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बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(९३/९५)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।* 
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥९३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह अज्ञानी जीव निषिद्ध कर्मों द्वारा, अपने आपको आप ही मारता है । अपना काल, यह आप ही उत्पन्न करके, अपने आपको खाता है ॥९३॥ 
*आपै मारै आपको, यहु जीव विचारा ।* 
*साहिब राखणहारा है, सो हितू हमारा ॥९४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह विचारा सांसारिक अज्ञानी जीव, अनात्म - वासनाओं के द्वारा, अपने आपको, आप ही पुनः पुनः मारता रहता है । ‘साहिब’ कहिए परमेश्वर तो हर समय इसकी रक्षा ही करते हैं, क्योंकि यह उन्हीं का अंश है ॥९४॥
*अग्नि रूप पुरुष इक कहहिं,* 
*संगति देह सहज ही दहहिं ।* 
*दीसे माणस प्रत्यक्ष काल,* 
*ज्यों कर त्यों कर दादू टाल ॥९५॥* 
इति काल का अंग सम्पूर्णः २५ ॥साखी ९५॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! सांसारिक अज्ञानी, राम - विमुखी जीव, कुसंगी, ऐसे संसारीजन मनुष्य रूप के आकार में दिखाई देते हैं, किन्तु वास्तव में काल के ही स्वरूप हैं । ऐसे पुरूषों से सावधान रहना चाहिये, क्योंकि प्राणी मात्र को ये काल रूप से दुःख देते हैं । अतः भजन - स्मरण के द्वारा ऐसे काल रूप मनुष्य को टालिये ॥९५॥ 
चार पुरुष विद्या पढी, चले मिल्यो मग मूढ । 
एक टल्यो इक वचन कही, लाग मर्यो इक मूढ ॥ 
दृष्टान्त ~ चार पुरुष काशी से विद्या पढ़कर आ रहे थे । मार्ग में एक मूर्ख दूर से आता दिखलाई पड़ा । एक ने तो उसको देखकर अपना रास्ता छोड़ दिया । दूसरा उसको मीठे वचन कह करके अलग हो गया । तीसरे ने उसके शब्द का उत्तर ही नहीं दिया, मौन हो गया । चौथा तो उससे भिड़ ही गया और मर गया । 
इति काल का अंग टीका सहित सम्पूर्णः २५ ॥साखी ९५॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(९१/९२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*नूर तेज ज्यों जोति है, प्राण पिंड यों होइ ।*
*दृष्टि मुष्टि आवै नहीं, साहिब के वश सोइ ॥९१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिनका पिंड योगाभ्यास से नूररूप, तेजरूप, ज्योतिरूप हो गया है, किसी के देखने में, किसी के पकड़ने में, वे नहीं आते हैं । वे साहिब रूप ही होते हैं ॥९१॥
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*स्वकीयमित्र शत्रुता*
*मन ही मांही ह्वै मरै, जीवै मन ही मांहि ।*
*साहिब साक्षीभूत है, दादू दूषण नांहि ॥९२॥*
टीका ~ यह जीव रूप मन, नाना प्रकार की वासनाओं के द्वारा ही तो मरता है और आप ही निर्वासनिक होकर सजीवन भाव को प्राप्त हो जाता है । अधिष्ठान चैतन्य साक्षी रूप है, उसे किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं लगता है ॥९२॥
‘मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्ध - मोक्षयोः ।’
(क्रमशः)

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८९/९०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू विनशैं तेज के, माटी के किस मांहि ।*
*अमर उपावणहार है, दूजा कोई नांहि ॥८९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! बड़े - बड़े तेजस्वी भी नष्ट हो गये हैं । माटी के शरीरों की क्या गणना है ? अमर तो केवल एक सच्चिदानन्द निराकार परब्रह्म ही है । बाकी सब ही काल के द्वारा नाश होने वाले हैं ॥८९॥
एक रहै कर्ता पुरुष, महाकाल को काल । 
सुन्दर वह विनशै नहीं, जाको यह सब ख्याल ॥
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*प्राण पवन ज्यों पतला, काया करैं कमाइ ।*
*दादू सब संसार में, क्यों हि गह्या न जाइ ॥९०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस शरीर को योगाभ्यास द्वारा ऐसा ‘कमाइ’, कहिए सूक्ष्म बना लें प्राण - वायु की तरह, जो सब जगह पहुंचने की गति हो जाय । और किसी के भी पकड़ - धकड़ में नहीं आवे । ऐसों के साहिब परमात्मा वश में रहते हैं, अथवा वे साहिब के वश में होते हैं ॥९०॥
(क्रमशः)

