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सोमवार, 6 अप्रैल 2020

*३. नांम कौ अंग ~ २२१/२४*

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ २२१/२४*
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ध्यांनं ग्यांनं हरि मानं, अंगि अंग आनंद रूपं ।
कहि जगजीवन नांम निरंजनं, अबिगत अलख अनूपं ॥२२१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारे ध्यान ज्ञान का सार हरि नाम ही मान जिससे हर अंग आनंदित होगा । संत कहते हैं कि उन अलख निरंजन अविगत प्रभु जैसा कोइ भी नहीं है उनकी कोइ उपमा नहीं है, वे अनूप हैं।
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कहि जगजीवन रांमजी, तुझ पै जाचूं१ नांम ।
क्रिपा दया करि दीजिये, सुमिरूं चार्यौं जांम ॥२२२॥
(१. जांचू-मांगूं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे प्रभु जी आपसे नाम दान ही मागं रहा हूँ आप देने की कृपा करें, साथ ही मैं चारों याम या प्रहर स्मरण करूँ ऐसी सामर्थ्य भी दीजिये।
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हूँ जांणूँ हरि नांम मैं, टूटि पडै तन त्यागि ।
कहि जगजीवन प्रेम रस, हरि सौं पीऊँ लागि ॥२२३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मेरा मन करता है कि मैं देह त्याग कर हरि नाम को ही समर्पित हो जाउँ। और परमात्मा के सानिध्य में उस प्रेम रस का आनंद पान करुं।
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दोई अक्षर बिन चित मैं बसैं, इहीं आस जिय प्यास ।
और कहिन की आंषड़ी२, सु कहि जगजीवनदास ॥२२४॥
(२. और कहिन की आंषड़ी-दूसरों द्वारा कृत उपदेश सामान्य ही हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि प्रेम के ढाई अक्षर बिन हरि नाम लिया जाय तो प्रेम की आस बनी ही रहती प्यास बन कर अर्थात तृप्ति नहीं होती। दूसरे चाहे कुछ भी कहे सत्य बात यह है कि प्रेम के बिना स्मरण सार्थक नहीं है।
इति नांम कौ अंग सम्पूर्ण ॥३॥
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ २१७/२०*

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ २१७/२०*
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मांहि भजन की कल्पना, खरी व्याप्रीति३ मांहि ।
जगजीवन इक रांम बिन, आंन सुहावै नांहि ॥२१७॥
{३. व्याप्रिति-व्याप्रिति(कर्म)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अतंर में भजन विषयक सोच हो और
कर्म भी हरि भजन ही हो संत कहते हैं कि प्रभुनाम के बिना कोइ
अन्य न भावे जिन्हें वे ही सच्चे साधक हैं।
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रांम नांम जिन कै विभौ४, सुमिरण प्रेम विलास ।
अनंत भोग अबिगत भजन, सु कहि जगजीवनदास ॥२१८॥
(४. विभौ-वैभव, धन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो अपना धन वैभव ही राम को मानते हैं, ऐसे साधक जन जिनका विलास या शौक ही प्रेम व स्मरण है वे न जाने कितनी विधाओं से भजन कर अनंत वांछित भोगों को सुंदर प्रकार से प्राप्त करते हैं।
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कोई जन जंगल रहै, कोई रहै घर छाइ ।
जगजीवन हरि मैं रहै, गोबिन्द का गुन गाइ ॥२१९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कोइ जन जंगल में रहते हैं कोइ घर में ही व्यस्त रहते हैं संत तो हरि भजन में ही मस्त रहते हैं।
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अलख प्राण अबिगत सुरति, मन ही सजीवन रांम ।
मनसा हरि हरि सबद मंहि, जगजीवन भजि रांम ॥२२०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वे दृष्टि से परे ध्यान से भी उंचे जो प्रभु हैं उन हरि जी का स्मरण हरि शब्द से करें और राम स्मरण में रत रहें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ २१३/१६*

