॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*काल का अंग २५*
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*आपै मारै आपको, आप आप को खाइ ।*
*आपै अपना काल है, दादू कहि समझाइ ॥९३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह अज्ञानी जीव निषिद्ध कर्मों द्वारा, अपने आपको आप ही मारता है । अपना काल, यह आप ही उत्पन्न करके, अपने आपको खाता है ॥९३॥
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*आपै मारै आपको, यहु जीव विचारा ।*
*साहिब राखणहारा है, सो हितू हमारा ॥९४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! यह विचारा सांसारिक अज्ञानी जीव, अनात्म - वासनाओं के द्वारा, अपने आपको, आप ही पुनः पुनः मारता रहता है । ‘साहिब’ कहिए परमेश्वर तो हर समय इसकी रक्षा ही करते हैं, क्योंकि यह उन्हीं का अंश है ॥९४॥
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*अग्नि रूप पुरुष इक कहहिं,*
*संगति देह सहज ही दहहिं ।*
*दीसे माणस प्रत्यक्ष काल,*
*ज्यों कर त्यों कर दादू टाल ॥९५॥*
इति काल का अंग सम्पूर्णः २५ ॥साखी ९५॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! सांसारिक अज्ञानी, राम - विमुखी जीव, कुसंगी, ऐसे संसारीजन मनुष्य रूप के आकार में दिखाई देते हैं, किन्तु वास्तव में काल के ही स्वरूप हैं । ऐसे पुरूषों से सावधान रहना चाहिये, क्योंकि प्राणी मात्र को ये काल रूप से दुःख देते हैं । अतः भजन - स्मरण के द्वारा ऐसे काल रूप मनुष्य को टालिये ॥९५॥
चार पुरुष विद्या पढी, चले मिल्यो मग मूढ ।
एक टल्यो इक वचन कही, लाग मर्यो इक मूढ ॥
दृष्टान्त ~ चार पुरुष काशी से विद्या पढ़कर आ रहे थे । मार्ग में एक मूर्ख दूर से आता दिखलाई पड़ा । एक ने तो उसको देखकर अपना रास्ता छोड़ दिया । दूसरा उसको मीठे वचन कह करके अलग हो गया । तीसरे ने उसके शब्द का उत्तर ही नहीं दिया, मौन हो गया । चौथा तो उससे भिड़ ही गया और मर गया ।
इति काल का अंग टीका सहित सम्पूर्णः २५ ॥साखी ९५॥
(क्रमशः)