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८७/८८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*चंद, सूर, धर, पवन, जल, ब्रह्मांड खंड प्रवेश ।*
*सो काल डरै करतार तैं, जै जै तुम आदेश ॥८७॥*
टीका ~ हे परमेश्वर ! चन्द्रलोक, सूर्यलोक, मृत्युलोक, पवन लोक, वरुण लोक, नौ खंड और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में काल भगवान् व्याप्त हो रहे हैं । और प्राणी मात्र को क्रम - क्रम से भक्षण कर रहे हैं । हे कर्तार ! प्रभु सच्चिदानन्द रूप कारण ब्रह्म, आपसे काल डरते हैं । आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आपका नाम - स्मरण करके, आपके भक्त भी काल की त्रास से मुक्त होते हैं । हे प्रभु ! आपको हमारी बारम्बार नमस्कार है ॥८७॥
काल सबनि को दहत है, काल दहन करतार ।
गण गंधर्प मुनि यक्ष देवता, काहू नहीं उबार ॥
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*पवना, पानी, धरती, अंबर, विनशै रवि, शशि, तारा ।*
*पंत तत्त्व सब माया विनशै, मानुष कहा विचारा ॥८८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जिन पंचीकृत पंच तत्त्वों से यह शऱीर बना है, वह पांच तत्त्व भी समय पाकर नष्ट हो जाते हैं तो इस शरीर की क्या गणना है ? क्यों कि यह तो क्षण - भंगुर है । जब माया के कार्य रवि, शशि, तारे इत्यादिक सम्पूर्ण मायिक कार्य नाश होने वाला है । अविनाशी तो एक कारण - ब्रह्म ही है । उसी का स्मरण करके काल की त्रास से मुक्त होते हैं ॥८८॥
पृथिवी दह्यते यत्र मेरूश्चापि विशीर्यते ।
सुशोषं सागरजलं शरीरे तत्र का कथा ?
(जिस काल के भय से पृथ्वी कॉंपती है, सुमेरू पर्वत फट जाता है, समुद्र सूख जाता है तो इस शरीर की क्या बिसात है ?)
(क्रमशः)

शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८५/८६)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल ।* 
*हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥८५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! काल भगवान् की शक्ति के सामने किसी की भी शक्ति नहीं चलती । जो धरती की एक डग करने वाले भगवान् वामन जैसे, उनके शरीर को भी काल ने खा लिया । और समुद्र की एक फर्लांग करने वाले हनुमान जी जैसे बलिष्ठ पुरुषों के स्थूल शरीरों को भी काल ने चूर्ण कर दिया । और पहाड़ में जाकर ‘हाक’ देने से, जिनकी हाक से पहाड़ में दरार हो जाती, ऐसे - ऐसे बली, भीम योद्धाओं को भी काल ने भक्षण कर लिया ॥८५॥ 
इंद्र लोक भय मानते, डरता सेस पाताल । 
जैमल ऐसे महाबली, केते खाये काल ॥ 
रामस्य प्रब्रजनं बलेर्नियमनं पांडोः सुतानां वनं, 
वृष्णीनां निधनं नलस्य नृपतेः राज्यात्परिभ्रंशनम् । 
नाटयाचार्य धनंजयस्य पतनं संचित्य लंकेश्वरे, 
सर्वं कालवशात् जनोऽत्र सहते कः कं परित्रायते ॥ 
हनुमान भीमादि अति जोधा थे जग मांहि । 
असम हाक तैं फाड़ते, अंतक तैं बलि नाहिं ॥ 
बांके गढ़ को तोड़ते, तर्कस सौ सौ तीर । 
तिन सिर बैठे कागले, चोंच सँवारत बीर ॥ 
*दादू सब जग कंपै काल तैं, ब्रह्मा विष्णु महेश ।* 
*सुर नर मुनिजन लोक सब, स्वर्ग रसातल शेष ॥८६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! काल - भगवान् से तीन लोक कांपते हैं और कहॉं तक कहें ? ब्रह्माजी, विष्णु जी, शंकर महाराज, सुर देवता, नर मनुष्य, मुनि लोग, सम्पूर्ण लोकों के निवासी, स्वर्ग और ‘रसातल’ कहिए पाताल में शेष जी महाराज, ये सब ही काल भगवान् से कंपायमान् होकर, कारण - ब्रह्म का ध्यान करके, काल की त्रास से मुक्त हुए हैं ॥८६॥ 
देव सकल बस काल के, ब्रह्मादिक हरि रूद्र । 
‘जगन्नाथ’ जगदीस बिन, बचे न दानव क्षुद्र ॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८३/८४)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*दादू कहॉं मुहम्मद मीर था, सब नबियों सिरताज ।*
*सो भी मर माटी हुवा, अमर अलह का राज ॥८३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! काल की गति बड़ी बुलन्द है । देखो, मोहम्मद साहब, सब नबियों के शिरोमणी, उनका भी शरीर काल ने खा लिया और वह मिट्टी हो गया, और की क्या चली ? इसलिये अमर तो एक अल्लाह और उसका नाम ही है ॥८३॥
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*केते मर मांटी भये, बहुत बड़े बलवन्त ।* 
*दादू केते ह्वै गये, दाना देव अनन्त ॥८४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! इस पृथ्वी के ऊपर बड़े बड़े बलवान् हुए परन्तु उनके भी शऱीर सब मिट्टी हो गये । कितने ही दाना और अनन्त देव पृथ्वी के ऊपर हो गये । समय पाकर उन सभी के शऱीर मृत्तिका में मिल गये ॥८४॥
जल बुदबुदा हु का बदन, बादर छांह विश्राम । 
और सकल सुख रामबिन, ऐसे हैं बेकाम ॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 30 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(८१/८२)



॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू काल रूप मांही बसै, कोई न जानै ताहि ।*
*यह कूड़ी करणी काल है, सब काहू को खाइ ॥८१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! काल का स्वरूप तो सबके अन्तःकरण में ही बसता है । जो ‘कूड़ी’ कहिये खोटे काम हैं, वे सब काल के ही रूप हैं । परन्तु इस बात को संसारीजन नहीं जानते हैं कि यही काल रूप कर्म हमारा भक्षण कर रहे हैं ॥८१॥
कामक्रोधौ लोभमोहौ देहे तिष्ठन्ति तस्कराः । 
हरन्ति ज्ञानरत्नानि तस्मात् जागृहि जागृहि ॥
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दादू विष अमृत घट में बसैं, दोन्यों एकै ठॉंव ।
माया विषय विकार सब, अमृत हरि का नॉंव ॥८२॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! विष और अमृत, ये दोनों घट कहिए अन्तःकरण में ही हैं । विषय शब्द आदि और काम - वासना ये सब तो विष के समान हैं और निष्काम परमेश्वर का नाम - स्मरण, यही अमृत है । संतजन इसको पीकर अमर होते हैं और सांसारिकजन विषयों को भोगकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं ॥८२॥
(क्रमशः)

बुधवार, 29 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(७९/८०)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*काल चितावणी*
*मन ही मांही मीच है, सारों के शिर साल ।*
*जे कुछ व्यापै राम बिन, दादू सोई काल ॥७९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! परमेश्वर के नाम - स्मरण के बिना जो कुछ मन में वासनायें फुरती रहती हैं, वे सब काल का ही स्वरूप हैं । हे मुमुक्षु ! राम - स्मरण के बिना जो भी कुछ अनात्म पदार्थों की वासना तन मन में व्याप्त होती है, वह सब काल ही काल है ॥७९॥ 
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*दादू जेती लहर विकार की, काल कँवल में सोइ ।*
*प्रेम लहर सो पीव की, भिन्न - भिन्न यों होइ ॥८०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! संसारी मनुष्यों के हृदय में विषय - वासना और कामादि विकारों की जितनी भी फुरणा फुरती है, वह सब काल का ही स्वरूप है । और परमेश्वर के अनन्य भक्तों के हृदय में निष्काम परमात्मा की भक्ति और वैराग्य आदि की जो लहर उठती है, वही परमेश्वर का स्वरूप है । भक्तों में और सांसारिक प्राणियों में इतना ही अन्तर है ॥८०॥
कालहि कर्म निरंजना, तिहुँ एक ही वास । 
भिन्न भिन्न करि जो कहै, सो सतगुरु, मैं दास ॥
(क्रमशः)