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*३. नांम कौ अंग ~ २१३/१६*
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घाट बंधै घट मांहि रहै, बहै न बहती धार ।
जगजीवन मन हाथ करि, हरि भजि उतरै पार ॥२१३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो सिमट जाता है वह ही स्थिर रहता है और पहचान बनती है। हृदयस्थ रहता है। अतः अपने मन को जो जन वश में रखते हैं, वे स्मरण द्वारा भव से पार उतरते हैं।
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दोइ अक्षर मैं सकल है, कोटि ग्रंथ किहिं काम ।
कहि जगजीवन सब पढ्या, जे चित आवै रांम ॥२१४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि करोड़ों ग्रंथ जिस प्रयोजन को सिद्ध करेंगे उसी प्रयोजन को राम नाम के दो अक्षर पूर्ण कर देते हैं। सब ग्रंथों के पढने से भी चित में राम ही आते हैं।
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जगजीवन अक्षर कली, प्रेम बासना मंझ ।
हरि भजि बिगसै जन लहै, वपु बाड़ी२ महि गंझ ॥२१५॥
(३. वपु बाड़ी-शरीर रूपी बाग)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम शब्द के वर्ण ‘र’ व ‘म’ दो कलियों के समान है, व उनसे प्रेम खुशबू है। हरि स्मरण से विकसित होकर वह पुष्प काया रुपी वाटिका में फलता है।
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साखी सोई पद भला, प्रेम सहित जे होइ ।
कहि जगजीवन नांव सौ, फेरी सकै नहिं कोइ ॥२१६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वही साखी सुन्दर है जिसमे प्रेम के पद हों। उसके भजन से निश्चय ही स्मरण होता है।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ २०९/१२*

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*३. नांम कौ अंग ~ २०९/१२*
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नांम सुणावौ आपणां, रोम रोम ल्यौ लाइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, दरसन दीजै आइ ॥२०९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी नाम दान दें हमारा रोम रोम आपकी लगन में लगा है। अतः हे राम जी अब तो आप दर्शन दें।
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जिन रुचि मांनि एक सौं, न्रिपत१ भये भजि नांम ।
कहि जगजीवन संतोष सत, यहु वित्त दीन्ह्यौ रांम ॥२१०॥
{१. न्रिपत-नृपति(राजा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिन जन को हरि नाम में ही रुचि रही है वे ही स्मरण द्वारा अनुकरणीय राजा जैसे हो जाते हैं । उन्हें राम जी ने संतोष की ताकत धन रुप में प्रदान की है।
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जे तू मानै तो कहूँ, सबद एक सुनि सार ।
रांम नांम जिन बीसरै, जगजीवन इंहि बार ॥२११॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे जीव यदि माने तो एक बात कहूँ एक ही शब्द जो प्रभु नाम का है, वो तो इस जीवन का सार है, ये वचन सदा याद रहे कभी भूलें नहीं।
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सकल करै खाली भरै, अैसा है हरि नांम ।
अठ सिधि नव निधि देखिये, जगजीवन जहां रांम ॥२१२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर सब कुछ पूर्ण करते हैं वे रिक्तता को भी परिपूर्ण करते हैं। जहाँ प्रभु का नाम है वहां आठ सिद्धि व नो निधि रहती है।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ २०५/८*

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*३. नांम कौ अंग ~ २०५/८*
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तुम्हरा ही गुणानुवाद हरि, सब कोइ गावै रांम ।
कहि जगजीवन सोइ धरि लाधै२, भगति अखंडित नांम ॥२०५॥
(२. लाधै-प्राप्त हो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे ईश्वर आपके ही गुण सब राम नाम स्मरण द्वारा गाते हैं और जो गाते हैं वे ही अखण्डित प्रभु भक्ति प्राप्त करते हैं।
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नांम सुणावौ आपणां, दिक्ष्या दीज्यौ मोहि ।
कहि जगजीवन रांमजी, सतगुरु समझूं तोहि ॥२०६॥
संतजगजीवन जी कहते है कि है प्रभो आप नाम दान देकर मुझे दीक्षित करने की कृपा करें तो, हे राम जी मैं तो आपको ही अपना सद्गुरु मानूं क्योंकि आपका नाम ही सद्गुरु की भांति सब कुछ देनेवाला है।
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नांम सुणावौ आपणां, हम जीवैं तिहिं लागि ।
कहि जगजीवन रांमजी, अधिक विरह की आगि ॥२०७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर हमें अपने नाम की कृपा बख्शें हम उसी के सहारे जीते हैं ईश्वर हमें आपके नाम का ही विरह है आप अपनी कृपा से हमारे विरह की अग्नि को शांत करें।
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नांम सुणावौ आपणां, जहां लग है हरि आदि ।
कहि जगजीवन रांमजी, रसनां गावै स्वादि ॥२०८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है प्रभु जी आप अपने नाम की महत्ता का महत्व आदि से ही बतायें जिसे ज्ञान होने पर ये जिह्वा आनंद रुपी स्वाद से गायेगी।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ २०१/२०४*

