थ चाहिए। वैसे ही आत्मा की बीमारियां भी हैं। अधर्म आत्मा की बीमारी का नाम है। जो आत्मा की बीमारी में पड़ा हुआ है वह कैसे आनंदित हो सकता है ? शरीर दुखी हो तो भी एक आदमी भीतर आनंदित हो सकता है। लेकिन भीतर की आत्मा ही दुखी हो तब तो आनंदित होने की कोई उम्मीद नहीं है, कोई आशा नहीं है। लेकिन जिस आत्मा को आनंदित करना है, उस आत्मा के लिए हम कुछ भी नहीं करते, शरीर के लिए सब कुछ करते हैं। 
ओशो.........

= १८१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
सतगुरु चरणां मस्तक धरणां, 
राम नाम कहि दुस्तर तिरणां ॥टेक॥ 
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावै, 
अमर अभै पद सुख में आवै ॥१॥ 
भक्ति मुक्ति बैकुंठा जाइ, 
अमर लोक फल लेवै आइ ॥२॥ 
परम पदारथ मंगल चार, 
साहिब के सब भरे भंडार ॥३॥ 
नूर तेज है ज्योति अपार, 
दादू राता सिरजनहार ॥४॥ 
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Ashok Kumar Jaiswal via आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं ~ 
मनुष्य जीवन के पांच प्रश्न: 
१. प्राप्य क्या है ? (जीवन का लक्ष्य क्या है ?) 
"प्राप्य" अर्थात जिसको प्राप्त करने के बाद संसार में कुछ भी पाना शेष न रह जाए। ऐसा क्या है ? केवल हरी शरणागति ! हरी चरण ! यही मानव जीवन का लक्ष्य है। यूँ तो पशुओं के भी चार पैर, दो श्रवण, दो चक्षु सब होते हैं किन्तु हम मनुष्यों को विवेक मिला जिसका सदुपयोग प्रभु की शरणागति होने में ही करना चाहिए। लोक और परलोक में केवल मेरे श्यामसुंदर के श्री चरण ही प्राप्य हैं जिनको पाने के बाद और किसी चीज़ को पाने की इच्छा नहीं रह जाती। 
२. प्राप्य कैसे प्राप्त हो ? 
नवधा भक्ति से अर्थात पूजन, यजन, भजन-कीर्तन, नाम जप, व्रत-उपासना, यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार आदि नौ प्रकार के भक्ति योग का अनुगमन कर के प्रभु की शरणागति को प्राप्त किया जा सकता है। यदि ये न हो सके तो केवल गौ सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है। इतना भी न हो सके तो केवल माता-पिता की सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है। 
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"सेवा कर भाव" हाथ पैर दबाना मात्र नहीं है। "सेवा कर अर्थ" है पूर्ण मनोयोग से माता-पिता की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना। और जो इतना भी न हो तो केवल गुरु की सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है - कहते हैं "गुरुर्साक्षात परब्रह्म" अर्थात, गुरु ही परब्रह्म का साक्षात् स्वरुप हैं। सो उनकी सेवा से भी प्रभु की शरणागति को प्राप्त कर सकते हैं। और कुछ भी न हो सो केवल दीन-दुखियों की सेवा से ही प्रभु को प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु सेवा निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से होनी चाहिए। 
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३. प्राप्य के मार्ग में क्या बाधाएं हैं ? 
वर्तमान समय में तो इतनी बाधाएं है कि जिनका कोई पार नहीं। युवाओं और बालकों को कुसंग ही कुसंग मिल रहा है। सत्संग का अभाव है। फिर कहते हैं देश में भयंकर घटनाएं न हों ? कैसे ? एक तरफ तो कुसंग को व्याप्त किया जा रहा है और दूसरी तरफ उसके परिणामों की निंदा! कुसंग अनेक प्रकार के होते हैं। भोग का कुसंग: अर्थात जो अखाद्य और अपेय है(मांस व मदिरा) उसका सेवन भी कुसंग है। 
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विचारों का कुसंग: अर्थात किसी के प्रति मलिन विचार, द्वेष, मत्सर(ईर्ष्या-जलन), बैर भाव(अरे उसने ऐसा किया, अवसर मिलने दो। देख लेंगे उसको) इस प्रकार के विचारों से भी बचना चाहिए। 
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जीव का कुसंग: दुराचारी व्यक्ति का कुसंग करना। वर्षों का सत्संग भी एक पल के कुसंग में क्षीण हो जाता है। ये सब बाधाएं हैं प्राप्य के मार्ग में। बाधाओं को दूर कैसे करें ? केवल एक मात्र मार्ग है इन सभी बाधाओं को दूर करने का - सद्गुरु की शरण ! एक बार जो सद्गुरु को हृदय में बसा लिया फिर तो प्राप्य के मार्ग कीं सारीं बाधाएं अपने आप दूर होतीं जाएँगी। सत्संग बढ़ेगा। सत्संग बढ़ने से ज्ञान बढ़ेगा। 
४. प्राप्य के योग्य कौन है ? 
केवल दो ही लोग प्राप्य के योग्य हैं- एक तो महामूर्ख(अज्ञानी) और दूसरा महाज्ञानी। अज्ञानी इसलिए योग्य है कि वह जो भी करता है वह सहज होता है। उसके कोई सत्संग या कुसंग व्याप्त नहीं कर सकता। और दूसरा परमज्ञानी इसलिए कि उसे सब पता है। वह सब जानता है। और कभी भक्ति मार्ग से विचलित नहीं होगा। केवल बीच वाले ही अधर में रह जाते हैं। सो इन सबको चाहिए कि ज्ञान की ओर अग्रसर हों। ज्ञान की उच्चतम कक्षा में प्रवेश करें और प्राप्य को प्राप्त करने का साधन करें ! 
५. प्राप्ता कौन ? 
हम मनुष्य ही प्राप्ता हैं। यदि शास्त्रों में कहे मार्गों पर चलकर भक्ति-योग को अपनाते हैं तो प्रभु शरणागति की प्राप्ति सहज हो जाती है। सभी मनुष्य प्राप्त हैं। आवश्यकता है तो केवल ज्ञान और विवेक को सही दिशा प्रदान करने की जो कि सद्गुरु के सानिध्य में प्राप्त हो जाती है।