मंगलवार, 28 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(७७/७८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*बाहर गढ निर्भय करै, जीबे के तांहीं ।*
*दादू मांहीं काल है, सो जाणै नांहीं ॥७७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! सांसारिक अज्ञानीजन, राम से विमुख अपनी रक्षा के लिये बड़े - बड़े किले बनाकर उसमें रहता है । और यह जानता है कि अब मुझे कोई भी शत्रु का डर नहीं है । किन्तु अज्ञानी मनुष्य यह नहीं जानता है कि वह काल - भगवान् तो मेरे भीतर ही है । उससे बचने का निष्काम राम - नाम रूप स्मरण है । उसको तो यह करता नहीं है, तब काल रूप शत्रु से कैसे बचेगा ॥७७॥
काल ग्रस्त है बावरे, चेतत क्यूं न अजान ।
सुन्दर काया कोट में, होइ रह्या सुलतान ॥
चौदह चौकी मांहि धर, मूसे रोक्या माग ।
‘खेम’ काल सूं चाल कह, भयो चितेरो बाघ ॥
दृष्टान्त ~ एक साहूकार के लड़के की जन्मपत्री में यह शब्द पढ़े कि जब शादी होगी, तो शादी होने के बाद इसकी मृत्यु, शेर के द्वारा हो जायेगी । यह सोचकर साहूकार लड़के की शादी नहीं करता । बड़े - बड़े ठिकाने आये । बहुत से लोगों ने कहा कि जन्मपत्री की कोई सारी बात थोड़े ही सिद्ध हुआ करती हैं । तब साहूकार ने विचार करके एक कुलवती लड़की की अपने लड़के के साथ सगाई ले ली और शादी का दिन निश्चय हो गया । फिर भी साहूकार के मन में संदेह था । 
राजा से सेना बरात के लिये साहूकार ने मंगवाई । सेना की चौदह चौकियों के बीच में, लड़के को शादी के लिये ले गये । शादी बड़े प्रेम से हो गई । उसी प्रकार सेना के बीच में लड़के को ला रहे थे । जब घर में घुसने लगे तो एक सैनिक के पास ढाल थी । उस ढाल के ऊपर शेर का चेहरा बना हुआ था । लड़के की अचानक उस ढाल के ऊपर निगाह पड़ी । उसको वह सच्चा शेर भान हुआ और बोला ~ ‘‘हाय ! बाघ ने खाया ।’’ इतना कहते ही जान निकल गई ।
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*चित्त कपटी*
*दादू साचे मत साहिब मिलै, कपट मिलेगा काल ।*
*साचे परम पद पाइये, कपट काया में साल ॥७८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! परमात्मा की प्राप्ति का सत्य का मार्ग है । सत्य बोलना और सत्य सम्बन्धी कर्म करना । इस मार्ग से सत्य - स्वरूप परमात्मा मिलते हैं और कपट के मार्ग से काल प्राप्त होगा । परमेश्वर के सच्चे, भक्त, सत्य के मार्ग से मोक्ष पद को प्राप्त होते हैं और ईश्वर - विमुखी संसारीजनों को इस शरीर में ही कपट के कामों से काल प्राप्त होगा ॥७८॥
(क्रमशः)

सोमवार, 27 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(७५/७६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*बहुत पसारा कर गया, कुछ हाथ न आया ।*
*दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछताया ॥७५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! परमात्मा से विमुख जीव ने वासनामय बहुत पसारा फैला लिया, परन्तु परमेश्वर के नाम - स्मरण के बिना कुछ भी सार हाथ में नहीं आया । अन्त समय में परमेश्वर की भक्ति के बिना, यह प्राणी पश्चात्ताप ही करता है ॥७५॥
मोटे मीर कहावते, करते बहुत डफोल । 
मरद गरद मै मिलि गये, सु हरि बोलो हरि बोल ॥
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*माणस जल का बुदबुदा, पानी का पोटा ।*
*दादू काया कोट में, मैं वासी मोटा ॥७६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह मनुष्य का शरीर, जल के बुलबुले की भॉंति, वीर्य बिन्दु से पानी की पोट बना हुआ है । इस काया रूप कोट में बैठकर अपने को सबमें प्रधान मानता है, परन्तु यह तो क्षण भंगुर है । इसका क्या अभिमान करता है ? यह तो काल का ग्रास होने वाला है ॥७६॥ (मैं वासी ~ मेवासी पाठान्तर)
अनित्यं यौवनं रूपं जीवनं द्रव्यसंचयः । 
आरोग्यं प्रियसंवासो गृद्धयेदेषु न पंडितः ॥
(क्रमशः)

रविवार, 26 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(७३/७४)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*पंच तत्त्व का पूतला, यहु पिंड सँवारा ।*
*मंदिर माटी मांस का, बिनशत नहिं बारा ॥७३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पंचीकृत पंच महाभूतों से बने हुए इस पिण्ड को सांसारिक प्राणी कितना हार - श्रृंगार से सजाते हैं । परन्तु यह मन्दिर तो मिट्टी मांस हड्डी चमड़ी से बना है, इसमें क्या सार पदार्थ है ? इसकी सफलता तो निष्काम परमेश्वर का स्मरण और जन - समुदाय की सेवा करने में ही है, अन्यथा देखते - देखते ही नाश हो जायेगा ॥७३॥
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*हाड़ चाम का पिंजरा, बिच बोलणहारा ।*
*दादू तामें पैस कर, बहुत किया पसारा ॥७४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! राम - विमुखी सांसारिक पुरुष इस पंजीकृत शरीर में ही विकार रूप वासनाओं का प्लान बनाता रहता है । किन्तु बोलने वाले, सत्ता स्फूर्ति देने वाले, अपने स्वस्वरूप की अज्ञानी मानव ने सुध - बुध नहीं पाई ॥७४॥
अस्थिस्तम्भं स्नायुबद्धं मांसशोणित लेपितम् ।
चर्मावबद्धं दुर्गन्धं पात्रं मूत्रपुरीषयोः ॥
(क्रमशः)