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*३. नांम कौ अंग ~ २०१/२०४*
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कहि जगजीवन पार ब्रह्म का, नांम पीछांणै एक ।
हरि सुमिरण हरि हेत स्यूं, नासै विघन अनेक ॥२०१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर का नाम पहचान करनेवाले कोइ कोइ ही होते हैं संत कहते है कि प्रेम पूर्वक स्मरण अनेक विघ्न मिटाता है।
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एहि अक्षर एही बयण, सब कोइ कहै बणाइ ।
कहि जगजीवन मन मांहै मन रहै, सो हरि नांम जणाइ ॥२०२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ये अक्षर और ये वचन ही हैं जिन्हें सुधि जन भातिं भातिं कहते हैं । जिनके मन मे ईश्वर रहते हैं या जो भक्ति द्वारा हरि जी के मन में रहते हैं वे ही इसकी महत्ता जानते हैं।
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भाव भगति सों मन रहै, बिरह ऊपजै सार ।
कहि जगजीवन अनहद धुनि मंहि, बाणी अनंत अपार ॥२०३ ॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिन जन का मन ईश्वर में रहे व ईश्वर का विरह जिन के मन में उपजता है वे ईश्वर तक पहुंच सकने वाली अनहद धुन को सुनते हैं जिसमे अनेक संतो के द्वारा अनंत अपार ईश्वर का वर्णन किया गया है।
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सबद सोइ जे साध कहै, मन चित मुखि हरि नांम ।
कहि जगजीवन सकल सुहावै, पार ब्रह्म का नांम ॥२०४॥
संतजगजीवन जी कहते है कि सार्थक शब्द वही है जो साधु जन द्वारा कहे गये हैं जिनके मुख मन व चित में हरि नाम ही रहता है उन्हें ईश्वर के सब नाम अच्छे लगते हैं ।
(क्रमशः)

रविवार, 5 अप्रैल 2020

*३. नांम कौ अंग ~ १९७/२००*

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*३. नांम कौ अंग ~ १९७/२००*
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रांम नांम तिहुँ लोक मैं, सरस गुफा निज थांनं ।
कहि जगजीवन खोज मन, हरि धरि दीपक ग्यांन ॥१९७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम का नाम तीनों लोकों में व्याप्त है इसे है जीवात्मा तू अपनी मन की गुफा में स्थापित कर इसे ज्ञान रुपी दीपक द्वारा मन में ही खोज कर धर ले। अन्यत्र जाने की आवश्यकता नहीं है।
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रांम रिदै रसनां बदन, रांम सबै चित मांहि ।
कहि जगजीवन रांम बिन, हरिजन बोलै नांहि ॥१९८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम हृदय में हो जिह्वा पर हो मुख में हो सारे चित विचार में होते हैं जो प्रभु के सच्चे बंदे हैं वे तो राम के बिना कुछ बोलते भी नहीं हैं।
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बेद जग्य तप दांन पुन्नि, जे फल प्रापत होइ ।
कहि जगजीवन क्रिपा हरि, अरध नांव मंहि जोइ ॥१९९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि वेद यज्ञ तप दान व पुण्य से जो फल मिलता है वह ही प्रभु कृपा होने से भगवन्नाम के अर्ध नाम स्मरण से ही मिल जाता है विचारणीय है कि ईश्वर का पूरा नाम जप कितना लाभकारी है।
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नर नारायण नांम हरि, प्रिथवी पालन रांम ।
कहि जगजीवन ताहि भजि, सरि आवै सब काम ॥२००॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है मनुष्य वे परमात्मा हरि ही पृथ्वी के पालनहार हैं। अतः उनके नाम स्मरण से तेरे सब काज पूर्ण होंगें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १९३/१९६*


