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🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ २२१/२४*
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ध्यांनं ग्यांनं हरि मानं, अंगि अंग आनंद रूपं ।
कहि जगजीवन नांम निरंजनं, अबिगत अलख अनूपं ॥२२१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारे ध्यान ज्ञान का सार हरि नाम ही मान जिससे हर अंग आनंदित होगा । संत कहते हैं कि उन अलख निरंजन अविगत प्रभु जैसा कोइ भी नहीं है उनकी कोइ उपमा नहीं है, वे अनूप हैं।
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कहि जगजीवन रांमजी, तुझ पै जाचूं१ नांम ।
क्रिपा दया करि दीजिये, सुमिरूं चार्यौं जांम ॥२२२॥
(१. जांचू-मांगूं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु जी आपसे नाम दान ही मागं रहा हूँ आप देने की कृपा करें, साथ ही मैं चारों याम या प्रहर स्मरण करूँ ऐसी सामर्थ्य भी दीजिये।
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हूँ जांणूँ हरि नांम मैं, टूटि पडै तन त्यागि ।
कहि जगजीवन प्रेम रस, हरि सौं पीऊँ लागि ॥२२३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मेरा मन करता है कि मैं देह त्याग कर हरि नाम को ही समर्पित हो जाउँ। और परमात्मा के सानिध्य में उस प्रेम रस का आनंद पान करुं।
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दोई अक्षर बिन चित मैं बसैं, इहीं आस जिय प्यास ।
और कहिन की आंषड़ी२, सु कहि जगजीवनदास ॥२२४॥
(२. और कहिन की आंषड़ी-दूसरों द्वारा कृत उपदेश सामान्य ही हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रेम के ढाई अक्षर बिन हरि नाम लिया जाय तो प्रेम की आस बनी ही रहती प्यास बन कर अर्थात तृप्ति नहीं होती। दूसरे चाहे कुछ भी कहे सत्य बात यह है कि प्रेम के बिना स्मरण सार्थक नहीं है।
इति नांम कौ अंग सम्पूर्ण ॥३॥
(क्रमशः)