शनिवार, 25 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(७१/७२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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दादू मड़ा मसाण का, केता करै डफान ।
मृतक मुर्दा गोर का, बहुत करै अभिमान ॥७१॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर से विमुख जीव का शरीर, मसाण(श्मशान) का प्रत्यक्ष मुर्दा है परन्तु अपने शरीर और परिवार का, यह अज्ञानी जीव कितना अभिमान करता है ? यह तो प्रत्यक्ष में मृतक मुर्दा गोर(कब्र) का होकर भी कितने अहंकार को प्राप्त हो रहा है ? इसको तो काल - भगवान चूर्णं बना देंगे ॥७१॥
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राजा राणा राव मैं, मैं खानों सिर खान ।
माया मोह पसारै एता, सब धरती आसमान ॥७२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारी मनुष्य माया में मग्न राम से विमुखी हैं, उनकी तृष्णा का कोई पार नहीं है । वह राज - प्रमुख है तो आगे इच्छा करता है कि महाराज - प्रमुख हो जाऊँ और फिर महाराजा हो जावे, तो सारी पृथ्वी के राज्य की इच्छा करता है । आगे इन्द्रासन की इच्छा होती है । इस प्रकार धरती, आकाश, सब पर अपना ही कब्जा चाहता है । इस तृष्णा का अन्त नहीं है । इसका अंत तो संतोष धारण करके परमेश्वर का नाम स्मरण करने से ही होता है ॥७२॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(६९/७०)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*काल चेतावनी*
*मूसा भागा मरण तैं, जहॉं जाइ तहॉं गोर ।*
*दादू स्वर्ग पयाल में, कठिन काल का शोर ॥६९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मूसा पैगम्बर, मुसलमानों के नेता, ने एक समय कब्र खोदने वालों को देखा । पूछा ~ यह कब्र किसके लिये खोद रहे हो ? वे बोले ~ मूसा पैगम्बर अगर इधर मरेगा, तो उसको इस कब्र में दफनावेंगे । 
इसी प्रकार त्रिलोकी में मूसा पैगम्बर मरने के भय से दौड़ धूप करने लगे, परन्तु जहॉं गये वहॉं कब्र खोदते हुए देखा और सभी ने कहा ~ मूसा साहब के लिये कब्र खोद रहे हैं । मूसा साहब जान गये कि तीनों लोकों में कहीं भी कोई क्यों न रहे, काल से बचना कठिन है ।
काल से तो एक अकाल पुरुष परमात्मा ही बचे हैं । मरण धर्म वाली वस्तुओं को तो, काल सभी को भक्षण कर लेता है । मूसा की रक्षा कहीं भी नहीं हुई । इसी प्रकार मरण - धर्म वाला मन, जहॉं तहॉं सर्वत्र विषय - सुखों में ही सुख की इच्छा करता है और लोक - परलोक में दौड़ता है । परन्तु सर्वत्र वहॉं काल का ही ग्रास बनता है ॥६९॥
मूसे को पुनि उलूक को, देखि हँस्यो धर्मराज ।
कही गरुड़ से जा धर्यो, गुहा मध्य अहि खाज ॥
दृष्टान्त ~ एक समय धर्मराज महाराज हँसने लगे । गरुड़ जी बोले ~ महाराज ! कैसे हँसते हो ? धर्मराज बोले ~ गरुड़ जी काल की शक्ति बड़ी भारी है । कोई काल से बच नहीं सकता । काल - भगवान सबको भक्षण कर लेते हैं । अब थोड़ी देर में एक हजार मील दूर एक सर्प है, और सर्प से हजार मील दूर चूहा है । उस चूहे को अभी सर्प खाने वाला है ।
गरुड़ जी को बड़ा आश्चर्य हुआ सुनकर । धर्मराज को नमस्कार करके गरुड़ जी चले और जहॉं बतलाया था चूहा, उसको वहॉं से उठाया और एक हजार मील दूर ले जाकर रखा और धर्मराज के पास आ बैठे ।
फिर धर्मराज महाराज हँसे । गरुड जी बोले ~ महाराज ! अब क्या कारण है, हँसने का । धर्मराज महाराज बोले ~ उस सर्प ने उस चूहे को खा लिया । गरुड़ बोले ~ उसको तो मैं एक हजार मील दूर रख आया । धर्मराज जी बोले ~ उसको तुम सर्प की बम्बी के ऊपर ही रख आये । सर्प को जाना ही नहीं पड़ा, वहीं भोजन कर लिया ।
गरुड़ जी ने धर्मराज महाराज को नमस्कार किया और कहा ~ काल - भगवान को भी हम बारम्बार नमस्कार करते हैं ।
जैसी हो होतव्यता, तैसी मिलै सहाय ।
कै चल आवै ताहि पै, कै ताहि तहॉं ले जाय ॥
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*सब मुख मांही काल के, मांड्या माया जाल ।*
*दादू गोर मसाण में, झंखे स्वर्ग पयाल ॥७०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण प्राणी माया के जाल में फँस कर मानो काल के ही मुँह में बैठे हुए हैं । काल - भगवान ने अपना मुख सर्वत्र फैला रखा है । कोई गोर रूप कब्रिस्तान में और कोई श्मशान में जलाये दफनाए जाते हैं । स्वर्ग में, पाताल में सर्वत्र काल - भगवान सबको पकड़ कर खा रहे हैं ॥७०॥
(क्रमशः)