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*३. नांम कौ अंग ~ १९३/१९६*
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रांम नांम दांतण३ सरस, रांम नांम मुख धोइ ।
कहि जगजीवन रांम नांम सौं, सब अंग उत्तम होइ ॥१९३॥
(३. दांतण-दतुअन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव राम नाम को अपनी दिनचर्या में इस प्रकार शामिल करें कि वही तुम्हारे दंत धावन का मंत्र बने वही मुख प्रक्षालन मंत्र हो इससे सारी देह उत्तम होती है।
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जगजीवन सारै फिरै, कण लागै हरि नांम ।
रंग रली फूली फली, हरी हुई सब ठांम ॥ १९४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारे संसार में ईश्वर को खोजने व प्रयत्न करने के बाद जहाँ से साधकजन सत्यकण रुप में भी हरि नाम की महता जान पाते हैं तो वहीं से उस रंग में रम कर उसी के अनुरूप हो जाते हैं।
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कहि जगजीवन रांमजी, अंतहकरण१ अगाध ।
मन बुधि चित अहंकार हरि, सुध करि सुमरै रांम ॥१९५॥
(१. अंतहकरण-मन आदि चतुष्टय)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव के अंतकरण में असीमित विषय भरे हैं। किंतु यदि वह अपने मन बुद्धि चित व अहंकार को ईश्वर की और लगा दे व ध्यानपूर्वक राम नाम का स्मरण करे तो कल्याणकारी है।
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लखि तन नौ लखि बस हरि, लखि लखि रसनां नांम ।
कहि जगजीवन हरि भगत, रांम रटै मिलि रांम ॥१९६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह धर्म यही है कि यह शरीर देखे, इसके नो द्वार देखे सब नश्वर है, इसमें सार्थक जिह्वा द्वारा लिया गया हरि नाम ही है। जिसके द्वारा हरि भक्त स्मरण कर राममय हो जाते हैं।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १८९/१९२*

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*३. नांम कौ अंग ~ १८९/१९२*
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रांम कहे ते ऊधरे, रसनां हरि गुन गाइ ।
कहि जगजीवन अलख निवाजै, आप क्रिपा करि आइ ॥१८९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे जीव राम कहने से, जिह्वा से जो हरि गुण गायेगा से तर जायेगा, प्रभु आप कृपालु होगें, तेरा जीवन संवर जायेगा। वे तो स्वंय तेरी रक्षा करेंगे।
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रांम कहै ते ऊधरै, भाव भगति भजि ताहि ।
कहि जगजीवन हेत हरि, मिट जाइ चित की चाहि ॥१९०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम कहने से तर जायेगा। भाव भक्ति से भजले उन्हें, प्रेम करले तू उस रब से, तुझे सब कुछ मिलेगा उन से, तेरी चाह ही मिट जायेगी।
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रांम कहै ते ऊधरे, रांम सरण रहै लीन ।
कहि जगजीवन हेत हरि, ज्यूं बालक बाछा२ मीन ॥१९१॥
(२. बाछा-गौ का बछड़ा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम कहने व राम की शरण में रहने से ही उद्धार है, परमात्मा से उसी प्रकार स्नेह रखें जैसे बालक मां से, बछड़ा गाय से, व मछली जल से करती है।
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रांम नांम हरि हेत स्यौं, कहै सुनै जे कोइ ।
कहि जगजीवन देव मुनि, बह्म बराबर होइ ॥१९२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रामनाम जो जन प्रेम से कहते सुनते हैं वे चाहे देव हो या मुनि हो ब्रह्म सरीखे हो जाते हैं।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १८५/१८८*

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*३. नांम कौ अंग ~ १८५/१८८*
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हरि हरि हरि हरि रांमजी, हरि धुनि मांही मन ।
कहि जगजीवन हरि हरि करतां, सहजै सीझै तन ॥१८५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि हरि कहने से हरि धुन मन में लग जाता है। संत जी कहते हैं हरि कहने से शरीर प्रभु के अनुरूप हो जाता है।
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रांम रिदै सोइ आतमा, बसत बग्य स्रवग्य१ ।
कहि जगजीवन अलख तजि, आंन कथै सो अग्य ॥१८६॥
(१. स्रवग्य-सर्वज्ञ)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिसके हृदय में राम हो वह ही आत्म ज्ञानी जन सब जानते हैं संत कहते हैं कि प्रभु को छोड़कर जो अन्य की बात करे वह ही अज्ञानी है।
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रसनां मांहि रसायण, जे कोई सुमिरै रांम ।
कहि जगजीवन सुधि स्यूं, सरि आवै सब कांम ॥१८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो राम नाम का स्मरण करेंगे उनकी जिह्वा पर राम नाम का रसायन प्रेम भक्ति मिश्रित रस से युक्त हो । संत कहते हैं कि मैं पूरे विश्वास से कहता हूँ कि उस जन के सब कार्य पूर्ण होगेँ।
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रांम कहै ते ऊधरे, जे मन तजे विकार ।
कहि जगजीवन चित मंहि राखै, मूल रकार मकार ॥१८८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यदि मन विकार त्याग दे तो राम कहने से तर जायेगा । संत कहते हैं कि ररंकार व ममंकार की ध्वनि से ध्वनित होने वाले राम शब्द को सदा चित में रखें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १८१/१८४*

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*३. नांम कौ अंग ~ १८१/१८४*
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र रौ म मौ अक्षिर उभै, अविगति अंत सहाइ ।
कहि जगजीवन रांम बिन, दूजा कोई नांहि ॥१८१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म दो अक्षर न जाने जा सकने वाली गति जो अंत समय में जीव की होती है, में सहायक होते हैं और इनके बिना अन्य कोइ सहायक नहीं होता है।
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रांम नांम निज जोग हरि, रांम नांम अभ्यास ।
रांम नांम साधन सकल, सु कहि जगजीवनदास ॥१८२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम नाम का जुड़ाव ही योग है। यही अभ्यास है। ये ही सब साधन है ऐसा संत कहते हैं।
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कहि जगजीवन रैणि दिन, रांम नांम हरि नांम ।
एक रत मांही आतमा, अबिगत राखै रांम ॥१८३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम का नाम व हरि का नाम रात दिन रटते रहो। एक राम में लीन रहने से राम सबका ध्यान हर हाल में रखते हैं।
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हरि हरि हरि हरि अलख निरंजन, हरि हरि हरि हरि रांम ।
कहि जगजीवन हरिहरि हरि हरि, चित मंहि निरमल नांम ॥१८४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आठों पहर हरि हरि कहने से चित में हरि का निर्मल नाम ही रहता है।
(क्रमशः)

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

*३. नांम कौ अंग ~ १७७/१८०*

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*३. नांम कौ अंग ~ १७७/१८०*
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प्रव्रिति मांहि प्रेम रस, निव्रिति मांही नांम ।
कहि जगजीवन प्रव्रिति, रसना हरि हरि रांम ॥१७७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमारी प्रवृत्ति राम नाम कहने की हो और जब हम निवृत्ति को प्राप्त हो तब भी स्मरण हो संत कहते हैं कि हमारी प्रवृत्ति ही राम नाम हरि नाम कहने की बन जाये।
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र रो म मो अक्षिर उभै, मम जीवन मम प्रांन ।
कहि जगजीवन इष्ट हरि, रांम मंत्र हम जांन ॥१७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म दो अक्षर ही जिनसे हमारा इष्ट मंत्र राम बनता है ये ही हमारे प्राण हैं।
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र रौ म मौ अक्षिर उभै, भगति मुकति बैकुंठ ।
कहि जगजीवन तब सहाय हरि, जब जम रोकै कंठ ॥१७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म ये दो अक्षर समवेत भक्ति मुक्ति व हमारे बैकुंठ हैं। ये जब यम हमारे कंठ अवरुद्ध कर देगे तब भी सहायक होंगे।
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र रौ म मौ अक्षिर उभै, अंतर गति प्रकास ।
कहि जगजीवन रोम रोम धुनि, रसनां हरि हरि प्यास ॥१८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि र व म दो अक्षर मन में प्रकाश करते हैं इनके प्रभाव से रोम रोम में राम ध्वनि व जिह्वां हरि नाम का उच्चारण करती रहती है।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १७३/१७६*

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*३. नांम कौ अंग ~ १७३/१७६*
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जे मन सुणैं सोई कहै, हरि घरि नांम प्रकास ।
निज जन रसनां रांमजी, सु कहि जगजीवनदास ॥१७३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जो ये मन सुनता वही कहता है। ईश्वर के तेजोमय प्रकाश पुंज का नाम हरि है, प्रभु के जन अपनी जिह्वा द्वारा उसी हरि व राम शब्द का उच्चारण करते हैं।
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कथा कीरतन भगती हरि, रांम नांम गुन गाइ ।
कहि जगजीवन प्रेम पिव, पारंगति जन थाइ ॥१७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कथा, कीर्तन, प्रभु कि भक्ति ये सब हरि नाम, राम नाम, स्मरण, प्रभु प्रेम का पान करना है जिसे पीकर जन पार उतरते हैं।
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हेत बंध्यौ हरि नांम सौं, ह्रिदै विराजै रांम ।
कहि जगजीवन हरि भगत, नूर पीवै निज ठांम ॥१७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि नाम से प्रेम हो और हृदय में प्रभु विराजते हों ऐसी स्थिति में हरि भक्त अपने स्थान पर ही तेज का आनंद लेते हैं।
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मुख हरि रसनां रांमजी, रांम ह्रिदै प्रकास ।
रांम रांम मुख ऊचरै, सु कहि जगजीवनदास ॥१७६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मुख में हरि नाम व जिह्वा पर राम जी का नाम हो हृदय में राम नाम का प्रकाश हो राम राम शब्द का मुख से उच्चारण होता रहे यही श्रेष्ठ है।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १६९/१७२