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(६७/८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*समर्थ का शरणा तजै, गहै आन की औट ।*
*दादू बलवंत काल की, क्यों कर बंचै चोट ॥६७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्वशक्तिमान ईश्वर की शरण को छोड़कर अन्य देवी - देवता आदिकों की ओट ग्रहण करे तो काल की चोट से कैसे रहित हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते ॥६७॥
सुन्दर तो तूं उबरि है, समर्थ शरणै जाइ । 
और जहॉं तहॉं तूं फिरै, काल तहॉं तहॉं खाइ ॥
खोज पकड़ विश्वास गहि, धणी मिलेगा आइ । 
अजा गज मस्तक चढ़ि, निर्भय कोंपल खाइ ॥
दृष्टान्त ~ एक जंगल में, एक रोज रेवड़ से बिछुड़ कर एक बकरी रात को रह गई । उसने सोचा, अब जान कैसे बचेगी ? जंगल में उसने सभी पशुओं के खोज देखे । जब शेर का खोज मिला, उसका सहारा लेकर बैठ गई । जंगल के जानवर निकलने लगे, खाना - पीना करने को । बकरी को देखकर गीदड़ मुंह बाह कर आने लगा । तब बकरी बोली ~ पहले यहॉं आकर देख ले, यह किसका खोज है ? गीदड़ बोला ~ शेर का । तो कहा ~ उसकी बैठाई हुई हूँ, वह मुझे बैठाकर गया है । 
गीदड़ डर गया । बोला ~ बहन ! बैठी रह, हम तेरे को कुछ नहीं कहते । इस प्रकार प्रायः सभी जंगल के जानवर देख - देख कर चले गये । जब शेर गर्जना करता हुआ आया, बकरी बोली ~ मेरी पहले प्रार्थना सुन लो । अब तक तो मैंने आपके खोज का सहारा लेकर अपनी जान बचाई है । अब हे भाई ! आप मुनासिब समझौ, वैसा करो । शेर बोला ~ ठीक है, अब तुझे किसी का भी खतरा नहीं है ।
शेर ने हाथी को बुलाया और बोला कि यह मेरी बहन है, इसको तुम अपने ऊपर चढ़ाओ और खूब कच्ची - कच्ची वृक्षों की पत्तियां खिलाओ । उसी प्रकार हाथी करने लगा । बकरी हाथी के मस्तक पर चढ़ कर, सबसे निर्भय होकर, वृक्षों की पत्तियां खाती है, और मग्न रहती है । इसी प्रकार परमेश्वर के नाम रूपी खोज का सहारा लेकर अनन्य भक्त नाम का स्मरण करते हैं । उन्हीं को परमेश्वर, काल - कर्म के भय से मुक्त कर देते हैं ।
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*सजीव*
*अविनाशी के आसरे, अजरावर की ओट ।*
*दादू शरणैं सांच के, कदे न लागै चोट ॥६८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अविनाशी अजर अमर परमेश्वर का जिसने आसरा ले लिया है, उस सत्य स्वरूप के सत्य नाम का जो स्मरण करते हैं, उनके फिर कभी भी काल - कर्म की चोट नहीं लगती है ॥६८॥
(क्रमशः)