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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त Ram Gopal तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १६९/१७२*
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दिवस गिण्या रैणी गिणी, घड़ी महूरत बार ।
कहि जगजीवन रांम रटि, हरि भजि उतरै पार ॥१६९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हमने प्रभु प्रतीक्षा में दिन गिने रातें गिनी घड़ी मुहूर्त बार गणना करते रहे । संत कहते हैं कि इस प्रकार राम कहने से जीव भव से पार उतरते हैं।
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जग भूलै जंजाल मंहि, जुगत न आइ हाथ ।
कहि जगजीवन जागि जन, जसि करि जीवै साथ ॥१७०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार के मायिक जंजाल में भ्रमित होकर हम प्रभु प्राप्ति की युक्ति भूलते हैं। संत कहते हैं कि हे जीव चेत और वो प्रयत्न कर जिससे ईश्वर का साथ बना रहे।
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सुमिरण मांहीं रांमजी, सुरती सोधै सास ।
सोहं हंसा जपि लहै, सु कहि जगजीवनदास॥१७१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम स्मरण से सांसे सधी रहती है वे व्यर्थ नहीं जाती हैं । हे जीव रुपी हंस तुम सोअहम् की अनहद ध्वनि का जाप करने के अभ्यस्त बनो।
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रांम नांम अवरण बरण, तेज पुंज प्रकास ।
सब नांमन मंहिं नांम हरि, सु कहि जगजीवनदास ॥१७२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम शब्द अवर्णनीय है वह वर्णित नहीं हो सकता वह तेजोमय प्रकाश पुंज है। वह सब नामों मे श्रेष्ठ हरि नाम है।
(क्रमशः)


*३. नांम कौ अंग ~ १६५/१६८*

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*३. नांम कौ अंग ~ १६५/१६८*
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रांम रिदा मंहि सुरति मंहि, मन ही हरि हरि होइ ।
कहि जगजीवन रांम बिन, खाली ठौर न कोइ ॥१६५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हृदय में राम का ध्यान करें मन में हरि हरि कहते रहें। राम के बिना कोइ भी स्थान नहीं है वे सर्वत्र व्याप्त हैं।
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परवो५ कंकर चुगै, चकोर चुगै अंगार ।
कहि जगजीवन हरि भगति, नांउ चुगै निज सार ॥१६६॥
(५. परेवी-कबूतर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि कबूतर कंकर चुनकर खाता है चकोर पक्षी आग के अंगारे भक्षण करता है कबूतर जवार व चकोर चन्द्र के भ्रम ऐसा करते हैं। हे जीव तुम सार रुपक प्रभु के नाम का स्मरण करें।
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रांम नांम गुरु जब कह्या, तब अब आगै एह ।
कहि जगजीवन दोइ नहिं, रसना रांम सनेह ॥१६७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब गुरु महाराज ने यह बता दिया कि राम नाम कहना है तो इसके आगे अब और कुछ भी नहीं इस जिह्वा का सारा स्नेह स्वाद अब राम कहना ही होगा।
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रांम रिदै रसनां रटै, रैणि रांम रस रूप ।
कहि जगजीवन ररंकार धुनि, नांम रकार अनूप ॥१६८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हृदय में राम, जिह्वा पर राम व राम रुप रस का आस्वादन करे रंरंकार ध्वनि की धुन जिसके तुल्य कोइ भी नहीं है, का अभ्यास करें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १६१/१६४*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १६१/१६४*
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ग्यांन गजर हरि हरि सबद, आठ घड़ी इक जाम३ ।
कहि जगजीवन हरि भगति, निस बासुर रटि रांम ॥१६१॥
{३. जाम-याम(प्रहर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान रुपी गजर या नगाड़ा हरि हरि शब्द ध्वनित करे और यह क्रम आठों पहर चले। संत कहते हैं कि रात दिन राम राम स्मरण ही प्रभु भक्ति है।
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हरि को भलौ मनावतां, भले भले सब ठांम ।
कहि जगजीवन यहि भली मति, नित उठ रटिये रांम ॥१६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु के हर कृत्य में भला ही है, सब स्थान पर प्रभु भला ही करते हैं, संत कहते हैं कि हर समय प्रभु स्मरण ही श्रेष्ठ बुद्धि है।
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अक्षिर मांहि अनंत गुन, अनभै बांणी नांम ।
कहि जगजीवन जन लहै, राखि रिदा मंहि रांम ॥१६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अक्षर में आनंत गुण है अक्षर ही अनुभव को वाणी बनाते हैं जिसे ग्रहण कर जीव हृदय में रहने वाले राम को जान पाते हैं।
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बरकत४ रहै संसार सौ, रांम कहै मन मांहि ।
कहि जगजीवन धर्या की, छाया व्यापै नांहि ॥१६४॥
(४. बरकत-अतिरिक्त वृद्धि=सौभाग्य)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि संसार में अपेक्षा से अधिक सौभाग्य होता है यदि जीव राम राम रटता रहे, तो उसे पूर्व के कुछ सुख दुख धारण किये की छाया भी व्याप कर दुखी नहीं कर सकती।
(क्रमशः)

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

*३. नांम कौ अंग ~ १५७/१६०*

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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १५७/१६०*
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हरि साहिब हरि जन रिदै, हरि सेवग सब ठांम ।
कहि जगजीवन हरि भगति, हरि मंहि सुमिरै रांम ॥१५७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि हमारे मालिक हैं, साहिब हैं अतः प्रभु के बंदे हृदय में व प्रभु सेवक सभी स्थान पर हैं। संत कहते हैं कि हरि भक्ति वही है जिसमें प्रभु स्मरण करते रहें।
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असत१ रंगै हरि नांउ सों, तुचा२ रंगैं रटि रांम ।
कहि जगजीवन मन रंग्यौ, नख सिख भज हरि नांम ॥१५८॥
१. असत-अस्थि(हड्डी) । २. तुचा-त्वचा ।
संतजगजीवन जी हरि भक्तों का स्वरूप बताते हुये कह रहे है कि भक्तों कि अस्थियाँ तो हरि नाम में रंगी है व त्वचा राम स्मरण से रंगी गयी है। उनका मन व नखशिख पूरी देह हरि भजन से रंगा हुआ है।
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वेदन मांही विस्व धरि, साधन मांही रांम ।
कहि जगजीवन पिछांणैं, अधर धर्या के नांम ॥१५९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सारे वेदों में संसार भर का ज्ञान है सभी साधनों जैसे जप, तप, स्मरण राम को पाने के साधन हैं। और पहचान हरि भक्तों कि यह है कि उनके अधरों पर हरि नाम रहता है।
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साधन मांही ईसवर, परगट पाये रांम ।
कहि जगजीवन विस्व मंहि, चित बिलास क्रित कांम ॥१६०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी साधनों में ईश्वर है जिस से हम राम जी को प्रकट रुप में पा सकते हैं। संत कहते हैं कि संसार के सारे कार्य करें पर ध्यान प्रभु का ही करते रहें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १५३/१५६*

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*३. नांम कौ अंग ~ १५३/१५६*
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रांम रिदै रसनां हरि श्रवणैं, नैंणै बैंनैं रांम ।
कहि जगजीवन रांम भगति कर, प्रेम पिवै भजि नांम ॥१५३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम हृदय में, जिह्वा पर हरि नाम, कान, नेत्र व वचन में सर्वत्र राम हो । संत कहते हैं इस प्रकार रामभक्ति कर सिमरण से प्रेम आनंद का पान करें।
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नांम मिलावै रांम कूं, जे नांम हि मांहि समाइ ।
कहि जगजीवन नांम तहां, रांम बिराजै आइ ॥१५४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सिमरण से प्रभु मिलते हैं वे, उसमें ही समाये हैं जहाँ सिमरण है वहां वे आप विराजते हैं।
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कहि जगजीवन रांम जन, चित मंहि राखै रांम ।
रांम भगती करि ऊधरै, नूर पिवै भजि नांम ॥१५५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु भक्त अपने चित में राम नाम धारण करें रखते हैं वे राम भक्ति कर पार उतरते हैं, व राम भक्ति कर तेज पुंज में पान करते हैं।
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कहि जगजीवन हरि भगति, हरि सों हेत लगाइ ।
रांम नांम मैं मिलि रहै, प्रेम पिवै अरु पाइ ॥१५६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हरि जी की भक्ति हरि जी से प्रेम करके ही करें राम नाम से एकाकार हो कर उस आनंद से स्वयं आनंदित हो व औरों को भी करें।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १४९/१५२*