बुधवार, 22 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(६५/६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*केई गाड़े केई गाड़िये, केई गाडण जांहि ।*
*केई गाड़ण की करैं, दादू जीवन नांहिं ॥६५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कितने ही तो दफना दिये और कितने ही को दफनाना है । कितने ही को दफनाने जा रहे हैं । कितने ही को दफनाने की तैयारी कर रहे हैं, परन्तु देखने वाले कोई भी उस मालिक का एक दिल होकर नाम स्मरण नहीं करते ॥६५॥
कबीर केई कबर में दाबिये, केई खोदे खाड । 
केई तैयारी कर रहे, अंतक बैरी ठाड ॥
जिन हम जाया ते मुये, हम भी चालनहार । 
जे हमकों आगे मिले, तिन भी बॉंध्या भार ॥
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*दादू कहै - उठ रे प्राणी जाग जीव, अपना सजन संभाल ।*
*गाफिल नींद न कीजिये, आइ पहुंता काल ॥६६॥*
टीका ~ ब्रह्मऋषि कहते हैं कि हे प्राणी ! उठ, कहिये मानसिक पुरूषार्थ कर । अज्ञान - निद्रा से जाग कर मायावी आसक्ति का त्याग करके, अपने सज्जन, परम प्यारे परमेश्वर का नाम स्मरण कर । हे साधक पुरुष ! प्रभु के भजन से कभी भी विमुख नहीं होना, क्योंकि सबके सिर पर काल - भगवान का चक्र घूम रहा है ॥६६॥
कही पातसाह मोहि को, मीच न याद रहाइ । 
ल्याप बीरबल बोड़ बहु, खड़े दिखाये आइ ॥
दृष्टान्त ~ बादशाह अकबर बीरबल से बोले ~ बीरबल मुझे मौत याद नहीं रहती है । बीरबल बोले ~ हुजूर ! मौत तो मैं आपको रोज याद करा दूंगा । दूसरे दिन कब्र खोदने वालों को हाथों में फावड़े और गेंती लिए हुए बीरबल ने लाकर बादशाह के सामने खड़े कर दिये । बोला हुजूर ! इनको रोज देख लिया करो, यही कब्र खोदने वाले हैं । इनके रोज दर्शन कर लिया करो, मौत याद रहेगी ।
(क्रमशः)

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(६३/४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू प्राण पयाना कर गया, माटी धरी मसाण ।*
*जालणहारे देखकर, चेतैं नहीं अजाण ॥६३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! झूठे व्यवहार करते - करते शरीर से प्राण निकल गये । शरीर रूप मिट्टी शमशान में रखी है । जलाने वाले देख रहे हैं । परन्तु फिर भी वे गंवार, विषयों के यार, यह नहीं विचार करते कि एक रोज हमारा शरीर भी शमशान में लाकर जलाया जायेगा ॥६३॥
म्रियमाणं मृतं बन्धुं शोचन्ति परिवेदिनः । 
आत्मानं नानुशोचन्ति कालेन कवलीकृतम् ॥
(मरे हुए भाई - बन्धुओं को देखकर शोक करता है, किन्तु मैं भी एक दिन मरूंगा, यह नहीं सोचता ।)
कबीर जिन हम जाये ते मुये, हम भी चालणहार । 
जे हमको आगे मिले, तिन भी बंध्या भार ॥
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*दादू केई जाले केई जालिये, केई जालण जांहि ।*
*केई जालन की करैं, दादू जीवन नांहि ॥६४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कितने ही तो जला दिये और कितने ही को जलाना है । और कितने ही को जलाने जा रहे हैं । कितने ही को जलाने की तैयारी कर रहे हैं । अतः जीने की आशा नहीं है ॥६४॥
कबीर रोवन हारे भी मुये, मुये जलावनहार । 
हा हा करते ही मुये, का सन करौं पुकार ॥
(क्रमशः)