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*३. नांम कौ अंग ~ १४९/१५२*
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पवन२ सकल हरि हरि करे, मन परि टेरे रांम ।
कहि जगजीवन देह मंहि, तेज पुंज सब ठांम ॥१४९॥
(२. पवन-पाँचों वायु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पंच इन्द्रियों से प्रवाहित पंच वायु पवित्र होकर हर क्षण स्मरण करे, मन से राम राम जितना हो सके रटें फिर इस ही देह के हर स्थान पर ईश्वर की दिव्यता दिखेगी । जैसे हम कहते हैं कि ललाट तेजोमय है, मुख पर तेज है इस प्रकार पूरी देह ही तेजोमय बतायी है।
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तेज पुंज निरवाण पद, त्रिकुटी आगे जांण ।
कहि जगजीवन नांउ रटि, रांम रिदा मंहि आंण ॥१५०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तेज पुंज व निर्वाण पद की प्राप्ति ध्यान, जप व तप से मिलती है। ये तीन साधन हैं। संत कहते हैं कि नाम स्मरण कर हृदय में ईश्वर का ध्यान करें ।
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रांम रिदा मंहि आंणिये, राम रिदा मंहि राखि ।
कहि जगजीवन रांम मिली, रांम रिदै रस चाखि ॥१५१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि राम को हृदय में लाकर रखो अर्थात स्मरण बड़े आग्रह से प्रभु आह्वान कर करें। फिर राम से मिल कर रामानंद रस का स्वाद चखें।
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जे कुछ कहै तो रांम कहै, रांम चिंतवन३ चिंत ।
कहि जगजीवन रांम बिन, रांम उबारै अंत ॥१५२॥
(३. चिंतवन-चिन्तन)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि है जीव जब भी उच्चारण करे तो राम का करे, जब भी चित में कुछ आये तो राम ही आये, संत कहते हैं कि राम कहने से तो पार पाते हैं ही, जो नहीं कहते उन पर भी वे दयालु कृपा करते हैं।
(क्रमशः)

*३. नांम कौ अंग ~ १४५/१४८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त Ram Gopal तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*३. नांम कौ अंग ~ १४५/१४८*
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ज्यों जीयरा तैं अन्न सों, यों जे राचत नांइ ।
कहि जगजीवन नूर का, देत पियाला सांइ ॥१४५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जिस प्रकार जीव अन्न के बिना संतुष्ट नहीं होता, इसी प्रकार प्रभु जी जीव की अध्यात्मिक तुष्टि के लिये उसे प्रेम प्याला देते हैं। जिसके आनंद से वह प्रभु दर्शन का आनंद प्राप्त कर सकता है।
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कहि जगजीवन सम्पदा, हरि सुमिरण हरि नांम ।
विसमरण१ विपदा आंन क्रित, ह्रिदै बिसर जन रांम ॥१४६॥
(१. विसमरण—भूलना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव कि सार्थक सम्पत्ति हरि स्मरण व हरि नाम ही है और प्रभु नाम का विस्मरण विपत्ति का कारक है अतः है जीव अपने हृदय से राम नाम विस्मृत न होने दें ।
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र राजी ब्रह्मा बिष्णु, र राजी हर साध ।
कहि जगजीवन रंरकार हरि, अबिगत अलख अगाध ॥१४७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि रंरकार की ध्वनि से ब्रह्मा विष्णु यानि सृष्टिकर्ता व पालनहार सभी प्रसन्न होते हैं व सभी साधु जन इससे प्रसन्न हैं। क्योंकि इस ध्वनि के द्वारा ही उन न देखे व न जाने जा सकने वाले प्रभु को पाया जा सकता है।
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कहि जगजीवन सबद सुगम, कठिन नांम निज सार ।
ताहि जाणि हरि पिछांणै, नव लहै वरण विचार ॥१४८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि शब्द का कहना आसान है किन्तु उसके अर्थ तक पहुँचना कठिन है। प्रभु तो अर्थ भाव को ही जानते हैं, वे वर्ण विचार या शब्दोँ के चयन पर ध्यान नहीं देते।
(क्रमशः)