सोमवार, 20 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(६१/२)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू देखत ही भया, श्याम वर्ण तैं सेत ।*
*तन मन यौवन सब गया, अजहुँ न हरि सौं हेत ॥६१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! माया - प्रपंच को देखते - देखते ही अज्ञानी प्राणी के सिर के काले बाल भी सफेद हो गये और तन मन की यौवन जवानी, विषयों में ही वृथा गमा दी । किन्तु अब भी यह अन्त समय में मूर्ख प्राणी प्रभु से प्रीति नहीं करता है ॥६१॥
कंटक तरु कंटक तजे, वृद्धे भये की लाज ॥ 
‘मोजी’ कच धोले भये, अब क्यों करत अकाज ॥
मनहर
जोबन को गयो राज, और सब भयो साज, 
आपनी दुहाई फेरि दमामो बजायो है ।
लकुटी हथियार लिये, नैननि की ढाल दिये, 
श्वेत बाल भयो ताको तम्बू सो तनायो है ॥
दसन गये सो मानो दरबान दूर किये, 
जोगरी परी सो आन बिछानो बिछायो है ।
सीस कर कँपत सु सुन्दर निकारो रिपु,
देखत ही देखत बुढ़ापो दौरि आयो है ॥
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*दादू झूठे के घर देख कर, झूठे पूछे जाइ ।*
*झूठे झूठा बोलते, रहे मसाणों आइ ॥६२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह परमेश्वर से झूठे जीव, अर्थात् गर्भवास के कोल करार को भूले हुए, ऐसे झूठों के घर, राम से विमुखी विषयासक्त जीव, उनसे वार्ता करते हैं । वे झूठे, झूठों को, झूठी ही शिक्षा देते हैं । वह दोनों ही श्मशान में भूत - प्रेतों की योनि को प्राप्त होते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 19 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(५९/६०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
दादू काल हमारा कर गहै, दिन दिन खैंचत जाइ ।
अजहुं जीव जागै नहीं, सोवत गई बिहाइ ॥५९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! काल - भगवान हमारा कहिये, सम्पूर्ण प्राणियों की, आयु रूपी हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींच रहा है । किन्तु फिर भी अज्ञानी बहिर्मुख जीव, मोह रूप निद्रा से नहीं जागता है और सारी आयु राम - भजन के बिना निष्फल ही गँवा रहा है ॥५९॥
आसन्नतरतामेति मृत्युर्जन्तो दिने दिने । 
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव पदे पदे ॥
(बलि के बकरे की भांति, दिन प्रतिदिन प्राणियों को मृत्यु खैंच कर ले जा रही है ।)
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सूता आवै सूता जाइ, सूता खेले सूता खाइ ।
सूता लेवै सूता देवै, दादू सूता जाइ ॥६०॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक अज्ञानीजन, अज्ञान अथवा मोह रूप निद्रा में ही तो आते हैं और इसी प्रकार जाते हैं । और अज्ञान में ही खेलते हैं । अज्ञान में ही अपने को भोक्ता जानकर सब भोग भोगते हैं । और अचेत अवस्था में ही लेते - देते हैं । अचेत अवस्था में ही चले जाते हैं ॥६०॥
(क्रमशः)

शनिवार, 18 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(५७/५८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*दादू अवसर चल गया, बरियां गई बिहाइ ।*
*कर छिटके कहँ पाइये, जन्म अमोलक जाइ ॥५७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह मनुष्य देह रूपी अवसर कहिये समय, राम भजन के बिना व्यर्थ जा रहा है । अर्थात् अन्तःकरण की वृत्ति बहिर्मुख साधनों में प्रवृत्त होवे, तो फिर आत्म - तत्त्व कैसे प्राप्त हो सकता है ? इसीलिये अज्ञानी मनुष्यों का यह अमूल्य मनुष्य - जीवन वृथा ही जा रहा है ॥५७॥
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*दादू गाफिल ह्वै रह्या, गहिला हुवा गँवार ।*
*सो दिन चित्त न आवई, सोवै पांव पसार ॥५८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर के मार्ग से बिछड़े हुए विषय - वासनाओं में पागल, विषयों के यार, भगवत् - विमुख होकर, जब जीव, मायावी प्रपंच में आसक्त होकर, पागल हो रहे हैं, और अन्त समय नजदीक आ रहा है । उसकी किसी को भी चिन्ता नहीं है । सभी जन पांव पसार कर सोते हैं, अर्थात् विषय - वासनाओं के मनोरथ करते रहते हैं । अथवा यह जीव जिस रोज लम्बे पांव फैलावेगा अर्थात् प्राण पिण्ड का वियोग होगा, उस अन्त समय का विचार करके हे जीव ! इस मिथ्या माया के मोह को छोड़ कर अब हरि का स्मरण कर ॥५८॥
‘जैमल’ कायर का भयो, सूरातन की बार । 
सिर साहिब को सौंपता, सोचै कहा गँवार ॥
(क्रमशः)

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

= काल का अंग २५ =(५५/५६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
*पूत पिता थैं बीछुट्या, भूलि पड़या किस ठौर ।*
*मरै नहिं उर फाट कर, दादू बड़ा कठोर ॥५५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह जीव ब्रह्म का अंश, अपने पिता ब्रह्म से विमुख होकर देखो, संसार की विषय - वासनाओं में तथा पाप - पुण्य के बन्धनों में बँधकर भ्रमता है । किन्तु ‘उर फाट कर’ कहिये, अज्ञान रूप भ्रम का नाश करके, जीवित मृतक होकर अर्थात् गुणातीत तटस्थ रहकर ब्रह्म से अभेद नहीं होता है, क्योंकि वृत्ति देह अध्यास में लगी है ॥५५॥
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*काल चेतावनी*
*जे दिन जाइ सो बहुरि न आवै, आयु घटै तन छीजै ।*
*अंतकाल दिन आइ पहुंता, दादू ढील न कीजै ॥५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो उम्र के दिन बीतते हैं, वह फिर दुबारा नहीं आने के । ऐसे ही मनुष्य देह के श्वांस भी नहीं आवेंगे । अन्त समय नजदीक आता है और गया समय वापिस नहीं आता । इसलिये राम का स्मरण करने में अब देर नहीं करना ॥५६॥
(क्रमशः)